सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“ययाति का स्वर्गलोक से पतन और उनके दौहित्रों, पुत्री तथा गालव मुनि का उन्हें पुन: स्वर्गलोक में पहुचानें के लिए अपना-अपना पुण्य देने के लिए उद्यत होना”
नारदजी कहते हैं ;- राजन! तत्पश्चात ययाति अपने सिंहासन से गिरकर उस स्वर्गीय स्थान से भी विचलित हो गए। उनका हृदय काँप सा उठा और शोकाग्नि उन्हें दग्ध करने लगी। उन्होंने जो दिव्य कुसुमों की माला पहन रखी थी, वह मुरझा गई। उनकी ज्ञानशक्ति लुप्त होने लगी। मुकुट और बाजूबंद शरीर से अलग हो गए। उन्हें चक्कर आने लगा। उनके सारे अंग शिथिल हो गए और वस्त्र तथा आभूषण भी खिसक-खिसककर गिरने लगे।
वे अंधकार से आवृत होने के कारण स्वयं स्वर्गवासियों को नहीं दिखाई देते थे, परंतु वे उन्हें बार-बार देखते और कभी नहीं भी देख पाते थे। पृथ्वी पर गिरने से पहले शून्य-से होकर शून्य हृदय से राजा यह चिंता करने लगे कि मैंने अपने मनसे किस धर्मदूषक अशुभ वस्तु का चिंतन किया है, जिसके कारण मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट होना पड़ा है।
स्वर्ग के राजर्षि, सिद्ध और अप्सरा सभी ने स्वर्ग से भ्रष्ट हो अवलंब शून्य हुए राजा ययाति को देखा। राजन! इतने में ही पुण्य रहित पुरुषों को स्वर्ग से नीचे गिराने वाला कोई पुरुष देवराज की आज्ञा से वहाँ आकर ययाति से इस प्रकार बोला-
देव पुरूष बोला ;- ‘राजपुत्र! तुम अत्यंत मदमत्त हो और कोई भी ऐसा महान पुरुष यहाँ नहीं है, जिसका तुम तिरस्कार न करते हो। इस मान के कारण ही तुम अपने स्थान से गिर रहे हो। अब तुम यहाँ रहने के योग्य नहीं हो। ‘तुम्हें यहाँ कोई नहीं जानता है; अत: जाओ, नीचे गिरो।’ जब उसने ऐसा कहा, तब नहुषपुत्र ययाति तीन बार ऐसा कहकर नीचे जाने लगे कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ।
जंगम प्राणियों में श्रेष्ठ ययाति गिरते समय अपनी गति के विषय में चिंता कर रहे थे। इसी समय उन्होंने नैमिषारण्य में चार श्रेष्ठ राजाओं को देखा और उन्हीं के बीच में वे गिरने लगे। वहाँ प्रतर्दन, वसुमना, औशीनर शिबि तथा अष्टक- ये चार नरेश वाजपेययज्ञ के द्वारा देवेश्वर श्रीहरी को तृप्त करते थे। उनके यज्ञ का धूम मानो स्वर्ग का द्वार बनकर उपस्थित हुआ था। ययाति उसी को सूंघते हुए पृथ्वी कि ओर गिर रहे थे।
भूतल से स्वर्ग तक धुममयी नदी सी प्रवाहित हो रही थी, मानो आकाशगंगा भूमि पर जा रही हों। भूपाल ययाति उसी धूमलेखा का अवलंबन करके लोकपालों के समान तेजस्वी तथा अवभृथ स्नान से पवित्र अपने चारों संबंधियों के बीच में गिरे। वे चारों श्रेष्ठ राजा उन चार विशाल अग्नियों के समान तेजस्वी थे, जो हविष्य कि आहुती पाकर प्रज्वलित हो रहे हों। राजा ययाति अपना पुण्य क्षीण होने पर उन्हीं के मध्य भाग में गिरे।
अपनी दिव्य कांति से उद्भासित होने वाले उन महाराज से सभी भूपालों ने पूछा,
भूपाल बोले ;- ‘आप कौन हैं? किसके भाई बंधु हैं तथा किस देश और नगर में आपका निवास स्थान है? आप यक्ष हैं या देवता? गंधर्व हैं या राक्षस? आपका स्वरूप मनुष्यों-जैसा नहीं है। बताइये, आप कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं।'
ययाति ने कहा ;- मैं राजर्षि ययाति हूँ। अपना पुण्य क्षीण होने के कारण स्वर्ग से नीचे गिर गया हूँ। गिरते समय मेरे मन में यह चिंतन चल रहा था कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ। अत: आप लोगों के बीच में आ पड़ा हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद)
वे राजा बोले ;- पुरुषशिरोमणे आपका यह मनोरथ सफल हो। आप हम सब लोगों के यज्ञों का फल और धर्म ग्रहण करें।
ययाति ने कहा ;- प्रतिग्रह ही जिसका धन है, वह ब्राह्मण मैं नहीं हूँ। मैं तो क्षत्रिय हूँ। अत: मेरी बुद्धि पराये पुण्य का क्षय करने के लिए उद्यत नहीं है।
