सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षडशीति अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का भगवान श्रीकृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने एवं दुःशासन के महल में ठहराने का विचार प्रकट करना”
धृतराष्ट्र बोले ;- विदुर! मुझे सूचना मिली है कि भगवान श्रीकृष्ण उपप्लव्य से यहाँ के लिए प्रस्थित हो गए हैं, आज वृकस्थल में ठहरे हैं तथा कल सवेरे ही इस नगर में पहुँच जाएँगे। भगवान जनार्दन आहुकवंशी क्षत्रियों के अधिपति तथा समस्त सात्वतों के अगुआ हैं। उनका हृदय महान है, पराक्रम भी महान है तथा वे महान सत्त्वगुण से सम्पन्न हैं। वे भगवान माधव समृद्धिशाली यादव गणराष्ट्र के पोषक तथा संरक्षक हैं। पितामह के भी जनक होने के कारण वे तीनों लोकों के प्रपितामह हैं।
जैसे आदित्य, वसु तथा रुद्रगण बृहस्पति की बुद्धि का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार वृष्णि और अंधकवंश के लोग प्रसन्नचित्त होकर श्रीकृष्ण की ही बुद्धि के आश्रित रहते हैं। धर्मज्ञ विदुर! मैं तुम्हारे सामने ही उन महात्मा श्रीकृष्ण को जो पूजा दूंगा, उसे बताता हूँ, सुनो, एक रंग के, सुदृढ़ अंगों वाले तथा बाह्लिक देश में उत्पन्न हुए उत्तम जाति के चार-चार घोड़ों से जुते हुए सोलह सुवर्णमय रथ मैं श्रीकृष्ण को भेंट करूँगा।
कुरुनंदन! इनके सिवा मैं उन्हें आठ मतवाले हाथी भी दूँगा, जिनके मस्तकों से सदा मद चूता रहता है, जिनके दाँत ईषादंड के समान प्रतीत होते हैं तथा जो शत्रुओं पर प्रहार करने में कुशल हैं और जिन आठों गजराजों में से प्रत्येक के साथ आठ-आठ सेवक हैं। साथ ही मैं उन्हें सुवर्ण की-सी कांतीवाली परम सुंदरी सौ ऐसी दासियाँ दूँगा, जिनसे किसी संतान की उत्पत्ति नहीं हुई है। दासियों के ही बराबर दास भी दूँगा। मेरे यहाँ पर्वतीयों से भेंट में मिले हुए भेड़ के ऊन से बने हुए असंख्य कंबल हैं, जो स्पर्श करने पर बड़े मुलायम जान पड़ते हैं; उनमें से अठारह हजार कंबल भी मैं श्रीकृष्ण को उपहार में दूँगा।
चीन देश में उत्पन्न हुए सहसत्रों मृगचर्म मेरे भंडार में सुरक्षित हैं, उनमें से श्रीकृष्ण जितना लेना चाहेंगे, उतने सबके सब उन्हें अर्पित कर दूँगा। मेरे पास यह एक अत्यंत तेजस्वी निर्मल मणि है, जो दिन तथा रात में भी प्रकाशित होती है, इसे भी मैं श्रीकृष्ण को ही दूँगा, क्योंकि वे ही इसके योग्य हैं। मेरे पास खच्चरियों से युक्त एक रथ है, जो एक दिन में चौदह योजन तक चला जाता है, वह भी मैं उन्हीं को अर्पित करूँगा। श्रीकृष्ण के साथ जितने वाहन और जितने सेवक आएंगे उन सब को औसत से आठ गुणा भोजन मैं प्रत्येक समय देता रहूँगा।
दुर्योधन के सिवा मेरे सभी पुत्र और पौत्र वस्त्राभूषणों से विभूषित हो स्वच्छ-सुंदर रथों पर बैठकर श्रीकृष्ण की अगवानी के लिए जाएँगे। सहस्रों सुंदरी वारांगनाएँ सुंदर वेषभूषा से सज-धजकर महाभाग केशव की अगवानी के लिए पैदल ही जाएंगी। जनार्दन का दर्शन करने के लिए इस नगर से जो भी कोई पर्दा न रखने वाली कल्याणमयी कन्याएँ जाना चाहेंगी, वे जा सकेंगी। जैसे प्रजा सूर्यदेव का दर्शन करती है, उसी प्रकार स्त्री, पुरुष और बालकों सहित यह सारा नगर महात्मा मधुसूदन का दर्शन करे।
'नगर में चारों ओर विशाल ध्वजाएँ और पताकाएँ फहरा दी जाएँ और श्रीकृष्ण जिस पर आ रहे हों, उस राजपथ पर जल का छिड़काव करके उसे धूल रहित बना दिया जाये' इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र ने आदेश दिया।
इतना कहकर वे फिर बोले ;- दुःशासन का महल राजा दुर्योधन के राजभवन से भी श्रेष्ठ है। उसी को आज झाड़-पोंछकर सब प्रकार से सुसज्जित कर दिया जाये। यह महल सुंदर आकार वाले भवनों से सुशोभित, कलयाणकारी, रमणीय, सभी ऋतुओं के वैभव से सम्पन्न तथा अनंत धनराशि से समृद्ध है। मेरे और दुर्योधन के पास जो भी रत्न हैं, वे सब इसी घर में रखे हैं। भगवान श्रीकृष्ण उनमें से जो-जो रत्न लेना चाहें, वे सब उन्हें निःसन्देह दे दिये जाएँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में मार्ग में धृतराष्ट्र वाक्य विषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
सतासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्ताशीति अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“विदुर का धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करने के लिए समझाना”
विदुर जी बोले ;- राजन! आप तीनों लोकों के श्रेष्ठतम पुरुष हैं और सर्वत्र आपका बहुत सम्मान होता है। भारत! इस लोक में भी आपकी बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मान है। इस समय आप अंतिम अवस्था में स्थित हैं। ऐसी स्थिति में आप जो कुछ कह रहे हैं, वह शास्त्र से अथवा लौकिक युक्ति से भी ठीक ही है। इस सुस्थिर विचार के कारण ही आप वास्तव में स्थविर हैं। राजन! जैसे चंद्रमा में कला है, सूर्य में प्रभा है और समुद्र में उताल तरंगें हैं, उसी प्रकार आप में धर्म की स्थिति है। यह समस्त प्रजा निश्चित रूप से जानती है।
