सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो छियालीसवें अध्याय से एक सो पचासवाँ अध्याय तक (From the 146 chapter to the 150 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण का कुन्‍ती को उत्‍तर तथा अर्जुन को छोड़कर शेष चारों पाण्‍डवों को न मारने की प्रतिज्ञा”

   वैशम्पायनजी कहते है ;- जनमेजय! तदनन्‍तर सूर्यमण्‍डल से एक वाणी प्रकट हुई, जो सूर्यदेव की ही कही हुई थी। उसमें पिता के समान स्‍नेह भरा हुआ था और वह दुर्लभ्‍य प्रतीत होती थी। कर्ण ने उसे सुना। वह वाणी इस प्रकार थी' नरश्रेष्‍ठ कर्ण! कुन्‍ती सत्‍य कहती है। तुम माता की आज्ञा का पालन करो। उसका पूर्णरूप पालन करने पर तुम्‍हारा कल्‍याण होगा। 

    वैश्‍म्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! माता कुन्‍ती और पिता साक्षात सूर्यदेव के ऐसा कहने पर भी उस समय सच्‍चे धैर्य वाले कर्ण की बुद्धि विचलित नहीं हुई। 

   कर्ण बोला ;- राजपुत्रि! तुमने जो कुछ कहा है, उस पर मेरी श्रद्धा नहीं होती। तुम्‍हारी इस आज्ञा का पालन करना मेरे लिये धर्म का द्वार है, इस पर भी मैं विश्‍वास नहीं करता। तुमने मेरे प्रति जो अत्‍याचार किया है, वह महान कष्‍टदायक है’। माता! तुमने जो मुझे पानी में फेंक दिया, वह मेरे लिये यश और कीर्ति का नाशक बन गया। यद्यपि मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्‍न हुआ था तो भी तुम्‍हारे कारण क्षत्रियोचित संस्‍कार से वंचित रह गया। कोई भी शत्रु मेरा इससे बढ़कर कष्‍टदायक एवं अहितकारक कार्य और क्‍या कर सकता है? 

   जब मेरे लिये कुछ करने का अवसर था, उस समय तो तुमने यह दया नहीं दिखायी और आज जब मेरे संस्‍कार का समय बीत गया है, ऐसे समय में तुम मुझे क्षात्रधर्म की ओर प्रेरित करने चली हो।

पूर्वकाल में तुमने माता के समान मेरे हित चेष्‍टा कभी नहीं की और आज केवल अपने हित की कामना रखकर मुझे मेरे कर्तव्‍य का उपदेश दे रही हो। श्रीकृष्‍ण के साथ मिले हुए अर्जुन से आज कौन वीर भय मानकर पीड़ित नहीं होता? यदि इस समय मैं पाण्‍डवों की सभा में सम्मिलित हो जाऊँ तो मुझे कौन भयभीत नहीं समझेगा। आज से पहले मुझे कोई नहीं जानता था कि मैं पाण्‍डवों का भाई हूँ। युद्ध के समय मेरा यह सम्‍बन्‍ध प्रकाश में आया है। इस समय यदि पाण्‍डवों से मिल जाऊँ तो क्षत्रिय-समाज मुझे क्‍या कहेगा? 

   धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने मुझे सब प्रकार की मनोवांछित वस्‍तुएं दी हैं ओर मुझे सुखपूर्वक रखते हुए सदा मेरा सम्‍मान किया है। उनके उस उपकार को मैं निष्‍फल कैसे कर सकता हूँ? शत्रुओं से वैर बाँधकर जो नित्‍य मेरी उपासना करते हैं तथा जैसे वसुगण इन्‍द्र को प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार जो सदा मुझे मस्‍तक झुकाते हैं, मेरी ही प्राणशक्ति के भरोसे जो शत्रुओं के सामने डटकर खडे़ होने का साहस करते हैं और इसी आशा से जो मेरा आदर करते हैं, उनके मनोरथ को मैं छिन्‍न-भिन्‍न कैसे करूँ? 

   जो मुझको ही नौका बनाकर उसके सहारे दुर्लभ्‍य समरसागर को पार करना चाहते हैं और मेरे ही भरोसे अपार संकट से पार होने की इच्‍छा रखते हैं, उन्‍हें इस संकट के समय में कैसे त्‍याग दूँ? दुर्योधन के आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करने वालों के लिये यही उपकार का बदला चुकाने के योग्‍य अवसर आया है। इस समय मुझे अपने प्राणों की रक्षा न करते हुए उनके ऋण से उऋण होना है। जो किसी के द्वारा अच्‍छी तरह पालित-पोषित होकर कृतार्थ होते हैं; परंतु उस उपकार का बदला चुकाने योग्‍य समय आने पर जो अस्थिरचित्‍त पापात्‍मा पुरुष पूर्वकृत उपकारों को न देखकर बदल जाते हैं, वे स्‍वामी के अन्‍न का अपहरण करने वाले तथा उपकारी राजा के प्रति अपराधी हैं। उन पापाचारी कृतघ्‍नों के लिये न तो यह लोक सुखद होता है न परलोक ही। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

   मैं तुमसे झूठ नहीं बोलता। धृतराष्‍ट्र के पुत्रों के लिये मैं अपनी शक्ति और बल के अनुसार तुम्‍हारे पुत्रों के साथ युद्ध अवश्‍य करूँगा। परंतु उस दशा में भी दयालुता तथा सज्जनोचित सदाचार की रक्षा करता रहूंगा। इसीलिये लाभदायक होते हुए भी तुम्‍हारे इस आदेश को आज मैं नहीं मानूँगा। परंतु मेरे पास आने का जो कष्‍ट तुमने उठाया है, वह भी व्‍यर्थ नहीं होगा। संग्राम में तुम्‍हारें चार पुत्रों को काबू के अंदर तथा वध के योग्‍य अवस्‍था में पाकर भी मैं नहीं मारूँगा। वे चार हैं, अर्जुन को छोड़कर युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव! युधिष्ठिर की सेना में अर्जुन के साथ ही मेरा युद्ध होगा। अर्जुन को युद्ध में मार देने पर मुझे संग्राम का फल प्राप्‍त हो जायेगा अथवा स्‍वयं ही सव्‍यसाची अर्जुन के हाथ से मारा जाकर मैं यश का भागी बनूँगा। 

   यशस्विनि! किसी भी दशा में तुम्‍हारे पाँच पुत्र अवश्‍य शेष रहेंगे। यदि अर्जुन मारे गये तो कर्ण सहित और यदि मैं मारा गया तो अर्जुन सहित तुम्‍हारे पाँच पुत्र रहेंगे। कर्ण की बात सुनकर कुन्‍ती धैर्य से विचलित न होने वाले अपने पुत्र कर्ण को हृदय से लगाकर दु:ख से काँपती हुई बोली- 

   कुन्ती बोली ;- 'कर्ण! देव बड़ा बलवान है। तुम जैसा कहते हो वैसा ही हो। इस युद्ध के द्वारा कौरवों का संहार होगा। 

    'शत्रुसूदन! तुमने अपने चार भाइयों को अभयदान दिया है। युद्ध में उन्‍हें छोड़ देने की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहना। 'तुम्‍हारा कल्‍याण हो। तुम्‍हें किसी प्रकार का कष्‍ट न हो।' इस प्रकार जब कुन्‍ती ने कर्ण से कहा, तब कर्ण ने भी 'तथास्‍तु' कहकर उसकी बात मान ली। फिर वे दोनों पृथक-पृथक अपने स्‍थान को चले गये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत भगवद्यानपर्व में कुन्‍ती और कर्ण की भेंटविषेयक एक सौ छियालिसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्‍ण कौरव सभा में व्‍यक्‍त किये हुए भीष्‍मजी के वचन सुनाना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण ने हस्तिनापुर से उपप्‍लव्य में आकर पाण्‍डवों से वहाँ का सारा वृतान्‍त ज्‍यों-का-त्‍यों कह सुनाया। दीर्घकाल तक बातचीत करके बारंबार गुप्‍त मन्‍त्रणा करने के पश्‍चात भगवान श्रीकृष्‍ण विश्राम के लिये अपने वासस्‍थान को गये। 

    तदनन्‍तर सूर्यास्‍त होने पर पाँचों भाई पाण्‍डव विराट आदि सब राजाओं को विदा करके संध्‍योपासना करने के पश्‍चात भगवान श्रीकृष्‍ण में ही मन लगाकर कुछ काल तक उन्‍हीं को ध्‍यान करते रहे। फिर दशार्हकुलभूष्‍ण श्रीकृष्‍ण को बुलाकर वे उनके साथ गुप्‍त मन्‍त्रणा करने लगे। 

   युधिष्ठिर बोले ;- कमलनयन! आपने हस्तिनापुर जाकर कौरव सभा में ध्रतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन से क्‍या कहा, यह हमें बताने की कृपा करें। 

  भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा ;- राजन मैंने हस्तिनापुर जाकर कौरव सभा में धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन से यथार्थ लाभदायक और हितकर बात कही थी; परंतु वह दुर्बुद्धि उसे स्‍वीकार नहीं करता था। 


   युधिष्ठिर ने पूछा ;- ह्रषीकेश! दुर्योधन के कुमार्ग का आश्रय लेने पर कुरुकुल के व्रद्ध पुरुष पितामह भीष्‍म ने ईर्ष्‍या और अमर्ष में भरे हुए दुर्योधन से क्‍या कहा? महाभाग! भरद्वाजनन्‍दन आचार्य द्रोण ने उस समय क्‍या कहा? पिता धृतराष्‍ट्र और गांधारी ने भी दुर्योधन से उस समय क्‍या बात कही। हमारे छोटे चाचा धर्मज्ञों में श्रेष्‍ठ विदुर ने भी,

 जो हम पुत्रों के शोक से सदा सर्वदा संतप्‍त रहते हैं, दुर्योधन से क्‍या कहा? जनार्दन! इसके सिवा जो समस्‍त राजा लोग सभा में बैठे थे, उन्‍होंने अपना विचार किस रूप में प्रकट किया? आप इन सब बातों को ठीक-ठीक बताइये। 

    कृष्‍ण! आपने कौरव सभा में निश्‍चय ही कुरुश्रेष्‍ठ भीष्‍म और धृतराष्‍ट्र के समीप सब बातें कह दी थी। परंतु आप की और उनकी सब बातों को मेरे लिये हितकर होने के कारण अपने लिये अप्रिय मानकर सम्‍भवत: काम और लोभ से अभिभूत मूर्ख एवं पण्डितमानी दुर्योधन अपने हृदय में स्‍थान नहीं देता। गोविन्‍द! मैं उन सबकी कही हुई बातों को सुनना चाहता हूँ। तात! ऐसा कीजिये, जिससे हम लोगों का समय व्‍यर्थ न बीते। श्रीकृष्‍ण! आप ही हम लोगों के आश्रय, आप ही रक्षक तथा आप ही गुरु हैं। 

   श्रीकृष्‍ण बोले ;- राजेन्‍द्र! मैंने कौरव सभा में राजा दुर्योधन से जिस प्रकार बातें की हैं, वह बताता हूं; सुनिये। मैंने जब अपनी बात दुर्योधन से सुनायी, तब वह हंसने लगा। यह देख भीष्‍मजी अत्‍यन्‍त कुपित हो उससे इस प्रकार बोले- 

   भीष्म बोले ;- 'दुर्योधन! मैं अपने कुल के हित के लिये तुमसे जो कुछ कहता हूं, उसे ध्‍यान देकर सुनो। नृपश्रेष्‍ठ! उसे सुनकर अपने कुल का हितसाधन करो। तात! मेरे पिता शान्तनु विश्‍वविख्‍यात नरेश थे, जो पुत्रवानों में श्रेष्‍ठ समझे जाते थे। राजन मैं उनका इकलौता पुत्र था। अत: उनके मन में यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ कि मेरे दूसरा पुत्र कैसे हो? क्‍योंकि मनीषी पुरुष एक पुत्र वाले को पुत्रहीन ही बताते हैं। किस प्रकार इस कुल का उच्‍छेद न हो और इसके यश का सदा विस्‍तार होता रहे- उनकी आन्‍तरिक इच्‍छा जानकर मैं कुल की भलाई और पिता की प्रसन्‍नता के लिये राजा न होने और जीवनभर ऊर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) रहने की दुष्‍कर प्रतिज्ञा करके माता सत्यवती (काली) को ले आया। ये सारी बातें तुमको अच्‍छी तरह ज्ञात हैं। मैं उसी प्रतिज्ञा का पालन करता हुआ सदा प्रसन्‍नतापूर्वक यहाँ निवास करता हूँ। राजन! सत्‍यवती के गर्भ से कुरुकुल का भार वहन करने वाले धर्मात्‍मा महाबाहु श्रीमान विचित्रवीर्य उत्‍पन्‍न हुए, जो मेरे छोटे भाई थे। 

    पिता के स्‍वर्गवासी हो जाने पर मैंने अपने राज्‍य पर राजा विचित्रवीर्य को ही बिठाया और स्‍वयं उनका सेवक होकर राज्‍य सिंहासन से नीचे खड़ा रहा। राजेन्‍द्र! उनके लिये राजाओं के समूह को जीतकर मैंने योग्‍य पत्नियां ला दीं। यह वृतान्‍त भी तुमने बहुत बार सुना होगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-43 का हिन्दी अनुवाद)

    तदनन्‍तर एक समय मैं परशुरामजी के साथ द्वन्‍द्वयुद्ध के लिये समरभूमि में उतरा। उन दिनों परशुरामजी के भय से यहाँ के नागरिकों ने राजा विचित्रवीर्य को इस नगर से दूर हटा दिया था। वे अपनी पत्नियों में अधिक आसक्‍त होने के कारण राजयक्ष्‍मा रोग से पीड़ित होकर मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गये। तब बिना राजा के राज्‍य में देवराज इंद्र ने वर्षा बंद कर दी, उस दशा में सारी प्रजा क्षुधा के भय से पीड़ित हो मेरे ही पास दौड़ी आयी। 

    प्रजा बोली ;- शान्तनु के कुल की वृद्धि करने वाले महाराज! आपका कल्‍याण हो। राज्‍य की सारी प्रजा क्षीण होती चली जा रही है। आप हमारे अभ्‍युदय के लिये राजा होना स्‍वीकार करें और अनावृष्टि आदि ईतियों का भय दूर कर दें। गगांनन्‍दन! आपकी सारी प्रजा अत्‍यन्‍त भयंकर रोगों से पीड़ित है। प्रजा में से बहुत थोडे़ लोग जीवित बचे हैं। अत: आप उन सबकी रक्षा करें। वीर! आप रोगों को हटावें और धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करें। आपके जीतेजी इस राज्‍य का विनाश न हो जाए। 

    भीष्‍म कहते हैं ;- प्रजा की यह करुण पुकार सुनकर भी प्रतिज्ञा की रक्षा और सदाचार का स्‍मरण करके मेरा मन क्षुब्ध नहीं हुआ। महाराज तदनन्‍तर मेरी कल्‍याणमयी माता सत्यवती, पुरवासी, सेवक, पुरोहित, आचार्य और बहुत श्रुत ब्राह्मण अत्‍यन्‍त संतप्‍त हो मुझसे बार-बार कहने लगे कि तुम्‍हीं राजा हो जाओ, नहीं तो महाराज प्रतीप के द्वारा सुरक्षित राष्‍ट्र तुम्‍हारे निकट पहुँचकर नष्‍ट हो जायेगा। अत: महामते! तुम हमारे हित के लिये राजा हो जाओ। उनके ऐसा कहने पर मैं अत्‍यन्‍त आतुर और दु:खी हो गया और मैंने हाथ जोड़कर उन सबसे पिता के महत्‍व की ओर दृष्टि रखकर की हुई प्रतिज्ञा के विषय में निवेदन किया।

फिर माता सत्‍यवती से कहा ;- मां! मैंने इस कुल की वृद्धि के लिये और विशेषत: तुम्‍हें ही यहाँ ले आने के लिये राजा न होने और नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहने की बारंबार प्रतिज्ञा की है। अत: तुम इस राज्‍य का बोझ संभालने के लिये मुझे नियुक्‍त न करो। राजन! तत्‍पश्‍चात पुन: हाथ जोड़कर माता को प्रसन्‍न करने के लिये मैंने विनयपूर्वक कहा,-

  भीष्म बोले ;- अम्‍ब! मैं राजा शान्‍तनु से उत्‍पन्‍न होकर कौरववंश की मर्यादा वहन करता हूँ। अत: अपनी की हुई प्रतिज्ञा को झूठी नहीं कर सकता। यह बात मैंने बार-बार दुहरायी। 

इसके बाद फिर कहा ;- पुत्रवत्‍सले! विशेषत: तुम्‍हारे ही लिये मैंने यह प्रतिज्ञा की थी। मैं तुम्‍हारा सेवक और दास हूँ। मुझसे वह प्रतिज्ञा तोड़ने के लिये न कहो। महाराज! इस प्रकार माता तथा अन्‍य लोगों को अनुनय विनय के द्वारा अनुकूल करके माता के सहित मैंने महामुनि व्‍यास को प्रसन्‍न करके भाई की स्त्रियों से पुत्र उत्‍पन्‍न करने लिये उनसे प्रार्थना की। भरतकुलभूषण! महर्षि ने कृपा की और उन स्‍त्रियों से तीन पुत्र उत्‍पन्‍न किये। तुम्‍हारे पिता अंधे थे, अत:नेत्रेन्द्रिय से हीन होने के कारण राजा न हो सके, तब लोकविख्‍यात महामना पाण्‍डु इस देश के राजा हुए। पाण्‍डु राजा थे और उनके पुत्र पाण्‍डव पिता की सम्‍पत्ति के उत्‍तराधिकारी हैं। अत:वत्‍स दुर्योधन! तुम कलह न करो। आधा राज्‍य पाण्‍डवों को दे दो। 

   मेरे जीते-जी मेरी इच्‍छा के विरुद्ध दूसरा कौन पुरुष यहाँ राज्‍य-शासन कर सकता है? ऐसा समझकर मेरे कथन की अवहेलना न करो। मैं सदा तुम लोगों में शान्ति बनी रहने की शुभ कामना करता हूँ। राजन! मेरे लिए तुममें और पाण्‍डवों में कोई अन्‍तर नहीं है। तुम्‍हारे पिता का, गान्धारी का और विदुर का भी यही मत है। तुम्‍हें बडे़-बूढों की बातें सुननी चाहिये। मेरी बात पर शंका न करो, नहीं तो तुम सबको, अपने को और इस भूतल को भी नष्‍ट कर दोगे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत भरतवद्यानपर्व में भगवदवाक्‍यसम्‍बन्‍धी एक सौ सैंतालिसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के युक्तियुक्‍त एवं महत्‍तवपूर्ण वचनों का भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा कथन”

  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- राजन! तुम्‍हारा कल्‍याण हो। भीष्‍मजी की बात समाप्‍त होने पर प्रवचन करने में समर्थ द्रोणाचार्य ने राजाओं के बीच में दुर्योधन से इस प्रकार कहा- 

    द्रोणाचार्य बोले ;- तात! जैसे प्रतीप पुत्र शान्तनु इस कुल की भलाई में ही लगे रहे, जैसे देवव्रत भीष्‍म इस कुल की वृद्धि के लिए ही यहाँ स्थित हैं, उसी प्रकार सत्‍यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय राजा पाण्‍डु भी रहे हैं। वे कुरुकुल के राजा होते हुए भी सदा धर्म में ही मन लगाये रहते थे। वे उत्‍तम व्रत के पालक तथा चित्‍त को एकाग्र रखने वाले थे। 
    कुरुवंश की वृद्धि करने वाले पाण्‍डु ने अपने बड़े भाई बुद्धिमान धृतराष्‍ट्र को तथा छोटे भाई विदुर को अपना राज्‍य धरोहर रूप से दिया। राजन! कुरुकुल रत्‍न पाण्‍डु ने अपनी मर्यादा से कभी च्‍युत न होने वाले धृतराष्‍ट्र को सिंहासन पर बिठाकर स्‍वयं अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वन को प्रस्‍थान किया था। 
   तदनन्‍तर पुरुषसिंह विदुर सेवक की भाँति नीचे खडे़ होकर चंवर डुलाते हुए विनीत भाव से धृतराष्‍ट्र की सेवा में रहने लगे। तात! तदनन्‍तर सारी प्रजा जैसे राजा पाण्‍डु के अनुगत रहती थी, उसी प्रकार विधिपूर्वक राजा धृतराष्‍ट्र के अधीन रहने लगी। 
    इस प्रकार शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले पाण्‍डु विदुर‍ सहित धृतराष्‍ट्र को अपना राज्‍य सौंपकर सारी पृथ्‍वी पर विचरने लगे। सत्‍यप्रतिज्ञ विदुर कोष को संभालने, दान देने, भृत्‍यवर्ग की देख-भाल करने तथा सबके भरण-पोषण के कार्य में संलग्‍न रहते थे। 
   शत्रु नगरी को जीतने वाले महातेजस्‍वी भीष्‍म संधि-विग्रह के कार्य में संयुक्‍त हो राजाओं से सेवा और कर आदि लेने का काम संभालते थे। महाबली राजा धृतराष्‍ट्र केवल सिंहासन पर बैठे रहते और महात्‍मा विदुर सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। 
   उन्‍हीं के वंश में उत्‍पन्‍न होकर तुम इस कुल में फूट क्‍यों डालते हो? राजन! भाइयों के साथ मिलकर मनोवांच्छित भोगों का उपभोग करो। नृपश्रेष्‍ठ मैं दीनता से या धन पाने के लिये किसी प्रकार कोई बात नहीं कहता हूँ। मैं भीष्‍म का दिया हुआ पाना चाहता हूं, तुम्‍हारा दिया नहीं। 
जनेश्‍वर! मैं तुमसे कोई जिविका का साधन प्राप्‍त करने की इच्‍छा नहीं करूंगा। जहाँ भीष्‍म हैं, वहीं द्रोण हैं। जो भीष्‍म कहते हैं, उसका पालन करो। शत्रुसूदन! तुम पाण्‍डवों का आधा राज्‍य दे दो। तात! मेरा यह आचार्यत्व तुम्‍हारे और पाण्‍डवों के लिये सदा समान है। 
मेरे लिये जैसा अश्‍वत्‍थामा है वैसा ही श्‍वेत घोडों वाला अर्जुन भी है। अधिक बकवाद करने से क्‍या लाभ? जहाँ धर्म है, उसी पक्ष की विजय निश्चित है। 
    भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- महाराज! अमित-तेजस्‍वी द्रोणाचार्य के इस प्रकार कहने पर सत्‍यप्रतिज्ञ धर्मज्ञ विदुर ने ज्‍येष्‍ठ पिता भीष्‍म की ओर घूमकर उनके मुँह की ओर देखते हुए इस प्रकार कहा। 
    विदुर बोले ;- देवव्रतजी! मेरी यह बात सुनिये। यह कौरववंश नष्‍ट हो चला था, जिसका आपने पुन: उद्धार किया था। मैं भी उसी वंश की रक्षा के लिये विलाप कर रहा हूँ; परंतु न जाने क्‍यों आप मेरे कथन की उपेक्षा कर रहै हैं; मैं पूछता हूँ, यह कुलांगार दुर्योधन इस कुल का कौन है? जिसके लोभ के वशीभूत होने पर भी आप उसकी बुद्धि का अनुसरण कर रहे हैं। लोभ ने इसकी विवेकशक्ति हर ली है। इसकी बुद्धि दू‍षित हो गयी है तथा यह पूरा अनार्य बन गया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय  श्लोक 21-36 का हिन्दी अनुवाद)

  यह शास्‍त्र की आज्ञा का तो उल्‍लंघन करता ही है। धर्म और अर्थ पर दृष्टि रखने वाले अपने पिता की भी बात नहीं मानता है। निश्‍चय ही एकमात्र दुर्योधन के कारण ये समस्‍त कौरव नष्‍ट हो रहे हैं। 
महाराज! ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे इनका नाश न हो। महामते! जैसे चित्रकार किसी चित्र को बनाकर एक जगह रख देता है, उसी प्रकार आपने मुझको और धृतराष्‍ट्र को पहले से ही निकम्‍मा बनाकर रख दिया है। 
    महाबाहो! जैसे प्रजा‍पति प्रजा की सृष्टि करके पुन: उसका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने कुल का विनाश देखकर उसकी उपेक्षा न कीजिये। यदि इन दिनों विनाशकाल उपस्थित होने के कारण आपकी बुद्धि नष्‍ट हो गयी हो तो मेरे और धृतराष्‍ट्र के साथ वन में पधारिये। 
  अथवा जिसकी बुद्धि सदा छल-कपट में लगी रहती है उस परम दुर्बद्धि धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन को शीघ्र ही बाँधकर पाण्‍डवों द्वारा सुरक्षित इस राज्‍य का शासन कीजिये। नृपश्रेष्‍ठ! प्रसन्‍न होइये। पाण्‍डव,कौरवों तथा अमित-तेजस्‍वी राजाओं का महान विनाश दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसा कहकर दी‍नचित्‍त विदुरजी चुप हो गये और विशेष चिन्‍ता में मग्‍न होकर उस समय बार-बार लंबी साँसें खींचने लगे।
    तदनन्‍तर राजा सुबल की पुत्री गान्धारी अपने कुल के विनाश से भयभीत हो क्रूरस्‍वभाव वाले पाप‍बुद्धि पुत्र दुर्योधन के समस्‍त राजाओं के समक्ष क्रोधपूर्वक यह धर्म और अर्थ से युक्‍त बचन बोली। जो-जो राजा, ब्रह्मर्षि तथा अन्‍य सभासद इस राजसभा के भीतर आये हैं, वे सब लोग मन्‍त्री और सेवकों सहित तुझ पापी दुर्योधन के अपराधों को सुनें। मैं वर्णन करती हूँ। 
    'हमारे यहाँ परम्‍परा से चला आने वाला कुलधर्म यही है कि यह कुरुराज्‍य पूर्व-पूर्व अधिकारी के क्रम से उपभोग में आवे अर्थात पहले पिता के अधिकार में रहे, फिर पुत्र के, पिता के जीते-जी पुत्र का राज्‍य का अधिकारी नहीं हो सकता; परन्‍तु अत्‍यन्‍त क्रूर कर्म करने वाले पापबुद्धि दुर्योधन! तू अपने अन्‍याय से इस कौरव राज्‍य का विनाश कर रहा है। इस राज्‍य पर अधिकारी के रूप में परम बुद्धिमान धृतराष्‍ट्र और उनके छोटे भाई दूरदर्शी विदुर स्‍थापित किये गये थे। दुर्योधन! इन दोनों का उल्‍लघंन करके तू आज मोहवश अपना प्रभुत्‍व कैसे जमाना चाहता है? 
    राजा धृतराष्‍ट्र और विदुर- ये दोनों महानुभाव भी भीष्‍म के जीते-जी पराधीन ही रहेंगे; भीष्‍म के रहते इन्‍हें राज्‍य लेने का कोई अधिकार नहीं है; परंतु धर्मज्ञ होने के कारण ये नरश्रेष्‍ठ महात्‍मा गंगानन्‍दन राज्‍य लेने की इच्‍छा ही नहीं रखते हैं। वास्‍तव में यह दुर्धर्ष राज्‍य महाराज पाण्‍डु का है। उन्‍हीं के पुत्र इसके अधिकारी हो सकते हैं, दूसरे नहीं। अत: यह सारा राज्‍य पाण्‍डवों का है ; क्‍योंकि बाप-दादों का राज्‍य पुत्र-पोत्रों के पास ही जाता है। 
   कुरुकुल के श्रेष्‍ठ पुरुष सत्‍यप्रतिज्ञ एवं बुद्धिमान महात्‍मा देवव्रत जो कुछ कहते हैं, उसे राज्‍य और स्‍वधर्म का पालन करने वाले हम सब लोगों को बिना काट-छांट किये पूर्णरूप से मान लेना चाहिये। अथवा इन महान व्रतधारी भीष्‍मजी की आज्ञा से यह राजा धृतराष्‍ट्र तथा विदुर भी इस विषय में कुछ कह सकते हैं सुदीर्घ काल तक पालन करना चाहिये।
   कौरवों के इस न्‍यायत: प्राप्‍त राज्‍य का धर्मपुत्र तथा शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म से कर्तव्‍य की शिक्षा लेते युधिष्ठिर ही शासन करें और वे राजा धृतराष्‍ट्र रहें। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अन्‍तर्गत भगवाद्यान पर्व में श्रीकृष्‍णवाक्‍यविषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ उनचासवाँ अध्याय


(महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनपंचादधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचन-पाण्डवों को आधा राज्य देने के लिये आदेश”

   भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- राजन! गान्धारी के ऐसा कहने पर राजा धृतराष्‍ट्र ने समस्‍त राजाओं के बीच दुर्योधन से इस प्रकार कहा-

   धृतराष्ट्र बोले ;- बेटा दुर्योधन! मेरी यह बात सुन। तेरा कल्‍याण हो। यदि तेरे मन में पिता के लिये कुछ भी गौरव है तो तुझसे जो कुछ कहूँ, उसका पालन कर। सबसे पहले प्रजापति सोम हुए, जो कौरववंश की वृद्धि के कारण हैं। सोम से छठी पीढी में नहुष पुत्र ययाति का जन्‍म हुआ। 
   ययाति के पाँच पुत्र हुए, जो सब-के-सब श्रेष्‍ठ राजर्षि थे। उनमें महातेजस्‍वी एवं शक्तिशाली ज्‍येष्‍ठ पुत्र यदु थे और सबसे छोटे पुत्र का नाम पुरु हुआ, जिन्‍होंने हमारे इस वंश की वृद्धि की है। वे वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्‍पन्‍न हुए थे। 'भरतश्रेष्‍ठ! यदु देवयानी के पुत्र थे। तात! वे अमित तेजस्‍वी शुक्राचार्य के दौहित्र लगते थे।
वे बलवान, उत्‍तम पराक्रम से सम्‍पन्‍न एवं यादवों के वंश प्रर्वतक हुए थे। उनकी बुद्धि बड़ी मन्‍द थी और उन्‍होंने घमंड में आकर समस्‍त क्षत्रियों का अपमान किया था। ’बल के घमंड से वे इतने मोहित हो रहे थे कि पिता के आदेश पर चलते ही नहीं थे किसी से पराजित न होने वाले यदु अपने भाइयों और पिता का भी अपमान करते थे।

    चारों समुद्र जिसके अन्‍त में है, उस भूमण्‍डल में यदु ही सबसे अधिक बलवान थे। वे समस्‍त राजाओं को वश में करके हस्तिनापुर में निवास करते थे।’ गान्‍धारीपुत्र! यदु के पिता नहुषनन्‍दन ययाति ने अत्‍यन्‍त कुपित होकर यदु को शाप दे दिया और उन्‍हें राज्‍य से भी उतार दिया। अपने बल का घमंड रखने वाले जिन-जिन भाइयों ने यदु का अनुसरण किया, ययाति ने कुपित होकर अपने उन पुत्रों को भी शाप दे दिया। तदनन्तर अपने अधीन रहने वाले आज्ञापालक छोटे पुत्र पुरु को नृपश्रेष्‍ठ ययाति ने राज्‍य पर बिठाया। 
   इस प्रकार यह सिद्ध है कि ज्‍येष्‍ठ पुत्र भी यदि अहंकारी हो तो उसे राज्‍य की प्राप्ति नहीं होती और छोटे पुत्र भी वृद्ध पुरुषों की सेवा करने से राज्‍य पाने के अधिकारी हो जाते हैं। इसी प्रकार मेरे पिता के पितामह राजा प्रतीप सब धर्मों के ज्ञाता एवं तीनों लोकों में विख्‍यात थे। 
   धर्मपूर्वक राज्‍य का शासन करते हुए नृपप्रवर प्रतीप के तीन पुत्र उत्‍पन्‍न हुए, जो देवताओं के समान तेजस्‍वी और यशस्‍वी थे। तात! उन तीनों में सबसे श्रेष्‍ठ थे देवापि! उनके बाद वाले राजकुमार का नाम वाह्रीक था तथा प्रतीप के तीसरे पुत्र मेरे धैर्यवान पितामह शान्‍तनु थे। 
’नृपश्रेष्‍ठ देवापि महान तेजस्‍वी होते हुए भी चर्मरोग से पीड़ित थे। वे धार्मिक, सत्‍यवादी, पिता की सेवा में तत्‍पर, साधु पुरुषों द्वारा सम्‍मानित तथा नगर एवं जनपद- निवासियों के लिये आदरणीय थे। देवापि ने बालकों से लेकर वृद्धों तक सभी के हृदय में अपना स्‍थान बना लिया था। 
   वे उदार, सत्‍यप्रतिज्ञ और समस्‍त प्राणियों के हित में तत्‍पर रहने वाले थे। पिता तथा ब्राह्रमणों के आदेश के अनुसार चलते थे। वे बाह्लीक तथा महात्‍मा शान्तनु के प्रिय बन्‍धु थे। परस्‍पर संगठित रहने वाले उन तीनों महामना बन्धुओं का परस्‍पर अच्‍छे भाई का-सा स्‍नेहपूर्ण बर्ताव था।
   तदनन्‍तर कुछ काल बीतने पर बूढ़े नृपश्रेष्‍ठ प्रतीप ने शास्‍त्रीय विधि के अनुसार राज्‍याभिषेक के लिये सामग्रियों का संग्रह कराया। उन्‍होंने देवापि के मंगल के लिये सभी आवश्‍यक कृत्‍य सम्‍पन्‍न कराये; परंतु उस समय सब ब्राह्मणों तथा वृद्ध पुरुषों ने नगर और जनपद के लोगों के साथ आकर देवापि का राज्‍याभिषेक रोक दिया। किंतु राज्‍याभिषेक रोकने की बात सुनकर राजा प्रतीप का गला भर आया और वे अपने पुत्र के लिए शोक करने लगे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनपंचादधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

  इस प्रकार यद्यपि देवापि उदार, धर्मज्ञ, सत्‍यप्रतिज्ञ तथा प्रजाओं के प्रिय थे, तथापि पूर्वोक्‍त चर्मरोग के कारण दूषित मान लिये गये। जो किसी अंग से हीन हो उस राजा का देवता लोग अभिनन्‍दन नहीं करते हैं; इसीलिये उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने नृप-प्रवर प्रतीप को देवापि का अभिषेक करने से मना कर दिया था। 
   इससे राजा को बड़ा कष्‍ट हुआ। वे पुत्र के लिये शोकमग्‍न हो गये। राजा को रोका गया देखकर देवापि वन में चले गये। बाह्लीक परम समृद्धिशाली राज्‍य तथा पिता और भाइयों को छोड़कर मामा के घर चले गये। 
   राजन! तदनन्‍तर पिता की मृत्‍यु होने के पश्‍चात बाह्लीक की आज्ञा लेकर लोक विख्‍यात राजा शान्तनु ने राज्‍य का शासन किया। भारत! इसी प्रकार मैं भी अंगहीन था; इसलिये ज्‍येष्‍ठ होने पर भी बुद्धिमान पाण्‍डु एवं प्रजाजनों के द्वारा खूब सोच विचार कर राज्‍य से वंचित कर दिया गया। 
   पाण्‍डु ने अवस्‍था में छोटे होने पर भी राज्‍य प्राप्‍त किया और वे एक अच्छे राजा बनकर रहे हैं। शत्रुदमन दुर्योधन! पाण्‍डु की मृत्‍यु के पश्‍चात उनके पुत्रों का ही यह राज्‍य है। मैं तो राज्‍य का अधिकारी था ही नहीं, फिर तू कैसे राज्‍य लेना चाहता है? जो राजा का पुत्र नहीं है, वह उसके राज्‍य का स्‍वामी नहीं हो सकता। तू पराये धन का अपहरण करना चाहता है। 
   महात्‍मा युधिष्ठिर राजा के पुत्र हैं, अत: न्‍यायत: प्राप्‍त हुए इस राज्‍य पर उन्‍हीं का अधिकार है। वे ही इस कौरव-कुल का भरण-पोषण करने वाले, स्‍वामी तथा इस राज्‍य के शासक हैं। उनका प्रभाव महान है।
   वे सत्‍य‍प्रतिज्ञ और प्रमाद‍ रहित हैं। शास्‍त्र की आज्ञा के अनुसार चलते और भाई-बंधुओं पर सद्भाव रखते हैं। युधिष्ठिर पर प्रजावर्ग का विशेष प्रेम है। वे अपने सुहृदों पर कृपा करने वाले, जितेन्द्रिय तथा सज्‍जनों का पालन पोषण करने वाले हैं। 
   क्षमा, सहनशीलता, इन्द्रिसंयम, सरलता, सत्‍य-परायणता, शास्‍त्रज्ञान, प्रमादशून्‍यता, समस्‍त प्राणियों पर दयाभाव तथा गुरुजनों के अनुशासन में रहना आदि समस्‍त राजोचित गुण युधिष्ठिर में विद्यमान हैं। तू राजा का पुत्र नहीं है। तेरा बर्ताव भी दुष्‍टों के समान है। तू लोभी तो है ही, बन्‍धु-बांधवों के प्रति सदा पापपूर्ण है। तू कैसे इसका अपहरण कर सकेगा? 
   नरेन्‍द्र! तू मोह छोड़कर वाहनों और अन्‍यान्‍य सामग्रियों सहित कम से कम आधा राज्‍य पाण्‍डवों को दे दे। सभी अपने छोटे भाइयों के साथ तेरा जीवन बचा रह सकता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत भगवद्यानपर्व में धृतराष्‍ट्रवाक्‍यविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचाशदधिकततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

 भगवान श्रीकृष्ण कहते है ;- राजन! भीष्‍म, द्रोण, विदुर, गान्धारी तथा धृतराष्‍ट्र के ऐसा कहने पर भी मन्‍दबुद्धि दुर्योधन को तनिक भी चेत नहीं हुआ। वह मूर्ख क्रोध से लाल आंखें किये उन स‍बकी अवहेलना करके सभा से उठकर चला गया। उसी के पीछे अन्‍य राजा भी अपने जीवन का मोह छोड़कर सभा से उठकर चल दिये। 
ज्ञात हुआ है, दुर्योधन ने उन विवेकशून्‍य राजाओं को यह बार-बार आज्ञा दे दी कि तुम सब लोग कुरुक्षेत्र को चलो। आज पुष्‍य नक्षत्र है। 
   तदनन्‍तर वे सभी भूपाल काल से प्रेरित हो भीष्‍म को सेनापति बनाकर बड़े हर्ष के साथ सैनिकों सहित वहाँ से चल दिये हैं। कौरवों की ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाएँ आ गयी हैं। उन सबमें प्रधान हैं भीष्‍मजी, जो अपने तालध्‍वज के साथ सुशोभित हो रहे हैं। 
   प्रजानाथ! अब तुम्‍हें भी जो उचित जान पड़े, वह करो! भारत! कौरव सभा में भीष्‍म, द्रोण, विदुर, गान्‍धारी तथा धृतराष्‍ट्र ने मेरे सामने जो बातें कही थीं, वे सब आपको सुना दीं। राजन! यही वहाँ का वृतान्‍त है। राजन मैंने सब भाइयों में उत्‍तम बन्‍धुजनोचित प्रेम बने रहने की इच्‍छा से पहले सामनीति का प्रयोग किया था, जिससे इस वंश में फूट न हो और प्रजाजनों की निरन्‍तर उन्‍नति हो‍ती रहे। 
   जब वे सामनीति न ग्रहण कर सके, तब मैंने भेदनीति का प्रयोग किया उनमें फूट डालने की चेष्‍टा की। पाण्‍डवों के देव-मनुष्‍योचित कर्मों का बारंबार वर्णन किया। जब मैंने देखा दुर्योधन मेरे सान्‍त्‍वनापूर्ण वचनों का पालन नहीं कर रहा है, तब मैंने सब राजाओं को बुलाकर उनमें फूट डालने का प्रयत्‍न किया। 
  भारत! वहाँ मैंने बहुत-से अद्भुत, भयंकर, निष्‍ठुर एवं अमानुषिक कर्मों का प्रदर्शन किया। समस्‍त राजाओं को डाँट बताकर दुर्योधन का तिनके के समान समझकर तथा राधानन्‍दन कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि को बार-बार डराकर जूए से धृतराष्‍ट्र की निन्‍दा करके वाणी तथा गुप्‍त मन्‍त्रणा द्वारा सब राजाओं के मन में अनेक बार भेद उत्‍पन्‍न करने के पश्‍चात फिर साम सहित दान की बात उठायी, जिससे कुरुवंश की एकता बनी रहे और अभीष्‍ट कार्य की सिद्धि हो जाये। 
मैंने कहा- नृपश्रेष्‍ठ! यद्यपि पाण्‍डव शौर्य से सम्‍पन्‍न हैं, तथापि वे सब-के-सब अभिमान छोड़कर भीष्‍म, धृतराष्‍ट्र और विदुर के नीचे रह स‍कते हैं। वे अपना राज्‍य भी तुम्‍हीं को दे दें और सदा तुम्‍हारे अधीन होकर रहें। राजा धृतराष्‍ट्र, भीष्‍म और विदुरजी ने तुम्‍हारे हित के लिये जैसी बात कही है वेसा ही करो। सारा राज्य तुम्हारे ही पास रहे। तुम पाण्‍डवों को पाँच ही गाँव दे दो; क्‍योंकि तुम्‍हारे पिता के लिये पाण्‍डवों का भरण-पोषण करना भी परम आवश्‍यक है।
    मेरे इस प्रकार कहने पर भी उस दुष्‍टात्‍मा ने राज्‍य का कोई भाग तुम्‍हारे लिये नहीं छोड़ा अर्थात देना नहीं स्‍वीकार किया। अब तो मैं उन पापियों पर चौथे उपाय दण्‍ड के प्रयोग की ही आवश्‍यकता देखता हूँ, अन्‍यथा उन्‍हें मार्ग पर लाना असम्‍भव है। सब राजा अपने विनाश के लिये कुरुक्षेत्र को प्रस्‍थान कर चुके हैं। राजन! कौरव-सभा में जो कुछ हुआ था, वह सारा वृतान्‍त मैंने तुमसे कह सुनाया। 
   पाण्‍डुनन्‍दन! वे कौरव बिना युद्ध किये तुम्‍हें राज्‍य नहीं देंगे। उन स‍बके विनाश का कारण जुट गया है और उनका मृत्‍युकाल भी आ पहुँचा है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवद्यानपर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें