सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने के निश्चित विचार का प्रतिपादन करते हुए समरयज्ञ के रूपक का वर्णन करना”
कर्ण ने कहा ;- केशव! आपने सौहार्द, प्रेम, मैत्री और मेरे हित की इच्छा से जो कुछ कहा है, यह नि:संदेह ठीक है। श्रीकृष्ण! जैसा कि आप मानते हैं, धर्मशास्त्रों के निर्णय के अनुसार मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ। इन सब बातों को मैं अच्छी तरह जानता और समझता हूँ। जनार्दन! कुन्ती ने कन्यावस्था में भगवान सूर्य के संयोग से मुझे गर्भ में धारण किया था और मेरा जन्म हो जाने पर उन सूर्य देव की आज्ञा से ही मुझे जल में विसर्जित कर दिया था।
श्रीकृष्ण! इस प्रकार मेरा जन्म हुआ है। अत: मैं धर्मत: पाण्डु का ही पुत्र हूँ; परंतु कुन्ती देवी ने मुझे इस तरह त्याग दिया, जिससे मैं सकुशल नही रह सकता था। मधुसूदन! उसके बाद अधिरथ नामक सूत मुझे जल में देखते ही निकालकर अपने घर ले आये और बड़े स्नेह से मुझे अपनी पत्नी राधा की गोद में दे दिया। उस समय मेरे प्रति अधिक स्नेह के कारण राधा के स्तनों में तत्काल दूध उतर आया। माधव! उस अवस्था में उसी ने मेरा मल-मूत्र उठाना स्वीकार किया।
अत: सदा धर्मशास्त्रों के श्रवण में तत्पर रहने वाला मुझ जैसा धर्मज्ञ पुरुष राधा के मुख का ग्रास कैसे छीन सकता है? उसका पालन-पोषण न करके उसे त्याग देने की क्रूरता कैसे कर सकता है? अधिरथ सूत भी मुझे अपना पुत्र ही समझते हैं और मैं भी सौहार्दवश उन्हें सदा से अपना पिता ही मानता आया हूँ। माधव! उन्होंने मेरे जात कर्म आदि संस्कार करवाये तथा जनार्दन! उन्होंने ही पुत्र प्रेमवश शास्त्रीय विधि से ब्राह्मणों द्वारा मेरा ‘वसुषेण’ नाम रखवाया।
श्रीकृष्ण! मेरी युवावस्था होने पर अधिरथ ने सूतजाति की कई कन्याओं के साथ मेरा विवाह करवाया। अब उनसे मेरे पुत्र और पौत्र भी पैदा हो चुके हैं। जनार्दन! उन स्त्रियों में मेरा हृदय कामभाव से आसक्त रहा है। गोविन्द! अब मैं सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाकर, सुवर्ण की राशियाँ लेकर अथवा हर्ष या भय के कारण भी वह सब सम्बन्ध मिथ्या नही करना चाहता।
श्रीकृष्ण! मैंने दुर्योधन का सहारा पाकर धृतराष्ट्र के कुल में रहते हुए तेरह वर्षो तक अकण्टक राज्य का उपभोग किया है। वहाँ मैंने सूतों के साथ मिलकर बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया है तथा उन्हीं के साथ रहकर अनेकानेक कुलधर्म एवं वैवाहिक कार्य सम्पन्न किये हैं। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! दुर्योधन ने मेरे ही भरोसे हथियार उठाने तथा पाण्डवों के साथ विग्रह करने का साहस किया है।
अत: अच्युनत! मुझे द्वैरथ युद्ध में सव्यसाची अर्जुन के विरुद्ध लोहा लेने तथा उनका सामना करन के लिये उसने चुन लिया है। जनार्दन! इस समय मैं वध, बन्धन, भय अथवा लोभ से भी बुद्धिमान धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के साथ मिथ्या व्यवहार नही करना चाहता। हृषीकेश! अब यदि मैं अर्जुन के साथ द्वैरथ युद्ध न करूँ तो यह मेरे और अर्जुन दोनों के लिये अपयश की बात होगी।
मधुसूदन! इसमें संदेह नहीं कि आप मेरे हित के लिये ही ये सब बातें कहते हैं। पाण्डव आपके अधीन है; इसलिये आप उनसे जो कुछ भी कहेंगे, वह सब वे अवश्य ही कर सकते हैं। परंतु मधुसूदन! मेरे और आपके बीचमें जो यह गुप्तक परामर्श हुआ है, उसे आप यहीं तक सीमित रखें। यादवनन्दन! ऐसा करने में ही मैं यहाँ सब प्रकार से हित समझता हूँ।
अपनी इन्द्रियों को संयम में रखने वाले धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर यदि यह जान लेंगे कि मैं (कर्ण) कुन्ती का प्रथम पुत्र हूँ, तब वे राज्य ग्रहण नही करेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 22-47 का हिन्दी अनुवाद)