भूपाल! आपके सद्गुण समूह से सदा ही इस जगत की उन्नति एवं प्रतिष्ठा हो रही है। अत: आप अपने बंधु-बांधवों सहित सदा ही इन सद्गुणों की रक्षा के लिए प्रयत्न कीजिये। राजन! आप सरलता को अपनाइए। मूर्खतावश कुटिलता का आश्रय ले अपने अत्यंत प्रिय पुत्रों, पौत्रों तथा सुहृदों का महान सर्वनाश न कीजिये। नरेश्वर! श्रीकृष्ण को अतिथि के रूप में पाकर आप जो उन्हें बहुत-सी वस्तुएँ देना चाहते हैं, उन सबके साथ-साथ वे आपसे इस समूची पृथ्वी के भी पाने के अधिकारी हैं।
मैं सत्य की शपथ खाकर अपने शरीर को छूकर कहता हूँ कि आप धर्म पालन के उद्देश्य से अथवा श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिए उन्हें वे सब वस्तुएं नहीं देना चाहते हैं। यज्ञों में बहुत-सी दक्षिणा देने वाले महाराज! मैं सच कहता हूँ। यह सब आपकी माया और प्रवंचना मात्र है। आपके इन बाह्य व्यवहारों में छिपा हुआ जो आपका वास्तविक अभिप्राय है, उसे मैं समझता हूँ। नरेंद्र! बेचारे पांचों भाई पांडव आपसे केवल पाँच गाँव ही पाना चाहते हैं, परंतु आप उन्हें वे गाँव भी नहीं देना चाहते हैं। इससे स्पष्ट सूचित होता है कि आप संधिद्वारा शांति-स्थापन नहीं करेंगे।
आप तो धन देकर महाबाहु श्रीकृष्ण को अपने पक्ष में लाना चाहते हैं और इस उपाय से आप यह आशा रखते हैं कि आप उन्हें पांडवों की ओर से फोड़ लेंगे। परंतु मैं आपको असली बात बताए देता हूँ, आप धन देकर अथवा दूसरा कोई उद्योग या निंदा करके श्रीकृष्ण को अर्जुन से पृथक नहीं कर सकते। मैं श्रीकृष्ण के माहात्मय को जानता हूँ। श्रीकृष्ण के प्रति अर्जुन की जो सुदृढ़ भक्ति है, उससे भी परिचित हूँ। अत: मैं यह निश्चित रूप से जानता हूँ कि श्रीकृष्ण अपने प्राणों के समान प्रिय सखा अर्जुन को कभी त्याग नहीं सकते।
इसलिए आपकी दी हुई वस्तुओं में जल से भरे हुए कलश, पैर धोने के लिए जल और कुशल-प्रश्न को छोड़कर दूसरी किसी वस्तु को श्रीकृष्ण स्वीकार नहीं करेंगे। राजन! सम्मानीय महात्मा श्रीकृष्ण का जो परम प्रिय आतिथ्य है, वह तो कीजिये ही, क्योंकि वे भगवान जनार्दन सबके द्वारा सम्मान पाने के योग्य हैं। महाराज! भगवान केशव उभयपक्ष के कल्याण की इच्छा लेकर जिस प्रयोजन से इस कुरुदेश में आ रहे हैं, वही उन्हें उपहार में दीजिये।
राजेन्द्र! दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण आप, दुर्योधन तथा पांडवों में संधि कराकर शांति स्थापित कराना चाहते हैं। अत: उनके इस कथन का पालन कीजिये, इसी से वे संतुष्ट होंगे। महाराज! आप पिता हैं और पांडव आपके पुत्र हैं। आप वृद्ध हैं और वे शिशु हैं। आप उनके प्रति पिता के समान स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। वे आपके प्रति सदा ही पुत्रों की भाँति श्रद्धा-भक्ति रखते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुरवाक्य विषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
अठ्ठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टाशीति अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का श्रीकृष्ण के विषय में अपने विचार कहना एवं उसकी कुमंत्रणा से कुपित हो भीष्म जी का सभा से उठ जाना”
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! अपनी मर्यादा से कभी च्युत ने होने वाले श्रीकृष्ण के संबंध में विदूर जी जो कुछ कहते हैं, वह सब कुछ ठीक है। जनार्दन श्रीकृष्ण का कुंती के पुत्रों के प्रति अत्यंत अनुराग है, अत: उन्हें उनकी ओर से फोड़ा नहीं जा सकता। राजेन्द्र! आप जो जनार्दन को सत्कारपूर्वक बहुत-सा धन-रत्न भेंट करना चाहते हैं, वह कदापि उन्हें न दें।
मैं इसलिए नहीं कहता कि श्रीकृष्ण उन वस्तुओं के अधिकारी नहीं है, अपितु इस दृष्टि से मना कर रहा हूँ कि वर्तमान देश-काल इस योग्य नहीं है कि उनका विशेष सत्कार किया जाये। राजन! इस समय तो श्रीकृष्ण यही समझेंगे कि यह डर के मारे मेरी पूजा कर रहे हैं। प्रजानाथ! जहाँ क्षत्रिय का अपमान होता हो, वहाँ समझदार क्षत्रिय को वैसा कार्य नहीं करना चाहिए। यह मेरा निश्चित विचार है। विशाल नेत्रों वाले श्रीकृष्ण इस लोक में ही नहीं, तीनों लोकों में सबसे श्रेष्ठ होने के कारण परम पूजनीय पुरुष हैं, यह बात मुझे सब प्रकार से विदित है।
प्रभो! तथापि मेरा मत है कि इस समय उन्हें कुछ नहीं देना चाहिए; क्योंकि ऐसी ही कार्यप्रणाली प्राप्त है। जब कलह आरंभ हो गया है, तब अतिथि सत्कार द्वारा प्रेम दिखाने मात्र से उसकी शांति नहीं हो सकती।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दुर्योधन की यह बात सुनकर कुरुकुल के वृद्ध पितामह भीष्म विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्र से इस प्रकार बोले-
भीष्म बोले ;- 'राजन! श्रीकृष्ण का कोई सत्कार करे या न करे, इससे वे कुपित नहीं होंगे। परंतु वे अवहेलना के योग्य कदापि नहीं हैं, अत: कोई भी उनका अपमान या अवहेलना नहीं कर सकता। 'महाबाहो! श्रीकृष्ण जिस कार्य को करने की बात अपने मन में ठान लेते हैं, उसे कोई सारे उपाय करके भी उलट नहीं सकता। 'अत: महाबाहु श्रीकृष्ण जो कुछ कहें, उसे नि:शंक होकर करना चाहिए। वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण को मध्यस्थ बनाकर तुम शीघ्र ही पांडवों के साथ संधि कर लो।
'धर्मात्मा भगवान श्रीकृष्ण जो कुछ कहेंगे, वह निश्चय ही धर्म और अर्थ के अनुकूल होगा। अत: तुम्हें अपने बंधु-बांधवों के साथ उनसे प्रिय वचन ही बोलना चाहिए।'
दुर्योधन बोला ;- पितामह! नरेश्वर! अब इस बात की कोई संभावना नहीं है कि मैं जीवनभर पांडवों के साथ मिलकर इस सारी संपत्ति का उपभोग करूँ इस समय मैंने जो यह महान कार्य करने का निश्चय किया है, उसे सुनिए। पांडवों के सबसे बड़े सहारे श्रीकृष्ण को यहाँ आने पर मैं कैद कर लूँगा। उनके कैद हो जाने पर समस्त यदुवंशी, इस भूमंडल का राज्य तथा पांडव भी मेरी आज्ञा के अधीन हो जाएँगे। श्रीकृष्ण कल सबेरे यहाँ आ ही जाएँगे। अत: इस विषय में जो अच्छे उपाय हों, जिनसे श्रीकृष्ण को इन बातों का पता न लगे और मेरे इस मंतव्य में कोई विघ्न न पड़ सके, उन्हें आप मुझे बताइये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! श्रीकृष्ण से छल करने के विषय में दुर्योधन की वह भयंकर बात सुनकर धृतराष्ट्र अपने मंत्रियों के साथ बहुत दुःखी और उदास हो गए।
तदनंतर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से कहा ;- 'प्रजापालक दुर्योधन! तुम ऐसी बात मुँह से न निकालो। यह सनातन धर्म नहीं है। 'श्रीकृष्ण इस समय दूत बनकर आ रहे हैं। वे हमारे प्रिय और संबंधी भी हैं तथा उन्होंने कौरवों का कोई अपराध भी नहीं किया है। ऐसी दशा में वे कैद करने के योग्य कैसे हो सकते हैं?'
यह सुनकर भीष्म जी ने कहा ;- धृतराष्ट्र! तुम्हारा यह मंदबुद्धि पुत्र काल के वश में हो गया है। यह अपने हितैषी सुहृदों के कहने-
समझाने पर भी अनर्थ को ही अपना रहा है, अर्थ को नहीं। तुम भी सगे-संबंधियों की बात न मानकर कुमार्ग पर चलने वाले इस पापसक्त पापात्मा का ही अनुसरण करते हो। अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण से भिड़कर तुम्हारा यह दुर्बुद्धि पुत्र अपने मंत्रियों सहित क्षण भर में नष्ट हो जाएगा। इसने धर्म का सर्वथा त्याग कर दिया है। अब मैं इस दुर्बुद्धि, पापी एवं क्रूर दुर्योधन की अनर्थ भरी बातें किसी प्रकार भी नहीं सुनना चाहता।
ऐसा कहकर भरतश्रेष्ठ सत्यपराक्रमी वृद्ध पितामह भीष्म अत्यंत कुपित हो उस सभाभवन से उठकर चले गए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में दुर्योधन वाक्य विषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोननवति अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का स्वागत, धृतराष्ट्र तथा विदुर के घरों पर उनका आतिथ्य”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उधर वृकस्थल में प्रात:काल उठकर भगवान श्रीकृष्ण ने सारा नित्यकर्म पूर्ण किया। फिर ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर वे हस्तिनापुर की ओर चले। तब वहाँ से जाते हुए महाबाहु महाबली श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सम्पूर्ण वृकस्थल निवासी वहाँ से लौट गए। दुर्योधन के सिवा धृतराष्ट्र के सभी पुत्र तथा भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि यथायोग्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो हस्तिनापुर की ओर आते हुए श्रीकृष्ण की अगवानी के लिए गए।
राजन! श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए बहुत से नागरिक भी नाना प्रकार की सवारियों पर बैठकर तथा अन्य कुछ लोग पैदल ही चलकर गए। अनायास ही महान पराक्रम दिखाने वाले भीष्म तथा द्रोणाचार्य से मार्ग में ही मिलकर धृतराष्ट्र पुत्रों से घिरे हुए भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के स्वागत-सत्कार के लिए हस्तिनापुर को खूब सजाया गया था। वहाँ का राजमार्ग भी अनेक प्रकार के रत्नों से सुशोभित किया गया था।
भरतश्रेष्ठ! उस समय भगवान वासुदेव के दर्शन की तीव्र इच्छा के कारण स्त्री, बालक अथवा वृद्ध कोई भी घर में नहीं ठहर सका।महाराज! जब श्रीकृष्ण नगर में प्रवेश कर रहे थे, तब राजमार्ग में भूमि पर खड़े हुए मनुष्य उनकी स्तुति करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण को देखने के लिए एकत्रित हुई सुंदरी स्त्रियों से भरे हुए बड़े-बड़े महल भी उनके भार से इस भूतल पर विचलित होते-से दिखाई देते थे।
वहाँ की प्रधान सड़क लोगों से ऐसी खचाखच भर गयी थी जिससे श्रीकृष्ण के वेगपूर्वक चलने वाले घोड़ों की गति भी अवरुद्ध हो गयी। शत्रुओं को क्षीण करने वाले कमलनयन श्रीकृष्ण ने राजा धृतराष्ट्र के अट्टालिकाओं से सुशोभित उज्ज्वल भवन में प्रवेश किया। उस
राजभवन की तीन ड्यौढ़ियों को पार करके शत्रुसूदन केशव विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्र के समीप गए।
श्रीकृष्ण के आते ही महायशस्वी प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य तथा भीष्म जी के साथ ही अपने आसन से उठकर खड़े हो गए।कृपाचार्य, सोमदत्त तथा महाराज बाह्लिक- ये सब लोग राजा जनार्दन का सम्मान करते हुए अपने आसनों से उठ गये। तब वृष्णिनंदन श्रीकृष्ण ने यशस्वी राजा धृतराष्ट्र से मिलकर अपने उत्तम वचनों द्वारा भीष्म जी का आदर किया। यदुकुलतिलक मधुसूदन उन सबकी धर्मानुकूल पूजा करके अवस्थाक्रम के अनुसार वहाँ आए हुए समस्त राजाओं से मिले। तत्पश्चात जनार्दन पुत्र सहित यशस्वी द्रोणाचार्य, बाह्लिक, कृपाचार्य तथा सोमदत्त से मिले।
वहाँ एक स्वच्छ और जगमगाता हुआ सुवर्ण का विशाल सिंहासन रखा हुआ था। धृतराष्ट्र की आज्ञा से भगवान श्रीकृष्ण उसी पर विराजमान हुए। तदनंतर धृतराष्ट्र के पुरोहित लोग भगवान जनार्दन के आतिथ्य सत्कार के लिए उत्तम गौ, मधुपर्क तथा जल ले आए। उनका आतिथ्य ग्रहण करके भगवान गोविंद हँसते हुए कौरवों के साथ बैठ गए और सबसे अपने संबंध के अनुसार यथायोग्य व्यवहार करते हुए कौरवों से घिरे हुए कुछ देर बैठे रहे। धृतराष्ट्र से पूजित एवं सम्मानित हो महायशस्वी शत्रुदमन श्रीकृष्ण उनकी अनुज्ञा ले उस राजभवन से बाहर निकले।
फिर कौरव सभा में यथायोग्य सबसे मिल-जुलकर यदुवंशी श्रीकृष्ण ने विदुर जी के रमणीय गृह में पदार्पण किया। विदुर जी ने अपने घर में पधारे हुए दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के निकट जाकर समस्त मनोवांछित भोगों तथा सम्पूर्ण मांगलिक वस्तुओं द्वारा उनका पूजन किया और इस प्रकार कहा-
विदुर जी बोले ;- 'कमलनयन! आपके दर्शन से मुझे जो प्रसन्नता
हुई है, उसका आपसे क्या वर्णन किया जाये, आप तो समस्त देहधारियों के अंतर्यामी आत्मा हैं। आपसे क्या छिपा है?' मधुसूदन श्रीकृष्ण जब उनका आतिथ्य ग्रहण कर चुके, तब सब धर्मों के ज्ञाता विदुर जी ने उनसे पांडवों का कुशल समाचार पूछा। विदुर जी बुद्धिमानों में श्रेष्ठ थे। सब कुछ प्रत्यक्ष देखने वाले श्रीकृष्ण ने सदा धर्म में ही तत्पर रहने वाले, रोष-शून्य प्रेमी सुहृद बुद्धिमान विदुर से पांडवों की सारी चेष्टाएँ विस्तारपूर्वक कह सुनाईं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र गृह में प्रवेशपूर्वक विदुर के गृह में पदार्पण विषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
नब्बेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का कुंती के समीप जाना एवं युधिष्ठिर का कुशल समाचार पूछकर अपने दुःखों का स्मरण करके विलाप करती हुई कुंती को आश्वासन देना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! शत्रुदमन श्रीकृष्ण विदुर जी से मिलने के पश्चात तीसरे पहर में अपनी बुआ कुंती देवी के पास गए।
निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण को आते देख कुंती देवी उनके गले लग गयी और अपने पुत्रों को याद करके फूट-फूटकर रोने लगीं।
अपने उन शक्तिशाली पुत्रों के बीच में रहकर उनके साथ विचारने वाले वृष्णिकुलनंदन गोविंद को दीर्घकाल के पश्चात देखकर कुंती देवी आंसुओं की वर्षा करने लगीं।
उन्होंने योद्धाओं के स्वामी श्रीकृष्ण का अतिथि-सत्कार किया। जब वे आतिथ्य ग्रहण करके आसन पर विराजमान हुए, तब सूखे मुँह और अश्रुगदगद कंठ से कुंती देवी इस प्रकार बोलीं। 'वत्स! मेरे पुत्र पांडव, जो बाल्यकाल से ही गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर रहते, परस्पर स्नेह रखते, सर्वत्र सम्मान पाते और मन में सबके प्रति समानभाव रखते थे, शत्रुओं की शठता के शिकार होकर राज्य से हाथ धो बैठे और जनसमुदाय में रहने योग्य होकर भी निर्जन वन में चले गए।
'मेरे बेटे हर्ष और क्रोध को जीत चुके थे। वे ब्राह्मणों का हित साधन करने वाले तथा सत्यवादी थे, तथापि शत्रुओं के अन्याय से विवश हो प्रियजन एवं सुख भोग से मुँह मोड़ मुझे रोती-बिलखती छोड़कर वे वन की ओर चल दिये।
'केशव! वन जाते समय महात्मा पांडव मेरे हृदय को जड़-मूल सहित खींचकर अपने साथ ले गए। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे। फिर उन्हें यह कष्ट कैसे प्राप्त हुआ?
