सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इकसठवें अध्याय से एक सो पैसठवें अध्याय तक (From the 161 chapter to the 165 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (उलुकदूतागमन पर्व)

एक सौ इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डवों के शिविर में पहुँचकर उलूक का भरी सभा में दुर्योधन का संदेश सुनाना”

   संजय कहते हैं ;- राजन! तदनन्‍तर जुआरी शकुनि का पुत्र उलूक पाण्‍डवों की छावनी में जाकर उनसे मिला और युधिष्ठिर से इस प्रकार बोला। राजन! आप दूत के वचनों का मर्म जानने वाले हैं। दुर्योधन ने जो संदेश दिया है, उसे मैं ज्‍यों-का-त्‍यों दोहरा दूंगा। उसे सुनकर आपको मुझ पर क्रोध नहीं करना चाहिये। 

   युधिष्ठिर ने कहा ;- उलूक! तुम्‍हें तनिक भी भय नहीं है। तुम निश्चिन्‍त होकर लोभी और अदूरदर्शी दुर्योधन का अभिप्राय सुनाओ। 

  संजय कहते हैं ;- तब वहाँ बैठे हुए तेजस्‍वी महात्‍मा पाण्‍डवों, सृजयों, मत्‍स्‍यों, यशस्‍वी श्रीकृष्‍ण तथा पुत्रों सहित द्रुपद और विराट के समीप समस्‍त राजाओं के बीच में उलूक ने यह बात कही। 

  उलूक बोला ;- महाराज युधिष्ठिर! महामना धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन ने कौरव वीरों के समक्ष आपको यह संदेश कहलाया है, इसे सुनिये। तुम जुए में हारे और तुम्‍हारी पत्‍नी द्रौपदी को सभा में लाया गया। इस दशा में अपने को पुरुष मानने वाला प्रत्‍येक मनुष्‍य क्रोध कर सकता है। बारह वर्षों तक तुम राज्‍य से निर्वासित होकर वन में रहे और एक वर्ष तक तुम्‍हें राजा विराट का दास बनकर रहना पड़ा। पाण्‍डुनन्‍दन! तुम अपने अमर्ष को, राज्‍य के अपहरण को, वनवास को और द्रौपदी को दिये गये क्‍लेश को भी याद करके मर्द बनो।

   पाण्‍डुपुत्र! तुम्‍हारे भाई भीमसेन ने उस समय कुछ करने में असमर्थ होने के कारण जो दुर्वचन कहा था, उसे याद करके वे आवें और यदि शक्ति हो तो दु:शासन का रक्‍त पीयें। लोहे के अस्‍त्र-शस्‍त्र को बाहर निकालकर उन्‍हें तैयार करने आदि का कार्य पूरा हो गया है, कुरुक्षेत्र की कीचड़ सूख गयी है, मार्ग बराबर हो गया है और तुम्‍हारे अश्‍व भी खूब पले हुए है; अत: कल सवेरे से ही श्रीकृष्‍ण के साथ आकर युद्ध करो। युद्ध क्षेत्र में भीष्‍म का सामना किये बिना ही तुम क्‍यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो कुन्‍तीनन्‍दन! जैसे कोई अशक्‍त एवं मन्‍दबुद्धि पुरुष गन्‍धमादन पर्वत पर चढ़ने की इच्‍छा करे, उसी प्रकार तुम भी अपने बारे में बड़ी-बड़ी बातें किया करते हो। बातें न बनाओ; पुरुष बनो,पुरुषत्‍व का परिचय दो। 

   पार्थ! अत्‍यन्‍त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानों में श्रेष्‍ठ शल्‍य तथा युद्ध में शचीपति इन्‍द्र के पराक्रमी महाबली द्रोण को युद्ध में जीते बिना तुम यहाँ राज्‍य कैसे लेना चाहते हो। आचार्य द्रोण ब्राह्मदेव और धनुर्वेद दोनों के पारंगत पण्डित हैं। वे युद्ध का मार वहन करने में समर्थ, अक्षोभ्‍य, सेना के मध्‍य में विचरने वाले तथा संग्राम भूमियों से कभी पीछे न हटने वाले है। पार्थ! तुम उन्‍हीं महातेजस्‍वी द्रोण को जो जीतने की इच्‍छा करते हो, वह व्‍यर्थ दु:साहस मात्र है। वायु ने कभी सुमेरू पर्वत को उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया। तुम जैसा मुझसे कहते हो, वैसा ही यदि सम्‍भव हो जाय, तब तो वायु भी सुमेरू पर्वत को उठा ले, स्‍वर्गलोक पृथ्‍वी पर गिर पड़े अथवा युग ही बदल गया। 

   जीवित रहने की इच्‍छा वाला कौन ऐसा हाथी सवार, घुड़सवार अथवा रथी है, जो इन शत्रुमर्दन द्रोण से भिड़कर कुशलपूर्वक अपने घर को लौट सके। भीष्‍म और द्रोण ने जिसे मारने का निश्‍चय कर लिया हो अथवा जो युद्ध में इनके भंयकर अस्‍त्रों से छू गया हो, ऐसा कौन भूतल निवासी जीवित बच सकता है। जैसे देवता स्‍वर्ग की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और दिशाओं के नरेश तथा काम्‍बोज, शक, खश, शाल्‍व, मत्‍स्‍य, कुरु और मध्‍यप्रदेश के सैनिक एवं मलेच्‍छ, पुलिन्‍द, द्रविड़, आन्‍ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेना की रक्षा करते हैं, जो देवताओं की सेना के समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराज की उस समुद्रतुल्‍य सेना को क्‍या तुम कूपमण्‍डूक की भाँति अच्‍छी तरह समझ नहीं पाते। 

   अल्‍पबुद्धि मूढ़ युधिष्ठिर! जिसका वेग युद्धकाल में गंगा के वेग के समान बढ़ जाता है और जिसे पार करना असम्‍भव है, नाना प्रकार के जनसमुदाय से भरी हुई मेरी उस विशाल वाहिनी के साथ तथा गज सेना के बीच में खडे़ हुए मुझ दुर्योधन के साथ भी तुम युद्ध की इच्‍छा कैसे रखते हो। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर उलूक अर्जुन की ओर मुड़ा और तत्‍पश्‍चात उनसे भी इस प्रकार कहने लगा-। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकषष्‍टयधिकशततम के श्लोक 24-43 का हिन्दी अनुवाद)

  उलूक बोला ;- अर्जुन! बातें न बनाकर युद्ध करो। बहुत आत्‍मप्रशंसा क्‍यों करते हो विभिन्‍न प्रकारों से युद्ध करने पर ही राज्‍य की सिद्धि हो सकती है। झूठी आत्‍मप्रशंसा करने से इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। धनंजय! यदि जगत में अपनी झूठी प्रशंसा करने से ही अभीष्‍ट कार्य की सिद्धि हो जाती, तब तो सब लोग सिद्धकाम हो जाते; क्‍योंकि बातें बनाने में कौन दरिद्र और दुर्बल होगा? 

   मैं जानता हूँ कि तुम्‍हारे सहायक वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्‍हारे पास चार हाथ लंबा गाण्डीव धनुष है तथा मुझे यह भी मालूम है कि तुम्‍हारे जैसा दूसरा कोई योद्धा नहीं है; यह सब जानकर भी मैं तुम्‍हारे इस राज्‍य का अपहरण करता हूँ। कोई भी मनुष्‍य नाम मात्र के धर्म द्वारा सिद्धि नहीं पाता, केवल विधाता ही मानसिक संकल्‍प मात्र से सबको अपने अनुकूल और अधीन कर लेता है। 

    तुम रोते-बिलखते रह गये और मैंने तेरह वर्षों तक तुम्‍हारा राज्‍य भोगा। अब भाइयों सहित तुम्‍हारा वध करके आगे भी मैं ही इस राज्‍य का शासन करूंगा। दास अर्जुन! जब तुम जुए के दांव पर जीत लिये गये, उस समय तुम्‍हारा गाण्‍डीव धनुष कहाँ था, भीमसेन का बल भी उस समय कहाँ चला गया था? गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्‍डीवधारी अर्जुन से भी उस समय सती साध्‍वी द्रौपदी का सहारा लिये बिना तुम लोगों का दास भाव से उद्धार न हो सका। 

   तुम सब लोग अमनुष्‍योचित दीन दशा को प्राप्‍त हो दास भाव में स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्‍णा ने ही दासता के संकट में पड़े हुए तुम सब लोगों को छुड़ाया था। मैंने जो उन दिनों तुम लोगों को हिजड़ा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्‍योंकि अज्ञातवास के समय विराटनगर में अर्जुन को अपने सिर पर स्त्रियों की भाँति वेणी धारण करनी पड़ी। कुन्‍तीकुमार! तुम्‍हारे भाई भीमसेन को राजा विराट के रसोई घर में रसोइये के काम में ही संलग्‍न रहकर जो भारी श्रम उठाना पड़ा, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ है। 

    इसी प्रकार सदा से ही क्षत्रियों ने अपने विरोधी क्षत्रिय को दण्‍ड दिया है। इसीलिये तुम्‍हें भी सिर पर वेणी रखाकर और हिजड़ों का वेष बनाकर राजा विराट की कन्‍या को नचाने का काम करना पड़ा। फाल्‍गुन! श्रीकृष्‍ण के या तुम्‍हारे भय से मैं राज्‍य नहीं लौटाऊँगा। तुम श्रीकृष्‍ण के साथ आकर युद्ध करो। माया, इन्‍द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्राम भूमि में हथियार उठाये हुए वीर के क्रोध और सिंहनाद को ही बढ़ाती हैं मुझे भयभीत नहीं कर सकती हैं। हजारों श्रीकृष्‍ण और सैंकडों अर्जुन भी अमोघ बाणों वाले मुझ वीर के पास आकर दसों दिशाओं में भाग जायेंगे। 

   तुम भीष्‍म के साथ युद्ध करो या सिर से पहाड़ फोड़ो या सैनिकों के अत्‍यन्‍त गहरे महासागर को दोनों बाँहों से तैरकर पार करो। हमारे सैन्‍यरूपी महासमुद्र में कृपाचार्य महामत्‍स्‍य के समान हैं, विविंशति उसे भीतर रहने वाला महान सर्प है, बृहद्बल उसके भीतर उठने वाले महान ज्‍वार के समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्‍स्‍य के स्‍थान में है। भीष्‍म उसके असीम वेग है, द्रोणाचार्य रूपी ग्राहके होने से इस सैन्‍य सागर में प्रवेश करना अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है, कर्ण और शल्‍य क्रमश: मत्स्य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्‍बोजराज सुदक्षिण इसमें बड़बानल हैं। 

   दु:शासन उसके तीव्र प्रवाह के समान है, शल और शल्‍य मत्‍स्‍य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकर के समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरु मित्र उसकी गम्‍भीरता है, दुर्मर्षण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। भाँति-भाँति के शस्‍त्र इस सैन्‍यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होने के साथ ही खूब बढ़ा हुआ है। इसमें प्रवेश करने पर अधिक श्रम के कारण जब तुम्‍हारी चेतना नष्‍ट हो जायेगी, तुम्‍हारे समस्‍त बन्‍धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्‍हारे मन को बढ़ा संताप होगा। पार्थ! जैसे अपवित्र मनुष्‍य का मन स्‍वर्ग की ओर से निवृत्‍त हो जाता है क्‍यों‍कि उसके लिये स्‍वर्ग की प्राप्ति असम्‍भव है, उसी प्रकार तुम्‍हारा मन भी उस समय इस पृथ्‍वी पर राज्‍यशासन करने से निराश होकर निवृत्‍त जायेगा। अर्जुन! शान्‍त होकर बैठ जाओ। राज्‍य तुम्‍हारे लिये अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। जिसने तपस्‍या नहीं की है, वह जैसे स्‍वर्ग पाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्‍य की अभिलाषा की है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत उलूकदूतागमनपर्व उलूकवाक्‍यविषयक एक सौ इकसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (उलुकदूतागमन पर्व)

एक सौ बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डव पक्ष की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्‍तर"

   संजय कहते हैं ;- राजन! उलूक ने विषधर सर्प के समान क्रोध में भरे हुए अर्जुन को अपने वाग्‍बाणों से और भी पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। 

   उसकी बात सुनकर पाण्‍डवों को बड़ा रोष हुआ। एक तो वे पहले से ही अधिक क्रुद्ध थे, दूसरे जुआरी शकुनि के बेटे ने भी उनका बड़ा तिरस्‍कार किया। वे आसनों से उठकर खडे़ हो गये और अपनी भुजाओं को इस प्रकार हिलाने लगे, मानो प्रहार करने के लिये उद्यत हों। वे विषैले सर्पों के समान अत्‍यन्‍त कुपित हो एक-दूसरे की ओर देखने लगे। भीमसेन ने फुफकारते हुए विषधर नाग की भाँति लम्‍बी साँसें खींचते हुए सिर नीचे किये लाल नेत्रों से भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखा। वायुपुत्र भीम को क्रोध से अत्‍यन्‍त पीड़ित और आहत देख दशाईकुलभूषण श्रीकृष्‍ण ने उलूक से मुस्‍कराते हुए से कहा- 