शत्रुदमन मधुसूदन! उस दशा में मैं उस समृद्धिशाली विशाल राज्य को पाकर भी दुर्योधन को ही सौंप दूँगा। मैं भी यही चाहता हूँ कि जिनके नेता ह्रषीकेश और योद्धा अर्जुन हैं, वे धर्मात्मा युधिष्ठिर ही सर्वदा राजा बने रहें। माधव! जनार्दन! जिनके सहायक महारथी भीम, नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न, महारथी सात्यकि,उत्तमौजा, युधामन्यु , सोमकवंशी सत्यधर्मा, चेदिराज धृष्टकेतु,चेकितान, अपराजित वीर शिखण्डी, इन्द्रगोप के समान वर्णवाले पाँचों भाई केकय-राजकुमार, इन्द्र धनुष के समान रंग वाले महामना कुन्तिभोज, भीमसेन के मामा महारथी श्येनजित विराट पुत्र शंख तथा अक्षयनिधि के समान आप हैं, उन्हीं युधिष्ठिर के अधिकार में यह सारा भूमण्डल तथा कौरव-राज्य रहेगा।
श्रीकृष्ण! दुर्योधन ने यह क्षत्रियों का बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है तथा समस्त राजाओं में विख्यात एवं उज्ज्वल यह कुरुदेश का राज्य भी उसे प्राप्तु हो गया है। जनार्दन! वृष्णिनन्दन! अब दुर्योधन के यहाँ एक शस्त्र -यज्ञ होगा, जिसके साक्षी आप होंगे। श्रीकृष्ण! इस यज्ञ में अध्वर्यु का काम भी आपको ही करना होगा। कवच आदि से सुसज्जित कपिध्वज अर्जुन इसमें होता बनेंगे।
गाण्डीव धनुष स्त्रुवा का काम करेगा और विपक्षी वीरों का पराक्रम ही हवनीय घृत होगा। माधव! सव्यसाची अर्जुन द्वारा प्रयुक्त होने वाले ऐन्द्र, पाशुपत, ब्राह्रा और स्थूणाकर्ण आदि अस्त्र ही वेद-मन्त्र होंगे। सुभद्राकुमार अभिमन्यु भी अस्त्र विद्या में अपने पिता का ही अनुसरण करने वाला अथवा पराक्रम में उनसे भी बढ़कर है। वह इस शस्त्र यज्ञ में उत्तम स्तोत्रगान (उद्रातृकर्म) की पूर्ति करेगा।
अभिमन्यु ही उदातृकर्म और महाबली नरश्रेष्ठ भीमसेन ही प्रस्तोता होंगे, जो रणभूमि में गर्जना करते हुए शत्रुपक्ष के हाथियों की सेना का विनाश कर डालेंगे। वे धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ही सदा जप और होम में संलग्न रहकर उस यज्ञ में ब्रह्मा का कार्य सम्पन्न करेंगे। मधुसूदन! शंख, मुरज तथा भेरियों के शब्द और उच्च स्वर से किये हुए सिंहनाद ही सुब्रह्मण्यनाद होंगे। माद्री के यशस्वी पुत्र महापराक्रमी नकुल-सहदेव उसमें भली-भाँति शामित्र कर्म का सम्पादन करेंगे।
गोविन्द! जनार्दन! विचित्र ध्वजदण्डों से सुशोभित निर्मल रथ-पक्तियाँ ही इस रण यज्ञ में यूपों का काम करेंगी। कर्णि, नालीक, नाराच और वत्सदन्त आदि बाण उपबृंहण (सोमाहुति के साधनभूत चमस आदि पात्र) होंगे। तोमर सोमकलश का और धनुष पवित्री का काम करेंगे।
श्रीकृष्ण! उस यज्ञ में खंड ही कपाल, शत्रुओं के मस्तक ही पुरोडाश तथा रुधिर ही हृविष्य होंगे। निर्मल शक्तियां और गदाएँ सब ओर बिखरी हुई समिधाएँ होगी। द्रोण और कृपाचार्य के शिष्य ही सदस्य का कार्य करेंगे। गाण्डीवधारी अर्जुन के छोड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा एवं अन्य महारथियों के चलाये हुए बाण यज्ञ-कुण्ड के सब ओर बिछाये जाने वाले कुशों का काम देंगे। सात्यकि प्रतिस्थाता अध्वर्यु के दूसरे सहयोगी का कार्य करेंगे। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन इस रणयज्ञ की दीक्षा लेगा और उसकी विशाल सेना ही यजमान पत्नी का काम करेगी।
महाबाहो! इस महायज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ हो जाने पर इसके अतिरात्रयाग में महाबली घटोत्कच शामित्र कर्म करेगा। श्रीकृष्ण! जो श्रौत यज्ञ के आरम्भ में ही साक्षात अग्नि-कुण्ड से प्रकट हुआ था, वह प्रतापी वीर धृष्टद्युम्न इस यज्ञ की दक्षिणा का कार्य सम्पादन करेगा।
श्रीकृष्ण! मैंने जो धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन का प्रिय करने के लिये पाण्डवों को बहुत से कटुवचन सुनाये हैं, उस अयोग्य कर्म के कारण आज मुझे बड़ा पश्चाताप हो रहा है। श्रीकृष्ण! जब आप सव्यसाची अर्जुन के हाथ से मुझे मारा गया देखेंगे, उस समय इस यज्ञ का पुनश्चिति-कर्म सम्पन्न होगा। जब पाण्डुनन्दन भीमसेन सिंहनाद करते हुए दु:शासन का रक्तपान करेंगे, उस समय इस यज्ञ का सुत्य (सोमाभिषव) कर्म पूरा होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 48-57 का हिन्दी अनुवाद)
