सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के इक्यानबेवें अध्याय से पंचनबेवें अध्याय तक (From the 91 chapter to the 95 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

इक्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण का दुर्योधन के घर जाना एवं उसके निमंत्रण को अस्वीकार करके विदुर जी के घर पर भोजन करना”

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले शूरनंदन श्रीकृष्ण ने कुंती की परिक्रमा करके एवं उनकी आज्ञा ले दुर्योधन के घर गए। वह घर इंद्रभवन के समान उत्तम शोभा से सम्पन्न था। उसमें यथास्थान विचित्र आसन सजाकर रखे गए थे। श्रीकृष्ण ने उस गृह में प्रवेश किया। द्वारपालों ने रोक-टोक नहीं की। उस राजभवन की तीन ड्योढ़ियाँ पार करके महायशस्वी श्रीकृष्ण एक ऐसे प्रासाद पर आरूढ़ हुए, जो आकाश में छाए हुए शरद-बादलों के समान श्वेत, पर्वत शिखर के समान ऊंचा तथा अपनी अद्भुत प्रभा से प्रकाशमान था।

   वहाँ उन्होंने सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र के पुत्र महाबाहु दुर्योधन को देखा, जो सहस्रों राजाओं और कौरवों से घिरा हुआ था। दुर्योधन के पास ही दु:शासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि ये भी आसनों पर बैठे थे। श्रीकृष्ण ने उनको भी देखा। दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के आते ही महायशस्वी दुर्योधन मधुसूदन का सम्मान करते हुए मंत्रियों सहित उठकर खड़ा हो गया। मंत्रियों सहित दुर्योधन से मिलकर वृष्णिकुलभूषण केशव अवस्था के अनुसार वहाँ सभी राजाओं से यथायोग्य मिले। उस राजसभा में सुंदर रत्नों से विभूषित एक सुवर्णमय पर्यंक रखा हुआ था, जिस पर भाँति-भाँति के बिछौने बिछे


हुए थे। भगवान श्रीकृष्ण उसी पर विराजमान हुए। उस समय कुरुराज ने जनार्दन की सेवा में गौ, मधुपर्क, जल, गृह तथा राज्य सब कुछ निवेदन कर दिया। उस पर्यंक पर बैठे हुए भगवान गोविंद निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे। उस समय राजाओं सहित समस्त कौरव उनके पास आकर बैठ गए। 

    तदनंतर राजा दुर्योधन ने विजयी वीरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण को भोजन के लिए निमंत्रित किया, परंतु केशव ने उस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। तब कुरुराज दुर्योधन ने कर्ण से सलाह लेकर कौरव सभा में श्रीकृष्ण से पूछा। पूछते समय पहले तो उसकी वाणी में मृदुता थी, परंतु अंत में शठता प्रकट होने लगी थी। 

   दुर्योधन बोला ;- जनार्दन! आपके लिए अन्न, जल, वस्त्र और शय्या आदि जो वस्तुएँ प्रस्तुत की गईं, उन्हें आपने ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने तो दोनों पक्षों को ही सहायता दी है, आप उभय पक्ष के हित-साधन में तत्पर हैं। माधव! महाराज धृतराष्ट्र के आप प्रिय संबंधी भी हैं। चक्र और गदा धारण करने वाले गोविंद! आपको धर्म और अर्थ का सम्पूर्ण रूप से यथार्थ ज्ञान भी है, फिर मेरा आतिथ्य ग्रहण न करने का क्या कारण है; यह मैं सुनना चाहता हूँ। 

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! इस प्रकार पूछे जाने पर उस समय महामनस्वी कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपनी विशाल भुजा ऊपर उठाकर राजा दुर्योधन को सजल जलधर के समान गम्भीर वाणी में उत्तर देना आरंभ किया। उनका वह वचन परम उत्तम, युक्तिसंगत, दैन्यरहित प्रत्येक अक्षर की स्पष्टता से सुशोभित तथा स्थानभ्रष्टता एवं संकीर्णता आदि दोषों से रहित था। 'भारत! ऐसा नियम है कि दूत अपना प्रयोजन सिद्ध होने पर ही भोजन और सम्मान स्वीकार करते हैं। तुम भी मेरा उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर ही मेरा और मेरे मंत्रियों का सत्कार करना।' 

यह सुनकर दुर्योधन ने जनार्दन से कहा -

दुर्योधन ने कहा ;-  'आपको हम लोगों के साथ ऐसा अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिए।'

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद)

    'दशार्हनंदन मधुसूदन! आपका उद्देश्य सफल हो या न हो, हम लोग तो आपके सम्मान का प्रयत्न करते ही हैं; किन्तु हमें सफलता नहीं मिल रही है। 'मधुदैत्य का विनाश करने वाले पुरुषोत्तम! हमें ऐसा कोई कारण जान नहीं पड़ता, जिसके होने से आप हमारी प्रेमपूर्वक अर्पित की हुई पूजा ग्रहण न कर सकें। 'गोविंद! आपके साथ हम लोगों का न तो कोई वैर है और न झगड़ा ही है। इन सब बातों का विचार करके आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।' 

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यह सुनकर दशार्हकुलभूषण जनार्दन ने मंत्रियों सहित दुर्योधन की ओर देखते हुए हँसते हुए-से उत्तर दिया। 'राजन! मैं काम से, क्रोध से, द्वेष से, स्वार्थवश, बहानेबाजी अथवा लोभ से किसी भी प्रकार धर्म का त्याग नहीं कर सकता। 'किसी के घर का अन्न या तो प्रेम के कारण भोजन किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। नरेश्वर! प्रेम तो तुम नहीं रखते और किसी आपत्ति में हम नहीं पड़े हैं। 'राजन! पांडव तुम्हारे भाई ही हैं; वे अपने प्रेमियों का साथ देने वाले और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं, तथापि तुम जन्म से ही उनके साथ अकारण ही द्वेष करते हो। 

   'बिना कारण ही कुंती के पुत्रों के साथ द्वेष रखना तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है। पांडव सदा अपने धर्म में स्थित रहते हैं, अत: उनके विरुद्ध कौन क्या कह सकता है? 'जो पांडवों से द्वेष करता है, वह मुझसे भी द्वेष करता है और जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम मुझे धर्मात्मा पांडवों के साथ एकरूप हुआ ही समझो। 'जो काम और क्रोध के वशीभूत होकर मोहवश किसी गुणवान पुरुष के साथ विरोध करना चाहता है, उसे पुरुषों में अधम कहा गया है। 

    'जो कल्याणमय गुणों से युक्त अपने कुटुम्बीजनों को मोह और लोभ की दृष्टि से देखना चाहता है, वह अपने मन और क्रोध को न जीतने वाला पुरुष दीर्घकाल तक राजलक्ष्मी का उपभोग नहीं कर सकता। 'जो अपने मन को प्रिय न लगने वाले गुणवान व्यक्तियों को भी अपने प्रिय व्यवहार द्वारा वश में कर लेता है, वह दीर्घकाल तक यशस्वी बना रहता है। 'जो द्वेष रखता हो, उसका अन्न नहीं खाना चाहिए। द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए। राजन! तुम पांडवों से द्वेष रखते हो और पांडव मेरे प्राण हैं।

   'तुम्हारा यह सारा अन्न दुर्भावना से दूषित है। अत: मेरे भोजन करने योग्य नहीं है। मेरे लिए तो यहाँ केवल विदुर का ही अन्न खाने योग्य है। यह मेरी निश्चित धारणा है।' अमर्षशील दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु श्रीकृष्ण उसके भव्य भवन से बाहर निकले। वहाँ से निकलकर महामना महाबाहु भगवान वासुदेव ठहरने के लिए महात्मा विदुर के भवन में गए। 

     उस समय द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म, बाह्लिक तथा अन्य कौरवों ने भी महाबाहु श्रीकृष्ण का अनुसरण किया। विदुर के घर में ठहरे हुए यदुवंशी वीर मधुसूदन से वे सब कौरव बोले,

   कौरव बोले ;- वृष्णिनन्दन! हम लोग रत्न धन से सम्पन्न अपने घरों को आपकी सेवा में समर्पित करते हैं। 

तब महातेजस्वी मधुसूदन ने कौरवों से कहा,

  श्री कृष्ण ने कहा ;- आप सब लोग अपने घरों को जाएँ; आपके द्वारा मेरा सारा सम्मान सम्पन्न हो गया। कौरवों के चले जाने पर विदुर जी ने कभी पराजित न होने वाले दशार्हनंदन श्रीकृष्ण को समस्त मनोवांछित वस्तुएँ समर्पित करके प्रयत्नपूर्वक उनका पूजन किया। 

    तदनंतर उन्होंने अनेक प्रकार के पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान


महात्मा केशव को अर्पित किए। मधुसूदन ने उस अन्न-पान से पहले ब्राह्मणों को तृप्त किया, फिर उन्होंने उन वेदवेत्ताओं को श्रेष्ठ धन भी दिया। तदनंतर देवताओं सहित इन्द्र की भाँति अनुचरों सहित भगवान श्रीकृष्ण ने विदुर जी के पवित्र एवं गुणकारक अन्न-पान ग्रहण किए। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण – दुर्योधन संवाद विषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

बानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुर जी का धृतराष्ट्र पुत्रों की दुर्भावना बताकर श्रीकृष्ण को उनके कौरव सभा में जाने का अनौचित्य बतलाना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! रात में जब भगवान श्रीकृष्ण भोजन करके विश्राम कर रहे थे, उस समय विदुर जी ने उनसे कहा- 'केशव! आपने जो यहाँ आने का विचार किया, यह मेरी समझ में अच्छा नहीं हुआ। 'जनार्दन! मंदमति दुर्योधन धर्म और अर्थ दोनों का उल्लंघन कर चुका है। वह क्रोधी, दूसरों के सम्मान को नष्ट करने वाला और स्वयं सम्मान चाहने वाला है। उसने बड़े-बूढ़े गुरुजनों के आदेश को भी ठुकरा दिया है। 'प्रभों! मूढ़ धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन धर्मशास्त्रों की भी आज्ञा नहीं मानता; सदा अपनी ही हठ रखता है। उस दुरात्मा को सन्मार्ग पर ले आना असंभव है। 

     'उसका मन भोगों में आसक्त है, वह अपने को पंडित मानता है, मित्रों के साथ द्रोह करता है और सबको संदेह की दृष्टि से देखता है। वह स्वयं तो किसी का उपकार करता ही नहीं, दूसरों के किए हुए उपकार को भी नहीं मानता। वह धर्म को त्याग कर असत्य से ही प्रेम करने लगा है। 'उसमें विवेक का सर्वथा अभाव है, उसकी बुद्धि किसी एक निश्चय पर नहीं रहती तथा वह अपनी इंद्रियों को काबू में रखने में असमर्थ है। वह अपनी इच्छाओं का अनुसरण करने वाला तथा सभी कार्यों में अनिश्चित विचार रखने वाला है

'ये तथा और भी बहुत से दोष उसमें भरे हुए हैं। आप उसे हित की बात बताएँगे, तो भी वह क्रोधवश उसे स्वीकार नहीं करेगा। 'वह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा जयद्रथ पर अधिक भरोसा रखता है; अत: उसके मन में संधि करने का विचार ही नहीं होता है। 'जनार्दन! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा कर्ण की यह निश्चित धारणा है कि कुंती के पुत्र भीष्म एवं द्रोणाचार्य आदि वीरों की ओर देखने में भी समर्थ नहीं हैं। 'मधुसूदन! मूर्ख एवं बुद्धिहीन दुर्योधन राजाओं की सेना एकत्र करके अपने आपको कृतकृत्य मानता है। 'दुर्बुद्धि दुर्योधन को तो इस बात का भी दृढ़ विश्वास है कि अकेला कर्ण ही शत्रुओं को जीतने में समर्थ है; इसलिए वह कदापि संधि नहीं करेगा। 

    'केशव! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों ने यह पक्का विचार कर लिया है कि हमें पांडवों को उनका यथोचित राज्यभाग नहीं देना चाहिए। यही उनका दृढ़ निश्चय है। इधर आप संधि के लिए प्रयत्न करते हुये उनमें उत्तम भ्रातभाव जगाना चाहते हैं; परंतु उन दुष्टों के प्रति आप जो कुछ भी कहेंगे, वह सब व्यर्थ ही होगा। 'मधुसूदन! जहाँ अच्छी और बुरी बातों का एक सा ही परिणाम हो, वहाँ विद्वान पुरुष को कुछ नहीं कहना चाहिए। वहाँ कोई बात कहना बहरों के आगे राग अलापने के समान व्यर्थ ही है। 

   'माधव! जैसे चांडालों के बीच में किसी विद्वान ब्राह्मण का उपदेश देना उचित नहीं है, उसी प्रकार उन मूर्ख और अज्ञानियों के समीप आपका कुछ भी कहना मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। 'मूढ़ दुर्योधन सैन्यसंग्रह करके अपने को शक्तिशाली समझता है। वह आपकी बात नहीं मानेगा। उसके प्रति कहा हुआ आपका प्रत्येक वाक्य निरर्थक होगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद)

   'श्रीकृष्ण! वे सभी पापपूर्ण विचार लेकर बैठे हुए हैं; अत: उनके बीच में आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता है। वे सब के सब दुर्बुद्धि, अशिष्ट और दुष्टचित हैं। उनकी संख्या भी बहुत है। श्रीकृष्ण! आप उनके बीच में जाकर कोई प्रतिकूल बात कहें, यह मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। 'दुर्योधन ने कभी वृद्ध पुरुषों का सेवन नहीं किया है। वह राजलक्ष्मी के घमंड से मोहित है। इसके सिवा उसे अपनी युवावस्था पर भी गर्व है और वह पांडवों के प्रति सदा अमर्ष में भरा रहता है। अत: आपकी हितकर बातें भी वह नहीं मानेगा। 'माधव! दुर्योधन के पास प्रबल सैन्यबल है। इसके सिवा आप पर उसे महान संदेह है। अत: आप यदि उससे अच्छी बात कहेंगे, तो भी वह आपकी बात नहीं मानेगा।

    'जनार्दन! धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों को यह दृढ़ विश्वास है कि देवताओं सहित इन्द्र भी इस समय युद्ध के द्वारा हमारी इस सेना को परास्त नहीं कर सकते। 'जो इस प्रकार निश्चय किए बैठे हैं और काम-क्रोध के ही पीछे चलने वाले हैं, उनके प्रति आपका युक्तियुक्त एवं सार्थक वचन भी निरर्थक एवं असफल हो जाएगा। 'रथियों और घुड़सवारों से युक्त हाथियों की सेना के बीच में खड़ा होकर भय से रहित हुआ मंदबुद्धि मूढ़ दुर्योधन यह समझता है कि यह सारी पृथ्वी मैंने जीत ली। 

   'धृतराष्ट्र का वह ज्येष्ठ पुत्र भूमंडल का शत्रुरहित साम्राज्य पाने की आशा रखता है। वह मन ही मन यह संकल्प भी करता है कि जूए में प्राप्त हुआ यह धन एवं राज्य अब मेरे ही अधिकार में आबद्ध रहे; अत: उसके प्रति केवल संधि का प्रयत्न सफल न होगा। 'जान पड़ता है, अब यह पृथ्वी काल से परिपक्व होकर नष्ट होने वाली है; क्योंकि राजाओं के साथ भूमंडल के समस्त क्षत्रिय योद्धा दुर्योधन के लिए पांडवों के साथ युद्ध करने की इच्छा से यहाँ एकत्र हुए हैं। 

    'श्रीकृष्ण! ये सबके सब वे ही भूपाल हैं, जिन्होंने पहले आपके साथ वैर ठाना था और जिनका सार-सर्वस्व आपने हर लिया था। ये लोग आपके भय से धृतराष्ट्र पुत्रों की शरण में आए हैं तथा कर्ण के साथ संगठित हो वीरता दिखाने को उद्यत हुए हैं। 'ये सब योद्धा दुर्योधन के साथ मिल गए हैं और अपने प्राणों का मोह छोड़कर हर्ष एवं उत्साह के साथ पांडवों से युद्ध करने को तैयार हैं। दशार्हवंशी वीर! ऐसे विरोधियों के बीच में यदि आप जाने को उद्यत हैं तो मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। 'शत्रुसूदन! जहाँ दुष्टतापूर्ण विचार लिए बहुसंख्यक शत्रु बैठे हों, वहाँ उनके बीच आप कैसे जाना चाहते हैं? शत्रुहंता महाबाहु श्रीकृष्ण! यद्यपि सम्पूर्ण देवता भी सर्वथा आपके सामने टिक नहीं सकते हैं तथा आपका जो प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धिबल है, उसे भी मैं जानता हूँ, तथापि माधव! पांडवों पर जो मेरा प्रेम है, वही और उससे भी बढ़कर आपके प्रति है। अत: प्रेम, अधिक आदर और सौहार्द से प्रेरित होकर मैं यह बात कह रहा हूँ। 

   'कमलनयन! आपके दर्शन से आपके प्रति मेरा जो प्रेम उमड़ आया है, उसका आपसे क्या वर्णन किया जाये? आप समस्त देहधारियों के अन्तर्यामी आत्मा हैं अत: स्वयं ही सब कुछ देखते और जानते हैं।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण – विदुर संवाद विषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

तिरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण का कौरव-पांडवों में संधिस्थापन के प्रयत्न का औचित्य बताना”

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विदुर का यह प्रेम और विनय से युक्त वचन सुनकर पुरुषोत्तम भगवान मधुसूदन ने यह बात कही। 

   श्रीभगवान बोले ;- विदुरजी! एक महान बुद्धिमान पुरुष जैसी बात कह सकता है, विद्वान पुरुष जैसी सलाह दे सकता है, आप-जैसे हितैषी पुरुष के लिए मेरे-जैसे सुहृद से जैसी बात कहनी उचित है और आपके मुख से जैसा धर्म और अर्थ से युक्त सत्य वचन निकलना चाहिए, आपने माता-पिता के समान स्नेहपूर्वक वैसी ही बात मुझसे कही है। आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वही सत्य, समायोचित और युक्तिसंगत है। तथापि विदुर जी! यहाँ मेरे आने का जो कारण है, उसे सावधान होकर सुनिए। विदुर जी! मैं धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रिय योद्धाओं के वैरभाव- इन सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। अश्व, रथ और हाथियों सहित यह सारी पृथ्वी विनष्ट होना चाहती है। जो इसे मृत्युपाश से छुड़ाने का प्रयत्न करेगा, उसे ही उत्तम धर्म प्राप्त होगा। 

    मनुष्य यदि अपनी शक्तिभर किसी धर्म कार्य को करने का प्रयत्न करते हुए भी उसमें सफलता न प्राप्त कर सके, तो भी उसे उसका पुण्य तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता है। इस विषय में मुझे संदेह नहीं है। इसी प्रकार यदि मनुष्य मन से पाप का चिंतन करते हुए भी उसमें रुचि न होने के कारण उसे क्रिया द्वारा संपादित न करे, तो उसे उस पाप का फल नहीं मिलता है। ऐसा धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं।

   अत: विदुर जी! मैं युद्ध में मर मिटने को उद्यत हुए कौरवों तथा सृंजयों में संधि कराने का निश्चलभाव से प्रयत्न करूंगा। यह अत्यंत भयंकर आपत्ति कर्ण और दुर्योधन द्वारा ही उपस्थित की गयी है, क्योंकि ये सभी नरेश इन्हीं दोनों का अनुसरण करते हैं। अत: इस विपत्ति का प्रादुर्भाव कौरव पक्ष में ही हुआ है। जो किसी व्यसन या विपत्ति में पड़कर क्लेश उठाते हुए मित्र को यथाशक्ति समझा-बुझाकर उसका उद्धार नहीं करता है, उसे विद्वान पुरुष निर्दय एवं क्रूर मानते हैं। जो अपने मित्र को उसकी चोटी पकड़कर भी बुरे कार्य से हटाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करता है, वह किसी की निंदा का पात्र नहीं होता है। अत: विदुर जी! दुर्योधन और उसके मंत्रियों को मेरी शुभ, हितकर, युक्तियुक्त तथा धर्म और अर्थ के अनुकूल बात अवश्य माननी चाहिए। मैं तो निष्कपट भाव से धृतराष्ट्र के पुत्रों, पांडवों तथा भूमंडल के सभी क्षत्रियों के हित का ही प्रयत्न करूंगा।

    इस प्रकार हितसाधन के लिए प्रयत्न करने पर भी यदि दुर्योधन मुझ पर शंका करेगा तो मेरे मन को तो प्रसन्नता ही होगी और मैं अपने कर्तव्य के भार से उऋण हो जाऊंगा। भाई-बंधुओं में परस्पर फूट होने का अवसर आने पर जो मित्र सर्वथा प्रयत्न करके उनमें मेल कराने के लिए मध्यस्थता नहीं करता, उसे विद्वान पुरुष मित्र नहीं मानते हैं। 

   संसार के पापी, मूढ़ और शत्रुभाव रखने वाले लोग मेरे विषय में यह न कहें कि श्रीकृष्ण ने समर्थ होते हुए भी क्रोध से भरे हुए कौरव-पांडवों को युद्ध से नहीं रोका इसलिए भी मैं संधि कराने का प्रयत्न करूंगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 17-22 का हिन्दी अनुवाद)

   मैं दोनों पक्षों का स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ही यहाँ आया हूँ। इसके लिए पूरा प्रयत्न कर लेने पर मैं लोगों में निंदा का पात्र नहीं बनूँगा। यदि मूर्ख दुर्योधन मेरे कष्टनिवारक एवं धर्म तथा अर्थ के अनुकूल वचनों को सुनकर भी उन्हें ग्रहण नहीं करेगा तो उसे दुर्भाग्य के अधीन होना पड़ेगा। महात्मन! यदि मैं पांडवों के स्वार्थ में बाधा न आने देकर कौरवों तथा पांडवों में यथायोग्य संधि करा सकूँगा तो मेरे द्वारा यह महान पुण्यकर्म बन जाएगा और कौरव भी मृत्यु के पाश से मुक्त हो जाएँगे। मैं शांति के लिए विद्वानों द्वारा अनुमोदित धर्म और अर्थ के अनुकूल हिंसा रहित बात कहूँगा। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरी बात पर ध्यान देंगे तो उसे अवश्य मानेंगे तथा कौरव भी मुझे वास्तव में शांतिस्थापन के लिए ही आया हुआ जान मेरा आदर करेंगे। 

   जैसे क्रोध में भरे हुए सिंह के सामने दूसरे पशु नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार यदि मैं कुपित हो जाऊँ तो ये समस्त राजा लोग एक साथ मिलकर भी मेरा सामना करने में समर्थ न होंगे। 

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! यदुकुल को सुख देने वाले वृष्णिवंशविभूषण श्रीकृष्ण विदुर जी से उपर्युक्त बात कहकर स्पर्शमात्र से सुख देने वाली शय्या पर सो गए। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

चोरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन एवं शकुनि के द्वारा बुलाये जाने पर भगवान श्रीकृष्ण का रथ पर बैठकर प्रस्थान एवं कौरव सभा में प्रवेश और स्वागत के पश्चात आसन ग्रहण”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय बुद्धिमान श्रीकृष्ण तथा विदुर के इस प्रकार वार्तालाप करते हुए ही वह नक्षत्रों से सुशोभित मंगलमयी रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो चुकी थी। महात्मा श्रीकृष्ण धर्म, अर्थ और काम के विषय में अनेक प्रकार की बातें कहते रहे। उनकी वाणी के पद, अर्थ और अक्षर बड़े विचित्र थे; अत: महात्मा विदुर भगवान की कही हुई उन विविध वार्ताओं को प्रसन्नतापूर्वक सुनते रहे। इस प्रकार अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण और विदुर दोनों ही एक दूसरे की मनोनुकूल कथावार्ता में इतने तन्मय थे कि बिना इच्छा के ही उनकी वह रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो गयी थी। 

    तदनंतर मधुर स्वर से युक्त बहुत से सूत और मागध शंख और दुंदुभियों के घोष से भगवान श्रीकृष्ण को जगाने लगे। तब समस्त यदुवंशियों के शिरोमणि दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण ने शैय्या से उठकर प्रात:काल का समस्त आवश्यक कर्म क्रमश: सम्पन्न किया। संध्या-तर्पण और जप करके अग्निहोत्र करने के पश्चात माधव ने अलंकृत होकर उदयकाल में सूर्य का उपस्थान किया।

    इसी समय राजा दुर्योधन और सुबलपुत्र शकुनि भी संध्योपासना में लगे हुए अपार्जित वीर दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के पास आए और उनसे इस प्रकार बोले,

  शकुनि बोले ;- 'गोविंद! महाराज धृतराष्ट्र सभा में आ गए हैं। भीष्म आदि कौरव तथा अन्य समस्त भूपाल भी वहाँ उपस्थित हैं। जैसे स्वर्ग में देवता इंद्र का आवाहन करते हैं, इसी प्रकार भीष्म आदि सब लोग आपसे वहाँ दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं।' यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने परम मधुर सांत्वनापूर्ण वचन द्वारा उन दोनों का अभिनंदन किया। तदनंतर निर्मल सूर्यदेव का उदय होने जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले भगवान जनार्दन ने ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र, गौ तथा घोड़े दान किए। अनेक प्रकार के रत्नों का दान करके खड़े हुए उन अपराजित दाशार्हवीर के पास जाकर सारथी ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। 

    इसके बाद क्षुद्र घंटिकाओं से विभूषित और उत्तम घोड़ों से जुते हुए चमकीले विशाल रथ के साथ दारुक शीघ्र ही भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान के लिए जोतकर खड़ा किया हुआ वह विश्वविख्यात श्रेष्ठ रथ बड़ी शोभा पा रहा था। उसमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले चार घोड़े जुते हुए थे। उनमें से शैव्य का रंग तोतों की पांख के समान हरा था। सुग्रीव पलास के फूल की भाँति लाल था। मेघपुष्प की कान्ति मेघों के ही समान थी और बलाहक सफ़ेद था। शैव्य दाहिने भाग में जुतकर उस रथ का वहन करता था और सुग्रीव बाएँ भाग में। मेघपुष्प और बलाहक क्रमश: इनके पीछे जुते हुए थे।

    सत्त्वगुण के अधिष्ठानस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के रथ में लगे हुए ध्वजदण्ड की उस पताका में सूर्य का स्पर्श करते हुए-से सर्पशत्रु विनतानन्दन गरुड विराज रहे थे। कीर्तिमान श्रीकृष्ण का वह श्रेष्ठ रथ उस उज्ज्वल एवं प्रकाशमान गरुड़ध्वज के द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था। सोने की जालियों, पताकाओं तथा सुवर्णमय ध्वज के द्वारा भगवान का वह उत्तम रथ प्रलयकाल में उदित हुए सूर्य के समान उभ्दासित हो रहा था। उस रथ के गरुड़ध्वज, चंदोवे, स्वर्णजालविभूषित मध्यभाग तथा पृथक-पृथक दण्डमार्गों का विश्वकर्मा ने सुंदर ढंग से निर्माण किया था। प्रवाल (मूंगा), मनी, सुवर्ण, वैदूर्य, मुक्ता आदि विविध आभूषणों, शत-शत क्षुद्र-घंटिकाओं तथा वालमणि की झालरों से उस रथ के अंत:प्रदेश सुसज्जित किए गए थे। सुवर्णमय कमलिनियों, तपाये हुए सुवर्ण के ही वृक्षों तथा व्याघ्र, सिंह, वराह, वृषभ, मृग, पक्षी, तारा, सूर्य और हाथियों की स्वर्णमयी प्रतिमाओं से उस श्रेष्ठ रथ की अत्यंत शोभा हो रही थी। कूबर की गोलाकार संधियों में वज्र, अण्ड्कुश तथा विमान की आकृतियों से उस रथ को विभूषित किया गया था। महान सजल मेघों की गर्जना के समान गंभीर शब्द करने वाले तथा सब प्रकार के रत्नों से विभूषित हुए उस दिव्य रथ को उपस्थित जान अग्नि एवं ब्राह्मणों को दाहिने करके, गले में कौस्तुभ मणि डालकर, अपनी उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित हुए, कौरवों से घिरकर एवं वृष्णिवंशी वीरों से सुरक्षित हो समस्त यादवों को आनंद प्रदान करने वाले महामना शूरनंदन जनार्दन श्रीकृष्ण उस रथ पर आरूढ़ हुए।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 15-36 का हिन्दी अनुवाद)

  समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण बुद्धिमानों में उत्तम दशार्हनन्दन


श्रीकृष्ण के पश्चात समस्त धर्मों के ज्ञाता विदुर जी भी उस रथ पर जा बैठे। तदनंतर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे दुर्योधन और सुबलपुत्र शकुनि भी दूसरे रथ पर बैठ कर चले गए। सात्यकि, कृतवर्मा तथा वृष्निवंश के दूसरे रथी भी हाथी, घोड़ों तथा रथों पर बैठकर श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे गए। राजन! उन सबके जाते समय सोने के आभूषणों से विभूषित, उत्तम घोड़ों से जुते हुए एवं गंभीर घोषयुक्त उनके विचित्र रथ बड़ी शोभा पा रहे थे। 

    अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित होने वाले परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण यथासमय उस विशाल राजपथ पर जा पहुँचे, जिस पर पूर्वकाल के राजर्षि यात्रा करते थे। वहाँ की धूल झाड़ दी गयी थी और सर्वत्र जल से छिड़काव किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान करने पर ढोल, शंख तथा दूसरे-दूसरे बाजे एक साथ बज उठे। शत्रुओं को संताप देने वाले, सिंह के समान पराक्रमी तथा सम्पूर्ण जगत के प्रख्यात तरुण वीर भगवान श्रीकृष्ण के रथ को घेरकर चलते थे।

    श्रीकृष्ण के आगे चलने वाले सैनिकों की संख्या कई सहस्र थी। उन सबने विचित्र एवं अद्भुत वस्त्र धारण कर रखे थे। उनके हाथों में खड्ग और प्रास आदि आयुध शोभा पाते थे। किसी से पराजित न होने वाले दशार्हवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण के पीछे उस यात्रा के समय पाँच सौ हाथी और सहसत्रों रथ पर जा रहे थे। शत्रुदमन जनमेजय! उस समय भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए बालक, वृद्ध तथा स्त्रियों सहित कौरवों का सारा नगर सड़क पर आ गया था। 

   छतों के सड़क की ओर वाले भाग पर बैठी हुई झुंड की झुंड स्त्रियों के भार से मानो हस्तिनापुर के सारे भवन कंपित से हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण कौरवों से सम्मानित होते हुए, उनकी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए और यथायोग्य उनका भी सत्कार करते हुए धीरे-धीरे सबकी ओर देखते जा रहे थे। कौरव सभा के समीप पहुँचकर श्रीकृष्ण के अनुगामी सेवकों ने शंख और वेणु आदि वाद्यों की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को गूँजा दिया। तत्पश्चात अमित तेजस्वी राजाओं की वह सारी सभा भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की आकांक्षा के कारण हर्षोल्लास से चंचल हो उठी। श्रीकृष्ण के निकट आने पर उनके रथ का मेघगर्जना के समान गंभीर घोष सुनकर सभी नरेश रोमांचित हो उठे। सभा के द्वार पर पहुँचकर सर्वयादवशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने कैलाशशिखर के समान समुज्ज्वल रथ से नीचे उतरकर नूतन मेघ के समान श्याम तथा तेज से प्रज्वलित-सी होने वाली इंद्रभवनतुल्य उस कौरव सभा के भीतर प्रवेश किया। 

    राजन! जैसे सूर्य अपनी प्रभा से आकाश के तारों को तिरोहित कर देते हैं, उसी प्रकार महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य कान्ति से कौरवों को आच्छादित करते हुए विदुर और सात्यकि का हाथ पकड़े सभा में आए। वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण के आगे-आगे कर्ण और दुर्योधन थे और उनके पीछे कृतवर्मा तथा अन्य वृष्णिवंशी वीर थे। 

   उस समय भीष्म और द्रोणाचार्य आदि सब लोग भगवान श्रीकृष्ण


का सम्मान करने के लिए राजा धृतराष्ट्र को आगे करके अपने आसनों से उठकर आगे बढ़े। दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के आते ही महायशस्वी प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र, भीष्म और द्रोणाचार्य के साथ ही उठ गए थे। 



(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद)

    महाराज धृतराष्ट्र के उठने पर वहाँ चारों ओर बैठे हुए सहसत्रों नरेश उठकर खड़े हो गए। राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा से वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के लिए सुवर्णभूषित सर्वतोभद्र नामक सिंहासन रखा गया था। उस समय धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए राजा धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा अवस्था के अनुसार अन्य राजाओं से भी वार्तालाप किया। वहाँ सभा में पधारे हुए भगवान श्रीकृष्ण का भूमंडल के राजाओं तथा सभी कौरवों ने भलीभाँति पूजन किया। 

   राजाओं के बीच में खड़े हुए शत्रुनगरविजयी परंतप श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाश में कुछ ऋषि-मुनि खड़े हैं। उन नारद आदि महर्षियों को देखकर श्रीकृष्ण ने धीरे से शांतनुनन्दन भीष्म से कहा,- 

   श्री कृष्ण ने कहा ;- 'नरेश्वर! इस राजसभा को देखने के लिए ऋषिगण पधारे हैं। 'इन्हें अत्यंत सत्कारपूर्वक आसन देकर निमंत्रित किया जाये, क्योंकि इनके बैठे बिना कोई भी बैठ नहीं सकता। 'पवित्र अंत:करण वाले इन मुनियों की शीघ्र पूजा की जानी चाहिए।' शांतनुनन्दन भीष्म ने मुनियों को देखकर सभाद्वार पर स्थित हुए राजकर्मचारियों को बड़ी उतावली के साथ आज्ञा दी,

   भीष्म ने कहा ;- 'अरे! आसन लाओ'। तब सेवकों ने इधर उधर से मणि एवं सुवर्ण जड़े हुए शुद्ध, विशाल एवं विस्तृत आसन लाकर रख दिये। भारत! अर्ध्य ग्रहण करके जब ऋषिलोग उन आसनों पर बैठ गए, तब भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य राजाओं ने भी अपना-अपना आसन ग्रहण किया। दु:शासन ने सात्यकि को उत्तम आसन दिया एवं विविंशति ने कृतवर्मा को स्वर्णमय आसन प्रदान किया। 

   अमर्ष में भरे हुए महामना कर्ण और दुर्योधन दोनों एक आसन पर श्रीकृष्ण के पास ही बैठे थे। जनमेजय! गांधारदेशीय सैनिकों से सुरक्षित पुत्र सहित गांधारराज शकुनि भी एक आसन पर बैठा था। परम बुद्धिमान विदुर भगवान श्रीकृष्ण के आसन को स्पर्श करते हुए एक मणिमय चौकी पर, जिसके ऊपर श्वेत रंग का स्पृहणीय मृगचर्म बिछाया गया था, बैठे थे।

   सब राजा दीर्घकाल के पश्चात दशार्हकुलभूषण भगवान जनार्दन को देखकर उन्हीं की ओर एकटक दृष्टि लगाए रहे, मानो अमृत पी रहे हों। इस प्रकार उन्हें तृप्ति ही नहीं होती थी। अलसी के फूलों की भाँति मनोहर श्याम कांतीवाले पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण उस सभा के मध्यभाग में स्वर्णपात्र में रखी हुई नीलमणि के समान शोभा पा रहे थे।  उस समय वहाँ सबका मन भगवान गोविंद में ही लगा हुआ था। अत: सभी चुपचाप बैठे थे। कोई मनुष्य कहीं कुछ भी नहीं बोल रहा था। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण का सभा में प्रवेश विषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

पंचानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव सभा में श्रीकृष्ण का प्रभावशाली भाषण”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब सभा में सब राजा मौन होकर बैठ गए, तब सुंदर दंतावली से सुशोभित तथा दुंदुभि के समान गंभीर स्वर वाले यदुकुलतिलक भगवान श्रीकृष्ण ने बोलना आरंभ किया। जैसे ग्रीष्मऋतु के अंत में बादल गरजता है, उसी प्रकार उन्होंने गंभीर गर्जना के साथ सारी सभा को सुनाते हुए धृतराष्ट्र की ओर देखकर इस प्रकार कहा। 

   श्रीभगवान बोले ;- भरतनंदन! मैं आपसे यह प्रार्थना करने के लिए


यहाँ आया हूँ कि क्षत्रियवीरों का संहार हुए बिना ही कौरवों और पांडवों में शांतिस्थापन हो जाये। शत्रुदमन नरेश! मुझे इसके सिवा दूसरी कोई कल्याणकारक बात आपसे नहीं कहनी है; क्योंकि जानने योग्य जितनी बातें हैं, वे सब आपको विदित ही हैं। भूपाल! इस समय समस्त राजाओं में यह कुरुवंश ही सर्वश्रेष्ठ है। इसमें शास्त्र एवं सदाचार का पूर्णत: आदर एवं पालन किया जाता है। यह कौरव कुल समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है।

   भारत! कुरुवंशियों में कृपा, अनुकंपा, करुणा, अनृशंसता, सरलता, क्षमा और सत्य- ये सद्गुण अन्य राजवंशों की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं। राजन! ऐसे उत्तम गुणसम्पन्न एवं अत्यंत प्रतिष्ठित कुल के होते हुए भी यदि इसमें आपके कारण कोई अनुचित कार्य हो, तो यह ठीक नहीं है। तात कुरुश्रेष्ठ! यदि कौरवगण बाहर और भीतर मिथ्या आचरण करने लगें, तो आप ही उन्हें रोककर सन्मार्ग में स्थापित करने वाले हैं। कुरुनंदन! दुर्योधनादि आपके पुत्र धर्म और अर्थ को पीछे करके क्रूर मनुष्यों के समान आचरण करते हैं। पुरुषरत्न! ये अपने ही श्रेष्ठ बंधुओं के साथ अशिष्टतापूर्ण बर्ताव करते हैं। लोभ ने इनके हृदय को ऐसा वशीभूत कर लिया है कि इन्होंने धर्म की मर्यादा तोड़ दी है। इस बात को आप अच्छी तरह जानते हैं। 

   कुरुश्रेष्ठ! इस समय यह अत्यंत भयंकर आपत्ति कौरवों में ही प्रकट हुई है। यदि इसकी उपेक्षा की गयी तो यह समस्त भूमंडल का विध्वंस कर डालेगी। भारत! यदि आप चाहते हैं तो इस भयानक विपत्ति का अब भी निवारण किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! इन दोनों पक्षों में शांति स्थापित होना मैं कठिन कार्य नहीं मानता हूँ। प्रजापालक कौरवनरेश! इस समय इन दोनों पक्षों में संधि कराना आपके और मेरे अधीन है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिए और मैं पांडवों को नियंत्रण में रखूँगा। 

   राजेन्द्र! आपके पुत्रो को चाहिए कि वे अपने अनुयायियों के साथ आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करें। आपके शासन में रहने से इनका महान हित हो सकता है। राजन! यदि आप अपने पुत्रों पर शासन करना चाहें और संधि के लिए प्रयत्न करें तो इसी में आपका भी हित है और इसी से पांडवों का भला हो सकता है। प्रजानाथ! पांडवों के साथ वैर और विवाद का कोई अच्छा परिणाम नहीं हो सकता; यह विचारकर आप स्वयं ही संधि के लिए प्रयत्न करें। जनेश्वर! ऐसा करने से भरतवंशी पांडव आपके ही सहायक होंगे। 

   राजन! आप पांडवों से सुरक्षित होकर धर्म और अर्थ का अनुष्ठान कीजिये। नरेंद्र! आपको पांडवों के समान संरक्षक प्रयत्न करने पर भी नहीं मिल सकते।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

    महात्मा पांडवों से सुरक्षित होने पर आपको देवताओं सहित इन्द्र भी नहीं जीत सकते, फिर दूसरे किसी राजा की तो बात ही क्या है? भरतश्रेष्ठ! जिस पक्ष में भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, विविंशति, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, सिंधुराज जयद्रथ, कलिंगराज, काम्बोजनरेश सुदक्षिण तथा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल-सहदेव, महातेजस्वी सात्यकि तथा महारथी युयुत्सु हों, उस पक्ष के योद्धाओं से कौन विपरीत बुद्धि वाला राजा युद्ध कर सकता है? 

   शत्रुसूदन नरेश! कौरव और पांडवों के साथ रहने पर आप पुन: सम्पूर्ण जगत के सम्राट होकर शत्रुओं के लिए अजेय हो जाएँगे। शत्रुओं को संताप देने वाले भूपाल! उस दशा में जो राजा आपके समान या आपसे बड़े हैं, वे भी आपके साथ संधि कर लेंगे। इस प्रकार आप अपने पुत्र, पौत्र, पिता, भाई और सुहृदों द्वारा सर्वथा सुरक्षित रहकर सुख से जीवन बिता सकेंगे। पृथ्वीपते! यदि आप पहले की भाँति इन पांडवों का ही सत्कार करके इन्हें आगे रखें तो इस सारी पृथ्वी का उपभोग करेंगे। भारत! इन समस्त पांडवों तथा अपने पुत्रों के साथ रह-कर आप दूसरे शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार आपके सम्पूर्ण स्वार्थ की सिद्धि होगी। 

   शत्रुसंतापी नरेश! यदि आप मंत्रियों सहित अपने समस्त पुत्रों से मिलकर रहेंगे तो उन्हीं के द्वारा जीती हुई इस पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। महाराज! युद्ध छिड़ने पर तो महान संहार ही दिखाई देता है। राजन! इस प्रकार दोनों पक्ष का विनाश कराने में आप कौनसा धर्म देखते हैं? भरतश्रेष्ठ! यदि पांडव युद्ध में मारे गए अथवा आपके महाबली पुत्र ही नष्ट हो गए तो उस दशा में आपको कौनसा सुख मिलेगा? यह बताइये। पांडव तथा आपके पुत्र सभी शूरवीर, अस्त्रविद्या के पारंगत तथा युद्ध की अभिलाषा रखने वाले हैं। आप इन सबकी महान भय से रक्षा कीजिये। 

   युद्ध के परिणाम पर विचार करने से हमें समस्त कौरव और पांडव नष्टप्राय दिखायी देते हैं। दोनों ही पक्षों के शूरवीर रथी रथियों से मारे जाकर नष्ट हो जाएँगे। नृपश्रेष्ठ! भूमंडल के समस्त राजा यहाँ एकत्र हो अमर्ष में भरकर इस प्रजा का नाश करेंगे। कुरुकुल को आनंदित करने वाले नरेश! आप इस जगत की रक्षा कीजिये; जिससे इस समस्त प्रजा का नाश न हो। आपके प्रकृतिस्थ होने पर ये सब लोग बच जायेंगे। राजन! ये सब नरेश शुद्ध, उदार, लज्जाशील, श्रेष्ठ, पवित्र कुलों में उत्पन्न और एक दूसरे के सहायक हैं। आप इन सबकी महान भय से रक्षा कीजिये। आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे ये भूपाल परस्पर मिलकर तथा एक साथ खा-पीकर कुशलपूर्वक अपने-अपने घर को वापस लौटें। शत्रुओं को संताप देने वाले भरतकुलभूषण! ये राजा लोग उत्तम वस्त्र और सुंदर हार पहनकर अमर्ष और वैर को मन से निकालकर यहाँ से सत्कारपूर्वक विदा हों। 

   भरतश्रेष्ठ! अब आपकी आयु भी क्षीण हो चली है; इस बुढ़ापे में आपका पांडवों के ऊपर वैसा ही स्नेह बना रहे, जैसा पहले था; अत: संधि कर लीजिये। भरतर्षभ! पांडव बाल्यावस्था में ही पिता से बिछुड़ गए थे। आपने ही उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया; अत: उनका और अपने पुत्रों का न्यायपूर्वक पालन कीजिये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 39-53 का हिन्दी अनुवाद)

   भरतभूषण! आपको ही पांडवों की सदा रक्षा करनी चाहिये। विशेषत: संकट के अवसर पर तो आपके लिए उनकी रक्षा अत्यंत आवश्यक है ही। कहीं ऐसा न हो कि पांडवों से वैर बाँधने के कारण आपके धर्म और अर्थ दोनों नष्ट हो जायें। राजन! पांडवों ने आपको प्रणाम करके प्रसन्न करते हुए यह संदेश कहलाया है- 'तात! आपकी आज्ञा से अनुचरों सहित हमने भारी दुख सहन किया है। 

'बारह वर्षों तक हमनें निर्जन वन में निवास किया है और तेरहवाँ वर्ष जनसमुदाय से भरे हुए नगर में अज्ञात रहकर बिताया है। 'तात! आप हमारे ज्येष्ठ पिता हैं, अत: हमारे विषय में की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहेंगे अर्थात वनवास से लौटने पर हमारा राज्य हमें प्रसन्नतापूर्वक लौटा देंगे- ऐसा निश्चय करके ही हमने वनवास और अज्ञातवास की शर्त को कभी नहीं तोड़ा है, इस बात को हमारे साथ रहे हुए ब्राह्मण लोग जानते हैं। 'भरतवंशशिरोमणे! हम उस प्रतिज्ञा पर दृढ़तापूर्वक स्थित रहे हैं; अत: आप भी हमारे साथ की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहें। राजन! हमने सदा क्लेश उठाया है; अब हमें हमारा राज्यभाग प्राप्त होना चाहिये। 

    'आप धर्म और अर्थ के ज्ञाता हैं; अत: हम लोगों की रक्षा कीजिये। आप में गुरुत्व देखकर, आप गुरुजन हैं, यह विचार करके आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए हम बहुत-से क्लेश चुपचाप सहते जा रहे हैं; अब आप भी हमारे ऊपर माता-पिता की भाँति स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। 'भारत! गुरुजनों के प्रति शिष्य एवं पुत्रों का जो बर्ताव होना चाहिये, हम आपके प्रति उसी का पालन करते हैं। आप भी हम लोगों पर गुरुजनोंचित स्नेह रखते हुए तदनुरूप बर्ताव कीजिये। 'हम पुत्रगण यदि कुमार्ग पर जा रहे हों तो पिता के नाते आपका कर्तव्य है कि हमें सन्मार्ग में स्थापित करें। इसलिए आप स्वयं धर्म के सुंदर मार्ग पर स्थित होइए और हमें भी धर्म के मार्ग पर ही लाइये'। 

    'भरतश्रेष्ठ! आपके पुत्र पांडवों ने इस सभा के लिए भी यह संदेश दिया है,- 'आप समस्त सभासद्गण धर्म के ज्ञाता हैं। आपके रहते हुए यहाँ कोई अयोग्य कार्य हो, यह उचित नहीं है। 'जहाँ सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और मिथ्या के द्वारा सत्य का गला घोंटा जाता हो, वहाँ वे सभासद नष्ट हुए माने जाते हैं। 'जिस सभा में अधर्म से विद्ध हुआ धर्म प्रवेश करता है और सभासद्गण उस अधर्मरूपी कांटे को काटकर निकाल नहीं देते हैं, वहाँ उस काटें से सभासद ही विद्ध होते हैं अर्थात उन्हें ही अधर्म से लिप्त होना पड़ता है। जैसे नदी अपने तट पर उगे हुए वृक्षों को गिराकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार वह अधर्मविद्ध धर्म ही उन सभासदों का नाश कर डालता है।' 

    'भरतश्रेष्ठ! जो पांडव सदा धर्म की ओर ही दृष्टि रखते हैं और उसी का विचार करके चुपचाप बैठे हैं, वे जो आपसे राज्य लौटा देने का अनुरोध करते हैं, वह सत्य, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। जनेश्वर! आपसे पांडवों का राज्य लौटा देने के सिवा दूसरी कौनसी बात यहाँ कही जा सकती है। इस सभा में जो भूमिपाल बैठे हैं, वे धर्म और अर्थ का विचार करके स्वयं बतावें, मैं ठीक कहता हूँ या नहीं। पुरुषरत्न! आप इन क्षत्रियों को मौत के फंदे से छुड़ाइये। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 54-63 का हिन्दी अनुवाद)

   भरतश्रेष्ठ! शांत हो जाइए, क्रोध के वशीभूत न होइये। परंतप! पांडवों को यथोचित्त पैतृक राज्यभाग देकर अपने पुत्रों के साथ सफल मनोरथ हो मनोवांछित भोग भोगिये। नरेश्वर! आप जानते हैं कि अजातशत्रु युधिष्ठिर सदा सत्पुरुषों के धर्म पर स्थित हैं। उनका पुत्रों सहित आपके प्रति जो बर्ताव है, उससे भी आप अपरिचित नहीं हैं। आप लोगों ने उन्हें लाक्षागृह की आग में जलवाया तथा राज्य और देश से निकाल दिया; तो भी वे पुन: आपकी ही शरण में आए हैं। पुत्रों सहित आपने ही युधिष्ठिर को यहाँ से निकालकर इंद्रप्रस्थ का निवासी बनाया। वहाँ रहकर उन्होंने समस्त राजाओं को अपने वश में किया और उन्हें आपका मुखापेक्षी बना दिया। राजन! तो भी युधिष्ठिर ने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। 

    ऐसे साधु बर्ताव वाले युधिष्ठिर के राज्य तथा धन-धान्य का अपहरण कर लेने की इच्छा से सुबलपुत्र शकुनि ने जूए के बहाने अपना महान कपटजाल फैलाया। उस दयनीय अवस्था में पहुँचकर अपनी महारानी कृष्णा को सभा में तिरस्कारपूर्वक लायी गयी देखकर भी महामना युधिष्ठिर अपने क्षत्रिय धर्म से विचलित नहीं हुए। 

   भारत! मैं तो आपका और पांडवों का भी कल्याण ही चाहता हूँ। राजन! आप समस्त प्रजा को धर्म, अर्थ और सुख से वंचित न कीजिये। इस समय आप अनर्थ को ही अर्थ और अर्थ को ही अपने लिए अनर्थ मान रहे हैं। प्रजानाथ! आपके पुत्र लोभ में अत्यंत आसक्त हो गए हैं, उन्हें काबू में लाइये। राजन! शत्रुओं का दमन करने वाले कुंती के पुत्र आपकी सेवा के लिए भी तैयार हैं और युद्ध के लिए भी प्रस्तुत हैं। परंतप! जो आपके लिए विशेष हितकर जान पड़े, उसी मार्ग का अवलंबन कीजिये। 

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण के उस कथन का समस्त राजाओं ने हृदय से आदर किया। वहाँ उसके उत्तर में कोई भी कुछ कहने के लिए अग्रसर न हो सका। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में कौरव सभा में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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