सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकाशीति अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“युद्ध के लिए सहदेव तथा सात्यकि की सम्मति और समस्त योद्धाओं का समर्थन”
सहदेव बोले ;- शत्रुदमन श्रीकृष्ण! महाराज युधिष्ठिर ने यहाँ जो कुछ कहा है, यह सनातन धर्म है, परंतु मेरा कथन यह है कि आपको ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे युद्ध होकर ही रहे। दशार्हनन्दन! यदि कौरव पांडवों के साथ संधि करना चाहें, तो भी आप उनके साथ युद्ध की ही योजना बनाइयेगा। श्रीकृष्ण! पांचालराजकुमारी द्रौपदी को वैसी दशा में सभा के भीतर लायी गयी देखकर दुर्योधन के प्रति बढ़ा हुआ मेरा क्रोध उसका वध किए बिना कैसे शांत हो सकता है?
श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन, अर्जुन तथा धर्मराज युधिष्ठिर धर्म का ही अनुसरण करते हैं तो मैं उस धर्म को छोड़कर रणभूमि में दुर्योधन के साथ युद्ध ही करना चाहता हूँ।
सात्यकि ने कहा ;- महाबाहो! परम बुद्धिमान सहदेव ठीक कहते हैं। दुर्योधन के प्रति बढ़ा हुआ मेरा क्रोध उसके वध से ही शांत होगा।क्या आप भूल गए हैं; जबकि वन में वल्कल और मृगचर्म धारण करके दुखी हुए पांडवों को देखकर आपका भी क्रोध उमड़ आया था? अत: पुरुषोत्तम! युद्ध में कठोरता दिखाने वाले माद्री-नन्दन शूरवीर सहदेव ने जो बात कही है, वही हम सम्पूर्ण योद्धाओं का मत है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! परम बुद्धिमान सात्यकि के ऐसा कहते ही वहाँ सब ओर से समस्त योद्धाओं का अत्यंत भयंकर सिंहनाद शुरू हो गया। युद्ध की इच्छा रखने वाले उन सभी वीरों ने साधु-साधु कहकर सात्यकि का हर्ष बढ़ाते हुए उनके वचन की सर्वथा भूरि-भूरि प्रशंसा की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में सहदेव -सात्यकि वाक्य विषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वशीति अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रौपदी का श्रीकृष्ण से अपना दु:ख सुनाना और श्रीकृष्ण का उसे आश्वासन देना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सिर पर अत्यंत काले और लंबे केश धारण करने वाली द्रुपदराजकुमारी कृष्णा राजा युधिष्ठिर के धर्म और अर्थ से युक्त हितकर वचन सुनकर शोक से कातर हो उठी और महारथी सात्यकि तथा सहदेव की प्रशंसा करके वहाँ बैठे हुए दशार्हकुल भूषण श्रीकृष्ण से कुछ कहने को उद्यत हुई। भीमसेन को अत्यंत शांत देख मनस्विनी द्रौपदी के मन में बड़ा दु:ख हुआ। उसकी आँखों में आँसू भर आए और वह श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोली।
'धर्म के ज्ञाता महाबाहु मधुसूदन! आपको तो मालूम ही है कि मंत्रियों सहित धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने किस प्रकार शठता का आश्रय लेकर पांडवों को सुख से वंचित कर दिया। दशार्हनन्दन! राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहने के लिए संजय को एकांत में जो मंत्र सुनाकर यहाँ भेजा था, वह भी आपको ज्ञात ही है तथा धर्मराज ने संजय से जैसी बातें कही थीं, उन सबको भी आपने सुन ही लिया है। 'महातेजस्वी केशव! इनहोनें संजय से इस प्रकार कहा था 'संजय! तुम दुर्योधन और उसके सुहृदों के सामने मेरी यह मांग रख देना- 'तात! तुम हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत तथा अंतिम पाँचवाँ कोई एक गाँव- इन पाँच गांवों को ही दे दो।' 'दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण! संधि की इच्छा रखने वाले श्रीमान युधिष्ठिर का यह नम्रतापूर्ण वचन सुनकर भी उसे दुर्योधन ने स्वीकार नहीं किया।
'भगवन! आपके वहाँ जाने पर यदि दुर्योधन राज्य दिये बिना ही संधि करना चाहे तो आप इसे किसी तरह स्वीकार न कीजिएगा। महाबाहो! पांडव लोग सृंजय वीरों के साथ क्रोध में भरी हुई दुर्योधन की भयंकर सेना का अच्छी तरह सामना कर सकते हैं। मधुसूदन! कौरवों के प्रति साम और दाननीति का प्रयोग करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अत: उन पर आपको कभी कृपा नहीं करनी चाहिए। श्रीकृष्ण! अपने जीवन की रक्षा करने वाले पुरुष को चाहिए कि जो शत्रु साम और दान से शांत न हों, उन पर दंड का प्रयोग करे।