जनार्दन! जब दोनो पांचाल राजकुमार धृष्टद्युम्न और शिखण्डी द्रोणाचार्य और भीष्म को मार गिरायेंगे, उस समय इस रण यज्ञ का अवसान कार्य सम्पन्न होगा। माधव! जब महाबली भीमसेन दुर्योधन का वध करेंगे उस समय धृतराष्ट्र पुत्र का प्रारम्भ किया हुआ यह यज्ञ समाप्त हो जायेगा। केशव! जिनके पति, पुत्र और संरक्षक मार दिये गये होंगे, वे धृतराष्ट्र के पुत्रों और पौत्रों की बहुएँ जब गांधारी के साथ एकत्र होकर कुतों, गीधों और कुरर पक्षियों से भरे हुए समरांगण मे रोती हुई विचरेंगी, जनार्दन! वही उस यज्ञ का अवभृथस्नान होगा।
क्षत्रिय शिरोमणि मधुसूदन! तुम्हारे इस शान्तिस्थापन के प्रयत्न से कहीं ऐसा न हो कि विद्यावृद्ध और वयोवृद्ध क्षत्रियगण व्यर्थ मृत्यु को प्राप्त हों और युद्ध में शस्त्रों से होने-वाली मृत्यु से वंचित रह जायें। केशव! कुरुक्षेत्र तीनों लोकों के लिये परम पुण्यतम तीर्थ है। यह समृद्धिशाली क्षत्रिय समुदाय वही जाकर शस्त्रों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हो। कमलनयन वृष्णिनन्दन! आप भी इसकी सिद्धि के लिये ही ऐसा मनोवांच्छित प्रयत्न करें, जिससे यह सारा-का-सारा क्षत्रिय समूह स्वर्गलोक में पहुँच जाये। जनार्दन! जब तक ये पर्वत और सरिताएँ रहेंगी, तब-तक इस युद्ध की कीर्ति-कथा अक्षय बनी रहेगी।
वार्ष्णेय! ब्राह्मण लोग क्षत्रियों के समाज में इस महाभारतयुद्ध का, जिसमें राजाओं के सुयशरूपी धन का संग्रह होने वाला है, वर्णन करेंगे। शत्रुओं को संताप देने वाले केशव! आप इस मन्त्रणा को सदा गुप्त रखते हुए ही कुन्तीकुमार अर्जुन को मेरे साथ युद्ध करने के लिये ले आवें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवाद्यानपर्व में कर्णके द्वारा अपने निश्चित विचार का प्रतिपादनविषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान श्रीकृष्ण का कर्ण से पाण्डव पक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन”
संजय कहते हैं ;- राजन! विपक्षी वीरों का वध करने वाले भगवान केशव कर्ण की उपयुक्त बात सुनकर ठठाकर हँस पड़े और मुस्कराते हुए इस प्रकार बोले।
श्रीभगवान बोले ;- कर्ण! मैं जो राज्य की प्राप्ति का उपाय बता रहा हुँ, जान पड़ता है वह तुम्हें ग्राह्य नहीं प्रतीत होता है। तुम मेरी दी हुई पृथ्वी का शासन नही करना चाहते हो। पाण्डवों की विजय अवश्यम्भावी है। इस विषय में कोई भी संशय नहीं है। पाण्डुनन्दन अर्जुन का वानरराज हनुमान से उपलक्षित वह भयंकर विजयध्वज बहुत ऊँचा दिखायी देता है। विश्वकर्मा ने उस ध्वज में दिव्य माया की रचना की है। वह ऊँची ध्वजा इन्द्रध्वज के समान प्रकाशित होती है। उसके ऊपर विजय की प्राप्ति कराने वाले दिव्य एवं भयंकर प्राणी दृष्टिगोचर होते हैं। कर्ण! धनंजय का वह अग्नि के समान तेजस्वी तथा कान्तिमान ऊँचा ध्वज एक योजन लम्बा है। वह ऊपर अथवा अगल-बगल में पर्वतों तथा वृक्षों से कहीं अटकता नहीं है।
कर्ण! जब युद्ध में मुझ श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर आये हुए श्वेतवाहन अर्जुन को तुम ऐन्द्र,आग्नेय तथा वायव्य अस्त्र प्रकट करते देखोगे और जब गांडीव की वज्र-गर्जना के समान भयंकर टंकार तुम्हारे कानों में पड़ेगी, उस समय तुम्हें सत्ययुग, नेता और द्वापर की प्रतीति नही होगी केवल कलहस्वरूप भयंकर कलि ही दृष्टिगोचर होगा। जब जप और होम में लगे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर को संग्राम में अपनी विशाल सेना की रक्षा करते तथा सूर्य के समान दुर्धर्ष होकर शत्रु सेना को संतप्त करते देखोगे, उस समय तुम्हें सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रतीति नहीं होगी।
जब तुम युद्ध में महाबली भीमसेन को दु:शासन का रक्त पीकर नाचते तथा मद की धारा बहाने वाले गजराज के समान उन्हें शत्रुपक्ष की गजसेना का संहार करते देखोगे, उस समय तुम्हें सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रतीति नहीं होगी। जब तुम देखोगे कि युद्ध में आचार्य द्रोण, शान्तनुनन्दन भीष्म, कृपाचार्य, राजा दुर्योधन और सिन्धुराज जयद्रथ ज्यों ही युद्ध के लिये आगे बढ़े हैं त्यों ही सव्यसाची अर्जुन ने तुरंत उन सबकी गति रोक दी है, तब तुम हक्के-बक्के से रह जाओगे और उस समय तुम्हें सत्ययुग, त्रेता और द्वापर कुछ भी सूझ नही पड़ेगा।
