सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का उत्तर”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वसुदेव नन्दन भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर सदा क्रोध और अमर्ष में भरे रहने वाले भीमसेन पहले सुशिक्षित घोड़ों की भाँति सरपट भागने लगे, जल्दी-जल्दी बोलने लगे फिर धीरे धीरे बोले।
भीमसेन ने कहा ;- अच्युत! मैं करना तो कुछ और चाहता हूँ, परंतु आप समझ कुछ और ही रहे हैं। दशार्हनन्दन! आप दीर्घकाल तक मेरे साथ रहे हैं। अत: मेरे विषय में यह सच्ची जानकारी रखते ही होंगे कि मेरा युद्ध में अत्यंत अनुराग है और मेरा पराक्रम भी मिथ्या नहीं है। अथवा यह भी संभव है कि बिना नौका के अगाध सरोवर में तैरने वाले पुरुष को जैसे उसकी गहराई का पता नहीं चलता, उसी तरह आप मुझे अच्छी तरह न जानते हों। इसलिए आप अनुचित वचनों द्वारा मुझ पर आक्षेप कर रहे हैं।
माधव! मुझ भीमसेन को अच्छी तरह जानने वाला कोई भी मनुष्य मेरे प्रति ऐसे अयोग्य वचन, जैसे आप कह रहे हैं, कैसे कह सकता है? वृष्णिकुलनन्दन! इसलिए मैं आपसे अपने उस पौरुष तथा बल का वर्णन करना चाहता हूँ, जिसकी समानता दूसरे लोग नहीं कर सकते। यद्यपि स्वयं अपनी प्रशंसा करना सर्वथा नीच पुरुषों का ही कार्य है, तथापि आपने जो मेरे सम्मान के विपरीत बातें कहकर मेरा तिरस्कार किया है, उससे पीड़ित होकर मैं अपने बल का बखान करता हूँ।
श्रीकृष्ण! आप इस भूतल और स्वर्गलोक पर दृष्टिपात करें। इन्हीं दोनों के भीतर ये समस्त प्रजाजन निवास करते हैं। ये दोनों सबके माता-पिता हैं। इन्हें अचल एवं अनंत माना गया है। ये दूसरों के आधार होते हुए भी स्वयं आधार शून्य हैं। यदि ये दोनों लोक सहसा कुपित होकर दो शिलाओं की भाँति परस्पर टकराने लगें, तो मैं चराचर प्राणियों सहित इन्हें अपनी दोनों भुजाओं से रोक सकता हूँ। लोहे के विशाल परिधों की भाँति मेरी इन मोटी भुजाओं का मध्यभाग कैसा है, यह देख लीजिये। मैं ऐसे किसी वीर पुरुष को नहीं देखता, जो इनके भीतर आकर फिर जीवित निकल जाये।
जो मेरी पकड़ में आ जाएगा, उसे हिमालय पर्वत, विशाल महासागर तथा बल नामक दैत्य का विनाश करने वाले साक्षात वज्रधारी इंद्र– ये तीनों अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी नहीं बचा सकते। पांडवों के प्रति आततायी बने हुए इन समस्त क्षत्रियों को, जो युद्ध के लिए उद्यत हुए हैं, मैं नीचे पृथ्वी पर गिराकर पैरों तले रौंद डालूँगा। अच्युत! मैंने राजाओं को जिस प्रकार युद्ध में जीतकर अपने अधीन किया था, मेरे उस पराक्रम से आप अपरिचित नहीं हैं।
जनार्दन! यदि कदाचित आप मुझे या मेरे पराक्रम को न जानते हों तो जब भयंकर संहारकारी घमासान युद्ध प्रारम्भ होगा, उस समय उगते हुए सूर्य की प्रभा के समान आप मुझे अवश्य जान लेंगे। पके हुए घाव को चाकू से चीरने या उकसाने वाले पुरुष के समान आप मुझे कठोर वचनों द्वारा तिरस्कृत क्यों कर रहे हैं ? मैं अपनी बुद्धि के अनुसार यहाँ जो कुछ कह रहा हूँ, उससे भी बढ़-चढ़कर मुझे समझें। जिस समय योद्धाओं से खचाखच भरे हुए युद्ध में भयानक मार-काट मचेगी, उस दिन मुझे देखियेगा।
जब घमासान युद्ध में मैं कुपित होकर मतवाले हाथियों, रथियों तथा घुड़सवारों को धराशायी करना और फेंकना आरंभ करूंगा एवं दूसरे श्रेष्ठ क्षत्रिय वीरों का वध करने लगूँगा, उस समय आप और दूसरे लोग भी मुझे देखेंगे कि मैं किस प्रकार चुन-चुनकर प्रधान-प्रधान वीरों का संहार कर रहा हूँ। मेरी मज्जा शिथिल नहीं हो रही है और न मेरा हृदय ही काँप रहा है। मधुसूदन! यदि समस्त संसार अत्यंत कुपित होकर मुझ पर आक्रमण करे, तो भी उससे मुझे भय नहीं है; किन्तु मैंने जो शांति का प्रस्ताव किया है, यह तो केवल मेरा सौहार्द ही है। मैं दयावश सारे क्लेश सह लेने को तैयार हूँ और चाहता हूँ कि हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयान पर्व में भीमसेन वाक्य संबंधी छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का भीमसेन को आश्वासन देना”
श्रीभगवान बोले ;- भीमसेन! मैंने तो तुम्हारा मनोभाव जानने के लिए ही प्रेम से ये बातें कही हैं, तुम पर आक्षेप करने, पण्डिताई दिखाने, क्रोध प्रकट करने या व्याख्यान देने की इच्छा से कुछ नहीं कहा है। मैं तुम्हारे माहात्म्य को जानता हूँ। तुममें जो बल और पराक्रम है, उससे भी परिचित हूँ और तुमने जो बड़े-बड़े पराक्रम किए हैं, वे भी मुझसे छिपे नहीं हैं; अत: मैं तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर सकता। पांडुनन्दन! तुम अपने में जैसे कल्याणकारी गुण की संभावना करते हो, उससे भी सहस्रगुने सद्गुणों की संभावना तुम में मैं करता हूँ।
भीमसेन! समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित जैसे प्रतिष्ठित कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है, अपने बंधुओं और सुहृदों सहित तुम वैसी ही प्रतिष्ठा के योग्य हो। वृकोदर! देवधर्म और मानुष धर्म का स्वरूप संदिग्ध है। लोग दैव और पुरुषार्थ दोनों के परिणाम को जानना चाहते हैं, परंतु किसी निश्चय तक पहुँच नहीं पाते। क्योंकि उपर्युक्त पुरुषार्थ ही कभी पुरुष की कार्य-सिद्धि में कारण बनकर कभी विनाश का भी हेतु बन जाता है। इस प्रकार जैसे देव का फल संदिग्ध है, वैसे ही पुरुषार्थ का भी फल संदिग्ध है। दोषदर्शी विद्वानों द्वारा अन्य रूप में देखे या विचारे हुए कर्म वायु के वेगों की भाँति बदलकर किसी दूसरे ही रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
अच्छी तरह विचारपूर्वक निश्चित किए हुए, उत्तम नीति से युक्त तथा न्यायपूर्वक संपादित किए हुए मानव-संबंधी पुरुषार्थसाध्य कर्म भी कभी दैववश बाधित हो जाते हैं– उनकी सिद्धि में विघ्न पड़ जाता है। भारत! दैवकृत कार्य भी समाप्त होने से पहले पुरुषार्थ द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। जैसे शीत का निवारण वस्त्र से, गर्मी का व्यंजन से, वर्षा का छत्र से और भूख-प्यास का निवारण अन्न और जल से हो जाता है। प्रारब्ध के अतिरिक्त जो पुरुष का स्वयं अपना किया हुआ कर्म है, उससे भी फल की सिद्धि होती है। इस विषय में यथेष्ट