सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो ग्यारहवें अध्याय से एक सो पंद्रहवें अध्याय तक (From the 111 chapter to the 115 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“उत्तर दिशा का वर्णन”

    गरुड़ कहते हैं ;- गालव! इस मार्ग से जाने पर मनुष्य का पाप से उद्धार हो जाता है और वह कल्याणमय स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है; अत: इस उत्तारण के बल से इस दिशा को उत्तर दिशा कहते हैं। गालव! यह उत्तर दिशा उत्कृष्ट सुवर्ण आदि निधियों की अधिष्ठान है इसलिए भी इसका नाम उत्तर है। यह उत्तर मार्ग पश्चिम और पूर्व दिशाओं का मध्यवर्ती बताया गया है। 

   द्विजश्रेष्ठ! इस गौरवशालिनी दिशा में ऐसे लोगों का वास नहीं है, जो सौम्य स्वभाव के न हो, जिन्होंने अपने मन को वश में न किया हो तथा जो धर्म का पालन न करते हों। इसी दिशा में बदरिकाश्रमतीर्थ है, जहाँ सच्चिदानंद स्वरूप श्रीनारायण, विजयशील नरश्रेष्ठ नर और सनातन ब्रहमाजी निवास करते हैं। उत्तर में ही हिमालय के शिखर पर प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी अंतर्यामी भगवान महेश्वर भगवती उमा के साथ नित्य निवास करते हैं। वे भगवान नर और नारायण के सिवा और किसी की दृष्टि में नहीं आते। समस्त मुनिगण, गंधर्व, यक्ष, सिद्ध अथवा देवताओं सहित इन्द्र भी उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं। 

   यहाँ सहसत्रों नेत्रों, सहसत्रों चरणों और सहसत्रों मस्तकों वाले एकमात्र अविनाशी श्रीमान भगवान विष्णु ही उन मायाविशिष्ट महेश्वर का साक्षात्कार करते हैं। उत्तर दिशा में ही चंद्रमा का द्विजराज के पद पर अभिषेक हुआ था। वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ गालव! यहीं आकाश से गिरती हुई गंगा को महादेवजी ने अपने मस्तक पर धारण किया और उन्हें मनुष्यलोक में छोड़ दिया। यहीं पार्वतीदेवी ने भगवान महेश्वर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कठोर रूप में तपस्या की थी और इसी दिशा में महादेवजी को मोहित करने के लिए काम प्रकट हुआ। फिर उसके ऊपर भगवन शंकर का क्रोध हुआ। उस अवसर पर गिरिराज हिमालय और उमा भी वहाँ विद्यमान थीं इस प्रकार ये सब लोग वहाँ एक ही समय में प्रकाशित हुए। 

    गालव! इसी दिशा में कैलास पर्वत पर राक्षस, यक्ष और गन्धर्वों का आधिपत्य करने के लिए धनदाता कुबेर का अभिषेक हुआ था। उत्तर दिशा में ही रमणीय चैत्ररथवन और वैखानस ऋषियों का आश्रम है। द्विजश्रेष्ठ! यहीं मंदाकिनी नदी और मंदराचल हैं। इसी दिशा में राक्षसगण सौगंधिक वन की रक्षा करते हैं। यहीं हरी-हरी घासों से सुशोभित कदलीवन है और यहीं कल्पवृक्ष शोभा पाते हैं। गालव! इसी दिशा में सदा संयम नियम का पालन करने वाले स्वच्छंदचारी सिद्धों के इच्छानुसार भोगों से सम्पन्न एवं मनोनुकूल विमान विचरते हैं। 

  इसी दिशा में अरुंधतिदेवी और सप्तऋषि प्रकाशित होते हैं। इसी में स्वाती नक्षत्र का निवास है और यहीं उसका उदय होता है। इसी दिशा में ब्रहमाजी यज्ञानुष्ठान में प्रवृत होकर नियमित रूप से निवास करते हैं। नक्षत्र, चंद्रमा तथा सूर्य भी सदा इसी में परिभ्रमण करते हैं।द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में धाम नाम से प्रसिद्ध सत्यवादी महात्मा मुनि श्रीगंगामहाद्वार की रक्षा करते हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्या का परिणाम किसी को ज्ञात नहीं होता है। गालव! वे सहसत्रों युगांतकाल तक की आयु इच्छानुसार भोगते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद)

    द्विजश्रेष्ठ! मनुष्य ज्यों-ज्यों गंगामहाद्वार से आगे बढ़ता है, वैसे-ही-वैसे वहाँ की हिमराशि में गलता जाता है। विप्रवर गालव! साक्षात भगवान नारायण तथा विजयशील अविनाशी महात्मा नर को छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य पहले कभी गंगामहाद्वार से आगे नहीं गया है। इसी दिशा में कैलास पर्वत है, जो कुबेर का स्थान बताया गया है। यहीं विद्युत्प्रभा नाम से प्रसिद्ध दस अप्सराएँ उत्पन्न हुई थीं। ब्रह्मण! त्रिलोकी को नापते समय भगवान विष्णु ने इसी दिशा में अपना चरण रखा था। उत्तर दिशा में भगवान विष्णु का वह चरणचिह्न आज भी मौजूद है। द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मर्षे! उत्तर दिशा के ही उशीरबीज नामक स्थान में, जहाँ सुवर्णमय सरोवर है, राजा मरुत्त ने यज्ञ किया था।

   इसी दिशा में ब्रह्मर्षि महात्मा जीमूत के समक्ष हिमालय की पवित्र एवं निर्मल स्वर्णनिधि प्रकट हुई थी। उस सम्पूर्ण विशाल धनराशि को उन्होंने ब्राह्मणों में बाँट कर उसका सदुपयोग किया और ब्राह्मणों से यह वर मांगा कि यह धन मेरे नाम से प्रसिद्ध हो। इस कारण वह धन 'जैमूत' नाम से प्रसिद्ध हुआ। विप्रवर गालव! यहाँ प्रतिदिन सबेरे और संध्या के समय सभी दिक्पाल एकत्र हो उच्च स्वर से यह पूछते हैं कि किसको क्या काम है? 

   द्विजश्रेष्ठ! इन सब कारणों से तथा अन्यान्य गुणों के कारण यह दिशा उत्कृष्ट है और समस्त शुभ कर्मों के लिए भी यही उत्तम मानी गयी है। इसलिए इसे उत्तर कहते हैं। तात! इस प्रकार मैंने क्रमश: चारों दिशाओं का तुम्हारे सामने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। कहो, किस दिशा में चलना चाहते हो? द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण पृथ्वी तथा समस्त दिशाओं का दर्शन कराने के लिए उद्यत हूँ; अत: तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“गरुड़ की पीठ पर बैठकर पूर्व दिशा की ओर जाते हुए गालव का उनके वेग से व्याकुल होना”

    गालव ने कहा ;- गरुत्म्न! भुजगराजशत्रो! सुपर्ण! विनतानन्दन! तार्क्ष्य! तुम मुझे पूर्व दिशा की ओर ले चलो, जहाँ धर्म के नेत्रस्वरूप सूर्य और चंद्रमा प्रकाशित होते हैं। जिस दिशा का तुमने सबसे पहले वर्णन किया है, उसी दिशा की ओर पहले चलो; क्योंकि उस दिशा में तुमने देवताओं का सानिध्य बताया है तथा वहीं सत्य और धर्म की स्थिति का भी भली-भाँति प्रतिपादन किया है। अरुण के छोटे भाई गरुड़! मैं सम्पूर्ण देवताओं से मिलना और पुन: उन सबका दर्शन करना चाहता हूँ। 

   नारदजी कहते हैं ;- तब विनतानन्दन गरुड़ ने विप्रवर गालव से कहा,-

   गरुड़ बोले ;- 'तुम मेरे ऊपर चढ़ जाओ।' तब गालव मुनि गरुड़ की पीठ पर जा बैठे। 

   गालव ने कहा ;- सर्पभोजी गरुड़! पूर्वाह्णकाल में सहस्र किरणों से सुशोभित भुवनभास्कर सूर्य का स्वरूप जैसा दिखाई देता है, आकाश में उड़ते समय तुम्हारा स्वरूप भी वैसा ही दृष्टिगोचर होता है। खेचर! तुम्हारे पंखों की हवा से उखड़कर ये वृक्ष पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। मैं इनकी भी ऐसी तीव्र गति देख रहा हूँ, मानो ये भी हम लोगों के साथ चलने के लिए प्रस्थित हुए हों। आकाशचारी गरुड़! तुम अपने पंखों के वेग से उठी हुई वायु द्वारा समुद्र की जलराशि, पर्वत, वन और काननों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को अपनी ओर खींचते से जान पड़ते हो। 

   पांखों के हिलाने से निरंतर उठती हुई प्रचंड वायु के वेग से मत्स्य, जलहस्ती तथा मगरों सहित समुद्र का जल तुम्हारे द्वारा मानो आकाश में उछाल दिया जाता है। जिनके आकार और मुख एक-से हैं ऐसे मत्सयों को, तिमी और तिमिंगिलों को तथा हाथी, घोड़े और मनुष्यों के समान मुख वाले जल-जंतुओं को मैं उन्मथित हुए-से देखता हूँ।महासागर की इन भीषण गर्जनाओं ने मेरे कान बहरे कर दिये हैं। मैं न तो सुन पाता हूँ, न देख पाता हूँ और न अपने बचाव का कोई उपाय ही समझ पाता हूँ। 

   तात गरुड़! तुमसे कहीं ब्रह्म हत्या न हो जाये, इसका ध्यान रखते हुए धीरे-धीरे चलो। मुझे इस समय न तो सूर्य दिखाई देते हैं, न दिशाएँ सूझती हैं और न आकाश ही दृष्टिगोचर होता है। मुझे केवल अंधकार ही दिखाई देता है। मैं तुम्हारे शरीर को नहीं देख पाता हूँ। अंडज! तुम्हारी दोनों आँखें मुझे उत्तम जाति की दो मणियों के समान चमकती दिखाई देती हैं। मैं न तो तुम्हारे शरीर को देखता हूँ और न अपने शरीर को। मुझे पग-पग पर तुम्हारे अंगों से आग की लपटें उठती हुई दिखाई देती हैं। 

   विनतानन्दन! तुम उस आग को सहसा बुझाकर पुन: अपने दोनों नेत्रों को भी शांत करो और तुम्हारी गति में जो इतना महान वेग है, इसे रोको। गरुड़! इस यात्रा से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, अत: लौट चलो। महाभाग मैं! तुम्हारे वेग को नहीं सह सकता। मैंने गुरु को ऐसे आठ सौ घोड़े देने की प्रतिज्ञा की है, जो चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्ति से युक्त हों और जिनके कान एक ओर से श्याम रंग के हों।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-22 का हिन्दी अनुवाद)

   किन्तु अण्डज! उन घोड़ों के दिये जाने का कोई मार्ग मुझे नहीं दिखाई देता है। इसीलिए मैंने अपने जीवन के परित्याग का ही मार्ग चुना है। मेरे पास थोड़ा भी धन नहीं है, कोई धनी मित्र भी नहीं है और यह कार्य ऐसा है कि प्रचुर धनराशि का व्यय करने से भी सिद्ध नहीं हो सकता। 

   नारदजी कहते हैं ;- इस प्रकार बहुत दीन वचन बोलते हुए महर्षि गालव से विनतानन्दन गरुड़ ने चलते हुए ही हँसकर कहा-

   गरुड़ बोले ;- 'ब्रह्मर्षे! यदि तुम अपने प्राणों का परित्याग करना चाहते हो तो विशेष बुद्धिमान नहीं हो, क्योंकि मृत्यु कृत्रिम नहीं होती उसका अपनी इच्छा से निर्माण नहीं किया जा सकता। वह तो परमेश्वर का ही स्वरूप है। 'तुमने पहले ही मुझसे यह बात क्यों नहीं कह दी? मेरी दृष्टि में एक महान उपाय है, जिससे यह कार्य सिद्ध हो सकता है। 'गालव! समुद्र के निकट यह ऋषभ नामक पर्वत है, जहाँ विश्राम और भोजन करके हम दोनों लौट चलेंगे।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्योदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“ऋषभ पर्वत के शिखर पर महर्षि गालव और गरुड़ की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट तथा गरुड़ और गालव का गुरुदक्षिणा चुकाने के विषय में परस्पर विचार”

   नारदजी कहते है ;- तदनंतर गालव और गरुड़ ने ऋषभ पर्वत के शिखर पर उतरकर वहाँ तपस्विनी शाण्डिली ब्राह्मणी को देखा। गरुड़ ने उसे प्रणाम किया और गालव ने उसका आदर-सम्मान किया। तदनंतर उसने भी उन दोनों का स्वागत करके उन्हें आसन पर बैठने के लिए कहा। उसकी आज्ञा पाकर वे दोनों वहाँ आसन पर बैठ गए। तपस्विनी ने उन्हें बलिवैश्वदेव से बचा हुआ अभिमंत्रित सिद्धान्न अर्पण किया। उसे खाकर वे दोनों तृप्त हो गए और भूमि पर ही सो गए। तत्पश्चात निद्रा ने उन्हें अचेत कर दिया। 

   दो ही घड़ी के बाद मन में वहाँ से जाने की इच्छा लेकर गरुड़ जाग उठे। उठने पर उन्होंने अपने शरीर को दोनों पंखों से रहित देखा। आकाशचारी गरुड़ मुख और हाथों से युक्त होते हुए भी उन पंखों के बिना मांस के लोंदे से हो गए। उन्हें इस दशा में देखकर गालव का मन उदास हो गया और उन्होंने पूछा-

   गालव बोले ;- 'सखे! तुम्हें यहाँ आने का क्या फल मिला? इस अवस्था में हम दोनों को यहाँ कितने समय तक रहना पड़ेगा? 'तुमने अपने मन में कौन सा अशुभ चिंतन किया है, जो धर्म को दूषित करने वाला रहा है। मैं समझता हूँ, तुम्हारे द्वारा यहाँ कोई थोड़ा धर्मविरुद्ध कार्य नहीं हुआ होगा।' 

   तब गरुड़ ने विप्रवर गालव से कहा ;- 'ब्रह्मण! मैंने तो अपने मन में यही सोचा था कि इस सिद्ध तपस्विनी को वहाँ पहुँचा दूँ, जहाँ प्रजापति ब्रह्मा हैं, जहाँ महादेवजी हैं, जहाँ सनातन भगवान विष्णु हैं तथा जहाँ धर्म एवं यज्ञ है, वहीं इसे निवास करना चाहिये। 'अत: मैं भगवती शाण्डिली के चरणों में पड़कर यह प्रार्थना करता हूँ कि मैंने अपने चिंतनशील मन के द्वारा आपका प्रिय करने की इच्छा से ही यह बात सोची है।

   'आपके प्रति विशेष आदर का भाव होने से ही मैंने इस स्थान पर ऐसा चिंतन किया है, जो संभवत: आपको अभीष्ट नहीं रहा है। मेरे द्वारा यह पुण्य हुआ हो या पाप, अपने ही माहात्मय से आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें'। यह सुनकर तपस्विनी बहुत संतुष्ट हुई। उसने उस समय पक्षीराज गरुड़ और विप्रवर गालव से कहा- 'सुपर्ण! तुम्हारे पंख और भी सुंदर हो जाएँगे; अत: तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये। तुम घबराहट छोड़ो। 'वत्स! तुमने मेरी निंदा की है, मैं निंदा नहीं सहन करती हूँ। जो पापी मेरी निंदा करेगा, वह पुण्यलोकों से तत्काल भ्रष्ट हो जाएगा। 

   'समस्त अशुभ लक्षणों से हीन और अनिंदित रहकर सदाचार का पालन करते हुए ही मैंने उत्तम सिद्धि प्राप्त की है। 'आचार ही धर्म को सफल बनाता है, आचार ही धनरूपी फल देता है, आचार से मनुष्य को संपत्ति प्राप्त होती है और आचार ही अशुभ लक्षणों का भी नाश कर देता है। 'अत: आयुष्मान पक्षीराज! अब तुम यहाँ से अपने अभीष्ट स्थान को जाओ। आज से तुम्हें मेरी निंदा नहीं करनी चाहिये। मेरी ही क्यों, कहीं किसी भी स्त्री की निंदा करनी उचित नहीं है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्योदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-23 का हिन्दी अनुवाद)

    'अब तुम पहले की भाँति बल और पराक्रम से सम्पन्न हो जाओगे।' शाण्डिली के इतना कहते ही गरुड़ की पांखें पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो गईं। तत्पश्चात शाण्डिली की आज्ञा ले वे जैसे आए थे, वैसे ही चले गए। वे गालव के बताए अनुसार श्यामकर्ण घोड़े नहीं पा सके। इधर गालव को राह में आते देख वक्ताओं में श्रेष्ठ विश्वामित्र खड़े हो गए और गरुड़ के समीप उनसे इस प्रकार बोले- 

   विश्वामित्र बोले ;- 'ब्रह्मण! तुमने स्वयं ही जिस धन को देने की प्रतिज्ञा की थी, उसे देने का समय आ गया है। फिर तुम जैसा ठीक समझो, करो। मैं इतने ही समय तक और तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। ब्रह्मण! जिस प्रकार तुम्हें सफलता मिल सके, उस मार्ग का विचार करो।' तदनंतर दीन और अत्यंत दुखी हुए गालव मुनि से गरुड़ ने कहा,

   गरुड़ ने कहा ;- 'द्विजश्रेष्ठ गालव! विश्वामित्रजी ने मेरे सामने जो कुछ कहा है, आओ, उसके विषय में हम दोनों सलाह करें। तुम्हें अपने गुरु को उनका सारा धन चुकाए बिना चुप नहीं बैठना चाहिए।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“गरुड़ और गालव का राजा ययाति के यहाँ जाकर गुरु को देने के लिए श्यामकर्ण घोड़ों की याचना करना”

   नारदजी कहते हैं ;- तदनंतर पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़ ने दीन-दुखी गालव मुनि से इस प्रकार कहा,- 

   गरुड़ ने कहा ;- 'पृथ्वी के भीतर जो उनका सार तत्त्व है, उसे तपाकर अग्नि ने जिसका निर्माण किया है और उस अग्नि को उद्दीप्त करने वाली वायु ने जिसका शोधन किया है, उस सुवर्ण को हिरण्य कहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत हिरण्य प्रधान है; इसलिए भी उसे हिरण्य कहते हैं। 'वह इस जगत को स्वयं तो धारण करता ही है, दूसरों से भी धारण कराता है। इस कारण उस सुवर्ण का नाम धन है। यह धन तीनों लोकों में सदा स्थित रहता है। 'द्विजश्रेष्ठ! पूर्व भाद्रपद और उत्तरभाद्रपद इन दो नक्षत्रों में से किसी एक के साथ शुक्रवार का योग हो तो अग्निदेव कुबेर के लिए अपने संकल्प से धन का निर्माण करके उसे मनुष्यों को दे देते हैं। पूर्व भाद्रपद के देवता अजैकपाद, उत्तर भाद्रपद के देवता अहिबुर्धन्य और कुबेर- ये तीनों उस धन की रक्षा करते हैं। इस प्रकार किसी को भी ऐसा धन नहीं मिल सकता, जो प्रारब्धवश उसे मिलने वाला न हो और धन के बिना तुम्हें श्यामकर्ण घोड़ों की प्राप्ति नहीं हो सकती। 

    'इसलिए मेरी राय यह है कि तुम राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुए किसी ऐसे राजा के पास चलकर धन के लिए याचना करो, जो पुरवासियों को पीड़ा दिये बिना ही हम दोनों को धन देकर कृतार्थ कर सकें। 'चंद्रवंश में उत्पन्न एक राजा हैं, जो मेरे मित्र हैं। हम दोनों उन्हीं के पास चलें। इस भूतल पर उनके पास अवश्य ही धन है। मेरे उन मित्र का नाम है राजर्षि ययाति, जो महाराज नहुष के पुत्र हैं। वे सत्यपराक्रमी वीर हैं। तुम्हारे मांगनें और मेरे कहने पर वे स्वयं ही तुम्हें धन देंगे। 'उनके पास धनाध्यक्ष कुबेर की भाँति महान वैभव रहा है। विद्वन! इस प्रकार दान लेकर ही तुम गुरुदक्षिणा का ऋण चुका दो।' इस प्रकार परस्पर बात करते और उचित कर्तव्य को मन-ही-मन सोचते हुए वे दोनों प्रतिष्ठानपुर में राजा ययाति के दरबार में उपस्थित हुए। राजा के द्वारा सत्कारपूर्वक दिये हुए श्रेष्ठ अर्घ्य-पाद्य आदि ग्रहण करके विनतानन्दन गरुड़ ने उनके पूछने पर अपने आगमन का प्रयोजन इस प्रकार बताया- 

  गरुड़ ने कहा ;- 'नहुषनंदन! ये तपोनिधि गालव मेरे मित्र हैं। राजन! ये दस हजार वर्षों तक महर्षि विश्वामित्र के शिष्य रहे हैं। 'विश्वामित्र जी ने इनकी सेवा के बदले इनका भी उपकार करने की इच्छा से इन्हें घर जाने की आज्ञा दे दी। 

   तब इन्होंने उनसे पूछा ;- 'भगवन! मैं आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ? 'इनके बार-बार आग्रह करने पर विश्वामित्रजी को कुछ क्रोध आ गया; अत: इनके पास धन का अभाव है, यह जानते हुए भी उन्होंने इनसे कहा,

  विश्वामित्र जी ने कहा ;- 'लाओ, गुरुदक्षिणा दो। गालव! मुझे अच्छी जाति में उत्पन्न हुए ऐसे आठ सौ घोड़े दो, जिनकी अंगकान्ति चंद्रमा के समान उज्ज्वल और कान एक ओर से श्याम रंग के हों। गालव! यदि तुम मेरी बात मानो तो यही गुरुदक्षिणा ला दो।' तपोधन विश्वामित्र ने यह बात कुपित होकर ही कही थी। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-20 का हिन्दी अनुवाद)

   'अत: ये द्विजश्रेष्ठ गालव महान शोक से संतप्त हो गुरुदक्षिणा चुकाने में असमर्थ हो गए हैं और इसलिए आपकी शरण में आए हैं। 'पुरुषसिंह! आपसे भिक्षा ग्रहण करके गुरु को पूर्वोक्त धन देकर ये क्लेश रहित हो महान तप में संलग्न हो जाएँगे। अपनी तपस्या के एक अंश से ये आपको भी संयुक्त करेंगे। यद्यपि आप अपनी राजर्षिजनोचित तपस्या से पूर्ण हैं, तथापि ये अपने ब्राह्म तप से आपको और भी परिपूर्ण करेंगे। 

   'नरेश्वर! भूपाल! यहाँ दान किए हुए घोड़ों के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, दान करने वाले लोगों को परलोक में उतने ही घोड़े प्राप्त होते हैं। 'ये गालव दान लेने के सुयोग्य पात्र हैं और आप दान करने के श्रेष्ठ अधिकारी हैं। जैसे शंख में दूध रखा गया हो, उसी प्रकार इनके हाथ में दिये हुए आपके इस दान की शोभा होगी।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा ययाति का गालव को अपनी कन्या देना और गालव का उसे लेकर अयोध्यानरेश के यहाँ जाना”

   नारदजी कहते हैं ;- गरुड़ ने जब इस प्रकार यथार्थ और उत्तम बात कही, तब सहसत्रों यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले, दाता, दानपति, प्रभावशाली तथा राजोचित तेज से प्रकाशित होने वाले सम्पूर्ण नरेशों के स्वामी महाराज ययाति ने सावधानी के साथ बारंबार विचार करके एक निश्चय पर पहुँचकर इस प्रकार कहा। 

राजा ने पहले अपने प्रिय मित्र गरुड़ तथा तपस्या के मूर्तिमान स्वरूप विप्रवर गालव को अपने यहाँ उपस्थित देख और उनकी बताई हुई स्पृहणीय भिक्षा की बात सुनकर मन में इस प्रकार विचार किया- 'ये दोनों सूर्यवंश में उत्पन्न हुए दूसरे अनेक राजाओं को छोड़कर मेरे पास आए हैं।' ऐसा विचार कर वे बोले- 

    राजा ययाति बोले ;- 'निष्पाप गरुड़! आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरे कुल का उद्धार हो गया और आज आपने मेरे इस सम्पूर्ण देश को भी तार दिया। 'सखे! फिर भी मैं एक बात कहना चाहता हूँ। आप पहले से मुझे जैसा धनवान समझते है, वैसा धनसंपन्न अब मैं नहीं रह गया हूँ। मित्र! मेरा वैभव इन दिनों क्षीण हो गया है। 'आकाशचारी गरुड़! इस दशा में भी मैं आपके आगमन को निष्फल करने में असमर्थ हूँ और इन ब्रह्मर्षि की आशा को भी मैं विफल करना नहीं चाहता। 'अत: मैं एक ऐसी वस्तु दूंगा, जो इस कार्य का सम्पादन कर देगी। अपने पास आकर कोई याचक हताश हो जाये तो वह लौटने पर आशा भंग करने वाले राजा के समूचे कुल को दग्ध कर देता है।

      'विनतानन्दन! लोक में कोई 'दीजिये' कहकर कुछ मांगे और उससे यह कह दिया जाए की जाओ मेरे पास नहीं है, इस प्रकार याचक की आशा को भंग करने से जितना पाप लगता है, इससे बढ़कर पाप की दूसरी कोई बात नहीं कही जाती है। 'कोई श्रेष्ठ मनुष्य जब कहीं याचना करके हताश एवं असफल होता है, तब वह मरे हुए के समान हो जाता है और अपना हित न करने वाले धनी के पुत्रों तथा पौत्रों का नाश कर डालता है। 

   'अत: मेरी जो यह पुत्री है, यह चार कुलों की स्थापना करने वाली है। इसकी कान्ति देवकन्या के समान है। यह सम्पूर्ण धर्मों की वृद्धि करने वाली है। 'गालव! इसके रूप-सौन्दर्य से आकृष्ट होकर देवता, मनुष्य तथा असुर सभी लोग सदा इसे पाने की अभिलाषा रखते हैं; अत: आप मेरी इस पुत्री को ही ग्रहण कीजिये। 'इसके शुल्क के रूप में राज लोग निश्चय ही अपना राज्य भी आपको दे देंगे; फिर आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों की तो बात ही क्या है? 

    'अत: प्रभो! आप मेरी इस पुत्री माधवी को ग्रहण करें और मुझे यह वर दें कि मैं दौहित्रवान होऊँ। तब गरुड़ सहित गालव ने उस कन्या को लेकर कहा,

  गालव ने कहा ;- 'अच्छा, हम फिर कभी मिलेंगे।' राजा से ऐसा कहकर गालव मुनि कन्या के साथ वहाँ से चल दिये। तदनंतर गरुड़ भी यह कहकर कि अब तुम्हें घोड़ों की प्राप्ति का यह द्वार प्राप्त हो गया, गालव से विदा ले अपने घर को चले गए। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद)

    पक्षीराज गरुड़ के चले जाने पर गालव उस कन्या के साथ यह सोचते हुए चल दिये कि राजाओं में से कौन ऐसा नरेश है, जो इस कन्या का शुल्क देने में समर्थ हो। वे मन-ही-मन विचार करके अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी नृपतिशिरोमणि महापराक्रमी हर्यश्व के पास गए, जो चतुरंगिणी सेना से सम्पन्न थे। वे कोष, धन-धान्य और सैनिक बल- सबसे सम्पन्न थे। पुरवासी प्रजा उन्हें बहुत ही प्रिय थी। ब्राह्मणों के प्रति उनका अधिक प्रेम था। वे प्रजावर्ग के हित की इच्छा रखते थे। उनका मन भोगों से विरक्त एवं शांत था। वे उत्तम तपस्या में लगे हुए थे। 

    राजा हर्यश्व के पास जाकर विप्रवर गालव ने कहा,

   गालव ने कहा ;- 'राजेन्द्र! मेरी यह कन्या अपनी संतानों द्वारा वंश की वृद्धि करने वाली है। तुम शुल्क देकर इसे अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करो। हर्यश्व! मैं तुम्हें पहले इसका शुल्क बताऊंगा। उसे सुनकर तुम अपने कर्तव्य का निश्चय करो।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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