जब युद्धस्थल में अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार प्रगाढ़ अवस्था को पहुँच जायगा और शत्रुवीरों के रथ को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले महाबली माद्रीकुमार नकुल–सहदेव दो गजराजों की भाँति धृतराष्ट्र पुत्रों की सेना को क्षुब्ध करने लगेंगे तथा जब तुम अपनी आँखों से यह अवस्था देखोगे, उस समय तुम्हारे सामने न सत्ययुग होगा, न त्रेता और न द्वापर ही रह जायेगा। कर्ण! तुम यहाँ से जाकर आचार्य द्रोण, शान्तनुनन्दन भीष्म और कृपाचार्य से कहना कि यह सौम्य (सुखद) मास चल रहा है। इसमें पशुओं के लिये घास और जलाने के लिये लकड़ी आदि वस्तुएँ सुगमता से मिल सकती हैं।
‘सब प्रकार की औषधियों तथा फल-फूलों से वन की समृद्धि बढ़ी हुई है, धान के खेतों में खूब फल लगे हुए हैं, मक्खियाँ बहुत कम हो गयी हैं, धरती पर कीचड़ का नाम नहीं हैं। जल स्वच्छ एवं सुस्वादु प्रतीत होता है, इस सुखद समय में न तो अधिक गर्मी है और न अधिक सर्दी ही, यह मार्गशीर्ष मास चल रहा है। ‘आज से सातवें दिन के बाद अमावास्या होगी। उसके देवता इन्द्र कहे गये हैं। उसी में युद्ध आरम्भ किया जाय।'
इसी प्रकार जो युद्ध के लिये यहाँ पधारे हैं, उन समस्त राजाओं से भी कह देना ‘आप लोगों के मन में जो अभिलाषा है, वह सब मैं अवश्य पूर्ण करूँगा।’ दुर्योधन के वश में रहने वाले जितने राजा और राजकुमार है, वे शस्त्रों द्वारा मृत्यु को प्राप्त होकर उत्तम गति लाभ करेंगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें कर्ण के द्वारा अपने अभिप्राय निवेदन के प्रसंग में भगवद्वाक्यविषयक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ तैंतालिस अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण के द्वारा पाण्डवों की विजय और कौरवों की पराजय सूचित करने वाले लक्षणों एवं अपने स्वपन का वर्णन”
संजय कहते हैं ;- राजन! भगवान केशव का वह हितकर एवं कल्याणकारी वचन सुनकर कर्ण मधुसूदन श्रीकृष्ण के प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए इस प्रकार बोला।
महाबाहो! आप सब कुछ जानते हुए भी मुझे मोह में क्यों डालना चाहते हैं? यह जो इस भूतल का पूर्णरूप से विनाश उपस्थित हुआ है, उसमें मैं, शकुनि, दु:शासन तथा धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन निमित मात्र हुए हैं। ‘श्रीकृष्ण! इसमें संदेह नहीं कि कौरवों और पाण्डवों का यह बड़ा भयंकर युद्ध उपस्थित हुआ है, जो रक्त की कीच मचा देने वाला है। दुर्योधन के वश में रहने वाले जो राजा और राजकुमार हैं, वे रणभूमि में अस्त्र-शस्त्रों की आग से जलकर निश्चय ही यमलोक में जा पहुँचेंगे।
मधुसूदन! मुझे बहुत से भयंकर स्वप्न दिखायी देते हैं। घोर अपशकुन तथा अत्यन्त दारुण उत्पात दृष्टिगोचर होते हैं। वृष्णिनन्दन! वे रोंगटे खड़े कर देने वाले विविध उत्पात मानो दुर्योधन की पराजय और युधिष्ठिर की विजय घोषित करते हैं। महातेजस्वी एवं तीक्ष्ण ग्रह शनैश्रर प्रजापति सम्बन्धी रोहिणी नक्षत्र को पीड़ित करते हुए जगत के प्राणियों को अधिक से अधिक पीड़ा दे रहे हैं। मधुसूदन! मंगल ग्रह ज्येष्ठा के निकट से वक्र गति का आश्रय ले अनुराधा नक्षत्र पर आना चाहते हैं। जो राज्यस्थ राजा के मित्रमण्डल का विनाश-सा सूचित कर रहें हैं।
वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! निश्चय ही कौरवों पर महान भय उपस्थित हुआ हैं। विशेषत: ‘महापात’ नामक ग्रह चित्रा को पीड़ा दे रहा है जो राजाओं के विनाश का सूचक है। चन्द्रमा का कलंक मिट-सा गया है, राहु सूर्य के समीप जा रहा है। आकाश से ये उल्काएँ गिर रही हैं,वज्रपात के-से शब्द हो रहे हैं और धरती डोलती सी जान पड़ती है। ‘माधव! गजराज परस्पर टकराते और विकृत शब्द करते हैं। घोड़े नेत्रों से आंसू बहा रहे हैं। वे घास और पानी भी प्रसन्नतापूर्वक नहीं ग्रहण करते हैं।
महाबाहो! कहते हैं, इन निर्मितों के प्रकट होने पर प्राणियों के विनाश करने वाले दारुण भय की उपस्थिति होती है। केशव! हाथी, घोड़े तथा मनुष्य भोजन तो थोड़ा ही करते हैं; परंतु उनके पेट से मल अधिक निकलता देखा जाता है। मधुसूदन! दुर्योधन की समस्त सेनाओं में ये बातें पायी जाती है। मनीषी पुरुष इन्हें पराजय का लक्षण कहते हैं। श्रीकृष्ण! पाण्डवों के वाहन प्रसन्न बताये जाते हैं और मृग उनके दाहिने से जाते देखे जाते हैं; यह लक्षण उनकी विजय का सूचक है।
केशव! सभी मृग दुर्योधन के बाँयें से निकलते हैं और उसे प्राय: ऐसी वाणी सुनायी देती हैं, जिसके बोलने वाले का शरीर नही दिखायी देता। यह उसकी पराजय का चिह्र है। ‘मोर’शुभ शकुन सूचित करने वाले मुर्गे, हंस, सारस, चातक तथा चकोरों के समुदाय पाण्डवों का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार गीध, कक, बक, श्येन (बाज), राक्षस,भेड़िये तथा मक्खियों के समूह कौरवों के पीछे दौड़ते हैं।
दुर्योधन की सेनाओं में बजाने पर भी भेरियों के शब्द प्रकट नही होते हैं और पाण्डवों के डंके बिना बजाये ही बज उठते हैं। दुर्योधन की सेनाओं मे कुएँ आदि जलाशय गाय-बैलों के समान शब्द करते हैं। यह उसकी पराजय का लक्षण है। माधव! बादल आकाश से मांस और रक्त की वर्षा करते हैं। अन्तरिक्ष में चहारदिवारी,खाई, वप्र और सुन्दर फाटकों सहित सूर्ययुक्त गन्धर्वनगर प्रकट दिखायी देता है। वहाँ सूर्य को चारों ओर से घेरकर एक काला परिघ प्रकट होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 24-44 का हिन्दी अनुवाद)
सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों संध्याओं के समय एक गीदड़ी महान भय की सूचना देती हुई भयंकर आवाज में रोती है। यह भी कौरवों की पराजय का लक्षण है। मधुसूदन! एक पाँख, एक आँख और एक पैर वाले पक्षी अत्यन्त भयंकर शब्द करते हैं। यह भी कौरव-पक्ष की पराजय का ही लक्षण है। संध्याकाल में काली ग्रीवा और लाल पैर वाले भयानक पक्षी सामने आ जाते हैं, वह भी पराजय का ही चिह्र है। मधुसूदन! दुर्योधन पहले ब्राह्मणों से द्वेष करता है;फिर गुरुजनों से तथा अपने प्रति भक्ति रखने वाले भृत्यों से भी द्रोह करने लगता है, यह उसकी पराजय का ही लक्षण है।
श्रीकृष्ण! पूर्व दिशा लाल, दक्षिण दिशा शस्त्रों के समान रंग वाली (काली), पश्चिम दिशा मिटटी के कच्चे बर्तनों की भाँति मटमैली तथा उत्तर दिशा शंख के समान श्वेत दिखायी देती है। इस प्रकार ये दिशाओं के पृथक-पृथक वर्ण बताये गये हैं। माधव! दुर्योधन को इन उत्पातों का दर्शन तो होता ही है। उसके लिये सारी दिशाएँ भी प्रज्वलित-सी होकर महान भय की सूचना दे रही हैं। अच्युत! मैंने स्वप्न के अन्तिम भाग में युधिष्ठिर को एक हजार खंभों वाले महल पर भाइयों सहित चढ़ते देखा है।
उन सबके सिर पर सफेद पगड़ी और अंगों मे श्वेत वस्त्र शोभित दिखायी दिये हैं। मैंने उन सबके आसनों को भी श्वेत वर्ण का ही देखा है। जनार्दन! श्रीकृष्ण! मैंने स्वप्न के अन्त में आपकी इस पृथ्वी को भी रक्त से मलिन और आंत से लिपटी हुई देखा है। ‘मैंने स्वप्न मे देखा, अमित तेजस्वी युधिष्ठिर सफेद हड्डियों के ढेर पर बैठे हुए हैं और सोने के पात्र में रखी हुई घृत मिश्रित खीर को बड़ी प्रसन्नता के साथ खा रहे हैं।
‘मैंने यह भी देखा कि युधिष्ठिर इस पृथ्वी को अपना ग्रास बनाये जा रहे हैं; अत: यह निश्चित है कि आपकी दी हुई वसुन्धरा का वे ही उपभोग करेंगे। ‘भयंकर कर्म करने वाले नरश्रेष्ठ भीमसेन भी हाथ मे गदा लिये ऊँचे पर्वत पर आरूढ़ हो इस पृथ्वी को ग्रसते हुए से स्वप्न में दिखायी दिये हैं। अत: यह स्पष्टरूप से जान पड़ता है कि वे इस महायुद्ध में हम सब लोगों का संहार कर डालेंगे। हृषीकेश! मुझे यह भी विदित है कि जहाँ धर्म है उसी पक्ष की विजय होती है।
‘श्रीकृष्ण! इसी प्रकार गाण्डीवधारी धनंजय भी आपके साथ श्वेत गजराज पर आरूढ़ हो अपनी परम कान्ति से प्रकाशित होते हुए मुझे स्वप्न में दृष्टिगोचर हुए हैं। अत: श्रीकृष्ण! आप सब लोग इस युद्ध में दुर्योधन आदि समस्त राजाओं का वध कर डालेंगे, इसमें मुझे संशय नहीं है। नकुल, सहदेव तथा महारथी सात्यकि- ये तीन नरश्रेष्ठ मुझे स्वप्न में श्वेत भुजबन्द, श्वेत कण्ठहार, श्वेत वस्त्र और श्वेत मालाओं से विभूषित हो उत्तम नरयान पर चढ़े दिखायी दिये हैं। ये तीनों ही श्वेत छत्र और श्वेत वस्त्रों से सुशोभित थे।
जनार्दन! दुर्योधन की सेनाओं में से मुझे तीन ही व्यक्ति स्वप्न में श्वेत पगड़ी से सुशोभित दिखायी दिये हैं। केशव! आप उनके नाम मुझसे जान लें। वे हैं- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और यादव कृतवर्मा। माधव! अन्य सब नरेश मुझे लाल पगड़ी धारण किये दिखायी दिये हैं।
महाबाहु जनार्दन! मैंने स्वप्न में देखा, भीष्म और द्रोणाचार्य दोनों महारथी मेरे तथा दुर्योधन के साथ ऊँट जुते हुए रथ पर आरूढ़ हो दक्षिण की ओर जा रहे थे। विभो! इसका फल यह होगा कि हमलोग थोड़े ही दिनों में यमलोक पहुँच जायेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 45-52 का हिन्दी अनुवाद)
'मैं' अन्यान्य नरेश तथा यह सारा क्षत्रिय समाज सब के सब गाण्डीव की अग्नि में प्रवेश कर जायेंगे, इसमे संशय नहीं है।
श्रीकृष्ण बोले ;- कर्ण! निश्चय ही अब इस पृथ्वी का विनाशकाल उपस्थित हो गया है। इसीलिये मेरी बात तुम्हारे हृदय तक नही पहुँचती है। तात! जब समस्त प्राणियों का विनाश निकट आ जाता है, तब अन्याय भी न्याय के समान प्रतीत होकर हृदय से निकल नहीं पाता है।
कर्ण बोला ;- महाबाहु श्रीकृष्ण! वीर क्षत्रियों का विनाश करने वाले इस महायुद्ध से पार होकर यदि हम जीवित बच गये तो पुन: आपका दर्शन करेंगे। अथवा श्रीकृष्ण! अब हम लोग स्वर्ग में ही मिलेंगे, यह निश्चित है। वहाँ आज की ही भाँति पुन: आपसे हमारी भेंट होगी।
संजय कहते हैं ;- ऐसा कहकर कर्ण भगवान श्रीकृष्ण का प्रगाढ़ आलिंगन करके उनसे विदा लेकर रथ के पिछले भाग से उतर गया।तदनन्तर अपने सुवर्णभूषित रथ पर आरूढ़ हो राधा-नन्दन कर्ण दीनचित्त होकर हम लोगों के साथ लौट आया।
तदनंतर सात्यकि सहित श्रीकृष्ण सारथि से बार-बार 'चलो-चलो' ऐसा कहते हुए अत्यन्त तीव्र गति से उपप्लव्य नगर की ओर चल दिये
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“विदुर की बात सुनकर युद्ध के भावी दुष्परिणाम से व्यथित हुई कुन्ती का बहुत सोच-विचार के बाद कर्ण के पास जाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! जब श्रीकृष्ण का अनुभव असफल हो गया और वे कौरवों के यहाँ से पाण्डवों के पास चले गये, तब विदुरजी कुन्ती के पास जाकर शोकमग्न से हो धीरे-धीरे इस प्रकार बोले-
विदुरजी बोले ;- चिरंजीवी पुत्रों को जन्म देने वाली देवि! तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्छा सदा से यही रही है कि कौरवों और पाण्डवों में युद्ध न हो। इसके लिये मैं पुकार-पुकार कर कहता रह गया; परंतु दुर्योधन मेरी बात मानता ही नहीं है। राजा युधिष्ठिर चेदि, पांचाल तथा केकयदेश के वीर सैनिकगण, भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा नकुल-सहदेव आदि श्रेष्ठ सहायकों से सम्पन्न हैं।
वे युद्ध के लिये उद्यत हो उपप्लव्य नगर में छावनी डालकर बैठे हुए हैं, तथापि भाई-बन्धुओं के सौहार्दवश धर्म की ही आकांक्षा रखते हैं। बलवान होकर भी दुर्बल की भाँति संधि करना चाहते हैं। यह राजा धृतराष्ट्र बूढ़े हो जाने पर भी शान्त नहीं हो रहे हैं। पुत्रों के मद से उन्मत्त हो अधर्म के मार्ग पर ही चलते हैं। जयद्रथ, कर्ण, दु:शासन तथा शकुनि की खोटी बुद्धि से कौरव-पाण्डवों में परस्पर फूट ही रहेगी।
कौरवों ने चौदहवें वर्ष में पाण्डवों को राज्य लौटा देने की प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन नहीं किया। जिन्हें ऐसा अधर्मजनित कार्य भी, जो परस्पर बिगाड़ करने वाला है, धर्मसंगत प्रतीत होता है, उनका यह विकृत धर्म सफल होकर ही रहेगा अधर्म का फल है दु:ख और विनाश। वह उन्हें प्राप्त होगा ही। कौरवों द्वारा धर्म मानकर किये जाने वाले इस बलात्कार से किसको चिन्ता नहीं होगी। भगवान श्रीकृष्ण संधि के प्रयत्न में असफल होकर गये हैं अत: पाण्डव भी अब युद्ध के लिये महान उद्योग करेंगे। इस प्रकार यह कौरवों का अन्याय समस्त वीरों का विनाश करने वाला होगा इन सब बातों को सोचते हुए मुझे न तो दिन में नींद आती है और न रात में ही। विदुरजी ने उभय पक्ष के हित की इच्छा से ही यह बात कही थी। इसे सुनकर कुन्ती दु:ख से आतुर हो उठी और लम्बी साँस खींचती हुई मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी-
अहो! इस धन को धिक्कार है, जिसके लिये परस्पर बन्धु-बान्धवों का यह महान संहार किया जाने वाला है। इस युद्ध में अपने सगे-सम्बन्धियों का भी पराभव होगा ही। पाण्डव, चेदि, पांचाल और चादव एकत्र होकर भरतवंशियों के साथ युद्ध करेंगे, इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है।
युद्ध में निश्चय ही मुझे बड़ा भारी दोष दिखायी देता है; परंतु युद्ध न होने पर भी पाण्डवों का पराभव स्पष्ट है। निर्धन होकर मृत्यु को वरण कर लेना अच्छा है। परंतु बन्धु-बान्धवों का विनाश करके विजय पाना कदापि अच्छा नहीं है। 'यह सब सोचकर मेरे हृदय में बडा दु:ख हो रहा है। शान्तनुनन्दन पितामह भीष्म, योद्धाओं में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण तथा कर्ण भी दुर्योधन के लिये ही युद्ध भूमि में उतरेंगे; अत: ये मेरे भय की ही वृद्धि कर रहे हैं।
आचार्य द्रोण तो सदा हमारे हित की इच्छा रखने वाले हैं वे अपने शिष्यों के साथ कभी युद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार पितामह भीष्म भी पाण्डवों के प्रति हार्दिक स्नेह कैसे नहीं रखेंगे?
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)
परंतु यह एक मात्र मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बुद्धि दुर्योधन का ही अनुसरण करने वाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवों से द्वेष ही रखता है। इसने सदा पाण्डवों का बडा भारी अनर्थ करने के लिये हठ ठान लिया है। साथ ही कर्ण अत्यन्त बलवान भी है। यह बात इस समय मेरे हृदय को दग्ध किये देती है। अच्छा, आज मैं कर्ण के मन को पाण्डवों के प्रति प्रसन्न करने के लिये उसके पास जाऊँगी और यथार्थ सम्बन्ध परिचय देती हुई उससे बातचीत करूँगी।
जब मैं पिता के घर रहती थी, उन्हीं दिनों अपनी सेवाओं द्वारा मैंने भगवान दुर्वासा को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे यह वर दिया कि मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहन करने पर मैं किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हूँ। मेरे पिता कुन्तिभोज मेरा बड़ा आदर करते थे। मैं राजा के अन्त:पुर में रहकर व्यथित हृदय मन्त्रों के बलाबल और ब्राह्मण की वाक्शक्ति के विषय में अनेक प्रकार का विचार करने लगी।
स्त्री-स्वभाव और वाल्यावस्था के कारण मैं बार-बार इस प्रश्न को लेकर चिन्तामग्न रहने लगी। उन दिनों एक विश्वस्त धाय मेरी रक्षा करती थी और सखियाँ मुझे सदा घेरे रहती थी। मैं अपने ऊपर आने वाले सब प्रकार के दोषों का निवारण करती हुई पिता की दृष्टि में अपने सदाचार की रक्षा करती रहती थी। मैंने सोचा, क्या करूँ, जिससे मुझे पुण्य हो और मैं अपराधिनी न होऊँ। यह सोचकर मैंने मन-ही-मन उन ब्राह्मण देवता को नमस्कार किया और उस मन्त्र को पाकर कौतूहल तथा अविवेक के कारण मैंने उसका प्रयोग आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि कन्यावस्था में ही मुझे भगवान सूर्यदेव का संयोग प्राप्त हुआ।
जो मेरा कानीन गर्भ है, इसे मैंने पुत्र की भाँति अपने उदर में पाला है। वह कर्ण अपने भाईयों के हित के लिये कही हुई बात मेरी लाभदायक बात क्यों नहीं मानेगा। इस प्रकार उत्तम कर्तव्य का निश्चय करके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक निर्णय पर पहुँच कर कुन्ती भागीरथी गंगा के तट पर गयी। वहाँ गंगा किनारे पहुँचकर कुन्ती अपने दयालु और सत्यपरायण पुत्र कर्ण के मुख से वेदपाठ की गम्भीर ध्वनि सुनी। वह अपनी दोनों वाँहे ऊपर उठाकर पूर्वाभिमुख हो जप कर रहा था और तपस्विनी कुन्ती उसके जप की समाप्ति की प्रतीक्षा करती हुई कार्यवश उसके पीछे की ओर खड़ी रही।
व्रष्णिकुलनन्दिनी पाण्डुपत्नी कुन्ती वहाँ सूर्यदेव के ताप से पीड़ित हो कुम्हलाती हुई कमलमाला के समान कर्ण के उत्तरीय वस्त्र की छाया में खड़ी हो गयी। जब तक सूर्यदेव पीठ की ओर ताप न देने लगे जब तक वे पूर्व से पश्चिम की ओर चले नहीं गये; तब तक जप करके नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाला कर्ण जब पीछे की ओर घूमा, तब तक कुन्ती को सामने पाकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके पास खड़ा हो गया। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, अभिमानी और महातेजस्वी सूर्यपुत्र कर्ण जिसका दूसरा नाम वृष भी था, कुन्ती को यथोचित रीति से प्रणाम करके मुस्कराता हुआ बोला।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवाधान पर्व में कुन्ती और कर्ण की भेंट विषयक एक सौ चौवालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“कुन्ती का कर्ण को अपना प्रथम पुत्र बताकर उससे पाण्डवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध”
कर्ण बोला ;- देवि! मैं राधा तथा अधिरथ का पुत्र कर्ण हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। आपने किस लिये यहाँ तक आने का कष्ट किया है बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?
कुन्ती ने कहा ;- कर्ण! तुम राधा के नहीं, कुन्ती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं और तुम सूतकुल में नहीं उत्पन्न हुए हो। मेरी इस बात को ठीक मानो। तुम कन्यावस्था में मेरे गर्भ से उत्पन्न हुए प्रथम पुत्र हो। महाराज कुन्तिभोज के घर में रहते समय मैंने तुम्हें गर्भ में धारण किया था; अत: बेटा! तुम पार्थ हो। कर्ण! ये जो जगत में प्रकाश और उष्णता प्रदान करने वाले भगवान सूर्यदेव हैं, इन्होंने शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तुम-जैसे वीर पुत्र को मेरे गर्भ से उत्पन्न किया है।
दुर्धर्ष पुत्र! मैंने पिता के घर में तुम्हें जन्म दिया था। तुम जन्मकाल से ही कुण्डल और कवच धारण किये देव-बालक के समान शोभासम्पन्न रहे हो। बेटा! तुम जो अपने भाइयों से अपरिचित रहकर मोहवश धृतराष्ट्र के पुत्रों की सेवा कर रहे हो, वह तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है। बेटा! धर्मशास्त्र में मनुष्यों के लिये यही धर्म का उत्तम फल बताया गया है कि उनके पिता आदि गुरुजन तथा एक मात्र पुत्र पर ही दृष्टि रखने वाली माता उनसे संतुष्ट रहें। अर्जुन ने पूर्वकाल में जिसका उपार्जन किया था और दुष्टों ने लोभवश जिसे हर लिया है, युधिष्ठिर की उस राज्य लक्ष्मी को तुम धृतराष्ट्र पुत्रों से छीनकर भाइयों सहित उसका उपभोग करो।
आज उत्तम बन्धु जनोचित स्नेह के साथ कर्ण और अर्जुन के मिलन को कौरव लोग देखें और इसे देखकर दुष्टलोग नतमस्तक हों। कर्ण और अर्जुन दोनों मिलकर वैसे ही बलशाली हैं जैसे बलराम और श्रीकृष्ण। बेटा! तुम दोनों हृदय से संगठित हो जाओ तो इस जगत में तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य असाध्य होगा? कर्ण! जिस प्रकार महान यज्ञ की वेदी पर देवगणों से घिरे हुए ब्रह्ममाजी सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने पाँचों भाइयों से घिरे हुए तुम भी शोभा पाओगे। अपने श्रेष्ठ स्वभाव वाले बन्धुओं के बीच में तुम सर्वगुणसम्पन्न ज्येष्ठ भ्राता परम पराक्रमी कुन्तीपुत्र कर्ण हो। तुम्हारे लिये सूतपुत्र शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवद्यानपर्व में कुन्ती और कर्ण की भेंट के प्रसंग में एक सौ पैंतालीसवां अध्याय पूरा हुआ)
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