सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो इकत्तीसवें अध्याय से एक सो पैतीसवें अध्याय तक (From the 131 chapter to the 135 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन कराकर कौरव सभा से प्रस्थान”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! विदुरजी के ऐसा कहने पर शत्रु समूह का संहार करने वाले शक्तिशाली श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा,- 

   श्री कृष्ण ने कहा ;- दुर्बुद्धि दुर्योधन! तू मोहवश जो मुझे अकेला मान रहा है और इसलिए मेरा तिरस्कार करके जो मुझे पकड़ना चाहता है, यह तेरा अज्ञान है। देख, सब पांडव यहीं हैं। अंधक और वृष्णिवंश के वीर भी यहाँ मौजूद हैं। आदित्यगण, रुद्रगण तथा महर्षियों सहित वसुगण भी यहाँ हैं। ऐसा कहकर विपक्षी वीरों का विनाश करने वाले भगवान केशव उच्च स्वर से अट्टहास करने लगे। हँसते समय उन महात्मा श्रीकृष्ण श्री अंगों में स्थित विद्युत के समान कान्ति वाले तथा अँगूठे के बराबर छोटे शरीर वाले देवता आग की लपटें छोड़ने लगे। उनके ललाट में ब्रह्मा और वक्ष:स्थल में रुद्रदेव विद्यमान थे। 

    समस्त लोकपाल उनकी भुजाओं में स्थित थे। मुख से अग्नि की लपटें निकलने लगीं। आदित्य, साध्य, वसु, दोनों अश्विनीकुमार, इंद्र सहित मरुद्रण, विश्वदेव, यक्ष, गंधर्व, नाग और राक्षस भी उनके विभिन्न अंगों में प्रकट हो गए। उनकी दोनों भुजाओं से बलराम और अर्जुन का प्रादुर्भाव हुआ। दाहिनी भुजा में धनुर्धर अर्जुन और बायीं में हलधर बलराम विद्यमान थे। भीमसेन, युधिष्ठिर तथा माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव भगवान के पृष्ठभाग में स्थित थे। प्रद्युम्न आदि वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी योद्धा हाथों में विशाल आयुध धारण किए भगवान के अग्रभाग में प्रकट हुए।

   शंख, चक्र, गदा, शक्ति, शार्गंधनुष, हल तथा नंदक नामक खड्ग- ये ऊपर उठे हुए ही समस्त आयुध श्रीकृष्ण की अनेक भुजाओं में देदीप्यमान दिखाई देते थे। उनके नेत्रों से, नासिका के छिद्रों से और दोनों कानों से सब ओर अत्यंत भयंकर धूमयुक्त आग की लपटें प्रकट हो रही थीं। समस्त रोम कूपों से सूर्य के समान दिव्य किरणें छिटक रही थीं। महात्मा श्रीकृष्ण के उस भयंकर स्वरूप को देखकर समस्त राजों के मन में भय समा गया और उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। द्रोणाचार्य, भीष्म, परम बुद्धिमान विदुर, महाभाग संजय तथा तपस्या धनी महर्षियों को छोड़कर अन्य सब लोगों की आँखें बंद हो गयी थीं। इन द्रोण आदि को भगवान जनार्दन ने स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। अत: वे आँख खोलकर उन्हें देखने में समर्थ हो सके। 

    उस सभा भवन में भगवान श्रीकृष्ण का वह परम आश्चर्यमय रूप देखकर देवताओं की दुंदुभियाँ बजने लगीं और उनके ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी। उस समय धृतराष्ट्र ने कहा,

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- कमलनयन! यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण! आप ही सम्पूर्ण जगत के हितैषी हैं, अत: मुझ पर भी कृपा कीजिये। भगवान! मेरे नेत्रों का तिरोधान हो चुका है, परंतु आज मैं पुन: आपसे दोनों नेत्र मांगता हूँ। केवल आपका दर्शन करना चाहता हूँ, आपके सिवा और किसी को मैं नहीं देखना चाहता।

तब महाबाहु जनार्दन ने धृतराष्ट्र से कहा,

    श्री कृष्ण ने कहा ;- कुरुनंदन! आपको दो अदृश्य नेत्र प्राप्त हो जाएँ। महाराज जनमेजय! वहाँ यह अद्भुत बात हुई कि धृतराष्ट्र ने भी भगवान श्रीकृष्ण से उनके विश्वरूप का दर्शन करने की इच्छा से दो नेत्र प्राप्त कर लिए। सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गए, यह जानकार ऋषियों सहित सब नरेश आश्चर्यचकित हो मधुसूदन की स्तुति करने लगे। भरतश्रेष्ठ! उस समय सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली पड़ गई और समस्त भूपाल अत्यंत विस्मित हो गए। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)

    तदनंतर शत्रुओं का दमन करने वाले पुरुषसिंह श्रीकृष्ण ने अपने इस स्वरूप को, उस दिव्य, अद्भुत एवं विचित्र ऐश्वर्य को समेट लिया।तत्पश्चात वे मधुसूदन ऋषियों से आज्ञा ले सात्यकि और कृतवर्मा का हाथ पकड़े सभा भवन से चल दिये। उनके जाते ही नारद आदि महर्षि भी अदृश्य हो गए। वह सारा कोलाहल शांत हो गया। यह सब एक अद्भुत सी घटना हुई थी। पुरुषसिंह श्रीकृष्ण को जाते देख राजाओं सहित समस्त कौरव भी उनके पीछे-पीछे गये, मानो देवता देवराज इंद्र का अनुसरण कर रहे हों। 

    परंतु अप्रमेयस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण उस समस्त नरेशमंडल की कोई परवा न करके धूमयुक्त अग्नि की भाँति सभा भवन से बाहर निकल आये। बाहर आते ही शैव्य और सुग्रीव नामक घोड़ों से जुते हुए परम उज्ज्वल एवं विशाल रथ के साथ सारथी दारुक दिखाई दिया। उस रथ में बहुत सी क्षुद्रघंटिकाएँ शोभा पाती थीं। सोने की जालियों से उसकी विचित्र छटा दिखाई देती थी। वह शीघ्रगामी रथ चलते समय मेघ के समान गंभीर रव प्रकट करता था। उसके भीतर सब आवश्यक सामग्रियाँ सुंदर ढंग से सजाकर रखी गयी थीं। उसके ऊपर व्याघ्र चर्म का आवरण लगा हुआ था और रथ की रक्षा के अन्य आवश्यक प्रबंध भी किए गये थे। इसी प्रकार वृष्णिवंश के सम्मानित वीर हृदिकपुत्र महारथी कृतवर्मा भी एक दूसरे रथ पर बैठे दिखाई दिये। शत्रुदमन भगवान श्रीकृष्ण का रथ उपस्थित है और अब ये यहाँ से चले जाएँगे, ऐसा जानकार महाराज धृतराष्ट्र ने पुन: उनसे कहा- 

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- ‘शत्रुसूदन जनार्दन! पुत्रों पर मेरा बल कितना काम करता है, यह आप देख ही रहे हैं। सब कुछ आपकी आँखों के सामने है, आपसे कुछ भी छिपा नहीं है। ‘केशव! मैं भी चाहता हूँ कि कौरव-पांडवों में संधि हो जाये और मैं इसके लिए प्रयत्न भी करता रहता हूँ, परंतु मेरी इस अवस्था को समझकर आपको मेरे ऊपर संदेह नहीं करना चाहिए। 

    ‘केशव! पांडवों के प्रति मेरा भाव पापपूर्ण नहीं है। मैंने दुर्योधन से जो हित की बात बताई है, वह आपको ज्ञात ही है। ‘माधव! मैं सब उपायों से शांतिस्थापन के लिए प्रयत्नशील हूँ, इस बात को ये समस्त कौरव तथा बाहर से आये हुए राजा लोग भी जानते हैं’।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र, आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म, विदुर, बाह्लीक तथा कृपाचार्य से कहा- 

   श्री कृष्ण बोले ;- ‘कौरव सभा में जो घटना घटित हुई है, उसे आप लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है। मूर्ख दुर्योधन किस प्रकार अशिष्ट की भाँति आज रोषपूर्वक सभा से उठ गया था। ‘महाराज धृतराष्ट्र भी अपने आपको असमर्थ बता रहे हैं। अत: अब मैं आप सब लोगों से आज्ञा चाहता हूँ। मैं युधिष्ठिर के पास जाऊँगा।’ नरश्रेष्ठ जनमेजय! तत्पश्चात रथ पर बैठकर प्रस्थान के लिए उद्यत हुए भगवान श्रीकृष्ण से पूछकर भरतवंश के महाधनुर्धर उत्कृष्ट वीर उनके पीछे कुछ दूर तक गये। 

   उन वीरों के नाम इस प्रकार हैं,- भीष्म, द्रोण, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र, बाह्लीक, अश्वत्थामा, विकर्ण और महारथी युयुत्सु। तदनंतर किंकिणीविभूषित उस विशाल एवं उज्ज्वल रथ के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण समस्त कौरवों के देखते-देखते अपनी बुआ कुंती से मिलने के लिए गये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विश्वरूप दर्शन विषयक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण के पूछने पर कुंती का उन्हें पांडवों से कहने के लिए संदेश देना”

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! कुंती के घर में जाकर उनके चरणों में प्रणाम करके भगवान श्रीकृष्ण ने कौरव-सभा में जो कुछ हुआ था, वह सब समाचार उन्हें संक्षेप में सुनाया।

   भगवान श्रीकृष्ण बोले ;- बुआजी! मैंने तथा महर्षियों ने भी नाना प्रकार के युक्ति युक्त वचन, जो सर्वथा ग्रहण करने योग्य थे, सभा में कहे, परंतु दुर्योधन ने उन्हें नहीं माना, जान पड़ता है, दुर्योधन के वश में होकर उसी के पीछे चलने वाला यह सारा क्षत्रिय समुदाय काल से परिपक्व हो गया है। अत: शीघ्र ही नष्ट होने वाला है। अब मैं तुमसे आज्ञा चाहता हूँ, यहाँ से शीघ्र ही पांडवों के पास जाऊँगा। महाप्राशे! मुझे पांडवों से तुम्हारा क्या संदेश कहना होगा, उसे बताओ। मैं तुम्हारी बात सुनना चाहता हूँ।

   कुंती बोली ;- केशव! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर के पास जाकर इस प्रकार कहना- बेटा! तुम्हारे प्रजापालन रूप धर्म की बड़ी हानि हो रही है। तुम उस धर्मपालन के अवसर को व्यर्थ न खोओ। राजन! जैसे वेद के अर्थ को न जानने वाले आज्ञा वेदपाठी की बुद्धि केवल वेद के मंत्रों की आवृति करने में ही नष्ट हो जाती है और केवल मंत्रपाठ मात्र धर्म पर ही दृष्टि रहती है, उसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि भी केवल शांतिधर्म को ही देखती है। 

   बेटा! ब्रहमाजी ने तुम्हारे लिए जैसे धर्म की सृष्टि की है, उसी पर दृष्टिपात करो। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से क्षत्रियों को उत्पन्न किया है, अत: क्षत्रिय बाहुबल से ही जीविका चलाने वाले होते हैं। वे युद्धरूपी कठोर कर्म के लिए रचे गये हैं तथा सदा प्रजापालनरूपी धर्म में प्रवृत होते हैं। मैं इस विषय में एक उदाहरण देती हूँ, जिसे मैंने बड़े-बूढ़ों के मुहँ से सुन रखा है। पूर्वकाल की बात है, धनाध्यक्ष कुबेर राजर्षि मुचुकुन्द पर प्रसन्न होकर उन्हें ये सारी पृथ्वी दे रहे थे, परंतु उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया। 

