सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षोडशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“हर्यश्व का दो सौ श्यामकर्ण घोड़े देकर ययाति कन्या के गर्भ से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना और गालव का इस कन्या के साथ वहाँ से प्रस्थान”
नारदजी कहते हैं ;- तदनंतर नृपतिश्रेष्ठ राजा हर्यश्व ने उस कन्या के विषय में बहुत सोच-विचारकर संतानोत्पादन की इच्छा से गरम-गरम लंबी सांस खींचकर मुनि से इस प्रकार कहा,-
राजा हर्यश्व ने कहा ;- 'द्विजश्रेष्ठ! इस कन्या के छ: अंग जो ऊँचे होने चाहिए, ऊँचे हैं। पाँच अंग जो सूक्ष्म होने चाहिए, सूक्ष्म हैं। तीन अंग जो गंभीर होने चाहिए, गंभीर हैं तथा इसके पाँच अंग रक्तवर्ण के हैं।
'दो नितंब, दो जांघें, ललाट और नासिका- ये छ: अंग ऊँचे हैं। अंगुलियों के पर्व, केश, रोम, नख और त्वचा- ये पाँच अंग सूक्ष्म हैं। स्वर, अंत:करण तथा नाभि- ये तीन गंभीर कहे जा सकते हैं तथा हथेली, पैरों के तलवे, दक्षिण नेत्रप्रान्त, वाम नेत्रप्रान्त तथा नख- ये पाँच अंग रक्तवर्ण के हैं। 'यह बहुत से देवताओं तथा असुरों के लिए भी दर्शनीय है। इसे गंधर्वविद्या (संगीत) का भी अच्छा ज्ञान है। यह बहुत से शुभ लक्षणों द्वारा सुशोभित तथा अनेक संतानों को जन्म देने में समर्थ है।
'विप्रवर! आपकी यह कन्या चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करने में समर्थ है; अत: आप मेरे वैभव को देखते हुए इसके लिए समुचित शुल्क बताइये।'
गालव ने कहा ;- 'राजन! आप मुझे अच्छे देश और अच्छी जाति में उत्पन्न हष्ट-पुष्ट अंगों वाले आठ सौ ऐसे घोड़े प्रदान कीजिये, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से विभूषित हों तथा उनके कान एक ओर से श्यामवर्ण के हों। यह शुल्क चुका देने पर मेरी यह विशाल नेत्रों वाली शुभलक्षणा कन्या अग्नियों को प्रकट करने वाली अरणी की भाँति आपके तेजस्वी पुत्रों की जननी होगी।
नारद जी कहते हैं ;- यह वचन सुनकर काममोहित हुए राजर्षि महाराज गालव से अत्यंत दीन होकर बोले-
राजा हर्यश्व बोले ;- 'ब्रह्मण! आपको जैसे घोड़े लेने अभीष्ट हैं, वैसे तो मेरे यहाँ इन दिनों दो सौ ही घोड़े मौजूद हैं; किन्तु दूसरी जाति के कई सौ घोड़े यहाँ विचरते हैं। 'अत: गालव! मैं इस कन्या से केवल एक संतान उत्पन्न करूँगा। आप मेरे इस श्रेष्ठ मनोरथ को पूर्ण करें'।
यह सुनकर उस कन्या ने महर्षि गालव से कहा,
कन्या ने कहा ;- 'मुने! मुझे किन्हीं वेदवादी महात्मा ने यह एक वर दिया था कि तुम प्रत्येक प्रसव के अंत में फिर कन्या ही हो जाओगी। अत: आप दो सौ उत्तम घोड़ें लेकर मुझे राजा को सौंप दें। 'इस प्रकार चार राजाओं से दो-दो सौ घोड़े लेने पर आप के आठ सौ घोड़े पूरे हो जाएँगे और मेरे भी चार ही पुत्र होंगे।
'विप्रवर! इसी तरह आप गुरुदक्षिणा के लिए धन का संग्रह करें, यही मेरी मान्यता है। फिर आप जैसा ठीक समझें, वैसा करें।' कन्या के ऐसा कहने पर उस समय गालव मुनि ने भूपाल हर्यश्व से यह बात कही-
गालव मुनि बोले ;- 'नरश्रेष्ठ हर्यश्व! नियत शुल्क का चौथाई भाग देकर आप इस कन्या को ग्रहण करें और इसके गर्भ से केवल एक पुत्र उत्पन्न कर लें।' तब राजा ने गालव मुनि का अभिनंदन करके उस कन्या को ग्रहण किया और उचित देश-काल में उसके द्वारा एक मनोवांछित पुत्र प्राप्त किया। तदनंतर उनका वह पुत्र वासुमना के नाम से विख्यात हुआ। वह वसुओं के समान कांतिमान तथा उनकी अपेक्षा भी अधिक धन-रत्नों से सम्पन्न और धन का खुले हाथ दान करने वाला नरेश हुआ।
तत्पश्चात उचित समय पर बुद्धिमान गालव पुन: वहाँ उपस्थित हुए और प्रसन्नचित्त राजा हर्यश्व से मिलकर इस प्रकार बोले-
गालव मुनि ने कहा ;- 'नरश्रेष्ठ नरेश! आपको यह सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त हो गया। अब इस कन्या के साथ घोड़ों की याचना करने के लिए दूसरे राजा के यहाँ जाने का अवसर उपस्थित हुआ है।'
राजा हर्यश्व सत्य वचनपर दृढ़ रहनेवाले थे । उन्होंने पुरुषार्थमें समर्थ होकर भी छः सौ श्यामकर्ण घोड़े दुर्लभ होनेके कारण माधवीको पुनः लौटा दिया, माधवी पुन: इच्छानुसार कुमारी होकर अयोध्या की उज्ज्वल राजलक्ष्मीका परित्याग करके गालव मुनिके पीछे- पीछे चली गयी, जाते समय ब्राह्मणने राजा हर्यश्वसे कहा,
गालव मुनि ने कहा ;- 'महाराज ! आपके दिये हुए दो सौ श्यामकर्ण घोड़े अभी आपके ही पास धरोहर के रूपमें रहें ।' ऐसा कहकर गालव मुनि उस राजकन्याके साथ राजा दिवोदास के यहाँ गये,
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवद्यानपर्व में गालवचरित्रविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
एक सौ सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“दिवोदास का ययाति कन्या माधवी के गर्भ से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना”
मार्ग में गालव ने राजकन्या माधवी से कहा ;- भद्रे! काशी के अधिपति भीमसेनकुमार शक्तिशाली राजा दिवोदास महापराक्रमी एवं विख्यात भूमिपाल हैं। उन्हीं के पास हम दोनों चलें। तुम धीरे-धीरे चली आओ। मन में किसी प्रकार का शोक न करो। राजा दिवोदास धर्मात्मा, संयमी तथा सत्यपरायण हैं।
नारदजी कहते हैं ;- राजा दिवोदास के यहाँ जाने पर गालव मुनि का उनके द्वारा यथोचित सत्कार किया गया। तदन्तर गालव ने पूर्ववत उन्हें भी शुल्क देकर उस कन्या से एक संतान उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया।
दिवोदास बोले ;- ब्रह्मण! यह सब वृतांत मैंने पहले से ही सुन रखा है। अब इसे विस्तारपूर्वक कहने की क्या आवश्यकता है? द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रस्ताव को सुनते ही मेरे मन में यह पुत्रोत्पादन की अभिलाषा जाग उठी है। यह मेरे लिए बड़े सम्मान की बात है कि आप दूसरे राजाओं को छोड़कर मेरे पास इस रूप में प्राथी होकर आए हैं। नि: संदेह ऐसा ही भावी है।
गालव! मेरे पास भी दो सौ ही श्यामकर्ण घोड़े हैं; अत: मैं भी इसके गर्भ से एक ही राजकुमार को उत्पन्न करूँगा। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर विप्रवर गालव ने वह कन्या राजा को दे दी। राजा ने भी उसका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया।
राजर्षि दिवोदास माधवी में अनुरक्त होकर उसके साथ रमण करने लगे। जैसे सूर्य प्रभावती के, अग्नि स्वाहा के, देवेंद्र शची के, चंद्रमा रोहिणी के, यमराज धूमोर्णा के, वरुण गौरी के, कुबेर ऋद्धि के, नारायण लक्ष्मी के, समुद्र गंगा के, रुद्रदेव रुद्राणी के, पितामह ब्रह्मा वेदी के, वशिष्ठनंदन शक्ति अदृश्यन्ती के, वशिष्ठ अक्षमाला (अरुंधन्ती) के, च्यवन सुकन्या के, पुलस्त्य संध्या के, अगस्त्य विदर्भराजकुमारी लोपामुद्रा के, सत्यवान सावित्री के, भृगु पुलोमा के, कश्यप अदिति के, जमदग्नि रेणुका के, कुशिकवंशी विश्वामित्र हैमवती के, बृहस्पति तारा के, शुक्र शतपर्वा के, भूमिपति भूमि के, पुरूरवा उर्वशी के, ऋचिक सत्यवती के, मनु सरस्वती के, दुष्यंत शकुंतला के, सनातन धर्मदेव धृति के, नल दमयंती के, नारद सत्यवती के, जरत्कारु मुनि नागकन्या जरत्कारु के, पुलस्त्य प्रतीच्या के, ऊर्णायु मेनका के, तुम्बुरु रंभा के, वासुकि शतशीर्षा के, धनंजय कुमारी के, श्रीरामचंद्रजी विदेहनंदिनी सीता के तथा भगवान श्रीकृष्ण रुक्मणी देवी के साथ रमण करते हैं, उसी प्रकार अपने साथ रमण करने वाले राजा दिवोदास के वीर्य से माधवी ने प्रतर्दन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया।
तदनन्तर समय आने पर भगवान गालव मुनि पुनः दिवोदास के पास आए और उनसे इस प्रकार बोले-
गालव मुनि ने कहा ;- ‘पृथ्वीनाथ! अब आप मुझे राजकन्या को लौटा दें। आपके दिये हुए घोड़े अभी आपके पास ही रहें। मैं इस समय शुल्क प्राप्त करने के लिए अन्यत्र जा रहा हूँ।' धर्मात्मा राजा दिवोदास अपनी की हुई सत्य प्रतिज्ञा पर अटल रहने वाले थे; अत: उन्होंने गालव को वह कन्या लौटा दी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
एक सौ अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“उशीनर का ययाति कन्या माधवी के गर्भ से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना, गालव का उस कन्या को साथ लेकर जाना और मार्ग में गरुड़ का दर्शन करना”
नारदजी कहते हैं ;- तदन्तर वह यशस्विनी राजकन्या माधवी सत्य के पालन में तत्पर हो काशी नरेश की उस राजलक्ष्मी को त्यागकर विप्रवर गालव के साथ चली गयी। गालव का मन अपने कार्य की सिद्धि के चिंतन में लगाया। उन्होंने मन ही मन कुछ सोचते हुए राजा उशीनर से मिलने के लिए भोजनगर की यात्रा की। उन सत्यपराक्रमी नरेश के पास जाकर गालव ने उन से कहा,
गालव ने कहा ;- ‘राजन! यह कन्या आपके लिए पृथ्वी का शासन करने में समर्थ दो पुत्र उत्पन्न करेगी। ‘नरेश्वर! इसके गर्भ से सूर्य और चंद्रमा के समान दो तेजस्वी पुत्र पैदा करके आप लोक और परलोक में भी पूर्णकाम होंगे। समस्त धर्मों के ज्ञाता भूपाल! आप इस कन्या के शुल्क के रूप में मुझे ऐसे चार सौ अश्व प्रदान करें, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से सुशोभित तथा एक ओर से श्यामवर्ण के कानों वाले हों।
‘मैंने गुरुदक्षिणा देने के लिए यह उद्योग आरंभ किया है अन्यथा मुझे इन घोड़ों की कोई आवश्यकता नहीं है। महाराज! यदि आपके लिए यह शुल्क देना संभव हो तो कोई अन्यथा विचार न करके यह कार्य सम्पन्न कीजिये।
‘राजर्षे! पृथ्वीपते! आप संतानहीन हैं। अत: इससे दो पुत्र उत्पन्न कीजिये और पुत्ररूपी नौका द्वारा पितरों का तथा अपना भी उद्धार कीजिये। ‘राजर्षे! पुत्रजनित पुण्यफल का उपभोग करने वाला मनुष्य कभी स्वर्ग से नीचे नहीं गिराया जाता और संतानहीन मनुष्य जिस प्रकार घोर नरक में पड़ते हैं, उस प्रकार वह नहीं पड़ता।'
गालव की कही हुई ये तथा और भी बहुत सी बातें सुनकर राजा उशीनर ने उन्हें इस प्रकार से उत्तर दिया-
राजा उशीनर ने कहा ;- ‘विप्रवर गालव! आप जैसा कहते हैं, वे सब बातें मैंने सुन लीं। परंतु विधाता प्रबल है। मेरा मन इससे संतान उत्पन्न करने के लिए उत्सुक हो रहा है। ‘द्विजश्रेष्ठ! आपको जिनकी आवश्यकता है, ऐसे अश्व तो मेरे पास दो सौ ही हैं। दूसरी जाति के तो कई सहस्र घोड़े मेरे यहाँ विचरते हैं। ‘अत: ब्रह्मर्षि गालव! मैं भी इस कन्या के गर्भ से एक ही पुत्र उत्पन्न करूँगा। दूसरे लोग जिस मार्ग पर चले हैं, उसी पर मैं भी चलूँगा।
‘द्विजप्रवर! मैं घोड़ों का मूल्य देकर आपका सारा शुल्क चुका दूँ, यह भी संभव नहीं है; क्योंकि मेरा धन पुरवासियों तथा जनपद निवासियों के लिए है, अपने उपभोग में लाने के लिए नहीं। ‘धर्मात्मन! जो राजा पराये धन का अपनी इच्छा के अनुसार दान करता है, उसे धर्म और यश की प्राप्ति नहीं होती है।
‘अत: आप देवकन्या के समान सुंदरी इस राजकुमारी को केवल एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए मुझे दें। मैं इसे ग्रहण करूँगा।' इस प्रकार भाँति-भाँति की न्याययुक्त बातें कहने वाले राजा उशीनर की विप्रवर गालव ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। उशीनर को वह कन्या सौंपकर गालव मुनि वन को चले गए। जैसे पुण्यात्मा पुरुष राजयलक्ष्मी को प्राप्त करे, उसी प्रकार उस राजकन्या को पाकर राजा उशीनर उसके साथ रमण करने लगे।
उन्होंने पर्वतों की कन्दराओं में, नदियों के सुरम्य तटों पर, झरनों के आस-पास, विचित्र उद्धयानों में, वनों और उपवनों में, रमणीय अट्टालिकाओं में, प्रासादशिखरों पर, वायु के मार्ग से उड़ने वाले विमानों पर तथा पृथ्वी के भीतर बने हुए गर्भगृहों में माधवी के साथ विहार किया। तदनन्तर यथासमय उसके गर्भ से राजा को एक पुत्र प्राप्त हुआ, जो बालसूर्य के समान तेजस्वी था। वही बड़ा होने पर नृपश्रेष्ठ महाराज शिबि के नाम से विख्यात हुआ।
राजन! तत्पश्चात विप्रवर गालव राजा के दरबार में उपस्थित हुए और उस कन्या को वापस लेकर वहाँ से चल दिये। मार्ग में उन्हें विनतानन्दन गरुड़ दिखाई दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“गालव का छ: सौ घोड़ों के साथ माधवी को विश्वामित्र की सेवा में देना और उनके द्वारा उसके गर्भ से अष्टक नामक पुत्र की उत्पत्ति होने के बाद उस कन्या को ययाति के यहाँ लौटा देना”
नारद जी कहते हैं ;- उस समय विनतानन्दन गरुड़ ने गालव मुनि से हँसते हुए कहा,
गरुड़ ने कहा ;- ‘ब्रह्मण! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मैं तुम्हें यहाँ कृतकृत्य देख रहा हूँ।' गरुड़ की कही हुई यह बात सुनकर,
गालव बोले ;- ‘अभी गुरुदक्षिणा का एक चौथाई भाग बाकी रह गया है, जिसे शीघ्र पूरा करना है।' तब वक्ताओं में श्रेष्ठ गरुड़ ने गालव से कहा,
गरुड़ ने कहा ;- ‘अब तुम्हें इसके लिए प्रयत्न नहीं करना चाहिए; क्योंकि तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण नहीं होगा। ‘पूर्वकाल की बात है, कान्यकुब्ज में राजा गाधि की कुमारी पुत्री सत्यवती को अपनी पत्नी बनाने के लिए ऋचीक मुनि ने राजा से उसे मांगा। तब राजा ने ऋचीक से कहा-
राजा गाधि बोले ;- ‘भगवान! मुझे कन्या के शुल्करूप में एक हजार ऐसे घोड़े दीजिये, जो चंद्रमा के समान कांतिमान हों तथा एक ओर से उनके कान श्याम रंग के हों।’ गालव! तब ऋचीक मुनि ‘तथास्तु' कहकर वरुण के लोक में गए और वहाँ अश्वतीर्थ में वैसे घोड़े प्राप्त करके उन्होंने राजा गाधि को दे दिये। ‘राजा ने पुंडरिक नामक यज्ञ करके वे सभी घोड़े ब्राह्मणों को दक्षिणा रूप में बाँट दिये। तदनंतर राजाओं ने उनसे दो-दो सौ घोड़े खरीदकर अपने पास रख लिए।
‘द्विजश्रेष्ठ! मार्ग में एक जगह नदी को पार करना पड़ा। इन छ: सौ घोड़ों के साथ चार सौ और थे। नदी पार करने के लिए जाते समय वे चार सौ घोड़े वितस्ता (झेलम) की प्रखर धारा में बह गए। ‘गालव! इस प्रकार इस देश में इन छ: सौ घोड़ों के सिवा दूसरे घोड़े अप्राप्य हैं। अत: उन्हें कहीं भी पाना असंभव है। मेरी राय यह है कि शेष दो सौ घोड़ों के बदले यह कन्या ही विश्वामित्र जी को समर्पित कर दो। धर्मात्मन! इन छ: सौ घोड़ों के साथ विश्वामित्र जी की सेवा में इस कन्या को ही दे दो। द्विजश्रेष्ठ! ऐसा करने से तुम्हारी सारी घबराहट दूर हो जाएगी और तुम सर्वथा कृतकृत्य हो जाओगे।’
तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर गालव गरुड़ के साथ वे छ: सौ घोड़े और वह कन्या लेकर विश्वामित्र जी के पास आए। आकर उन्होंने कहा,
गालव ने कहा ;- ‘गुरुदेव! आप जैसा चाहते थे, वैसे ही ये छ: सौ घोड़े आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं और शेष दो सौ के बदले आप इस कन्या को ग्रहण करें। ‘राजर्षियों ने इसके गर्भ से तीन धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किए हैं। अब आप भी एक नरश्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न कीजिये, जिसकी संख्या चौथी होगी।
‘इस प्रकार आपके आठ सौ घोड़ों की संख्या पूरी हो जाये और मैं आपसे उऋण होकर सुखपूर्वक तपस्या करूँ, ऐसी कृपा कीजिये।’ विश्वामित्र ने गरुड़ सहित गालव की ओर देखकर इस परम सुंदरी कन्या पर भी दृष्टिपात किया और इस प्रकार कहा-
विश्वामित्र बोले ;- ‘गालव! तुमने पहले ही इसे यहीं क्यों नहीं दे दिया, जिससे मुझे ही वंशप्रवर्तक चार पुत्र प्राप्त हो जाते। ‘अच्छा, अब मैं एक पुत्ररूपी फल की प्राप्ति के लिए तुमसे इस कन्या को ग्रहण करता हूँ। ये घोड़े मेरे आश्रम में आकार सब और चरें’।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार महातेजस्वी विश्वामित्र मुनी ने उसके साथ रमण करते हुए यथासमय उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न किया। माधवी के उस पुत्र का नाम अष्टक था। पुत्र के उत्पन्न होते ही महामुनि विश्वामित्र ने उसे धर्म, अर्थ तथा उन अश्वों से सम्पन्न कर दिया।
तदनन्तर अष्टक चंद्रपुरी के समान प्रकाशित होने वाली विश्वामित्रजी की राजधानी में गया और विश्वामित्र भी अपने शिष्य गालव को वह कन्या लौटाकर वन में चले गए। गरुड़ सहित गालव भी गुरुदक्षिणा देकर मन ही मन अत्यंत संतुष्ट हो राजकन्या माधवी से इस प्रकार बोले,
गालव बोले ;-- ‘सुंदरी! तुम्हारा पहला पुत्र दानपति, दूसरा शूरवीर, तीसरा सत्यधर्मपरायण और चौथा यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला होगा। सुमध्यमे! तुमने इन पुत्रों के द्वारा अपने पिता को तो तारा ही है, उन चार राजाओं का भी उद्धार कर दिया है। अत: अब हमारे साथ आओ। ऐसा कहकर सर्पभोजी गरुड़ से आज्ञा ले उस राजकन्या को पुन: उसके पिता ययाति के यहाँ लौटाकर गालव वन में ही चले गए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
एक सौ बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“माधवी का वन में जाकर तप करना तथा ययाति का स्वर्ग में जाकर सुखभोग के पश्चात मोहवश तेजोहीन होना”
नारदजी कहते हैं ;- तदनंतर राजा ययाति पुनः माधवी के स्वयंवर का विचार करके गंगा-यमुना के संगम पर बने हुए अपने आश्रम में जाकर रहने लगे। फिर हाथ में हार लिए बहन माधवी को रथ पर बैठाकर पुरु और यदु- ये दोनों भाई आश्रम पर गए। उस स्वयंवर में नाग, यक्ष, मनुष्य, गंधर्व, पशु, पक्षी, वृक्ष और वनों में निवास करने वाले प्राणियों का शुभागमन हुआ।
प्रयाग का वह वन अनेक जनपदों के राजाओं से व्याप्त हो गया और ब्रहमाजी के समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियों ने उस स्थान को सब और से घेर लिया। उस समय जब माधवी को वहाँ आए हुए वरों का परिचय दिया जाने लगा, तब उस वरवर्णिनी कन्या ने सारे वरों को छोड़ कर तपोवन को ही वररूप में वरण कर लिया। ययातिनंदिनी कुमारी माधवी रथ से उतरकर अपने पिता, भाई, बंधु आदि कुटुम्बियों को नमस्कार करके पुण्य तपोवन में चली गयी और वहाँ तपस्या करने लगी। वह उपवासपूर्वक विविध प्रकार की दीक्षाओं तथा नियमों का पालन करती हुई अपने मन को राग-द्वेषादि दोषों से रहित करके वन में मृगी के समान विचरने लगी।
इस क्रम से माधवी वैदूर्यमणि के अंकुरों के समान सुशोभित, कोमल, चिकनी, तिक्त, मधुर एवं हरी-हरी घास चरती, पवित्र नदियों के शुद्ध, शीतल, निर्मल एवं सुस्वादु जल पीती और मृगों के आवासभूत, व्याघ्ररहित एवं दावानलशून्य निर्जन वनों में मृगों के साथ वनचारिणी मृगी की भाँति विचरण करती थी। उसने ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक महान धर्म का आचरण किया।
राजा ययाति भी पूर्ववर्ती राजाओं के सदाचार का पालन करते हुए अनेक सहस्र वर्षों की आयु पूरी करके मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके पुत्रों में से दो पुत्र नरश्रेष्ठ पुरु और यदु उस कुल में अभ्युदयशील थे। उन्हीं दोनों से नहुषपुत्र ययाति इस लोक और परलोक में भी प्रतिष्ठित हुए। राजन! महाराज ययाति महर्षियों के समान पुण्यात्मा एवं तपस्वी थे। वे स्वर्ग में जाकर वहाँ के श्रेष्ठ फल का उपभोग करने लगे।
इस प्रकार वहाँ अनेक गुणों से युक्त कई हजार वर्षों का समय व्यतीत हो गया। ययाति का चित्त अपना स्वर्गीय वैभव देखकर स्वयं ही आश्चर्यचकित हो उठा। उनकी बुद्धि पर मोह छा गया और वे महान समृद्धिशाली महत्तम राजर्षियों के अपने समीप बैठे होने पर भी सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों की भी अवहेलना करने लगे।
तदनंतर बलसूदन इंद्रदेव को ययाति की इस अवस्था का पता लग गया। वे सम्पूर्ण राजर्षिगण भी उस समय ययाति को धिक्कारने लगे।नहुषपुत्र ययाति को देखकर स्वर्गवासियों में यह विचार खड़ा हो गया- ‘यह कौन है? किस राजा का पुत्र है? और कैसे स्वर्ग में आ गया है?
‘इसे किस कर्म से सिद्धि प्राप्त हुई है? इसने कहाँ तपस्या की है? स्वर्ग में किस प्रकार इसे जाना जाये अथवा कौन यहाँ इसको जानता है?’ इस प्रकार विचार करते हुए स्वर्गवासी ययाति के विषय में एक दूसरे की ओर देखकर प्रश्न करने लगे। सैकड़ों विमान रक्षकों, स्वर्ग के द्वारपालों तथा सिंहासन के रक्षकों से पूछा गया; किन्तु सबने यही उत्तर दिया- ‘हम इन्हें नहीं जानते।' उन सबके ज्ञान पर पर्दा पड़ गया था, अत: वे उन राजा को नहीं पहचान सके। फिर तो दो ही घड़ी में राजा ययाति का तेज नष्ट हो गया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवद्यान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंड्ग में ययातिमोहविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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