सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो छवें अध्याय से एक सो दसवें अध्याय तक (From the 106 chapter to the 110 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ छवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“नारद जी का दुर्योधन को समझाते हुए धर्मराज के द्वारा विश्वामित्र जी की परीक्षा तथा गालव के विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा मांगने के लिए हठ का वर्णन”

   जनमेजय ने कहा ;- भगवन! दुर्योधन का अनर्थकारी कार्यों में ही अधिक आग्रह था। पराये धन के प्रति अधिक लोभ रखने के कारण वह मोहित हो गया था। दुर्जनों में ही उसका अनुराग था। उसने मरने का ही निश्चय कर लिया था। वह कुटुम्बी जनों के लिए दुख:दायक और भाई-बंधुओं के शोक को बढ़ाने वाला था। सुहृदों को क्लेश पहुँचाता और शत्रुओं का हर्ष बढ़ाता था। ऐसे कुमार्ग पर चलने वाले इस दुर्योधन को उसके भाई-बंधु रोकते क्यों नहीं थे? कोई सुहृद, स्नेही अथवा पितामह भगवान व्यास उसे सौहार्दवश मना क्यों नहीं करते थे? 

   वैशम्पायन जी बोले ;- राजन! भगवान वेदव्यास ने भी दुर्योधन से उसके हित की बात कही। भीष्म जी ने भी जो उचित कर्तव्य था, वह बताया। इसके सिवा नारद जी ने भी नाना प्रकार के उपदेश दिये। वह सब तुम सुनो।

  नारद जी ने कहा ;- अकारण हित चाहने वाले सुहृद की बातों को जो मन लगाकर सुने, ऐसे श्रोता दुर्लभ है। हितैषी सुहृद भी दुर्लभ ही है, क्योंकि महान संकट में सुहृद ही खड़ा हो सकता है, वहाँ भाई-बंधु नहीं ठहर सकते। कुरुनंदन! मैं देखता हूँ कि तुम्हें अपने सुहृदों के उपदेश को सुनने की विशेष आवश्यकता है; अत: तुम्हें किसी एक बात का दुराग्रह नहीं रखना चाहिए। आग्रह का परिणाम बड़ा भयंकर होता है। इस विषय में विज्ञ पुरुष इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिससे ज्ञात होता है की महर्षि गालव ने हठ या दुराग्रह के कारण पराजय प्राप्त की थी। पहले की बात है, साक्षात धर्मराज महर्षि भगवान वशिष्ठ का रूप धारण करके तपस्या में लगे हुए विश्वामित्र के पास उनकी परीक्षा लेने के लिए आए। भारत! धर्म सप्तर्षियों में से एक वशिष्ठ जी का वेश धारण करके भूख से पीड़ित हो भोजन की इच्छा से विश्वामित्र के आश्रम पर आए। विश्वामित्र जी ने बड़ी उतावली के साथ उनके लिए उत्तम भोजन देने की इच्छा से यत्नपूर्वक चरुपाक बनाना आरंभ किया; परंतु ये अतिथि देवता उनकी प्रतीक्षा न कर सके। 

    उन्होंने जब दूसरे तपस्वी मुनियों का दिया हुआ अन्न खा लिया, तब विश्वामित्र जी भी अत्यंत उष्ण भोजन लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हुये। उस समय भगवान धर्म यह कहकर कि मैंने भोजन कर लिया, अब तुम रहने दो, वहाँ से चल दिये। राजन! तब महातेजस्वी विश्वामित्र मुनि वहाँ उसी अवस्था में खड़े ही रह गए। कठोर व्रत का पालन करने वाले विश्वामित्र ने दोनों हाथों से उस भोजनपात्र को थामकर माथे पर रख लिया और आश्रम के समीप ही ठूँठे पेड़ की भाँति वे निश्चेष्ट खड़े रहे। उस अवस्था में केवल वायु ही उनका आहार था। उन दिनों उनके प्रति गौरवबुद्धि, विशेष आदर सम्मान का भाव तथा प्रेम भक्ति होने के कारण उनकी प्रसन्नता के लिए गालव मुनि यत्नपूर्वक उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगे रहते थे। तदनंतर सौ वर्ष पूर्ण होने पर पुन: धर्मदेव वशिष्ठ मुनि का वेश धारण करके भोजन की इच्छा से विश्वामित्र मुनि के पास आए।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

   उन्होंने देखा कि परम बुद्धिमान महर्षि विश्वामित्र केवल वायु पीकर रहते हुए सिर पर भोजन पात्र रखे खड़े हैं। यह देखकर धर्म ने वह भोजन ले लिया। वह अन्न उसी प्रकार तुरंत तैयार की हुई रसोई के समान गरम था। उसे खाकर वे बोले,,

   धर्म बोले ;- 'ब्रह्मर्षे! मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ।' ऐसा कहकर मुनि वेषधारी धर्मदेव चले गए। क्षत्रियत्व से ऊंचें उठकर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए विश्वामित्र को धर्म वचन से उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने शिष्य तपस्वी गालव मुनि की सेवा-शुश्रूषा तथा भक्ति से संतुष्ट होकर बोले,

   विश्वामित्र बोले ;- 'वत्स गालव! अब मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ।' उनके इस प्रकार आदेश देने पर गालव ने प्रसन्नता प्रकट करते हुये मधुर वाणी में महातेजस्वी मुनिवर विश्वामित्र से इस प्रकार पूछा,

   गालव मुनि ने पूछा ;- 'भगवन! मैं आपको गुरुदक्षिणा के रूप में क्या दूँ? 'मानद! दक्षिणायुक्त कर्म ही सफल होता है। दक्षिणा देने वाले पुरुष को ही सिद्धि प्राप्त होती है।'दक्षिणा देने वाला मनुष्य ही स्वर्ग में यज्ञ का फल पाता है। वेद में दक्षिणा को ही शांतिप्रद बताया गया है। अत: पूज्य गुरुदेव! बतावें कि मैं क्या गुरुदक्षिणा ले आऊँ? गालव की सेवा-शुश्रूषा से भगवान विश्वामित्र उनके वश में हो गए थे।

    अत: उनके उपकार को समझते हुए विश्वामित्र ने उनसे बार-बार कहा,

  विश्वामित्र ने कहा ;- 'जाओ, जाओ'। उनके द्वारा बारबार- 'जाओ, जाओ' की आज्ञा मिलने पर भी गालव ने अनेक बार आग्रहपूर्वक पूछा,

   गालव बोला ;- 'मैं आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ?' तपस्वी गालव के बहुत आग्रह करने पर विश्वामित्र को कुछ क्रोध आ गया; अत: उन्होंने इस प्रकार कहा, 

   विश्वामित्र ने कहा ;- 'गालव! तुम मुझे चंद्रमा के समान श्वेत रंग वाले ऐसे आठ सौ घोड़े दो, जिनके कान एक ओर से श्याम वर्ण के हों। जाओ, देर न करो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“गालव की चिंता और गरुड़ का आकर उन्हें आश्वासन देना”

  नारद जी ने कहा ;- राजन! उस समय परम बुद्धिमान विश्वामित्र के ऐसा कहने पर गालव मुनि तब से न कहीं बैठते, न सोते और न भोजन ही करते थे। वे चिंता और शोक में डूबे रहने के कारण पाण्डुवर्ण के हो गए। उनके शरीर में अस्थि-चर्ममात्र ही शेष रह गए थे। सुयोधन! अत्यंत शोक करते और चिंता की आग में दग्ध होते हुए दुखी गालव मुनि दुःख से विलाप करने लगे।

   'मेरे ऐसे मित्र कहाँ, जो धन से पुष्ट हों? मुझे कहाँ से धन प्राप्त होगा? कहाँ मेरे लिए धन संग्रह करके रखा हुआ है? और कहाँ से मुझे चंद्रमा के समान श्वेतवर्ण वाले आठसौ घोड़े प्राप्त होंगे? 'ऐसी दशा में मुझे भोजन की रुचि कहाँ से हो? सुख भोगने की इच्छा कहाँ से हो? और इस जीवन से भी मुझे क्या प्रयोजन है? इस जीवन को सुरक्षित रखने के लिए मेरा जो उत्साह था, वह भी नष्ट हो गया। 

   'मैं समुद्र के उस पार अथवा पृथ्वी से बहुत दूर जाकर इस शरीर को त्याग दूंगा। अब मेरे जीवित रहने से क्या लाभ है? 'जो निर्धन है, जिसके अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि नहीं हुई है तथा जो नाना प्रकार के शुभ कर्मफलों से वंचित होकर केवल ऋण का बोझ ढो रहा है, ऐसे मनुष्य को बिना उद्यम के जीवन धारण करने से क्या सुख होगा? 

    'जो इच्छानुसार प्रेम-संबंध स्थापित करके सुहृदों का धन भोगकर उनका प्रत्युपकार करने में असमर्थ हो, उसके जीने से मर जाना ही अच्छा है। 'जो 'करूंगा' ऐसा कहकर किसी कार्य को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ले, परंतु आगे चलकर उस कर्तव्य का पालन न कर सके, उस असत्य भाषण से दग्ध हुए पुरुष के 'इष्ट' और 'आपूर्त' सभी नष्ट हो जाते हैं। 

    'सत्य से शून्य मनुष्य का जीवन नहीं के बराबर है। मिथ्यावादी को संतति नहीं प्राप्त होती। झूठे को प्रभुत्व नहीं मिलता, फिर उसे शुभ गति कैसे प्राप्त हो सकती है? 'कृतघ्न मनुष्य को सुयश कहाँ? स्थान या प्रतिष्ठा कहाँ और सुख भी कहाँ है? कृतघ्न मानव अविश्वसनीय होता है, उसका कभी उद्धार नहीं होता है। 'निर्धन एवं पापी मनुष्य का जीवन वास्तव में जीवन नहीं है। पापी मनुष्य अपने कुटुंब का पोषण भी कैसे कर सकता है? पापात्मा पुरुष अपने पुण्य कर्मों का नाश करता हुआ स्वयं भी निश्चय ही नष्ट हो जाता है। 

    'मैं पापी, कृतघ्न, कृपण और मिथ्यावादी हूँ, जिसने गुरु से तो अपना काम करा लिया, परंतु स्वयं जो उन्हें देने की प्रतिज्ञा की है, उसकी पूर्ति नहीं कर पा रहा हूँ। 'अत: मैं कोई उत्तम प्रयत्न करके अपने प्राणों का परित्याग कर दूंगा। मैंने आज से पहले देवताओं से भी कभी कोई याचना नहीं की है। सब देवता यज्ञ में मेरा समादर करते हैं। 'अब मैं त्रिभुवन के स्वामी एवं जंगम जीवों के सर्वश्रेष्ठ आश्रय सुरश्रेष्ठ सच्चिदानंदघन भगवान विष्णु की शरण में जाता हूँ। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-19 का हिन्दी अनुवाद)

   'जिनकी कृपा से समस्त देवताओं और असुरों को भी यथेष्ट भोग प्राप्त होते हैं, उन्हीं अविनाशी योगी भगवान विष्णु का मैं प्रणतभाव से दर्शन करना चाहता हूँ।' गालव के इस प्रकार कहने पर उनके सखा विनतानन्दन गरुड़ ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनका प्रिय करने की इच्छा से उन्हें दर्शन दिया और इस प्रकार कहा,

   गरुड़ बोले ;- 'गालव! तुम मेरे प्रिय सुहृद हो और मेरे सुहृदों के भी प्रिय सुहृद हो। सुहृदों का यह कर्तव्य है कि यदि उनके पास धन-वैभव हो तो वे उसका अपने सुहृद का अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करने के लिए उपयोग करें। 'ब्रह्मन! मेरे सबसे बड़े वैभव हैं इन्द्र के छोटे भाई भगवान विष्णु। मैंने पहले तुम्हारे लिए उनसे निवेदन किया था और उन्होंने मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार करके मेरा मनोरथ पूर्ण किया था।

   'अत: आओ' हम दोनों चलें। गालव! मैं तुम्हें सुखपूर्वक ऐसे देश में पहुँचा दूंगा, जो पृथ्वी के अंतर्गत तथा समुद्र के उस पार है। चलो, विलंब न करो।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना”

  गरुड़ ने कहा ;- गालव! अनादिदेव भगवान विष्णु ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं तुम्हारी सहायता करूँ। अत: तुम अपनी इच्छा के अनुसार बताओ कि मैं सबसे पहले किस दिशा की ओर चलूँ? द्विजश्रेष्ठ गालव! बोलो, मैं पूर्व, दक्षिण, पश्चिम अथवा उत्तर में किस दिशा की ओर चलूँ?

    विप्रवर! जिस दिशा में सम्पूर्ण जगत को उत्पन्न एवं प्रभावित करने वाले भगवान सूर्य प्रथम उदित होते हैं; जिस दिशा में संध्या के समय साध्यगन तपस्या करते हैं, जिस दिशा में गायत्री जप द्वारा पहले वह बुद्धि प्राप्त हुई है, जिसने सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है, धर्म के युगल नेत्रस्वरूप चंद्रमा और सूर्य पहले जिस दिशा में उदित होते हैं और जहाँ धर्म प्रतिष्ठित हुआ है तथा जिस दिशा में पवित्र हविष्य का हवन करने पर वह आहुती सम्पूर्ण दिशाओं में फैल जाती है, वही यह पूर्वदिशा दिन एवं सूर्यमार्ग का द्वार है। 

    इसी दिशा में प्रजापति दक्ष की अदिति आदि कन्याओं ने सबसे पहले प्रजावर्ग को उत्पन्न किया था और इसी में प्रजापति कश्यप की सन्तानें वृद्धि को प्राप्त हुई हैं। ब्रह्मर्षे! देवताओं की लक्ष्मी का मूलस्थान पूर्व दिशा ही है। इसी में इन्द्र का देवसम्राट के पद पर प्रथम अभिषेक हुआ है और इसी दिशा में देवताओं ने तपस्या की है। 

    ब्रहमन! इन्हीं सब कारणों से इस दिशा को 'पूर्वा' कहते हैं, क्योंकि अत्यंत पूर्वकाल में पहले यही दिशा देवताओं से आवृत हुई थी, अतएव इसे सबकी आदि दिशा कहते हैं। सुख की अभिलाषा रखने वाले लोगों को देव संबंधी सारे कार्य पहले इसी दिशा में करने चाहिए। लोकस्रष्टा भगवान ब्रह्मा ने पहले इसी दिशा में वेदों का गान किया था और सविता देवता ने ब्रह्मवादी मुनियों को यहीं सावित्रीमंत्र का उपदेश किया था। 

     द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में सूर्यदेव ने महर्षि याज्ञवलक्य को शुक्लयजुर्वेद के मंत्र दिये थे और इसी दिशा में देवता लोग यज्ञों में उस सोमरस का पान करते हैं, जो उन्हें वरदान में प्राप्त हो चुका है। इसी दिशा में यज्ञों द्वारा तृप्त हुए अग्निगण अपने योनिस्वरूप जल का उपभोग करते हैं। यहीं वरुण ने पाताल का आश्रय लेकर लक्ष्मी को प्राप्त किया था। द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में पुरातन महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई है। यहीं उन्हें प्रतिष्ठा की प्राप्ति हुई है और इसी दिशा में उन्हें निमि के शाप से देहत्याग करना पड़ा है। 

   इसी दिशा में प्रणव अर्थात वेद की सहसत्रों शाखाएँ प्रकट हुई हैं और उसी में धूमपायी महर्षिगण हविष्य के धूम का पान करते हैं। इसी दिशा में देवराज इन्द्र ने यज्ञभाग की सिद्धि के लिए वन में जंगली सूअर आदि हिंसक पशुओं को प्रोक्षित करके देवताओं को सौंपा था। इस दिशा में उदित होने वाले भगवान सूर्य जो दूसरों का अहित करने वाले एवं कृतघ्न मनुष्य और असुर होते हैं, उन सबका क्रोधपूर्वक विनाश करते हैं। गालव! यह पूर्व दिग्विभाग ही त्रिलोकी का, स्वर्ग का और सुख का भी द्वार है। तुम्हारी इच्छा हो तो हम दोनों इसमें प्रवेश करें। मैं जिनकी आज्ञा के अधीन हूँ, उन भगवान विष्णु का प्रिय कार्य मुझे अवश्य करना है; अत: गालव! बताओ, क्या मैं पूर्व दिशा में चलूँ अथवा दूसरी दिशा का भी वर्णन सुन लो। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ नोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“दक्षिण दिशा का वर्णन”

   गरुड़ कहते हैं ;- गालव! यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकाल में भगवान सूर्य ने वेदोक्त विधि के अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यप को दक्षिणा रूप से इस दिशा का दान किया था, इसलिए इसे दक्षिण दिशा कहते हैं। ब्रह्मण! तीनों लोकों के पितृगण इसी दिशा में प्रतिष्ठित हैं तथा 'ऊष्मप' नामक देवताओं का निवास भी इसी दिशा में सुना जाता है। 

   पितरों के साथ विश्वेदेवगण सदा दक्षिण दिशा में ही वास करते हैं। वे समस्त लोकों में पूजित हो श्राद्ध में पितरों के समान ही भाग प्राप्त करते हैं। विप्रवर! विद्वान पुरुष इस दक्षिण दिशा को धर्म देवता का दूसरा द्वार कहते हैं। यहीं चित्रगुप्त आदि के द्वारा 'त्रुटि' और 'लव' आदि सूक्ष्म से सूक्ष्म कालांशों पर दृष्टि रखते हुये प्राणियों की आयु की निश्चित गणना की जाती है। 

   देवर्षि, पितृलोक के ऋषि तथा समस्त राजर्षिगण दुःख रहित हो सदा इसी दिशा में निवास करते हैं। द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशा में रहकर चित्रगुप्त आदि के द्वारा धर्मराज के निकट प्राणियों के धर्म, सत्य तथा साधारण कर्मों के विषय में कहा जाता है। मृत प्राणी तथा उनके कर्म इसी दिशा का आश्रय लेते हैं। विप्रवर! यह वह दिशा है, जिसमें मृत्यु के पश्चात सभी प्राणियों को जाना पड़ता है। यह सदा अज्ञानान्धकार से आवृत रहती है, इसलिए इसमें सुखपूर्वक यात्रा संभव नहीं हो पाती है। द्विजश्रेष्ठ! ब्रहमाजी ने इस दिशा में प्रतिकूल स्वभाव एवं आचरण वाले सहसत्रों राक्षसों की सृष्टि की है, जिनका दर्शन अशुद्ध अंत:करण वाले पुरुषों को ही होता है।

   ब्रह्मण! इसी दिशा में गंधर्वगण मंदराचल के कुओं और ब्रहमर्षियों के आश्रमों में मन और बुद्धि को आकर्षित करने वाली गाथाओं का गान करते हैं। पूर्वकाल में यहीं राजा रैवत गाथाओं के रूप में सामगान सुनते-सुनते अपनी स्त्री, मंत्री तथा राज्य से भी वियुक्त हो वन में चले गए थे। ब्रह्मण! इसी दिशा में सावर्णि मनु तथा यवक्रीत के पुत्र ने सूर्य की गति के लिए मर्यादा  स्थापित की थी, जिसका सूर्यदेव कभी उल्लंघन नहीं करते हैं। पुलस्त्यवंशी राक्षसराज महामना रावण ने इसी दिशा में तपस्या करके देवताओं से अवध्य होने का वरदान प्राप्त किया था। इसी दिशा में घटित हुई घटना के कारण वृत्रासुर देवराज इन्द्र का शत्रु बन बैठा था। दक्षिण दिशा में ही आकर सबके प्राण पुन: पाँच भागों में बँट जाते हैं अर्थात प्राणी नूतन देह धारण करते हैं। गालव! इसी दिशा में पापाचारी मनुष्य नरकों की आग में पकाए जाते हैं। दक्षिण में ही वह वैतरणी नदी है, जो वैतरणी नरक के अधिकारी पापियों से घिरी रहती है। मनुष्य इसी दिशा में जाकर सुख और दुःख के अंत को प्राप्त होता है। इसी दक्षिण दिशा में लौटने पर अर्थात उत्तरायण के अंतिम भाग में पहुँचकर दक्षिणायन के आरंभ में आने पर जबकि वर्षा ऋतु रहती है, सूर्यदेव सुस्वादु जल की वर्षा करते हैं। फिर वशिष्ठ मुनि के द्वारा सेवित उत्तर दिशा में पहुँचकर अर्थात उत्तरायण के आरंभ में जबकि शिशिर ऋतु रहती है, वे ओले गिराते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-21 का हिन्दी अनुवाद)

  गालव! पूर्वकाल की बात है, मैं भूख से पीड़ित होकर भारी चिंता में पड़ गया था, परंतु इसी दिशा में आने पर दो विशाल प्राणी‌- हाथी और कछुआ मेरे हाथ लग गये, जो आपस में लड़ रहे थे। सूर्य के समान तेजस्वी महर्षि कर्दम से उत्पन्न हुए 'चक्र-धनु' नामक महर्षि इसी दिशा में रहते थे, जिन्हें सब लोग 'कपिलदेव' के नाम से जानते हैं। उन्होंने ही सगर के पुत्रों को भस्म कर दिया था। 

इसी दिशा में 'शिव' नाम से प्रसिद्ध कुछ सिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों के पारंगत पंडित थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करके अक्षय मोक्ष प्राप्त कर लिया। दक्षिण में ही वासुकि द्वारा पालित तथा तक्षक एवं एरावत नाग द्वारा सुरक्षित भोगवती नामक पुरी है। मृत्यु के पश्चात इस दिशा में जाने वाले प्राणी को ऐसे घोर अंधकार का सामना करना पड़ता है, जो साक्षात अग्नि एवं सूर्य के लिए भी अभेद्य है।

    गालव! तुम मेरे द्वारा परिचर्या पाने के योग्य हो, अत: तुम्हें यह दक्षिण मार्ग बताया है, यदि इस दिशा में चलना हो तो मुझसे कहो अथवा अब तीसरी पश्चिम दिशा का वर्णन सुनो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“पश्चिम दिशा का वर्णन”

   गरुड़ कहते हैं ;- गालव! यह जो सामने की दिशा है, जल के स्वामी दिक्पाल राजा वरुण को सदा ही अत्यंत प्रिय है। यही उनका आश्रय और उत्पतिस्थान है। द्विजश्रेष्ठ! दिन के पश्चात सूर्यदेव इसी दिशा में स्वयं अपनी किरणों का विसर्जन करते हैं, इसलिए यह 'पश्चिम' के नाम से विख्यात है। पूर्वकाल में भगवान कश्यपदेव ने जल-जंतुओं का आधिपत्य और जल की रक्षा करने के लिए इसी दिशा में वरुण का अभिषेक किया था। 

   अंधकार का नाश करने वाले चंद्रमा वरुण के निकट रहकर छ: प्रकार के सम्पूर्ण रसों का पान करके शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को इसी दिशा में नूतनता को प्राप्त होकर उदित होते हैं। ब्रह्मण! पूर्वकाल में वायुदेव ने अपने महान वेग से यहाँ युद्ध में दैत्यों को पराड्मुख, आबद्ध और पीड़ित किया था, जिससे वे लंबी सांस छोड़ते हुए धराशायी हो गए थे। 

   इसी दिशा में अस्ताचल है, जो अपने प्रीतिपात्र सूर्यदेव को प्रतिदिन ग्रहण करता है। वहीं से पश्चिम संध्या का प्रसार होता है। इसी दिशा के दिन के अंत में मानो जीव-जगत की आधी आयु हर लेने के लिए रात्रि एवं निद्रा का प्राकट्य होता है। इसी दिशा में देवराज इन्द्र ने सोयी हुई गर्भवती दिति देवी के उदर में प्रवेश करके उसके गर्भ का उच्छेद किया था, जिससे मरुदगणों की उत्पत्ति हुई। इसी दिशा में हिमालय का मूलभाग सदा मंदराचल तक फैलकर उसका स्पर्श करता है। सहसत्रों वर्षों में भी इसका अंत पाना असंभव है।

   इसी दिशा में सुवर्णमय पर्वत मंदराचल तथा स्वर्णमय कमलों से सुशोभित क्षीरसागर के तट पर पहुँचकर सुरभिदेवी अपने दूध का निर्झर बहाती है। पश्चिम दिशा में ही समुद्र के भीतर सूर्य के समान तेजस्वी उस राहू का कबंध (धड़) दिखाई देता है, जो सूर्य और चंद्रमा को मार डालने की इच्छा रखता है।

  इसी दिशा में पिंड्गलवर्ण के केशों से सुशोभित, अप्रमेय प्रभावशाली एवं अदृश्यमूर्ति मुनिवर सुवर्णशिरा सामगान करते हैं। उनके इस गीत की विपुल ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। इसी दिशा में हरिमेधा मुनि की कुमारी कन्या ध्वजवती निवास करती है, जो सूर्यदेव की 'ठहरो' 'ठहरो' इस आज्ञा से आकाश में स्थित है। 

  गालव! वायु, अग्नि, जल और आकाश- ये सब इस दिशा में रात्रि और दिन के दुःखदायी स्पर्श का परित्याग करते हैं अर्थात यहाँ इनका स्पर्श सदा सुखद ही होता है। इसी दिशा से सूर्यदेव तिरछी गति से चक्कर लगाना आरंभ करते हैं। यहीं सम्पूर्ण ज्योतियाँ सूर्यमण्डल में प्रवेश करती हैं। अभिजीत सहित अट्ठाईस नक्षत्रों में प्रत्येक अट्ठाईसवें दिन सूर्य के साथ विचरण करके अमावस्या के बाद फिर सूर्यमण्डल से पृथक हो जाता है। इसी दिशा से उन अधिकांश नदियों का प्राकट्य हुआ है, जिनके जल से समुद्र की पूर्ति होती रहती है। यहीं के वरुनालय में त्रिभुवन के लिए उपयोगी जलराशि संचित है।

    यहाँ नागराज अनंत का निवास तथा आदि-अंत से रहित भगवान विष्णु का सर्वोत्कृष्ट स्थान है। इसी दिशा में अग्निदेव के सखा वायुदेव का भवन तथा मरीचिनंदन महर्षि कश्यप का आश्रम है। द्विजश्रेष्ठ गालव! इस प्रकार मैंने तुम्हें संक्षेप से पश्चिम का मार्ग बताया है। अब बताओ, तुम्हारा क्या विचार है? हम दोनों किस दिशा की ओर चलें? 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में गालव चरित्र विषयक एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें