सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो छत्तीसवें अध्याय से एक सो चालीसवें अध्याय तक (From the 136 chapter to the 140 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना”

   माता बोली ;- पुत्र! कैसी भी आपत्ति क्यों न आ जाए, राजा को कभी भयभीत होना या घबराना नहीं चाहिए। यदि वह डरा हुआ हो तो भी डरे हुए के समान कोई बर्ताव न करे। राजा को भयभीत देखकर उसके पास के सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। राज्य की प्रजा, सेना और मंत्री भी उससे भिन्न विचार रखने लगते हैं। 

   उनमें से कुछ लोग तो उस राजा के शत्रुओं की शरण में चले जाते हैं, दूसरे लोग उसका त्यागमात्र कर देते हैं और कुछ लोग जो पहले राजा द्वारा अपमानित हुए होते हैं, वे उस अवस्था में उसके ऊपर प्रहार करने की भी इच्छा कर लेते हैं। जो लोग अत्यंत सुहृद होते हैं, वे ही उस संकट के समय उस राजा के पास रह जाते हैं, परंतु वे भी असमर्थ होने के कारण बंधे हुए बछड़े वाली गाय की भाँति कुछ कर नहीं पाते, केवल मन-ही-मन उसकी मंगलकामना करते रहते हैं। 

   जो विपत्ति की अवस्था में शोक करते हुए राजा के साथ-साथ स्वयं भी वैसे ही शोकमग्न हो जाते हैं, मानो उनके कोई सगे भाई-बंधु विपन्न हो गए हैं, क्या ऐसे ही लोगों को तूने सुहृद माना है? क्या तूने भी पहले ऐसे सुहृदों का सम्मान किया है? जो संकट में पड़े राजा के राज्य को अपना ही मानकर उसकी तथा राजा के राज्य की रक्षा के लिए कृतसंकल्प होते हैं, ऐसे सुहृदों को तू कभी अपने से विलग न कर और वे भी भयभीत अवस्था में तेरा परित्याग न करें।

   मैं तेरे प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धि-बल को जानना चाहती थी, अत: तुझे आश्वासन देते हुए तेरे तेज (उत्साह) की वृद्धि के लिए मैंने उपर्युक्त बातें कही हैं। संजय! यदि मैं यह सब ठीक कह रही हूँ और यदि तू भी मेरी इन बातों को ठीक समझ रहा है तो अपने आप को उग्र सा बनाकर विजय के लिए उठ खड़ा हो। अभी हम लोगों के पास बड़ा भारी खजाना है जिसका तुझे पता नहीं है, उसे मैं ही जानती हूँ, दूसरा नहीं। वह खजाना मैं तुझे सौंपती हूँ। वीर संजय! अभी तो तेरे सैकड़ों सुहृद हैं। वे सभी सुख-दु:ख को सहन करने वाले तथा युद्ध से पीछे न हटने वाले हैं। शत्रुसूदन! जो पुरुष अपनी उन्नति चाहता है और शत्रु के हाथ से अपनी अभीष्ट संपत्ति को हर लाना चाहता है उसके सहायक और मंत्री पूर्वोक्त गुणों से युक्त सुहृद हुआ करते हैं। 

   कुंती बोली ;- श्रीकृष्ण! संजय का हृदय यद्यपि बहुत दुर्बल था तो भी विदुला का वह विचित्र अर्थ, पद और अक्षरों से युक्त वचन सुनकर उसका तमोगुण जनित भय और विषाद भाग गया। 

    पुत्र बोला ;- माँ! मेरा यह राज्य शत्रुरूपी जल में डूब गया है, अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन कर देना है, जब मुझे भावी वैभव का दर्शन कराने वाली तुझ जैसी संचालिका प्राप्त है, तब मुझ में ऐसा साहस होना ही चाहिए। मैं बराबर तेरी नयी-नयी बातें सुनना चाहता था। इसलिए बारबार बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलकर फिर मौन हो जाता था। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद)

   तेरे ये अमृत के समान वचन बड़ी कठिनाई से सुनने को मिले थे। उन्हें सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। यह देखो, अब में शत्रुओं का दमन और विजय की प्राप्ति करने के लिए बंधु-बांधवों के साथ उद्योग कर रहा हूँ। 

   कुंती कहती है ;- श्रीकृष्ण! माता के वाग्बाणों से बिंधकर और तिरस्कृत होकर चाबुक की मार खाये हुए अच्छे घोड़ों के समान संजय ने माता के उन समस्त उपदेशों का यथावत रूप से पालन किया। यह उत्तम उपाख्यान वीरों के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक और कायरों के लिए भयंकर है। यदि कोई राजा शत्रु से पीड़ित होकर दुखी एवं हताश हो रहा हो तो मंत्री को चाहिए कि उसे यह प्रसंग सुनाए। 

   यह जय नामक इतिहास है। विजय की इच्छा रखने वाले पुरुष को इसका श्रवण करना चाहिए। इसे सुनकर युद्ध में जाने वाला राजा शीघ्र ही पृथ्वी पर विजय पाता और शत्रुओं को रौंद डालता है। यह आख्यान पुत्र की प्राप्ति कराने वाला है तथा साधारण पुरुष में वीर भाव उत्पन्न करने वाला है। यदि गर्भवती स्त्री इसे बारंबार सुने तो वह निश्चय ही वीर पुत्र को जन्म देती है। 

    इसे सुनकर प्रत्येक क्षत्राणी विद्याशूर, तप:शूर, दानशूर, तपस्वी, ब्राह्मी शोभा से सम्पन्न, साधुवाद के योग्य, तेजस्वी, बलवान, परम सौभाग्यशाली, महारथी, धैर्यवान, दुर्धर्ष विजयी, किसी से भी पराजित न होने वाला, दुष्टों का दमन करने वाला, धर्मात्माओं के रक्षक तथा सत्या-पराक्रमी वीर पुत्र को उत्पन्न करती है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला के द्वारा पुत्र को दिये जानेवाले उपदेश की समाप्ति विषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कुंती का पांडवों के लिए संदेश देना और श्रीकृष्ण का उनसे विदा लेकर उपप्लव्य नगर में जाना”

   कुंती बोली ;- केशव! तुम अर्जुन से जाकर कहना, तुम्हारे जन्म के समय जब मैं नारियों से घिरी हुई आश्रम के सूतिकागार में बैठी थी, उसी समय आकाश में यह दिव्यरूपा मनोरम वाणी सुनाई दी- कुंती! तेरा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी होगा। यह भीमसेन के साथ रहकर युद्ध में आए हुए समस्त कौरवों को जीत लेगा और शत्रु-समुदाय को व्याकुल कर देगा। 

     तेरा यह पुत्र भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर इस भूमंडल को जीत लेगा, इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा और यह संग्राम में विपक्षी कौरवों को मारकर अपने पैतृक राज्य-भाग का पुनरुद्धार करेगा। यह शोभासंपन्न बालक अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा।' अच्युत! सव्यसाची अर्जुन जैसा सत्यप्रतिज्ञ है तथा उसमें जितना बल एवं दुर्जेय शक्ति है, उसे तुम्हीं जानते हो। 

    दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण! काशवाणी ने जैसा कहा है, वैसा ही हो, यही मेरी भी इच्छा है। वृष्णिनन्दन! यदि धर्म की सत्ता है तो वह सब उसी रूप में सत्य होगा। श्रीकृष्ण! तुम स्वयं भी वह सब कुछ उसी रूप में पूर्ण करोगे। आकाशवाणी ने जैसा कहा है, उसमें मैं किसी दोष की उद्भावना नहीं करती हूँ। 

    मैं तो उस महान धर्म को नमस्कार करती हूँ, क्योंकि धर्म ही समस्त प्रजा को धारण करता है। तुम अर्जुन से तथा युद्ध के लिए सदा उद्यत रहने वाले भीमसेन से भी जाकर कहना। क्षत्राणी जिसके लिए पुत्र को जन्म देती है, उसका यह उपयुक्त अवसर आ गया है। श्रेष्ठ मनुष्य किसी से वैर ठन जाने पर उत्साहहीन नहीं होते। शत्रुदमन श्रीकृष्ण! तुम्हें भीमसेन का विचार तो सदा से ज्ञात ही है, वह जब तक शत्रुओं का अंत नहीं कर लेगा, तब तक शांत नहीं होगा। 

