सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो छप्पनवें अध्याय से एक सो साठवें अध्याय तक (From the 156 chapter to the 160 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के द्वारा भीष्मजीका प्रधान सेनापतिके पद पर अभिषेक और कुरुक्षेत्र में पहुँचकर शिविर-निर्माण”

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन समस्‍त राजाओं के साथ शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म के पास जाकर हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला- 

    दुर्योधन बोला ;- ‘पितामह! कितनी ही बड़ी सेना क्‍यों न हो? किसी योग्‍य सेनापति के बिना युद्ध में जाकर चींटियों की पंक्ति के समान छिन्‍न-भिन्‍न हो जाती है। ‘दो पुरुषों की बुद्धि कभी समान नहीं होती। यदि दोनों ओर योग्‍य सेनापति हों तो उनका शौर्य एक-दूसरे की होड़ में बढ़ता है। ‘महामते! सुना जाता है कि समस्‍त ब्राह्मणों ने अपनी कुशमयी ध्‍वजा फहराते हुए पहले भी अमित तेजस्‍वी हैहयवंश के क्षत्रियों पर आक्रमण किया था। ‘पितामह! उस समय ब्राह्मणों के साथ वैश्‍यों और शूद्रों ने भी उन पर धावा किया था। एक ओर तीनों वर्ण के लोग थे और दूसरी ओर चुने हुए श्रेष्‍ठ क्षत्रिय। 

   ‘तदनन्‍तर जब युद्ध आरम्‍भ हुआ, तब तीनों वर्णों के लोग बारंबार पीठ दिखाकर भागने लगे। यद्यपि इनकी सेना अधिक थी तो भी क्षत्रियों ने एकमत होकर उन पर विजय पायी। ‘पितामह! तब उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से ही पूछा हमारी पराजय का क्‍या कारण है? उस समय धर्मज्ञ क्षत्रियों ने उनसे यथार्थ कारण बता दिया।

   वे बोले ;- हम लोग एक परम बुद्धिमान पुरुष को सेनापति बनाकर युद्ध में उसी का आदेश सुनते और मानते हैं। परंतु आप सब लोग पृथक-पृथक अपनी ही बुद्धि के अधीन हो मनमाना बर्ताव करते हैं। यह सुनकर उन ब्राह्मणों ने एक शूरवीर एवं नीतिनिपुण ब्राह्म्ण को सेनापति बनाया और क्षत्रियों पर विजय प्राप्‍त की। इस प्रकार जो लोग किसी हितैषी, पापरहित तथा युद्धकुशल शूरवीर को सेनापति बना लेते हैं, वे संग्राम में शत्रुओं पर अवश्‍य विजय पाते हैं। आप सदा मेरा हित चाहने वाले तथा नीति में शुक्राचार्य के समान हैं। आपको आपकी इच्‍छा के बिना कोई मार नहीं सकता। आप सदा धर्म में ही स्थित रहते हैं, अत: हमारे प्रधान सेनापति हो जाइये। जैसे किरणों वाले तेजस्‍वी पदर्थों के सूर्य, वृक्ष और औषधियों के चन्‍द्रमा, यक्षों के कुबेर, देवताओं के इन्‍द्र, पर्वतों के मेरू, पक्षियों के गरूड़, समस्‍त देवयोनियों के कार्तिकेय और वसुओं के अग्निदेव अधिपति एवं संरक्षक हैं उसी प्रकार आप हमारी समस्‍त सेनाओं के अधिनायक और संरक्षक हो जाइये। इन्‍द्र के द्वारा सुरक्षित देवताओं की भाँति आपके संरक्षण में रहकर हम लोग निश्‍चय ही देवगणों के लिये भी अजेय हो जायेंगे। 

    जैसे कार्तिकेय देवताओं के आगे-आगे चलते हैं, वैसे ही आप हमारे अगुआ हों। जैसे बछड़े साँड़ के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार हम आपका अनुसरण करेंगे। 

  भीष्‍म ने कहा ;- भारत! तुम जैसा कहते हो वह ठीक है, पर मेरे लिये जैसा तुम हो, वैसे ही पाण्‍डव हैं। नरेश्‍वर! मैं पाण्‍डवों को उनके पूछने पर अवश्‍य ही हित की बात बताऊंगा और तुम्‍हारे लिये युद्ध करूंगा। ऐसी ही मैंने प्रतिज्ञा की है। मैं इस भूतलपर नरश्रेष्‍ठ कुन्‍ती पुत्र अर्जुन के सिवा दूसरे किसी भी योद्धा को अपने समान नहीं देखता हूँ। महाबुद्धिमान पाण्‍डुकुमार अर्जुन अनेक दिव्‍यास्‍त्रों का ज्ञान रखते हैं; परंतु वे मेरे सामने आकर प्रकट रूप में कभी युद्ध नहीं कर सकते। अर्जुन की ही भाँति मैं भी यदि चाहूँ तो अपने शस्‍त्रों के बल से देवता, मनुष्‍य, असुर तथा राक्षसों सहित इस सम्‍पूर्ण जगत को क्षणभर में निर्जीव बना दूँ। 

    परंतु जनेश्‍वर! मैं पाण्‍डु के पुत्रों की किसी तरह हत्‍या नहीं करूंगा। कुरुनन्‍दन! यदि पाण्‍डव इस युद्ध में मुझे पहले ही नहीं मार डालेंगे तो मैं अपने अस्‍त्रों के प्रयोग द्वारा प्रतिदिन उनके पक्ष के दस हजार योद्धाओं का वध करता रहूंगा, मैं इस प्रकार इनकी सेना का संहार करूंगा। राजन! मैं अपनी इच्‍छा के अनुसार एक शर्त पर तुम्‍हारा सेनापति होऊँगा। उसके बदले दूसरी शर्त नहीं मानूगां। उस शर्त को तुम मुझसे यहाँ सुनलो। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद)

   पृथ्वीपते! या तो पहले कर्ण ही युद्ध कर ले या मैं ही युद्ध करूँ; क्‍योंकि यह सूतपुत्र सदा युद्ध में मुझसे अत्‍यन्‍त स्‍पर्धा रखता है।

  कर्ण बोला ;- राजन! मैं गंगानन्‍दन भीष्‍म के जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूंगा। इनके मारे जाने पर ही गाण्‍डीवधारी अर्जुन के साथ लडूँगा। 

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर धृतराष्‍ट्र के पुत्र दुर्योधन ने प्रचुर दक्षिणा देने वाले भीष्‍मजी का प्रधान सेनापति के पद पर विधिपूर्वक अभिषेक किया। अभिषेक हो जाने पर उनकी बड़ी


शोभा हुई। उस समय वीरों के सिंहनाद तथा वाहनों के नाना प्रकार के शब्‍द सब ओर गूँज उठे। बिना बादल के ही आकाश से रक्‍त की वर्षा होने लगी, जिसकी कीच जम गयी, हाथियों के चिंघाड़ने के साथ ही बिजली की गड़गड़ाहट के समान भयंकर शब्‍द होने लगे। धरती डोलने लगी। इन सब उत्‍पातों ने प्रकट होकर समस्‍त योद्धाओं के मानसिक उत्‍साह को दबा दिया, अशुभ आकाशवाणी सुनायी देने लगी, आकाश से उल्‍काएँ गिरने लगीं, भय की सूचना देने वाली सियारिनियाँ जोर-जोर से अमंगलजनक शब्‍द करने लगीं, 

    नरेश्‍वर! राजा दुर्योधन ने जब गंगानन्‍दन भीष्‍म को सेनापति के पद पर अभिषिक्‍त किया, उसी समय ये सैकड़ों भयानक उत्‍पात प्रकट हुए। इस प्रकार शत्रुसेना को पीड़ित करने वाले भीष्‍म को सेनापति बनाकर दुर्योधन ने श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों से स्‍वस्तिवाचन कराया और उन्‍हें गायों तथा सुवर्ण मुद्राओं की भूरि-भूरि दक्षिणाएँ दीं। उस समय ब्राह्मणों ने विजय सूचक आशीर्वादों द्वारा राजा का अभयुदय मनाया और वह सैनिकों से घिरकर भीष्‍मजी को आगे करके भाइयों के साथ हस्तिनापुर से बाहर निकला तथा विशाल तम्‍बू-शामियानों के साथ कुरुक्षेत्र को गया। जनमेजय! कर्ण के साथ कुरुक्षेत्र में जाकर दुर्योधन ने एक समतल प्रदेश में शिविर के लिये भूमि को नपवाया। 

    ऊसर रहित मनोहर प्रदेश में जहाँ घास और ईंधन की बहुतायत थी, दुर्योधन की सेना का शिविर हस्तिनापुर की भाँति सुशोभित होने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्याणपर्व में भीष्‍मका सेनापतिविषयक एक सौछप्‍प्‍नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

 “युधिष्ठिरके द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक, यदुवंशियों सहित बलरामजीका आगमन तथा पाण्डवोंसे विदा लेकर उनका तीर्थयात्रा के लिये प्रस्थान”

  जनमेजय ने पूछा ;- भगवान! भरतवंशियों के पितामह गंगानन्‍दन महात्‍मा भीष्‍म सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ थे। समस्‍त राजाओं में ध्‍वज के समान उनका बहुत ऊँचा स्‍थान था। वे बुद्धि में बृहस्पिति, क्षमा में पृथ्‍वी, गम्‍भीरता में समुद्र, स्थिरता में हिमवान उदारता में प्रजापति और तेजी में भगवान सूर्य के समान थे। वे अपने बाणों की वर्षा द्वारा देवराज इंद्र के समान शत्रुओं का विध्‍वंस करने वाले थे। उस समय जो अत्‍यन्‍त भंयकर तथा रोमांचकारी रणयज्ञ आरम्‍भ हुआ था, उसमें उन्‍होंने जब दीर्घकाल के लिये दीक्षा ले ली, तब इस महाबाहु युधिष्ठिर ने क्‍या कहा? भीमसेन तथा अर्जुन ने भी उसके बारे में क्‍या कहा? अथवा भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मत किस प्रकार व्‍यक्‍त किया? 

   वैशम्पायनजी ने कहा ;- राजन! आप धर्म के विषय में कुशल, वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ, परम बुद्धिमान युधिष्ठिर ने उस समय सम्‍पूर्ण भाइयों तथा सनातन भगवान वासुदेव को बुलाकर सान्‍त्‍वनापूर्वक इस प्रकार कहा, तुम सब लोग सब ओर घूम-फिरकर अपनी सेनाओं का निरीक्षण करो और कवच आदि से सुसज्जित होकर खड़े हो जाओ। सबसे पहले पितामह भीष्‍म से तुम्‍हारा युद्ध होगा। इस‍लिये अपनी सात अक्षौहिणी सेनाओं के सेनापतियों की देखभाल कर लो। 

   भगवान श्रीकृष्‍ण बोले ;- भरतकुलभूषण! ऐसा अवसर उपस्थित होने पर आपको जैसी बात कहनी चाहिये, वैसी ही यह अर्थयुक्‍त बात आपने कही है। महाबाहो! मुझे आपकी बात ठीक लगती है; अत: इस समय जो आवश्‍यक कर्तव्‍य है, उसका पालन कीजिये। अपनी सेना के सात सेनापतियों को निश्चित कर लीजिये। 

   वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर राजा द्रुपद, विराट, सात्‍यकि, पाञ्चालवीर शिखण्डी और मगधराज सहदेव- इन सात युद्धाभिलाषी महाभाग वीरों को युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सेनापति के पद पर अभिषिक्‍त कर दिया और धृष्टद्युम्न को सम्‍पूर्ण सेनाओं का प्रधान सेनापति बना दिया, जो द्रोणाचार्य का अन्‍त करने के लिये प्रज्‍वलित अग्नि से उत्‍पन्‍न हुए थे। तदनन्‍तर उन्‍होंने निद्राविजयी वीर धनंजय को उन समस्‍त महामना वीर सेनापतियों का भी अधिपति बना दिया। अर्जुन के भी नेता और उनके घोड़ों के भी नियन्‍ता हुए बलरामजी के छोटे भाई परम बुद्धिमान श्रीमान भगवान श्रीकृष्‍ण,

   राजन! तदनन्‍तर उस महान संहारकारी युद्ध को अत्‍यन्‍त सनिकट और प्राय: उपस्थित हुआ देख नीले रंग का रेशमी वस्‍त्र पहने कैलाश शिखर के समान गौरवर्ण वाले हलधारी महाबाहु श्रीमान बलरामजी ने पाण्‍डवों के शिविर में सिंह के समान लीलापूर्वक गति से प्रवेश किया। उनके नेत्रों के कोने मद से अरुण हो रहे थे। उनके साथ अक्रूर आदि यदुवंशी तथा गद, साम्ब, उद्भव, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण तथा आहुकपुत्र आदि प्रमुख वृष्णिवंशी भी जो सिंह और व्‍याघ्रों के समान अत्‍यन्‍त उत्‍कट बलशाली थे, उन सबसे सुरक्षित बलरामजी वैसे ही सुशोभित हुए, मानो मरुद्रणों के साथ महेन्‍द्र शोभा पा रहे हों।

   उन्‍हें देखते ही धर्मराज युधिष्ठिर, महातेजस्‍वी श्रीकृष्ण, भयंकर कर्म करने वाले कुन्‍ती पुत्र भीमसेन तथा अन्‍य जो कोई भी राजा वहाँ विद्यमान थे, वे सब-के-सब उठकर खड़े हो गये। हलायुध बलरामजी को आया देख सबने उनका समादर किया। तदनन्‍तर पाण्‍डुनन्‍दन राजा युधिष्ठिर ने अपने हाथ से उनके हाथ का स्‍पर्श किया। 

   श्रीकृष्‍ण आदि सब लोगों ने उन्‍हें प्रणाम किया। तत्‍पश्‍चात बूढ़े राजा विराट और द्रुपद को प्रणाम करके शत्रुदमन बलराम युधिष्ठिर के साथ बैठे। फिर उन सब राजाओं के चारों ओर बैठ जाने पर रोहिणी नन्‍दन बलराम ने भगवान श्रीकृष्‍ण की ओर देखते हुए कहा- 

   बलराम जी बोले ;- जान पड़ता है यह महाभयंकर और दारुण नरसंहार होगा ही। प्रारम्‍भ के इस विधान को मैं अटल मानता हूँ। अब इसे हटाया नहीं जा सकता। ‘इस युद्ध से पार हुए आप सब सुहृदों को मैं अक्षत शरीर से युक्‍त और नीरोग देखूँगा। ऐसा मेरा विश्‍वास है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तञ्चाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 27-35 का हिन्दी अनुवाद)

   इसमें संदेह नहीं कि यहाँ जो-जो क्षत्रिय नरेश एकत्र हुए हैं, उन


सबको काल ने अपना ग्रास बनाने के लिये पका दिया है। महान जनसंहार होने वाला है। इसमें रक्त ओर मांस की कीच जम जायगी। मैंने एकान्‍त में श्रीकृष्‍ण से बार-बार कहा था कि मधुसूदन! अपने सभी सम्‍‍बन्धियों के प्रति एक-सा बर्ताव करो; क्‍योंकि हमारे लिये जैसे पाण्‍डव हैं, वैसा ही राजा दुर्योधन है। उसकी भी सहायता करो। वह बार-बार अपने यहाँ चक्‍कर लगाता है। परंतु युधिष्ठिर! तुम्‍हारे लिये ही मधुसुदन श्रीकृष्‍ण ने मेरी उस बात को नहीं माना है। ये अर्जुन को देखकर सब प्रकार से उसी पर निछावर हो रहे हैं। 

    मेरा निश्चित विश्‍वास है कि इस युद्ध में पाण्‍डवों की अवश्‍य विजय होगी। भारत! श्रीकृष्‍ण का भी ऐसा दृढ़ संकल्‍प है। मैं तो श्रीकृष्‍ण के बिना इस सम्‍पूर्ण जगत की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता; अत: ये केशव जो कुछ करना चाहते है, मैं उसी का अनुसरण करता हूँ। भीमसेन और दुर्योधन ये दोनों ही वीर मेरे‍ शिष्‍य एवं गदा युद्ध में कुशल हैं; अत: मैं इन दोनों पर एक-सा स्‍नेह रखता हूँ। इसलिये मैं सरस्‍वती नदी के तटवर्ती तीर्थों का सेवन करने के लिये जाऊँगा। क्‍योंकि मैं नष्‍ट होते हुए कुरुवंशियों को उस अवस्‍था में देखकर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकूँगा ।

   ऐसा कहकर महाबाहु बलरामजी पाण्‍डवों से विदा ले मधुसूदन श्रीकृष्‍ण को संतुष्‍ट करके तीर्थ या‍त्रा के लिये चले गये।

(इस प्रकार श्रीमाहभारत उद्यागपर्व के अनतर्गत सैन्‍यनिर्वाणपर्व में बलरामजी के तीर्थयात्रा के लिये जानेसे सम्‍बन्‍ध रखनेवाला एक सौ सत्‍तावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“रुक्मीका सहायता देनेके लिये आना; परंतु पाण्डव और कौरव दोनों पक्षों के द्वारा कोरा उत्तर पाकर लौट जाना”

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी समय अति यशस्‍वी दाक्षिणात्‍य देश के अधि‍पति भोजवंशी तथा इन्‍द्र के सखा हिरण्‍यरोमा नाम वाले संकल्‍पों के स्‍वामी महामना भीष्मकका सगा पुत्र, सम्‍पूर्ण दिशाओं में विख्‍यात रुक्मी, पाण्‍डवों के पास आया। जिसने गन्‍धामादन निवासी किं पुरुष प्रवर द्रुमका शिष्‍य होकर चारों पादों से युक्‍त सम्‍पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्‍त की थी। जिस महाबाहु ने गाण्डीव धनुष के तेज के समान ही तेजस्‍वी विजय नामक धनुष इन्‍द्र देवता से प्राप्‍त किया था। वह दिव्‍य लक्ष्‍णों से सम्‍पन्न धनुष शांरग धनुष की समानता करता था। 

   द्युलोक में विचरने वाले देवताओं के ये तीन ही धनुष दिव्‍य माने गये हैं। उनमें से गाण्डीव धनुष वरुण का, विजयदेवराज इन्‍द्र का तथा शांरग नामक दिव्‍य तेजस्‍वी धनुष भगवान विष्‍णु का बताया गया है। शत्रुसेना को भयभीत करने वाले उस शांरग धनुष को भगवान श्रीकृष्ण ने धारण किया और खाण्‍डवदाह के समय इन्‍द्रकुमार अर्जुन ने साक्षात अग्निदेव से गाण्‍डीव धनुष प्राप्‍त किया था। महातेजस्‍वी रुक्‍मी ने द्रुम से विजय नामक धनुष पाया था। भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपने तेज और बल से मुर दैत्‍य के पाशों का उच्‍छेद करके भूमि पुत्र नरकासुर को जीतकर जब उसके यहाँ से अदिति के मणिमय कुण्‍डल रत्‍नों को अपने अधिकार में कर लिया, उसी समय उन्‍हें शारंग नामक उत्‍तम धनुष भी प्राप्‍त हुआ था। रुक्‍मी मेघ की गर्जना के समान भयानक टंकार करने वाले विजय नामक धनुष को पाकर सम्‍पूर्ण जगत को भयभीत-सा करता हुआ पाण्‍डवों के यहाँ आया। 

   यह वही वीर रुक्‍मी था, जो अपने बाहुल्‍य के घमंड में आकर पहले परम बुद्धिमान भगवान श्रीक्रष्‍ण के द्वारा किये गये रुक्मिणी के अपहरण को नहीं सह सका था। वह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ था। उसने यह प्रतिज्ञा करके कि मैं वृष्णिवंशी श्रीकृष्‍ण को मारे बिना अपने नगर को नहीं लौटूंगा, उनका पीछा किया था। उस समय उसके साथ विचित्र आयुधों और कवचों से सुशोभित, दूर तक के लक्ष्‍य को मार गिराने में समर्थ तथा बढी हुई गंगा के समान विशाल चतुरंगिणी सेना थी। राजन! योगेश्‍वर भगवान श्रीकृष्‍ण के पास पहुँचकर उनसे पराजित होने के कारण लज्जित हो वह पुन: कुण्डिनपुर को नहीं लौटा। 

   भगवान श्रीकृष्‍ण ने जहाँ युद्ध में शत्रुवीरों का हनन करने वाले रुक्‍मी को हराया था, वहीं रुक्‍मी ने भोजकट नामक उत्‍तम नगर बसाया। राजन प्रचुर हाथी-घोड़ों वाली विशाल सेना से सम्‍पन्‍न वह भोजकट नामक नगर सम्‍पूर्ण भूमण्‍डल में विख्‍यात है। महापराक्रमी भोजराम रुक्मी एक अक्षौहिणी विशाल सेना से घिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक पाण्‍डवों के पास आया। उसने कवच, धनुष, दस्‍ताने, खंड्ग और तरकस धारण किये सूर्य के समान तेजस्‍वी ध्‍वज के साथ पाण्‍डवों की विशाल सेना में प्रवेश किया। वह वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण का प्रिय करने की इच्‍छा से आया था। पाण्‍डवों को उसके आगमन की सूचना दी गयी, तब राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और उसका यथायोग्‍य आदर-सत्‍कार किया। पाण्‍डवों ने रुक्‍मी का विधिपूर्वक आदर-सत्‍कार करके उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। रुक्‍मी ने भी उन सबको प्रेमपूर्वक अपना कर सैनिकों सहित विश्राम किया। 

   तदनन्‍तर वीरों के बीच में बैठकर उसने कुन्‍तीकुमार अर्जुन से कहा- ‘पाण्‍डुनन्‍दन! यदि तुम डरे हुए हो तो मैं युद्ध में तुम्‍हारी सहायता के लिये आ पहुँचा हूँ। मैं इस महायुद्ध में तुम्‍हारी वह सहायता करूँगा, जो तुम्‍हारे शत्रुओं के लिय असहय हो उठेगी। इस जगत में मेरे समान पराक्रमी दूसरा कोई पुरुष नहीं है। पाण्‍डुकुमार! तुम शत्रुओं का जो भाग मुझे सौंप दोगे, मैं समरभूमि में उसका संहार कर डालूँगा।

   ‘मेरे हिस्‍से में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा वीरवर भीष्‍म एवं कर्ण ही क्‍यों न हो, किसी को जीवित नहीं छोडूंगा। अथवा यहाँ पधारे हुए ये सब राजा चुपचाप खड़े रहें। मैं अकेला ही समरभूमियों में तुम्‍हारे सारे शत्रुओं का वध करके तुम्‍हें पृथ्‍वी का राज्‍य अर्पित कर दूंगा ।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-40 का हिन्दी अनुवाद)

   धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान श्रीकृष्ण के समीप अन्‍य सब राजाओं के सुनते हुए रुक्मी के ऐसा कहने पर परमबुद्धिमान कुन्‍ती पुत्र अर्जुन ने वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखते हुए मित्रभाव से हँसकर कहा- 

  अर्जुन बोले ;- ‘वीर! मैं कौरवों के कुल में उत्‍पन्‍न हुआ हूँ। आचार्य द्रोण को अपना गुरु कहता हूँ और स्‍वयं उनका शिष्‍य कहलाता हूँ। इसके सिवा साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण हमारे सहायक हैं और मैं अपने हाथ में गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। ऐसी स्थिति में मैं अपने-आपको डरा हुआ कैसे कह सकता हूँ? ‘वीरवर! कौरवों की घोष यात्रा के समय जब मैंने महाबली गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय कौन-सा मित्र मेरी सहायता के लिये आया था। ‘खाण्‍डववन में देवताओं और दानवों से परिपूर्ण भंयकर युद्ध में जब मैं अपने प्रति‍पक्षियों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा कौन सहायक था? ‘जब निवात कवच तथा कालकेय नामक दानवों के साथ छिड़े हुए युद्ध में अकेला ही लड़ रहा था, उस समय मेरी सहायता के लिये कौन आया था? ‘इसी प्रकार विराटनगर में जब कौरवों के साथ होने वाले संग्राम में मैं अकेला ही बहुत-से वीरों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा सहायक कौन था ? ‘मैंने युद्ध में सफलता के लिये रुद्र, इंद्र, यम, कुबेर, वरुण, अगिन, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्‍ण की आराधना की है। मैं तेजस्‍वी, दृढ़ एवं दिव्‍य गाण्‍डीव धनुष धारण करता हूँ। मेरे पास अक्षय बाणों से भरे हुए तरकस मौजूद हैं और दिव्‍यास्‍त्रों के ज्ञान से मेरी शक्ति बढ़ी हुई है। नरश्रेष्‍ठ! फिर मेरे जैसा पुरुष साक्षात वज्रधारी इन्‍द्र के सामने भी 'मैं डरा हुआ हूँ’ यह सुयश का नाश करने वाला वचन कैसे कह सकता है? 

   ‘महाबाहो! मैं डरा हुआ नहीं हूँ तथा मुझे सहायक की भी आवश्‍यकता नहीं है। आप अपनी इच्‍छा के अनुसार जैसा उचित समझें अन्‍यत्र चले जाइये या यहीं रहिये’ 

    वैशम्‍पायनजी कहते है ;- भरतश्रेष्‍ठ! उन परम बुद्धिमान अर्जुन का यह वचन सुनकर रुक्मी अपनी समुद्र सदृश विशाल सेना को लौटाकर उसी प्रकार दुर्योधन के पास गया। दुर्योधन से मिलकर रुक्‍मी ने उससे भी वैसी ही बातें कहीं। तब अपने को शूरवीर मानने वाले दुर्योधन ने भी उसकी सहायता लेने से इन्‍कार कर दिया। महाराज! उस युद्ध से दो ही वीर अलग हो गये थे- एक तो वृष्णिवंशी रोहिणीनन्‍दन बलराम और दूसरा राजा रुक्‍मी। बलरामजी के तीर्थयात्रा में और भीष्मक पुत्र रुक्‍मी के अपने नगर को चले जाने पर पाण्‍डवों ने पुन: गुप्‍त मन्‍त्रणा के लिये बैठक की। भारत! राजाओं से भरी हुई धर्मराज की वह सभा तारों और चन्‍द्रमा से विचित्र शोभा धारण करने वाले आकाश की भाँति सुशोभित हुई। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अर्न्‍गत सैनयनिर्वाणपर्वमें रुक्‍मीप्रत्‍ख्‍यानविषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योगपर्व) एकोनषष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र और संजय का संवाद”

   जनमेजय ने पूछा ;- द्विजश्रेष्‍ठ! जब इस प्रकार कुरुक्षेत्र में सेनाएं मोर्चा बांधकर खड़ी हो गयी, तब काल प्रेरित कौरवों ने क्‍या किया? 

   वैशम्पायनजी ने कहा ;- भरतकुलभूषण महाराज! जब वे सभी सेनाएँ कुरुक्षेत्र में व्‍यूहरचनापूर्वक डट गयीं, तब धृतराष्‍ट्र ने संजय से कहा- 

   धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! यहाँ आओ ओर कौरवों तथा पाण्‍डवों की सेना के पड़ाव पड़ जाने पर वहाँ जो कुछ हुआ हो, वह सब मुझे पूर्णरूप से बताओ। मैं तो समझता हूँ देव ही प्रबल है। उसके सामने पुरुषार्थ व्‍यर्थ है; क्‍योंकि मैं युद्ध के दोषों को अच्‍छी तरह जानता हूँ। वे दोष भयंकर संहार उपस्थित करने वाले हैं, इस बात को भी समझता हूँ, तथापि ठग-विद्या के पण्डित तथा कपट बात को भी समझता हूं, द्यूत करने वाले अपने पुत्र को न तो रोक सकता हूँ और न अपना हित-साधन ही कर सकता हूँ। सूत! मेरी बुद्धि उपर्युक्‍त दोषों को बारंबार देखती और स‍मझती है तो भी दुर्योधन से मिलने पर पुन: बदल जाती है।

   संजय! ऐसी दशा में अब जो कुछ होने वाला है, वह होकर ही रहेगा। कहते हैं, युद्ध में शरीर का त्‍याग करना निश्‍चय ही सबके द्वारा सम्‍मानित क्षत्रिय धर्म है।

  संजय ने कहा ;- महाराज! आपने जो कुछ पूछा है और आप जैसा चाहते हैं, वह सब आपके योग्‍य है; परंतु आपको युद्ध का दोष दुर्योधन के माथे पर नहीं मढ़ना चाहिये। भूपाल! मैं सारी बातें बता रहा हूं, आप सुनिये। जो मनुष्‍य अपने बुरे आचरण से अशुभ फल पाता है, वह काल अथवा देवताओं पर दोषारोपण करने का अधिकारी नहीं है। महाराज! जो पुरुष दूसरे मनुष्‍यों के साथ सर्वथा निन्‍दनीय व्‍यवहार करता है, वह निन्दित आचरण करने वाला पापात्‍मा सब लोगों के लिये वध्‍य है। नरश्रेष्‍ठ! जूए के समय जो बार-बार छल-कपट और अपमान के शिकार हुए थे, अपने मन्त्रियों सहित उन पाण्‍डवों ने केवल आपका ही मुँह देखकर सब तरह के तिरस्‍कार सहन किये हैं। 

   इस समय युद्ध के कारण घोड़ों, हाथियों तथा अमित तेजस्‍वी राजाओं को जो विनाश प्राप्‍त हुआ है, उसका सम्‍पूर्ण वृतान्‍त आप मुझसे सुनिये। महामते! इस महायुद्ध में सम्‍पूर्ण लोकों के विनाश को सूचित करने वाला जो वृतान्‍त जैसे-जैसे घटित हुआ है, वह सब स्थि‍र होकर सुनिये और सुनकर एकचित्‍त बने रहिये, व्‍याकुल न होइये। क्‍योंकि मनुष्‍य पुण्‍य और पाप के फल भोग की प्रक्रिया में स्‍वतन्‍त्र कर्ता नहीं है ; क्‍योंकि मनुष्‍य प्रारम्‍भ के अधीन है, उसे तो कठपुतली की भां‍ति उस कार्य में प्रवृत्त होना पड़ता है। 

    कोई ईश्‍वर की प्रेरणा से कार्य करते हैं, कुछ लोग आकस्मिक संयोगवश कर्मों में प्रवृत्त होते हैं तथा दूसरे बहुत से लोग अपने पूर्ण कर्मों की प्रेरणा से कार्य करते हैं। इस प्रकार ये कार्य की विविध अवस्‍थाएं देखी जाती हैं, इसलिये इस महान संकट में पड़कर आप स्थिर भाव से सारा वृत्‍तान्‍त सुनिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्वाणपर्वमें संजयवाक्‍यविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (उलुकदूतागमन पर्व)

एक सौ साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पाण्‍डवों के पास भेजना और उनसे कहने के लिये संदेश देना”

संजय कहते हैं ;- महाराज! महात्‍मा पाण्‍डवों ने जब हिरण्वती नदी के तटपर अपना पड़ाव डाल‍ दिया, तब कौरवों ने भी विधिपूर्वक दूसरे स्‍थान पर अपनी छावनी डाली। 

   राजा दुर्योधन ने वहाँ अपनी शक्तिशालिनी सेना ठहराकर समस्‍त राजाओं को समादर करके उन सबकी रक्षा के लिये कई गुल्‍म सैनिकों की टुकडियों को तैनात कर दिया। भारत! इस प्रकार योद्धाओं के संरक्षण की व्‍यवस्‍था करके राजा दुर्योधन कर्ण, दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि को बुलाकर गुप्‍तरूप से मन्‍त्रणा की। राजेन्‍द्र! भरतनन्‍दन! नरश्रेष्‍ठ! दुर्योधन ने भाई कर्ण, भाई दु:शासन तथा सुबलपुत्र शकुनि से सम्‍भाषण एवं सलाह करके उलूक को एकान्‍त में बुलाकर उसे इस प्रकार कहा- 

   युधिष्ठिर बोला ;- द्यूतकुशल शकुनि के पुत्र उलूक! तुम सोमकों और पाण्‍डवों के पास जाओ तथा वहाँ पहुँचकर वासुदेव श्रीकृष्‍ण के सामने ही उनसे मेरा यह संदेश कहो- कितने ही वर्षों से जिसका विचार चल रहा था, वह सम्‍पूर्ण जगत के लिये अत्‍यन्‍त भंयकर कौरव-पाण्‍डवों का युद्ध अब सिर पर आ पहुँचा है। कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर! श्रीकृष्‍ण की सहायता पाकर भाइयों सहित गर्जना करते हुए तुमने संजय से जो आत्‍मश्‍लाघापूर्ण बातें कही थीं और जिन्‍हें संजय ने कौरवों की सभा में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर सुनाया था, उन सबको सत्‍य करके दिखाने का यह अवसर आ गया है। तुम लोगों ने जो-जो प्रतिज्ञाएं की हैं, उन सबको पूर्ण करो।' उलूक! तुम मेरे कहने से कुन्‍ती के ज्‍येष्‍ठ पुत्र युधिष्ठिर के सामने जाकर इस प्रकार कहना ।

   राजन तुम तो अपने सभी भाइयों, सोमकों और केकयों सहित बड़े धर्मात्‍मा बनते हो। धर्मात्‍मा होकर अधर्म में कैसे मन लगा रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्‍वास था कि तुमने समस्‍त प्राणियों को अभयदान दे दिया है; परंतु इस समय तुम एक निर्दय मनुष्‍य की भाँति सम्‍पूर्ण जगत का विनाश देखना चाहते हो। भरतश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। सुना जाता है कि पूर्वकाल में जब देवताओं ने प्रह्लाद का राज्‍य छीन लिया था, तब उन्‍होंने इस श्‍लोक का गान किया था। देवताओ! साधारण ध्‍वज की भाँति जिसकी धर्ममयी ध्‍वजा सदा ऊँचे तक फहराती रहती है; परंतु जिसके द्वारा गुप्‍त रूप से पाप भी होते रहते हैं, उसके उस व्रत को विडालव्रत कहते हैं। 

   नरेश्‍वर! इस विषय में तुम्‍हें यह उत्‍तम आख्‍यान सुना रहा हूं, जिसे नारदजी ने मेरे पिताजी से कहा था। राजन! यह प्रसिद्ध है कि किसी समय एक दुष्‍ट बिलाव दोनों भुजाएं ऊपर किये गंगाजी के तटपर खड़ा रहा। वह किसी भी कार्य के लिये तनिक भी चेष्‍टा नहीं करता था। इस प्रकार समस्‍त देहधारियों पर विश्‍वास जमाने के लिये वह सभी प्राणियों से यही कहा करता था कि अब मैं मानसिक शुद्धि करके हिंसा छोड़कर धर्माचरण कर रहा हूँ। 

   राजन! दीर्घकाल के पश्‍चात धीरे-धीरे पक्षियों ने उस पर विश्‍वास कर लिया। अब वे उस बिलाव के पास आकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पक्षियों को अपना आहार बनाने वाला वह बिलाव जब उन समस्‍त पक्षियों द्वारा अधिक आदर-सत्‍कार पाने लगा, तब उसने यह समझ लिया कि मेरा काम बन गया और मुझे धर्मानुष्‍ठान का भी अभीष्‍ट फल प्राप्‍त हो गया। तदनन्‍तर बहुत समय के पश्‍चात उस स्‍थान पर चूहे भी गये। वहाँ जाकर उन्‍होंने कठोर मत का पालन करने वाले उस धर्मात्‍मा बिलाव को देखा। 

   भारत! दम्‍भयुक्‍त महान कर्मों के अनुष्‍ठान में लगे हुए उस बिलाव को देखकर उनके मन में यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ। हम सब लोगों के बहुत से मित्र हैं, अत: अब यह विबाल भी हमारा मामा होकर रहे और हमारे यहाँ जो वृद्ध तथा बालक हैं, उन सबकी सदा रक्षा करता रहे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-43 का हिन्दी अनुवाद)

   यह सोचकर वे सभी उस बिलाव के पास गये और इस प्रकार बोले- मामाजी! हम सब लोग आपकी कृपा से सुख पूर्वक विचरना चाहते हैं। आप ही हमारे निर्भय आश्रय हैं और आप ही हमारे परम सुदृढ़ हैं। हम सब लोग एक साथ संगठित होकर आपकी शरण में आये हैं। आप सदा धर्म में तत्‍पर रहते हैं और धर्म में ही आप की निष्‍ठा है। महामते! जैसे वज्रधारी इन्‍द्र, देवताओं की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आप हमारा संरक्षण करें। प्रजानाथ! उन सम्‍पूर्ण चूहों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर मूषकों के लिये यमराजस्‍वरूप उस बिलाव ने उन सबको इस प्रकार उत्‍त्‍र दिया। मैं तपस्‍या भी करूं और तुम्‍हारी रक्षा भी-इन दोनों कार्यों का परस्‍पर सम्‍बन्‍ध मुझे दिखायी नहीं देता है- ये दोनों काम एक साथ नहीं चल सकते हैं। तथापि मुझे तुम लोगों के हित की बात भी अवश्‍य करनी चाहिये। 

   तुम्‍हें भी प्रतिदिन मेरी एक आज्ञा का पालन करना होगा। मैं तपस्या करते-करते बहुत थक गया हूँ और दृढतापूर्वक संयम-नियम के पालन में लगा रहता हूँ। बहुत सोचने पर भी मुझे अपने भीतर चलने-फिरने की कोई शक्ति नहीं दिखायी देती; अत: तात! तुम्‍हें सदा मुझे यहाँ से नदी के तटतक पहुँचाना पड़ेगा। भरतश्रेष्‍ठ! ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर चूहों ने बिलाव की आज्ञा का पालन करने के लिये हामी भर ली और वृद्ध तथा बालकों सहित अपना सारा परिवार उस बिलाव को सौंप दिया। फिर तो वह पापी एवं दुष्‍टात्‍मा बिलाव प्रतिदिन चूहों को खा-खाकर मोटा और सुंदर होने लगा। उसके अंगों का एक-एक जोड़ मजबूत हो गया।

   इधर चूहों की संख्‍या बड़े वेग से घटने लगी और वह बिलाव तेज और बल से सम्‍पन्‍न हो प्रतिदिन बढ़ने लगा। तब वे चूहे परस्‍पर मिलकर एक-दूसरे से कहने लगे- क्‍यों जी! क्‍या कारण है कि मामा तो नित्‍य मोटा-ताजा होता जा रहा है और हमारी संख्‍या बड़े वेग से घटती चली जा रही है। 

   राजन! उन चूहों में कोई डिंडिक नाम वाला चूहा सबसे अधिक समझदार था। उसने मूषकों के उस महान समुदाय से इस प्रकार कहा‌- तुम सब लोग विशेषत: एक साथ नदी के तटपर जाओ। पीछे से मैं भी मामा के साथ ही वहीं आजाऊँगा। तब 'बहुत अच्‍छा, बहुत अच्‍छा’ कहकर उन सबने डिंडिक की बड़ी प्रशंसा की और यथोचितरूप से उसके सार्थक वचनों का पालन किया। बिलाव को चूहों की जागरूकता का कुछ पता नहीं था। अत: वह डिंडिक को भी खा गया। तदनन्‍तर एक दिन सब चूहे एक साथ मिलकर आपस में सलाह करने लगे। 

   उनमें कोलिक नामसे प्रसिद्ध कोई चूहा था, जो अपने भाई-बन्‍धुओं में सबसे बूढ़ा था। उसने सब लोगों को यथार्थ बात बतायी। भाइयों! मामा को धर्माचारण की रत्‍तीभर भी कामना नहीं है। उसने हम-जैसे लोगों को धोखा देने के लिये ही जटा बढा रखी है। जो फल मूल खाने वाला है, उसकी विष्‍ठा में बाल नहीं होते। उसके अंग दिनों-दिन ह्ष्ट–पुष्‍ट होते जा रहे हैं और हमारा यह दल रोज-रोज घटता जा रहा है। आज सात आठ दिनों से डिंडिक का भी दर्शन नहीं हो रहा है। कोलिक की यह बात सुनकर सब चूहे भाग गये और वह दुष्‍टात्‍मा बिलाव भी अपना-सा मुंह लेकर जैसे आया था, वैसे चला गया।

   दुष्‍टामन! तुमने भी इसी प्रकार विडालव्रत धारण कर रखा है। जैसे चूहों में बिलाव ने धर्माचरणका ढोंग रच रखा था, उसी प्रकार तुम भी जाति-भाइयों मे धर्माचारी बने फिरते हो। तुम्‍हारी बातें तो कुछ और हैं; परंतु कर्म कुछ और ही ढंग का दिखायी देता है। तुम्‍हारा वेदाध्‍ययन और शान्‍त-स्‍वभाव लोगों को दिखाने के लिये पाखण्‍डमात्र है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-63 का हिन्दी अनुवाद)

   राजन! नरश्रेष्‍ठ! यदि तुम धर्मनिष्‍ठ हो तो यह छल-छद्म छोड़कर क्षत्रिय-धर्म का आश्रय ले उसी के अनुसार सब कार्य करो। भरतश्रेष्‍ठ! अपने बाहुबल से इस पृथ्‍वी का राज्‍य प्राप्‍त करके तुम ब्राह्मणों को दान दो और पितरों का उनका यथोचित भाग अर्पण करो। तुम्‍हारी माता वर्षों से कष्‍ट भोग रही है; अत: माता के हित में तत्‍पर हो उसके आंसू पोंछो और युद्ध में विजय प्राप्‍त करके परम सम्‍मान के भागी बनो। 

   तुमने केवल पाँच गाँव माँगे थे, परंतु हमने प्रयत्‍नपूर्वक तुम्‍हारी वह माँग इसलिये ठुकरा दी है कि पाण्‍डवों को किसी प्रकार कुपित करें, जिससे संग्राम-भूमि में उनके साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्‍त हो। तुम्‍हारे लिये ही मैंने दुष्‍टात्‍मा विदुर का परित्‍याग कर दिया है। लाक्षागृह में अपने जलाये जाने की घटना का स्‍मरण करो और अब से भी मर्द बन जाओ। तुमने कौरव-सभा में आये हुए श्रीकृष्‍ण से जो यह संदेश दिलाया था कि राजन! मैं शान्ति और युद्ध दोनों के लिये तैयार हूँ। नरेश्‍वर! उस समर का यह उपयुक्‍त अवसर आ गया है। युधिष्ठिर! इसी के लिये मैंने यह सब कुछ किया है। भला, क्षत्रिय युद्ध से बढकर दूसरे किस लाभ को महत्त्व देता है इसके सिवा, तुमने भी तो क्षत्रिय कुल में उत्‍पन्‍न होकर इस पृथ्‍वी पर बड़ी ख्‍याति प्राप्‍त की है। 

   भरतश्रेष्ठ! द्रोणाचार्य और कृपाचार्य से अस्‍त्र-विद्या प्राप्‍त करके जाति और बल में हमारे समान होते हुए भी तुमने वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण का आश्रय ले रखा है फिर तुम्‍हें युद्ध से क्‍यों डरना या पीछे हटना चाहिये। उलूक! तुम पाण्‍डवों के समीप वासुदेव श्रीकृष्‍ण से भी कहना- जनार्दन! अब तुम पूरी तैयारी और तत्‍परता के साथ अपनी और पाण्‍डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। 

   तुमने सभा में माया द्वारा जो विकट रूप बना लिया था; उसे पुन: उसी रूप में प्रकट करके अर्जुन के सा‍थ मुझ पर धावा बोल दो। इन्‍द्रजाल, माया अथवा भयानक क्रत्‍या- ये युद्ध में हथियार उठाये हुए शूरवीर के क्रोध एवं सिंहनाद को और भी बढ़ा देती है उसे डरा नहीं सकती। हम भी माया से आकाश में उड़ सकते हैं, तथा रसातल या इन्‍द्रपुरी में भी प्रवेश कर सकते हैं। 

   इतना ही नहीं, हम अपने शरीर में बहुत-से रूप भी प्रकट करके दिखा सकते हैं; परंतु इन सब प्रदर्शनों से न तो अपने अभीष्‍ट की सिद्धि होती है और न अपना शत्रु ही मानवीय बुद्धि अर्थात भय को प्राप्‍त हो सकता है। एकमात्र विधाता ही अपने मा‍नसिक संकल्‍प मात्र से समस्‍त प्राणियों को वश में कर लेता है। वार्ष्‍णेय! तुम जो यह कहा करते थे कि मैं युद्ध में धृतराष्‍ट्र के सभी पुत्रों को मरवाकर उनका सारा उत्‍तम राज्‍य कुन्‍ती के पुत्रों को दे दूँगा। तुम्‍हारा यह सारा भाषण संजय ने मुझे सुना दिया था। तुमने यह भी कहा था कि ‘कौरवों! मैं जिनका सहायक हूँ, उन्‍हीं सव्‍यसाची अर्जुन के साथ तुम्‍हारा वैर बढ़ रहा है, इत्‍यादि। अत: अब सत्‍यप्रतिज्ञ होकर पाण्‍डवों के लिये पराक्रमी बनो। युद्ध में अब प्रयत्‍नपूर्वक डट जाओ। हम तुम्‍हारी राह देखते हैं। अपने पुरुषत्‍व का परिचय दो। जो पुरुष शत्रु को अच्‍छी तरह समझ-बूझकर विशुद्ध पुरुषार्थ का आश्रय ले शत्रुओं को शोकमग्‍न कर देता है, वही श्रेष्‍ठ जीवन व्‍यतीत करता है। 

   श्रीकृष्‍ण! मैं देखता हूँ संसार में अकस्‍मात ही तुम्‍हारा महान यश फैल गया है; परंतु अब इस समय हमें मालूम हुआ है कि जो लोग तुम्‍हारे पूजक है, वे वास्‍तव में पुरुषत्‍व का चिन्‍ह धारण करने वाले हिजडे़ ही हैं। मेरे जैसे राजा को तुम्‍हारे साथ, विशेषत: कंस के एक सेवक के साथ लड़ने के लिये कवच धारण करके युद्ध भूमि में उतरना किसी तरह उचित नहीं है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 64-83 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘उलूक! उस बिना मूँछों के मर्द अथवा बोझ ढोने वाले बैल, अधिक खाने वाले, अज्ञानी और मूर्ख भीमसेन से भी बारंबार मेरा यह संदेश कहना ‘कुन्‍ती कुमार! पहले विराटनगर में जो तू रसोइया बनकर रहा और बल्लव के नाम से विख्‍यात हुआ, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ था। पहले कौरव सभा में तूने जो प्रतिज्ञा की थी, वह मिथ्‍या नहीं होनी चाहिये। यदि तुझमें शक्ति हो तो आकर दु:शासन का रक्‍त पी लेना। 

   कुन्‍ती कुमार! तुम जो कहा करते हो कि मैं युद्ध में धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को वेगपूर्वक मार डालूंगा, उसका यह समय आ गया है। भारत! तुम निरे भोजनभट्ट हो। अत: अधिक खाने पीने में पुरस्‍कार पाने के योग्‍य हो। किंतु कहाँ युद्ध और कहाँ भोजन? शक्ति हो तो युद्ध करो और मर्द बनो। भारत! युद्धभूमि में मेरे हाथ से मारे जाकर तुम गदा को छाती से लगाये सदा के‍ लिये सो जाओगे। वृकोदर! तुमने सभा में जाकर जो उछल-कूद मचायी थी, वह व्‍यर्थ ही है।

   उलूक! नकुल से भी कहना- भारत! तुम मेरे कहने से अब स्थिरतापूर्वक युद्ध करो। हम तुम्‍हारा पुरुषार्थ देखेंगे। तुम युधिष्ठिर के प्रति अपने अनुराग को, मेरे प्रति बढ़े हुए द्वेष को तथा द्रौपदी के क्‍लेश को भी इन दिनों अच्‍छी तरह से याद कर लो। उलूक! तुम राजाओं के बीच सहदेव से भी मेरी यह बात कहना पाण्‍डुनन्‍दन! पहले के दिये हुए क्‍लेशों को याद कर लो और अब तत्‍पर होकर समरभूमि में युद्ध करो। तदनन्‍तर विराट और द्रुपद से भी मेरी ओर से कहना ‘विधाता ने जब से प्रजा की सृष्टि की है, तभी से परम गुणगान सेवकों ने भी अपने स्‍वामियों की अच्‍छी तरह परख नहीं की; उनके गुण-अवगुण को भलीभाँति नहीं पहचाना। इसी प्रकार स्‍वामियों ने भी सेवकों को ठीक-ठीक नहीं समझा। इसीलिये युधिष्ठिर श्रद्धा के योग्‍य नहीं है, तो भी तुम दोनों उन्‍हें अपना राजा मानकर उनकी ओर से युद्ध के लिये यहाँ आये हो। इसलिये तुम सब लोग संगठित होकर मेरे वध के लिये प्रयत्‍न करो। अपनी और पाण्‍डवों की भलाई के लिये मेरे साथ युद्ध करो। 

   फिर पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न को भी मेरा यह संदेश सुना देना- राजकुमार! यह तुम्‍हारे योग्‍य समय प्राप्‍त हुआ है। तुम्‍हें आचार्य द्रोण अपने सामने ही मिल जायेंगे। समरभूमि में द्रोणाचार्य के सामने जाकर ही तुम यह जान सकोगे कि तुम्‍हारा उत्तम हित किस बात में है। आओ, अपने सुदृढों के साथ रहकर युद्ध करो और गुरु के वध का अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पाप कर डालो। उलूक! इसके बाद तुम शिखण्‍डी से भी मेरी यह बात कहना- धनुर्धारियों में श्रेष्‍ठ गंगापुत्र कुरुवंशी महाबाहु भीष्‍म तुम्‍हें स्‍त्री समझकर नहीं मारेंगे। इसलिये तुम अब निर्भय होकर युद्ध करना और समरभूमि में यत्‍नपूर्वक पराक्रम प्रकट करना। हम तुम्‍हारा पुरुषार्थ देखेंगे। 

ऐसा कहते-कहते राजा दुर्योधन खिल खिलाकर हंस पड़ा। तत्‍पश्‍चात उलूक से पुन: इस प्रकार बोला,

   उलूक बोला ;- उलूक! तुम वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण के सामने ही अर्जुन से पुन: इस प्रकार कहना। वीर धनंजय! या तो तुम्‍हीं हम लोगों को परास्‍त करके इस पृथ्‍वी का शासन करो या हमारे ही हाथों से मारे जाकर रणभूमि में सदा के लिये सो जाओ। पाण्‍डुनन्‍दन! राज्‍य से निर्वासित होने, वन में निवास करने तथा द्रौपदी के अपमानित होने के क्‍लशों को याद करके अब भी तो मर्द बनो। क्षत्राणी जिसके लिये पुत्र पैदा करती है, वह सब प्रयोजन सिद्ध करने का यह समय आ गया है। तुम युद्ध में बल, पराक्रम,उत्तम शौर्य, अस्‍त्र-संचालन की फुर्ती और पुरुषार्थ दिखाते हुए अपने बढे़ हुए क्रोध को हमारे ऊपर प्रयोग करके शान्‍त कर लो।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 84-103 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘जिसे नाना प्रकार का क्‍लेश दिया गया हो, दीर्घकाल के लिये राज्‍य से निर्वासित किया गया हो तथा जिसे राज्‍य से वंचित होकर दीनभाव से जीवन बिताना पड़ा हो, ऐसे किस स्‍वाभिमानी पुरुष का हृदय विदीर्ण न हो जायेगा। जो उत्‍तम कुल में उत्‍पन्‍न, शूरवीर तथा पराये धन के प्रति लोभ न रखने वाला हो, उसके राज्‍य को यदि कोई दबा बैठा हो तो वह किस वीर के क्रोध को उद्दीप्‍त न कर देगा। 

    तुमने जो बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, उन्हें कार्यरूप में परिणत करके दिखाओ! जो क्रिया द्वारा कुछ न करके केवल मुंह से बातें बनाता है, उसे सज्‍जन पुरुष कायर मानते हैं। तुम्‍हारा स्‍थान और राज्‍य शत्रुओं के हाथ में पड़ा है, उसका पुनरुद्धार करो। युद्ध की इच्‍छा रखने वाले पुरुष के ये दो ही प्रयोजन होते हैं; अत: उनकी सिद्धि के लिये पुरुषार्थ करो। तुम जूए में पराजित हुए और तुम्‍हारी स्‍त्री द्रौपदी को सभा में लाया गया। अपने को पुरुष मानने वाले किसी भी मनुष्‍य को इन बातों के लिये भारी अमर्ष हो सकता है। तुम बारह वर्षों तक राज्‍य से निर्वासित होकर वन में रहे हो और एक वर्ष तक तुम्‍हें विराट का दास होकर रहना पड़ा है। 

   पाण्‍डुनन्‍दन! राज्‍य से निर्वासन का, वनवास का और द्रौपदी के अपमान का क्‍लेश याद करके तो मर्द बनो। हम लोग बार-बार तुम लोगों के प्रति अप्रिय वचन कहते हैं। तुम हमारे ऊपर अपना अमर्ष तो दिखाओ। क्‍योंकि अमर्ष ही पौरूष है। पार्थ! यहाँ लोग तुम्‍हारे क्रोध, बल, वीर्य, ज्ञान योग और अस्‍त्र लाने की फुर्ती आदि गुणों को देखें। युद्ध करो और अपने पुरुष्‍त्‍व का परिचय दो। अब लोहमय अस्‍त्र–शस्‍त्रों को बाहर निकालकर तैयार करने का कार्य पूरा हो चुका है। कुरुक्षेत्र की कीच भी सूख गयी है। तुम्‍हारे घोडे़ खूब हष्‍ट-पुष्‍ट हैं और सैनिकों का भी तुमने अच्‍छी तरह भरण-पोषण किया है; अत: कल सवेरे से ही श्रीकृष्‍ण के साथ आकर युद्ध करो। 

   अभी युद्ध में भीष्‍मजी के साथ मुठभेड़ किये बिना तुम क्‍यों अपनी झूठी प्रशंसा करते हो? कुन्‍तीनन्‍दन! जैसे कोई शक्तिहीन एवं मन्‍द‍बुद्धि पुरुष गन्‍धमादन पर्वत पर चढ़ना चाहता हो, उसी प्रकार तुम भी अपनी झूठी बड़ाई करते हो। मिथ्‍या आत्‍मप्रशंसा न करके पुरुष बनो। 

  पार्थ! अत्‍यन्‍त दुर्जय वीर सूतपुत्र कर्ण, बलवानों से श्रेष्‍ठ शल्‍य तथा युद्ध में इन्‍द्र के समान पराक्रमी एवं बलवानों में अग्रगण्‍य द्रोणाचार्य को युद्ध में परास्‍त किये बिना तुम यहाँ राज्‍य कैसे लेना चाहते हो। कुन्‍तीपुत्र! आचार्य द्रोण ब्रह्मवेद और धनुर्वेद इन दोनों के पारंगत पण्डित हैं। ये युद्ध का भार वहन करने में समर्थ, अक्षोभ्‍य, सेना के मध्‍य भाग में विचरने वाले तथा युद्ध के मैदान से पीछे न हटने वाले हैं। इन महातेजस्‍वी द्रोण को जो तुम जीतने की इच्‍छा रखते हो, वह मिथ्‍या साहस मात्र है। वायु ने सुमेरू पर्वत को उखाड़ फेंका हो, यह कभी हमारे सुनने में नहीं आया है इसी प्रकार तुम्‍हारे लिये भी आचार्य को जीतना असम्‍भव है। तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, वह यदि सत्‍य हो जाय, तब तो हवा मेरु को उठाले, स्‍वर्गलोक इस पृथ्‍वी पर गिर पड़े अथवा युग ही बदल जाय। अर्जुन हो या दूसरा कोई, जीवन की इच्‍छा रखने वाला कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में इन शत्रुदमन आचार्य के पास पहुँचकर कुशलपूर्वक घर को लौट सके। 

   ये दोनों द्रोण और भीष्‍म जिसे मारने का निश्‍चय कर लें अथवा उनके भयानक अस्‍त्र आदि से जिसके शरीर का स्‍पर्श हो जाय, ऐसा कोई भी भूतल निवासी मरणधर्मा मनुष्‍य युद्ध में जीवित कैसे बच सकता है? 

   जैसे देवता स्‍वर्ग की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्‍तर दिशाओं के नरेश तथा काम्बोज, शक, खश, शाल्व, मत्स्य, कुरु और मध्‍यप्रदेश के सैनिक एवं मलेच्‍छ, पुलिन्‍द, द्रविद, आन्‍ध्र और कांचीदेशीय योद्धा जिस सेना की रक्षा करते हैं, जो देवताओं की सेना के समान दुर्धर्ष एवं संगठित है, कौरवराज की समुद्रतुल्‍य उस सेना को क्‍या तुम कूपमण्‍डूक की भाँति अच्‍छी तरह समझ नहीं पाते हैं? 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्‍टयधिकशततम अध्याय के श्लोक 104-125 का हिन्दी अनुवाद)

   ओ अल्‍पबुद्धि मूढ़ अर्जुन! जिसका वेग युद्धकाल में गंगा के वेग के समान बढ़ जाता है और जिसे पार करना असम्‍भव है, नाना प्रकार के जनसमुदाय से भरी हुई मेरी उस विशाल वाहिनी के साथ तथा गज सेना के बीच में खड़े हुए मुझ दुर्योधन के साथ भी तुम युद्ध की इच्‍छा कैसे रखते हो? भारत! हम अच्‍छी तरह जानते हैं कि तुम्‍हारे पास अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस हैं, अग्निदेव का दिया हुआ दिव्‍य रथ है और युद्धकाल में उस पर दिव्‍य ध्‍वजा फहराने लगती है। 

 अर्जुन! बातें न बनाकर युद्ध करो। बहुत शेखी क्‍यों बघारते हो,विभिन्‍न प्रकारों से युद्ध करने पर ही राज्‍य की सिद्धि हो सकती है। झूठी आत्‍मप्रशंसा करने से इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। धनंजय! यदि जगत में अपनी झूठी प्रशंसा करने से ही अभीष्‍ट कार्य की सिद्धि हो जाती, तब तो सब लोग सिद्ध काम हो जाते; क्‍योंकि बातें बनाने में कौन दरिद्र और दुर्बल होगा। 

   मैं जानता हूँ कि तुम्‍हारे सहायक वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण हैं, मैं यह भी जानता हूँ कि तुम्‍हारे पास चार हाथ लंबा गाण्डीव धनुष है तथा मुझे यह भी मालूम है कि तुम्‍हारे जैसा दूसरा कोई योद्धा नहीं है; यह सब जानकर भी मैं तुम्‍हारे इस राज्‍य का अपहरण करता हूँ। कोई भी मनुष्‍य नाम मात्र के धर्म द्वारा सिद्धि नहीं पाता, केवल विधाता ही मानसिक संकल्‍प मात्र से सबको अपने अनुकूल और अधीन कर लेता है। तुम रोते-बिलखते रह गये और मैंने तेरह वर्षों तक तुम्‍हारा राज्‍य भोगा। अब भाइयों सहित तुम्‍हारा वध करके आगे भी मैं ही इस राज्‍य का शासन करूंगा। दास अर्जुन! जब तुम जुए के दांव पर जीत लिये गये, उस समय तुम्‍हारा गाण्‍डीव धनुष कहाँ था भीमसेन का बल भी उस समय कहाँ चला गया था। 

   गदाधारी भीमसेन अथवा गाण्‍डीवधारी अर्जुन से भी उस समय सती साध्‍वी द्रौपदी का सहारा लिये बिना तुम लोगों का दास भाव से उद्धार न हो सका। तुम सब लोग अमनुष्‍योचित दीन दशा को प्राप्‍त हो दास भाव में स्थित थे। उस समय द्रुपदकुमारी कृष्‍णा ने ही दासता के संकट में पड़े हुए तुम सब लोगों को छुड़ाया था। मैंने जो उन दिनों तुम लोगों को हिजड़ा या नपुंसक कहा था, वह ठीक ही निकला; क्‍योंकि अज्ञातवास के समय विराटनगर में अर्जुन को अपने सिर पर स्त्रियों की भाँति वेणी धारण करनी पड़ी। कुन्‍तीकुमार! तुम्‍हारे भाई भीमसेन को राजा विराट के रसोई घर में रसोइये के काम में ही संलग्‍न रहकर जो भारी श्रम उठाना पड़ा, वह सब मेरा ही पुरुषार्थ है।

    इसी प्रकार सदा से ही क्षत्रियों ने अपने विरोधी क्षत्रिय को दण्‍ड दिया है। इसीलिये तुम्‍हें भी सिर पर वेणी रखाकर और हिजड़ों का वेष बनाकर राजा के अन्‍त:पुर में लड़कियों को नचाने का काम करना पड़ा। फाल्‍गुन! श्रीकृष्‍ण के या तुम्‍हारे भय से मैं राज्‍य नहीं लौटाऊँगा। तुम श्रीकृष्‍ण के साथ आकर युद्ध करो। 

   माया, इन्‍द्रजाल अथवा भयानक छलना संग्रामभूमि में हथियार उठाये हुए वीर के क्रोध और सिंहनाद को ही बढ़ाती है उसे भयभीत नहीं कर सकती हैं। हजारों श्रीकृष्‍ण और सैंकडों अर्जुन भी अमाघ बाणों वाले मुझ वीर के पास आकर दसों दिशाओं में भाग जायेंगे। तुम भीष्‍म के साथ युद्ध करो या सिर से पहाड़ फोड़ो या सैनिकों के अत्‍यन्‍त गहरे महासागर को दोनों बाँहों से तैरकर पार करो। 

   हमारे सैन्‍यरूपी महासमुद्र में कृपाचार्य महामत्‍स्‍य के समान हैं, विविंशति उसके भीतर रहने वाला महान सर्प है, बृहद्बल उसके भीतर उठने वाले विशाल ज्‍वार के समान है, भूरिश्रवा तिमिंगल नामक मत्‍स्‍य के स्‍थान में है। भीष्‍म उसके असीम वेग है, द्रोणाचार्यरूपी ग्राहके होने से इस सैन्‍यसागर में प्रवेश करना अत्‍यन्‍त दुष्‍कर है, कर्ण और शल्‍य क्रमश: मत्‍स्‍य तथा आवर्त (भंवर) का काम करते हैं और काम्‍बोजराज सुद‍क्षिण इसमें बड़बानल हैं। दु:शासन उसके तीव्र प्रवाह के समान है, शल और शल्‍य मत्‍स्‍य है, सुषेण और चित्रायुध नाग और मकर के समान हैं, जयद्रथ पर्वत है, पुरु मित्र उसकी गम्‍भीरता है, दुर्मर्षर्ण जल है और शकुनि प्रपात (झरने) का काम देता है। 

   भाँति-भाँति के शस्‍त्र इस सैन्‍यसागर के जल प्रवाह है। यह अक्षय होने के साथ ही खूब बढ़ा हुआ है। इसमें प्रवेश करने पर अधिक श्रम के कारण जब तुम्‍हारी चेतना नष्‍ट हो जायेगी, तुम्‍हारे समस्‍त बन्‍धु मार दिये जायेंगे, उस समय तुम्‍हारे मन को बड़ा संताप होगा। 

   पार्थ! जैसे अपवित्र मनुष्‍य का मन स्‍वर्ग की ओर से निवृत्त हो जाता है क्‍यों‍कि उसके लिये स्‍वर्ग की प्राप्ति असम्‍भव है, उसी प्रकार तुम्‍हारा मन भी उस समय इस पृथ्‍वी पर राज्‍य शासन करने से निराश होकर निवृत्‍त जायेगा। अर्जुन! शान्‍त होकर बैठ जाओ। राज्‍य तुम्‍हारे लिये अत्‍यन्‍त दुर्लभ है। जिसने तपस्‍या नहीं की है, वह जैसे स्‍वर्ग पाना चाहे, उसी प्रकार तुमने भी राज्‍य की अभिलाषा की है। 

(इस प्रकार श्री महाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत उलूकदूतागमनापर्वमें दुर्योधनवाक्‍यविषयक एक सौ साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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