उदाहरण मिलते हैं। पांडुनंदन! पुरुषार्थ को छोड़कर दूसरे किसी साधन से केवल दैव से मनुष्य का जीवन निर्वाह नहीं हो सकता। ऐसा विचारकर उसे कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए। फिर प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों के संबंध से फल की प्राप्ति होगी। जो अपनी बुद्धि में ऐसा निश्चय करके कर्मों में ही प्रवृत्त होता है, वह फल की सिद्धि न होने पर दुख नहीं होता और फल की प्राप्ति होने पर भी हर्ष का अनुभव नहीं करता।
भीमसेन! मुझे इस विषय में अपना यह निश्चय बताना अभीष्ट है कि युद्ध में शत्रुओं के साथ भिड़ने पर अवश्य ही विजय प्राप्त होगी, यह नहीं कहा जा सकता। मनोभाव बदल जाये अथवा प्रारब्ध के अनुसार कोई विपरीत घटना घटित हो जाये, तो भी सहसा अपने तेज और उत्साह को सर्वथा नहीं छोड़ना चाहिए। विषाद एवं ग्लानि का अनुभव नहीं करना चाहिए। यह बात भी मैंने तुम्हें आवश्यक समझकर बताई है। पांडुनंदन! कल सवेरे मैं राजा धृतराष्ट्र के समीप जाकर तुम लोगों के स्वार्थ की सिद्धि में तनिक भी बाधा न पहुँचाते हुए दोनों पक्षों में संधि कराने का प्रयत्न करूँगा।
यदि वे संधि स्वीकार कर लेंगे तो मुझे अक्षय यश की प्राप्ति होगी। तुम लोगों का मनोरथ भी पूर्ण होगा और कौरवों का भी परम कल्याण होगा। यदि वे कौरव युद्ध का ही आग्रह दिखायेंगे और मेरे संधि विषयक प्रस्ताव को ठुकरा देंगे, तब यहाँ युद्ध ही होगा, जो भयंकर कर्म है। भीमसेन! इस युद्ध में सारा भार तुम्हारे ऊपर ही रखा जायेगा एवं अर्जुन इस भार को धारण करेगा। अन्य लोगों का भार भी तुम्हीं दोनों को ढोना है। युद्ध आरंभ होने पर मैं अर्जुन का सारथी बनूँगा यही अर्जुन की इच्छा है। तुम यह न समझो कि मैं युद्ध होने देना नहीं चाहता। वृकोदर! इसलिए जब तुम कायरतापूर्ण वचनों द्वारा शांति का प्रस्ताव करने लगे, तब मुझे तुम्हारे युद्ध विषयक विचार के बदल जाने का संदेह हुआ, जिसके कारण पूर्वोक्त बातें कहकर मैंने तुम्हारे तेज को उद्दीप्त किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योग पर्व के अंतर्गत भगवादयान पर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का कथन”
तदनंतर अर्जुन ने कहा ;– जनार्दन! मुझे जो कुछ कहना था, वह सब तो महाराज युधिष्ठिर ने ही कह दिया। शत्रुओं को संतप्त करने वाले प्रभो! आपकी बात सुनकर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप धृतराष्ट्र के लोभ तथा हमारी प्रस्तुत दीनता के कारण संधि कराने का कार्य सरल नहीं समझ रहे हैं। अथवा आप मनुष्य के पराक्रम को निष्फल मानते हैं; क्योंकि पूर्वजन्म के कर्म के बिना केवल पुरुषार्थ से किसी फल की प्राप्ति नहीं होती। आपने जो बात कही है, वह ठीक है; परंतु सदा वैसा ही हो, यह नहीं कहा जा सकता। किसी भी कार्य को असाध्य नहीं समझना चाहिए।