'तात! वे बचपन में ही पिता के प्यार से वंचित हो गए थे। मैंने ही सदा उनका लालन-पालन किया। मेरे पुत्र सिंह, व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए उस विशाल वन में कैसे रह रहे होंगे? माता-पिता को न देखते हुए उन्होंने उस महान वन में किस प्रकार निवास किया होगा? (8)
'केशव! बाल्यावस्था से ही पांडव शंख और दुंदुभियों की गंभीर ध्वनि से, मृदंगो के मधुर नाद से तथा बांसुरी की सुरीली तान से जगाए जाते थे। जब वे अपनी राजधानी में ऊँची अट्टालिकाओं के भीतर रंकुमृग के चर्म से बने हुए बिछौनों से युक्त सुकोमल शय्याओं पर शयन करते थे, उन दिनों हाथियों के चिंघाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने तथा रथ के पहियों के घरघराने से उनकी निद्रा टूटती थी। शंख और भेरी की तुमुल ध्वनि तथा वेणु और वीणा के मधुर स्वरों से उन्हें जगाया जाता था। साथ ही ब्राह्मण लोग पुण्याहवाचन के पवित्र घोष से उनका समादर करते थे। वे महात्मा ब्राह्मणों के मंगलमय आशीर्वाद सुनकर उठते थे। पूजित और पूजनीय पुरुष भी उनके गुण गा-गाकर अभिनंदन किया करते थे एवं उठकर वे रत्नों, वस्त्रों एवं अलंकारों के द्वारा ब्राह्मणों की पूजा करते थे। जनार्दन! वे ही उस पांडव उस विशाल वन में हिंसक जंतुओं के क्रूरतापूर्ण शब्द सुनकर अच्छी तरह नींद भी नहीं ले पाते रहे होंगे, यद्यपि इस दुरावस्था के योग्य वे कदापि नहीं थे।
'मधुसूदन! जो भेरी एवं मृदंग के नाद से, शंख एवं वेणु की ध्वनि से तथा स्त्रियों के गीतों के मधुर शब्द तथा सूत, मागध एवं वंदीजनों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर जागते थे, वे ही बड़े-बड़े जंगलों में हिंसक जंतुओं के कठोर शब्द सुनकर किस प्रकार नींद तोड़ते रहे होंगे?
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 17-38 का हिन्दी अनुवाद)
'श्रीकृष्ण! जो लज्जाशील, सत्य को धारण करने वाले, जितेंद्रिय तथा सब प्राणियों पर दया करने वाले हैं, जो काम, राग एवं द्वेष को वश में करके सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करते हैं, जो अम्बरीष, मान्धाता, ययाति, नहुष, भरत, दिलीप एवं उशीनर पुत्र शिबि आदि प्राचीन राजर्षियों के सदाचार पालन रूप धारण करने में कठिन धर्म की धुरी को धारण करते हैं, जिनमें शील और सदाचार की संपत्ति भरी हुई है, जो धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और सर्वगुणसंपन्न होने के कारण इस भूमंडल के ही नहीं, तीनों लोकों के भी राजा हो सकते हैं, जिनका मन सदा धर्म में ही लगा रहता है, जो धर्मशास्त्रज्ञान और सदाचार सभी दृष्टियों से समस्त कौरवों में सबसे श्रेष्ठ हैं; जिनकी अंगकांति शुद्ध जाम्बूनद सुवर्ण के समान गौर है, जो देखने में सभी को प्रिय लगते हैं; वे महाबाहु अजातशत्रु युधिष्ठिर इस समय कैसे हैं?
'मधुसूदन! जो पांडुनंदन महाबली भीम दस हजार हाथियों के समान शक्तिशाली है, जिसका वेग वायु के समान है, जो असहिष्णु होते हुए भी अपने भाई को सदा ही प्रिय है और भाइयों का प्रिय करने में ही लगा रहता है, जिसने भाई-बंधुओं सहित कीचक का विनाश किया है, जिसे शूरवीर के हाथ से क्रोधवश नामक राक्षसों का, हिडिंबासुर तथा बक का भी संहार हुआ है, जो पराक्रम में इन्द्र, बल में वायुदेव तथा क्रोध में महेश्वर के समान है, जो प्रहार करने वाले योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं भयंकर है, शत्रुओं को संताप देने वाला जो पांडुपुत्र भीम अपने भीतर क्रोध, बल और अमर्ष को रखते हुए भी मन को काबू में रखकर सदा भाई की आज्ञा के अधीन रहता है, जो स्वभावत: अमर्षशील है, जिसमें तेज की राशि संचित है, जो महात्मा, सर्वश्रेष्ठ, अमित तेजस्वी तथा देखने में भी भयंकर है, वृष्णिनंदन जनार्दन! उस मेरे द्वितीय पुत्र भीमसेन का समाचार बताओ। इस समय परिघ के समान सुदृढ़ भुजाओं वाला मेरा मंझला पुत्र पांडुकुमार भीमसेन कैसे है?
'श्रीकृष्ण! जो अर्जुन दो भुजाओं से युक्त होकर भी सदा प्राचीनकाल के सहस्र भुजाधारी कार्तवीर्य अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता है; केशव! जो एक ही वेग से पाँच सौ बाण चलाता है, जो पांडव अर्जुन धनुर्विद्या में राजा कार्तवीर्य के समान ही समझा जाता है, जिसका तेज सूर्य के समान है, जो इंद्रियसंयम में महर्षियों के, क्षमा में पृथ्वी के और पराक्रम में देवराज इन्द्र के समान है; मधुसूदन! कौरवों का यह विशाल साम्राज्य, जो सम्पूर्ण राजाओं में प्रख्यात एवं प्रकाशित हो रहा है, जिसे अर्जुन ने ही अपने पराक्रम से बढ़ाया है; समस्त पांडव जिसके बाहुबल का भरोसा रखते हैं, जो सम्पूर्ण रथियों में श्रेष्ठ तथा सत्यपराक्रमी है, संग्राम में जिसके सम्मुख जाकर कोई जीवित नहीं लौटता है, अच्युत! जो सम्पूर्ण भूतों को जीतने में समर्थ, विजयशील एवं अजेय है तथा जैसे देवताओं के आश्रय इन्द्र हैं, उसी प्रकार जो समस्त पांडवों का अवलंब है, वह तुम्हारा भाई और मित्र अर्जुन इस समय कैसे है?