अत: महाबाहु अच्युत! आपको तथा सृंजयों सहित पांडवों को उचित है कि वे उन शत्रुओं को शीघ्र ही महान दंड दें। यही कुंतीकुमारों के योग्य कार्य है। श्रीकृष्ण! यदि यह किया जाये तो आपके भी यश का विस्तार होगा और समस्त क्षत्रिय समुदाय को भी सुख मिलेगा।दशार्हनन्दन! अपने धर्म का पालन करने वाले क्षत्रिय को चाहिए कि वह लोभ का आश्रय लेने वाले मनुष्य को भले ही वह क्षत्रिय हो या अक्षत्रिय, अवश्य मार डाले। तात! ब्राह्मणों के सिवा दूसरे वर्णों पर ही यह नियम लागू होता है। ब्राह्मण सब पापों में डूबा हो, तब भी उसे प्राणदंड नहीं देना चाहिए; क्योंकि ब्राह्मण सब वर्णों का गुरु तथा दान में दी हुई वस्तुओं का सर्वप्रथम भोक्ता है अर्थात पहला पात्र है।
जनार्दन! जैसे अवध्य का वध करने पर महान दोष लगता है, उसी प्रकार वध्य का वध न करने से भी दोष की प्राप्ति होती है। यह बात धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं। श्रीकृष्ण! आप सैनिकों सहित सृंजयों, पांडवों तथा यादवों के साथ ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे आपको यह दोष न छू सके। जनार्दन! आप पर अत्यंत विश्वास होने के कारण मैं अपनी कही हुई बात को पुन: दुहराती हूँ। केशव! इस पृथ्वी पर मेरे समान स्त्री कौन होगी?।
मैं महाराज द्रुपद की पुत्री हूँ। यज्ञ वेदी के मध्य भाग से मेरा जन्म हुआ है। श्रीकृष्ण! मैं वीर धृष्टद्युम्न की बहिन और आपकी प्रिय सखी हूँ । मैं परम प्रतिष्ठित अजमीढ़कुल में ब्याहकर आई हूँ। महात्मा राजा पांडु की पुत्रवधू तथा पाँच इन्द्रों के समान तेजस्वी पाण्डुपुत्रों की पटरानी हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वशीति अध्याय के श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद)
पाँच वीर पतियों से मैंने पाँच महारथी पुत्रों को जन्म दिया है। श्रीकृष्ण! जैसे अभिमन्यु आपका भांजा है, उसी प्रकार मेरे पुत्र भी धर्मत: आपके भांजे ही हैं। केशव! इतनी सम्मानित और सौभाग्यशालिनी होने पर भी मैं पांडवों के देखते-देखते और आपके जीते-जी केश पकड़कर सभा में लायी गयी और मेरा बारंबार अपमान किया गया एवं मुझे क्लेश दिया गया। पांडवों, पांचालों और यदुवंशियों के जीते-जी मैं पापी कौरवों की दासी बनी और उसी रूप में सभा के बीच मुझे उपस्थित होना पड़ा। पांडव यह सब कुछ देख रहे थे, तो भी न तो इनका क्रोध ही जागा और न इन्होंने मुझे उनके हाथ से छुड़ाने की चेष्ठा ही की।
उस समय मैंने अत्यंत असहाय होकर मन ही मन आपका चिंतन किया और कहा,- 'गोविंद! मेरी रक्षा कीजिये' प्रभो! तब आपने ही कृपा करके मेरी लाज बचाई। उस सभा में मेरे ऐश्वर्यशाली राजा धृतराष्ट्र ने मुझे आदर देते हुए कहा,
धृतराष्ट्र ने कहा ;- 'पांचालराजकुमारी! मैं तुम्हें अपनी ओर से मनोवांछित वर पाने के योग्य मानता हूँ। तुम कोई वर माँगों।'
तब मैंने उनसे कहा ;- 'पांडव रथ और आयुधों सहित दासभाव से मुक्त हो जाएँ।' केशव! मेरे इतना कहने पर ये लोग वनवास का कष्ट भोगने के लिए दासभाव से मुक्त हुए थे। जनार्दन! हम लोगों पर ऐसे-ऐसे महान दु:ख आते रहे हैं, जिन्हें आप अच्छी तरह जानते हैं। कमलनयन! पति, कुटुंबी तथा बांधवजनों सहित हम लोगों की आप रक्षा करें। श्रीकृष्ण! मैं धर्मत: भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की ही पुत्रवधू हूँ, तो भी उनके सामने ही मुझे बलपूर्वक दासी बनाया गया।
भगवन! ऐसी दशा में यदि दुर्योधन एक मुहूर्त भी जीवित रहता है तो अर्जुन के धनुषधारण और भीमसेन के बल को धिक्कार है। श्रीकृष्ण! यदि मैं आपकी अनुग्रहभाजन हूँ, यदि मुझ पर आपकी कृपा है तो आप धृतराष्ट्र के पुत्रों पर पूर्ण रूप से क्रोध कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर सुंदर अंगों वाली, श्यामलोचना, कमलनयनी एवं गजगामिनी द्रुपदकुमारी कृष्णा अपने उन केशों को, जो देखने में अत्यंत सुंदर, घुँघराले, अत्यंत काले, एकत्र आबद्ध होने पर भी कोमल, सब प्रकार की सुगंधों से सुवासित, सभी शुभ लक्षणों से सुशोभित तथा विशाल सर्प के समान कांतिमान थे, बाएँ हाथ में लेकर कमलनयन श्रीकृष्ण के पास गयी और नेत्रों में आँसू भरकर इस प्रकार बोली,-
द्रोपदी बोली ;- 'कमललोचन श्रीकृष्ण! शत्रुओं के साथ संधि की इच्छा से आप जो-जो कार्य या प्रयत्न करें, उन सब में दु:शासन के
हाथों से खींचे हुए इन केशों को याद रखें। 'श्रीकृष्ण! यदि भीमसेन और अर्जुन कायर होकर कौरवों के साथ संधि की कामना करने लगे हैं, तो मेरे वृद्ध पिताजी अपने महारथी पुत्रों के साथ शत्रुओं से युद्ध करेंगे। 'मधुसूदन! मेरे पाँच महापराक्रमी पुत्र भी वीर अभिमन्यु को प्रधान बनाकर कौरवों के साथ संग्राम करेंगे। 'यदि मैं दु:शासन की साँवली भुजा को कटकर धूल में लोटती न देखूँ तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी?
'प्रज्वलित अग्नि के समान इस प्रचंड क्रोध को हृदय में रखकर प्रतीक्षा करते मुझे तेरह वर्ष बीत गए हैं। 'आज भीमसेन के संधि के लिए कहे गए वचन मेरे हृदय में बाण के समान लगे हैं, जिनसे पीड़ित होकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। हाय! ये महाबाहु आज मेरे अपमान को भुलाकर केवल धर्म का ही ध्यान धर रहे हैं।'
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वशीति अध्याय के श्लोक 42-49 का हिन्दी अनुवाद)
इतना कहने के बाद पीन एवं विशाल नितंबों वाली विशाललोचना द्रुपदकुमारी कृष्णा का कंठ आंसुओं से रुँध गया। वह काँपती हुई अश्रुगग्दद वाणी में फूट-फूटकर रोने लगी। उसके परस्पर सटे हुए स्तनों पर नेत्रों से गरम-गरम आंसुओं की वर्षा होने लगी, मानो वह अपने भीतर की द्रवीभूत क्रोधाग्नि को ही उन वाष्प बिन्दुओं के रूप में बिखेर रही हो। तब महाबाहु केशव ने उसे सांत्वना देते हुए कहा,
श्री कृष्ण बोले ;- 'कृष्णे! तुम शीघ्र ही भरतवंश की दूसरी स्त्रियों को भी इसी प्रकार रुदन करते देखोगी। 'भामिनी! जिन पर तुम कुपित हुई हो, उन विपक्षियों की स्त्रियाँ भी अपने कुटुंबी, बंधु-बांधव, मित्रवृन्द तथा सेनाओं के मारे जाने पर इसी तरह रोयेंगी।
'महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा तथा विधाता के रचे हुए अदृष्ट से प्रेरित हो भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को साथ लेकर मैं भी वही करूँगा, जो तुम्हें अभीष्ट है। 'यदि काल के गाल में जाने वाले धृतराष्ट्रपुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो मारे जाकर धरती पर लोटेंगे और कुत्तों तथा सियारों के भोजन बन जायेंगे। 'हिमालय पर्वत अपनी जगह से टल जाये, पृथ्वी के सैकड़ों टुकड़े हो जाये तथा नक्षत्रों सहित आकाश टूट पड़े, परंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती। 'कृष्णे! अपने आंसुओं को रोको। मैं तुमसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, तुम शीघ्र ही देखोगी कि सारे शत्रु मार डाले गये और तुम्हारे पति राज्यलक्ष्मी से सम्पन्न हैं'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में द्रौपदी-कृष्ण संवाद विषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
तिरयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीति अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान, युधिष्ठिर का माता कुंती एवं कौरवों के लिए संदेश तथा श्रीकृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन”
अर्जुन बोले ;- श्रीकृष्ण! आजकल आप ही समस्त कौरवों के सर्वोत्तम सुहृद तथा दोनों पक्षों के नित्य प्रिय संबंधी हैं। केशव! पांडवों सहित धृतराष्ट्र पुत्रों का मंगल सम्पादन करना आपका कर्तव्य है। आप उभयपक्ष में संधि कराने की शक्ति भी रखते हैं। शत्रुओं का नाश करने वाले कमलनयन श्रीकृष्ण! आप यहाँ से जाकर हमारे अमर्षशील भ्राता दुर्योधन से ऐसी बातें करें, जो शांति स्थापन में सहायक हों। यदि वह मूर्ख आपकी कही हुई धर्म और अर्थ से युक्त, संतापनाशक, कल्याणकारी एवं हितकर बातें नहीं मानेगा तो अवश्य ही उसे काल के गाल में जाना पड़ेगा।
श्रीभगवान बोले ;- अर्जुन! जो धर्मसंगत, हम लोगों के लिए हितकर तथा कौरवों के लिए भी मंगलकारक हो, वही कार्य करने के लिए मैं राजा धृतराष्ट्र के समीप यात्रा करूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनंतर जब रात्रि का अंधकार दूर हुआ और निर्मल आकाश में सूर्यदेव के उदित होने पर उनकी कोमल किरणें सब ओर फैल गयीं। कार्तिक मास के रेवती नक्षत्र में 'मैत्र' नामक मुहूर्त उपस्थित होने पर सत्त्वगुणी पुरुषों में श्रेष्ठ एवं समर्थ श्रीकृष्ण ने यात्रा आरंभ की। उन दिनों शरद ऋतु का अंत और हेमंत का आरंभ हो रहा था। सब ओर खूब उपजी हुई खेती लहलहा रही थी। भगवान जनार्दन ने सबसे पहले प्रात:काल ऋषियों के मुख से मंगल पाठ सुनने वाले देवराज इन्द्र की भाँति विश्वस्त ब्राह्मणों के मुख से परम मधुर मंगलकारक पुण्याहवाचन सुनते हुए स्नान किया। फिर उन्होंने पवित्र तथा वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो संध्यावंदन, सूर्योपस्थान एवं अग्निहोत्र आदि पूर्वाह्नकृत्य सम्पन्न किए। इसके बाद बैल की पीठ छूकर ब्राह्मणों को नमस्कार किया और अग्नि की परिक्रमा करके अपने सामने प्रस्तुत की हुई कल्याणकारक वस्तुओं का दर्शन किया। तदनंतर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर की बातों पर विचार करके जनार्दन ने अपने पास बैठे हुए शिनीपौत्र सात्यकि से इस प्रकार कहा,-
श्री कृष्ण बोले ;- 'युयुधान! मेरे रथ पर शंख, चक्र, गदा, तूणीर, शक्ति तथा अन्य सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लाकर रख दो। 'कोई अत्यंत बलवान क्यों न हो, उसे अपने दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए; उससे सतर्क रहना चाहिए। फिर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तो दुष्टात्मा ही हैं। उनसे तो सावधान रहने की अत्यंत आवश्यकता है। तब चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के अभिप्राय को जानकार उनके आगे चलने वाले सेवक रथ जोतने के लिए दौड़ पड़े। वह रथ प्रलयकालीन अग्नि के समान दीप्तिमान , विमान के समान सदृश शीघ्रगामी तथा सूर्य और चंद्रमा के समान तेजस्वी दो गोलाकार चक्रों से सुशोभित था।
अर्धचंद्र, चंद्र, मत्स्य, मृग, पक्षी, नाना प्रकार के पुष्प तथा सभी तरह के मणि-रत्नों से चित्रित एवं जटित होने के कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। वह तरुण सूर्य के समान प्रकाशमान, विशाल तथा देखने में मनोहर था। उसके सभी भागों में मणि एवं सुवर्ण जड़े हुए थे। उस रथ की ध्वजा बहुत ही सुंदर थी और उस पर उत्तम पताका फहरा रही थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीति अध्याय के श्लोक 18-40 का हिन्दी अनुवाद)
उसमें सब प्रकार की आवश्यक सामग्री सुंदर ढंग से रखी गयी थी। उस पर व्याघ्रचर्म का आवरण (पर्दा) शोभा पाता था। वह रथ शत्रुओं के लिए दुर्धर्ष तथा उनके सुयश का नाश करने वाला था। साथ ही उससे यदुवंशियों के आनंद में वृद्धि होती थी। श्रीकृष्ण के सेवकों ने शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नाम वाले चारों घोड़ों को नहला धुलाकर सब प्रकार के बहुमूल्य आभूषणों द्वारा सुसज्जित करके उस रथ में जोत दिया।
इस प्रकार वह रथ श्रीकृष्ण की महत्ता को और अधिक बढ़ाता हुआ गरुड़ चिह्नित ध्वज से संयुक्त हो बड़ी शोभा पा रहा था। चलते समय उसके पहियों से गंभीर ध्वनि होती थी। मेरुपर्वत के शिखरों की भाँति सुनहरी प्रभा से सुशोभित तथा मेघ और दुंदुभियों के समान गंभीर नाद करने वाले उस रथ पर, जो इच्छानुसार चलने वाले विमान के समान प्रतीत होता था, भगवान श्रीकृष्ण आरूढ़ हुए। तदनंतर सात्यकि को भी उस रथ पर बैठाकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने रथ की गंभीर ध्वनि से पृथ्वी और आकाश को गुंजाते हुए वहाँ से प्रस्थान किया।
तत्पश्चात उस समय क्षण भर में ही आकाश में घिरे हुए बादल छिन्न-भिन्न हो अदृश्य हो गए। शीतल, सुखद एवं अनुकूल वायु चलने लगी तथा धूल का उड़ना बंद हो गया। वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण की उस यात्रा के समय मंगल सूचक मृग और पक्षी उनके दाहिने तथा अनुकूल दिशा में जाते हुए उनका अनुसरण करने लगे। सारस, शतपत्र तथा हंस पक्षी सब ओर से मंगलसूचक शब्द करते हुए मधुसूदन श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे जाने लगे।
मंत्र पाठपूर्वक दी जाने वाली आहुतियों से युक्त बड़े-बड़े होमयज्ञों द्वारा हविष्य पाकर अग्निदेव प्रदक्षिणा क्रम से उठने वाली लपटों के साथ प्रज्वलित हो धुमरहित हो गए। वशिष्ठ, वामदेव, भूरिद्युम्न, गय, क्रथ, शुक्र, नारद, वाल्मीकि, मरुत्त, कुशिक तथा भृगु आदि देवर्षियों तथा ब्रह्मर्षियों ने एक साथ आकार यदुकुल को सुख देने वाले इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण की दक्षिणावर्त परिक्रमा की।
इस प्रकार इन महाभाग महर्षियों तथा साधु-महात्माओं से सम्मानित हो श्रीकृष्ण ने कुरुकुल की राजधानी हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया। क्षत्रियशिरोमणे। श्रीकृष्ण के जाते समय उन्हें पहुँचाने के लिए कुंतीपुत्र युधिष्ठिर उनके पीछे-पीछे चले। साथ ही भीमसेन, अर्जुन, माद्री के दोनों पुत्र पांडुकुमार नकुल-सहदेव, पराक्रमी चेकितान, चेदिराज़ धृष्टकेतु, द्रुपद, काशिराज, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, पुत्रों और केकयों सहित राजा विराट- ये सभी क्षत्रिय अभीष्ट कार्य की सिद्धि एवं शिष्टाचार का पालन करने के लिए उनके पीछे गए। इस प्रकार गोविंद के पीछे कुछ दूर जाकर तेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर ने राजाओं के समीप उनसे कुछ कहने का विचार किया।