आप ऐसा मानते हैं कि हमारा यह वर्तमान कष्ट ही हमें पीड़ित करने वाला है, परंतु वास्तव में हमारे शत्रुओं के किए हुए वे कार्य ही हमें कष्ट दे रहे हैं; जिनका उनके लिए भी कोई विशेष फल नहीं है। प्रभों! जिस कार्य को अच्छी तरह किया जाय, वह सफल हो सकता है। श्रीकृष्ण! आप ऐसा ही प्रयत्न करें, जिससे शत्रुओं के साथ हमारी संधि हो जाये। वीरवर! जैसे प्रजापति ब्रह्मा जी देवताओं तथा असुरों के भी प्रधान हितैषी हैं, उसी प्रकार आप हम पांडवों तथा कौरवों के भी प्रधान सुहृद हैं।
इसलिए आप ऐसा प्रयत्न कीजिये, जिससे कौरवों तथा पांडवों के भी दु:ख का निवारण हो जाए। मेरा विश्वास है कि हमारे लिए हितकर कार्य करना आपके लिए दुष्कर नहीं है। जनार्दन! ऐसा करना आपके लिए अत्यंत आवश्यक कर्तव्य है। प्रभों! आप वहाँ जाने मात्र से यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। वीर! उस दुरात्मा दुर्योधन के प्रति आपको कुछ और करना अभीष्ट हो, तो जैसी आपकी इच्छा होगी, वह सब कार्य उसी रूप में सम्पन्न होगा।
श्रीकृष्ण! कौरवों के साथ हमारी संधि हो अथवा आप जो कुछ करना चाहते हों, वही हो। विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आपकी जो इच्छा हो, वही हमारे लिए गौरव तथा समादर की वस्तु है। वह दुष्टात्मा दुर्योधन अपने पुत्रों और बंधु-बांधवों सहित वध के ही योग्य है, जो धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास आई हुई संपत्ति देखकर उसे सहन न कर सका। इतना ही नहीं, जब कपटद्यूत का आश्रय लेने वाले उस क्रूरात्मा ने किसी धर्मसम्मत उपाय युद्ध आदि को अपने लिए सफलता देने वाला नहीं देखा, तब कपटपूर्ण उपाय से उस संपत्ति का अपहरण कर लिया। क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ कोई भी धनुर्धर पुरुष किसी के द्वारा युद्ध के लिए आमंत्रित होने पर कैसे पीछे हट सकता है? भले ही वैसा करने पर उसके लिए प्राण-त्याग का संकट भी उपस्थित हो जाए।
वृष्णिकुलनन्दन! हम लोग अधर्मपूर्वक जूए में पराजित किए गए और वन में भेज दिये गए। यह सब देखकर मैंने मन-ही-मन पूर्णरूप से निश्चय कर लिया था कि दुर्योधन मेरे द्वारा वध के योग्य है। श्रीकृष्ण! आप मित्रों के हित के लिए जो कुछ करना चाहते हैं, वह आपके लिए अद्भुत नहीं है। मृदु अथवा कठोर जिस उपाय से भी संभव है किसी तरह से अपना मुख्य कार्य सफल होना चाहिए।
अथवा यदि आप अब कौरवों का वध ही श्रेष्ठ मानते हों तो वही शीघ्र-से-शीघ्र किया जाए। फिर इसके सिवा और किसी बात पर आपको विचार नहीं करना चाहिए। आप जानते हैं, इस पापात्मा दुर्योधन ने भरी सभा में द्रुपदकुमारी कृष्णा को कितना कष्ट पहुँचाया था, परंतु हमने उसके इस महान अपराध को भी चुपचाप सह लिया था।
माधव! वही दुर्योधन अब पांडवों के साथ अच्छा बर्ताव करेगा, ऐसी बात मेरी बुद्धि में जँच नहीं रही है। उसके साथ संधि का सारा प्रयत्न ऊसर में बोये हुए बीज की भाँति व्यर्थ ही है। अत: वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण! आप पांडवों के लिए अब से करने योग्य जो उचित एवं हितकर कार्य मानते हों, वही यथासंभव शीघ्र आरंभ कीजिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयान पर्व में अर्जुन वाक्य विषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना”