    माधव! श्रीकृष्ण! तुम सब धर्मों को विशेष रूप से जानने वाली महात्मा पांडु की पुत्रवधू कल्याणमयी, यशस्विनी द्रौपदी से कहना। बेटी! तू परम सौभाग्यशाली यशस्वी कुल में उत्पन्न हुई है। तूने मेरे सभी पुत्रों के साथ जो धर्मानुसार यथोचित बर्ताव किया है, वह तेरे ही योग्य है।' पुरुषोत्तम! तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले दोनों माद्रीकुमारों से भी मेरा यह संदेश कहना- वीरो! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों का ही उपभोग करो। क्षत्रिय धर्म से निर्वाह करने वाले मनुष्य के मन को पराक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए पदार्थ ही सदा संतुष्ट रखते हैं। 

   पांडवो! सब प्रकार से धर्म की वृद्धि करने वाले तुम सब लोगों के देखते-देखते पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी को जो कटुवचन सुनाये गए हैं, उन्हें कौन वीर क्षमा कर सकता है? 

   श्रीकृष्ण! मुझे राज्य छिन जाने का उतना दु:ख नहीं है। जूए में हारने और पुत्रों के वनवास होने का भी मेरे मन में उतना महान दु:ख नहीं है, परंतु भरी सभा में मेरी सुंदरी युवती पुत्रवधू द्रौपदी ने रोते हुए जो दुर्योधन के कटुवचन सुने थे, वही मेरे लिए महान दु:ख का कारण बन गया है। क्षत्रिय धर्म में सदा तत्पर रहने वाली मेरी सर्वांगसुंदरी सती-साध्वी बहू कृष्णा उन दिनों राजस्वलावस्था में थी। वह सब प्रकार से सनाथ थी, तो भी उस दिन कौरव सभा में उसे कोई रक्षक नहीं मिला, वह अनाथ सी रोती हुई अपमान सह रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद)

   महाबाहो! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के इच्छित पथ पर चलो। श्रीकृष्ण! तुम तो अच्छी तरह जानते ही हो कि भीमसेन और अर्जुन कुपित हो जाएँ तो वे यमराज तथा अंत के समान भयंकर हो जाते हैं और देवताओं को भी यमलोक पहुँचा सकते हैं। जूए के समय द्रौपदी को जो सभा में जाना पड़ा और कौरव वीरों के सामने ही दुर्योधन और दु:शासन ने जो उसे गालियां दीं, वह सब भीमसेन और अर्जुन का ही तिरस्कार है। मैं पुन: उसकी याद दिला देती हूँ। 

    जनार्दन! तुम मेरी ओर से द्रौपदी और पुत्रों सहित पांडवों से कुशल पूछना और फिर मुझे भी सकुशल बताना। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, मेरे पुत्रों की रक्षा करना। 

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने कुंती देवी को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा भी की और फिर सिंह के समान मस्तानी चाल से वहाँ से निकल गए। फिर भीष्म आदि प्रधान कुरुवंशियों को उन्होंने विदा कर दिया और कर्ण को रथ पर बैठाकर सात्यकि के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। 

    दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण के चले जाने पर सब कौरव आपस में मिलें और उनके अत्यंत अद्भुत एवं महान आश्चर्यजनक बल-वैभव की चर्चा करने लगे। 

   कौरव बोले ;- यह सारी पृथ्वी मृत्युपाश में आबद्ध हो मोहाच्छ्न्न हो गई है। जान पड़ता है, दुर्योधन की मूर्खता से इसका विनाश हो जाएगा। उधर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण जब नगर से निकलकर उपप्लव्य की ओर चले, तब उन्होंने दीर्घकाल तक कर्ण के साथ मंत्रणा की। फिर राधानन्दन कर्ण को विदा करके सम्पूर्ण यदुकुल को आनंदित करने वाले श्रीकृष्ण ने तुरंत ही बड़े वेग से अपने रथ के घोड़े हँकवाये। दारुक के हाँकने पर वे महान वेगशाली अश्व मन और वायु के समान तीव्र गति से आकाश को पीते हुए से चले। 

    उन्होंने शीघ्रगामी बाज पक्षी की भाँति उस विशाल पथ को तुरंत ही तय कर लिया और शार्गंधनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को उपप्लव्य नगर में पहुँचा दिया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में कुंतीवाक्य विषयक एक सौ सैत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुंती का कथन सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा- 

   भीष्म व द्रोण बोले ;- पुरुषसिंह! कुंती ने श्रीकृष्ण के समीप जो अर्थयुक्त, धर्मसंगत, परम उत्तम एवं अत्यंत भयंकर बात कही है, उसे तुमने भी सुना ही होगा। कुरुनंदन! कुंती के पुत्र श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार वह सब कार्य करेंगे। अब राज्य लिए बिना वे कदापि शांत नहीं रह सकते। 

   तुमने द्यूतक्रीड़ा के समय धर्म बंधन में बंधे हुए पांडवों को तथा कौरव सभा में द्रौपदी को भी भारी क्लेश पहुँचाया था, किन्तु उन्होंने तुम्हारा वह सब अपराध चुपचाप सह लिया। अब अस्त्रविद्या में पारंगत अर्जुन और युद्ध का दृढ़ निश्चय रखने वाले भीमसेन को पाकर गांडीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस, दिव्य रथ और ध्वज को हस्तगत करके, बल और पराक्रम से सम्पन्न नकुल और सहदेव को युद्ध के लिए उद्यत देखकर तथा भगवान श्रीकृष्ण को भी अपनी सहायता के रूप में पाकर युधिष्ठिर तुम्हारे पूर्व अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे। 

   महाबाहो! थोड़े ही दिनों पहले की बात है, परम बुद्धिमान अर्जुन ने विराटनगर के युद्ध में हम सब लोगों को परास्त कर दिया था और वह सब घटना तुम्हारी आँखों के सामने घटित हुई थी। कपिध्वज अर्जुन ने युद्ध में भयंकर कर्म करने वाले निवात-कवच नामक दानवों को रुद्रदेवता संबंधी पाशुपत अस्त्र लेकर दग्ध कर डाला था। घोषयात्रा के समय कर्ण आदि योद्धा तुम्हारे साथ थे। तुम स्वयं भी रथ और कवच आदि से सम्पन्न थे, तथापि अर्जुन ने ही तुम्हें गन्धर्वों के हाथों से छुड़ाया था। उनकी शक्ति को समझने के लिए यही उदाहरण पर्याप्त होगा। अत: भरतश्रेष्ठ! तुम अपने ही भाई पांडवों के साथ संधि कर लो। 'यह सारी पृथ्वी मौत की दाढ़ों के बीच में जा पहुँची है। तुम संधि के द्वारा इसकी रक्षा करो। तुम्हारे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मात्मा, दयालु, मधुरभाषी और विद्वान हैं। तुम अपने मन का सारा कलुष यहीं धो-बहाकर उन पुरुषसिंह युधिष्ठिर की शरण में जाओ।

   जब पांडुपुत्र युधिष्ठिर यह देख लेंगे कि तुमने धनुष उतार दिया है और तुम्हारी टेढ़ी भौंहे शांत एवं सीधी हो गई हैं तथा तुम क्रोध त्याग कर अपनी सहज शोभा से सम्पन्न हो रहे हो, तब हमें विश्वास हो जाएगा कि तुमने हमारे कुल में शांति स्थापित कर दी। शत्रुदमन! तुम अपने मंत्रियों के साथ पांडुकुमार राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और पहले की भाँति उनके हृदय से लगकर उन्हें प्रणाम करो। 

    भीम के बड़े भाई कुंतीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें प्रणाम करते देख सौहार्दवश अपने दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लें। जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी, गोलाकार तथा अधिक मोटी हैं, वे योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन भी तुम्हें अपनी दोनों भुजाओं में भरकर छाती से चिपका लें। शंख के समान ग्रीवा और कमलसदृश नेत्रों वाले निद्राविजयी कुंतीपुत्र धनंजय तुम्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करें। 

    इस भूतल पर जिनके रूप की तुलना कहीं नहीं है, वे अश्विनीकुमारों के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल- सहदेव तुम्हारे प्रति गुरुजनोचित प्रेम और आदर का भाव लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित हों। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद)

   भूपाल! तुम अभिमान छोड़कर अपने उन बिछुड़े हुए भाइयों से मिल जाओ और यह अपूर्व मिलन देखकर श्रीकृष्ण आदि सब नरेश अपने नेत्रों से आनंद के आँसू बहावें। तदनंतर तुम अपने भाइयों के साथ इस सारी पृथ्वी का शासन करो और ये राजा लोग एक दूसरे से मिल-जुलकर हर्षपूर्वक यहाँ से पधारें। राजेन्द्र! इस युद्ध से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। तुम्हारे हितैषी सुहृद जो तुम्हें युद्ध से रोकते हैं, उनकी वह बात सुनो और मानो, क्योंकि युद्ध छिड़ जाने पर क्षत्रियों का निश्चय ही विनाश दिखाई दे रहा है। 

   वीर! ग्रह और नक्षत्र प्रतिकूल हो रहे हैं। पशु और पक्षी भयंकर शब्द कर रहे हैं तथा नाना प्रकार के ऐसे उत्पात दिखाई देते हैं, जो क्षत्रियों के विनाश की सूचना देते हैं। विशेषत: यहाँ हमारे घर में बुरे निमित्त दृष्टिगोचर होते हैं। जलती हुई उल्काएँ गिरकर तुम्हारी सेना को पीड़ित कर रही हैं। प्रजानाथ! हमारे सारे वाहन अप्रसन्न एवं रोते-से दिखाई देते हैं। गीध तुम्हारी सेनाओं को चारों ओर से घेरकर बैठते हैं। 

   इस नगर तथा राजभवन की शोभा अब पहले जैसी नहीं रही। सारी दिशाएँ जलती-सी प्रतीत होती हैं और उनमें अमंगलसूचक शब्द करती हुई गीदड़ियाँ फिर रही हैं। महाबाहो! तुम पिता, माता तथा हम हितैषियों का कहना मानो। अब शांतिस्थापन और युद्ध दोनों तुम्हारे ही अधीन हैं।

   शत्रुसूदन! यदि तुम सुहृदों की बातें नहीं मानोगे तो अपनी सेना को अर्जुन के बाणों से अत्यंत पीड़ित होती देख कर पछताओगे। यदि हमारी ये बातें तुम्हें विपरीत जान पड़ती हैं तो जिस समय युद्ध में गर्जना करने वाले महाबली भीमसेन का विकट सिंहनाद और अर्जुन के गांडीव धनुष की टंकार सुनोगे, उस समय तुम्हें ये बातें याद आएंगी। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म–द्रोण वाक्य विषयक एक सौ अड़त्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म से वार्तालाप करके द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना”

   वैशम्पायनजी कहते हैं‌ ;- जनमेजय! भीष्म और द्रोणाचार्य के इस प्रकार कहने पर दुर्योधन का मन उदास हो गया। उसने टेढ़ी आँखों से देखकर और भौहों को बीच से सिकोड़कर मुँह नीचा कर लिया। वह उन दोनों से कुछ बोला नहीं। उसे उदास देख नरश्रेष्ठ भीष्म और द्रोण एक दूसरे की ओर देखते हुए उसके निकट ही पुन: इस प्रकार बात करने लगे। 

   भीष्म बोले ;- अहो! जो गुरुजनों की सेवा के लिए उत्सुक, किसी के भी दोष न देखने वाले, ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी हैं, उन्हीं युधिष्ठिर से हमें युद्ध करना पड़ेगा, इससे बढ़कर महान दु:ख की बात और क्या होगी? 

   द्रोणाचार्य ने कहा ;- राजन! मेरा अपने पुत्र अश्वत्थामा के प्रति जैसा आदर है, उससे भी अधिक अर्जुन के प्रति है। कपिध्वज अर्जुन में मेरे प्रति बहुत विनयभाव है। मेरे पुत्र से भी बढ़कर प्रियतम उन्हीं अर्जुन से मुझे क्षत्रिय धर्म का आश्रय लेकर युद्ध करना पड़ेगा। क्षात्रवृति को धिक्कार है। मेरी ही कृपा से अर्जुन अन्य धनुर्धरों से श्रेष्ठ हो गए हैं। इस समय जगत में उनके समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है। 

    जैसे यज्ञ में आया हुआ मूर्ख ब्राह्मण प्रतिष्ठा नहीं पाता, उसी प्रकार जो मित्रद्रोही, दुर्भावनायुक्त, नास्तिक, कुटिल और शठ है, वह सत्पुरुषों में कभी सम्मान नहीं पाता है। पापात्मा मनुष्य को पापों से रोका जाये तो भी वह पाप ही करना चाहता है और जिसका हृदय शुभ संकलों से युक्त है, वह पुण्यात्मा पुरुष किसी पापी के द्वारा पाप के लिए प्रेरित होने पर भी शुभ कर्म करने की ही इच्छा रखता है। 

   भरतश्रेष्ठ! तुमने पांडवों के साथ सदा मिथ्या बर्ताव, छल कपट ही किया है तो भी ये सदा तुम्हारा प्रिय करने में ही लगे रहे हैं। अत: तुम्हारे ये ईर्ष्या-द्वेष आदि दोष तुम्हारा ही अहित करने वाले होंगे। कुरुकुल के वृद्ध पुरुष भीष्मजी ने, मैंने, विदूरजी ने तथा भगवान श्रीकृष्ण ने भी तुमसे तुम्हारे कल्याण की ही बात बताई है, तथापि तुम उसे मान नहीं रहे हो। जैसे कोई अविवेकी मनुष्य वर्षा काल में बड़े हुए ग्राह और मकर आदि जलजन्तुओं से युक्त गंगाजी के वेग को दोनों बाहुओं से तैरना चाहता हो, उसी प्रकार तुम मेरे पास बल है, ऐसा समझकर पांडव-सेना को सहसा लांघ जाने की इच्छा रखते हो। 

    जैसे कोई दूसरे का छोड़ा हुआ वस्त्र पहन ले और उसे अपना मानने लगे, उसी प्रकार तुम त्यागी हुई माला की भांति युधिष्ठिर की राजलक्ष्मी को पाकर अब उसे लोभवश अपनी समझते हो। अपने अस्त्र-शस्त्रधारी भाइयों से घिरे हुए द्रौपदी सहित पांडुनंदन युधिष्ठिर वन में रहे तो भी उन्हें राज्य सिंहासन पर बैठा हुआ कौन नरेश युद्ध में जीत सकेगा? समस्त राजा जिनकी आज्ञा में किंकर की भाँति खड़े रहते हैं, उन्हीं राजराज कुबेर से मिलकर धर्मराज युधिष्ठिर उनके साथ विराजमान हुए थे। 

   कुबेर के भवन में जाकर उनसे भाँति–भाँति के रत्न लेकर अब पांडव तुम्हारे समृद्धिशाली राष्ट्र पर आक्रमण करके अपना राज्य वापस लेना चाहते हैं। हम दोनों ने तो दान, यज्ञ और स्वाध्याय कर लिए। धन से ब्राह्मणों को तृप्त कर लिया। अब हमारी आयु समाप्त हो चुकी है, अत: हमें तो तुम कृतकृत्य ही समझो। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-22 का हिन्दी अनुवाद)

   परंतु तुम पांडवों से युद्ध ठानकर सुख, राज्य, मित्र और धन सब कुछ खोकर बड़े भारी संकट में पड़ जाओगे। तपस्या एवं घोर व्रत का पालन करने वाली सत्यवादिनी देवी द्रौपदी जिनकी विजय की कामना करती है, उन पांडुनंदन युधिष्ठिर को तुम कैसे जीत सकोगे? 

   भगवान श्रीकृष्ण जिनके मंत्री और समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन जिनके भाई हैं, उन पांडुपुत्र युधिष्ठिर को तुम कैसे जीतोगे? धैर्यवान और जितेंद्रिय ब्राह्मण जिनके सहायक हैं, उन उग्र तपस्वी वीर पांडव को तुम कैसे जीत सकोगे? जिस समय अपने बहुत से सुहृद संकट के समुद्र में डूब रहे हों, उस समय कल्याण की इच्छा रखने वाले एक सुहृद का जो कर्तव्य है उस अवसर पर उसे जैसी बात कहनी चाहिए, वह यद्यपि पहले कही जा चुकी है, तथापि मैं उसे दुबारा कहूँगा। 

    राजन! युद्ध में तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। तुम कुरुकुल की वृद्धि के लिए उन वीर पांडवों के साथ संधि कर लो। पुत्रों, मंत्रियों तथा सेनाओं सहित यमलोक में जाने की तैयारी न करो। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म–द्रोण वाक्य विषयक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ चालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान श्रीकृष्ण का कर्ण को पाण्डव पक्ष में आ जाने के लिये समझाना”

   धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! राजपुत्रों तथा सेवकों से घिरे हुए, शत्रुवीरों का संहार करने वाले, अप्रमेयस्वरूप, भगवान श्रीकृष्ण जब राधानन्दन कर्ण को रथ पर बिठाकर हस्तिनापुर से बाहर निकल गये, तब उन्होंने उससे क्या कहा? गोविन्द ने सूतपुत्र कर्ण को क्या सान्त्वनाएं दीं? संजय! मेघ के समान गम्भी‍र स्वर से बोलने वाले भगवान श्रीकृष्णर ने उस समय कर्ण से जो मधुर अथवा कठोर वचन कहा हो- वह सब मुझे बताओ। 

   संजय बोले ;- भारत! अप्रमेयस्वरूप मधुसूदन श्रीकृष्ण ने राधानन्दन कर्ण से जो तीक्ष्ण, मधुर, प्रिय, धर्म-सम्मत, सत्य, हितकर एवं हृदयग्राह्म बातें क्रमश: कहीं थीं, उन सबको आप मुझसे सुनिये। 

   श्रीकृष्ण ने कहा ;- राधानन्दन! तुमने वेदों के पारंगत ब्राह्मणों की उपासना की है। तत्त्व ज्ञान के लिये संयम-नियम से रहकर दोष-दृष्टि का परित्याग करके उन ब्राह्मणों से अपनी शंकाएं पूछी हैं। कर्ण! सनातन वैदिक सिद्धान्त क्या है? इसे तुम अच्छी तरह जानते हो। धर्मशास्त्रों के सूक्ष्मं विषयों के भी तुम परिनिष्ठित विद्वान हो। 

   कर्ण! कन्या के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसके दो भेद बताये जाते हैं- कानीन और सहोढ होते हैं, जो विवाह से पहले उत्पन्न होता है, वह कानीन है और जो विवाह के पहले गर्भ में आकर विवाह के बाद उत्पन्न होता है, वह सहोढ कहलाता है। वैसे पुत्र की माता का जिसके साथ विवाह होता है, शास्त्रज्ञों ने उसी को उसका पिता बताया है। कर्ण! तुम्हारा जन्म भी इसी प्रकार हुआ है; तुम कुन्ती के कन्यावस्था में उत्पन्न हुए पुत्र हो; अत: तुम भी धर्मानुसार पाण्डु के ही पुत्र हो। इसलिये आओ, धर्मशास्त्रों के नियम के अनुसार तुम्हीं राजा होओगे।

   पिता के पक्ष में कुंती के सभी पुत्र तुम्हारे सभी सहायक हैं और मातृपक्ष में समस्त वृष्णिवंशी तुम्हारे साथ हैं। पुरुषश्रेष्ठ! तुम अपने इन दोनों पक्षों को जान लो। तात! मेरे साथ यहाँ से चलने पर आज पाण्डवों को तुम्हारे विषय में यह पता चल जाये कि तुम कुन्ती के ही पुत्र हो और युधिष्ठिर से भी पहले तुम्हारा जन्म हुआ है। 

   पाँचों भाई पाण्डव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा किसी से परास्त न होने वाला सुभद्राकुमार वीर अभिमन्यु- ये सभी तुम्हारे चरणों का स्पर्श करेंगे। इसके सिवा, पाण्डवों की सहायता के लिये आये हुए समस्त राजा,राजकुमार तथा अन्धक और वृष्णिवंश के योद्धा भी तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होंगे। बहुत से राजपुत्र और राजकन्याएं तुम्हारे लिये सोने,चांदी तथा मिट्टी के बने हुए कलश, औषधसमूह, सब प्रकार के बीज, सम्पूर्ण रत्न और लता आदि अभिषेक-सामग्री लेकर आयेंगी। 

    विशुद्ध हृदय वाले द्विजश्रेष्ठ धौम्य आज तुम्हारे लिये होम करें और चारों वेदों के विद्वान ब्राह्मण तथा सदा ब्राह्मणोचित धर्म के पालन में स्थित रहने वाले पाण्डवों के पुरोहित धौम्यजी भी तुम्हारा राज्याभिषेक करें। इसी प्रकार पाँचों भाई पुरुषसिंह पाण्डव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, पांचाल और चेदिदेश के नरेश तथा मैं-ये सब लोग तुम्हें पृथ्वीपालक-सम्राट के पद पर अभिषिक्त करेंगे। कठोर व्रत का पालन करने वाले धर्मपुत्र धर्मात्मा कुन्तीनंदन राजा युधिष्ठिर तुम्हारे युवराज होंगे, जो हाथ मे श्वेत चंवर लेकर तुम्हारे पीछे रथ पर बैठेंगे और महाबली कुन्तीुकुमार भीमसेन राज्याभिषेक होने के पश्चाात तुम्हारे मस्त्क पर महान श्वेत छत्र धारण करेंगे। 

   सैकड़ों क्षुद्र घण्टिकाओं की सुमधुर ध्वजनि से युक्त, व्या‍घ्र-चर्म से आच्छादित तथा श्वेत घोड़ों से जुते हुए तुम्हारे रथ को अर्जुन सारथी बनकर हांकेंगे और अभिमन्यु‍ सदा तुम्हारी सेवा के लिये निकट खड़ा रहेगा। नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँच पुत्र, पांचालदेशीय क्षत्रिय तथा महारथी शिखण्डी- ये सब तुम्हारे पीछे-पीछे चलेंगे। 

     मैं तथा समस्त अन्धक और वृष्णिवंश के लोग भी तुम्हारा अनुसरण करेंगे। प्रजानाथ! दशार्ह तथा दशार्णकुल के समस्त क्षत्रिय तुम्हारे परिवार हो जायेंगे। महाबाहो! तुम अपने भाई पाण्डवों के साथ राज्य भोगो। जय, होम तथा नाना प्रकार के मांगलिक कर्मों में संलग्न रहो।

    द्रविड़, कुन्तल, आन्ध्र, तालचर चूचुप तथा वेणुप देश के लोग तुम्हारे अग्रगामी सेवक हों। सूत, मागध और वन्दीजन नाना प्रकार की स्तुतियों द्वरा तुम्हारा यशोगान करें और पाण्डव लोग महाराज वसुषेण कर्ण की विजय घोषित कर दें। कुन्तीकुमार! नक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति तुम अपने अन्य भाईयों से घिरे रहकर राज्य का पालन और कुन्ती को आनन्दित करो। तुम्हारे मित्र प्रसन्न हों और शत्रुओं के मन में व्यथा हो। कर्ण! आज से अपने भाई पाण्डवों के साथ तुम्हारा एक अच्छे बन्धु् की भाँति स्नेहपूर्ण बर्ताव हो। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तकर्गत भगवद्यानपर्व में श्री कृष्णेवाक्य विषयक एक सौ चालीसवाँ अध्यामय पूरा हुआ)

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