जो कभी कामना से, भय से, लोभ से अथवा अन्य किसी प्रयोजन के कारण भी अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते, जिनकी बुद्धि स्थिर है, जो लोभरहित, धर्मज्ञ, धैर्यवान, विद्वान तथा सम्पूर्ण भूतों के भीतर विराजमान हैं, वे भगवान केशव देवताओं के भी देवता, सनातन परमेश्वर तथा समस्त प्राणियों के ईश्वर हैं। उन्हीं सर्वगुणसंपन्न श्रीवत्सचिह्न से विभूषित भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगाकर कुंतीकुमार युधिष्ठिर ने निम्नांकित संदेश देना आरंभ किया।
युधिष्ठिर बोले ;- शत्रुओं का संहार करने वाले जनार्दन। अबला होकर भी जिसने बाल्यकाल से ही हमें पाल-पोसकर बड़ा किया है,
उपवास और तपस्या में संलग्न रहना जिसका स्वभाव बन गया है, जो सदा कल्याण साधन में ही लगी रहती है, देवताओं और अतिथियों की पूजा में तथा गुरुजनों की सेवा सुश्रुशा में जिसका अटूट अनुराग है, जो पुत्रवत्सला एवं पुत्रों को प्यार करने वाली है, जिसके प्रति हम पाँच भाइयों का अत्यंत प्रेम है, जिसने दुर्योधन के भय से हमारी रक्षा की है, जैसे नौका मनुष्य को समुद्र में डूबने से बचाती है, उसी प्रकार जिसने मृत्यु के महान संकट से हमारा उद्धार किया है और माधव। जिसने हम लोगों के कारण सदा दुःख ही भोगे हैं, उस दुःख न भोगने योग्य हमारी माता कुंती से मिलकर आप उसका कुशल समाचार अवश्य पूछें।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीति अध्याय के श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद)
आप हम पांडवों का समाचार बताते हुए हमारी माँ कुंती से मिलियेगा और प्रणाम करके पुत्र शोक से पीड़ित हुई उस देवी को बहुत-बहुत आश्वासन दीजिए। शत्रुदमन! उसने विवाह करने से लेकर ही अपने श्वसुर के घर में नाना प्रकार के दुःख और कष्ट ही देखे तथा अनुभव किए हैं और इस समय भी वह वहाँ कष्ट ही भोगती है। शत्रुनाशक श्रीकृष्ण! क्या कभी वह समय भी आयेगा, जब हमारे सब दुःख दूर हो जाएँगे और हम लोग दुःख में पड़ी हुई अपनी माता कुंती को सुख दे सकेंगे?
जब हम वन को जा रहे थे, उस समय पुत्रस्नेह से व्याकुल हो वह कातरभाव से रोती हुई हमारे पीछे-पीछे दौड़ी आ रही थी, परंतु हम लोग उसे वहीं छोड़कर वन में चले गए। आनर्तदेश के सम्मानित वीर केशव! यह निश्चित नहीं है कि मनुष्य दुःखों से घबराकर मर ही जाता हो। इसलिए कदाचित वह जीवित हो, तो भी पुत्रों की चिंता से अत्यंत पीड़ित ही होगी। प्रभो! मधुसूदन श्रीकृष्ण! आप माता को प्रणाम करके मेरे कथनानुसार धृतराष्ट्र, दुर्योधन, अन्यान्य वयोवृद्ध नरेश, भीष्म, द्रोण, कृप, महाराज बाह्लिक, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, सोमदत्त, समस्त भरतवंशी क्षत्रियवृंद तथा कौरवों के मंत्र की रक्षा करने वाले, मर्मवेत्ता, अगाधबुद्धि एवं महाज्ञानी विदुर के पास जाकर इन सबको हृदय से लगाइयेगा।
राजाओं के बीच में भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर उनकी परिक्रमा करके आज्ञा ले लौट पड़े। परंतु अर्जुन ने पीछे-पीछे जाते हुए ही शत्रुवीरों का संहार करने वाले अपराजित नरश्रेष्ठ अपने सखा दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण से कहा-
अर्जुन ने कहा ;- ‘गोविंद! पहले जब हम लोगों में गुप्त मंत्रणा हुई थी, उस समय एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचकर हमने आधा राज्य लेकर ही संधि करने का निश्चय किया था, इस बात को सभी राजा जानते हैं। ‘महाबाहो! यदि दुर्योधन लोभ छोड़कर अनादर न करके सत्कारपूर्वक हमें आधा राज्य लौटा दे तो मेरा प्रिय कार्य सम्पन्न हो जाये तथा समस्त कौरव महान भय से छुटकारा पा जाएँ। 'जनार्दन! यदि समुचित उपाय को न जानने वाला धृतराष्ट्र पुत्र इसके विरुद्ध आचरण करेगा तो मैं निश्चय ही उसके पक्ष में आए हुए समस्त क्षत्रियों का संहार कर डालूँगा।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पांडुनंदन अर्जुन के ऐसा कहने पर पांडव भीमसेन को बड़ा हर्ष हुआ। वे क्रोधवश बारंबार काँपने लगे। काँपते-काँपते ही कुंतीकुमार भीमसेन बड़े ज़ोर-ज़ोर से सिंहनाद करने लगे। अर्जुन की पूर्वोक्त बातें सुनकर उनका हृदय अत्यंत हर्ष और उत्साह से भर गया था। उनका वह सिंहनाद सुनकर समस्त धनुर्धर भय के मारे थरथर कांपने लगे। उनके सभी वाहनों ने मल-मूत्र कर दिये।