नारदजी कहते हैं ;- इसी समय उन राजाओं ने अपनी माता माधवी को देखा, जो मृगों कि भाँति उन्हीं के साथ विचरती हुई क्रमश: वहाँ आ पहुँची थी। उसे प्रणाम करके राजाओं ने इस प्रकार पूछा,
सभी राजा बोले ;- ‘तपोधने यहाँ आपके पधारने का क्या प्रयोजन है? हम आपकी किस आज्ञा का पालन करें? हम सभी आपके पुत्र हैं; अत: हमें आप योग्य सेवा के लिए आज्ञा प्रदान करें।’ उनकी ये बातें सुनकर माधवी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपने पिता ययाति के पास गई और उसने उन्हें प्रणाम किया।
तदनंतर तपस्विनी माधवी ने उन पुत्रों के सिर पर हाथ रखकर अपने पिता से कहा,
माधवी ने कहा ;- ‘राजेंद्र ये सभी आपके दौहित्र और मेरे पुत्र हैं, पराये नहीं हैं। ‘ये आपको तार देंगे। दौहित्रों के द्वारा मातामह (नाना) का यह उद्धार पुरातन वेदशास्त्र में स्पष्ट देखा गया है। राजन मैं आपकी पुत्री माधवी हूँ और इस तपोवन में मृगों के समान जीवनचर्या बनाकर विचरती हूँ।
‘पृथ्वीनाथ मैंने भी महान धर्म का संचय किया है। उसका आधा भाग आप ग्रहण करें। राजन सब मनुष्य अपनी संतानों के किए हुए सत्कर्मों के फल के भागी होते हैं। इसलिए वे दौहित्रों की इच्छा करते हैं, जैसे आपने की थी।’
तब उन सभी राजाओं ने अपनी माता के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वर्गभृष्ट नाना को भी नमस्कार करके अपने उच्च, अनुपम और स्नेहपूर्ण स्वर से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए उन्हें तारने के उद्देश्य से उनसे कुछ कहने का विचार किया। इसी बीच में उस वन से गालव मुनि भी वहाँ आ पहुँचे तथा राजा से इस प्रकार बोले,
गालव मुनि बोले ;- ‘महाराज आप मेरी तपस्या का आंठवा भाग लेकर उसके बल से स्वर्गलोक में पहुँच जायें।’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्वर्गलोक से पतन विषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वाविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सत्संग एवं दौहित्रों के पुण्यदान से ययाति का पुन: स्वर्गारोहण”
नारदजी कहते हैं ;- उन सत्पुरुषों के द्वारा पहचाने जाने मात्र से नरश्रेष्ठ राजा ययाति पृथ्वीतल का स्पर्श न करते हुए ऊपर की ओर उठने लगे। उस समय उनकी आकृति दिव्य हो गई थी। वे शोक और चिंता से रहित थे। उन्होंने दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रखे थे। दिव्य आभूषण उनके अंगों की शोभा बड़ा रहे थे तथा वे दिव्य सुगंध से सुवासित हो रहे थे। वे अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर रहे थे।
तदनंतर लोक में, दानपती के नाम से विख्यात राजा वसुमना पहले उच्च स्वर से शब्दों का उच्चारण करते हुए महाराज ययाति से इस प्रकार बोले-
वसुमना बोले ;- ‘मैंने जगत में सभी वर्णों की निंदा से दूर रहकर जो पुण्य प्राप्त किया है, वह भी आपको दे रहा हूँ। आप उस पुण्य से संयुक्त हों। ‘दानशील पुरुष को जो पुण्यफल प्राप्त होता है, क्षमाशील मनुष्य को जो फल मिलता है तथा अग्निस्थापन आदि वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान से मुझे जिस फल की प्राप्ति होने वाली है, उन सभी प्रकार के पुण्यफलों से आप सम्पन्न हों।’
तदनंतर क्षत्रिय शिरोमणि प्रतर्दन ने यह बात कही,
प्रतर्दन ने कहा ;- ‘मैं जिस प्रकार सदा धर्म में तत्पर रहा हूँ, सर्वदा न्याययुक्त युद्ध में संलग्न होता आया हूँ तथा संसार में मैंने जो क्षत्रियवंश के अनुरूप यश एवं वीर शब्द के योग्य पुण्यफल का अर्जन किया है, उससे आप संयुक्त हों’ तत्पश्चात उशीनर पुत्र बुद्धिमान शिबि ने मधुर वाणी में कहा,
शिबि ने कहा ;- ‘मैंने बालकों में, स्त्रियों में, हास-परिहास के योग्य संबंधियों में, युद्ध में, आपत्तियों में तथा संकटों में भी पहले कभी असत्य भाषण नहीं किया है। उस सत्य के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए। राजन! मैं अपने प्राण, राज्य एवं मनोवांछित सुखभोग को भी त्याग सकता हूँ, परंतु सत्य को नहीं छोड़ सकता। उस सत्या के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए। यदि मेरे सत्या से धर्मदेव संतुष्ट हैं, यदि मेरे सत्य से अग्निदेव प्रसन्न हैं तथा यदि मेरे सत्यभाषण से देवराज इंद्र भी तृप्त हुए हैं तो उस सत्या के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए।’
इसके बाद माधवी के छोटे पुत्र कुशिकवंशी धर्मज्ञ राजर्षि अष्टक ने कई सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले नहुष नन्दन ययाति के पास जाकर कहा-
अष्टक बोले ;- ‘प्रभो! मैंने सैकड़ों पुण्डरीक, गोसव तथा वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान किया है। आप उन सबका फल प्राप्त करें। मेरे पास कोई भी रत्न, धन अथवा अन्य सामग्री ऐसी नहीं है, जिसका मैंने यज्ञों में उपयोग न किया हो। इस सत्य कर्म के प्रभाव से आप स्वर्गलोक में जाइए।’ ययाति के दौहित्र जैसे-जैसे उनके प्रति उपयुर्क्त बातें कहते थे, वैसे-ही-वैसे वे महाराज इस भूताल को छोड़ते हुए स्वर्गलोक की ओर बढ़ते चले गए थे।
इस प्रकार अपने सम्पूर्ण सत्कर्मों के द्वारा उन सब राजाओं ने स्वर्ग से गिरे हुए राजा ययाति को अनायास ही तार दिया। अपने वंश की वृद्धि करने वाले ययाति के वे चारों दौहित्र चार राजवंशों में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने अपने यज्ञ-दानादिजनित धर्म से उन महाप्राज्ञ मातामह ययाति को स्वर्गलोक में पहुँचा दिया।
वे राजा बोले ;- राजन! पृथ्वीपते! हम राजधर्म तथा राजोचित गुणों से युक्त, सम्पूर्ण धर्मों तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न आपके दौहित्र हैं। आप हमारे पुण्य लेकर स्वर्गलोक पर आरूढ़ होइये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्वर्गारोहण विषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत, ययाति के पूछने पर ब्रह्माजी का अभिमान को ही पतन का कारण बताना तथा नारदजी का दुर्योधन को समझाना”
नारदजी कहते हैं ;- प्रचुर दक्षिणा देने वाले उन श्रेष्ठ राजाओं ने राजा ययाति को स्वर्ग पर आरूढ़ कर दिया। राजा ययाति अपने उन दौहित्रों को विदा देकर स्वर्गलोक में जा पहुँचे। वहाँ उनके ऊपर नाना प्रकार के सुगंधयुक्त पुष्पों की वर्षा हुई। पवित्र सौरभ से सुवासित पावन समीर उनका सब ओर से आलिंगन कर रहा था।
दौहित्रों के पुण्य फल से प्राप्त हुए अविचल स्थान को पाकर अपने सत्कर्मों से बढ़े हुए राजा ययाति उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित होने लगे। गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदायों ने ‘उनके सुयश का’ गान करते हुए उनके समीप नृत्य करके उन्हें प्रसन्न किया। स्वर्गलोक में दुंदुभी आदि वाद्यों की गंभीर ध्वनि के साथ अत्यंत प्रेमपूर्वक उनको अपनाया गया। नाना प्रकार के देवर्षियों, राजर्षियों तथा चारणों ने उनका स्तवन किया। देवताओं ने उत्तम अर्ध्य निवेदन करके उनका पूजन और अभिनंदन किया।
इस प्रकार ययाति ने उत्तम स्वर्गफल पाया तदनंतर संतुष्ट एवं शांतचित्त हुए ययाति को अपने मधुर वचनों द्वारा पूर्णत: तृप्त करते हुए से पितामह ब्रह्माजी उनसे इस प्रकार बोले-
ब्रह्माजी बोले ;- ‘राजन! तुमने लोकहितकारी सत्कर्म द्वारा चारों चरणों से युक्त धर्म का संग्रह किया;। अत: तुम्हें यह अक्षय स्वर्गलोक प्राप्त हुआ और स्वर्ग में तुम्हारी क्षीण न होने वाली कीर्ति फैल गई। ‘राजर्षे! फिर तुम्हीं ने ‘अभिमानपूर्ण बर्ताव’ से अपने पुण्य का नाश किया था। उस समय समस्त स्वर्गवासियों का चित्त तमोगुण से व्यापात हो गया था, जिससे वे तुम्हें नहीं जानते या नहीं पहचानते थे, अत: सबके लिए अज्ञात होने के कारण तुम स्वर्ग से नीचे गिरा दिये गये। फिर तुम्हारे दौहित्रों ने प्रेमपूर्वक तुम्हें तार दिया है, जिससे तुम पुन: यहाँ आ गये हो।
