सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षड्-विंशधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! धृतराष्ट्र का कथन सुनकर युद्ध में जनसंहार की संभावना से समान रूप से दु:ख का अनुभव करने वाले भीष्म और द्रोणाचार्य ने गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-
भीष्म ओर द्रोणाचार्य ने कहा ;- ‘वत्स! जब तक श्रीकृष्ण और अर्जुन कवच धारण करके युद्ध के लिए उद्यत नहीं होते हैं, जब तक गांडीव धनुष घर में रखा हुआ है, जब तक धौम्य मुनि यज्ञाग्नि में शत्रुओं की सेना के विनाश के लिए आहुति नहीं डालते हैं और जब तक लज्जाशील महाधनुर्धर युधिष्ठिर तुम्हारी सेना पर क्रोधपूर्ण दृष्टि नहीं डालते हैं, तभी तक यह भावी जनसंहार शांत हो जाना चाहिए। ‘जब तक कुंतीपुत्र महाधनुर्धर भीमसेन अपनी सेना के अग्रभाग में खड़े नहीं दिखाई देते हैं, तभी तक यह मारकाट का संकल्प शांत हो जाना चाहिए।
‘दुर्योधन! जब तक हाथ में गदा लिए भीमसेन तुम्हारी सेना का संहार करते हुए युद्ध के विभिन्न मार्गों में विचरण नहीं कर रहे हैं, तभी तक तुम पाँडवों के साथ संधि कर लो। ‘जब तक भीमसेन अपनी वीरघातिनी गदा के द्वारा समयानुसार पके हुए वृक्ष के फलों की भाँति संग्राम भूमि में गजारोही योद्धाओं के मस्तकों को काट-काटकर नहीं गिरा रहे हैं, तभी तक तुम्हारा युद्धविषयक संकल्प शांत हो जाना चाहिए। ‘नकुल, सहदेव, द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न, विराट, शिखंडी तथा शिशुपाल पुत्र धृष्टकेतु- ये अस्त्रविद्या में निपुण महान वीर कवच धारण करके महासागर में घुसे हुए ग्राहों की भाँति तुम्हारी सेना के भीतर जब तक प्रवेश नहीं करते हैं, तभी तक यह जनसंहार का संकल्प शांत हो जाना चाहिए।
‘जब तक इन भूमिपालों के सुकुमार शरीरों पर गीध की पांखों से युक्त भयंकर बाण नहीं गिर रहे हैं, तभी तक युद्ध का संकल्प शांत हो जाये। ‘सामने आते ही लक्ष्य को मार गिराने वाले, शीघ्रतापूर्वक बाण चलाने और दूर तक का लक्ष्य बींधने वाले, अस्त्रविद्या के पारंगत महाधनुर्धर विपक्षी वीर जब तक तुम्हारे योद्धाओं के चन्दन और अगुरु से चर्चित तथा हार और निष्क धारण करने वाले वक्ष: स्थलों पर विशाल बाणों की वर्षा नहीं करते, तभी तक तुम्हें युद्ध का विचार त्याग देना चाहिए।
'हम चाहते हैं कि नृपश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करते देख दोनों हाथों से पकड़ कर हृदय से लगा लें। ‘भारतश्रेष्ठ! उत्तम दक्षिणा देने वाले युधिष्ठिर ध्वजा, अंकुश और पताकाओं के चिह्न से सुशोभित अपनी दाहिनी भुजा को जगत में शांति स्थापित करने के लिए तुम्हारे कंधे पर रखें। ‘तथा तुम्हें पास में बैठाकर रत्न एवं औषधियों से युक्त लाल हथेली वाले हाथ से तुम्हारी पीठ को धीरे-धीरे सहलाएँ।
‘भरतभूषण! शालवृक्ष के तने के समान ऊँचे डीलडौल वाले महाबाहु भीमसेन भी शांति के लिए तुम्हें हृदय से लगाकर तुमसे मीठी-मीठी बातें करें। ‘राजन! अर्जुन और नकुल-सहदेव- ये तीनों भाई तुम्हें प्रणाम करें और तुम उनके मस्तक सूंघकर उनके साथ प्रेम-पूर्वक वार्तालाप करो। ‘तुम्हें अपने वीर भाई पाँडवों के साथ मिला हुआ देख ये सब नरेश अपने नेत्रों से आनंद के आँसू बहाएँ।
‘राजाओं की सभी राजधानियों में यह घोषणा करा दी जाये कि कौरव-पाँडवों का सारा झगड़ा समाप्त होकर परस्पर प्रेमपूर्वक उनका समस्त कार्य सम्पन्न हो गया। फिर तुम और युधिष्ठिर परस्पर भ्रातभाव रखते हुए इस राज्य का समान रूप से उपभोग करो, तुम्हारी सारी चिंताएँ दूर हो जाएँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म और द्रोण के वाक्य से संबंध रखनेवाला एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण को दुर्योधन का उत्तर, उसका पाँडवों को राज्य न देने का निश्चय”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! कौरव सभा में यह अप्रिय वचन सुनकर दुर्योधन ने यशस्वी महाबाहु वसुदेव नंदन श्रीकृष्ण को इस प्रकार उत्तर दिया-
दुर्योधन बोला ;- ‘केशव! आपको अच्छी तरह सोच-विचार कर ऐसी बातें कहनी चाहिए। आप तो विषेशरूप से मुझे ही दोषी ठहराकर मेरी निंदा कर रहे हैं। मधुसूदन! आप पांडवों के प्रेम कि दुहाई देकर जो अकारण ही सदा हमारी निंदा करते रहते हैं, इसका क्या कारण है? क्या आप हम लोगों के बलाबल का विचार करके ऐसा करते हैं?
‘मैं देखता हूँ, आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्य अथवा पितामह भीष्म सभी लोग केवल मुझ पर ही दोषारोपण करते हैं, दूसरे किसी राजा पर नहीं। ‘परंतु मुझे यहाँ अपना कोई दोष नहीं दिखाई देता है। इधर राजा धृतराष्ट्र सहित आप सब लोग अकारण ही मुझसे द्वेष रखने लगे हैं।
‘शत्रुदमन केशव! मैं अत्यंत सोच-विचार कर दृष्टि डालता हूँ, तो भी मुझे अपना कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं दृष्टिगोचर होता है। ‘मधुसूदन! पांडवों को जूए का खेल बड़ा प्रिय था। इसलिए वे उसमें प्रवृत हुए। फिर यदि मामा शकुनि ने उनका राज्य जीत लिया तो इसमें मेरा क्या अपराध हो गया?
‘मधुसूदन! उस जूए में पांडवों ने जो कुछ भी धन हारा था, वह सब उसी समय उन्हीं को लौटा दिया गया था। ‘विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! यदि अजेय पांडव जूए में पुन: पराजित हो गए और वन में जाने को विवश हुए तो यह हम लोगों का अपराध नहीं है।
‘कृष्ण! हमारे किस अपराध से असमर्थ पांडव शत्रुओं के साथ मिलकर हमारा विरोध करते हैं और ऐसा करके भी सहज शत्रु की भाँति प्रसन्न हो रहे हैं।' हमने उनका क्या बिगाड़ा है? वे पांडव हमारे किस अपराध पर सुहृदयों के साथ मिलकर हम धृतराष्ट्र पुत्रों का वध करना चाहते हैं? ‘हम लोग किसी के भयंकर कर्म अथवा भयानक वचन से भयभीत हो क्षत्रिय धर्म से च्युत होकर साक्षात इंद्र के सामने भी नतमस्तक नहीं हो सकते।
‘शत्रुओं का संहार करने वाले श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय धर्म का अनुष्ठान करने वाले किसी भी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो युद्ध में हम सब लोगों को जीतने का साहस कर सके। ‘मधुसूदन! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कर्ण को तो देवता भी युद्ध में नहीं जीत सकते, फिर पांडवों की तो बात ही क्या है?
‘माधव! अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए यदि हम लोग युद्ध में किसी समय अस्त्रों के आघात से मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ तो वह भी हमारे लिए स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाली होगी। ‘जनार्दन! हम क्षत्रियों का यही प्रधान धर्म है की संग्राम में हमें बाण-शय्या पर सोने का अवसर प्राप्त हो। ‘अत: माधव! हम अपने शत्रुओं के सामने नतमस्तक न होकर यदि युद्ध में वीरशय्या को प्राप्त हों तो इससे हमारे भाई-बंधुओं को संताप नहीं होगा। ‘उत्तम कुल में उत्पन्न होकर क्षत्रिय धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करने वाला कौन ऐसा महापुरुष होगा, जो क्षत्रियोचित वृत्तिपर दृष्टि रखते हुए भी इस प्रकार भय के कारण कभी शत्रु के सामने मस्तक झुकाएगा?
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद)
‘वीर पुरुष को चाहिए की वह सदा उद्योग ही करे, किसी के सामने नतमस्तक न हो, क्योंकि उद्योग करना ही पुरुष का कर्तव्य-पुरुषार्थ है। वीर पुरुष असमय में ही नष्ट भले हो जाये, परंतु कभी शत्रु के सामने सिर न झुकावे। ‘अपना हित चाहने वाले मनुष्य मातंग मुनि के उपयुर्क्त वचन को ही ग्रहण करते हैं, अत: मेरे जैसा पुरुष केवल धर्म तथा ब्राह्मण को ही प्रणाम कर सकता है, शत्रुओं को नहीं।
‘वह दूसरे किसी को कुछ भी न समझकर जीवनभर ऐसा ही आचरण करता रहे, यही क्षत्रियों का धर्म है और सदा के लिए मेरा मत भी यही है। ‘केशव! मेरे पिताजी ने पूर्वकाल में जो राज्यभाग मेरे अधीन कर दिया है, उसे कोई मेरे जीते जी फिर कदापि नहीं पा सकता। ‘जनार्दन! जब तक राजा धृतराष्ट्र जीवित हैं, तब तक हमें और पांडवों को हथियार न उठाकर शांतिपूर्वक जीवन बिताना चाहिए। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! पहले भी जो पांडवों को राज्य का अंश दिया गया था, वह उन्हें देना उचित नहीं था, परंतु में उन दिनों बालक एवं पराधीन था, अत: अज्ञान अथवा भय से जो कुछ उन्हें दे दिया गया था, उसे अब पांडव पुन: नहीं पा सकते।
‘केशव! इस समय मुझ महाबाहु दुर्योधन के जीते-जी पांडवों को भूमि का उतना अंश भी नहीं दिया जा सकता, जितना कि एक बारीक सूई की नोक से छिद सकता है।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में दुर्योधन वाक्य विषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ अठ्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का दुर्योधन को फटकारना और उसे कुपित होकर सभा से जाते देख उसे कैद करने की सलाह”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! दुर्योधन की बातें सुनकर श्रीकृष्ण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। वे कुछ विचार करके कौरव-सभा में दुर्योधन से पुन: इस प्रकार बोले-
श्री कृष्ण बोले ;- ‘दुर्योधन! तुझे रणभूमि में वीर शय्या प्राप्त होगी। तेरी यह इच्छा पूर्ण होगी। तू मंत्रियों सहित धैर्यपूर्वक रह। अब बहुत बड़ा नरसंहार होने वाला है। ‘मूढ़! तू जो ऐसा मानता है कि पांडवों के प्रति मेरा कोई अपराध ही नहीं है तो इसके संबंध में मैं सब बातें बताता हूँ। राजाओ! आप लोग भी ध्यान देकर सुनें।
‘भारत! महात्मा पांडवों कि बढ़ती हुई समृद्धि से संतप्त होकर तूने ही शकुनि के साथ यह खोटा विचार किया था कि पांडवों के साथ जूआ खेला जाए। ‘तात! अन्यथा सदा सरलतापूर्ण बर्ताव करने वाले और साधु-सम्मानित तेरे श्रेष्ठ बंधु पांडव यहाँ तुम-जैसे कपटी के साथ अन्याययुक्त द्यूत के लिए कैसे उपस्थित हो सकते थे? ‘महामते! जूए का खेल तो सत्पुरुषों कि बुद्धि भी नाश करने वाला है और यदि दुष्ट पुरुष उसमें प्रवृत हों तो उनमें बड़ा भारी कलह होता है तथा उन सब पर बहुत-से संकट छा जाते हैं। ‘तूने ही सदाचार की ओर लक्ष्य न रखकर पापासक्त पुरुषों के सहित भयंकर विपत्ति के कारण भूत ये द्यूतक्रीड़ा आदि कार्य किए हैं।