'मधुसूदन श्रीकृष्ण! जो समस्त प्राणियों के प्रति दयालु, लज्जाशील, महान अस्त्रवेटा, कोमल, सुकुमार, धार्मिक तथा मुझे विशेष प्रिय है; जो महाधनुर्धर शूरवीर सहदेव रणभूमि में शोभा पाने वाला, सभी भाइयों का सेवक, धर्म और अर्थ के विवेचन में कुशल तथा युवावस्था से युक्त है; कलयांकारी आचार वाले जिस महात्मा सहदेव के आचार-व्यवहार की सभी भाई प्रशंसा करते हैं, जो बड़े भाइयों के प्रति अनुरक्त, युद्धों के नेता और मेरी सेवा में तत्पर रहने वाला है; उस माद्रीकुमार वीर सहदेव का समाचार मुझे बताओ।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद)
'श्रीकृष्ण! जो सुकुमार, युवक, शौर्यसंपन्न तथा दर्शनीय है, जो सभी भाइयों के बाहर विचरने वाला प्रिय प्राणस्वरूप है, जिसमें युद्ध की विचित्र कला शोभा पाती है, वह महान धनुर्धर, महाबली एवं मुझसे पाला हुआ मेरा पुत्र पांडुनंदन नकुल शकुशल तो है न? 'महाबाहो! क्या मैं सुख-भोग के योग्य, दुःख भोगने के अयोग्य एवं सुकुमार महारथी नकुल को फिर कभी देख सकूँगी? 'वीर! आँखों की पलकें गिरने में जितना समय लगता है, उतनी देर भी नकुल से अलग रहने पर मैं धैर्य खो बैठती थी, परंतु अब इतने दिनों से उसे न देखकर भी जी रही हूँ। देखो, मैं कितनी निर्मम हूँ।
'जनार्दन! द्रुपदकुमारी कृष्णा मुझे अपने सभी पुत्रों से अधिक प्रिय है। वह कुलीन, अनुपम सुंदरी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है।
'पुत्रलोक से पतिलोक को श्रेष्ठ समझकर उसका वरन् करने वाली सत्यवादिनी द्रौपदी अपने प्यारे पुत्रों को भी त्याग कर पांडवों का अनुसरण करती है। 'अच्युत! मैंने सब प्रकार की वस्तुएँ देकर जिसका समादर किया है, वह परम उत्तम कुल में उत्पन्न हुई सर्वकल्याणी महारानी द्रौपदी इन दिनों कैसी दशा में है?
'हाय! जो महाधनुर्धर, शूरवीर, युद्धकुशल तथा अग्नितुल्य तेजस्वी पाँच पतियों से युक्त है, वह द्रुपदकुमारी कृष्णा भी दुःखभागिनी हो गयी। 'शत्रुदमन! यह चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है। इतने दिनों से मैंने पुत्रों के बिछोह से संतप्त हुई सत्यवादिनी द्रौपदी को नहीं देखा है।
'यदि वैसे सदाचार और सत्कर्मों से युक्त द्रुपदकुमारी अक्षय सुख नहीं पा रही है, तब तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि मनुष्य पुण्यकर्मों से सुख नहीं पाता है। 'युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव भी मुझे द्रौपदी से अधिक प्रिय नहीं हैं। उसी द्रौपदी को मैंने भरी सभा में लायी गयी देखा, उससे बढ़कर महान दुःख मुझे पहले कभी नहीं हुआ था।
'क्रोध और लोभ के वशीभूत हुए दुष्ट दुर्योधन ने रजस्वलावस्था में एकवस्त्रधारिणी द्रौपदी को सभा में बुलवाया और उसे श्वसुरजनों के समीप खड़ी कर दिया। उस समय सभी कौरवों ने उसे देखा था। 'वहीं राजा धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त तथा अन्यान्य कौरव खेद में भरे हुए बैठे थे।
'मैं तो उस कौरव-सभा में सबसे अधिक आदर विदुर जी को देती हूँ, जिन्होने द्रौपदी के प्रति किए जाने वाले अन्याय का प्रकट रूप में विरोध किया था। मनुष्य अपने सदाचार से ही श्रेष्ठ होता है, धन और विद्या से नहीं। 'श्रीकृष्ण! परम बुद्धिमान गंभीरस्वभाव महात्मा विदुर का शील ही आभूषण है, जो सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित है।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! श्रीकृष्ण को आया हुआ देख कुंती देवी शोकातुर तथा आनंदित हो अपने ऊपर आए हुए नाना प्रकार के सम्पूर्ण दुःखों का पुन: वर्णन करने लगी। 'शत्रुदमन श्रीकृष्ण! पहले के दुष्ट राजाओं ने जो जूआ और शिकार की परिपाटी चला दी है, वह क्या इन सबके लिए सुखावह सिद्ध हुई है? अपितु कदापि नहीं। 'सभा में कौरवों के समीप धृतराष्ट्र के पुत्रों ने द्रौपदी को जो ऐसा कष्ट पहुँचाया है, जिससे किसी का मंगल नहीं हों सकता, वह अपमान मेरे हृदय को दग्ध करता रहता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 58-72 का हिन्दी अनुवाद)
'परंतप जनार्दन! पांडवों का नगर से निकाला जाना तथा उनका वन में रहने के लिए बाध्य होना आदि नाना प्रकार के दुःखों का मैं अनुभव कर चुकी हूँ। 'परंतप माधव! मेरे बालकों को अज्ञातभाव से रहना पड़ा है और अब राज्य न मिलने से उनकी जीविका का भी अवरोध हो गया है। पुत्रों के साथ मुझे इतना महान क्लेश नहीं प्राप्त होना चाहिए।
'दुर्योधन ने मेरे पुत्रों को कपट द्यूत के द्वारा राज्य से वंचित कर दिया। उन्हें इस दुरवस्था में रहते आज चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है। यदि सुख भोगने का अर्थ है पुण्य के फल का क्षय होना, तब तो पाप के फलस्वरूप दुःख भोग लेने के कारण अब हमें भी दुःख के बाद सुख मिलना ही चाहिए। 'श्रीकृष्ण! मेरे मन में पांडवों तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के प्रति कभी भेदभाव नहीं था। इस सत्य के प्रभाव से निश्चय ही मैं देखूँगी कि तुम भावी संग्राम में शत्रुओं को मारकर पांडवों सहित संकट से मुक्त हो गए तथा राज्यलक्ष्मी ने तुम लोगों का ही वरण किया है। पांडवों में ऐसे सभी गुण मौजूद हैं, जिनके ही कारण शत्रु इन्हें परास्त नहीं कर सकते।
'मैं जो कष्ट भोग रहीं हूँ, इसके लिए न अपने को दोष देती हूँ, न दुर्योधन को; अपितु पिता की ही निंदा करती हूँ, जिन्होने मुझे राजा कुंतिभोज के हाथ में उसी प्रकार दे दिया, जैसे विख्यात दानी पुरुष याचक को साधारण धन देते हैं। 'मैं अभी बालिका थी, हाथ में गेंद लेकर खेलती फिरती थी, उसी अवस्था में तुम्हारे पितामह ने मित्रधर्म का पालन करते हुए अपने सखा महात्मा कुंतिभोज के हाथ में मुझे दे दिया।
'परंतप श्रीकृष्ण! इस प्रकार मेरे पिता तथा श्वसुरों ने भी मेरे साथ वञ्च्नापूर्ण बर्ताव किया है। इससे मैं अत्यंत दुखी हूँ। मेरे जीवित रहने से क्या लाभ? 'अर्जुन के जन्मकाल में जब मैं सूतिकागृह में थी, उस रात्रि में आकाशवाणी ने मुझसे यह कहा था- 'भद्रे! तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीत लेगा। इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा। यह महान संग्राम में कौरवों का संहार करके राज्य पर अधिकार कर लेगा, फिर अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा।'
'मैं इस आकाशवाणी को दोष नहीं देती, अपितु महाविष्णुस्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ। वही इस जगत का स्रष्टा है। धर्म ही सदा समस्त प्रजा को धारण करता है। 'वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! यदि धर्म है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जिसे उस समय आकाशवाणी ने बताया था।
'माधव! वैधव्य, धन का नाश तथा कुटुम्बीजनों के साथ बढ़ा हुआ वैर-भाव इनसे मुझे उतना शोक नहीं होता, जितना कि पुत्रों का विरह मुझे शोकदग्ध कर रहा है। 'समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गांडीवधारी अर्जुन को जब तक मैं नहीं देख रही हूँ, तब तक मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? 'गोविंद! चौदहवाँ वर्ष है, जबसे कि मैं युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव को नहीं देख पा रही हूँ। 'जनार्दन! जो लोग प्राणों का नाश होने से अदृश्य होते हैं, उनके लिए मनुष्य श्राद करते हैं। यदि मृत्यु का अर्थ अदृश्य हो जाना ही है तो मेरे लिए पांडव मर गए हैं और मैं भी उनके लिए मर चुकी हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 73-90 का हिन्दी अनुवाद)
'माधव! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर से कहना ;- 'बेटा! तुम्हारे धर्म की बड़ी हानि हो रही है। तुम उसे व्यर्थ नष्ट न करो। 'वासुदेव! जो स्त्री दूसरों के आश्रित होकर जीवन-निर्वाह करती है, उसे धिक्कार है। दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा तो मर जाना ही उत्तम है।
'श्रीकृष्ण! तुम अर्जुन तथा युद्ध के लिए सदा उदयत्त रहने वाले भीमसेन से कहना कि क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिए पुत्र उत्पन्न करती है, उसे पूरा करने का यह समय आ गया है।
'यदि ऐसा समय आने पर भी तुम युद्ध नहीं करोगे तो यह व्यर्थ बीत जाएगा। तुम लोग इस जगत के सम्मानित पुरुष हो। यदि तुम कोई अत्यंत घृणित कर्म कर डालोगे तो उस नृशंस कर्म से युक्त होने के कारण मैं तुम्हें सदा के लिए त्याग दूँगी। पुत्रो! तुम्हें तो समय आने पर अपने प्राणों को त्याग देने के लिए उद्यत रहना चाहिए। 'गोविंद! तुम सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले माद्रीनंदन नकुल-सहदेव से भी कहना,- 'पुत्रो! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी पराक्रम से प्राप्त किए हुए भोगों को ही ग्रहण करना।' 'पुरुषोत्तम! क्षत्रिय धर्म से जीवन निर्वाह करने वाले मनुष्य के मन को पराक्रम से प्राप्त हुआ धन ही सदा संतुष्ट रखता है। 'महाबाहो! तुम पांडवों के पास जाकर सम्पूर्ण शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ पांडुनंदन वीर अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के बताए हुए मार्ग पर चलो।
'श्रीकृष्ण! तुम तो जानते ही हो; यदि भीमसेन और अर्जुन अत्यंत कुपित हो जाएँ तो वे यमराज के समान होकर देवताओं को भी मृत्यु के मुख में पहुँचा सकते हैं। 'द्रौपदी को जो सभा में उपस्थित होना पड़ा तथा दु:शासन और कर्ण ने जो उसके प्रति कठोर बातें कहीं, यह सब भीमसेन और अर्जुन का ही अपमान है। दुर्योधन ने प्रधान-प्रधान कौरवों के सामने मनस्वी भीमसेन का अपमान किया है। इसका जो फल मिलेगा, उसे वह देखेगा।
'भीमसेन वैर हो जाने पर कभी शांत नहीं होता।भीमसेन का वैर तब तक दीर्घकाल के बाद भी समाप्त नहीं होता है, जब तक वह शत्रुओं का संहार नहीं कर डालता। 'राज्य छिन गया, यह कोई दुःख का कारण नहीं है। जूए में हार जाना भी दुःख का कारण नहीं है। मेरे पुत्रों को वन में भेज दिया, इससे भी मुझे दुःख नहीं हुआ है; परंतु मेरी श्रेष्ठ सुंदरी वधू को एक वस्त्र धारण किए जो सभा में जाना पड़ा और दुष्टों की कठोर बातें सुननी पड़ीं, इससे बढ़कर महान दुःख की बात और क्या हो सकती है?
'सदा क्षत्रियधर्म में अनुराग रखने वाली मेरी सर्वांग-सुंदरी बहू कृष्णा उस समय रजस्वला थी। वह सनाथ होती हुई भी वहाँ किसी को अपना नाथ न पा सकी। 'पुरुषोत्तम! मधुसूदन! पुत्रों सहित जिस कुंती के बलवानों में श्रेष्ठ बलराम, महारथी प्रद्युम्न तथा तुम रक्षक हो, युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले विजयी अर्जुन और दुर्धष भीमसेन सरीखे जिसके पुत्र जीवित हैं, वहीं मैं ऐसे-ऐसे दुःख सह रही हूँ'।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;– जनमेजय! तदनंतर अर्जुन के मित्र भगवान श्रीकृष्ण ने पुत्रों की चिंताओं में डूबकर शोक करती हुई अपनी बुआ कुंती को इस प्रकार आश्वासन दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 91-104 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान वासुदेव बोले ;- बुआ! संसार में तुम जैसी सौभाग्यशालिनी नारी दूसरी कौन है? तुम राजा शूरसेन की पुत्री हो और महाराज अजमीढ़ के कुल में ब्याह कर आई हो। तुम एक उच्च कुल की कन्या हो और दूसरे उच्च कुल में ब्याही गयी हो, मानो कमलिनी एक सरोवर से दूसरे सरोवर में आई हो। एक दिन तुम सर्वकल्याणी महारानी थीं, तुम्हारे पतिदेव ने सदा तुम्हारा विशेष सम्मान किया है। तुम वीरपत्नी, वीरजननी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो। महाप्राज्ञे! तुम्हारी जैसी विवेकशील स्त्री को सुख और दुःख चुपचाप सहने चाहिए। तुम्हारे सभी पुत्र निद्रा, तंद्रा (आलस्य), क्रोध, हर्ष, भूख-प्यास तथा सर्दी-गर्मी इन सबको जीतकर सदा विरोचित सुख का उपभोग करते हैं। तुम्हारे पुत्रों ने ग्राम्यसुख को त्याग दिया है, विरोचित सुख ही उन्हें सदा प्रिय है। वे महान उत्साही और महाबली हैं; अत: थोड़े-से ऐश्वर्य से संतुष्ट नहीं हो सकते। धीर पुरुष भोगों की अंतिम स्थिति का सेवन करते हैं। ग्राम्य विषयभोगों में आसक्त पुरुष भोगों की मध्य स्थिति का ही सेवन करते हैं। वे धीर पुरुष कर्तव्यपालन के रूप में प्राप्त बड़े से बड़े क्लेशों को सहर्ष सहन करके अंत में मनुष्यातीत भोगों में रमन करते हैं। महापुरुषों का कहना है कि अंतिम स्थिति की प्राप्ति ही वास्तविक सुख है तथा सुख-दुःख के बीच की स्थिति ही दुःख है।
बुआ! द्रौपदी सहित पांडवों ने तुम्हें प्रणाम कहलाया है और अपने को सकुशल बताकर अपनी स्वस्थता भी सूचित की है। तुम शीघ्र ही देखोगी, पांडव निरोग अवस्था में तुम्हारे सामने उपस्थित हैं, उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो गए हैं और वे अपने शत्रुओं का संहार करके साम्राज्य-लक्ष्मी से संयुक्त हो सम्पूर्ण जगत के शासक पद पर प्रतिष्ठित हैं। इस प्रकार आश्वासन पाकर पुत्रों आदि से दूर पड़ी हुई कुंतीदेवी ने अज्ञान जनित मोह का निरोध करके भगवान जनार्दन से कहा।
कुंती बोली ;- महाबाहु मधुसूदन श्रीकृष्ण! जो पांडवों के लिए हितकर हो तथा जैसे-जैसे कार्य करना तुम्हें उचित जान पड़े, वैसे-वैसे करो। परंतप श्रीकृष्ण! धर्म का लोप न करते हुए, छल और कपट से दूर रहकर समायोजित कार्य करना चाहिए। मैं तुम्हारी सत्यपरायणता और कुल-मर्यादा का भी प्रभाव जानती हूँ। प्रत्येक कार्य की व्यवस्था में, मित्रों के संग्रह में तथा बुद्धि और पराक्रम में भी जो तुम्हारा अद्भुत प्रभाव है, उससे मैं परिचित हूँ। हमारे कुल में तुम्हीं धर्म हो, तुम्हीं सत्य हो, तुम्हीं महान तप हो, तुम्हीं रक्षक और तुम्हीं परब्रह्म परमात्मा हो। सब कुछ तुममें ही प्रतिष्ठित है। तुम जो कुछ कहते हो, वह सब तुम्हारे सनिधान में सत्य होकर ही रहेगा।
किसी से पराजित न होने वाले वृष्निनंदन माधव! कौरवों के, पांडवों के तथा इस सम्पूर्ण जगत के तुम्हीं आश्रय हो। केशव! तुम्हारा प्रभाव तथा तुम्हारा बुद्धिबल भी तुम्हारे अनुरूप ही है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनंतर महाबाहु गोविंद कुंतीदेवी की परिक्रमा करके उनसे आज्ञा ले दुर्योधन के घर की ओर चल दिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवदयान पर्व में श्रीकृष्ण – कुंती- संवाद विषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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