इस प्रकार श्रीकृष्ण से वार्तालाप करके उन्हें अपना निश्चय बता गले मिलकर अर्जुन श्रीकृष्ण से आज्ञा ले लौट आए। उन सब राजाओं के लौट जाने पर शैव्य और सुग्रीव आदि से युक्त रथ पर चलने वाले जनार्दन बड़े हर्ष के साथ तीव्र गति से आगे बढ़े। दारुक के हाँकने पर भगवान वासुदेव के वे अश्व इतने वेग से चलने लगे, मानो समस्त मार्ग को पी रहे हों और आकाश को ग्रस लेना चाहते हों। तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने मार्ग में कुछ महर्षियों को उपस्थित देखा, जो रास्ते के दोनों ओर खड़े थे और ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्र्यशीति अध्याय के श्लोक 61-72 का हिन्दी अनुवाद)
तब भागवान श्रीकृष्ण तुरंत ही रथ से उतर पड़े और पूर्वोक्तरूप से खड़े हुए उन समस्त महर्षियों को प्रणाम करके उनका समादर करते हुए बोले-
श्री कृष्ण बोले ;- 'महात्माओ! सम्पूर्ण लोकों मे कुशल तो है न? क्या धर्म का अच्छी तरह अनुष्ठान हो रहा है? क्षत्रिय आदि तीनों वर्ण
ब्राह्मणों की आज्ञा के अधीन रहते है न? क्या पितरों, देवताओं और अतिथियों की पूजा भली-भाँति सम्पन्न हो रही है? तत्पश्चात उन महर्षियों की पूजा करके भगवान मधुसूदन ने फिर उनसे पूछा,-
श्री कृष्ण फिर बोले ;- 'महात्माओ! आपने कहाँ सिद्धि प्राप्त की है? आप लोगों का यहाँ कौन सा मार्ग है? अथवा आप लोगों का क्या कार्य है? भगवन! मैं आप लोगों की क्या सेवा करूँ? किस प्रयोजन से आप लोग इस भूतल पर पधारें हैं?' श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कठोर व्रत धारण करने वाले नारद आदि सब महर्षि उनका अभिनंदन करने लगे। नारदजी के अतिरिक्त जो महर्षि वहाँ उपस्थित थे, उनके नाम इस प्रकार हैं- अध:शिरा:, सर्पमाली, महर्षि देवल, अर्वावसु, सुजानु, मैत्रेय, शुनक, बली, दल्भ्पुत्र बक, स्थूलशिरा, पराशरनन्दन श्रीकृष्णद्वैपायन, आयोदधौम्य, धौम्य, अणीमाण्डव्य, कौशिक, दामोष्णीष त्रिषवण, पर्णाद, घटजुनाक, मौंजायन, वायुभक्ष, पाराशर्य, शालिक, शीलवान, अशनि, धाता, शून्यपाल, अकृतव्रण, श्वेतकेतु, कहोल एवं महातपस्वी परशुराम।
उस समय देवराज तथा दैत्यराज के भी सखा जमदग्निनन्दन परशुराम ने मधुसूदन श्रीकृष्ण के पास जाकर उन्हें हृदय से लगाया और इस प्रकार कहा-
परशुराम बोले ;- 'महामते केशव! जिन्होंने पुरातन देवासुर संग्राम को भी अपनी आँखों से देखा है, वे पुण्यात्मा देवर्षिगण, अनेक शास्त्रों के विद्वान ब्रहमर्षिगण तथा आपका सम्मान करने वाले तपस्वी राजर्षिगण सम्पूर्ण दिशाओं से एकत्र हुए भूमंडल के क्षत्रिय नरेशों को, सभा में बैठे हुए भूपालों को तथा सत्यस्वरूप आप भगवान जनार्दन को देखना चाहते हैं। इस परम दर्शनीय वस्तु का दर्शन करने के लिए ही हम हस्तिनापुर में चल रहे हैं। शत्रुओं को संताप देने वाले माधव! वहाँ कौरवों तथा अन्य राजाओं की मंडली में आपके द्वारा कही जाने वाली धर्म और अर्थ से युक्त बातों को हम सुनना चाहते हैं। (66-68)
'यदुकुलसिंह! वहाँ कौरव सभा में भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख व्यक्ति, परम बुद्धिमान विदुर तथा आप पधारेंगे। 'गोविंद! माधव! उस सभा में आपके तथा भीष्म आदि के मुख से जो दिव्य, सत्य एवं हितकर वचन प्रकट होंगे, उन सबको हम लोग सुनना चाहते हैं।
'महाबाहो! अब हम लोग आप से पूछकर विदा ले रहे हैं, पुन: आपका दर्शन करेंगे। वीर! आपकी यात्रा निर्विघ्न हो। जब सभा में पधारकर आप दिव्य आसन पर बैठे होंगे, उसी समय बल और तेज से सम्पन्न आपके श्रीअंगों का हम पुन: दर्शन करेंगे'।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में श्रीकृष्ण प्रस्थान विषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुरशीति अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन तथा मार्ग में लोगों द्वारा सत्कार पाते हुए श्रीकृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर वहाँ विश्राम करना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! महाबाहु श्रीकृष्ण के प्रस्थान करते समय विपक्षी वीरों पर विजय पाने वाले शस्त्रधारी दस महारथी, एक हजार पैदल योद्धा, एक हजार घुड़सवार, प्रचुर खाद्य-सामग्री तथा दूसरे सैकड़ों सेवक उनके साथ गए।
जनमजेय ने पूछा ;- दशार्हकुलतिलक महात्मा मधुसूदन ने किस प्रकार यात्रा की? उन महातेजस्वी श्रीकृष्ण के जाते समय कौन-कौन से भले-बुरे शकुन प्रकट हुए थे ?
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! महात्मा श्रीकृष्ण के प्रस्थान करते समय जो दिव्य शकुन और उत्पातसूचक अपशकुन प्रकट हुए थे, मुझसे उन सबका वर्णन सुनो। बिना बादल के ही आकाश में बिजली सहित वज्र की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। उसके साथ ही पर्जन्य देवता ने मेघों की घटा न होने पर भी प्रचुर जल की वर्षा की। पूर्व की ओर बहने वाली सिंधु आदि बड़ी-बड़ी नदियों का प्रवाह उलटकर पश्चिम की ओर हो गया। सारी दिशाएँ विपरीत प्रतीत होने लगीं। कुछ भी समझ में नहीं आता था।
राजन! सब ओर आग जलने लगी। धरती डोलने लगी। सैकड़ों जलाशय और कलश छलक-छलक कर जल गिराने लगे। राजन! यह सारा संसार धूल के कारण अंधकार से आच्छन्न सा हो गया। कौन दिशा है, कौन दिशा नहीं है- इसका ज्ञान नहीं हो पाता था। महाराज! फिर बड़े ज़ोर से कोलाहल होने लगा। आकाश में सब ओर मनुष्य की-सी आकृति दिखाई देने लगी। सम्पूर्ण देशों में यह अद्भुत-सी बात दिखाई दी। दक्षिण-पश्चिम से आँधी उठी और हस्तिनापुर को मथने लगी। उसने झुंड-के-झुंड वृक्षों को तोड़-उखाड़कर धराशायी कर दिया। व्रजपात का सा कठोर शब्द होने लगा। इस प्रकार के उत्पात हस्तिनापुर के आस-पास घटित होते थे।
भारत! वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण मार्ग में जहाँ-जहाँ रहते थे, वहाँ-वहाँ सुखदायिनी वायु चलती थी और सभी शुभ शकुन उनके दाहिने भाग में प्रकट होते थे। उन पर फूलों की और बहुत से खिले कमलों की भी वृष्टि होती तथा सारा मार्ग कुश-कंटक से शून्य और समतल होकर क्लेश और दुःख से रहित हो जाता था। सहस्रों ब्राह्मण विभिन्न स्थानों में भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते तथा मधुपर्क द्वारा उनकी पूजा करते थे। धनदाता भगवान ने भी उन सबको यथेष्ट धन दिया। मार्ग में कितनी ही स्त्रियाँ आकर सम्पूर्ण भूतों के हित में रत रहने वाले उन महात्मा श्रीकृष्ण के ऊपर वन के सुगंधित फूलों की वर्षा करती थीं।
भरतश्रेष्ठ! उस समय धर्मकाय के लिए अत्यंत उपयोगी तथा सम्पूर्ण सस्य-संपत्ति से भरे हुए अगहनी धान के मनोहर खेत देखते हुए भगवान बड़े सुख से यात्रा कर रहे थे। रास्ते में कितने ही ऐसे गाँव मिलते, जिनमें बहुत से पशुओं का पालन-पोषण होता था। वे देखने में अत्यंत सुंदर और मन को संतोष देने वाले थे। उन सबको देखते और अनेकानेक नगरों एवं राष्ट्रों को लांघते हुए वे आगे बढ़ते हुए चले गए।
इधर उपप्लव्य नगर से आते हुए भगवान श्रीकृष्ण को देखने की इच्छा से अनेक नागरिक रास्ते में एक साथ खड़े थे। भरतवंशियों द्वारा सुरक्षित होने के कारण वे सदा हर्ष एवं उल्लास से भरे रहते थे। उनका मन बहुत प्रसन्न था। उन्हें शत्रुओं की सेनाओं से उद्विग्न होने का अवसर नहीं आता था। दुःख और संकट कैसा होता है, इसको वे जानते ही नहीं थे। उन सबने प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी और अपने देश के पूजनीय अतिथि भगवान श्रीकृष्ण को समीप आते देख निकट जाकर उनका यथावत पूजन किया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले भगवान श्रीकृष्ण जब वृकस्थल में पहुँचे, उस समय नाना किरणों से मंडित सूर्य अस्त होने लगे और पश्चिम के आकाश में लाली छा गयी। तब भगवान ने शीघ्र ही रथ से उतरकर उसे खोलने की आज्ञा दी और विधिपूर्वक शौच-स्नान करके वे सन्ध्योपासना करने लगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुरशीति अध्याय के श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद)
दारुक ने भी घोड़ों को खोलकर शास्त्रविधि अनुसार उनकी परिचर्या की और उनका सारा साज-बाज उतार दिया तथा उन्हें बंधनमुक्त करके छोड़ दिया संध्या-वंदन आदि सारा कार्य समाप्त करके मधुसूदन श्रीकृष्ण ने कहा,,
श्री कृष्ण बोले ;- 'युधिष्ठिर का कार्य सिद्ध करने के लिए आज रात में हम लोग यहीं रहेंगे।'उनका यह विचार जानकार सेवकों ने वहीं डेरे डाल दिये। क्षण भर में उन्होंने खाने-पीने के उत्तमोत्तम पदार्थ प्रस्तुत कर दिये। राजन! उस गाँव में जो प्रमुख ब्राह्मण रहते थे, वे श्रेष्ठ, कुलीन, लज्जाशील और ब्राह्मणोचित्त वृत्ति का पालन करने वाले थे।
उन्होंने शत्रुदमन महात्मा हृषीकेश के पास जाकर आशीर्वाद तथा मंगलपाठपूर्वक उनका यथोचित पूजन किया। सर्वलोकपूजित दशार्हनंदन श्रीकृष्ण की पूजा करके उन्होंने उन महात्मा को अपने
रत्नसम्पन्न गृह समर्पित कर दिये अर्थात अपने-अपने घरों में ठहरने के लिए प्रभु से प्रार्थना की। तब भगवान ने यह कहकर कि यहाँ ठहरने के लिए पर्याप्त स्थान है, उनका यथायोग्य सत्कार किया और उनके संतोष के लिए उन सबके घरों पर जाकर पुन: उनके साथ ही लौट आए। तत्पश्चात केशव ने वहीं उन ब्राह्मणों को सुस्वादु अन्न भोजन कराया, फिर स्वयं भी भोजन करके उन सबके साथ उस रात में वहाँ सुखपूर्वक निवास किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में श्रीकृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान विषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
पिच्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचाशीति अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का धृतराष्ट्र आदि की अनुमति से श्रीकृष्ण के स्वागत-सत्कार के लिए मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! दूतों के द्वारा भगवान मधुसूदन के आगमन का समाचार जानकार धृतराष्ट्र के शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने महाबाहु भीष्म, द्रोण, संजय तथा परम बुद्धिमान विदुर का यथावत सत्कार करके मंत्रियों सहित दुर्योधन से इस प्रकार कहा,
धृतराष्ट्र बोले ;- 'कुरुनंदन! एक अद्भुत और अत्यंत आश्चर्य की बात सुनाई देती है। घर-घर में स्त्री-बालक और बूढ़े इसी की चर्चा करते हैं। जो यहाँ के निवासी हैं, वे तथा जो बाहर से आए हुए हैं, वे भी आदरपूर्वक उसी बात को कहते हैं। चौराहों पर और सभाओं में भी पृथक-पृथक वही चर्चा चलती है। 'वह बात यह है कि पांडवों की ओर से परम पराक्रमी भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारेंगे। वे मधुसूदन हम लोगों के माननीय तथा सब प्रकार से पूजनीय हैं 'सम्पूर्ण लोकों का जीवन उन्हीं पर निर्भर है, क्योंकि वे सम्पूर्ण भूतों के अधीश्वर हैं। उन माधव में धैर्य, पराक्रम, बुद्धि और तेज सब कुछ है।
'उन नरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण का यहाँ सम्मान होना चाहिए; क्योंकि वे सनातन धर्मस्वरूप हैं। सम्मानित होने पर वे हमारे लिए सुखदायक होंगे और सम्मानित न होने पर हमारे दुःखों के कारण बन जाएँगे। 'शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण यदि हमारे सत्कार-साधनों से संतुष्ट हो जाएँगे, तब हम समस्त राजाओं में उनसे अपने सारे मनोरथ प्राप्त कर लेंगे।
'परंतप! तुम श्रीकृष्ण के स्वागत के लिए आज से ही तैयारी करो। मार्ग में अनेक विश्रामस्थान बनवाओ और उनमें सब प्रकार की मनोनुकूल उपभोग-सामग्री प्रस्तुत करो। 'महाबाहु गांधारीनंदन! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे श्रीकृष्ण के हृदय में तुम्हारे लिए प्रेम उत्पन्न हो जाये। अथवा भीष्म जी! इस विषय में आपकी क्या सम्मति है ?
तब भीष्म आदि सब लोगों ने उस प्रस्ताव की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए राजा धृतराष्ट्र से कहा,
भीष्म जी बोले ;- 'बहुत उत्तम बात है'। उन सबकी अनुमति जानकर राजा दुर्योधन ने उस समय जगह-जगह सुंदर सभामंडप तथा विश्रामस्थान बनवाने के लिए आदेश जारी किया। तब कारीगरों ने विभिन्न रमणीय प्रदेशों में अलग-अलग सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न अनेक विश्रामस्थान बनाये। नाना प्रकार के गुणों से युक्त विचित्र आसन, स्त्रियाँ, सुगंधित पदार्थ, आभूषण, महीन वस्त्र, गुणकारक अन्न, और पेय पदार्थ, भाँति-भाँति के भोजन तथा सुगंधित पुष्पमालाएँ आदि वस्तुओं को राजा दुर्योधन ने उन स्थानों में रखवाया। विशेषत: वृकस्थल नामक ग्राम में निवास करने के लिए कुरुराज दुर्योधन ने जो विश्रामस्थल बनवाया था, वह बड़ा मनोरम तथा प्रचुर रत्नराशि से सम्पन्न था।
मनुष्यों के लिए अत्यंत दुर्लभ यह सब देवोचित व्यवस्था करके राजा दुर्योधन ने धृतराष्ट्र को इसकी सूचना दे दी। परंतु यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण उन विश्रामस्थानों तथा नाना प्रकार के रत्नों की ओर दृष्टिपात तक न करके कौरवों के निवास स्थान हस्तिनापुर की ओर बढ़ते चले गए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में मार्ग में विश्रामस्थल निर्माण विषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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