श्रीभगवान बोले ;– महाबाहु पांडुकुमार! तुम जैसा कहते हो, वैसा करना उचित है। मैं वही करने का प्रयत्न करूँगा, जिससे कौरव तथा पांडव दोनों का संकट दूर हो दोनों सुखी हो सकें। अर्जुन! इसमें संदेह नहीं कि शांति और युद्ध इन दोनों कार्यों में से किसी एक को हितकर समझकर अपनाने का सारा दायित्व मेरे हाथ में आ गया है; तथापि इसमें प्रारब्ध की अनुकूलता अपेक्षित है। कुंतीनंदन! जुताई और सिंचाई करके कितना ही शुद्ध और सरस बनाया हुआ खेत क्यों न हो, कभी-कभी वर्षा के बिना वह अच्छी उपज नहीं दे सकता।
जिस खेत में जुताई और सिंचाई की गयी है, वहाँ यह पुरुषार्थ ही किया गया है; परंतु वहाँ भी दैववश सूखा पड़ गया, यह निश्चितरूप से देखा जाता है अत: पुरुषार्थ की सफलता के लिए प्रारब्ध की अनुकूलता आवश्यक है। इसलिए पूर्वकाल के महात्माओं ने अपनी बुद्धि द्वारा यही निश्चय किया है कि लोकहित का साधन दैव तथा पुरुषार्थ दोनों पर निर्भर है। मैं पुरुषार्थ से जितना हो सकता है, उतना संधि स्थापन के लिए अधिक-से-अधिक प्रयत्न करूँगा; परंतु प्रारब्ध के विधान को किसी प्रकार भी टाल देना या बदल देना मेरे लिए संभव नहीं है।
दुर्बुद्धि दुर्योधन सदा धर्म और लोकाचार को छोड़कर ही चलता है, परंतु इस प्रकार धर्म और लोक के विरुद्ध कार्य करके भी वह उससे संतप्त नहीं होता। इतने पर भी उसके मंत्री शकुनि, सूतपुत्र कर्ण तथा भाई दु:शासन ये उसकी अत्यंत पापपूर्ण बुद्धि को बढ़ावा देते रहते हैं।
कुंतीपुत्र! अपने सगे संबंधियों सहित दुर्योधन जब तक मारा नहीं जाएगा, तब तक वह राज्यभाग देकर कदापि संधि नहीं करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर भी नम्रतापूर्वक संधि के लिए अपना राज्य छोड़ना नहीं चाहते हैं। उधर दुर्बुद्धि दुर्योधन मांगनें पर भी राज्य नहीं देगा। भरतनन्दन! धर्मराज युधिष्ठिर ने केवल पाँच गांवों को मांगने के लिए जो आज्ञा दी है तथा नम्रतापूर्ण वचनों में जो संधि का प्रयोजन बताया है, वह सब दुर्योधन से कहना उचित नहीं है ऐसा मैं मानता हूँ, क्योंकि वह कुरुकुल कलंक पापात्मा उन सब बातों को कभी स्वीकार नहीं करेगा। हम लोगों का प्रस्ताव स्वीकार न करने पर वह इस जगत में अवश्य ही वध के योग्य हो जाएगा। भारत! जिसने तुम सब लोगों को कुमारावस्था में भी सदा नाना प्रकार के कष्ट दिये हैं, जिस दुरात्मा एवं निर्दयी ने तुम्हारे राज्य का भी अपहरण कर लिया है तथा जो पापी दुर्योधन युधिष्ठिर के पास संपत्ति देखकर शांत नहीं रह सकता है, वह मेरे और समस्त संसार के लिए वध्य है।
कुंतीनंदन! उसने मुझे भी तुम्हारी ओर से फोड़ने के लिए अनेक बार चेष्ठा की है, परंतु मैंने उसके पापपूर्ण प्रस्ताव को कभी स्वीकार नहीं किया है। महाबाहो! तुम जानते ही हो कि दुर्योधन की भी मेरे विषय में यही निश्चित धारणा है कि मैं धर्मराज युधिष्ठिर का प्रिय करना चाहता हूँ। अर्जुन! इस प्रकार तुम दुर्योधन के मन की भावना तथा मेरे दृढ़ निश्चय को जानते हुए भी आज अनजान कि भाँति क्यों मुझ पर संदेह कर रहे हो?
कुंतीकुमार! जो देवताओं का परम दिव्य भूभार उतारने के लिए निश्चित विधान है, उससे भी तुम सर्वथा परिचित हो। फिर शत्रुओं के साथ संधि कैसे हो सकती है? पांडुनंदन! मेरे द्वारा वाणी और प्रयत्न से जो कुछ हो सकता है, वह मैं अवश्य करूँगा; परंतु पार्थ! मुझे यह तनिक भी आशा नहीं है कि शत्रुओं के साथ संधि हो जायेगी,
विराटनगर में गोहरण के समय तुम्हारे अज्ञातवास का वर्ष पूरा हो चुका था। उस समय भीष्म जी ने मार्ग में दुर्योधन से याचना की कि तुम पांडवों को उनका राज्य देकर उनसे मेल कर लो, परंतु यह कल्याण और हित की बात भी उसने किसी प्रकार स्वीकार नहीं की।जब तुमने कौरवों को पराजित करने का संकल्प किया, उसी समय वे पराजित हो गए। परंतु दुर्योधन तुम लोगों पर क्षणभर के लिए किंचितमात्र भी संतुष्ट नहीं है। मुझे वहाँ जाकर सबसे पहले धर्मराज की आज्ञा के अनुसार संधि के लिए सब प्रकार से प्रयत्न करना है। यदि यह सफल न हुआ तो फिर मुझे यह विचार करना होगा कि दुरात्मा दुर्योधन को उसके पापकर्म का दंड कैसे दिया जाये?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक उन्नासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अशीति अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“नकुल का निवेदन”
नकुल बोले ;– माधव! धर्मज्ञ और उदार धर्मराज ने बहुत सी बातें कही हैं और आपने उन्हें सुना है। यदुकुलभूषण! राजा का मत जानकर भाई भीमसेन ने भी पहले संधि स्थापन की, फिर अपने बाहुबल की बात बताई है। वीर! इस प्रकार अर्जुन ने भी जो कुछ कहा है, वह भी आपने सुन ही लिया है। आपका जो अपना मत है, उसे भी आपने अनेक बार प्रकट किया है। परंतु पुरुषोत्तम! इन सब बातों को पीछे छोड़कर और विपक्षियों के मत को अच्छी तरह सुनकर आपको समय के अनुसार जो कर्तव्य उचित जान पड़े, वही कीजिएगा।
शत्रुओं का दमन करने वाले केशव! भिन्न-भिन्न कारण उपस्थित होने पर मनुष्यों के विचार भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हो जाते हैं; अत: मनुष्य को वही कार्य करना चाहिए, जो उसके योग्य और समयोचित हों। पुरुषश्रेष्ठ! किसी वस्तु के विषय में सोचा कुछ और जाता है और हो कुछ और जाता है। संसार के मनुष्य स्थिर विचार वाले नहीं होते हैं।
श्रीकृष्ण! जब हम वन में निवास करते थे, उस समय हमारे विचार कुछ और ही थे, अज्ञातवास के समय वे बदलकर कुछ और हो गए और उस अवधि को पूर्ण करके जब हम सबके सामने प्रकट हुए हैं, तब से हम लोगों का विचार कुछ और हो गया है। वृष्णिनन्दन! वन में विचरते समय राज्य के विषय में हमारा वैसा आकर्षण नहीं था, जैसा इस समय है। वीर जनार्दन! हम लोग वनवास की अवधि पूरी करके आ गए हैं; यह सुनकर आपकी कृपा से ये सात अक्षौहिणी सेनाएँ यहाँ एकत्र हो गयी हैं। यहाँ जो पुरुषसिंह वीर उपस्थित हैं, इनके बल और पौरुष अचिंत्य हैं। रणभूमि में इन्हें अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित देखकर किस पुरुष का हृदय भयभीत न हो उठेगा ?
आप कौरवों के बीच में उससे पहले सांतवनापूर्ण बातें कहियेगा और अंत में युद्ध का भय भी दिखाइएगा, जिससे मूर्ख दुर्योधन के मन में व्यथा न हो। केशव! अपने शरीर में मांस और रक्त का बोझ बढ़ाने वाला कौन ऐसा मनुष्य है, जो युद्ध में युधिष्ठिर, भीमसेन, किसी से पराजित न होने वाले अर्जुन, सहदेव, बलराम, महापराक्रमी सात्यकि , पुत्रों सहित विराट , मंत्रियों सहित द्रुपद, धृष्टद्युम्न, पराक्रमी काशिराज, चेदिनरेश धृष्टकेतु तथा आपका और मेरा सम्मान कर सके?।
महाबाहो! आप वहाँ केवल जाने मात्र से धर्मराज के अभीष्ट मनोरथ को सिद्ध कर देंगे; इसमें संशय नहीं है। निष्पाप श्रीकृष्ण! विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा बाह्लिक– ये आपके बताने पर कल्याणकारी मार्ग को समझने में समर्थ हैं। ये लोग राजा धृतराष्ट्र तथा मंत्रियों सहित पापाचारी दुर्योधन को समझा-बुझाकर राह पर लाएँगे।
जनार्दन! जहाँ विदुरजी किसी प्रयोजन को सुनें और आप उसका प्रतिपादन करें, वहाँ आप दोनों मिलकर किस बिगड़ते हुए कार्य को सिद्धि के मार्ग पर नहीं ला देंगे?
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में नकुल वाक्य विषयक असीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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