सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के एक सो एकवें अध्याय से एक सो पाचवें अध्याय तक (From the 101 chapter to the 105 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन”

   नारद जी कहते हैं ;- मातले! यह सर्पभोजी गरुड़वंशी पक्षियों का लोक है, जिन्हें पराक्रम प्रकट करने, दूर तक उड़ने और महान भार ढोने में तनिक भी परिश्रम नहीं होता। देवसारथी मातले! यहाँ विनतानन्दन गरुड़ के छ: पुत्रों ने अपनी वंश परंपरा का विस्तार किया है,। 

   जिनके नाम इस प्रकार हैं,- सुमुख, सुनामा, सुनेत्र, सुवर्चा, सुरूच तथा पक्षीराज सुबल। विनता के वंश की वृद्धि करने वाले, कश्यप कुल में उत्पन्न हुए तथा ऐश्वर्य का विस्तार करने वाले इन छहों पक्षियों ने गरुड़-जाती की सैकड़ों और सहसत्रों शाखाओं का विस्तार किया है। ये सभी श्रीसंपन्न तथा श्रीवत्सचिह्न से विभूषित है। सभी धन संपति की कामना रखते हुए अपने भीतर अनंत बल धारण करते हैं। 

   ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर भी ये कर्म से क्षत्रिय हैं। इनमें दया नहीं होती है। ये सर्पों को ही अपना आहार बनाते हैं। इस प्रकार अपने भाई-बंधुओं  का संहार करने के कारण इन्हें ब्राह्मणत्व प्राप्त नहीं है।मातले! अब मैं इनके कुछ प्रधान व्यक्तियों के नाम बताऊंगा, तुम श्रवण करो। इनका कुल भगवान विष्णु का पार्षद होने के कारण प्रशंसनीय है। भगवान विष्णु ही इनके देवता हैं। वे ही इनके परम आश्रय हैं। भगवान विष्णु इनके हृदय में सदा विराजते हैं और वे विष्णु ही सदा इनकी गति है। 

    सुवर्णचूड़, नागाशी, दारुण, चंडतुंडक, अनिल, अनल, विशालाक्ष, कुंडली, पङ्क्जीत, व्रजविष्कम्भ, वैनतेय, वामन, वातवेग, दिशाचक्षु, निमेष, अनिमिष, त्रिराव, सप्तराव, वाल्मीकि, द्वीपक, दैत्यद्वीप, सरिद्द्वीप, सारस, पद्मकेतन, सुमुख, चित्रकेतु, चित्रबर्ह, अनघ, मेषहृत , कुमुद, दक्ष, सर्पान्त, सहभोजन, गुरुभार, कपोत, सूर्यनेत्र, चिरांतक, विष्णुधर्मा, कुमार, परिबर्ह, हरी, सुस्वर, मधुपर्क, हेमवर्ण, मालय, मातरिश्वा, निशाकर तथा दिवाकर। इस प्रकार संक्षेप में मैंने इन मुख्य-मुख्य गरुड़-संतानों का वर्णन किया है। ये सभी यशस्वी तथा महाबली बताए गए हैं। मातले! यदि इनमें तुम्हारी कोई रुचि न हो तो आओ, अन्यत्र चलें। अब मैं तुम्हें उन स्थानों पर ले जाऊंगा जहाँ तुम्हें कोई-न-कोई वर अवश्य मिल जाएगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्व्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“सुरभि और उसकी संतानों के साथ रसातल के सुख का वर्णन”

  नारद जी बोले ;- मातले! यह पृथ्वी का सांतवा तल है, जिसका नाम रसातल है। यहाँ अमृत से उत्पन्न हुई गोमाता सुरभि निवास करती हैं। ये सुरभि पृथ्वी के सारतत्त्व से प्रकट, छ: रसों के सारभाग से संयुक्त एवं सर्वोत्तम, अनिर्वचनीय एकरसरूप क्षीर को सदा अपने स्तनों से प्रवाहित करती रहती है। 

    पूर्वकाल में जब ब्रह्मा अमृतपान करके तृप्त हो उसका सारभाग अपने मुख से निकाल रहे थे, उसी समय उनके मुख से अनिंदिता सुरभि का प्रादुर्भाव हुआ था। पृथ्वी पर निरंतर गिरती हुई उस सुरभि के क्षीर की धारा से एक अनंत हृद बन गया, जिसे 'क्षीरसागर' कहते हैं। वह परम पवित्र है। क्षीरसागर से जो फेन उत्पन्न होता है, वह पुष्प के समान जान पड़ता है। वह फेन क्षीरसमुद्र के तट पर फैला रहता है, जिसे पीते हुए फेनपसंज्ञक बहुत-से मुनिश्रेष्ठ इस रसातल में निवास करते हैं। 

    मातले! फेन का आहार करने के कारण वे महर्षिगण 'फेनप' नाम से विख्यात हैं। वे बड़ी कठोर तपस्या में संलग्न रहते हैं। उनसे देवता लोग भी डरते हैं। मातले! सुरभि की पुत्रिस्वरूपा चार अन्य धेनुएँ हैं, जो सब दिशाओं में निवास करती हैं। वे दिशाओं का धारण पोषण करने वाली हैं। सुरुपा नाम वाली धेनु पूर्व दिशा को धारण करती है तथा उससे भिन्न दक्षिण दिशा का हंसिका नाम वाली धेनु धारण-पोषण करती है।

    मातले! महाप्रभावशालिनी विश्वरूपा सुभद्रा नाम वाली सुरभि कन्या के द्वारा वरुणदेव की पश्चिम दिशा धारण की जाती है। चौथी धेनु का नाम सर्वकामदूधा है। मातले! वह धर्मयुक्त कुबेर संबंधिनी उत्तर दिशा का धारण-पोषण करती है। देवसारथे! देवताओं ने असुरों से मिलकर मंदराचल को मथानी बनाकर इन्हीं धेनुओं के दूध से मिश्रित क्षीरसागर की दुग्धराशि का मंथन किया और उससे वारुणी, लक्ष्मी एवं अमृत को प्रकट किया। तत्पश्चात उस समुद्र मंथन से अश्वराज उच्चेश्र्वा तथा मणिरत्न कौस्तुभ का भी प्रादुर्भाव हुआ था। 

    सुरभि अपने स्तनों से जो दूध बहाती है, वह सुधाभोजी लोगों के लिए सुधा, स्वधाभोजी पितरों के लिए स्वधा तथा अमृतभोजी देवताओं के लिए अमृतरूप है। यहाँ रसातल निवासियों ने पूर्वकाल में जो पुरातन गाथा गायी थी, वह अब भी लोक में सुनी जाती है और मनीषी पुरुष उसका गान करते हैं।

वह गाथा इस प्रकार है,- 'नागलोक, स्वर्गलोक तथा स्वर्गलोक के विमान में निवास करना भी वैसा सुखदायक नहीं होता, जैसा रसातल में रहने से सुख प्राप्त होता है।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“नागलोक के नागों का वर्णन और मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ अपनी कन्या को ब्याहने का निश्चय”

   नारद जी बोले ;- मातले! यह नागराज वासुकि द्वारा सुरक्षित उनकी भोगवती नामक पुरी है। देवराज इन्द्र की सर्वश्रेष्ठ नगरी अमरावती की तरह ही यह भी सुख समृद्धि से सम्पन्न है। ये शेषनाग स्थित है, जो अपने लोकप्रसिद्ध तपोबल से प्रभाव सहित इस सारी पृथ्वी को सदा सरपर धारण करते हैं। भगवान शेष का शरीर कैलास पर्वत के समान श्वेत है। ये सहस्र मस्तक धारण करते हैं। इनकी जिह्वा अग्नि की ज्वाला के समान जान पड़ती है। ये महाबली अनंत दिव्य आभूषणों से विभूषित होते हैं।

   यहाँ सुरसा के पुत्र नागगण शोक-संताप से रहित होकर निवास करते हैं। इनके रूप-रंग और आभूषण अनेक प्रकार के हैं। ये सभी नाग सहसत्रों की संख्या में यहाँ रहते हैं। ये सब के सब अत्यंत बलवान तथा स्वभाव से ही भयंकर हैं। इनमें से किन्हीं के शरीर में मणिका, किन्हीं के स्वस्तिक का, किन्हीं के चक्र का और किन्हीं के शरीर में कमंडल का चिह्न है। कुछ नागों के एक सहस्र सिर होते हैं, किन्हीं के पाँच सौ, किन्हीं के एक सौ और किन्हीं के तीन ही सिर होते हैं। 

   कोई दो सिर वाले, कोई पाँच सिर वाले और कोई सात मुख वाले होते हैं। किन्हीं के बड़े-बड़े फन, किन्हीं के दीर्घ शरीर और किन्हीं के पर्वत के समान स्थूल शरीर होते हैं। यहाँ एक-एक वंश के नागों की कई हजार, कई लाख तथा कई अबुर्ध संख्या है। मैं जेठे-छोटे के क्रम से इनका संक्षिप्त परिचय देता हूँ, सुनो। 

     वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, कालिय, नहुष, कंबल, अश्वतर, बाह्यकुंड, मणिनाग, आपूरण, खग, वामन, एलपत्र, कुकुर, कुकुण, आर्यक, नंदक, कलश, पोतक, कैलासक, पिंजरक, ऐरावत, सुमनोमुख, दधिमुख, शंख, नन्द, उपनन्द, आप्त, कोटरक, शिखी, निष्ठुरिक, तित्तिरि, हस्तिभद्र, कुमुद, माल्यपिण्डक, पद्मनामक दो नाग, पुण्डरीक, पुष्प, मुद्गरपर्णक , करवीर, पीठरक, संवृत्त, वृत्त, पिंडार, विल्वपत्र, मूषिकाद, शिरीषक, दिलीप, शंखशीर्ष, ज्योतिष्क, अपराजित, कौरव्य, धृतराष्ट्र, कुहुर, कृषक, विरजा, धारण, सुबाहु, मुखर, जय, बधिर, अंध, विशुंडी, विरस तथा सुरस- ये और दूसरे बहुत से नाग कश्यप के वंशज हैं। मातले! यदि यहाँ कोई वर तुम्हें पसंद हो तो देखो। 

   कण्व मुनि कहते हैं ;- राजन! तब मातलि स्थिरता पूर्वक एक नाग का निरंतर निरीक्षण करके प्रसन्न से हो उठे और उन्होंने नारद जी से पूछा। 

   मातलि ने कहा ;- देवर्षे! यह जो कौरव्य और आर्यक के आगे कांतिमान और दर्शनीय नागकुमार खड़ा है, किसके कुल को आनंदित करने वाला है? इसके माता पिता कौन हैं? यह किस नाग का पौत्र है तथा किसके वंश की महान ध्वज के समान शोभा बढ़ा रहा है? 

   देवर्षे! यह अपनी एकाग्रता, धैर्य, रूप तथा तरुण अवस्था के कारण मेरे मन में समा गया है। यही गुणकेशी का श्रेष्ठ पति होने के योग्य है। 

    कण्व मुनि कहते हैं ;- राजन! मातलि को सुमुख के दर्शन से प्रसन्नचित्त देखकर नारद जी ने उस समय उस नागकुमार के जन्म, कर्म और महत्त्व का परिचय देना आरंभ किया। 

   नारद जी बोले ;- मातले! यह नागराज सुमुख है, जो ऐरावत कुल में उत्पन्न हुआ है। यह आर्यक का पौत्र और वामन का दौहित्र है। सूत! इसके पिता नागराज चिकुर थे, जिन्हें थोड़े ही दिन पहले गरुड ने अपना ग्रास बना लिया है। तब मातली ने प्रसन्नचित्त होकर नारद जी से कहा,

   मातली ने कहा ;- 'तात! यह श्रेष्ठ नाग मुझे अपना जमाता बनाने के योग्य जंच गया। 'मैं इससे बहुत प्रसन्न हूँ। आप इसी के लिए प्रयत्न कीजिये। मुने! मैं इसी नाग को अपनी प्यारी पुत्री देना चाहता हूँ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“नारद जी का नागराज आर्यक के सम्मुख सुमुख के साथ मातलि की कन्या के विवाह का प्रस्ताव एवं मातलि का नारद जी, सुमुख एवं आर्यक के साथ इन्द्र के पास आकर उनके द्वारा सुमुख को दीर्घायु प्रदान करना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह”

   कण्व मुनि कहते हैं ;- कुरुनन्दन! मातलि की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद ने नागराज आर्यक से कहा।

  नारद जी बोले ;- नागराज! ये इन्द्र के प्रिय सखा और सारथी मातलि हैं। इनमें पवित्रता, सुशीलता और समस्त सद्गुण भरे हुए हैं। ये तेजस्वी होने के साथ ही बल-पराक्रम से सम्पन्न हैं। इन्द्र के मित्र, मंत्री और सारथी सब कुछ यही हैं। प्रत्येक युद्ध में ये इंद्र के साथ रहते हैं। इनका प्रभाव इन्द्र से कुछ ही कम है। ये देवासुर संग्राम में सहस्र घोड़ों से जुते हुए देवराज के विजयशील श्रेष्ठ रथ का अपने मानसिक संकल्प से ही संचालन और नियंत्रण करते हैं। 

   ये अपने अश्वों द्वारा जिन शत्रुओं को जीत लेते हैं, उन्हीं को देवराज इन्द्र अपने बाहुबल से पराजित करते हैं। पहले इनके द्वारा प्रहार हो जाने पर ही बलनाशक इन्द्र शत्रुओं पर प्रहार करते हैं। इनके एक सुंदरी कन्या है, जिसके रूप की समानता भूमंडल में कहीं नहीं है। उसका नाम है गुणकेशी। वह सत्य, शील और सद्गुणों से सम्पन्न है।

   देवोपम कांती वाले नागराज! ये मातलि बड़े प्रयत्न से कन्या के लिए वर ढूँढने के निमित्त तीनों लोकों में विचरते हुए यहाँ आए हैं। आपका पौत्र सुमुख इन्हें अपनी कन्या का पति होने योग्य प्रतीत हुआ है; उसी को इन्होंने पसंद किया है। नागप्रवर आर्यक! यदि आपको भी यह संबंध भली-भाँति रुचिकर जान पड़े तो शीघ्र ही इनकी पुत्री को ब्याह लाने का निश्चय कीजिये। 

   जैसे भगवान विष्णु के घर में लक्ष्मी और अग्नि के घर में स्वाहा शोभा पाती हैं, उसी प्रकार सुंदरी गुणकेशी तुम्हारे कुल में प्रतिष्ठित हो। अत: आप अपने पौत्र के लिए गुणकेशी को स्वीकार करें। जैसे इन्द्र के अनुरूप शची है, उसी प्रकार आपके सुयोग्य पौत्र के योग्य गुणकेशी है। आपके और एरावत के प्रति हमारे हृदय में विशेष सम्मान है और यह सुमुख भी शील, शौच और इंद्रियसंयम आदि गुणों से सम्पन्न है, इसलिए इसके पितृहीन होने पर भी हम गुणों के कारण इसका वरण करते हैं। 

   ये मातलि स्वयं चलकर कन्यादान करने को उद्यत है। आपको भी इनका सम्मान करना चाहिए। 

कण्व मुनि कहते हैं ;- कुरुनंदन! तब नागराज आर्यक प्रसन्न होकर दीनभाव से बोले,-

   आर्यक पुन: बोले ;- 'देवर्षे! मेरा पुत्र मारा गया और पौत्र का भी उसी प्रकार मृत्यु ने वरण किया है; अत: मैं गुणकेशी को बहू बनाने की इच्छा कैसे करूँ? महर्षे! मेरी दृष्टि में आपके इस वचन का कम आदर नहीं है और ये मातलि तो इन्द्र के साथ रहने वाले उनके सखा हैं, अत: ये किसको प्रिय नहीं लगेंगे? 

    परंतु माननीय महामुने! कारण की दुर्बलता से मैं चिंता में पड़ा रहता हूँ। महाद्युते! इस बालक का पिता, जो मेरा पुत्र था, गरुड़ का भोजन बन गया। इस दुःख से हम लोग पीड़ित हैं। प्रभों! जब गरुड़ यहाँ से जाने लगे, तब पुन: यह कहते गए कि दूसरे महीने में मैं सुमुख को भी खा जाऊँगा। अवश्य ही ऐसा ही होगा, क्योंकि हम गरुड़ के निश्चय को जानते हैं। गरुड़ के उस कथन से मेरी हँसी-खुशी नष्ट हो गयी है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

   कण्व मुनि कहते हैं ;- राजन! तब मातलि ने आर्यक से कहा- मैंने इस विषय में एक विचार किया है। यह तो निश्चय ही है कि मैंने आपके पौत्र को जामाता के पद पर वरण कर लिया। 'अत: यह नागकुमार मेरे और नारद जी के साथ त्रिलोकीनाथ देवराज इन्द्र के पास चलकर उनका दर्शन करें। 'साधुशिरोमणे! तदनंतर मैं अवशिष्ट कार्य द्वारा इसकी आयु के विषय में जानकारी प्राप्त करूंगा और इस बात की भी चेष्टा करूंगा कि गरुड़ इसे न मार सके।

   'नागराज! आपका कल्याण हो। सुमुख अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए मेरे साथ देवराज इन्द्र के पास चले।' तदनंतर उन सभी महातेजस्वी सज्जनों ने सुमुख को साथ लेकर परम कांतिमान देवराज इन्द्र का दर्शन किया, जो स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान थे। दैवयोग से वहाँ चतुर्भुज भगवान विष्णु भी उपस्थित थे। तदनंतर देवर्षि नारद ने मातलि से संबंध रखने वाला सारा वृतांत कह सुनाया। 

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तत्पश्चात भगवान विष्णु ने लोकेश्वर इन्द्र से कहा 'देवराज! तुम सुमुख को अमृत दे दो और इसे देवताओं के समान बना दो। 'वासव! इस प्रकार मातलि, नारद और सुमुख ये सभी तुमसे इच्छानुसार अमृत का दान पाकर अपना यह अभीष्ट मनोरथ पूर्ण कर लें। 

तब देवराज इन्द्र ने गरुड़ के पराक्रम का विचार करके भगवान विष्णु से कहा,

 देवराज इंद्र बोले ;- 'आप ही इसे उत्तम आयु प्रदान कीजिये।'

   भगवान विष्णु बोले ;- प्रभो! तुम संपूर्ण जगत में जितने भी चराचर प्राणी हैं, उन सबके ईश्वर हो। तुम्हारी दी हुई आयु को मिटाने का साहस कौन कर सकता है? तब इन्द्र ने उस नाग को अच्छी आयु प्रदान की, परंतु बलासुर और वृत्रासुर का विनाश करने वाले इन्द्र ने उसे अमृतभोजी नहीं बनाया। इन्द्र का वर पाकर सुमुख का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वह विवाह करके इच्छानुसार अपने घर को चला गया। नारद और आर्यक दोनों ही कृतकृत्य हो महातेजस्वी देवराज की अर्चना करके प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थान को चले गए। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एक सौ पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान विष्णु के द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन तथा दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना”

कण्व मुनि कहते हैं ;- भारत! महाबली गरुड़ ने यह सारा वृतांत यथार्थरूप से सुना कि इन्द्र ने सुमुख नाग को दीर्घायु प्रदान की है। यह सुनते ही आकाशचारी गरुड़ अत्यंत क्रुद्ध हो अपने पंखों की प्रचंड वायु से तीनों लोकों को कंपित करते हुए इन्द्र के समीप दौड़ आए।

   गरुड़ बोले ;- भगवन! आपने अवहेलना करके मेरी जीविका में क्यों बाधा पहुँचाई है? एक बार मुझे इच्छानुसार कार्य करने का वरदान देकर अब फिर उससे विचलित क्यों हुये हैं? समस्त प्राणियों के स्वामी विधाता ने सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि करते समय मेरा आहार निश्चित कर दिया था। फिर आप किसलिए उसमें बाधा उपस्थित करते हैं ? देव! मैंने उस महानाग को अपने भोजन के लिए चुन लिया था। इसके लिए समय भी निश्चित कर दिया था और उसी के द्वारा मुझे अपने विशाल परिवार का भरण-पोषण करना था। 

   वह नाग जब दीर्घायु हो गया, तब अब मैं उसके बदले में दूसरे की हिंसा नहीं कर सकता। देवराज! आप स्वेच्छाचार को अपनाकर मनमाने खेल कर रहे हैं। वासव! अब मैं प्राण त्याग दूंगा। मेरे परिवार में तथा मेरे घर में जो भरण-पोषण करने योग्य प्राणी हैं, वे भी भोजन के अभाव में प्राण दे देंगे। अब आप अकेले संतुष्ट होइए। बल और वृत्रासुर का वध करने वाले देवराज! मैं इसी व्यवहार के योग्य हूँ; क्योंकि तीनों लोकों का शासन करने में समर्थ होकर भी मैंने दूसरे की सेवा स्वीकार की है। 

  देवेश्वर! त्रिलोकीनाथ! आपके रहते भगवान विष्णु भी मेरी जीविका रोकने में कारण नहीं हो सकते; क्योंकि वासव! तीनों लोकों के राज्य का भार सदा आपके ही ऊपर है। मेरी माता भी प्रजापति दक्ष की पुत्री है। मेरे पिता भी महर्षि कश्यप ही हैं। मैं भी अनायास ही सम्पूर्ण लोकों का भार वहन कर सकता हूँ। 

   मुझमें भी वह विशाल बल है, जिसे समस्त प्राणी एक साथ मिलकर भी सह नहीं सकते। मैंने भी दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ने पर महान पराक्रम प्रकट किया है। मैंने भी श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान, रोचनामुख, प्रसृत और कालकाक्ष नामक दैत्यों को मारा है। तथापि मैं जो रथ की ध्वजा में रहकर यत्नपूर्वक आपके छोटे भाई विष्णु की सेवा करता और उनको वहन करता हूँ, इसीसे आप मेरी अवहेलना करते हैं। 

   मेरे सिवा दूसरा कौन है, जो भगवान विष्णु का महान भार सह सके? कौन मुझसे अधिक बलवान है? मैं सबसे विशिष्ट शक्तिशाली होकर भी बंधु-बांधवों सहित इन विष्णु भगवान का भार सहन करता हूँ। वासव! आपने मेरी अवज्ञा करके जो मेरा भोजन छीन लिया है, उसके कारण मेरा सारा गौरव नष्ट हो गया तथा इसमें कारण हुए हैं आप और ये श्रीहरि। विष्णो! अदिति के गर्भ से जो ये बल और पराक्रम से सुशोभित देवता उत्पन्न हुए हैं, इन सबमें बल की दृष्टि से अधिक शक्तिशाली आप ही हैं। 

    तात! आपको मैं अपनी पांख के एक देश में बिठाकर बिना किसी थकावट के ढोता रहता हूँ। धीरे से आप ही विचार करें कि यहाँ कौन सबसे अधिक बलवान है?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचधिकशततम अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

   कण्व मुनि कहते हैं ;- राजन। गरुड़ की ये बातें भयंकर परिणाम उपस्थित करने वाली थीं। उन्हें सुनकर रथांगपाणि श्रीविष्णु ने किसी से क्षुब्ध न होने वाले पक्षीराज को क्षुब्ध करते हुए कहा,

  भगवान विष्णु बोले ;- 'गरुत्मन। तुम हो तो अत्यंत दुर्बल, परंतु अपने आपको बड़ा भारी बलवान मानते हो। अण्डज। मेरे सामने फिर कभी अपनी प्रशंसा न करना। 'सारी त्रिलोकी मिलकर भी मेरे शरीर का भार वहन करने में असमर्थ हैं। मैं ही अपने द्वारा अपने आपको ढोता हूँ और तुमको भी धारण करता हूँ। 

   'अच्छा, पहले तुम मेरी केवल दाहिनी भुजा का भार वहन करो। यदि इस एक को ही धारण कर लोगे तो तुम्हारी यह सारी आत्मप्रशंसा सफल समझी जाएगी।' इतना कहकर भगवान विष्णु ने गरुड़ के कंधे पर अपनी दाहिनी बांह रख दी। उसके बोझ से पीड़ित एवं विह्वल होकर गरुड़ गिर पड़े। उनकी चेतना भी नष्ट सी हो गयी। पर्वतों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी का जितना भार हो सकता है, उतना ही उस एक बांह का भार है, यह गरुड़ को अनुभव हुआ। 

   अत्यंत बलशाली भगवान अच्युत ने गरुड़ को बलपूर्वक दबाया नहीं था; इसलिए उनके जीवन का नाश नहीं हुआ। उस महान भार से अत्यंत पीड़ित हो गरुड़ ने मुंह बा दिया। उनका सारा शरीर शिथिल हो गया। उन्होंने अचेत और विह्वल होकर अपने पंख छोड़ दिये। तदनंतर अचेत एवं विह्वल हुए विनतापुत्र पक्षीराज गरुड़ ने भगवान विष्णु के चरणों में प्रणाम किया और दीनभाव से कुछ कहा,- 

   गरुड़ बोले ;- 'भगवन। संसार के मूर्तिमान सारतत्त्व-सदृश आपकी इस भुजा के द्वारा, जिसे आपने स्वाभाविक ही मेरे ऊपर रख दिया था, मैं पिसकर पृथ्वी पर गिर गया हूँ। 'देव। मैं आपकी ध्वजा में रहने वाला एक साधारण पक्षी हूँ। इस समय आपके बल और तेज से दग्ध होकर व्याकुल और अचेत सा हो गया हूँ। आप मेरे अपराध को क्षमा करें। 

   'विभो। मुझे आपके महान बल का पता नहीं था। देव! इसी से मैं अपने बल और पराक्रम को दूसरों के समान ही नहीं, उनसे बहुत बढ़-चढ़कर मानता था' गरुड़ के ऐसा कहने पर भगवान ने उन पर कृपा दृष्टि की और उस समय स्नेहपूर्वक उनसे कहा,

भगवान विष्णु ने कहा ;- 'फिर कभी इस प्रकार घमंड न करना'। राजेन्द्र! तत्पश्चात भगवान ने अपने पैर के अंगूठे से सुमुख नाग को उठाकर गरुड़ के वक्ष:स्थल पर रख दिया। तभी से गरुड़ उस सर्प को सदा साथ लिए रहते हैं। राजन। इस प्रकार महायशस्वी बलवान विनतानन्दन गरुड़ भगवान विष्णु के बल से आक्रांत हो अपना अहंकार छोड़ बैठे। 

   कण्व मुनि कहते हैं ;- गांधारीनन्दन वत्स दुर्योधन। इसी तरह तुम भी जब तक रणभूमि में उन वीर पांडवों को अपने सामने नहीं पाते, तभी तक जीवन धारण करते हो। योद्धाओं में श्रेष्ठ महाबली भीम वायु के पुत्र हैं। अर्जुन भी इन्द्र के पुत्र हैं। ये दोनों मिलकर युद्ध में किसे नहीं मार डालेंगे? धर्मस्वरूप विष्णु, वायु, इन्द्र और वे दोनों अश्विनीकुमार- इतने देवता तुम्हारे विरुद्ध हैं। तुम किस कारण से इन देवताओं की ओर देखने का भी साहस कर सकते हो? 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचधिकशततम अध्याय के श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद)

   अत: राजकुमार! इस विरोध से तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। पांडवों के साथ संधि कर लो। भगवान श्रीकृष्ण को सहायक बनाकर इनके द्वारा तुम्हें अपने कुल की रक्षा करनी चाहिए। इन महातपस्वी नारद जी ने उस समय भगवान विष्णु के माहात्म्य को प्रत्यक्ष देखा था। वे चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु ही ये 'श्रीकृष्ण' हैं। 

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कण्व का वह कथन सुनकर दुर्योधन की भौहें तन गईं। वह लंबी सांस खींचता हुआ राधानन्दन कर्ण की ओर देखकर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा। उस दुर्बुद्धि ने कण्व मुनि के वचनों की अवहेलना करके हाथी की सूंड के समान चढ़ाव-उतार वाली अपनी मोटी जांघ पर हाथ पीटकर इस प्रकार कहा,

   दुर्योधन बोला ;-  महर्षे! मुझे ईश्वर ने जैसा बनाया है, जो होनहार है और जैसी मेरी अवस्था में है, उसी के अनुसार मैं बर्ताव करता हूँ। आप लोगों का यह प्रलाप क्या करेगा?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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