  श्री कृष्ण बोले ;- जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक! तू शीघ्र लौट जा और दुर्योधन से कह दे कि पाण्‍डवों ने तुम्‍हारा संदेश सुना और उसके अर्थ को समझकर स्‍वीकार किया। युद्ध के विषय में जैसा तुम्‍हारा मत है, वैसा ही हो, नृपश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाबाहु केशव ने पुन: परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर की ओर देखा। फिर उलूक ने भी समस्‍त सृंजयवंशी क्षत्रिय समुदाय, यश्‍स्‍वी श्रीकृष्‍ण तथा पुत्रों सहित द्रुपद और विराट के समीप सम्‍पूर्ण राजाओं की मण्‍डली में शेष बातें कहीं। उसने विषधर सर्प के सदृश कुपित हुए अर्जुन को पुन: अपने बाग्‍बाणों से पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सब बातें कह सुनायीं। साथ ही श्रीकृष्‍ण आदि अन्‍य सब लोगों से कहने के लिये भी उसने जो-जो संदेश दिये थे, उन्‍हें भी उन सबको यथावत रूप से सुना दिया। 

  उलूक के कहे हुए उस पापपूर्ण दारुण वचन को सुनकर कुन्‍तीपुत्र अर्जुन को बड़ा क्षोभ हुआ। उन्‍होंने हाथ से ललाट का पसीना पोंछा नरेश्‍वर! अर्जुन को उस अवस्‍था में देखकर राजाओं की वह समिति तथा पाण्‍डव महारथी सहन न कर सके। राजन! महात्‍मा अर्जुन तथा श्रीकृष्‍ण के प्रति आक्षेपपूर्ण वचन सुनकर वे पुरुषसिंह शूरवीर क्रोध से जल उठे। धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, महारथी सात्‍यकि, पाँच भाई केकयराजकुमार, राजा धृष्‍टकेतु, पराक्रमी भीमसेन तथा महारथी नकुल-सहदेव सबके सब क्रोध से लाल आंखे किये अपने आसनों से उछलकर खडे़ हो गये और अंगद, पारिहार्य तथा केयूरों से विभूषित एवं लाल चन्‍दन से चर्चित अपनी सुन्‍दर भुजाओं को थमाकर दाँतों पर दाँत रगड़ते हुए ओठों के दोनों कोने चाटने लगे। 

   उनकी आकृति और भाव को जानकर कुन्‍तीपुत्र वृकोदर बड़े वेग से उठे और क्रोध से जलते हुए के समान सहसा आँखे फाड़-फाड़कर देखते, कटकटाते और हाथ से हाथ रगड़ते हुए उलूक से इस प्रकार बोले- 

   भीमसेन बोले ;- ओ मूर्ख! दुर्योधन ने तुझसे जो कुछ कहा है, वह तेरा वचन हमने सुन लिया। मानो हम असमर्थ हों और तू हमें प्रोत्‍साहन देने के निमित्‍त यह सब कुछ कह रहा हो। मूर्ख उलूक! अब तू मेरी कही हुई दु:सह बातें सुन और समस्‍त राजाओं की मण्‍डली में सूतपुत्र कर्ण और अपने दुरात्‍मा पिता शकुनि के सामने दुर्योधन को सुना देना- 

   दुराचारी दुर्योधन! हम लोगों ने सदा अपने बड़े भाई को प्रसन्‍न रखने की इच्‍छा से तेरे बहुत से अत्‍याचारों को चुपचाप सह लिया है; परंतु तू इन बातों को अधिक महत्‍व नहीं दे रहा है। बुद्धिमान धर्मराज ने कौरव कुल के हित की इच्‍छा से शान्ति चाहने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण को कौरवों के पास भेजा था। परंतु तू निश्‍चय ही काल से प्रेरित हो यमलोक में जाना चाहता है इसलिये संधि की बात नहीं मान सका। अच्‍छा, हमारे साथ युद्ध में चल। कल निश्‍चय ही युद्ध होगा। 

   पापात्‍मन! मैंने भी जो तेरे और तेरे भाइयों के वध की प्रतिज्ञा की है, वह उसी रूप में पूर्ण होगी। इस विषय में तुझे कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 26-50 का हिन्दी अनुवाद)

   वरुणालय समुद्र शीघ्र ही अपनी सीमा का उल्‍लंघन कर जाये और पर्वत जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर जायें, परंतु मेरी कही हुई बात झूठी नहीं हो सकती। दुर्बुद्धे! तेरी सहायता के लिये यमराज, कुबेर अथवा भगवान रुद्र ही क्‍यों न आ जायं, पाण्‍डव अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सब कार्य अवश्‍य करेंगे। मैं अपनी इच्‍छा के अनुसार दु:शासन का रक्‍त अवश्‍य पीऊँगा। उस समय साक्षात भीष्‍म को भी आगे करके जो कोई भी क्षत्रिय क्रोधपूर्वक मेरे ऊपर धावा करेगा, उसे उसी क्षण यमलोक पहुँचा दूँगा। 

   मैंने क्षत्रियों की सभा में यह बात कही है, जो अवश्‍य सत्‍य होगी। यह मैं अपनी सौगन्‍ध खाकर कहता हूँ। भीमसेन का वचन सुनकर सहदेव का भी अमर्ष जाग उठा। तब उन्‍होंने भी क्रोध से आँखे लाल करके यह बात कही- 

  सहदेव बोले ;- ओ पापी! मैं इन वीर सैनिकों की सभा में गर्वीले शूरवीर के योग्‍य वचन बोल रहा हूँ। तू इसे सुन ले और अपने पिता के पास जाकर सुना दे। यदि धृतराष्‍ट्र का तेरे साथ सम्‍बन्‍ध न होता, तो कभी कौरवों के साथ हम लोगों की फूट नहीं होती। तू सम्‍पूर्ण जगत तथा धृतराष्‍ट्र कुल के विनाश के लिये पापाचारी मूर्तिमान वैर पुरुष होकर उत्‍पन्‍न हुआ है। तू अपने कुल का भी नाश करने वाला है। 

   उलूक! तेरा पापात्‍मा पिता जन्‍म से ही हम लोगों के प्रति प्रतिदिन क्रूरतापूर्ण अहितकर बर्ताव करना चाहता है। इसलिये मैं शकुनि में देखते देखते सबसे पहले तेरा वध करके सम्‍पूर्ण धनुर्धरों के सामने शकुनि को भी मार डालूँगा और इस प्रकार अत्‍यन्‍त दुर्गम शत्रुता से पार हो जाऊँगा। भीमसेन और सहदेव दोनों के वचन सुनकर अर्जुन ने भीमसेन से मुस्‍कराते हुए कहा,

  अर्जुन ने कहा ;- आर्य भीम! जिनका आपके साथ वैर ठन गया है, वे घर में बैठकर सुख का अनुभव करने वाले मूर्ख कौरव काल के पाश में बँध गये हैं अर्थात उनका जीवन नहीं के बराबर है। पुरुषोत्‍तम! आपको इस उलूक से कोई कठोर बात नहीं कहनी चाहिये। बेचारे दूतों का क्‍या अपराध है। भयंकर पराक्रमी भीमसेन से ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धृष्टद्युम्न वीर सुह्रदों से कहा- 

   अर्जुन बोले ;- बन्‍धुओ! आप लोगों ने उस पापी दुर्योधन की बात सुनी है न इसमें उसके द्वारा विशेषत: मेरी और भगवान श्रीकृष्ण की निन्‍दा की गयी है। आप लोग हमारे हित की कामना रखते हैं, इसलिये इस निन्‍दा को सुनकर कुपित हो उठे हैं। परंतु भगवान वासुदेव के प्रभाव और आप लोगों के प्रयत्‍न से मैं इस समस्‍त भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण क्षत्रियों को भी कुछ नहीं गिनता हूँ। यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं इस बात का उत्‍तर उलूक को दे दूँ, जिसे यह दुर्योधन को सुना देगा।    अथवा आपकी सम्‍मति हो, तो कल सवेरे सेना के मुहाने पर उसकी इन शेखी भरी बातों का ठीक-ठीक उत्‍तर गाण्डीव धनुष द्वारा दे दूँगा; क्‍योंकि केवल बातों में उत्‍तर देने वाले तो नपुंसक होते हैं। अर्जुन की इस प्रवचन शैली से सभी श्रेष्‍ठ भूपाल आश्‍चर्य चकित हो उठे और वे सबके सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। तदनन्‍तर धर्मराज ने उन समस्‍त राजाओं को उनकी अवस्‍था और प्रतिष्‍ठा के अनुसार अनुनय-विनय करके शान्‍त किया और दुर्योधन को देने योग्‍य जो संदेश था, उसे इस प्रकार कहा- 

   धर्मराज युधिष्ठिर बोले ;- उलू‍क! कोई भी श्रेष्‍ठ राजा शान्‍त रहकर अपनी अवज्ञा सहन नहीं कर सकता। मैंने तुम्‍हारी बात ध्‍यान देकर सुनी है। अब मैं तुम्‍हें उत्‍तर देता हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय! इस प्रकार युधिष्ठिर ने उलूक से पहले मधुर वचन बोलकर फिर ओजस्‍वी शब्‍दों में उत्‍तर दिया। उलूक के मुख से पहले दुर्योधन के पूर्वोक्‍त संदेश को सुनकर युधिष्ठिर रोष से अत्यंत लाल हुए नेत्रों द्वारा देखते हुए विषधर सर्प के समान उच्‍छवास लेने लगे। फिर ओठों के दोनों कोनों को चाटते हुए वे श्रीकृष्‍ण तथा विशाल भुजा ऊपर उठा धूर्त जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक से मुस्‍कराते हुए से बोले-। 

महाभारत: उद्योग पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद

   युधिष्ठिर बोले ;- जुआरी श‍कुनि के पुत्र तात उलूक! तुम जाओ और वैर के मूर्तिमान स्‍वरूप उस कृतघ्‍न, दुबुर्द्धि एवं कुलांगार दुर्योधन से इस प्रकार कह दो- पापी दुर्योधन! तू पाण्‍डवों के साथ सदा कुटिल बर्ताव कराता आ रहा है। पापात्‍मन! जो किसी से भयभीत न होकर अपने वचनों का पालन करता है और अपने ही बाहुबल से पराक्रम प्रकट करके शत्रुओं को युद्ध के लिये बुलाता है, वही पुरुष क्षत्रिय है। 

   कुलाधम! तू पापी है! देख, क्षत्रिय होकर और हम लोगों को युद्ध के लिये बुलाकर ऐसे लोगों को आगे करके रणभूमि में न आना, जो हमारे माननीय वृद्ध गुरुजन और स्‍नेहास्‍पद बालक हों। कुरुनन्‍दन! तू अपने तथा भरणीय सेवक वर्ग के बल ओर पराक्रम का आश्रय लेकर ही कुन्‍ती के पुत्रों का युद्ध के लिये आव्‍हान कर। सब प्रकार से क्षत्रियत्‍व का परिचय दे। जो स्‍वयं सामना करने में असमर्थ होने के कारण दूसरों के पराक्रम का भरोसा करके शत्रुओं को युद्ध के लिये ललकारता है, उसका यह कार्य उसकी नपुंसकता का ही सूचक है। 

   तू तो दूसरों के ही बल से अपने आपको बहुत अधिक शक्तिशाली मानता है; परंतु ऐसा असमर्थ होकर तू हमारे सामने गर्जना कैसे कर रहा है। 

    तत्‍पश्‍चात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उलूक! इसके बाद तू दुर्योधन से मेरी यह बात भी कह देना- दुर्मते! अब कल ही तू रणभूमि में आ जा और अपने पुरुषत्‍व का परिचय दे। 

   मूढ़! तू जो यह समझता है कि कुन्‍ती के पुत्रों ने श्रीकृष्‍ण से सारथी बनने का अनुरोध किया है, अत: वे युद्ध नहीं करेंगे। सम्‍भवत: इसीलिये तू मुझसे डर नहीं रहा है। परंतु याद रख, मैं चाहूं, तो इन सम्‍पूर्ण नरेशों को अपनी क्रोधाग्नि से उसी प्रकार भस्‍म कर सकता हूं, जैसे आग घास-फूस को जला डालती है। किंतु युद्ध के अन्‍त तक मुझे ऐसा करने का अवसर न मिले; यही मेरी इच्‍छा है। राजा युधिष्ठिर के अनुरोध से मैं जितेन्द्रिय महात्‍मा अर्जुन के युद्ध करते समय उनके सा‍रथि का काम अवश्‍य करूंगा। अब तू यदि तीनों लोकों से ऊपर उड़ जाये अथवा धरती में समा जाय, तो भी, तू जहाँ-जहाँ जायेगा, वहाँ-वहाँ कल प्रात:काल अर्जुन का रथ पहुँचा हुआ देखेगा। 

     इसके सिवा, तू जो भीमसेन की कही हुई बातों को व्‍यर्थ मानने लगा है, यह ठीक नहीं है। तू आज ही निश्चित रूप से समझ ले कि भीमसेन ने दु:शासन का रक्‍त पी लिया। तू पाण्‍डवों के विपरीत कटुभाषण करता जा रहा है, परंतु अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव तुझे कुछ भी नहीं समझते हैं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत उलूकदूताभिगमनपर्वमे श्रीकृष्‍ण आदिके वचनविषयक एक सौ बासठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (उलुकदूतागमन पर्व)

एक सौ तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“पाँचों पाण्‍डवों, विराट, द्रुपद, शिखण्‍डी और धृष्टद्युम्न का संदेश लेकर उलूक का लौटना और उलूक की बात सुनकर दुर्योधन का सेना को युद्ध के लिये तैयार होने का आदेश देना”

   संजय कहते हैं ;- भरतश्रेष्‍ठ! दुर्योधन के पूर्वोक्‍त वचन को सुनकर महायशस्‍वी अर्जुन ने क्रोध से लाल आँखें करके शकुनि कुमार उलूक की ओर देखा। तत्‍पश्‍चात अपनी विशाल भुजा को ऊपर उठाकर श्रीकृष्‍ण की ओर देखते हुए उन्‍होंने कहा- 

  अर्जुन ने कहा ;- जो अपने ही बल-पराक्रम का भरोसा करके शत्रुओं को ललकारता है और उनके साथ निर्भय होकर युद्ध करता है, वही पुरुष कहलाता है। जो दूसरे के पराक्रम का आश्रय ले शत्रुओं को युद्ध के लिये बुलाता है, वह क्षत्रबन्‍धु असमर्थ होने के कारण लोक में पुरुषाधम कहा गया है। मूढ़! तू दूसरों के पराक्रम से ही अपने को बल-पराक्रम से सम्‍पन्‍न मानता है और स्‍वयं कायर होकर दूसरों पर आक्षेप करना चाहता है । जो समस्‍त राजाओं वृद्ध, सबके प्रति हित बुद्धि रखने वाले, जितेन्द्रिय तथा महाज्ञानी हैं, उन्‍हीं पितामह को तू मरण के लिये रण की दीक्षा दिलाकर अपनी बहादुरी की बातें करता है।

   खोटी बुद्धि वाले कुलांगार! तेरा मनोभाव हमने समझ लिया है। तू जानता है कि पाण्‍डव लोग दयावश गंगानन्‍दन भीष्‍म का वध नहीं करेंगे। धृतराष्‍ट्र! तू जिनके पराक्रम का आश्रय लेकर बड़ी-बड़ी बातें बनाता है, उन पितामह भीष्‍म को ही मैं सबसे पहले तेरे समस्‍त धनुर्धरों के देखते-देखते मार डालूंगा। उलूक! तू भरतवंशियों के यहाँ जाकर धृतराष्‍ट्र दुर्योधन से कह दे कि सव्‍यसाची अर्जुन ने ‘बहुत अच्‍छा’ कह कर तेरी चुनौति स्‍वीकार कर ली है। आज की रात बीतते ही युद्ध आरम्‍भ हो जायेगा। 

   सत्‍यप्रतिज्ञ और महान शक्तिशाली भीष्‍मजी ने कौरव सैनिकों के बीच में उनका हर्ष बढ़ाते हुए जो यह कहा था कि मैं सृंजय वीरों की सेना का तथा शाल्‍व देश के सैनिकों का भी संहार कर डालूंगा। इन सबके मारने का भार मेरे ही ऊपर है। दुर्योधन! मैं द्रोणाचार्य के बिना भी सम्‍पूर्ण जगत का संहार कर सकता हूँ; अत: तुम्‍हें पाण्‍डवों से कोई भय नहीं है। भीष्‍म के इस वचन से ही तूने अपने मन में यह धारणा बना ली है कि राज्‍य मुझे ही प्राप्‍त होगा और पाण्‍डव भारी विपत्ति में पड़ जायेंगें। ‘इसीलिये तू घमंड से भरकर अपने ऊपर आये हुए वर्तमान संकट को देख पाता है, अत: मैं सबसे पहले तेरे सेना समूह में प्रवेश करके कुरुकुल के वृद्ध पुरुष भीष्‍म का ही तेरी आँखों के सामने वध करूंगा। 

   तू सूर्योदय के समय सेना को सुसज्जित करके ध्‍वज और रथ से सम्‍पन्‍न हो सब ओर द्रष्टि रखते हुए सत्‍यप्रतिज्ञ भीष्‍म की रक्षा कर। मैं तेरे सैनिकों के देखते-देखते तेरे लिये आश्रय बने हुए इन भीष्‍मजी को बाणों द्वारा मारकर रथ से नीचे गिरा दूंगा। कल सवेरे पितामह को मेरे द्वारा चलाये हुए बाणों के समूह से व्‍याप्‍त देखकर दुर्योधन को अपनी बढ़-बढ़कर कही हुई बातों का परिणाम ज्ञात होगा। 

   सुयोधन! क्रोध में भरे हुए भीमसेन ने उस क्षुद्र विचार वाले, अधर्मज्ञ, नित्‍य वैरी, पापबुद्धि और क्रूरकर्मा तेरे भाई दु:शासन के प्रति जो बात कही है, उस प्रतिज्ञा को तू शीघ्र ही सत्‍य हुई देखेगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-41 का हिन्दी अनुवाद)

   दुर्योधन! तू अभिमान, दर्प, क्रोध, कटुभाषण, निष्‍ठुरता, अहंकार, आत्‍मप्रशंसा, क्रूरता, तीक्ष्‍णता, धर्मविद्वेष, अधर्म, अतिवाद, वृद्ध पुरुषों के अपमान तथा टेढ़ी आँखों से देखने का और अपने समस्‍त अन्‍याय एवं अत्‍याचारों का घोर फल शीघ्र ही देखेगा। मूढ़ नारधम! भगवान श्रीकृष्ण के साथ मेरे कुपित होने पर तू किस कारण से जीवन तथा राज्‍य की आशा करता है। 

  भीष्‍म, द्रोणाचार्य तथा सूतपुत्र कर्ण के मारे जाने पर तू अपने जीवन, राज्‍य तथा पुत्रों की रक्षा की ओर से निराश हो जायेगा। सुयोधन! तू अपने भाइयों और पुत्रों का मरण सुनकर और भीमसेन के हाथ से स्‍वयं भी मारा जाकर अपने साथी को याद करेगा। शकुनि पुत्र! मैं दूसरी बार प्रतिज्ञा करना नहीं जानता। तुझसे सच्‍ची बात कहता हूँ। यह सब कुछ सत्‍य होकर रहेगा। तत्‍पश्‍चात युधिष्ठिर ने भी धूर्त जुआरी के पुत्र उलूक से इस प्रकार कहा,

  युधिष्ठिर ने कहा ;- वत्‍स उलूक! तू दुर्योधन के पास जाकर मेरी यह बात कहना- 

   सुयोधन! तुझे अपने आचरण के अनुसार ही मेरे आचरण को नहीं समझना चाहिये। मैं दोनों के बर्ताव का तथा सत्‍य और झूठ का भी अन्‍तर समझता हूँ। मैं तो कीड़ों और चीटियों को भी कष्‍ट पहुँचाना नहीं चा‍हता; फिर अपने भाई-बन्‍धुओं अथवा कुटुम्‍बीजनों के वध की कामना किसी प्रकार भी कैसे कर सकता हूँ। परंतु तेरा मन लोभ और तृष्‍णा में डूबा हुआ है। तू मूर्खता के कारण अपनी झूठी प्रशंसा करता है और भगवान श्रीकृष्‍ण के हितकारण वचन को भी नहीं मान रहा है। अब इस समय अधिक कहने से क्‍या लाभ तू अपने भाई-बन्‍धुओं के साथ आकर युद्ध कर। उलूक! तू मेरा अप्रिय करने वाले दुर्योधन से कहना- तेरा संदेश सुना और उसका अभिप्राय समझ लिया। तेरी जैसी इच्‍छा है, वैसा ही हो। 

तदनन्‍तर भीमसेन ने पुन: राजकुमार उलूक से यह बात कही,- 

   भीमसेन ने कहा ;- उलूक! तू दुर्बुद्धि, पापात्‍मा, शठ, कपटी, पापी तथा दुराचारी दुर्योधन से मेरी यह बात भी कह देना। नराधम! तुझे या तो मरकर गीध के पेट में निवास करना चाहिये या हस्तिनापुर में जाकर छिप जाना चाहिये। मैंने सभा में जो प्रतिज्ञा की है, उसे अवश्‍य सत्‍य कर दिखाऊंगा। यह बात मैं सत्‍य की ही शपथ खाकर तुझसे कहता हूँ। मैं युद्ध में दु:शासन को मारकर उसका रक्‍त पीऊँगा और तेरे सारे भाइयों को मारकर तेरी जाँघें भी तोड़कर ही रहूंगा। सुयोधन! मैं धृतराष्‍ट्र के सभी पुत्रों की मृत्‍यु हूँ। 

  इसी प्रकार सारे राजकुमारों की मृत्‍यु का कारण अभिमन्‍यु होगा, इसमें संशय नहीं है। मैं अपने पराक्रम द्वारा तुझे अवश्‍य संतुष्‍ट करूंगा। तू मेरी एक बात और सुन ले। जनमेजय! तत्‍पश्‍चात नकुल ने भी इस प्रकार कहा,

   नकुल ने कहा ;- उलूक! तू करुकुल कलंक धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन से कहना, तेरी कही हुई सारी बातें मैंने यथार्थरूप से सुन लीं। कौरव! तू मुझे जैसा उपदेश दे रहा है, उसके अनुसार ही मैं सब कुछ करूंगा। 

राजन तदनन्‍तर सहदेव ने भी यह सार्थक वचन कहा,- 

   सहदेव ने कहा ;- महाराज दुर्योधन! आज जो तेरी बुद्धि है, वह व्‍यर्थ हो जायेगी। इस समय हमारे इस महान क्‍लेश का जो तू हर्षोत्‍फुल्‍ल होकर वर्णन कर रहा है, इसका फल यह होगा कि तू अपने पुत्र, कुटुम्‍बी तथा बन्‍धुजनों सहित शोक में डूब जायेगा। 

   तदनन्‍तर बूढ़े राजा विराट और द्रुपद ने उलूक से इस प्रकार कहा,-

  राजा विराट ने कहा ;- उलूक! तू दुर्योधन से कहना, राजन! हम दोनों का विचार सदा यही रहता है कि हम साधु पुरुषों के दास हो जायें। वे दोनों हम विराट और द्रुपद दास हैं या अदास; इसका निर्णय युद्ध में जिसका जैसा पुरुषार्थ होगा, उसे देखकर किया जायेगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद)

 तत्‍पश्‍चात शिखण्डी ने उलूक से इस प्रकार कहा- 

शिखण्डी ने कहा ;- उलूक! सदा पाप में ही तत्‍पर रहने वाले अपने राजा के पास जाकर तू इस प्रकार कहना- राजन! तुम संग्राम में मुझे भयानक कर्म करते हुए देखना। जिसके पराक्रम का भरोसा करके तुम युद्ध में अपनी विजय हुई मानते हो, तुम्‍हारे उस पितामह को मैं रथ से मार गिराऊँगा। निश्‍चय ही महामना विधाता ने भीष्‍म के वध के लिये ही मेरी सृष्टि की है। अत: मैं समस्‍त धनुर्धरों के देखते-देखते भीष्‍म को मार डालूंगा। इसके बाद धृष्टद्युम्न ने भी कितबकुमार उलूक से यह बात कही-

  धृष्टद्युम्न ने कहा ;-  उलूक! तू राजपुत्र दुर्योधन से मेरी यह बात कह देना, मैं द्रोणाचार्य को उनके गणों और बन्‍धु-बान्‍धवों सहित मार डालूंगा। मुझे अपने पूर्वजों के महान चरित्र का अनुकरण अवश्‍य करना चाहिये। अत: मैं युद्ध में वह पराक्रम कर दिखाऊंगा, जैसा दूसरा कोई नहीं करेगा। तदनन्‍तर धर्मराज युधिष्ठिर ने करुणावश फिर यह महत्‍वपूर्ण बात कही,

  युधिष्ठिर बोले ;-- राजन! मैं किसी प्रकार भी अपने कुटुम्बियों का वध नहीं करना चा‍हता। किंतु दुर्बुद्धे! यह सब कुछ तेरे ही दोष से प्राप्‍त हुआ है। तात उलूक! तेरी इच्‍छा हो, तो शीघ्र चला जा। अथवा तेरा कल्‍याण हो, तू यहीं रह; क्‍योंकि हम भी तेरे भाई-बन्‍धु ही हैं। जनमेजय! तदनन्‍तर उलूक धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर से विदा ले जहाँ राजा दुर्योधन था, वहीं चला गया। वहाँ आकर उलूक ने अमर्षशील दुर्योधन को अर्जुन का सारा संदेश ज्‍यों-का-त्‍यों सुना दिया। इसी प्रकार उसने भगवान श्रीकृष्ण, भीमसेन और धर्मराज युधिष्ठिर की पुरुषार्थ भरी बातों का भी वर्णन किया। 

   भारत! फिर उसने नकुल, सहदेव, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, भगवान श्रीकृष्‍ण तथा अर्जुन के भी सार वचनों को ज्‍यों–का-त्‍यों सुना दिया। भारत! उलूक का वह कथन सुनकर भरतश्रेष्‍ठ दुर्योधन ने दुशासन, कर्ण तथा शकुनि से कहा- 

   दुर्योधन ने कहा ;- बन्‍धुओं! राजाओं तथा मित्रों की सेनाओं को आज्ञा दे दो, जिससे समस्‍त सैनिक कल सूर्योदय से पूर्व ही तैयार हो कर युद्ध के मैदानों में डट जायें। तत्‍पश्‍चात कर्ण के भेजे हुए दूत बड़ी उतावली के साथ रथों, ऊँट-ऊँटनियों तथा अत्‍यन्‍त वेगशाली अच्‍छे-अच्‍छे घोड़ों पर सवार होकर तीव्र गति से सबको राजा की यह आज्ञा सुनाने लगे कि कल सूर्योदय से पहले ही युद्ध के लिये तैयार हो जाना चाहिये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत उलूक दूतागमन पर्व में उलूक के लौट जाने से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ तिरेसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (उलुकदूतागमन पर्व)

एक सौ चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डव सेना का युद्ध के मैदान में जाना और धृष्टद्युम्न के द्वारा योद्धाओं की अपने-अपने योग्‍य विपक्षियों के साथ युद्ध करने के लिये नियुक्ति”

   संजय कहते हैं ;- राजन! इधर उलूक की बातें सुनकर कुन्‍तीनन्‍दन युधिष्ठिर ने भी धृष्टद्युम्न के नेतृत्‍व में अपनी सेना का युद्ध के लिये प्रस्‍थान कराया। अर्जुन और भीमसेन आदि महारथी उसकी रक्षा करते थे। वह दुर्गम सेना धृष्टद्युम्न के अधीन थी और प्रशान्‍त एवं स्थिर समुद्र के समान जान पड़ती थी। उसके आगे-आगे रणदुर्मदर पांचाल राजकुमार महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न चल रहे थे, जो सदा आचार्य द्रोण से युद्ध करने की इच्‍छा रखते थे। वे सारी सेना को अपने पीछे खींचे लिये जाते थे। 

   उन्‍होंने जिस वीर का जैसा बल और उत्‍साह था, उसका विचार करते हुए अपने रथियों को योग्‍य प्रतिपक्षी के साथ युद्ध करने का आदेश दिया। अर्जुन को सूतपुत्र कर्ण का और भीमसेन को दुर्योधन का सामना करने के लिये नियुक्‍त किया। धृष्टकेतु को शल्‍य से, उत्तमौजा को कृपाचार्य से, नकुल को अश्वत्थामा से, शैवय को कृतवर्मा से, वृष्णिवंशी सात्‍यकि को सिन्‍धुराज जयद्रथ से और शिखण्‍डी को भीष्‍म से मुख्‍यत: युद्ध करने का आदेश दिया। 

   सहदेव को शकुनि का, चेकितान को शल का और द्रौपदी के पांचों त्रिगतों का सामना करने के लिये नियत कर दिया। कर्णपुत्र वृषसेन तथा शेष राजाओं के साथ युद्ध करने का काम सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु को सौंपा, क्‍योंकि वे उसे युद्ध में अर्जुन से भी अधि‍क शक्तिशाली समझते थे। इस प्रकार समस्‍त योद्धाओं का पृथक-पृथक और एक साथ विभाजन करके सेनापतियों के पति प्रज्‍वलित अग्नि के समान कान्तिमान महाधनुर्धर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य को अपने हिस्‍से में रखा। 

   उनके मन में युद्ध के दृढ़ निश्‍चय था। मेधावी धृष्टद्यम्न ने पाण्‍डवों की पूर्वोक्‍त सेनाओं का विधिपूर्वक व्‍यूहरचना करके उन सबको युद्ध के लिये नियुक्‍त किया। तत्‍पश्‍चात ये पाण्‍डवों की विजय के लिये संनद्ध होकर समरांगण में खडे़ हुए। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत उलूकदूतागमन पर्व में सेनापति के द्वारा सैनिकों की युद्ध में नियुक्ति विषयक एक सौ चौंसठवा अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (रथातिरथसंख्या पर्व)

एक सौ पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के पूछने पर भीष्‍म का कौरव पक्ष के रथियों और अति‍रथियों का परिचय देना”

  धृतराष्‍ट्र ने पूछा ;- संजय! जब अर्जुन ने युद्धभूमि में भीष्‍म का वध करने की प्रतिज्ञा कर ली, तब दुर्योधन आदि मेरे मूर्ख पुत्रों ने क्‍या किया। अर्जुन सुदृढ धनुष धारण करते हैं। इसके सिवा भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं; अत: मैं रणभूमि में अपने पिता गंगानन्‍दन भीष्‍म को उनके द्वारा मारा गया ही मानता हूँ। अर्जुन की उस प्रतिज्ञा को सुनकर अमित बुद्धिमान योद्धाओं में श्रेष्‍ठ महाधनुर्धर भीष्‍म ने क्‍या कहा? 

    कौरव कुल का भार वहन करने वाले परम बुद्धिमान और पराक्रमी गंगा पुत्र भीष्‍म ने सेनापति का पद प्राप्‍त करने के पश्‍चात युद्ध के लिये कौनसी चेष्टा की? 

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर संजय ने अमित तेजस्‍वी कुरुवृद्ध भीष्‍म ने जैसा कहा था, वह सब कुछ राजा धृतराष्‍ट्र को बताया। 

   संजय बोले ;- नरेश्‍वर! सेनापति का पद प्राप्‍त करके शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म ने दुर्योधन का हर्ष बढ़ाते हुए से उससे यह बात कही- 

  भीष्म जी बोले ;- राजन! मैं हाथ में शक्ति धारण करने वाले देव सेनापति कुमार कार्तिकेय को नमस्‍कार करके अब तुम्‍हारी सेना का अधिपति होऊँगा, इसमें संशय नहीं है। मुझे सेना सम्‍बन्‍धी प्रत्‍येक कर्म का ज्ञान है। मैं नाना प्रकार के व्‍यूहों के निर्माण में भी कुशल हूँ। तुम्‍हारी सेना में जो वेतन भोगी अथवा वेतन न लेने वाले मित्र सेना के सैनिक हैं, उन सबसे यथायोग्‍य काम करा लेने की भी कला मुझे ज्ञात है। महाराज! मैं युद्ध के लिये यात्रा करने, तथा विपक्षी के चलाये हुए अस्‍त्रों का प्रतीकार करने के विषय में जैसा बृहस्पति जानते हैं, उसी प्रकार सम्‍पूर्ण आवश्‍यक बातों की विशेष जानकारी रखता हूँ। 

   मुझ में देवता, गन्‍धर्व और मनुष्‍य- तीनों की ही व्‍यूहरचना का ज्ञान है। उनके द्वारा मैं पाण्‍डवों को मोहित कर दूंगा। अत: तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जानी चाहिए। राजन! मैं तुम्‍हारी सेना की रक्षा करता हुआ शास्‍त्रीय विधान के अनुसार यथार्थरूप से पाण्‍डवों के साथ युद्ध करूंगा। अत: तुम्‍हारी मानसिक चिन्‍ता दूर हो जाये। 

   दुर्योधन बोला ;- महाबाहु गंगानन्‍दन! मैं आपसे सत्‍य कहता हूं, मुझे असुरों से भी कभी भय नहीं होता है। फिर जब आप जैसे दुर्धर्ष वीर हमारे सेनापति के पद पर स्थित हैं तथा युद्ध का अभिनन्‍दन करने वाले पुरुषसिंह द्रोणाचार्य जैसे योद्धा मेरे लिये युद्ध भूमि में उपस्थि‍त हैं, तब तो मुझे भय हो ही कैसे सकता है? कुरुश्रेष्‍ठ! जब आप दोनों पुरुष प्रवर वीर मेरी विजय के लिये यहाँ खड़े हैं, तब तो अवश्‍य ही मेरे लिये देवताओं का राज्‍य भी दुर्लभ नहीं है। 

   कुरुनन्‍दन! आप शत्रुओं के तथा अपने पक्ष के रथियों और अतिरथियों की संख्‍या को पूर्णरूप से जानते हैं, अत: मैं इन सब राजाओं के साथ आपके मुंह से इस विषय को सुनना चाहता हूँ। 

   भीष्‍म बोले ;- राजेन्‍द्र गान्‍धारीनन्‍दन! तुम अपनी सेना के रथियों की संख्‍या श्रवण करो। भूपाल! तुम्‍हारी सेना में जो रथी और अतिर‍थी हैं, उन सबका वर्णन करता हूँ। तुम्‍हारी सेना में रथियों की संख्‍या अनेक सहस्र, लक्ष और अर्बुदों (करोड़ों) तक पहुँच जाती है। तथापि उनमें जो प्रधान-प्रधान हैं, उनके नाम मुझसे सुनो। सबसे पहले अपने दुशासन आदि सौ सहोदर भाइयों के साथ तुम्‍हीं बहुत बड़े उदार रथी हो। 

   तुम सब लोग अस्‍त्रविधा के ज्ञाता तथा छेदन-भेदनमें कुशल हो। रथ पर और हाथी की पीठ पर बैठकर भी युद्ध कर सकते हो। गदा, प्राप्‍त तथा ढाल-तलवार के प्रयोग में भी कुशल हो। तुम लोग रथ के संचालन और अस्‍त्रों के प्रहार में भी निपुण हो। अस्‍त्रविद्या के ज्ञाता तथा भार उठाने में भी समर्थ हो। धनुष बाण की विद्या में तो तुम लोग द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के सुयोग्‍य शिष्‍य हो। धृतराष्‍ट्र के ये सभी मनस्‍वी पुत्र पाण्‍डवों के साथ वैर बांधे हुए हैं। अत: युद्ध में उन्‍मत्‍त होकर लड़ने वाले पांचाल योद्धाओं को ये समरभूमि मे मार डालेंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-33 का हिन्दी अनुवाद)

   भरतश्रेष्‍ठ! मैं तो तुम्‍हारी सम्‍पूर्ण सेना का प्रधान सेनापति ही हूँ। अत: पाण्‍डवों को कष्‍ट देकर शत्रु सेना के सैनिकों का संहार करूंगा। मैं अपने मुंह से अपने ही गुणों का बखान करना उचित नहीं समझता। तुम तो मुझे जानते हो। शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ भोजवंशी कृतवर्मा तुम्‍हारे दल में अतिरथी वीर हैं। ये युद्ध में तुम्‍हारे अभीष्‍ट अर्थ की सिद्धि करेंगे। इसमें संशय नहीं है। बड़े-बड़े शस्‍त्रवेत्‍ता भी इन्‍हें परास्‍त नहीं कर सकते। इनके आयुध अत्‍यन्‍त दृढ़ हैं और ये दूर के लक्ष्‍य को भी मार गिराने में समर्थ हैं। जैसे देवराज इंद्र दानवों का संहार करते हैं, उसी प्रकार ये भी पाण्‍डवों की सेना का विनाश करेंगे। महाधनुर्धर मद्रराज शल्‍य को भी मैं अतिरथी मानता हूं, जो प्रत्‍येक युद्ध में सदा भगवान श्रीकृष्ण के साथ स्‍पर्धा रखते हैं। वे अपने सगे भानजों नकुल-सहदेव को छोड़कर अन्‍य सभी पाण्‍डव महारथियों से समरभूमि में युद्ध करेंगे। तुम्‍हारी सेना के इन वीरशिरोमणि शल्‍य को अतिरथी ही समझता हूँ। ये समुद्र की लहरों के समान अपने बाणों द्वारा शत्रु पक्षके सैनिकों को डुबाते हुए से युद्ध करेंगे।

   सोमदेव के पुत्र महाधनुर्धर भूरिश्रवा भी अस्‍त्रविधा के पण्डित और तुम्‍हारे हितैषी सुदृढ हैं। ये रथियों के यूथपतियों के भी यूथपति हैं, अत:तुम्‍हारे शत्रुओं की सेना का महान संहार करेंगे। महाराज! सिन्‍धुराज जयद्रथ को मैं दो रथियों के बराबर समझता हूँ। ये बड़े पराक्रमी तथा रथी योद्धाओं में श्रेष्‍ठ हैं। राजन! ये भी समरागंण में पाण्‍डवों के साथ युद्ध करेंगे। नरेश्‍वर! द्रौपदीहरण के समय पाण्‍डवों ने इन्‍हें बहुत कष्‍ट पहुँचाया था। उस महान क्‍लश को याद करके शत्रु वीरों का नाश करने वाले जयद्रथ अवश्‍य युद्ध करेंगे। 

   राजन! उस समय इन्‍होंने कठोर तपस्‍या करके युद्ध में पाण्‍डवों से मुठभेड कर सकने का अत्‍यन्‍त दुर्लभ वर प्राप्‍त किया था। तात! ये रथियों में श्रेष्‍ठ जयद्रथ युद्ध में उस पुराने वैर को याद करके अपने दुश्‍मन प्राणियों की भी बाजी लगाकर पाण्‍डवों के साथ संग्राम करेंगे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अन्‍तर्गत रथातिरथसंख्‍यान पर्वमें एक सौ पैंसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें