सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इक्यावनवें अध्याय से एक सो पचपनवें अध्याय तक (From the 151 chapter to the 155 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्‍डव पक्ष के सेनापति का चुनाव तथा पाण्‍डव-सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर धर्म में ही मन लगाये रखने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान के सामने ही अपने भाइयों से कहा- 

   युधिष्ठिर बोले ;- कौरवसभा में जो कुछ हुआ है वह सब वृतान्‍त तुम लोगों ने सुन‍ लिया। फिर भगवान श्रीकृष्‍ण ने भी जो बात कही है, उसे भी अच्‍छी तरह समझ लिया होगा। अत: नरश्रेष्‍ठ वीरो! अब तुम लोग भी अपनी सेना का विभाग करो। ये सात अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयी हैं, जो अवश्‍य ही हमारी विजय कराने वाली होंगी। इन सातों अक्षौहिणियों के सात विख्‍यात सेनापति हैं, उनके नाम बताता हूँ, सुनो। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, सात्यकि, चेकितान और पराक्रमी भीमसेन। ये सभी वीर हमारे लिये अपने शरीर का भी त्‍याग कर देने को उद्यत हैं; अत: ये ही पाण्‍डव सेना के संचालक होने योग्‍य हैं। ये सब-के-सब वेदवेत्‍ता, शूरवीर, उत्‍तम व्रत का पालन करने वाले, लज्‍जशील, नीतिज्ञ और युद्धकुशल हैं। 

    इन सबने धनुर्वेद में निपुणता प्राप्‍त की है तथा ये सब प्रकार के अस्‍त्रों द्वारा युद्ध करने में समर्थ हैं। अब यह विचार करना चाहिये कि इन सातों का भी नेता कौन हो, जो सभी सेना-विभागों को अच्‍छी तरह जानता हो तथा युद्ध में बाणरूपी ज्‍वालाओं से प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी भीष्‍म का आक्रमण सह सकता हो। पुरुषसिंह कुरुनन्‍दन सहदेव! पहले तुम अपना विचार प्रकट करो। हमारा प्रधान सेनापति होने योग्‍य कौन है। 

   सहदेव बोले ;- जो हमारे सम्‍बन्‍धी हैं, दु:ख में हमारे साथ एक होकर रहने वाले और पराक्रमी भूपाल हैं, जिन धर्मज्ञ वीर का आश्रय लेकर हम अपना राज्‍यभाग प्राप्‍त कर सकते हैं तथा जो बलवान, अस्‍त्रविद्या में निपुण और युद्ध में उन्‍मत्‍त होकर लड़ने वाले हैं, वे मत्‍स्‍यनरेश विराट संग्रामभूमि में भीष्‍म तथा अन्‍य महा‍रथियों का सामना अच्‍छी तरह सहन कर सकेंगे। 

   वैशम्‍पयानजी कहते हैं ;- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार कहने पर प्रवचन कुशल नकुल ने उनके बाद यह बात कही- 

   नकुल बोले ;- जो अवस्‍था, शास्‍त्रज्ञान, धैर्य कुल और स्‍वजन समूह सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनमें लज्‍जा, बल और श्री तीनों विद्यमान हैं, जो समस्‍त शास्‍त्रों के ज्ञान में प्रवीण हैं, जिन्‍हें महर्षि भरद्वाज से अस्‍त्रों की शिक्षा प्राप्‍त हुई है, जो सत्‍यप्रतिज्ञ एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं, महाबली भीष्‍म और द्रोणाचार्य से सदा स्‍पर्धा रखते हैं, जो समस्‍त राजाओं के समूह की प्रशंसा के पात्र हैं और युद्ध के मुहाने पर खडे़ हो समस्‍त सेनाओं की रक्षा करने में समर्थ हैं, बहुत-से पुत्र पौत्रों द्वारा घिरे रहने के कारण जिनकी सैकडों शाखाओं से सम्‍पन्‍न वृक्ष की भाँति शोभा होती है, जिन महाराज ने रोषपूर्वक द्रोणाचार्य के विनाश के लिये पत्‍नी सहित घोर तपस्या की है, जो संग्रामभूमि में सुशोभित होने वाले शूरवीर हैं और हम लोग पर सदा ही पिता के समान स्‍नेह रखते हैं वे हमारे श्‍वसुर भूपालशिरोमणि द्रुपद हमारी सेना के प्रमुख भाग का संचालन करें। मेरे विचार से राजा द्रुपद ही युद्ध के लिये सम्‍मुख आये हुए द्रोणाचार्य और भीष्‍म पितामह का सामना कर सकते हैं; क्‍योंकि वे दिव्‍याशास्‍त्रों के ज्ञाता और द्रोणाचार्य के सखा हैं। 

   माद्रीकुमारों के इस प्रकार अपना विचार प्रकट करने पर कुरुकुल को आनन्दित करने वाले इन्‍द्र के समान पराक्रमी, इन्‍द्रपुरुष सव्‍यसाची अर्जुन ने इस प्रकार कहा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

   जो अग्नि की ज्‍वाला के समान कान्तिमान महाबाहु वीर अपने पिता की तपस्‍या के प्रभाव से तथा महर्षियों के कृपाप्रसाद से उत्‍पन्‍न हुआ दिव्‍य पुरुष है, जो अग्निकुण्‍ड से कवच, धनुष और खड्ग धारण किये प्रकट हुआ और तत्‍काल ही दिव्‍य एवं उत्‍तम अश्‍वों से जुते हुए रथ पर आरूढ़ हो युद्ध के लिये सुसज्जित देखा गया था, जो पराक्रमी वीर अपने रथ की घरघराहट से गर्जते हुए महामेघ के समान जान पड़ता है, जिसके शरीर की गठन, पराक्रम, हृदय, वक्ष:स्‍थल, बाहु, कंधे और गर्जना- ये सभी सिंह के समान हैं, जो महाबली, महातेजस्‍वी और महान वीर है, जिसकी भौंहें, दन्‍तपंक्ति, ठोड़ी, भुजाएं और मुख बहुत सुन्‍दर हैं, जो सर्वथा हृष्‍ट-पुष्‍ट हैं, जिसके गले की हँसुली सुन्‍दर दिखायी देती है, जिसका किसी भी अस्‍त्र-शस्‍त्र से भेद नहीं हो सकता, जो मद की धारा बहाने वाले गजराज के सदृश पराक्रमी वीर द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये उत्‍पन्‍न हुआ है तथा जो सत्‍यवादी एवं जितेन्द्रिय है, उस धृष्टद्युम्न को ही मैं प्रधान सेनापति बनाने‍ के योग्‍य मानता हूँ। पितामह भीष्‍म के बाण प्रज्‍वलित मुख वाले सर्पों के समान भयंकर हैं, उनका स्‍पर्श वज्र और अशनि के समान दु:सह है, वीर धृष्टद्युम्न ही उन बाणों का आघात सह सकता है। 

     पितामह भीष्‍म के बाण आघात करने में अग्नि के सामान तेजस्‍वी एवं यमदूतों के समान प्राणों का हरण करने वाले हैं। वज्र की गड़गड़ाहट के समान गम्‍भीर शब्‍द करने वाले उन बाणों का पहले युद्ध में परशुरामजी ने ही सहा था। राजन! मैं धृष्टद्युम्न के सिवा ऐसे किसी पुरुष को नहीं देखता, जो महान व्रतधारी भीष्‍म का वेग सह सके। मेरा तो यही निश्‍चय है। जो शीघ्रतापूर्वक हस्‍तसंचालन करने वाला, विचित्र पद्धति से युद्ध करने में कुशल, अभेद्य कवच ये सम्‍पन्‍न एवं यूथपति गजराज की भाँति सुशोभित होने वाला है, मेरी सम्‍मति में वह श्रीमान धृष्‍टद्युम्न ही सेनापति होने के योग्‍य हैं। 

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन ने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया। 

   भीमसेन ने कहा ;- राजेन्‍द्र! द्रुपदकुमार शिखण्‍डी पितामह भीष्‍म का वध करने के लिये ही उत्‍पन्‍न हुआ है। यह बात यहाँ पधारे हुए सिद्धों एवं महर्षियों ने बतायी है! संग्रामभूमि में जब वह अपना दिव्‍यास्‍त्र प्रकट करता है, उस समय लोगों को उसका स्‍वरूप महात्‍मा परशुराम के समान दिखायी देता है। मैं ऐेसे किसी वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में शिखण्‍डी को मार सके। राजन! जब महाव्रती भीष्‍म रथ पर बैठकर अस्‍त्र-शस्‍त्रों से सुसज्जित हो सामने आयेंगे, उस समय द्वैरथ युद्ध में शूरवीर शिखण्‍डी के सिवा दूसरा कोई योद्धा उन्‍हें नहीं मार सकता। अत: मेरे मत में वही प्रधान सेनापति होने के योग्‍य है। 

   युधिष्ठिर बोले ;- तात! धर्मात्‍मा भगवान श्रीकृष्ण सम्‍पूर्ण जगत के समस्‍त सारासार और बलाबल को जानते हैं तथा इस विषय में इन सब राजाओं का क्‍या मत है इससे भी ये पूर्ण परिचित हैं। अत: दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्‍ण जिसका नाम बतावें, वही हमारी सेना का प्रधान सेनापति हो। फिर वह अस्‍त्र विधा में निपुण हो या न हो, वृद्ध हो या युवा हो इसकी चिन्‍ता अपने लोगों को नहीं करनी चाहिए। तात! वे भगवान ही हमारी विजय अथवा पराजय के मूल कारण हैं। हमारे प्राण, राज्‍य, भाव, अभाव तथा सुख और दुख इन्‍हीं पर अवलम्बित हैं। यही सबके कर्ता-धर्ता हैं। हमारे समस्‍त कार्यों की सिद्धि इन्‍हीं पर निर्भर करती है। अत: भगवान श्रीकृष्‍ण जिसके लिये प्रस्‍ताव करें, वही हमारी विशाल वाहिनी का प्रधान अधिनायक हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 37-58 का हिन्दी अनुवाद)

   अत: वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण अपना विचार प्रकट करें। इस समय रात्रि है। हम अभी सेनापति का निर्वाचन करके रात बीतने पर अस्‍त्र-शस्‍त्रों का अधिवासन , कौतूक आदि तथा मंगलकृत्‍य करने के अनन्‍तर श्रीकृष्‍ण के अधीन हो समरांगण की यात्रा करेंगे। 

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन! बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन की ओर देखते हुए कहा,

   भगवान श्री कृष्ण बोले ;- महाराज! आप लोगों ने जिन-जिन वीरों के नाम लिये हैं, ये सभी मेरी राय में भी सेनापति होने के योग्‍य हैं; क्‍योंकि वे सभी बड़े पराक्रमी योद्धा हैं। आपके शत्रुओं को परास्‍त करने की शक्ति इन स‍बमें विद्यमान है। ये महान संग्राम में इन्‍द्र के मन में भी भय उत्‍पन्‍न कर सकते हैं। फिर पापात्‍मा और लोभी धृतराष्‍ट्र पुत्रों की तो बात ही क्‍या है। महाबाहु भरतनन्‍दन! मैंने भी महान युद्ध की सम्‍भावना देखकर तुम्‍हारा प्रिय करने के लिये शान्ति-स्‍थापना के निमित्‍त उऋण हो गये हैं। दूसरों के दोष बताने वाले लोग भी अब हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं कर सकते। 

   धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन युद्ध के लिये आतुर हो रहा है। वह मूर्ख और अयोग्‍य होकर भी अपने को अस्‍त्रविद्या में पारंगत मानता है और दुर्बल होकर भी अपने को बलवान समझता है। अत: आप अपनी सेना को युद्ध के‍ लिये अच्‍छी तरह से सुसज्जित कीजिये; क्‍योंकि मेरे मत में वे शत्रुवध से ही वशीभूत हो सकते हैं। वीर अर्जुन, क्रोध में भरे हुए भीमसेन, यमराज के समान नकुल-सहदेव, सात्‍यकि सहित अमर्षशील धृष्टद्युम्न, अभिमन्‍यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, विराट, द्रुपद तथा अक्षौहिणी सेनाओं के अधिपति अन्‍यान्‍य भयंकर पराक्रमी नरेशों को युद्ध के लिये उद्यत देखकर धृतराष्‍ट्र के पुत्र रणभूमि में टिक नहीं सकेंगे। हमारी सेना अत्‍यन्‍त श्‍क्तिशाली, दुर्धर्ष और दुर्गम है। वह युद्ध में धृतराष्‍ट्र पुत्रों की सेना का संहार कर डालेगी, इसमें संशय नहीं है। शत्रुदमन! मैं धृष्टद्युम्न को ही प्रधान सेनापति होने योग्‍य मानता हूँ।

    वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- राजन भगवान श्रीकृष्‍ण के ऐसा कहने पर नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव बड़े प्रसन्‍न हुए। फिर तो युद्ध के लिये सुसज्ज्ति हो जाओ, सुसज्जित हो जाओ, ऐसा कहते हुए समस्‍त सैनिक बड़ी उतावली के साथ दौड़-धूप करने लगे। उस समय प्रसन्‍न चित्‍त वाले उन वीरों का महान हर्षनाद सब ओर गूँज उठा। सब ओर घोड़े, हाथी और रथों का घोष होने लगा। सभी ओर शंख और दुन्‍दुभियों की भयानक ध्‍वनि गूँजने लगी। रथ, पैदल और हाथियों से भरी हुई यह भयंकर सेना उत्‍ताल तरगों से व्‍याप्‍त महासागर के समान क्षुब्‍ध हो उठी। 

   रण यात्रा के लिये उद्यत हुए पाण्‍डव और उनके सैनिक सब ओर दौड़ेते, पुकारते और कवच बाँधते दिखायी दिये। उनकी यह विशाल वाहिनी जल से परिपूर्ण गंगा के समान दुर्गम दिखायी देती थी। सेना के आगे-आगे भीमसेन, कवचधारी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु, द्रौपदी के सभी पुत्र, द्रुपद कुमार धृष्‍टद्युम्न, प्रभद्रकगण और पाञ्चालदेशीय क्षत्रिय वीर चले। इन सबने भीमसेन को अपने आगे कर लिया था। तदनन्‍तर जैसे पूर्णिमा के दिन बढ़ते हुए समुद्र का कोलाहल सुनायी देता है, उसी प्रकार हर्ष और उत्‍साह में भरकर युद्ध के लिये यात्रा करने वाले उन सैनिकों का महान घोष सब ओर फैलकर मानो स्‍वर्गलोक तक जा पहुँचा। हर्ष में भरे हुए और कवच आदि से सुसज्जित वे समस्‍त सैनिक शत्रु-सेना को विदीर्ण करने का उत्‍साह रखते थे। कुन्‍तीपुत्र राजा युधिष्ठिर समस्‍त सैनिकों के बीच में होकर चले। सामान ढोने वाली गाड़ी, बाजार, डेरे-तम्‍बू, रथ आदि सवारी, खजाना, यन्‍त्रचालित अस्‍त्र और चिकित्‍सा कुशल वैद्य भी उनके साथ-साथ चले। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 59-71 का हिन्दी अनुवाद)

   राजा युधिष्ठिर ने जो कोई भी सेना सारहीन, कृशकाय अथवा दुर्बल थी, सबको एवं अन्‍य परिचारकों को उपप्लव्‍य में एकत्र करके वहाँ से प्रस्थान कर दिया। पाञ्चालराजकुमारी सत्‍यवादिनी द्रौपदी दास-दासियों से घिरी हुई कुछ दूर तक महाराज के साथ गयी। फिर सभी स्त्रियों के साथ उपप्‍लव्य नगर में लौट आयी।

  पाण्‍डव लोग दुर्ग की रक्षा के लिये आवश्‍यक स्‍थावर तथा जंगम  उपायों द्वारा स्त्रियों और धन आदि की सुरक्षा की समुचित व्‍यवस्‍था करके बहुत से खेमे और तम्‍बू आदि साथ लेकर प्रस्थित हुए। राजन! ब्राह्रमण लोग चारों ओर से घेरकर पाण्‍डवों के गुण गाते ओर पाण्‍डव लोग उन्हें गायों तथा सुवर्ग आदि का दान देते थे। इस प्रकार वे मणिभूषित रथों पर बैठकर यात्रा कर रहे थे। पाँचों भाई केकयराजकुमार, धृष्‍टकेतु, काशिराज के पुत्र अभिभू, श्रेणिमान, वसुदान और अपराजित वीर शिखण्‍डी से सब लोग आभूषण और कवच धारण करके हाथों में शस्‍त्र लिये हर्ष और उल्‍लास में भरकर राजा युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर उनके साथ-साथ जा रहे थे। 

   सेना के पिछले आधे भाग में राजा विराट, सोमकवंशी द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, सुधर्मा, कुन्तिभोज और धृष्टद्युम्न के पुत्र जा रहे थे। इनके साथ चालीस हजार रथ, दो लाख घोड़े, चार लाख पैदल और साठ हजार हाथी थे। अनाधृष्टि, चेकितान, धृष्टकेतु तथा सात्‍यकि- ये सब लोग भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को घेरकर चल रहे थे। इस प्रकार सेना की व्‍यूहरचना करके प्रहार करने के लिये उद्यत हुए पाण्‍डव सैनिक कुरुक्षेत्र में पहुँचकर साँड़ों के समान गर्जन करते हुए दिखायी देने लगे। उन शत्रुदमन वीरों ने कुरुक्षेत्र की सीमा में पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये। इसी प्रकार श्रीकृष्‍ण और अर्जुन ने भी शंखध्‍वनि की। बिजली की गड़गड़ाहट के समान पाञ्चजन्‍य का गम्‍भीर घोष सुनकर सब ओर फैले हुए समस्‍त पाण्‍डव-सैनिक हर्ष से उल्‍लसित एवं रोमांचित हो उठे। 

   शंख और दुन्‍दुभियों की ध्‍वनि से मिला हुआ बेगवान वीरों का सिंहनाद पृथ्‍वी, आकाश तथा समुद्रों तक फैलकर उस सबको प्रतिध्‍वनित करने लगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्माणपर्वमें पाण्‍डवसेना का कुरुक्षेत्रमें प्रवेशविष्‍यक एक सौ इक्‍यानवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

 “कुरुक्षेत्र में पाण्डवसेनाका पड़ाव तथा शिविर-निर्माण”

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर राजा युधिष्ठिर ने एक चिकने और समतल प्रदेश में जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। शमशान, देवमन्दिर, महर्षियों के आश्रम, तीर्थ और सिद्ध क्षेत्र इन सबका परित्‍याग करके उन स्‍थानों से बहुत दूर ऊसर रहित मनोहर शुद्ध एवं पवित्र स्‍थान में जाकर कुन्‍ती पुत्र महामति युधिष्ठिर ने अपनी सेना को ठहराया। 

   तत्‍पश्‍चात समस्‍त वाहनों के विश्राम कर लेने पर स्‍वंय भी विश्राम सुख का अनुभव करके भगवान श्रीकृष्ण उठे ओर सैकडों हजारों भूमिपालों से घिर कर कुन्‍ती पुत्र अर्जुन के साथ आगे बढे। उन्‍होंने दुर्योधन के सैकडों सैनिक दलों को दूर भगाकर वहाँ सब ओर विचरण करना प्रारम्‍भ किया। द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न तथा प्रतापशाली एवं उदार रथी सत्‍यकपुत्र युयुधान ने शिविर बनाने योग्‍य भूमि नापी। भरतनन्‍दन जनमेजय! कुरुक्षेत्र में हिरण्वती नामक एक पवित्र नदी है, जो स्‍वच्‍छ एवं विशुद्ध जल से भरी है। उसके तटपर अनेक सुन्‍दर घाट हैं। उस नदी में कंकड, पत्‍थर और कीचड़ का नाम नहीं है। उसके समीप पहुँचकर भगवान श्रीक्रष्‍ण ने खाई खुदवायी और उसकी रक्षा के लिये पहरेदारों को नियुक्‍त करके वहीं सेना को ठहराया। महात्‍मा पाण्‍डवों के लिये शिविर का निर्माण जिस विधि से किया गया था, उसी प्रकार के भगवान केशव ने अन्‍य राजाओं के लिये शिविर बनवाये। 

   राजेन्‍द्र! उस समय राजाओं के लिये सैकड़ों और हजारों की संख्‍या में दुर्धर्ष एवं बहुमूल्‍य शिविर पृथक-पृथक बनवाये गये थे। उनके भीतर बहुत से काष्‍ठों तथा प्रचुर मात्रा में भक्ष्‍य-भोज्‍य अन्‍न एवं पान-सामग्री का संग्रह किया गया था। वे समस्‍त शिविर भूतलपर रहते हुए विमानों के समान सुशोभित हो रहे थे। वहाँ सैंकड़ों विद्वान शिल्‍पी और शास्‍त्रविशारद वैद्य वेतन देकर रखे गये थे, जो समस्‍त आवश्‍यक उपकरणों के साथ वहाँ रहते थे। प्रत्‍येक शिविर में प्रत्‍यञ्चा, धनुष, कवच, अस्‍त्र-शस्‍त्र, मधु, तथा राल का चूरा इन सबके पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे।

  राजा युधिष्ठिर ने प्रत्‍येक शिविर में प्रचुर जल, सुन्‍दर घास, भूसी और अग्नि का संग्रह करा रखा था। बड़े-बड़े यन्‍त्र, नाराच, तोमर, फरते, धनुष, कवच, ऋषि और तरकस- ये सब वस्‍तुएं भी उन सभी शिविरों में संग्रहीत थीं। वहाँ लाखों योद्धाओं के साथ युद्ध करने में समर्थ पर्वतों के समान विशालकाय बहुत से हाथी दिखायी देते थे, जो कांटेदार साज-सामान, लोहे के कवच तथा लोहे की ही शूलधारण किये हुए थे। भारत! पाण्‍डवों ने कुरुक्षेत्र में जाकर अपनी सेना का पड़ाव डाल‍ दिया है, यह जानकर उनसे मित्रता रखने वाले बहुत से राजा अपनी सेना और सवारियों के साथ उनके पास आये, जहाँ वे ठहरे थे। 

   जिन्‍होंने यथासमय ब्रह्मचर्यव्रत का पालन, यज्ञों में सोमरस का पान तथा प्रचुर दक्षिणाओं का दान किया था, ऐसे भूपालगण पाण्‍डवों की विजय के लिये कुरुक्षेत्र में पधारे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्वाणपर्व में शिविर आदिका निर्माणविषयक एक सौ बावनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन का सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण करने के लिये आज्ञा देना तथा सैनिकों की रणयात्रा के लिये तैयारी”

    जनमेजय ने पूछा ;- मुने! दुर्योधन ने जब यह सुना कि राजा युधिष्ठिर युद्ध की इच्‍छा से सेनाओं के साथ यात्रा करके भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित हो कुरुक्षेत्र में पहुँच गये और वहाँ सेना का पड़ाव डाले बैठे हैं, पुत्रों सहित राजा विराट और द्रुपद भी उनके साथ हैं, केकयराजकुमार, वृष्णिवंशी योद्धा तथा सैकडों भूपाल उन्‍हें घेरे रहते हैं तथा वे आदित्‍यों सहित घिरे हुए देवराज इन्‍द्र की भाँति अनेक महारथी योद्धाओं द्वारा सुरक्षित हैं, तब उसने क्‍या किया। महामते! कुरुक्षेत्र के उस भयंकर समारोह में जो कुछ हुआ हो वह सब में विस्‍तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। 

   तपोधन! पाण्‍डव, भगवान श्रीकृष्‍ण, विराट, द्रुपद, पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, महारथी शिखण्‍डी तथा देवताओं के लिये भी दुर्जय महापराक्रमी युधामन्यु ये सब तो संग्राम में एकत्र होने पर इन्‍द्र सहित सम्‍पूर्ण देवताओं को भी पीड़ित कर सकते हैं; अत: वहाँ कौरवों तथा पाण्‍डवों ने जो-जो कर्म किया था वह सब विस्‍तारपूर्वक सुनने की मेरी इच्‍छा है। 

   वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- राजन! भगवान श्रीकृष्‍ण के चले जाने पर उस समय राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन और शकुनि से इस प्रकार कहा। श्रीकृष्‍ण यहाँ से कृतकार्य होकर नहीं गये हैं। इसके लिये वे क्रोध में भरकर पाण्‍डवों को निश्‍चय ही युद्ध के लिये उत्‍तेजित करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। वास्‍तव में श्रीकृष्‍ण यही चाहते हैं कि पाण्‍डवों के साथ मेरा युद्ध हो। भीमसेन और अर्जुन- ये दोनों भाई तो श्रीकृष्‍ण के मत में रहने वाले हैं। अजातशत्रु युधिष्ठिर भी अधिकतर भीमसेन के वश में रहा करते हैं। इसके सिवा मैंने पहले सब भाइयों सहित उनका तिरस्‍कार भी किया है। 

  विराट और द्रुपद तो मेरे साथ पहले से ही वैर रखते हैं। वे दोनों पाण्‍डव-सेना के संचालक तथा श्रीकृष्‍ण की आज्ञा के अधीन रहने वाले हैं। अत: अब हम लोगों का पाण्‍डवों के साथ होने वाला यह युद्ध बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी होगा। इसलिये राजाओ! आप स‍ब लोग आलस्‍य छोड़कर युद्ध की सारी तैयारी करें। भूमिपालो! आप कुरुक्षेत्र में सैकडों और हजारों की संख्‍या में ऐसे शिविर तैयार करावें, जिनमें अपनी आवश्‍यकता के अनुसार पर्याप्‍त अवकाश हो तथा शत्रुलोग जिन पर अधिकार न कर सकें। उनमें पास ही जल और काष्‍ठ आदि मिलने की सुविधाएं हों। उनमें ऐसे मार्ग होने चाहिए जिनके द्वारा खाद्य सामग्री सुविधा से लायी जा सके और शत्रुलोग उसे नष्‍ट न कर सकें तथा उनके चारों तरफ किलेबन्‍दी कर देनी चाहिए।

   उन शिविरों को नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्रों से भरपूर तथा ध्‍वज-पता‍काओं से सुशोभित रखना चाहिये। शिविरों का जो नगर बसाया जाये, उससे बाहर अनेक सीधे तथा समतल मार्ग उन शिविरों में जाने के लिये बनाये जायें। आज ही यह घोषणा करा दी जाये कि कल सवेरे ही युद्ध के लिये प्रस्‍थान करना है। इसमें विलम्‍ब नहीं होना चाहिये। दुर्योधन यह आदेश सुनकर बहुत अच्‍छा- ऐसा ही होगा यह प्रतिज्ञा करके महामना कर्ण आदि ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर सवेरा होते ही राजाओं के निवास के लिये शिविर बनवाने आरम्‍भ कर दिये। 

   तदनन्तर वहाँ आये हुए सब नरेश राजा दुर्योधन की यह आशा सुनकर रोषावेश से परिपूर्ण हो चंदन और अगुरु से चर्चित तथा सोने के भुजबंदों से प्रकाशित अपनी परिघ के समान मोटी भुजाओं का धीरे-धीरे स्पर्श करते हुए बहुमूल्य आसनों से उठकर खड़े हो गये। उन्‍होंने अपने कमलसदृश करों से मस्‍तक पर पगड़ी बाँध ली; फिर धोती, चादर और सब प्रकार के आभूषण धारण कर लिये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिपंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 21-27 का हिन्दी अनुवाद)

   श्रेष्‍ठ रथी अपने रथों को, अश्व संचालन की कला में कुशल योद्धा घोड़ों को और हस्‍तशिक्षा में निपुण सैनिक हाथियों को सुसज्जित करने लगे। उन्‍होंने सोने के बने हुए बहुत से विचित्र कवच तथा सब प्रकार के विभिन्‍न अनेक अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण कर लिये। पैदल योद्धाओं ने भी अपने अंगों में सुवर्णजटित कवच तथा भाँति-भाँति के अनेक अस्‍त्र-शस्‍त्र धारण कर लिये। जनमेजय! दुर्योधन का वह हस्तिनापुर नगर मानो वहाँ कोई उत्‍सव हो रहा हो, इस प्रकार समृद्ध और हर्षोत्‍फुल्‍ल मनुष्‍यों से भर गया था, इससे वहाँ बड़ी हलचल मच गयी थी। राजन! जैसे चन्‍द्रोदयकाल में समुद्र उत्‍ताल तरगों से व्‍याप्‍त हो जाता है, उसी प्रकार के उदय से अत्‍यन्‍त उल्‍लासित दिखायी देने लगा। सब ओर घूमता हुआ जनसमुदाय ही वहाँ जल में उठने वाली भँवरों के समान जान पड़ता था। रथ, हाथी और घोडे़ उसमें मछली के समान प्रतीत होते थे। शंख और दुन्‍दुभियों की ध्‍वनि ही उस कुरुराजरूपी समुद्र की गर्जना थी। खजानों का संग्रह ही रत्‍नराशि का प्रतिनिधित्‍व कर रहा था। योद्धाओं के विचित्र आभूषण और कवच ही उस समुद्र की उठती हुई तरंगों के समान जान पड़ते थे। चमकीले शस्‍त्र ही निर्मल फेन से प्रतीत होते थे। महलों की पंक्तियाँ ही तटवर्ती पर्वत सी जान पड़ती थी। सड़कों पर स्थित दुकानें ही मानो गुफाएँ थीं। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्वाणपर्व में ‘दुर्योधन का अपनी सेना को सुसज्जित करना’ इस विषय से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ तिरपनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुष्‍पंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण से अपने समयोचित कर्तव्‍य के विषय में पूछना, भगवान का युद्ध को ही कर्तव्‍य बताना तथा इस विषय में युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा श्रीकृष्‍ण के वचनों का समर्थन”

  वैशम्पायनजी कहते हैं‌ ;- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्‍ण के पूर्वोंक्‍त कथन का स्‍मरण करके युधिष्ठिर ने पुन: उनसे पूछा‌,

  युधिष्ठिर बोले ;- भगवान! मन्‍दबुद्धि दुर्योधन ने क्‍यों ऐसी बात कही? ‘अच्‍युत! इस वर्तमान समय में हमारे लिये क्‍या करना उचित है? हम कैसा बर्ताव करें? जिससे अपने धर्म से नीचे न गिरें। ‘वासुदेव! दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के तथा भाइयों सहित मेरे विचारों को भी आप जानते हैं। ‘विदुर ने और भीष्‍मजी ने भी जो बातें कही हैं, उन्‍हें भी आपने सुना है। विशाल बुद्धे! माता कुन्‍ती का विचार भी आपने पूर्णरूप से सुन लिया है। ‘महाबाहो! इन सब विचारों को लांघकर स्‍वंय ही इस विषय पर बारंबार विचार करके हमारे लिये जो उचित हो, उसे नि:संकोच कहिये।' धर्मराज का यह धर्म और अर्थ से युक्‍त वचन सुनकर भगवान मेघ और दुन्‍दुभि के समान गम्‍भीर स्‍वर में यह बात कही। 

   श्रीकृष्‍ण बोले ;- मैंने जो धर्म और अर्थ से युक्‍त हितकर बात कही है, वह छल-कपट करने में ही कुशल कुरुवंशी दुर्योधन के मन में नहीं बैठती है। खोटी बुद्धि वाला वह दुष्‍ट न भीष्‍म की, न विदुर की और न मेरी ही बात सुनता है। वह सबकी सभी बातों को लाँघ जाता है। दुरात्‍मा दुर्योधन कर्ण का आश्रय लेकर सभी वस्‍तुओं को जीती हुई ही समझता है। इसीलिये न यह धर्म की इच्‍छा रखता है और न ही यश की ही कामना करता है। पापपूर्ण निश्‍चय वाले उस दुरात्‍मा दुर्योधन ने तो मुझे भी कैद कर लेने की आज्ञा दे दी थी; परंतु वह उस मनोरथ को पूर्ण न कर सका। अच्‍युत! यहाँ भीष्‍म तथा द्रोणाचार्य भी सदा उचित बात नहीं कहते हैं। विदुर को छोडकर अन्‍य सब लोग दुर्योधन का ही अनुसरण कर लेते हैं। सुबलपुत्र शकुनि, कर्ण और दु:शासन- इन तीनों मूर्खों ने मूढ़ और असहिष्‍णु दुर्योधन के समीप आपके विषय में अनेक अनुचित बातें कही थीं। उन लोगों ने जो-जो बातें कहीं, उन्‍हें यदि मैं पुन: यहाँ दोहराऊँ तो इससे क्‍या लाभ है। थोड़े में इतना ही समझ लीजिये कि वह दुरात्‍मा कौरव आपके प्रति न्‍याययुक्‍त बर्ताव नहीं कर रहा है। 

   इन सब राजाओं में, जो आपकी सेना में स्थित हैं, जिसमें पाप और अमंगलकारक भाव नहीं है, वह सब अकेले दुर्योधन में विद्यमान हैं। हम लोग भी बहुत अधिक त्‍याग करके, सर्वस्‍व खोकर कभी किसी भी दशा में कौरवों के साथ संधि की इच्‍छा नहीं रखते हैं। अत: इसके बाद हमारे लिये युद्ध ही करना उचित है। 

  वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- भरतनन्‍दन! भगवान श्रीकृष्‍ण का यह कथन सुनकर सब राजा कुछ न बोलते हुए केवल महाराज युधिष्ठिर के मुहँ की ओर देखने लगे। युधिष्ठिर ने राजाओं का अभिप्राय समझकर भीम, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव के साथ उन्‍हें युद्ध के लिये तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। उस समय युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा मिलते ही समस्‍त योद्धा हर्ष से खिल उठे, फिर तो पाण्‍डवों के सैनिक किलकारियां करने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर यह देखकर कि युद्ध छिड़ने पर अवध्य पुरुषों का भी वध करना पड़ेगा, खेद से लम्‍बी सांसें खींचते हुए भीमसेन और अर्जुन से इस प्रकार बोले। जिससे बचने के लिये मैंने वनवास का कष्‍ट स्‍वीकार किया और नाना प्रकार के दुख सहन किये, वही महान अनर्थ मेरे प्रयत्‍न से भी टल न सका। वह हम लोगों पर आना ही चाहता है। 

   यद्यपि उसे टालने के लिये हमारी ओर से पूरा प्रयत्‍न किया गया, किंतु हमारे प्रयास से उसका निवारण नहीं हो सका और जिसके लिये कोई प्रयत्‍न नहीं किया गया था, वह महान कलह स्‍वत: हमारे ऊपर आ गया। ‘जो लोग मारने योग्‍य नहीं हैं, उनके साथ युद्ध करना कैसे उचित होगा? वृद्ध गुरुजनों का वध करके हमें विजय किस प्रकार प्राप्‍त होगी? धर्मराज की यह बात सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले सव्‍यसाची अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्‍ण की कही हुई बातों को उनसे कह सुनाया। 

   अर्जुन कहने लगे ;- ‘राजन देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍ण ने माता कुन्‍ती तथा विदुरजी के कहे जो वचन आपको सुनाये थे, उन पर आपने पूर्ण रूप से विचार किया होगा। ‘मेरा तो यह निश्चित मत है कि वे दोनों अधर्म की बात नहीं है।' अर्जुन का यह वचन सुनकर भगवान श्रीकृष्‍ण भी युधिष्ठिर से मुसकराते हुए बोले,

श्री कृष्ण बोले ;- ‘हाँ‘ अर्जुन ठीक कहते हैं।' महाराज जनमेजय! तदनन्‍तर योद्धाओं सहित पाण्‍डव युद्ध के लिये दृढ निश्‍चय करके उस रात में वहाँ सुखपूर्वक रहे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्वाण में युधिष्ठिर-अर्जुन-संवादविषयक एक सौचौवनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सैन्यनिर्यातण पर्व)

एक सौ पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के द्वारा सेनाओं का विभाजन पृथक-पृथक अक्षौहिणियों के सेनापतियों का अभिषेक”

  वैशम्पायनजी कहते हैं‌ ;- जनमेजय! रात बीतने पर जब सवेरा हुआ, तब राजा दुर्योधन ने अपनी ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाओं का विभाग किया। राजा दुर्योधन ने पैदल, हाथी, रथ और घुड़सवार- इन सभी सेनाओं में से उत्‍तम, मध्‍यम और निकृष्ट श्रेणियों को पृथक-पृथक करके उन्‍हें यथास्‍थान नियुक्‍त कर दिया। वे सब वीर अनुकर्ष , तरकस, वरूथ, ऋृष्टि, ध्‍वजा, पताका, धनुष-बाण, तरह-तरह की रस्सियाँ, पाश, बिस्‍तर, कचग्रह-विक्षेप राल का चूरा, घण्‍टफलक, खंड्गदि पाल, मोम चुपड़े हुए मुद्गर, काँटीदार लाठियाँ, हल, विष लगे हुए बाण, सूप तथा टोकरियाँ, दरात, अंकुश, तोमर, काँटेदार कवच, वसूले, और आदि, बाघ और गैंड़े के चमड़े से मढ़े हुए रथ, ऋषि, सींग, प्रास, भाँति-भाँति के आयुध, कुठार, कुदाल, तेल में भीगे हुए रेशमी वस्‍त्र तथा घी लिये हुए थे। वे सभी सैनिक सोने के जालीदार कवच धारण किये नाना प्रकार के मणिमय आभूषणों से विभूषित हो समस्‍त सेना को ही विचित्र शोभा से सम्‍पन्‍न करते हुए अपने सुन्‍दर शरीर से प्रज्‍वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। 

   इसी प्रकार जो शस्‍त्र-विद्या का निश्चित ज्ञान रखने वाले, कुलीन तथा घोड़ों की नस्‍ल को पहचानने वाले थे, वे कवचधारी शूरवीर ही सारथि के काम पर नियुक्‍त किये गये थे। उस सेना के रथों में अमंगल निवारण के‍ लिये यन्‍त्र और औषधियाँ बाँधी गयी थीं। वे रस्सियों से खूब कसे गये थे। उन रथों पर बँधी हुई ध्‍वज-पताकाएँ फहरा रहीं थी उनके ऊपर छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी थीं और कंगूरे जोड़े गये थे। उन सब में ढाल-तलवार और पटि्टश आबद्ध थे। उन सभी रथों में चार-चार घोड़े जुते हुए थे, वे सभी घोड़े अच्‍छी जाति के थे और सम्‍पूर्ण रथों में प्रास, ऋष्टि एवं सौ-सौ धनुष रखे गये थे। 

    प्रत्‍येक रथ के दो-दो घोड़ों पर एक-एक रक्षक नियुक्‍त था, एक-एक रथ के लिये दो चक्ररक्षक नियत किये गये थे। वे दोनों ही रथियों में श्रेष्‍ठ थे तथा रथी भी अश्‍व संचालन की कला में निपुण थे। सब ओर सुवर्णमालाओं से अलंकृत हजारों रथ शोभा पा रहे थे। शत्रुओं के लिये उनका भेदन करना अत्‍यन्‍त कठिन था। वे सब-के-सब नगरों की भाँति सुरक्षित थे। जिस प्रकार रथ सजाये गये थे, उसी प्रकार हाथियों को भी स्‍वर्णमालाओं से सुसज्जित किया गया था। उन सबको रस्‍सों से कसा गया था। उन पर सात-सात पुरुष बैठे हुए थे, जिससे वे हाथी रत्‍नयुक्‍त पर्वतों के समान जान पड़ते थे। 

    राजन! उनमें से दो पुरुष अंकुश लेकर महावत का काम करते थे, दो उत्‍तम धनुर्धर योद्धा थे, दो पुरुष अच्‍छी तलवारें लिये रहते थे और एक पुरुष शक्ति तथा त्रिशूलधारण करता था। राजन! महामना दुर्योधन की वह सारी सेना ही असत्र-शस्‍त्रों के भण्‍डार से युक्‍त मदमत्त गजराजों से व्‍याप्‍त हो रही थीं। 

   इसी प्रकार कवचधारी, युद्ध के लिये उद्यत, आभूषणों से विभूषित तथा पताकाधारी सवार से युक्‍त हजारों लाखों घोड़े उस सेना में मौजूद थे। वे घोड़े उछल-कूद मचाने आदि दोषों से रहित होने के कारण सदा अपने सवारों के वश में रहते थे। उन्‍हें अच्‍छी शिक्षा मिली थी। वे सुनहरे साजों से सुसज्जित थे। उनकी संख्‍या कई लाख थी।उस सेना में जो पैदल मनुष्‍य थे, वे भी सोने के हारों से अलंकृत थे। उनके रूप-रंग, कवच और अस्‍त्र-शस्‍त्र नाना प्रकार के दिखायी देते थे। एक-एक रथ के पीछे दस-दस हाथी, एक-एक हाथी के पीछे दस-दस घोड़े और एक-एक घोड़े के पीछे दस-दस पैदल सैनिक सब ओर पादरक्षक नियुक्‍त किये गये थे।

    एक-एक रथ के पीछे पचास-पचास हाथी, एक-एक हाथी के पीछे सौ-सौ घोड़े और एक-एक घोड़े के साथ सात-सात पैदल सैनिक इस उद्देशय से संगठित किये गये थे कि वे समूह से बिछुड़ी हुई दो सैनिक टुकड़ियों को परस्‍पर मिला दें। पांच सौ हा‍थियों और पांच सौ रथों की एक सेना होती है। दस सेनाओं की एक पृतना और दस पृतनाओं की एक वाहिनी होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद)

   इसके सिवा सेना, वाहिनी, पृतना, ध्‍वजिनी, चमू, वरूथिनी और अक्षौहिणी- इन पर्यायवाची नामों द्वारा भी सेना का वर्णन किया गया है। इस प्रकार बुद्धिमान दुर्योधन ने अपनी सेनाओं को व्‍यूहरचनापूर्वक संगठित किया था। कुरुक्षेत्र में ग्‍यारह और सात मिलकर अठारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हुई थी। पाण्‍डवों की सेना केवल सात अक्षौहिणी थी और कौरवों के पक्ष में ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाएं एकत्र हो गयी थीं। पचपन पैदलों की एक टुकडी को पत्ति कहते हैं। तीन पत्तियाँ मिलकर एक सेनामुख कहलाती है। सेनामुख का ही दूसरा नाम गुल्म है। 

   तीन गुल्‍मों का एक गण होता है। दुर्योधन की सेनाओं में युद्ध करने वाले पैदल योद्धाओं के ऐसे-ऐसे गण दस हजार से भी अधिक थे। उस समय वहाँ महाबाहु राजा दुर्योधन ने अच्‍छी तरह सोच-विचार कर बुद्धिमान एवं शूरवीर पुरुषों को सेनापति बनाया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्वत्‍थामा इन श्रेष्‍ठ पुरुषों को एवं मद्रराज शल्‍य, सिंधुराज जयद्रथ, कम्बोजराज सुदक्षिण, कृतवर्मा, कर्ण, भूरिश्रवा, सुबलपुत्र शकुनि तथा उन सबको पृथक-पृथक ए‍क-एक अक्षौहिणी सेना का नायक निश्चित करके विधिपूर्वक उनका अभिषेक किया। भारत! दुर्योधन प्रतिदिन और प्रत्‍येक वेला में उन सेनापतियों का बारंबार विविध प्रकार से प्रत्‍यक्ष पूजन करता था।

    उनके जो अनुयायी थे, उनको भी उसी प्रकार यथायोग्‍य स्‍थानों पर नियुक्‍त कर दिया गया। वे राजाओं के सैनिक राजा दुर्योधन का प्रिय करने की इच्‍छा रखकर अपने-अपने कार्य में तत्‍पर हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्‍तर्गत सैन्‍यनिर्वाणपर्वमें दुर्योधन की सेनाका विभागविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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