अब तुमने अपने दौहित्रों द्वारा प्राप्त कर्म से जीते हुए अविचल, शाश्वत, पुण्यमय, उत्तम, ध्रुव तथा अविनाशी स्थान प्राप्त किया है’।
ययाति बोले ;- भगवन! मेरे मन में कोई संदेह है, जिसका निवारण आप ही कर सकते हैं। लोकपितामह! मैं इस प्रश्न को और किसी के सामने रखना उचित नहीं समझता। मैंने कई हजार वर्षों तक अनेकानेक यज्ञों और दानों के द्वारा जिस महान पुण्य फल का उपार्जन किया था और जिसे प्रजापालन रूपी धर्म के द्वारा उत्तरोतर बढ़ाया था, वह सब थोड़े ही समय में नष्ट कैसे हो गया? जिससे मैं यहाँ से नीचे गिरा दिया गया। भगवान! महाद्युते! मुझे मेरे सत्कर्मों द्वारा जो सनातन लोक प्राप्त हुए थे, उन्हें आप जानते हैं। मेरा वह सारा पुण्य सहसा नष्ट कैसे हो गया?
ब्रह्माजी बोले ;– राजेन्द्र! तुमने कई हजार वर्षों तक अनेकानेक यज्ञों और दानों के द्वारा जिस पुण्यफल का उपार्जन किया और प्रजापालन रूपी धर्म के द्वारा जिसे उत्तरोत्तर बढ़ाया, वह सब इस अभिमान रूपी दोष के कारण ही नष्ट हो गया था, जिससे तुम नीचे गिराए गये। तुम्हारे अभिमान के ही कारण स्वर्गलोक के निवासियों ने तुम्हें धिक्कार दिया था।
राजर्षे! यह पुण्यलोक न अभिमान से, न बल से, न हिंसा से, न शठता से और न भाँति-भाँति की मायाओं से ही सुस्थिर होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-23 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! तुम्हें ऊँचे, नीचे एवं मध्यम वर्ग के लोगों का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। जो लोग अभिमान की आग में जल रहे हैं, उनके उस संताप को शांत करने का कहीं कोई उपाय नहीं है। जो मनुष्य तुम्हारे स्वर्ग से गिरने और पुन: आरूढ़ होने के इस वृतांत को आपस में कहें-सुनेंगे, वे संकट में पड़ने पर भी उससे पार हो जाएँगे; इसमें संशय नहीं है।
नारदजी कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार पूर्वकाल में राजा ययाति अपने अभिमान के कारण संकट में पड़ गये थे और अत्यंत आग्रह एवं हठ के कारण महर्षि गालव को भी महान क्लेश सहन करना पड़ा था।अत: तुम्हें तुम्हारे हित की इच्छा रखने वाले सुहृदों की बात अवश्य सुननी और माननी चाहिए। दुराग्रह कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह विनाश के पथ पर ले जाने वाला है।
अत: गांधारीनंदन! तुम भी अभिमान और क्रोध को त्याग दो। वीर नरेश! तुम पांडवों से संधि कर लो और क्रोध के आवेश को सदा के लिए छोड़ दो। तुम अपने सुहृदों के हितकर वचन मान लो। असत्य आचरण को न अपनाओ, अन्यथा शक्तिशाली पांडवों के साथ युद्ध ठानकर तुम बड़े भारी संकट में पड़ जाओगे।
भूपाल! मनुष्य जो दान देता है, जो कर्म करता है, जो तपस्या में प्रवृत होता है और जो होम-यज्ञ आदि का अनुष्ठान करता है, उसके इस कर्म का न तो नाश होता है और न उसमें कोई कमी ही होती है। उसके कर्म को दूसरा कोई नहीं भोगता। कर्ता स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है। यह महत्त्वपूर्ण उपाख्यान उन महापुरुषों का है, जो अनेक शास्त्रों के ज्ञाता तथा रोष और राग से रहित थे। यह सबके लिए परम उत्तम और हितकर है। लोक में इस पर नाना प्रकार से विचार करके निश्चित किए हुए सिद्धान्त को अपनाकर धर्म, अर्थ और काम पर दृष्टि रखने वाला पुरुष इस पृथ्वी का उपभोग करता है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद़धोग पर्व के अन्तर्गत भगवद़धान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ तेईसवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र के अनुरोध से भगवान श्रीकृष्ण का दुर्योधन को समझाना”
धृतराष्ट्र बोले ;– भगवन नारद! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है। मैं भी यही चाहता हूँ, परंतु मेरा कोई वश नहीं चलता है।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! नारदजी से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र ने भगवान श्रीक़ृष्ण से कहा,
धृतराष्ट्र ने कहा ;-- ‘केशव! आपने मुझसे जो बात कही है, वह इहलोक और स्वर्गलोक में हितकर, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। ‘तात जनार्दन! मैं अपने वश में नहीं हूँ। जो कुछ किया जा रहा है, वह मुझे प्रिय नहीं है। किन्तु क्या कहूँ? मेरे दुरात्मा पुत्र मेरी बात नहीं मानेंगे। प्रिय श्रीक़ृष्ण! महाबाहु पुरुषोत्तम! शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले मेरे इस मूर्ख पुत्र दुर्योधन को आप ही समझा-बुझाकर राह पर लाने का प्रयत्न कीजिये।
‘महाबाहु हृषीकेश! यह सत्पुरुषों की कही हुई बातें नहीं सुनता है। गांधारी, बुद्धिमान विदुर तथा हित चाहने वाले भीष्म आदि अन्यान्य सुहृदों की भी बातें नहीं सुनता है। ‘जनार्दन! दुरात्मा राजा दुर्योधन की बुद्धि पाप में लगी हुई है। यह पाप का ही चिंतन करने वाला, क्रूर और विवेकशून्य है। आप ही इसे समझाइए। यदि आप इसे संधि के लिए राजी कर लें तो आपके द्वारा सुहृदों का यह बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो जाएगा।’
तब सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्व को जानने वाले वृष्णिनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अमर्षशील दुर्योधन की ओर घूमकर मधुर वाणी में उससे बोले-
श्री कृष्ण बोले ;- ‘कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम मेरी यह बात सुनो। भारत! मैं विशेषत: सगे-संबंधियों सहित तुम्हारे कल्याण के लिए ही तुम्हें कुछ परामर्श दे रहा हूँ। ‘तुम परम ज्ञानी महापुरुषों के कुल में उत्पन्न हुए हो। स्वयं भी शास्त्रों के ज्ञान तथा सदव्यवहार से सम्पन्न हो। तुममें सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं; अत: तुम्हें मेरी यह अच्छी सलाह अवश्य माननी चाहिए।
'तात! जिसे तुम ठीक समझते हो, ऐसा अर्धम कार्य तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुल में उत्पन्न हुए हैं तथा जो दुष्टचित्त, क्रूर एवं निर्लज्ज हैं। ‘भरतश्रेष्ठ! इस जगत में सत्पुरुषों का व्यवहार धर्म और अर्थ से युक्त देखा जाता है और दुष्टों का बर्ताव ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है।
‘तुम्हारे भीतर यह विपरीत वृत्ति बारंबार देखने में आती है। भारत! इस समय तुम्हारा जो दुराग्रह है, वह अधर्ममय ही है। उसके होने का कोई समुचित कारण भी नहीं है। यह भयंकर हठ अनिष्टकारक तथा महान प्राणनाशक है। तुम इसे सफल बना सको, यह संभव नहीं है। परंतप! यदि तुम उस अनर्थकारी दुराग्रह को छोड़ दो तो अपने कल्याण के साथ ही भाइयों, सेवकों तथा मित्रों का भी महान हित साधन करोगे।
‘ऐसा करने पर तुम्हें अधर्म और अपयश की प्राप्ति कराने वाले कर्म से छुटकारा मिल जाएगा। अत: भरतकुलभूषण पुरुषसिंह! तुम ज्ञानी, परम उत्साही, शूरवीर, मनस्वी एवं अनेक शास्त्रों के ज्ञाता पांडवों के साथ संधि कर लो। ‘यही परम बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को भी प्रिय एवं हितकर जान पड़ता है। परंतप! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण , महामती विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान बाह्लीक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुंबी जनों एवं मित्रों को भी यही अधिक प्रिय है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
‘तात! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत का भला हो सकता है। तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो। अत: भरतश्रेष्ठ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। ‘भारत! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं। भारी आपत्ति में पड़ने पर सब लोग अपने पिता के उपदेश को ही स्मरण करते हैं।
‘तात! मंत्रियों सहित तुम्हारे पिता को पांडवों के साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है। कुरुश्रेष्ठ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिए।
‘जो मनुष्य सुहृदों के मुख से शास्त्र सम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाम में उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचन के अंत में दाह उत्पन्न करने वाला होता है।
‘जो मोहवश अपने हित की बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थ से भृष्ट होकर केवल पश्चाताप का भागी होता है।
‘जो मानव अपने कल्याण की बात सुनकर अपने मत का आग्रह छोड़कर पहले उसी को ग्रहण करता है, वह संसार में सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है।
‘जो अपनी ही भलाई चाहने वाले अपने सुहृद् के वचनों को मन के प्रतिकूल होने के कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदों के प्रतिकूल कहे हुए वचनों को ही सुनता है, वह शत्रुओं के अधीन हो जाता है।
‘जो मनुष्य सत्पुरुषों की सम्मति का उल्लंघन करके दुष्टों के मत के अनुसार चलता है, उसके सुहृद उसे शीघ्र ही विपत्ति में पड़ा देख शोक के भागी होते हैं।
‘जो अपने मुख्यमंत्रियों को छोड़कर नीच प्रकृति के लोगों का सेवन करता है, वह भयंकर विपत्ति में फँसकर अपने उद्धार का कोई मार्ग नहीं देख पाता है।
‘भारत! जो दुष्ट पुरुषों का संग करने वाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदों की बात नहीं सुनता है, दूसरों को अपनाता और आत्मीयजनों से द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है।
‘भरतश्रेष्ठ! तुम उन वीर पांडवों से विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्यों से अपनी रक्षा चाहते हो। ‘इस भूतल पर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इंद्र के समान पराक्रमी एवं महारथी बंधु-बांधवों को त्याग कर दूसरों से अपनी रक्षा की आशा करेगा? ‘तुमने जन्म से ही कुंती के पुत्रों के साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिए कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पांडव धर्मात्मा हैं।
‘तात महाबाहो! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पांडवों के साथ जन्म से ही छल कपट का बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पांडव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आए हैं। ‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बंधुओं के प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिए। तुम क्रोध के वशीभूत न होना। ‘भरतभूषण! विद्वान एवं बुद्धिमान पुरुषों का प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की सिद्धि के अनुकूल ही होता है। यदि तीनों की सिद्धि असंभव हो तो बुद्धिमान मानव धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद)
‘प्रथक प्रथक स्थित हुए धर्म, अर्थ और काम में से किसी एक को चुनना हो तो धीर पुरुष धर्म का ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणी का मनुष्य कलह के कारणभूत अर्थ को ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणी का अज्ञानी पुरुष काम को ही पाना चाहता है। ‘जो अधम मनुष्य इंद्रियों के वशीभूत होकर लोभवश धर्म को छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायों से अर्थ और काम की लिप्सा में पड़कर नष्ट हो जाता है।
‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिए; क्योंकि अर्थ और काम कभी धर्म से प्रथक नहीं होता है। ‘प्रजानाथ! विद्वान पुरुष धर्म को ही त्रिवर्ग की प्राप्ति का एकमात्र उपाय बताते हैं। अत: जो धर्म के द्वारा अर्थ और काम को पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नति की दिशा में आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकों में लगी हुई आग बढ़ जाती है। ‘तात भरतश्रेष्ठ! तुम समस्त राजाओं में विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्य को अनुचित उपाय से पाना चाहते हो।
‘राजन! जो उत्तम व्यवहार करने वाले सत्पुरुषों के साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ी से जंगल की भाँति उस दुर्व्यवहार से अपने-आपको ही काटता है। ‘मनुष्य जिसका पराभाव न करना चाहे, उसकी बुद्धि का उच्छेद न करे। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुष का मन कल्याणकारी कार्यों में प्रवृत होता है। भरतनन्दन! मनस्वी पुरुष को चाहिए की वह तीनों लोकों में किसी प्राकृत पुरुष का भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पांडवों के अपमान की तो बात ही क्या है? ईर्ष्या के वश में रहने वाला मनुष्य किसी बात को ठीक से समझ नहीं पाता।
‘भरतनन्दन! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत किए हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न से हो जाते हैं। तात! किसी भी दुष्ट मनुष्य का साथ करने की अपेक्षा पांडवों के साथ मेल मिलाप रखना तुम्हारे लिए विशेष कल्याणकारी है। ‘पांडवों से प्रेम रखने पर तुम सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ! तुम पांडवों द्वारा स्थापित राज्य का उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हीं को पीछे करके अर्थात उनकी अवहेलना करके दूसरों से अपनी रक्षा की आशा रखते हो।
‘भारत! तुम दु:शासन, दुर्विषह, कर्ण और शकुनि- इन सब पर अपने ऐश्वर्य का भार रखकर उन्नति की इच्छा रखते हो? ‘भरतनंदन! ये तुम्हें ज्ञान, धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने में समर्थ नहीं हैं और पांडवों के सामने पराक्रम प्रकट करने में भी ये असमर्थ ही हैं।
‘तुम्हारे सहित ये सब राजा लोग भी युद्ध में कुपित हुए भीमसेन के मुख की ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते। ‘तात! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओं की सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्त पुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ- ये सभी मिलकर भी अर्जुन का सामना करने में समर्थ नहीं हैं। ‘सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्ध में अर्जुन को जीत नहीं सकते। वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वों के द्वारा भी अजेय हैं, अत: तुम युद्ध का विचार मत करो।
‘राजाओं की इन सम्पूर्ण सेनाओं में किसी ऐसे पुरुष पर दृष्टिपात तो करो, जो युद्ध में अर्जुन का सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके?
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 52-62 का हिन्दी अनुवाद)
‘भरतश्रेष्ठ! यह नरसंहार करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम अपने पक्ष में किसी ऐसे पुरुष को ढूंढ निकालो, जो उस अर्जुन पर विजय पा सके, जिसके जीते जाने पर तुम्हारे पक्ष की विजय मान ली जाये। ‘जिन्होंने खानडववन में गन्धर्वों, यक्षों, असुरों और नागों सहित सम्पूर्ण देवताओं को जीत लिया था, उन अर्जुन के साथ कौन मनुष्य युद्ध कर सकेगा? ‘इसके सिवा विराटनगर में जो बहुत से महारथी योद्धाओं के साथ एक अर्जुन के युद्ध की अत्यंत अद्भुत घटना सुनी जाती है, वह एक ही युद्ध के भावी परिणाम को बताने के लिए प्रयाप्त है।
‘जिन्होंने युद्ध में साक्षात महादेव शिव को अपने पराक्रम से संतुष्ट किया है, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले उन अजेय, दुर्धर्ष एवं विजयशील बलशाली वीर अर्जुन को तुम युद्ध में जीतने की आशा रखते हो, यह बड़े आश्चर्य की बात है। ‘फिर मैं जिसका सारथी बनकर साथ रहूँ और वह अर्जुन प्रतिपक्षी होकर युद्ध के लिए आए, उस समय साक्षात इंद्र ही क्यों न हों, कौन अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहेगा?
‘जो समरभूमि में अर्जुन को जीत सकता है, वह मानो अपनी दोनों भुजाओं पर पृथ्वी को उठा सकता है, कुपित होने पर इस समस्त प्रजा को दग्ध कर सकता है और देवताओं को स्वर्ग से नीचे गिरा सकता है। ‘दुर्योधन! अपने इन पुत्रों, भाइयों, कुटुंबीजनों और सगे-संबंधियों की और तो देखो। ये श्रेष्ठ भरतवंशी तुम्हारे कारण नष्ट न हो जाएँ। ‘नरेश्वर! कौरववंश बचा रहे, इस कुल का पराभव न हो और तुम भी अपनी कीर्ति का नाश करके कुलघाती न कहलाओ।
‘महारथी पांडव तुम्हीं को युवराज के पद पर स्थापित करेंगे और तुम्हारे पिता राजा धृतराष्ट्र को महाराज के पद पर बनाए रखेंगे। ‘तात! अपने घर में आने को उद्यत हुई राजलक्ष्मी का अपमान न करो। कुंती के पुत्रों को आधा राज्य देकर स्वयं विशाल संपती का उपभोग करो।
पांडवों के साथ संधि करके और अपने हितैषी सुहृदयों की बात मानकर मित्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हुए तुम दीर्घकाल तक कल्याण के भागी बने रहोगे।'
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में भग्वद्वाक्यसंबंधी एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा-
भीष्म बोले ;- ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात कही है, उसे स्वीकार करो। क्रोध के वशीभूत न होना। ‘तात! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे।
वत्स! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है। राजन! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। ‘बेटा! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। ‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे।
‘भरतश्रेष्ठ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है।तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो। कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ। तदनंतर रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचने वाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा-
द्रोणाचार्य ने कहा ;- ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है।नरेश्वर! तुम उसे स्वीकार करो। ‘राजन! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं। इन्होंने तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो।
‘महामते! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो। परंतप! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो। शत्रुदमन! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। ‘जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते। ये युद्ध का अवसर आने पर वैर का बोझ दूसरे के कंधे पर डाल देंगे। ‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ। जिनकी ओर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो।
‘तात! भरतनन्दन! तुम्हारा वास्तविक हित चाहने वाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है। यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। ‘जमदग्निनन्दन परशुरामजी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान है और देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगने वाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। भरतवंश विभूषण! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है।’
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदुरजी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे-
विदुरजी ने कहा ;- ‘भरतभूषण दुर्योधन! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता। मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-27 का हिन्दी अनुवाद)
‘क्योंकि ये दोनों तुम-जैसे दुष्ट सहायक के कारण मित्रों और मंत्रियों के मारे जाने पर पंख कटे हुए पक्षियों की भाँति अनाथ होकर विचरेंगे। ‘तुम्हारे जैसे पापी और कुलघाती कुपुरुष पुत्र को जन्म देने के कारण ये दोनों शोकमग्न हो भिक्षुक की भाँति इस पृथ्वी पर इधर-उधर भटकते फिरेंगे।’ तत्पश्चात राजा धृतराष्ट्र ने राजाओं से घिरकर भाइयों के साथ बैठे हुए दुर्योधन से कहा-
धृतराष्ट्र बोले ;- ‘दुर्योधन! मेरी इस बात पर ध्यान दो। महात्मा श्रीकृष्ण ने जो बात बताई है, वह अत्यंत कल्याणकारक, योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाली तथा दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली है, तुम इसे स्वीकार करो। ‘अनायास ही महान कर्म करने वाले इन भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से हम लोग समस्त राजाओं में सम्मानित रहकर अपने सभी अभीष्ट मनोरथों को प्राप्त कर लेंगे।
‘तात! भगवान श्रीक़ृष्ण से मिलकर तुम युधिष्ठिर के पास जाओ और पूर्ण रूप से मंगल सम्पादन करो, जिससे भरतवंशियों को कोई क्षति न उठानी पड़े। ‘तात! भगवान श्रीक़ृष्ण को मध्यस्थ बनाकर अब शांति धारण करो। मैं तुम्हारे लिए यही समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन न करो। ‘यदि तुम शांति के लिए प्रार्थना करने वाले भगवान श्रीक़ृष्ण का जो तुम्हारे हित की बात बता रहे हैं, तिरस्कार करोगे- इनकी आज्ञा नहीं मानोगे तो तुम्हारा पराभव हुए बिना नहीं रह सकता।’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म आदि के वचनों से संबंध रखनेवाला एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें