सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के छियानबेवें अध्याय से सौवें अध्याय तक (From the 96 chapter to the 100 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

छियानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“परशुराम जी का दम्भोद्भव की कथा द्वारा नर-नारायण स्वरूप अर्जुन और श्रीकृष्ण का महत्त्व वर्णन करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महात्मा श्रीकृष्ण के ऐसी बात कहने पर सम्पूर्ण सभासद चकित हो गये। उनके अंगों में रोमांच हो आया। वे सब भूपाल मन ही मन यह सोचने लगे कि भगवान के इन वचनों का उत्तर कोई भी मनुष्य नहीं दे सकता है। इस प्रकार उन सब राजाओं के मौन ही रह जाने पर जमदग्निनंदन परशुराम ने कौरव सभा में इस प्रकार कहा- 

    परशुराम जी बोले ;- 'राजन! तुम नि:शंक होकर मेरी यह


उदाहरण युक्त बात सुनो। सुनकर यदि इसे कल्याणकारी और उत्तम समझो तो स्वीकार करो। 'पूर्वकाल की बात है, दम्भोभ्दव नाम से प्रसिद्ध एक सार्वभौम सम्राट इस सम्पूर्ण अखंड भूमंडल का राज्य भोगते थे, यह हमारे सुनने में आया है। 'वे महारथी और पराक्रमी नरेश प्रतिदिन रात बीतने पर प्रात: काल उठकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों से इस प्रकार पूछा करते थे- 

   'क्या इस जगत में कोई ऐसा शस्त्रधारी शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण है, जो युद्ध में मुझसे बढ़कर अथवा मेरे समान भी हो सके? 'इसी प्रकार पूछते हुए वे राजा दम्भोभ्दव महान गर्व से उन्मत्त हो दूसरे किसी को कुछ भी न समझते हुए इस पृथ्वी पर विचरने लगे, 'उस समय सर्वथा निर्भय, उदार एवं विद्वान ब्राह्मणों ने बारंबार आत्मप्रशंसा करने वाले उन नरेश को मना किया।'उनके मना करने पर भी वे ब्राह्मणों से बार-बार प्रश्न करते ही रहे। उनका अहंकार बहुत बढ़ गया था। वे धन-वैभव के मद से मतवाले हो गये थे। राजा को यही बारंबार प्रश्न दुहराते देख वेद के सिद्धान्त का साक्षात्कार करने वाले महामना तपस्वी ब्राह्मण क्रोध से तमतमा उठे और उनसे इस प्रकार बोले,-

  ब्राम्हण बोले ;- 'राजन! दो ऐसे पुरुष रत्न हैं, जिन्होंने युद्ध में अनेक योद्धाओं पर विजय पायी है। तुम कभी उनके समान न हो सकोगे'। 'उनके ऐसा कहने पर राजा ने पुन: उन ब्राह्मणों से पूछा,

  राजा दम्भोभ्दव बोले ;- 'वे दोनों वीर कहाँ हैं? उनका जन्म किस स्थान में हुआ है? उनके कर्म कौन-कौन से हैं और उनके नाम क्या हैं? 

   ब्राह्मण बोले ;- भूपाल! हमने सुना है कि वे नर-नारायण नाम वाले तपस्वी हैं और इस समय मनुष्य लोक में आए हैं। तुम उन्हीं दोनों के साथ युद्ध करो। सुना है, वे दोनों महात्मा नर और नारायन गंधमादन पर्वत पर ऐसी घोर तपस्या कर रहे हैं, जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता। राजा को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े, पैदल, शकट और ऊंट इन छ: अंगों से युक्त विशाल सेना को सुसज्जित करके उस स्थान की यात्रा की, जहाँ कभी पराजित न होने वाले वे दोनों महात्मा विद्यमान थे। राजा उनकी खोज करते हुए दुर्गम एवं भयंकर गंधमादन पर्वत पर गये और वन में स्थित उन तपस्वी महात्माओं के पास जा पहुँचे। 

   वे दोनों पुरुष रत्न भूख-प्यास से दुर्बल हो गये थे। उनके सारे अंगों में फैली हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखाई देती थीं। वे सर्दी-गर्मी और हवा का कष्ट सहते-सहते अत्यंत कृशकाय हो रहे थे। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)

   निकट जाकर उनके चरणों में नमस्कार करके दम्भोभ्दव ने उन दोनों का कुशल समाचार पूछा। तब नर और नारायण ने राजा का स्वागत-सत्कार करके आसान, जल और फल-मूल देकर उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित किया। तदनंतर पूछा कि हम आपकी क्या सेवा करें? यह सुनकर उन्होंने अपना सारा वृतांत पुन: अक्षरश: सुना दिया। और कहा,

   दम्भोभ्दव ने कहा ;- 'मैंने अपने बाहुबल से सारी पृथ्वी को जीत


लिया है तथा सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार कर डाला है। अब आप दोनों से युद्ध करने की इच्छा लेकर इस पर्वत पर आया हूँ। यही मेरा चिरकाल से अभिलषित मनोरथ है। आप अतिथि-सत्कार के रूप में इसे ही पूर्ण कर दीजिये। 

  


   नर-नारायण बोले ;- नृपश्रेष्ठ! हमारा यह आश्रम क्रोध और लोभ से रहित है। इस आश्रम में कभी युद्ध नहीं होता, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल मनोवृति का मनुष्य यहाँ कैसे रह सकता है? इस पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, अत: आप कहीं और जाकर युद्ध की अभिलाषा पूर्ण कीजिये। 

   परशुराम जी कहते हैं ;- भारत! उन दोनों महात्माओं ने बारंबार ऐसा कहकर राजा से क्षमा मांगी और उन्हें विविध प्रकार से सान्त्वना दी। तथापि दम्भोभ्दव युद्ध की इच्छा से उन दोनों तापसों को कहते और ललकारते ही रहे। भरतनन्दन! तब महात्मा नर ने हाथ में एक मुट्ठी सींक लेकर कहा,

   नर ने कहा ;- 'युद्ध चाहने वाले क्षत्रिय! आ, युद्ध कर। अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ले ले। सारी सेना को तैयार कर ले, कवच बांध ले, तेरे पास और भी जितने साधन हों, उन सबसे सम्पन्न हो जा। तू बड़े घमंड में आकर ब्राह्मण आदि सभी वर्ण के लोगों को ललकारता फिरता है; इसलिए मैं आज से तेरे युद्ध विषयक निश्चय को दूर किए देता हूँ।' 

    दम्भोभ्दव ने कहा ;- तापस! यदि आप यही अस्त्र हमारे लिए उपयुक्त मानते हैं तो मैं इसके होने पर भी आपके साथ युद्ध अवश्य करूंगा, क्योंकि मैं युद्ध के लिए ही यहाँ आया हूँ। 

  परशुराम जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर सैनिकों सहित दम्भोभ्दव ने तपस्वी नर को मार डालने की इच्छा से सब ओर से उन पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उनके भयंकर बान शत्रु के शरीर को छिन्न-भिन्न कर देने वाले थे, परंतु मुनि ने उन बाणों का प्रहार करने वाले दम्भोभ्दव की कोई परवा न करके सींकों से ही उनको बींध डाला। तब किसी से पराजित न होने वाले महर्षि नर ने उनके ऊपर भयंकर ऐषीकास्त्र का प्रयोग किया, जिसका निवारण करना असंभव था। यह एक अद्भुत सी घटना हुई।

   इस प्रकार लक्ष्यवेध करने वाले नर मुनि ने माया द्वारा सींक के बाणों से ही दम्भोभ्दव के सैनिकों की आँखों, कानों और नासिकाओं को बींध डाला। राजा दम्भोभ्दव सींकों से भरे हुए समूचे आकाश को श्वेतवर्ण हुआ देखकर मुनि के चरणों में गिर पड़े और बोले,

दम्भोभ्दव बोले ;- 'भगवन! मेरा कल्याण हो।'

'राजन! शरण चाहने वालों को शरण देने वाले भगवान नर ने उनसे कहा,

नर ने कहा;- 'आज से तुम ब्राह्मण हितैषी और धर्मात्मा बनो। फिर कभी ऐसा साहस न करना। 'नरेश्वर! नृपश्रेष्ठ! शत्रुनगर विजयी वीर पुरुष क्षत्रिय धर्म को स्मरण रखते हुए कभी मन से ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता, जैसा कि तुमने किया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)

'राजन! आज से फिर कभी घमंड में आकर अपने से बड़े या छोटे किन्हीं राजाओं पर किसी प्रकार भी आक्षेप न करना। इस बात के लिए मैंने तुम्हें सावधान कर दिया। 'भूपाल! तुम विनीतबुद्धि, लोभशून्य, अहंकार रहित, मनस्वी, जितेंद्रिय, क्षमाशील, कोमलस्वभाव और सौम्य होकर प्रजा का पालन करो। फिर कभी दूसरों के बलाबल को जाने बिना किसी पर आक्षेप न करना। 

   'मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी, तुम्हारा कल्याण हो, जाओ। फिर ऐसा बर्ताव न करना। विशेषत: हम दोनों के कहने से तुम ब्राह्मणों से उनका कुशल-समाचार पूछते रहना।' तदनंतर राजा दम्भोभ्दव उन दोनों महात्माओं के चरणों में प्रणाम करके अपनी राजधानी में लौट आए और विशेष रूप से धर्म का आचरण करने लगे। इस प्रकार पूर्वकाल में महात्मा नर ने वह महान कर्म किया था। उनसे भी बहुत गुणों के कारण भगवान नारायण श्रेष्ठ हैं। अत: राजन! जब तक श्रेष्ठ धनुष गांडीव पर (दिव्य) अस्त्रों का संधान नहीं किया जाता, तब तक ही तुम अभिमान छोड़कर अर्जुन से मिल जाओ।

   काकुदीक (प्रस्वापन), शुक (मोहन), नाक (उन्मादन), अक्षिसंतर्जन (त्रासन), संतान (दैवत), नर्तक (पैशाच), घोर (राक्षस) और आस्यमोदक (याम्य)- ये आठ प्रकार के अस्त्र हैं। इन अस्त्रों से विद्ध होने पर सभी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध,लोभ, मोह, मद, मान, मात्सर्य और अहंकार – ये क्रमश: आठ दोष बताए गए हैं, जिनके प्रतीकस्वरूप उपयुर्क्त आठ अस्त्र हैं। इन अस्त्रों के प्रयोग से कुछ लोग उन्मत्त हो जाते हैं और वैसी ही चेष्टाएँ करने लगते हैं। कितनों को सुध-बुध नहीं रह जाती, वे अचेत हो जाते हैं। कई मनुष्य सोने लगते हैं। कुछ उछलते-कूदते और छींकते हैं। कितने ही मल-मूत्र करने लग जाते हैं और कुछ लोग निरंतर रोते-हँसते रहते हैं।

   राजन! सम्पूर्ण लोकों का निर्माण करने वाले ईश्वर एवं सब कर्मों के ज्ञाता नारायण जिनके बंधु हैं, वे नरस्वरूप अर्जुन युद्ध में दु:सह हैं क्योंकि उन्हें उपर्युक्त सभी अस्त्रों का अच्छा ज्ञान है। भारत! युद्धभूमि में जिनकी समानता कोई भी नहीं कर सकता, उन विजयशील वीर कपिध्वज अर्जुन को जीतने का साहस तीनों लोकों में कौन कर सकता है? 

    महाराज! अर्जुन में असंख्य गुण हैं एवं भगवान जनार्दन तो उनसे भी बढ़कर हैं। तुम भी कुंती के पुत्र अर्जुन को अच्छी तरह जानते हो। जो दोनों महात्मा नर और नारायण के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि वे दोनों पुरुषरत्न सर्वश्रेष्ठ वीर हैं। भारत! यदि तुम इस बात को इस रूप में जानते हो और मुझ पर तुम्हें तनिक भी संदेह नहीं है तो मेरे कहने से श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर पांडवों के साथ संधि कर लो। भरतश्रेष्ठ! यदि तुम्हारी यह इच्छा हो कि हम लोगों में फूट न हो और इसी में तुम अपना कल्याण समझो, तब तो संधि करके शांत हो जाओ और युद्ध में मन न लगाओ। 

   कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारा कुल इस पृथ्वी पर बहुत प्रतिष्ठित है। वह उसी प्रकार सम्मानित बना रहे और तुम्हारा कल्याण हो, इसके लिए अपने वास्तविक स्वार्थ का ही चिंतन करो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में दंभोंद्भव कथा विषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तनवतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“कण्व व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाते हुए मातलि का उपाख्यान आरंभ करना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जमदग्निनन्दन परशुराम का यह वचन सुनकर भगवान कण्व मुनि ने भी कौरव सभा में दुर्योधन से यह बात कही। 

   कण्व बोले ;- राजन! जैसे लोकपितामह ब्रह्माअक्षय और अविनाशी है; उसी प्रकार वे दोनों भगवान नर-नारायण ऋषि भी हैं। अदिति के सभी पुत्रों में अथवा सम्पूर्ण आदित्यों में एकमात्र भगवान विष्णु ही अजेय, अविनाशी, नित्य विद्यमान एवं सर्वसमर्थ सनातन परमेश्वर हैं। अन्य सब लोग तो किसी न किसी निमित्त से मृत्यु को प्राप्त होते ही हैं। चंद्रमा, सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, ग्रह तथा नक्षत्र- ये सभी नाशवान हैं। 

   जगत का विनाश होने के पश्चात ये चंद्र, सूर्य आदि तीनों लोकों का सदा के लिए परित्याग करके नष्ट हो जाते हैं। फिर सृष्टिकाल में इन सबकी बारबार सृष्टि होती है। इनके सिवा ये दूसरे जो मनुष्य, पशु, पक्षी, तथा जीव लोक में विचरने वाले अन्यान्य तिर्यग योनि के प्राणी हैं; वे अल्पकाल में ही काल के गाल में चले जाते हैं। राजा लोग भी प्राय: राजलक्ष्मी का उपभोग करके आयु की समाप्ति होने पर मृत्यु होने के पश्चात अपने पाप-पुण्य का फल भोगने के लिए पुन: नूतन जन्म ग्रहण करते हैं। 

   राजन! आपको धर्मपुत्र युधिष्ठिर के साथ संधि कर लेनी चाहिए। मैं चाहता हूँ कि पांडव तथा कौरव दोनों मिलकर इस पृथ्वी का पालन करें। पुरुषरत्न सुयोधन! तुम्हें यह नहीं मानना चाहिए कि मैं ही सबसे अधिक बलवान हूँ; क्योंकि संसार में बलवानों से भी बलवान पुरुष देखे जाते हैं। कुरुनंदन! बलवानों के बीच में सैनिक बल को बल नहीं समझा जाता है। समस्त पांडव देवताओं के समान पराक्रमी हैं; अत: वे ही तुम्हारी अपेक्षा बलवान हैं। 

   इस प्रसंग में कन्यादान करने के लिए वर ढूँढने वाले मातलि के इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। त्रिलोकीनाथ इन्द्र के प्रिय सारथी का नाम मातलि है। उनके कुल में उन्हीं की एक कन्या थी, जो अपने रूप के कारण सम्पूर्ण लोकों में विख्यात थी। वह देवरूपिणी कन्या गुणकेशी के नाम से प्रसिद्ध थी। गुणकेशी अपनी शोभा तथा सुंदर शरीर की दृष्टि से उस समय की सम्पूर्ण स्त्रियों से श्रेष्ठ थी। राजन! उसके विवाह का समय आया जान मातलि ने एकाग्रचित्त हो उसी के विषय में चिंतन करते हुए अपनी पत्नी के साथ विचार-विमर्श किया।

   'जिनका शीलस्वभाव श्रेष्ठ है, जो ऊंचे कुल में उत्पन्न हुए यशस्वी तथा कोमल अंत:करण वाले हैं, ऐसे लोगों के कुल में कन्या का उत्पन्न होना दुःख की ही बात है। 'कन्या मातृकुल को, पितृकुल को तथा जहाँ वह ब्याही जाती है, उस कुल को-सत्पुरुषों के इन तीनों कुलों को संशय में डाल देती है। 'मैंने मानवदृष्टि के अनुसार देवलोक तथा मनुष्यलोक दोनों में अच्छी तरह घूम फिर कर कन्या के लिए वर का अन्वेषन किया है, पर वहाँ कोई भी वर मुझे पसंद नहीं आ रहा है।' 

   कण्व मुनि कहते हैं ;- मातलि ने वर के लिए बहुत-से देवताओं, दैत्यों, गन्धर्वों और मनुष्यों तथा ऋषियों को भी देखा; परंतु कोई उन्हें पसंद नहीं आया। तब उन्होंने रात में अपनी पत्नी सुधर्मा के साथ सलाह करके नागलोक में जाने का विचार किया। 

  वे अपनी पत्नी से बोले ;- 'देवी! देवताओं और मनुष्यों में तो गुणकेशी के योग्य कोई रूपवान वर नहीं दिखाई देता। नागलोक में कोई-न-कोई उसके योग्य वर अवश्य होगा।' सुधर्मा से ऐसी सलाह करके मातलि ने इष्टदेव की परिक्रमा की और कन्या का मस्तक सूंघकर रसातल में प्रवेश किया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के वर खोजने से संबंध रखनेवाला सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“मातलि का अपनी पुत्री के लिए वर खोजने के निमित्त नारद जी के साथ वरुण लोक में भ्रमण करते हुए अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना”

   कण्व मुनि कहते हैं ;- राजन! उसी समय महर्षि नारद वरुण देवता से मिलने के लिए उधर जा रहे थे। नागलोक के मार्ग में जाते हुए मातलि की नारद जी के साथ अकस्मात भेंट हो गयी। नारद जी ने उनसे पूछा देवसारथे! तुम कहाँ जाने को उदयत्त हुए हो? तुम्हारी यह यात्रा किसी निजी कार्य से अथवा देवेंद्र के आदेश से हुई है?

 मार्ग में जाते हुए नारद जी के इस प्रकार पूछने पर मातलि ने उनसे अपना सारा कार्य यथावत रूप से बताया। तब उन मुनि ने मातलि से कहा- 'हम दोनों साथ-साथ चलें। मैं भी जल के स्वामी वरुणदेव का दर्शन करने की इच्छा से देवलोक से आ रहा हूँ। 'मैं तुम्हें पृथ्वी के नीचे के लोकों को दिखाते हुए वहाँ की सब वस्तुओं का परिचय दूँगा। मातले! वहाँ हम दोनों किसी योग्य वर को देखकर पसंद करेंगे'। 

   तदनंतर मातलि और नारद दोनों महात्मा पृथ्वी के भीतर प्रवेश करके जल के स्वामी लोकपाल वरुण के समीप गये। नारद जी को वहाँ देवर्षियों के योग्य और मातलि को देवराज इन्द्र के समान आदर-सत्कार प्राप्त हुआ। तत्पश्चात उन दोनों ने प्रसन्नचित्त होकर वरुण देवता से अपना कार्य निवेदन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे नागलोक में विचरने लगे। नारद जी पाताल लोक में निवास करने वाले सभी प्राणियों को जानते थे। अत: उन्होंने इंद्र सारथी मातलि को वहाँ की सब वस्तुओं के विषय में विस्तारपूर्वक बताना आरंभ किया। 

   नारद जी ने कहा ;- सूत! तुमने पुत्रों और पौत्रों से घिरे हुए वरुण देवता का दर्शन किया है। देखो, यह जलेश्वर वरुण का समृद्धिशाली निवास स्थान है। इसका नाम है, सर्वतोभद्र। ये गोपति वरुण के परम बुद्धिमान पुत्र हैं; जो अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार और पवित्रता के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। 

  वरुणदेव के इन प्रिय पुत्र का नाम पुष्कर है। इनके नेत्र विकसित कमल के समान सुशोभित हैं। ये रूपवान तथा दर्शनीय हैं। इसीलिए सोम की पुत्री ने इनका पतिरूप से वरण किया है। सोम की जो दूसरी पुत्री है, वे ज्योत्स्नाकाली के नाम से प्रसिद्ध है तथा रूप में साक्षात लक्ष्मी के समान जान पड़ती है। उन्होंने अदितिदेवी के ज्येष्ठ पुत्र सूर्यदेव को अपना श्रेष्ठ पति बनाया एवं माना है। महेंद्रमित्र! देखो, यह वरूण देवता का भवन है, जो सब ओर से सुवर्ण का ही बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर ही देवगण वास्तव में देवत्व लाभ करते हैं। मातले! जिनके राज्य छिन लिए गये हैं, उन दैत्यों के ये देदीप्यमान सम्पूर्ण आयुध दिखाई देते हैं। 

   देवसारथे! ये सारे अस्त्र-शस्त्र अक्षय हैं और प्रहार करने पर शत्रु को आहत करके पुन: अपने स्वामी के हाथ में लौट आते हैं। पहले दैत्य लोग अपनी शक्ति के अनुसार इनका प्रयोग करते थे, परंतु अब देवताओं ने इन्हें जीतकर अपने अधिकार में कर लिया है। मातले! इन स्थानों में राक्षस और दैत्य जाति के लोग रहते हैं। यहाँ दैत्यों के बनाये हुए बहुत-से दिव्यास्त्र भी रहे हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टनवतितम अध्याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

  ये महातेजस्वी अग्निदेव वरुण देवता के सरोवर में प्रकाशित होते हैं। इन धूमरहित अग्निदेव ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को भी अवरुद्ध कर दिया था। वज्र की गांठ को 'गांडीव' कहा गया है। यह धनुष उसी का बना हुआ है, इसलिए गाँडीव कहलाता है। जगत का संहार करने के लिए इसका निर्माण हुआ है। देवता लोग सदा इसकी रक्षा करते हैं। यह धनुष आवश्यकता पड़ने पर लाख गुणी शक्ति से सम्पन्न हो वैसे-वैसे ही बल को धारण करता है और सदा अविचल बना रहता है। ब्रह्मवादी ब्रहमाजी ने पहले इस प्रचंड धनुष का निर्माण किया था। यह राक्षस सदृश राजाओं में अदम्य नरेशों का भी दमन कर डालता है। 

   यह धनुष राजाओं के लिए महान अस्त्र है और चक्र के समान उद्भासित होता रहता है। इस महान अभ्युदयकारी धनुष को जलेश वरुण के पुत्र धारण करते हैं। और यह सलिलराज वरुण का छत्र है, जो छत्रगृह में रखा हुआ है। यह छत्र मेघ की भाँति सब ओर से शीतल जल बरसाता रहता है। इस छत्र से गिरा हुआ चंद्रमा के समान निर्मल जल अंधकार से आच्छन्न रहता है, जिससे दृष्टिपथ में नहीं आता है। 

   मातले! इस वरुण लोक में देखने योग्य बहुत सी अद्भुत वस्तुएँ हैं; परंतु सबको देखने से तुम्हारे कार्य में रुकावट पड़ेगी, इसलिए हम लोग शीघ्र ही यहाँ से नाग लोक में चलें। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

निन्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षण्णवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“नारद जी के द्वारा पाताल लोक का प्रदर्शन”

   नारद जी बोले ;- मातले! यह जो नागलोक के नाभिस्थान में स्थित नगर दिखाई देता है, इसे पाताल कहते हैं। इस नगर में दैत्य और दानव निवास करते हैं। यहाँ जो कोई भूतल के जंगम प्राणी जल के साथ बहकर आ जाते हैं, वे इस पाताल में पहुँचने पर भय से पीड़ित हो बड़े ज़ोर से चीत्कार करने लगते हैं। यहाँ जल का ही आहार करने वाली आसूर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है। उसे यत्नपूर्वक मर्यादा में स्थापित किया गया है। वह अग्नि अपने आपको देवताओं द्वारा नियंत्रित समझती है; इसलिए सब ओर फैल नहीं पाती।

    देवताओं ने अपने शत्रुओं का संहार करके अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग यहीं रख दिया था। इसलिए अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि देखी जा सकती है। यहाँ अदितिनन्दन हयग्रीव विष्णु सुवर्णमय कान्ति धारण करके प्रत्येक पर्व पर वेदध्वनि के द्वारा जगत को परिपूर्ण करते हुए ऊपर को उठते हैं। जलस्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं, इसलिए यह उत्तम नगर 'पाताल' कहलाता है। 

   जगत का हित करने वाला और समुद्र से उत्पन्न होने वाला वर्षा कालीन वायु यहीं से शीतल जल लेकर मेघों में स्थापित करता है, जिसे देवराज इन्द्र भूतल पर बरसाते हैं। नाना प्रकार की आकृति तथा भाँति-भाँति के रूप वाले जलचारी तिमी (व्हेल) मत्स्य चंद्रमा की किरणों का पान करते हुए यहाँ जल में निवास करते हैं। मातले! ये पाताल निवासी जीव-जन्तु यहाँ दिन में सूर्य की किरणों से संतृप्त हो मृतप्राय अवस्था में पहुँच जाते हैं; परंतु रात होने पर अमृतमयी चंद्र रश्मियों के संपर्क से पुन: जी उठते हैं। 

    वहाँ प्रतिदिन उदय लेने वाले चंद्रमा अपनी किरणमयी भुजाओं से अमृत का स्पर्श कराकर उसके द्वारा यहाँ के मरणासन्न जीवों को जीवन प्रदान करते हैं। इन्द्र ने जिनकी संपत्ति हर ली है, वे अधर्मपरायण दैत्य काल से बद्ध एवं पीड़ित होकर इसी स्थान में निवास करते हैं। सर्वभूतमहेश्वर भगवान भूतनाथ ने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिए यहाँ उत्तम तपस्या की थी। वेदपाठ से दुर्बल हुए तथा प्राणों की परवा न करके तपस्या द्वारा स्वर्गलोक पर विजय पाने वाले गोव्रतधारी ब्राह्मण महर्षिगण यहाँ निवास करते हैं। 

  जो जहाँ कहीं भी सो लेता है, जिस किसी फल-मूल आदि से भोजन का कार्य चला लेता है तथा वल्कल आदि जिस किसी वस्तु से शरीर को ढक लेता है, वही यहाँ गोव्रतधारी कहलाता है। यहाँ नागराज एरावत, वामन, कुमुद और अंजन नामक श्रेष्ठ गज सुप्रतिक के वंश में उत्पन्न हुए हैं। मातले! देखो, यदि यहाँ तुम्हें कोई गुणवान वर पसंद हो तो मैं चलकर यत्नपूर्वक उसका वरण करूंगा। 

   जल के भीतर यह एक अंडा रखा हुआ है, जो यहाँ अपनी प्रभा से उद्भासित-सा हो रहा है। जबसे प्रजाजनों की सृष्टि आरंभ हुई है, तब से लेकर अब तक यह अंडा न तो फूटता है और न अपने स्थान से इधर-उधर जाता है। इसकी जाति अथवा स्वभाव के विषय में कभी किसी को कुछ कहते नहीं सुना है। इसके माता और पिता को भी कोई नहीं जानता है। 

   मातले! कहते हैं, प्रलयकाल में इस अंडे के भीतर से बड़ी भारी आग प्रकट होगी, जो चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी को भस्म कर डालेगी। नारद जी का यह भाषण सुनकर मातली ने कहा- 'यहाँ मुझे कोई भी वर पसंद नहीं आया, अत: शीघ्र ही अन्यत्र कहीं चलिये।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

एकसौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) शततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन”

   नारद जी कहते हैं ;- मातले! यह हिरण्यपुर नामक श्रेष्ठ एवं विशाल नगर है, जहाँ सैकड़ों मायाओं के साथ विचरने वाले दैत्यों और दानवों का निवास स्थान है। असुरों के विश्वकर्मा मयने अपने मानसिक संकल्प के अनुसार महान प्रयत्न करके पाताल लोक के भीतर इस नगर का निर्माण किया है। यहाँ सहसत्रों मायाओं का प्रयोग करने वाले महान बल-पराक्रम से सम्पन्न वे शूरवीर दानव निवास करते है, जिन्हें पूर्वकाल में अवध्य होने का वरदान प्राप्त हो चुका है। 

  इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर तथा और कोई देवता भी इन्हें वश में नहीं कर सकता। मातले! भगवान विष्णु के चरणों से उत्पन्न हुए कालखंज नामक असुर तथा ब्रहमा जी के पैरों से प्रकट हुए बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले, भयंकर वेग से युक्त, प्रगतिशील पवन के समान पराक्रमी एवं मायाबल से सम्पन्न नैऋर्त और यातुधान इस नगर में निवास करते हैं। 

   यहीं निवात कवच नामक दानव निवास करते हैं, जो युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ते हैं। तुम तो जानते ही हो कि इन्द्र भी इन्हें पराजित करने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। मातले! तुम, तुम्हारा पुत्र गोमुख तथा पुत्र सहित शचीपति देवराज इन्द्र अनेक बार इनके सामने से मैदान छोड़कर भाग चुके हैं। मातले! देखो, इनके ये सोने और चांदी के भवन कितनी शोभा पा रहे हैं। इनका निर्माण शिल्पशास्त्रीय विधान के अनुसार हुआ है तथा ये सभी महल एक दूसरे से सटे हुए हैं। 

   इन सबमें वैदूर्यमणि जड़ी हुई है, जिससे इनकी विचित्र शोभा हो रही है। स्थान–स्थान पर मूँगों से सुसज्जित होने के कारण इनका सौन्दर्य अधिक बढ़ गया है। आक के फूल और स्फटिक मणि के समान ये उज्ज्वल दिखाई देते हैं तथा उत्तम हीरों से जटित होने के कारण उनकी दीप्ति अधिक बढ़ गयी है। इनमें से कुछ तो मिट्टी के बने हुए-से जान पड़ते हैं; कुछ पद्मरागमणि के द्वारा निर्मित प्रतीत होते हैं, कुछ मकान पत्थरों के और कुछ लकड़ियों के बने हुए-से दिखाई देते हैं। 

   ये सूर्य तथा प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे हैं। मणियों की झालरों से इनकी विचित्र छटा दृष्टिगोचर हो रही है। ये सभी भवन ऊंचे और घने हैं। हिरण्यपुर के ये भवन कितने सुंदर हैं और किन किन द्रव्यों से बने हुए हैं, इसका निरूपण नहीं किया जा सकता। अपने उत्तम गुणों के कारण इनकी बड़ी प्रसिद्धि है। लंबाई-चौड़ाई तथा सर्वगुणसंपन्नता की दृष्टि से ये सभी प्रशंसा के योग्य है। 

   देखो, दैत्यों के उद्यान एवं क्रीडास्थान कितने सुंदर हैं! इनकी शय्याएँ भी इनके अनुरूप ही हैं। इनके उपयोग में आने वाले पात्र और आसन भी रत्न जटित एवं बहुमूल्य हैं। यहाँ के पर्वत मेघों की घटा के समान जान पड़ते हैं। वहाँ से जल के झरने गिर रहे हैं। इन वृक्षों की ओर दृष्टिपात करो, ये सभी इच्छानुसार फल और फूल देने वाले तथा कामचारी हैं। मातले! यहाँ भी तुम्हें कोई सुंदर वर प्राप्त हो सकता है। अथवा तुम्हारी राय हो, तो इस भूमि की किसी दूसरी दिशा की ओर चलें। 

   तब ऐसी बातें करने वाले नारद जी से मातलि ने कहा- 'देवर्षे! मुझे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जो देवताओं को अप्रिय लगे। 'यद्यपि देवता और दानव परस्पर भाई ही हैं, तथापि इनमें सदा वैरभाव बना रहता है। ऐसी दशा में मैं शत्रुपक्ष के साथ अपनी पुत्री का संबंध कैसे पसंद करूंगा ? इसलिए अच्छा यही होगा कि हम लोग किसी दूसरी जगह चलें। मैं दानवों से साक्षात्कार भी नहीं कर सकता। मैं यह भी जानता हूँ कि आपके मन में हिंसात्मक कार्य (युद्ध) का अवसर उपस्थित करने की प्रबल इच्छा रहती है।' 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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