‘तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा अधम होगा, जो अपने बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करेगा। जैसा कि तूने द्रौपदी के प्रति स्पष्ट रूप से न कहने योग्य बातें कहकर दुर्व्यवहार किया है। ‘द्रौपदी उत्तम कुल में उत्पन्न, शील और सदाचार से सम्पन्न तथा पांडवों के लिए प्राणों से भी अधिक आदरणीय और उन सबकी महारानी है। तथापि तूने उसके प्रति अत्याचार किया।
‘जिस समय शत्रुओं को संताप देने वाले कुंतीकुमार पांडव वन को जा रहे थे, उस समय दु:शासन ने कौरव सभा में उनके प्रति जैसी कठोर बातें कही थीं, उन्हें सभी कौरव जानते हैं। ‘सदा धर्म में ही तत्पर रहने वाले लोभ रहित सदाचारी अपने बंधुओं के प्रति कौन साधु पुरुष ऐसा अयोग्य बर्ताव करेगा? ‘दुर्योधन! तूने कर्ण और दु:शासन के साथ अनेक बार निर्दयी तथा अनार्य पुरुषों की सी बातें कही हैं।
‘तूने वारणावत नगर में बाल्यावस्था में पांडवों को उनकी माता सहित जला डालने का महान प्रयत्न किया था, परंतु तेरा वह उद्देश्य सफल न हो सका। ‘उन दिनों पांडव अपनी माता के साथ सुदीर्घकाल तक एकचक्रा नगरी में किसी ब्राह्मण के घर में छिपे रहे। तूने भीमसेन को विष देकर, सर्प से कटाकर और बंधे हुए हाथ-पैरों सहित जल में डुबाकर इन सभी उपायों द्वारा पांडवों को नष्ट कर देने का प्रयत्न किया है, परंतु तेरा यह प्रयास भी सफल न हो सका।
ऐसे ही विचार रखकर तू पांडवों के प्रति सदा कपटपूर्ण बर्ताव करता आया है, फिर कैसे मान लिया जाय कि महान पांडवों के प्रति तेरा कोई अपराध ही नहीं है। पापात्मन! तू याचना करने पर इन पांडवों को जो पैतृक राज्य-भाग नहीं देना चाहता है, वही तुझे उस समय देना पड़ेगा, जबकि रणभूमि में धराशायी होकर तू ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाएगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)
क्रूरकर्मी मनुष्यों कि भाँति तू पांडवों के प्रति बहुत से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधों के प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है। माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले, शांत हो जा, परंतु भूपाल! तू शांत होने का नाम ही नहीं लेता।
राजन! शांति स्थापित होने पर तेरा और युधिष्ठिर का दोनों का ही महान लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता। इसे बुद्धि की मंदता के सिवा और क्या कहा जा सकता है? राजन! तू हितैषी सुहृदों कि आज्ञा का उल्लंघन करके कल्याण का भागी नहीं हो सकेगा। भूपाल! तू सदा अधर्म और अपयश का कार्य करता है।
वैशंपायनजी कहते हैं ;- जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दु:शासन ने बीच में ही अमर्षशील दुर्योधन से कौरव सभा में ही कहा-
दुःशासन ने कहा ;- राजन! यदि आप अपनी इच्छा से पांडवों के साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरव लोग आप को बाँधकर कुंती के पुत्र युधिष्ठिर के हाथ में सौंप देंगे। नरश्रेष्ठ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी- ये कर्ण को, आपको और मुझे– इन तीनों को ही पांडवों के अधिकार में दे देंगे। भाई की यह बात सुनकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन अत्यंत कुपित हो फुफकारते हुए महान सर्प की भाँति लंबी साँसे खींचता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया। वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषों की भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषों का अपमान करने वाला था। वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्ण- इन सबका अनादर करके वहाँ से चल पड़ा।
नरश्रेष्ठ दुर्योधन को वहाँ से जाते देख उसके भाई, मंत्री तथा सहयोगी नरेश सबके सब उठकर उसके साथ चल दिये। इस प्रकार क्रोध में भरे हुए दुर्योधन को भाइयों सहित सभा से उठकर जाते देख शांतनुनन्दन भीष्म ने कहा-
भीष्मजी बोले ;- जो धर्म और अर्थ का परित्याग करके क्रोध का ही अनुसरण करता है, उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख उसके शत्रुगण हंसी उड़ाते हैं। राजा धृतराष्ट्र का यह दुरात्मा पुत्र दुर्योधन लक्ष्य सिद्धि के उपाय के विपरीत कार्य करने वाला तथा क्रोध और लोभ के वशीभूत रहने वाला है। इसे राजा होने का मिथ्या अभिमान है।जनार्दन! मैं समझता हूँ कि ये समस्त क्षत्रियगण काल से पके हुए फल कि भाँति मौत के मुँह में जाने वाले हैं। तभी तो ये सबके सब मोहवश अपने मंत्रियों के साथ दुर्योधन का अनुसरण करते हैं।
भीष्म का यह कथन सुनकर महापराक्रमी दशार्हकुल नन्दन कमलनयन श्रीकृष्ण ने भीष्म और द्रोण आदि सब लोगों से इस प्रकार कहा-
श्री कृष्ण ने कहा ;- कुरुकुल के सभी बड़े-बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बिठाकर अब इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले निष्पाप कौरवो! इस विषय में मैंने समयोचित कर्तव्य का निश्चय कर लिया है, जिसका पालन करने पर सबका भला होगा। वह सब मैं बता रहा हूँ, आप लोग सुनें।
‘मैं तो हित की बात बताने जा रहा हूँ। उसका आप लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है। भरतवंशियों! यदि वह आपके अनुकूल होने के कारण ठीक जान पड़े तो आप उसे काम में ला सकते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद)
बूढ़े भोजराज उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुराचारी एवं अजितेंद्रिय था। वह अपने पिता के जीते-जी उनका सारा ऐश्वर्य लेकर स्वयं राजा बन बैठा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि वह मृत्यु के अधीन हो गया। समस्त भाई-बंधुओं ने उसका त्याग कर दिया था, अत: सजातीय बंधुओं के हित कि इच्छा से मैंने महान युद्ध में उस उग्रसेन पुत्र कंस को मार डाला। तदनंतर हम सब कुटुंबीजनों ने मिलकर भोजवंशी क्षत्रियों कि उन्नति करने वाले आहुक उग्रसेन को सटकारपूर्वक पुन: राजा बना दिया।
भरतनन्दन! कुल की रक्षा के लिए एक मात्र कंस का परित्याग करके अंधक और वृष्णि आदि कुलों के समस्त यादव परस्पर संगठित हो सुख से रहते और उत्तरोत्तर उन्नति कर रहे हैं। राजन! इसके सिवा एक और उदाहरण लीजिये। एक समय प्रजापति ब्रह्माजी ने जो बात कही थी, वही बता रहा हूँ। देवता और असुर युद्ध के लिए मोर्चे बांधकर खड़े थे। सबके अस्त्र-शस्त्र प्रहार के लिए ऊपर उठ गए थे। सारा संसार दो भागों में बंटकर विनाश के गर्त में गिरना चाहता था। भारत! उस अवस्था में सृष्टि की रचना करने वाले लोक-भावन भगवान ब्रहमाजी ने स्पष्ट रूप से बता दिया कि इस युद्ध में दानवों सहित दैत्यों तथा असुरों की पराजय होगी। आदित्य, वसु तथा रुद्र आदि देवता विजयी होंगे। देवता, असुर, मनुष्य, गंधर्व, नाग तथा राक्षस- ये युद्ध में अत्यंत कुपित होकर एक दूसरे का वध करेंगे।
यह भावी परिणाम जानकार परमेष्ठि प्रजापति ब्रह्मा ने धर्मराज से यह बात कही,
ब्रह्मा बोले ;- ‘तुम इन दैत्यों और दानवों को बाँधकर वरुणदेव को सौंप दो। उनके ऐसा कहने पर धर्म ने ब्रहमाजी की आज्ञा के अनुसार सम्पूर्ण दैत्यों और दानवों को बाँधकर वरुण को सौंप दिया। तब से जल के स्वामी वरुण उन्हें धर्मपाश एवं वारुण पाश में बाँधकर प्रतिदिन सावधान रहकर उन दानवों को समुद्र की सीमा में ही रखते हैं।
भरतवंशियो! उसी प्रकार आप लोग दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा दु:शासन को बंदी बनाकर पांडवों के हाथ में दे दें। समस्त कुल की भलाई के लिए एक पुरुष को, एक गाँव के हित के लिए एक कुल को, जनपद के भले के लिए एक गाँव को और आत्मकल्याण के लिए समस्त भूमंडल को त्याग दें। राजन! आप दुर्योधन को कैद करके पांडवों से संधि कर लें। क्षत्रियशिरोमणे! ऐसा न हो कि आपके कारण समस्त क्षत्रियों का विनाश हो जाये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का गांधारी को बुलाना और उसका दुर्योधन को समझाना”
वैशंपायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! श्रीकृष्ण का यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता विदुर से शीघ्रतापूर्वक कहा,-
धृतराष्ट्र बोले ;- 'तात! जाओ, परम बुद्धिमानी और दूरदर्शिनी गांधारी देवी को यहाँ बुला लाओ! मैं उसी के साथ इस दुर्बुद्धि को समझा बुझाकर राह पर लाने की चेष्टा करूंगा। ‘यदि वह भी उस दुष्टचित्त दुरात्मा को शांत कर सके तो हम लोग अपने सुहृद श्रीकृष्ण कि आज्ञा का पालन कर सकते हैं। ‘दुर्योधन लोभ के अधीन हो रहा है। उसकी बुद्धि दूषित हो गई है और उसके सहायक दुष्ट स्वभाव के ही हैं। संभव है, गांधारी शांतिस्थापन के लिए कुछ कहकर उसे सन्मार्ग का दर्शन करा सके।
‘यदि ऐसा हुआ तो दुर्योधन के द्वारा उपस्थित किया हुआ हमारा महान एवं भयंकर संकट दीर्घकाल के लिए शांत हो जाएगा और चिरस्थायी योगक्षेम की प्राप्ति सुलभ होगी। राजा की यह बात सुनकर विदुर धृतराष्ट्र के आदेश से दूरदर्शिनी गांधारीदेवी को वहाँ बुला ले आए।
उस समय धृतराष्ट्र ने कहा ;- गांधारी! तुम्हारा वह दुरात्मा पुत्र गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। वह ऐश्वर्य के लोभ में पड़कर राज्य और प्राण दोनों गंवा देगा। मर्यादा का उल्लंघन करने वाला वह मूढ़ दुरात्मा अशिष्ट पुरुष की भाँति हितैषी सुहृदों की आज्ञा को ठुकराकर अपने पापी साथियों के साथ सभा से बाहर निकल गया है।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! पति का यह वचन सुनकर यशस्विनी राजपुत्री गांधारी महान कल्याण का अनुसंधान करती हुई इस प्रकार बोली।
गांधारी ने कहा ;- महाराज! राज्य की कामना से आतुर हुए अपने पुत्र को शीघ्र बुलवाईये। धर्म और अर्थ का लोप करने वाला कोई भी अशिष्ट पुरुष राज्य नहीं पा सकता, तथापि सर्वथा उद्दंडता का परिचय देने वाले उस दुष्ट ने राज्य को प्राप्त कर लिया है। महाराज! आपको अपना बेटा बहुत प्रिय है, अत: वर्तमान परिस्थिति के लिए आप ही अत्यंत निंदनीय हैं, क्योंकि आप उसके पापपूर्ण विचारों को जानते हुए भी सदा उसी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं।
राजन! इस दुर्योधन को काम और क्रोध ने अपने वश में कर लिया है, यह लोभ में फंस गया है; अत: आज आपका इसे बलपूर्वक पीछे लौटाना असंभव है। दुष्ट सहायकों से युक्त, मूढ़, अज्ञानी, लोभी और दुरात्मा पुत्र को अपना राज्य सौंप देने का फल महाराज धृतराष्ट्र स्वयं भोग रहे हैं।
कोई भी राजा स्वजनों में फैलती हुई फूट की उपेक्षा कैसे कर सकता है? राजन! स्वजनों में फूट डालकर उनसे विलग होने वाले आपकी सभी शत्रु हँसी उड़ायेंगे। महाराज! जिस आपत्ति को साम अथवा भेदनीति से पार किया जा सकता है, उसके लिए आत्मीयजनों पर दण्ड का प्रयोग कौन करेगा?
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! पिता धृतराष्ट्र के आदेश और माता गांधारी की आज्ञा से विदुर असहिष्णु दुर्योधन को पुन: सभा में बुला ले आए। दुर्योधन की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। वह फुफकारते हुए सर्प की भाँति लंबी साँसें खींचता हुआ माता की बात सुनने की इच्छा से सभा भवन में पुन: प्रविष्ट हुआ। अपने कुमार्गगामी पुत्र को पुन: सभा के भीतर आया देख गांधारी उसकी निंदा करती हुई शांतिस्थापन के लिए इस प्रकार बोली-
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)
गांधारी बोली ;- ‘बेटा दुर्योधन! मेरी यह बात सुनो। जो सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे लिए हितकारक और भविष्य में सुख की प्राप्ति कराने वाली है। ‘भरतश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम्हारे पिता, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और विदुर तुमसे जो कुछ कहते हैं, अपने इन सुहृदों की वह बात मान लो। ‘यदि तुम शांत हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा भीष्म की, पिताजी की, मेरी तथा द्रोण आदि अन्य हितैषी सुहृदों की भी पूजा सम्पन्न हो जाएगी।
‘भरतश्रेष्ठ! महामते! कोई भी अपनी इच्छा मात्र से राज्य की प्राप्ति, रक्षा अथवा उपभोग नहीं कर सकता। ‘जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं किया है, वह दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग नहीं कर सकता। जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह मेधावी पुरुष ही राज्य की रक्षा कर सकता है। ‘काम और क्रोध मनुष्य को धन से दूर खींच ले जाते हैं। उन दोनों शत्रुओं को जीत लेने पर राजा इस पृथ्वी पर विजय पाता है।
‘जनेश्वर! यह महान प्रभुत्व ही राज्य नामक अभीष्ट स्थान है। जिनकी अंतरात्मा दूषित है, वे इसकी रक्षा नहीं कर सकते। ‘महत्पद को प्राप्त करने की इच्छा वाला पुरुष अपनी इंद्रियों को अर्थ और धर्म में नियंत्रित करे। इंद्रियों को जीत लेने पर बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे ईंधन डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है।
‘जैसे उद्दंड घोड़े काबू में न होने पर मूर्ख सारथी को मार्ग में ही मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन इंद्रियों को काबू में न रखा जाय तो ये मनुष्य का नाश करने के लिए भी पर्याप्त हैं। ‘जो पहले अपने मनको न जीतकर मंत्रियों को जीतने की इच्छा करता है अथवा मंत्रियों को जीते बिना शत्रुओं को जीतना चाहता है, वह विवश होकर राज्य और जीवन दोनों से वंचित हो जाता है। अत: पहले अपने मन को ही शत्रु के स्थान पर रखकर इसे जीतें। तत्पश्चात मंत्रियों और शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा करें। ऐसा करने से उसकी विजय पाने की अभिलाषा कभी व्यर्थ नहीं होती है।
जिसने अपनी इंद्रियों को वश में कर रखा है, मंत्रियों पर विजय पा ली है तथा जो अपराधियों को दण्ड प्रदान करता है, खूब सोच-समझकर कार्य करने वाले उस धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्यंत सेवा करती है। छोटे छिद्र वाले जाल से ढकी हुई दो मछलियों की भाँति ये काम और क्रोध भी शरीर के भीतर ही छिपे हुए है, जो मनुष्य के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इन्हीं दोनों काम और क्रोध के द्वारा देवताओं ने स्वर्ग में जाने वाले पुरुष के लिए उस लोक का दरवाजा बंद कर रखा है। वीतराग पुरुष से डरकर ही देवताओं ने स्वर्ग प्राप्ति के प्रतिबंधक काम और क्रोध की वृद्धि की है। ‘जो राजा काम, क्रोध, लोभ, दंभ और दर्प को अच्छी तरह जीतने की काला जानता है, वह इस पृथ्वी का शासन कर सकता है।
‘अत: अर्थ, धर्म तथा शत्रुओं का पराभव चाहने वाले राजा को सदा अपनी इंद्रियों को काबू में रखने का प्रयत्न करना चाहिए। ‘जो राजा काम अथवा क्रोध से वशीभूत होकर स्वजनों या दूसरों के प्रति मिथ्या बर्ताव करता है, उसके कोई सहायक नहीं होते हैं। ‘तात! पांडव परस्पर संगठित होने के कारण एकीभूत हो गए हैं। वे परम ज्ञानी, शूरवीर तथा शत्रुसंहार में समर्थ हैं। तुम उनके साथ मिलकर सुखपूर्वक इस पृथ्वी का राज्य भोग सकोगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद)
‘तात! शांतनुनन्दन भीष्म तथा महारथी द्रोणाचार्य जैसा कह रहे हैं, वह सर्वथा सत्य है। वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन अजेय हैं। ‘अत: अनायास ही महान कर्म करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण की शरण लो, क्योंकि भगवान केशव प्रसन्न होने पर दोनों ही पक्षों को सुखी बना सकते हैं। ‘जो मनुष्य अपना भला चाहने वाले ज्ञानी एवं विद्वान सुहृदों के शासन में नहीं रहता, उनके उपदेश के अनुसार नहीं चलता, वह शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला होता है।
‘तात! युद्ध करने में कल्याण नहीं है। उससे धर्म और अर्थ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है? युद्ध में सदा विजय ही हो, यह भी निश्चित नहीं है; अत: उसमें मन न लगाओ। ‘शत्रुदमन! महाप्राज्ञ! आपस की फूट के भय से ही पितामाह भीष्म ने, तुम्हारे पिता ने और महाराज बाह्लिक ने भी पांडवों को राज्य का भाग प्रदान किया है।
‘उसी के देने का आज तुम यह प्रत्यक्ष फल देखते हो कि उन शूरवीर पांडवों द्वारा निष्कंटक बनाई हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोग रहे हो। शत्रुओं का दमन करने वाले पुत्र! यदि तुम अपने मंत्रियों सहित राज्य भोगना चाहते हो तो पांडवों को उनका यथोचित भाग (आधा राज्य) दे दो। ‘भारत! भूमंडल का आधा राज्य मंत्रियों सहित तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त है। तुम सुहृदों की आज्ञा के अनुसार चलकर सुयश प्राप्त करोगे।
‘तात! श्रीमान, मनस्वी, बुद्धिमान तथा जितेंद्रिय पांडवों के साथ होने वाला कलह तुम्हें महान सुख से वंचित कर देगा। भरतश्रेष्ठ! तुम पांडवों को उनका राज्य भाग देकर सुहृदों के बढ़ते हुए क्रोध को शांत कर दो और अपने राज्य का यथोचित रीति से शासन करते रहो।
‘बेटा! पांडवों को जो तेरह वर्षों के लिए निर्वासित कर दिया गया, यही उनका महान अपकार हुआ है। महामते! तुम्हारे काम और क्रोध से इस अपकार की और भी वृद्धि हुई है। अब तुम संधि के द्वारा इसे शांत कर दो। ‘तुम जो कुंती के पुत्रों का धन हड़प लेना चाहते हो, ऐसा करने की तुम्हारी शक्ति नहीं है। क्रोध को दृढ़तापूर्वक धारण करने वाला सूतपुत्र कर्ण तथा तुम्हारा भाई दु:शासन- ये दोनों भी ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं।
‘जिस समय भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा भीमसेन, अर्जुन और धृष्टद्युम्न- ये अत्यंत कुपित होकर परस्पर युद्ध करेंगे, उस समय सारी प्रजा का विनाश अवश्यंभावी है। ‘तात! तुम क्रोध के वशीभूत होकर समस्त कौरवों का वध न कराओ। तुम्हारे लिए इस सम्पूर्ण भूमंडल का विनाश न हो।
‘मूढ़! तुम जो यह समझ रहे हो कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर मेरी ओर से युद्ध करेंगे, यह इस समय कदापि संभव नहीं है। ‘क्योंकि इन आत्मज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में इस राज्य का पांडवों अथवा तुम लोगों के पास रहना समान ही है। इनके हृदय में दोनों के लिए एक-सा ही प्रेम और स्थान है तथा राज्य से भी बढ़कर ये धर्म को महत्त्व देते हैं।
‘इस राज्य का इन्होंने जो अन्न खाया है, उसके भय से यद्यपि ये तुम्हारी ओर से लड़कर अपने प्राणों का परित्याग कर देंगे, तथापि राजा युधिष्ठिर की ओर कभी वक्र दृष्टि से नहीं देख सकेंगे। ‘तात भरतश्रेष्ठ! इस संसार में केवल लोभ करने से किसी को धन की प्राप्ति होती नहीं दिखाई देती, अत: लोभ से कुछ सिद्ध होने वाला नहीं है। तुम पांडवों के साथ संधि कर लो।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में गांधारी वाक्य विषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के षड्यन्त्र का सात्यकि द्वारा भंडाफोड़, श्रीकृष्ण की सिंहगर्जना तथा धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन
समझाना”
वैशंपायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! माता के कहे हुए उस नीतियुक्त वचन का अनादर करके दुर्योधन पुन: क्रोधपूर्वक वहाँ से उठकर उन्हीं अजितात्मा मंत्रियों के पास चला गया। तत्पश्चात सभाभवन से निकलकर दुर्योधन ने द्यूतविद्या के जानकार सुबल पुत्र राजा शकुनि के साथ गुप्त रूप से मंत्रणा की। उस समय दुर्योधन, कर्ण, सुबल पुत्र शकुनि तथा दु:शासन- इन चारों का निश्चय इस प्रकार हुआ।
वे परस्पर कहने लगे ;- ‘शीघ्रतापूर्वक प्रत्येक कार्य करने वाले श्रीकृष्ण, राजा धृतराष्ट्र और भीष्म के साथ मिलकर जब तक हमें कैद करें, उसके पहले हम लोग ही बलपूर्वक इन पुरुषसिंह हृषीकेश को बंदी बना लें। ठीक उसी तरह, जैसे इन्द्र ने विरोचन पुत्र बलि को बांध लिया था। ‘श्रीकृष्ण को कैद हुआ सुनकर पांडव दाँत तोड़े हुए सर्पों के समान अचेत और हतोत्साह हो जायंगे। ‘ये महाबाहु श्रीकृष्ण ही समस्त पांडवों के कल्याण-साधक और कवच की भाँति रक्षा करने वाले हैं। सम्पूर्ण यदुवंशियों के शिरोमणि तथा वरदायक इस श्रीकृष्ण के बंदी बना लिए जाने पर सोमकों सहित सब पांडव उद्योगशून्य हो जाएँगे।
‘इसलिए हम यहीं शीघ्रतापूर्वक कार्य करने वाले केशव को राजा धृतराष्ट्र के चीखने-चिल्लाने पर भी कैद करके शत्रुओं के साथ युद्ध करें।' विद्वान सात्यकि इशारे से ही दूसरों के मन की बात समझ लेने वाले थे। वे उन दुष्टचित्त पापियों के उस पापपूर्ण अभिप्राय को शीघ्र ही ताड़ गए। फिर उसके प्रतीकार के लिए वे सभा से बाहर निकलकर कृतवर्मा से मिले और इस प्रकार बोले,
सात्यकि बोले ;- ‘तुम शीघ्र ही अपनी सेना को तैयार कर लो और स्वयं भी कवच धारण करके व्युहाकार खड़ी हुई सेना के साथ सभाभवन के द्वार पर डटे रहो। ‘तब तक मैं अनायास ही महान कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को कौरवों के षड्यंत्र की सूचना दिये देता हूँ’। ऐसा कहकर वीर सात्यकि ने सभा में प्रवेश किया, मानो सिंह पर्वत की कन्दरा में घुस रहा हो। वहाँ जाकर उन्होंने महात्मा केशव से कौरवों का अभिप्राय बताया। फिर धृतराष्ट्र और विदुर को भी इसकी सुचना दी।
सात्यकि ने किंचित मुस्कराते हुए से उन कौरवों के इस अभिप्राय को इस प्रकार बताया,
सात्यकि ने कहा ;- ‘सभासदो! कुछ मूर्ख कौरव एक ऐसा नीच कर्म करना चाहते हैं, जो धर्म, अर्थ और काम सभी दृष्टियों से साधु पुरुषों द्वारा निंदित है। यद्यपि इस कार्य में उन्हें किसी प्रकार सफलता नहीं प्राप्त हो सकती। ‘क्रोध और लोभ के वशीभूत हो काम एवं रोष से तिरस्कृत होकर कुछ पापात्मा एवं मूढ़ मानव यहाँ आकार भारी बखेड़ा पैदा करना चाहते हैं।
‘जैसे बालक और जड़ बुद्धि वाले लोग जलती आग को कपड़े में बाँधना चाहें, उसी प्रकार ये मंदबुद्धि कौरव इन कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को यहाँ कैद करना चाहते हैं।' सात्यकि का यह वचन सुनकर दूरदर्शी विदुर ने कौरव-सभा में महाबाहु धृतराष्ट्र से कहा,
विदुर ने कहा ;- ‘परंतप नरेश! जान पड़ता है, आपके सभी पुत्र सर्वथा काल के अधीन हो गए हैं। इसीलिए वे यह अकीर्तिकारक और असंभव कर्म करने को उतारू हुए हैं। ‘सुनने में आया है कि वे सब संगठित होकर इन पुरुषसिंह कमलनयन श्रीकृष्ण को तिरस्कृत करके हठपूर्वक कैद करना चाहते हैं। ये भगवान कृष्ण इन्द्र के छोटे भाई और दुर्धुर्ष वीर हैं। इन्हें कोई भी पकड़ नहीं सकता। इनके पास आकर सभी विरोधी जलती आग में गिरने वाले फतिंगों के समान नष्ट हो जाएँगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-35 का हिन्दी अनुवाद)
‘जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह हाथियों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार ये भगवान श्रीकृष्ण यदि चाहें तो क्रुद्ध होने पर समस्त विपक्षी योद्धाओं को यमलोक पहुँचा सकते हैं। ‘परंतु ये पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण किसी प्रकार भी निंदित अथवा पापकर्म नहीं कर सकते और न कभी धर्म से ही पीछे हट सकते हैं। ‘श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार घोड़े, रथ और हाथियों सहित वाराणसी नागरी जला दी और काशीराज को उनके सगे-संबंधियों सहित मार डाला, उसी प्रकार ये शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कालेश्वर होकर हस्तिनापुर को दग्ध करके कौरवों का नाश कर डालेंगे।
‘यदुकुल को सुख पहुँचाने वाले श्रीकृष्ण जब अकेले पारिजात का अपहरण करने लगे, उस समय अत्यंत कोप में भरे हुए इन्द्र ने इनके ऊपर वसुओं के साथ आक्रमण किया। परंतु वे भी इन्हें पराजित न कर सके। ‘निर्मोचन नामक स्थान में मुर दैत्य ने छ: हजार शक्तिशाली पाश लगा रखे थे, जिन्हें इन वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने निकट जाकर काट डाला। ‘इन्हीं श्रीकृष्ण ने सौभ के द्वार पर पहुँचकर अपनी गदा से पर्वत को विदीर्ण करते हुए मंत्रियों सहित द्युमत्सेन को मार गिराया था।
‘अभी कौरवों की आयु शेष है, इसलिए सदा धर्म पर ही दृष्टि रखने वाले कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण इन पापाचारियों को दंड देने में समर्थ होकर भी अभी क्षमा करते जा रहे हैं। यदि ये कौरव अपने सहयोगी राजाओं के साथ गोविंद को बंदी बनाना चाहते हैं तो सबके सब आज ही यमराज के अतिथि हो जाएँगे। ‘जैसे तिनकों के अग्रभाग सदा महाबलवान वायु के वश में होते हैं, उसी प्रकार समस्त कौरव चक्रधारी श्रीकृष्ण के अधीन हो जाएंगे।'
विदुर के ऐसा कहने पर भगवान केशव ने समस्त सुहृदों को सुनते हुए राजा धृतराष्ट्र की ओर देखकर कहा- ‘राजन! ये दुष्ट कौरव यदि कुपित होकर मुझे बलपूर्वक पकड़ सकते हों तो आप इन्हें आज्ञा दे दीजिये। फिर देखिये, ये मुझे पकड़ पाते हैं या मैं इन्हें बंदी बनाता हूँ। ‘यद्यपि क्रोध में भरे हुए इन समस्त कौरवों को मैं बाँध लेने की शक्ति रखता हूँ, तथापि मैं किसी प्रकार भी कोई निंदित कर्म अथवा पाप नहीं कर सकता।
‘आपके पुत्र पांडवों का धन लेने के लिए लुभाए हुए हैं, परंतु इन्हें अपने धन से भी हाथ धोना पड़ेगा। यदि ये ऐसा ही चाहते हैं, तब तो युधिष्ठिर का काम बन गया। ‘भारत! मैं आज ही इन कौरवों तथा इनके अनुगामियों को कैद करके यदि कुंती के पुत्रों के हाथ में सौंप दूँ तो क्या बुरा होगा? ‘परंतु भारत! महाराज! आपके समीप मैं क्रोध अथवा पापबुद्धि से होने वाला यह निंदित कर्म नहीं प्रारम्भ करूंगा। ‘नरेश्वर! यह दुर्योधन जैसा चाहता है, वैसा ही हो। मैं आपके सभी पुत्रों को इसके लिए आज्ञा देता हूँ।'
यह सुनकर धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा,
धृतराष्ट्र ने कहा ;- ‘तुम उस पापात्मा राज्यलोभी दुर्योधन को उसके मित्रों, मंत्रियों, भाइयों, तथा अनुगामी सेवकों सहित शीघ्र मेरे पास बुला लाओ। यदि पुन: उसे सन्मार्ग पर उतार सकूँ तो अच्छा होगा।' तब विदुरजी राजाओं से घिरे हुए दुर्योधन को उसकी इच्छा न होते हुए भी भाइयों सहित पुन: सभा में ले आए। उस समय कर्ण, दु:शासन तथा अन्य राजाओं से भी घिरे हुए दुर्योधन से राजा धृतराष्ट्र ने कहा,-
दुर्योधन ने कहा ;- ‘नृशंस महापापी! नीच कर्म करने वाले ही तेरे सहायक हैं। तू उन पापी सहायकों से मिलकर पापकर्म ही करना चाहता है। ‘वह कर्म ऐसा है, जिसकी साधु पुरुषों ने सदा निंदा की है। वह अपयशकारक तो है ही, तू उसे कर भी नहीं सकता; परंतु तेरे जैसा कुलांगार और मूर्ख मनुष्य उसे करने की चेष्टा करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंशदधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद)
‘सुनता हूँ, तू अपने पापी सहायकों से मिलकर इन दुर्धर्ष एवं दुर्जय वीर कमलनयन श्रीकृष्ण को कैद करना चाहता है। ‘ओ मूढ़! इंद्र सहित सम्पूर्ण देवता भी जिन्हें बलपूर्वक अपने वश में नहीं कर सकते, उन्हीं को तू बंदी बनाना चाहता है। तेरी यह चेष्टा वैसी ही है, जैसे कोई बालक चंद्रमा को पकड़ना चाहता हो। ‘देवता, मनुष्य, गंधर्व, असुर और नाग भी संग्राम भूमि में जिनका वेग नहीं सह सकते, उन भगवान श्रीकृष्ण को तू नहीं जानता।
‘जैसे वायु को हाथ से पकड़ना दुष्कर है, चंद्रमा को हाथ से छूना कठिन है और पृथ्वी को सिर पर धारण करना असंभव है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को बलपूर्वक पकड़ना दुष्कर है।' धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर विदुर ने भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार कहा।
विदुर बोले ;- दुर्योधन! इस समय मेरी बात पर ध्यान दो। सौभद्वार में द्विविद नाम से प्रसिद्ध एक वानरों का राजा रहता था, जिसने एक दिन पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा करके भगवान श्रीकृष्ण को आच्छादित दिया। वह पराक्रम करके सभी उपायों से श्रीकृष्ण को पकड़ना चाहता था, परंतु इन्हें कभी पकड़ न सका। उन्हीं श्रीकृष्ण को तुम बलपूर्वक अपने वश में करना चाहते हो।
पहले की बात है, प्रागज्योतिषपुर में गए हुए श्रीकृष्ण को दानवों सहित नरकासुर ने भी वहाँ बंदी बनाने की चेष्टा की, परंतु वह भी वहाँ सफल न हो सका। उन्हीं को तुम बलपूर्वक अपने वश में करना चाहते हो। अनेक युगों तथा असंख्य वर्षों की आयु वाले नरकासुर को युद्ध में मारकर श्रीकृष्ण उसके यहाँ से सहस्रों राजकन्याओं को उद्धार करके ले गए और उन सबके साथ उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया। निर्मोचन में छ: हजार बड़े-बड़े असुरों को भगवान ने पाशों में बाँध लिया। वे असुर भी जिन्हें बंदी न बना सके, उन्हीं को तुम बलपूर्वक वश में करना चाहते हो।
भरतश्रेष्ठ! इन्होंने ही बाल्यावस्था में बकी पूतना का वध किया था और गौओं की रक्षा के लिए अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। अरिष्टासुर, धेनुक, महाबली चानूर, अश्वराज केशी और कंस भी लोकहित के विरुद्ध आचरण करने पर श्रीकृष्ण के ही हाथ से मारे गए थे। जरासंध, दंतवक्र, पराक्रमी शिशुपाल और बाणासुर भी इन्हीं के हाथों से मारे गए हैं तथा अन्य बहुत से राजाओं का भी इन्होंने ही संहार किया है। अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण ने राजा वरुण पर विजय पायी है। इन्होंने अग्निदेव को भी पराजित किया है और पारिजात हरण करते समय साक्षात शचीपति इन्द्र को भी जीता है।
इन्होंने एकार्णव के जल में सोते समय मधु और कैटभ नामक दैत्यों को मारा था और दूसरा शरीर धारण करके हयग्रीव नामक राक्षस का भी इन्होंने ही वध किया था। ये ही सबके करता हैं, इनका दूसरा कोई करता नहीं है। सबके पुरुषार्थ के कारण भी यही हैं। ये भगवान श्रीकृष्ण जो-जो इच्छा करें, वह सब अनायास ही कर सकते हैं। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले इन भगवान गोविंद का पराक्रम भयंकर है। तुम इन्हें अच्छी तरह नहीं जानते। ये क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयानक हैं। ये सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसित एवं तेज की राशि हैं। अनायास ही महान पराक्रम करने वाले महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण का तिरस्कार करने पर तुम अपने मंत्रियों सहित उसी प्रकार नष्ट हो जाओगे, जैसे पतंग आग में पड़कर भस्म हो जाता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुर वाक्य विषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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