   वे बोले (मुचुकुन्द) ;- ‘देव! मेरी इच्छा है कि मैं अपने बाहुबल से उपार्जित राज्य का उपभोग करूँ।’ इससे कुबेर बड़े प्रसन्न और विस्मित हुए। तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा मुचुकुन्द ने अपने बाहुबल से प्राप्त की हुई इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक शासन किया। भारत! राजा के द्वारा सुरक्षित हुई प्रजा यहाँ जिस धर्म का अनुष्ठान करती है, उसका चौथाई भाग उस राजा को मिल जाता है। यदि राजा धर्म का पालन करता है तो उसे देवत्व की प्राप्ति होती है और यदि वह अधर्म करता है तो नरक में ही पड़ता है। 

    राजा की दंडनीति यदि उसके द्वारा स्वधर्म के अनुसार प्रयुक्त हुई तो वह चारों वर्णों को नियंत्रण में रखती है और अधर्म से निवृत्त करती है। यदि राजा दंडनीति के प्रयोग में पूर्णत: न्याय से काम लेता है तो जगत में ‘सत्युग’ नामक उत्तमकाल आ जाता है। राजा का कारण काल है या काल का कारण राजा है, ऐसा संदेह तुम्हारे मन में नहीं उठना चाहिए, क्योंकि राजा ही काल का कारण होता है। राजा ही सत्युग, त्रेता और द्वापर का स्रष्टा है। चौथे युग काली के प्रकट होने में भी वही कारण है।

    अपने सत्कर्मों द्वारा सत्युग उपस्थित करने के कारण राजा को अक्षय स्वर्ग कि प्राप्ति होती है। त्रेता की प्रवृत्ति करने से भी उसे स्वर्ग की ही प्राप्ति होती है, किन्तु वह अक्षय नहीं होती। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)

  द्वापर उपस्थित करने से उसे यथाभाग पुण्य और पाप का फल प्राप्त होता है, परंतु कलयुग कि प्रवृत्ति करने से राजा को अत्यंत पाप (कष्ट) भोगना पड़ता है। ऐसा करने से वह दुष्कर्मी राजा अनेक वर्षों तक नरक में ही निवास करता है। राजा का दोष जगत को और जगत का दोष राजा को प्राप्त होता है। 

    बेटा! तुम्हारे पिता-पितामहों ने जिनका पालन किया है, उन राजधर्मों की ओर ही देखो। तुम जिसका आश्रय लेना चाहते हो, वह राजर्षियों का आचार अथवा राज-धर्म नहीं है। जो सदा दयाभव में ही स्थित हो विह्वल बना रहता है, ऐसे किसी भी पुरुष ने प्रजापालनजनित किसी पुण्यफल को कभी नहीं प्राप्त किया है। तुम जिस बुद्धि के सहारे चलते हो, उसके लिए न तो तुम्हारे पिता पाण्डु ने, न मैंने और न पितामह ने ही पहले कभी आशीर्वाद दिया था अर्थात तुम में वैसी बुद्धि होने की कामना किसी ने नहीं की थी। 

   मैं तो सदा यही मानती रही हूँ कि तुम्हें यज्ञ, दान, ताप, शौर्य, बुद्धि, संतान, महत्त्व, बल और ओज की प्राप्ति हो। कल्याणकारी ब्राह्मणों कि भली-भाँति आराधना करने पर वे भी सदा देवयज्ञ, पितृयज्ञ, दीर्घायु, धन और पुत्रों की प्राप्ति के लिए ही आशीर्वाद देते थे। देवता और पितर अपने उपासकों तथा वंशजों से सदा दान, स्वाध्याय, यज्ञ तथा प्रजापालन की ही आशा रखते हैं। 

    श्रीकृष्ण! मेरा यह कथन धर्मसंगत है या अधर्मयुक्त, यह तुम स्वभाव से ही जानते हो। तात! वे पांडव उत्तम कुल में उत्पन्न और विद्वान होकर भी इस समय जीविका के अभाव से पीड़ित हैं। भूतल पर विचरने वाले भूखे मानव जहाँ दानपति, शूरवीर क्षत्रिय के समीप पहुँचकर अन्न-पान से पूर्णत: संतुष्ट हो अपने घर को जाते हैं, वहाँ उससे बढ़कर दूसरा धर्म क्या हो सकता है? 

    धर्मात्मा पुरुष यहाँ राज्य पाकर किसी को दान से, किसी को बल से और किसी को मधुर वाणी द्वारा संतुष्ट करे। इस प्रकार सब ओर से आए हुए लोगों को दान, मान आदि से संतुष्ट करके अपना ले। ब्राह्मण भिक्षावृत्ति से जीविका चलावे, क्षत्रिय प्रजा का पालन करे, वैश्य धनोपार्जन करे और शूद्र उन तीनों वर्णों की सेवा करे। युधिष्ठिर! तुम्हारे लिए भिक्षावृत्ति तो सर्वथा निषेध है और खेती भी तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम तो दूसरों को क्षति से त्राण देने वाले क्षत्रिय हो। तुम्हें तो बाहुबल से ही जीविका चलानी चाहिए। 

    महाबाहो! तुम्हारा पैतृक राज्य-भाग शत्रुओं के हाथ में पड़कर लुप्त हो गया है। तुम साम, दान, भेद अथवा दंड नीति से पुन: उसका उद्धार करो। शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाले पांडव! इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है कि मैं तुम्हें जनम देकर भी बंधु-बांधवों से हीन नारी कि भाँति जीविका के लिए दूसरों के दिये हुए अन्न-पिंड की आशा लगाए ऊपर देखती रहती हूँ। अत: तुम राजधर्म के अनुसार युद्ध करो। कायर बनकर अपने बाप-दादों का नाम मत डुबाओ और भाइयों सहित पुण्य से वंचित होकर पापमयी गति को न प्राप्त होओ। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में कुंतीवाक्य विषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“कुंती के द्वारा विदुलोपाख्यान का आरंभ, विदुला का रणभूमि से भागकर आए हुए अपने पुत्र को कड़ी फटकार देकर पुन: युद्ध के लिए उत्साहित करना”

   कुंती बोली ;- शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण! इस प्रसंग में विद्वान पुरुष विदुला और उसके पुत्र के संवाद रूप इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। इस इतिहास में जो कल्याणकारी उपदेश हो, उसे तुम युधिष्ठिर के सामने यथावत रूप से फिर कहना। विदुला नाम से प्रसिद्ध एक क्षत्रिय महिला हो गई है, जो उत्तम कुल में उत्पन्न, यशस्विनी, तेजस्विनी, मानिनी, जितेंद्रिया, क्षत्रिय-धर्मपरायणा और दूरदर्शिनी थी। राजाओं की मंडली में उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अनेक शास्त्रों को जानने वाली और महापुरुषों के उपदेश सुनकर उससे लाभ उठाने वाली थी। एक समय उनका पुत्र सिंधुराज से पराजित हो अत्यंत दीनभाव से घर आकर सो रहा था। राजरानी विदुला ने अपने उस औरस पुत्र को इस दशा में देखकर उसकी बड़ी निंदा की। 

   विदुला बोली ;- अरे, तू मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है तो भी मुझे आनंदित करने वाला नहीं है। तू तो शत्रुओं का ही हर्ष बढ़ाने वाला है, इसलिए अब मैं ऐसा समझने लगी हूँ कि तू मेरी कोख से पैदा ही नहीं हुआ। तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नहीं किया, फिर तुझ जैसा कायर कहाँ से आ गया? तू सर्वथा क्रोधशून्य है, क्षत्रियों में गणना करने योग्य नहीं है। तू नाम मात्र का पुरुष है। तेरे मन आदि सभी साधन नपुंसकों के समान हैं। क्या तू जीवनभर के लिए निराश हो गया? अरे! अब भी तो उठ और अपने कल्याण के लिए पुन: युद्ध का भार वहन कर। 

    अपने को दुर्बल मानकर स्वयं ही अपनी अवहेलना न कर, इस आत्मा का थोड़े धन से भरण-पोषण न कर, मन को परम कल्याणमय बनाकर उसे शुभ संकल्पों से सम्पन्न करके निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे।

    ओ कायर! उठ, खड़ा हो, इस तरह शत्रु से पराजित होकर घर में शयन न कर । ऐसा करके तो तू सब शत्रुओं को ही आनंद दे रहा है और मान-प्रतिष्ठा से वंचित होकर बंधु-बांधवों को शोक में डाल रहा है। जैसे छोटी नदी थोड़े जल से अनायास ही भर जाती है और चूहे कि अंजलि थोड़े अन्न से ही भर जाती है, उसी प्रकार कायर को संतोष दिलाना बहुत सुगम है, वह थोड़े से ही संतुष्ट हो जाता है। 

   तू शत्रुरूपी साँप के दाँत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। आकाश में नि:शंक होकर उड़ने वाले बाज पक्षी की भाँति रणभूमि में निर्भय विचरता हुआ तू गर्जना करके अथवा चुप रहकर शत्रु के छिद्र देखता रह। 

   कायर! तू इस प्रकार बिजली के मारे हुए मुर्दे की भाँति यहाँ क्यों निश्चेष्ट होकर पड़ा है? बस, तू खड़ा हो जा, शत्रुओं से पराजित होकर यहाँ मत पड़ा रह। तू दीन होकर अस्त न हो जा। अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर। तू मध्यम, अधम अथवा निकृष्ट भाव का आश्रय न ले, वरन् युद्धभूमि में सिंहनाद करके डट जा।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद)

    तू तिन्दुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए प्रज्वलित हो उठ, थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर, परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वाला रहित आग के समान केवल धुआँ न कर मंद पराक्रम से काम न ले। दो घड़ी भी प्रज्वलित रहना अच्छा, परंतु दीर्घकाल तक धूआँ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं। किसी भी राजा के घर में अत्यंत कठोर अथवा अत्यंत कोमल स्वभाव के पुरुष का जन्म न हो। वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निंदा नहीं कराता है। 

    विद्वान पुरुष को अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या ना हो, वह उसके लिए शोक नहीं करता। वह अपनी पूरी शक्ति के अनुसार प्राणपर्यंत निरंतर चेष्टा करता है और अपने लिए धन की इच्छा नहीं करता। बेटा! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए निश्चित है, अन्यथा किसलिए जी रहा है ? कायर! तेरे इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गयी और भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, अब तू किसलिए जी रहा है? 

    मनुष्य डूबते समय अथवा ऊंचे से नीचे गिरते समय भी शत्रु की टांग अवश्य पकड़े और ऐसा करते समय यदि अपना मूलोच्छेद हो जाये तो भी किसी प्रकार विषाद न करे। अच्छी जाति के घोड़े न तो थकते हैं और न शिथिल ही होते हैं। उनके इस कार्य को स्मरण करके अपने ऊपर रखे हुए युद्ध आदि के भार को उद्योगपूर्वक वहन करे। 

   बेटा! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर। अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। जिसके महान और अद्भुत पुरुषार्थ एवं चरित्र की सब लोग चर्चा नहीं करते हैं, वह मनुष्य अपने द्वारा जनसंख्या की वृद्धि मात्र करने वाला है। मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न पुरुष ही है। दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है।

    तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है। जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बिताने वाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। 

    तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। संजय! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करने वाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करने वाला है। जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जन्म दिया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 30-45 का हिन्दी अनुवाद)

    संसार की कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे, जो अमर्षशून्य, उत्साहहीन, बल और पराक्रम से रहित तथा शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला हो। अरे! धूम की तरह न उठ। ज़ोर-ज़ोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्वक आक्रमण करके शत्रुसैनिकों का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या एक क्षण के लिए भी वैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनकर छा जा। जिस क्षत्रिय के हृदय में अमर्ष है और जो शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव धारण नहीं करता, इतने ही गुणों के कारण वह पुरुष कहलाता है। जो क्षमाशील और अमर्षशून्य है, वह क्षत्रिय न तो स्त्री है और न पुरुष ही कहलाने योग्य है। 

    संतोष, दया, उद्योगशून्यता और भय- ये संपत्ति का नाश करने वाले हैं। निश्चेष्ट मनुष्य कभी कोई महत्त्वपूर्ण पद नहीं पा सकता। पराजय के कारण जो लोक में तेरी निंदा और तिरस्कार हो रहे हैं, इन सब दोषों से तू स्वयं ही अपने आपको मुक्त कर और अपने हृदय को लोहे के समान दृढ़ बनाकर पुन: अपने योग्य पद और राज्यवैभव का अनुसंधान कर। जो पर अर्थात शत्रु का सामना करके उसके वेग को सह लेता है, वही उस पुरुषार्थ के कारण पुरुष कहलाता है। जो इस जगत में स्त्री की भाँति भीरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका ‘पुरुष’ नाम व्यर्थ कहा गया है। 

    यदि बढ़े हुए तेज और उत्साह वाला, शूरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी राजा युद्ध में दैववश वीरगति को प्राप्त हो जाये तो भी उसके राज्य में प्रजा सुखी ही रहती है। जो अपने प्रिय और सुख का परित्याग करके संपत्ति का अन्वेषन करता है, वह शीघ्र ही अपने मंत्रियों का हर्ष बढ़ाता है। 

    पुत्र बोला ;- माँ! यदि तू मुझे न देखे तो यह सारी पृथ्वी मिल जाने पर भी तुझे क्या सुख मिलेगा? मेरे न रहने पर तुझे आभूषणों की भी क्या आवश्यकता होगी? भाँति-भाँति के भोगों और जीवन से भी तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?

   विदुला बोली ;- बेटा! आज क्या भोजन होगा? इस प्रकार की चिंता में पड़े हुए दरिद्रों के जो लोक हैं, वे हमारे शत्रुओं को प्राप्त हों और सर्वत्र सम्मानित होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों के जो लोक हैं, उनमें हमारे हितैषी सुहृद पधारें। संजय! भृत्यहीन, दूसरों के अन्न पर जीने वाले, दीन-दुर्बल मनुष्यों की वृत्ति का अनुसरण न कर। 

    तात! जैसे सब प्राणियों की जीविका मेघ के अधीन है तथा जैसे सब देवता इन्द्र के आश्रित होकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण तथा हितैषी सुहृद तेरे सहारे जीवन-निर्वाह करें। संजय! पके फल वाले वृक्ष के समान जिस पुरुष का आश्रय लेकर सब प्राणी जीविका चलाते हैं, उसी का जीवन सार्थक है। जैसे इन्द्र के पराक्रम से सब देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार जिस शूरवीर पुरुष के बल और पुरुषार्थ से उसके भाई-बंधु सुखपूर्वक उन्नति करते हैं, इस संसार में उसी का जीवन श्रेष्ठ है। 

    जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वही इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में शुभ गति को पाता है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुला का अपने पुत्र को युद्ध के लिए उत्साहित करना”

   विदुला बोली ;- संजय! यदि तू इस दशा में पौरुष को छोड़ देने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषों के मार्ग पर जा पहुँचेगा। जो क्षत्रिय अपने जीवन के लोभ से यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेज का परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं। जैसे मरन्नासन पुरुष को कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदय तक पहुँच नहीं पाते हैं। यह कितने दु:ख की बात है। देख, सिंधुराज की प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है।

   दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर विपत्ति आने की प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतों की दुर्गम गुफा में विचरता रह, क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं। तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझ में इस नाम के अनुसार गुण मैं नहीं देख रहा हूँ। बेटा! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमानी ब्राह्मण ने तेरे विषय में कहा था कि ‘यह महान संकट में पड़कर भी पुन: वृद्धि को प्राप्त होगा।’

    उस ब्राह्मण कि बात को याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी। तात! इसलिए मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी। जिसके प्रयोजन की सिद्धि होने पर उससे संबंध रखने वाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नति को प्राप्त होते हैं, नीति मार्ग पर चलकर अर्थसिद्धि के लिए प्रयत्न करने वाले उस पुरुष को निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि होती है। संजय! युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध बंद न कर। 

   जहाँ आज के लिए और कल सबेरे के लिए भी भोजन दिखाई नहीं देता, उससे बढ़कर महान पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शंबरासुर का कथन है। जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्र के वध से भी अधिक दु:खदायक बताया गया है। दरिद्रता मृत्यु का समानार्थक शब्द है। मैं उच्चकुल में उत्पन्न हो हंसी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई और इस राज्य की स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनों से सम्पन्न तथा पतिदेव के परम आदर की पात्र हुई। पूर्वकाल में मेरे सुहृदों ने जब मुझे सगे संबंधियों के बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणों से विभूषित तथा परम सुंदर स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। संजय! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिंता के कारण अत्यंत दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। 

    जब सेवा का काम करने वाले दास, भरण-पोषण पाने वाले कुटुंबी, आचार्य, ऋत्विक और पुरोहित जीविका के अभाव में हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारण का कोई प्रयोजन नहीं दिखाई देगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)

    यदि पहले के समान आज भी मैं तेरे यश कि वृद्धि करने वाले प्रशंसनीय कर्मों को नहीं देखूँगी तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? यदि किसी ब्राह्मण के माँगने पर मैं उसकी अभीष्ट वस्तु के लिए ‘ना’ कह दूँगी तो उसी समय मेरा हृदय विदीर्ण हो जाएगा। आज तक मैंने या मेरे पतिदेव ने किसी ब्राह्मण से ना नहीं की है। हम सदा लोगों के आश्रयदाता रहे हैं, दूसरों के आश्रित कभी नहीं रहे, परंतु अब यदि दूसरे का आश्रय लेकर जीवन धारण करना पड़े तो मैं ऐसे जीवन का परित्याग ही कर दूँगी। 

  बेटा! अपार समुद्र में डूबते हुए हम लोगों को तू पार लगाने वाला हो। नौका विहीन अगाध जलराशि में तू हमारे लिए नौका हो जा। हमारे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, तू स्थान बन जा और हम मृतप्राय हो रहे हैं, तू हमें जीवनदान कर। यदि तुझे जीवन के प्रति अधिक आसक्ति न हो तो तू अपने सभी शत्रुओं को परास्त कर सकता है और यदि इस प्रकार विषादग्रस्त एवं हतोत्साह होकर ऐसी कायरों की सी वृत्ति अपना रहा है तो तुझे इस पापपूर्ण जीविका को त्याग देना चाहिए। एक शत्रु का वध करने से ही शूरवीर पुरुष सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हो जाता है। देवराज इंद्र केवल वृत्रासुर का वध करके ही ‘महेंद्र’ नाम से प्रसिद्ध हो गए। उन्हें रहने के लिए इन्द्र भवन प्राप्त हुआ और वे तीनों लोकों के अधीश्वर हो गए। 

   वीर पुरुष युद्ध में अपना नाम सुनाकर, कवचधारी शत्रुओं को ललकारकर, सेना के अग्रभाग को खदेड़कर अथवा शत्रुपक्ष के किसी श्रेष्ठ पुरुष का वध करके जभी उत्तम युद्ध के द्वारा महान यश को प्राप्त कर लेता है, तभी उसके शत्रु व्यथित होते और उसके सामने मस्तक झुकाते हैं। कायर मनुष्य विवश हो युद्ध में अपने शरीर का त्याग करके युद्धकुशल शूरवीर को सम्पूर्ण मनोरथों की पूर्ति करने वाली अपनी समृद्धियों के द्वारा तृप्त करते हैं।

   जिसका भयानक रूप से पतन हुआ है, वह राज्य प्राप्त हो जाय या जीवन ही संकट में पड़ जाये, किसी भी दशा में अपने हाथ में आए हुए शत्रु को श्रेष्ठ पुरुष शेष नहीं रहने देते हैं। युद्ध को स्वर्गद्वार के सदृश उत्तम गति अथवा अमृत के सदृश राज्य की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग मानकर तू जलते हुए काठ की भाँति शत्रुओं पर टूट पड़। राजन! तू युद्ध में शत्रुओं को मार और अपने धर्म का पालन कर। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाले तुझ वीर पुत्र को मैं अत्यंत दीन और कायर के रूप में न देखूँ। मैं तुझे दीन से भी दीन के समान दयनीय अवस्था में पड़ा हुआ तथा शोकमग्न हुए अपने पक्ष के और गर्जन-तर्जन करते हुए शत्रुपक्ष के लोगों से घिरा हुआ नहीं देखना चाहती। 

   तू सौवीर देश की कन्याओं के साथ हर्ष का अनुभव कर। पहले की भाँति अपने धन की अधिकता के लिए गर्व कर। विपत्ति में पड़कर सिंधुदेशीय कन्याओं के वश में न हो जा। तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनता से सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोक में विख्यात है। तुझ जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रम के अवसर पर डर जाय, भार ढोने के समय बिना नथे हुए बैल के समान बैठा रहे या भाग जाय तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)

  यदि मैं यह देखूँ कि तू शत्रु से मीठी-मीठी बातें करता तथा उसके पीछे-पीछे जाता है तो मेरे हृदय में क्या शांति मिलेगी? इस कुल में कभी कोई ऐसा पुरुष नहीं उत्पन्न हुआ, जो दूसरे के पीछे-पीछे चला हो। तात! तू दूसरे का सेवक होकर जीवित रहने के योग्य नहीं है। स्वयं विधाता ने जिसकी सृष्टि की है, प्राचीन और अत्यंत प्राचीन पुरुषों ने जिसका वर्णन किया है, परवर्ती और अतिपरवर्ती सत्पुरुष जिसका वर्णन करेंगे तथा जो चिरंतन एवं अविनाशी है, उस सनातन और उत्तम क्षत्रिय-हृदय को मैं जानती हूँ। 

    इस जगत में जो कोई भी क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है और क्षत्रिय धर्म को जानने वाला है, वह भय से अथवा आजीविका की ओर दृष्टि रखकर भी किसी के सामने नतमस्तक नहीं हो सकता। सदा उद्यम करे, किसी के आगे सिर न झुकावे। उद्यम ही पुरुषार्थ है। असमय में नष्ट भले ही हो जाये, परंतु किसी के आगे नतमस्तक न हो। संजय! महामनस्वी क्षत्रिय मदमत्त हाथी के समान सर्वत्र निर्भय विचरण करे और सदा ब्राह्मणों को तथा धर्म को ही नमस्कार करे। क्षत्रिय ससहाय हो अथवा असहाय, वह अन्य वर्ण के लोगों को काबू में रखता हुआ और समस्त पापियों को दंड देता हुआ जीवनभर वैसा ही उद्यमशील बना रहे। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्यगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)

एक सौ पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुला और उसके पुत्र का संवाद- विदुला के द्वारा कार्य में सफलता प्राप्त करने तथा शत्रुवशीकरण के उपायों का निर्देश”

   पुत्र बोला ;- माँ! तेरा हृदय तो ऐसा जान पड़ता है, मानो काले लोहपिंड को ठोक-पीटकर बनाया गया हो। तू मेरी माता होकर भी इतनी निर्दय है। तेरी बुद्धि वीरों के समान है और तू सदा अमर्ष में भरी रहती है। अहो! क्षत्रियों का आचार-व्यवहार कैसा आश्चर्यजनक है, जिसमें स्थित होकर तू मुझे इस प्रकार युद्ध में लगा रही है, मानो मैं दूसरे का बेटा होऊँ और तू दूसरे की माँ हो। मुझ इकलौते पुत्र से तू ऐसी निष्ठुर बातें कहे, आश्चर्य है! मुझे न देखने पर यह सारी पृथ्वी भी तुझे मिल जाये तो इससे तुझे क्या सुख मिलेगा?

   मैं विशेषत: तेरा प्रिय पुत्र यदि युद्ध में मारा जाऊँ तो तुझे आभूषणों से, भोग-सामग्रियों से तथा अपने जीवन से भी कौन सा सुख प्राप्त होगा?

 माता बोली ;– तात संजय! विद्वानों की सारी अवस्था भी धर्म और अर्थ के निमित्त ही होती है। उन्हीं दोनों की ओर दृष्टि रखकर मैंने भी तुझे युद्ध के लिए प्रेरित किया है। यह तेरे लिए दर्शनीय पराक्रम करके दिखाने का मुख्य समय प्राप्त हुआ है। ऐसे समय में भी यदि तू अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेगा और तुझसे जैसी संभावना थी, उसके विपरीत स्वभाव का परिचय देकर शत्रुओं के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव नहीं करेगा तो उस दशा में सब ओर तेरा अपयश फैल जाएगा। संजय! ऐसे अवसर पर भी यदि मैं तुझे कुछ न कहूँ तो मेरा वह वात्सल्य गदही के स्नेह के समान शक्तिहीन तथा निरर्थक होगा। अत: वत्स! साधु पुरुष जिसकी निंदा करते हैं और मूर्ख मनुष्य ही जिस पर चलते हैं, उस मार्ग को त्याग दे। 

    प्रजा ने जिसका आश्रय ले रखा है, वह तो बड़ी भारी अविद्या ही है। तू तो मुझे तभी प्रिय हो सकता है, जब तेरा आचरण सत्पुरुषों के योग्य हो जाये। धर्म, अर्थ और गुणों से युक्त, देवलोक तथा मनुष्यलोक में भी उपयोगी और सत्पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्कर्म से ही तू मेरा प्रिय हो सकता है, इसके विपरीत असत्कर्म से किसी प्रकार भी तू मुझे प्रिय नहीं हो सकता। बेटा! जो इस प्रकार विनयशून्य एवं अशिक्षित पौत्र से हर्ष को प्राप्त होता है तथा उद्योग रहित, दुर्विनीत एवं दुर्बुद्धि पुत्र से सुख मानता है, उसका संतानोपादन व्यर्थ है, क्योंकि वे अयोग्य पुत्र-पौत्र पहले तो कर्म ही नहीं करते हैं और यदि करते हैं तो निंदित कर्म ही करते हैं, इससे वे अधम मनुष्य न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न परलोक में ही। 

    संजय! इस लोक में युद्ध एवं विजय के लिए ही विधाता ने क्षत्रिय की सृष्टि की है। वह विजय प्राप्त करे या युद्ध में मारा जाये, सभी दशाओं में उसे इंद्रलोक की प्राप्ति होती है। पुण्यमय स्वर्गलोक के इंद्रभवन में भी वह सुख नहीं मिलता, जिसे क्षत्रिय वीर शत्रुओं को वश में करके सानंद अनुभव करता है। अतएव जो मनस्वी क्षत्रिय अनेक बार पराजित होकर क्रोध से दग्ध हो रहा हो, वह अवश्य ही विजय की इच्छा से शत्रुओं पर आक्रमण करे। फिर तो वह अपने शरीर का परित्याग करके अथवा शत्रु को मार गिराकर ही शांति लाभ करता है। इसके सिवा दूसरे किसी प्रकार से उसे कैसे शांति प्राप्त हो सकती है? 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

   बुद्धिमान पुरुष इस जगत में अत्यंत अल्पमात्रा में अप्रिय कि इच्छा करता है। लोक में जिसका प्रिय अल्प होता है, उसका अप्रिय भी निश्चय ही अल्प होगा। प्रिय के अभाव में मनुष्य को शोभा नहीं होती है। जैसे गंगा समुद्र में जाकर विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार वह अभावग्रस्त पुरुष भी निश्चय ही लुप्त हो जाता है। 

    पुत्र ने कहा ;- माँ! तुझे अपने मुख से ऐसा विचार नहीं व्यक्त करना चाहिए, अत: तू जड़ और मूक की भाँति होकर मुझे (पुत्र) को विशेष रूप से करुणापूर्ण दृष्टि से ही देखो। 

   माता बोली ;- तेरे इस कथन से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। तू इस प्रकार विचार तो करता है। मुझे मेरे कर्तव्य की प्रेरणा दे रहा है, इसलिए मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्तव्य सुझा रही हूँ। जब तू सिंधुदेश के समस्त योद्धाओं को मारकर आयेगा, उस समय मैं तेरा स्वागत करूंगी। मुझे विश्वास है कि बड़े कष्ट से प्राप्त होने वाली तेरी विजय मैं अवश्य देखूँगी। 

    पुत्र बोला ;- माँ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करने वाले सैनिक ही हैं, फिर मुझे विजयरूप अभीष्ट की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी? अपनी इस दारुण अवस्था के विषय में स्वयं ही विचार करके मैंने राज्य की ओर से अपना अनुराग उसी प्रकार दूर हटा लिया है, जैसे स्वर्ग की ओर से पापी का भाव हट जाता है। क्या तू ऐसा कोई उपाय देख रही है, जिससे मैं विजय पा सकूँ। परिपक्व बुद्धि वाली माँ! मेरे इस प्रश्न के अनुसार तू कोई उत्तम उपाय बता दे। मैं तेरे सम्पूर्ण आदेशों का यथोचित रीति से पालन करूँगा। 

   माता बोली ;- बेटा! पहले की सम्पत्ति नष्ट हो गई है यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुन: प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं, अत: बुद्धिहीन पुरुषों को ईर्ष्यावश ही धन की प्राप्ति के लिए कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए। तात! सभी कर्मों के फल में सदा अनित्यता रहती है। कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है। इस अनित्यता को जानते हुए भी बुद्धिमान पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी सफल भी हो जाते हैं।

    परंतु जो कर्मों का आरंभ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्ट की सिद्धि में सफल नहीं होते, अत: कर्मों को छोड़कर निश्चेष्ट बैठने का यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्यों को कभी अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति नहीं हो सकती। परंतु कर्मों में उत्साहपूर्वक लगे रहने पर तो दोनों प्रकार के परिणामों कि संभावना रहती है- कर्मों का वांछनीय फल प्राप्त हो भी सकता है और नहीं भी। राजकुमार! जिसे पहले से ही सभी पदार्थों की अनित्यता का ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रु की उन्नति और अपनी अवनति से प्राप्त हुए दु:ख का विचार द्वारा निवारण कर सकता है। 

   सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर निरंतर विषाद रहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाले कर्मों में लग जाना चाहिए। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद)

    वत्स! देवताओं सहित ब्राह्मणों का पूजन तथा अन्यान्य मांगलिक कार्य सम्पन्न करके प्रत्येक कार्य का आरंभ करने वाले बुद्धिमान राजा की शीघ्र उन्नति होती है। जैसे सूर्य अवश्य ही पूर्व दिशा का आश्रय ले उसे प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार राजलक्ष्मी पूर्वोक्त राजा को सब ओर से प्राप्त होकर उसे यश एवं तेज से सम्पन्न कर देती है। 

   बेटा! मैंने तुझे अनेक प्रकार के दृष्टांत, बहुत से उपाय और कितने ही उत्साहजनक वचन सुनाये हैं। लोक-वृतांत का भी बारंबार दिग्दर्शन कराया है। अब तू पुरुषार्थ कर। मैं तेरा पराक्रम देखूँगी। तुझे यहाँ अभीष्ट पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिए। जो लोग सिंधुराज पर कुपित हों, जिनके मन में धन का लोभ हो, जो सिंधुनरेश के आक्रमण से सर्वथा क्षीण हो गए हों, जिन्हें अपने बल और पौरुष पर गर्व हो तथा जो तेरे शत्रुओं द्वारा अपमानित हों उनसे बदला लेने के लिए होड़ लगाए बैठे हों, उन सबको तू सावधान होकर दान-मान के द्वारा अपने पक्ष में कर ले। इस प्रकार तू बड़े-से-बड़े समुदाय को फोड़ लेगा। ठीक उसी तरह, जैसे महान वेगशाली वायु वेगपूर्वक उठकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। 

   तू उन्हें अग्रिम वेतन दे दिया कर। प्रतिदिन प्रात:काल सोकर उठ जा और सबके साथ प्रिय वचन बोल। ऐसा करने से वे अवश्य तेरा प्रिय करेंगे और निश्चय ही तुझे अपना अगुआ बना लेंगे। शत्रु को ज्यों ही यह मालूम हो जाता है कि उसका विपक्षी प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करने के लिए तैयार है, तभी घर में रहने वाले सर्प की भाँति उसके भय से वह उद्विग्न हो उठता है। यदि शत्रु को पराक्रम संपन्न जानकर अपनी असमर्थता के कारण वश में न कर सकें तो उसे विश्वसनीय दूतों द्वारा साम एवं दान नीति का प्रयोग करके अनुकूल बना ले जिससे वह आक्रमण न करके शांत बैठा रहे। ऐसा करने से अंततोगत्वा उसका वशीकरण हो जाएगा। 

    इस प्रकार शत्रु को शांत कर देने से निर्भय आश्रय प्राप्त होता है। उसे प्राप्त कर लेने पर युद्ध आदि में न फँसने के कारण अपने धन कि वृद्धि होती है। फिर धनसंपन्न राजा का बहुत से मित्र आश्रय लेते हैं और उसकी सेवा करते हैं। इसके विपरीत जिसका धन नष्ट हो गया है, उसके मित्र और भाई-बंधु भी उसे त्याग देते हैं। उस पर विश्वास नहीं करते हैं तथा उसके जैसे लोगों की निंदा भी करते हैं। जो शत्रु को सहायक बनाकर उसका विश्वास करता है, वह राज्य प्राप्त कर लेगा, इसकी कभी संभावना ही नहीं करनी चाहिए। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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