सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र के द्वारा भगवद्नगुणगान”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! जो लोग परम उत्तम श्री अंगों से सुशोभित तथा दिशा-विदिशाओं को प्रकाशित करते हुए वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण को निकट से दर्शन करेंगे, उन सफल नेत्रों वाले मनुष्यों के सौभाग्य को पाने की मैं भी अभिलाषा रखता हूँ। भगवान अत्यन्त मनोहर वाणी में जो प्रवचन करेंगे, वह भरतवंशियों तथा सृंजयों के लिये कल्याणकारी तथा आदरणीय होगा। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुषों के लिये भगवान की वह वाणी अनिन्द्य और शिरोधार्य होगी; परंतु जो मृत्यु के निकट पहुँच चुके हैं, उन्हें वह अग्राह्य प्रतीत होगी। संसार के अद्वितीय वीर, सात्वतकुल के श्रेष्ठ पुरुष, यदुवंशियों के माननीय नेता, शत्रुपक्ष के योद्धाओं को क्षुब्ध करके उनका संहार करने वाले तथा वैरियों के यश को बलपूर्वक छीन लेने वाले वे भगवान श्रीकृष्ण यहाँ उदित होंगे और नेत्र वाले लोग उनका दर्शन करके धन्य हो जायंगे।
महात्मा, शत्रुहन्ता तथा सबके वरण करने योग्य वे वृष्णि-कुलभूषण श्रीकृष्ण यहाँ आकर कृपापूर्ण कोमल वाक्य बोलेंगे और हमारे पक्षवर्ती राजाओं को मोहित करेंगे; इस अवस्था में समस्त कौरव उन्हें देखेंगे। जो अत्यन्त सनातन ऋषि, ज्ञानी, वाणी के समुद्र और प्रयत्नशील-साधकों को कलश के जल की भाँति सुलभ होने वाले हैं, जिनके चरण समस्त विघ्नों का निवारण करने वाले हैं, सुन्दर पंखों से युक्त गरुड़ जिनके स्वरूप हैं, जो प्रजाजनों के पाप-ताप हर लेने वाले तथा जगत के आश्रय हैं, जिनके सहस्रों मस्तक हैं, जो पुराणपुरुष हैं, जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, जो अक्षय कीर्ति से सुशोभित, बीज एवं वीर्य को धारण करने वाले, अजन्मा, नित्य तथा परात्पर परमेश्वर हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण लेता हूँ।
जो तीनों लोकों का निर्माण करने वाले हैं, जिन्होंने देवताओं, असुरों, नागों तथा राक्षसों को भी जन्म दिया है तथा जो ज्ञानी नरेशों के प्रधान हैं, इन्द्र के छोटे भाई वामन-स्वरूप उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृतराष्ट्रवाक्यविषयक इकहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना, श्रीकृष्ण का शान्तिदूत बनकर कौरव- सभा में जाने के लिये उद्यत होना और इस विषय में उन दोनों का वार्तालाप”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! इधर संजय के चले जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने भीमसेन, अर्जुन, माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, विराट, द्रुपद तथा केकयदेशीय महारथियों के पास जाकर कहा-
युधिष्ठिर बोले ;- ‘हम लोग शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले
भगवान श्रीकृष्ण के पास चलकर उनसे कौरव सभा में जाने के लिये प्रार्थना करें। ‘वे वहाँ जाकर ऐसा प्रयत्न करें, जिससे हमें भीष्म, द्रोण, बुद्धिमान बाह्लीक तथा अन्य कुरुवंशियों के साथ रणक्षेत्र में युद्ध न करना पड़े।।
‘यही हमारा पहला ध्येय है और यही हमारे लिये परम कल्याण की बात है।’ राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर भगवान श्रीकृष्ण के समीप गये।
उस समय शत्रुओं के लिये दु:सह प्रतीत होने वाले वे सभी नरश्रेष्ठ सभासद भूपालगण पाण्डवों के साथ श्रीकृष्ण के निकट उसी प्रकार गये, जैसे देवता इन्द्र के पास जाते हैं।
समस्त यदुवंशियों में श्रेष्ठ दशार्हकुलनन्दन जनार्दन श्रीकृष्ण के पास पहुँचकर कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा,-
युधिष्ठिर बोले ;- ‘मित्रवत्सल श्रीकृष्ण! मित्रों की सहायता के लिये यही उपयुक्त अवसर आया है। मैं आपके सिवा दूसरे किसी को ऐसा नहीं देखता, जो इस विपत्ति से हम लोगों का उद्धार करे। ‘आप माधव की शरण में आकर हम सब लोग निर्भय हो गये हैं और व्यर्थ ही घमंड दिखाने वाले धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन तथा उसके मन्त्रियों को हम स्वयं युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। ‘शत्रुदमन! जैसे आप वृष्णिवंशियों की सब प्रकार की आपत्तियों से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपको पाण्डवों की भी रक्षा करनी चाहिये। प्रभों! इस महान भय से आप हमारी रक्षा कीजिये।'
श्री भगवान बोले ;- महाबाहो! यह मैं आपकी सेवा-के लिये सर्वदा प्रस्तुत हूँ। आप जो कुछ कहना चाहते हों, कहें। भारत! आप जो-जो कहेंगे, वह सब कार्य मैं निश्चय ही पूर्ण करूंगा।
युधिष्ठिर ने कहा ;- श्रीकृष्ण! पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र क्या करना चाहते हैं, यह सब तो आपने सुन ही लिया। संजय ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह धृतराष्ट्र का ही मत है। संजय धृतराष्ट्र का अभिन्नस्वरूप होकर आया था। उसने उन्हीं के मनोभाव को प्रकाशित किया है। दूत संजय ने स्वामी की कही हुई बात को ही दुहराया है; क्योंकि यदि वह उसके विपरीत कुछ कहता तो वध के योग्य माना जाता। राजा धृतराष्ट्र को राज्य का बड़ा लोभ है। उनके मन में पाप बस गया है। अत: वे अपने-अनुरूप व्यवहार न करके राज्य दिये बिना ही हमारे साथ संधि का मार्ग ढूंढ़ रहे हैं।
प्रभो! हम तो यही समझकर कि धृतराष्ट्र अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहेंगे, उन्हीं की आज्ञा से बारह वर्ष वन में रहे और एक वर्ष अज्ञातवास किया। श्रीकृष्ण! हमने अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं की है; इस बात को हमारे साथ रहने वाले सभी ब्राह्मण जानते हैं। परंतु राजा धृतराष्ट्र तो लोभ में डूबे हुए हैं। वे अपने धर्म की ओर नहीं देखते हैं। पुत्रों में आसक्त होकर सदा उन्हीं के अधीन रहने के कारण वे अपने मूर्ख पुत्र दुर्योधन की ही आज्ञा का अनुसरण करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद)
जनार्दन! उनका लोभ इतना बढ़ गया है कि वे दुर्योधन की ही हां-में-हां मिलाते हैं और अपना ही प्रिय कार्य करते हुए हमारे साथ मिथ्या व्यवहार कर रहे हैं। जनार्दन! इससे बढ़कर महान दु:ख की बात और क्या हो सकती है कि मैं अपनी माता तथा मित्रों का भी अच्छी तरह भरण-पोषण तक नहीं कर सकता। मधुसूदन! यद्यपि काशी, चेदि, पांचाल और मत्स्यदेश के वीर हमारे सहायक हैं और आप हम लोगों के रक्षक और स्वामी हैं; आप लोगों की सहायता से हम सारा राज्य ले सकते हैं तथापि मैंने केवल पांच ही गांव मांगे थे।
गोविन्द! मैंने धृतराष्ट्र से यही कहा था कि तात! आप हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और अन्तिम पांचवां कोई-सा भी गांव जिसे आप देना चाहें, दे दें। इस प्रकार हमारे लिये पांच गांव या नगर दे दें; जिनमें हम पांचों भाई एक साथ मिलकर रह सकें और हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो। परंतु दुष्टात्मा दुर्योधन सब पर अपना ही अधिकार मानकर उन पांच गांवों को भी देने की बात नहीं स्वीकार कर रहा है। इससे बढ़कर कष्ट की बात और क्या हो सकती है?
मनुष्य उत्तम कुल में जन्म लेकर और वृद्ध होने पर भी यदि दूसरों के धन को लेना चाहता है तो वह लोभ उसकी विचार शक्ति को नष्ट कर देता है। विचार शक्ति नष्ट होने पर उसकी लज्जा को भी नष्ट कर देती है। नष्ट हुई लज्जा धर्म को नष्ट कर देती है। नष्ट हुआ धर्म मनुष्य की सम्पत्ति का नाश कर देता है और नष्ट हुई सम्पत्ति उस मनुष्य का विनाश कर देती है, क्योंकि धन का अभाव ही मनुष्य का वध है। श्रीकृष्ण! धनहीन पुरुष से उसके भाई-बन्धु, सुहृद् और ब्राह्मण लोग भी उसी प्रकार मुंह मोड़ लेते हैं, जैसे पक्षी पुष्प और फल से हीन वृक्ष को छोड़कर उड़ जाते हैं।
तात! जैसे पतित मनुष्य के निकट से लोग दूर भागते हैं और जैसे मृत शरीर से प्राण निकल जाते हैं, उसी प्रकार मेरे कुटुम्बीजन भी जो मुझसे मुंह मोड़ रहे हैं, यही मेरे लिये मरण है। जहाँ आज और कल सबेरे के लिये भोजन नहीं दिखायी देता, उस दरिद्रता से बढ़कर दूसरी कोई दु:खदायिनी अवस्था नहीं हैं; यह शम्बर का कथन हैं।
धन को उत्तम धर्म का साधक बताया गया है। धन में सब कुछ प्रतिष्ठित है। संसार में धनी मनुष्य ही जीवन धारण करते हैं। जो निर्धन हैं, वे तो मरे हुए के ही समान हैं। जो लोग अपने बल में स्थित होकर किसी मनुष्य को धन से वंचित कर देते हैं, वे उसके धर्म, अर्थ और काम को तो नष्ट करते ही हैं, उस मनुष्य को भी नष्ट कर देते हैं।
इस निर्धन अवस्था को पाकर कितने ही मनुष्यों ने मृत्यु का वरण किया है। कुछ लोग गांव छोड़कर दूसरे गांव में जा बसे हैं, कितने ही जंगलों में चले गये हैं और कितने ही मनुष्य प्राण देने के लिये घर से निकल पड़े हैं। कितने लोग पागल हो जाते हैं, बहुत-से शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं और कितने ही मनुष्य धन के लिये दूसरों की दासता स्वीकार कर लेते हैं।
धन-सम्पत्ति का नाश मनुष्य के लिये भारी विपत्ति ही है। वह मृत्यु से भी बढ़कर है, क्योंकि सम्पत्ति ही मनुष्य के धर्म और काम की सिद्धि का कारण है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 28-43 का हिन्दी अनुवाद)
मनुष्य की जो धर्मानुकूल मृत्यु है, वह परलोक के लिये सनातन मार्ग है। सम्पूर्ण प्राणियों में से कोई भी उस मृत्यु का सब ओर से उल्लघंन नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण! जो जन्म से ही निर्धन रहा है, उसे उस दरिद्रता के कारण उतना कष्ट नहीं पहुँचता, जितना कि कल्याणमयी सम्पत्ति को पाकर सुख में ही पले हुए पुरुष को उस सम्पत्ति से वंचित होने पर होता है। यद्यपि वह मनुष्य उस समय अपने ही अपराध से भारी संकट में पड़ता है, तथापि वह इसके लिये इन्द्र आदि देवताओं की ही निन्दा करता है; अपने को किसी प्रकार भी दोष नहीं देता है।
उस समय सम्पूर्ण शास्त्र भी उसके इस संकट को टालने-में समर्थ नहीं होते। वह सेवकों पर कुपित होता और सगे-सम्बन्धियों के दोष देखने लगता है। निर्धन अवस्था में मनुष्य को केवल क्रोध आता है, जिससे वह पुन: मोहाच्छत्र हो जाता है, विवेकशक्ति खो बैठता है। मोह के वशीभूत होकर वह क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता हैं। इस प्रकार पापकर्मों में प्रवृत्त होने के कारण वह वर्णसंकर संतानों का पोषक होता है और वर्णसंकर केवल नरक की ही प्राप्ति कराता है। पापियों की यही अन्तिम गति है।
श्रीकृष्ण! यदि उसे फिर से कर्तव्य का बोध नहीं होता, तो वह नरक की दिशा में ही बढ़ता जाता है। कर्तव्य का बोध कराने वाली प्रज्ञा ही है। जिसे प्रज्ञारूपी नेत्र प्राप्त है, वह निश्चय ही संकट से पार हो जायगा। प्रज्ञा की प्राप्ति होने पर पुरुष केवल शास्त्र वचनों पर ही दृष्टि रखता है। शास्त्र में निष्ठा होने पर वह पुन: धर्म करता है। धर्म का उत्तम अंग है लज्जा, जो धर्म के साथ ही आ जाती है। लज्जाशील मनुष्य पाप से द्वेष रखकर उससे दूर हो जाता है। अत: उसकी धन सम्पत्ति बढ़ने लगती है। जो जितना ही श्रीसम्पन्न है, वह उतना ही पुरुष माना जाता है।
सदा धर्म में तत्पर रहने वाला पुरुष शान्तचित्त होकर नित्य-निरन्तर सत्कर्मों में लगा रहता है। वह कभी अधर्म में मन नहीं लगाता और न पाप में ही प्रवृत्त होता है। जो निर्लज्ज अथवा मूर्ख है, वह न तो स्त्री है और न पुरुष ही है। उसका धर्म-कर्म में अधिकार नहीं है। वह शूद्र के समान है। लज्जाशील पुरुष देवताओं की, पितरों की तथा अपनी भी रक्षा करता है। इससे वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है। वही पुण्यात्मा पुरुषों की परम गति है।
मधुसूदन! यह सब आपने मुझमें प्रत्यक्ष देखा है कि मैं किस प्रकार राज्य से भ्रष्ट हुआ और कितने कष्ट के साथ इन दिनों रह रहा हूँ। अत: हम लोग किसी भी न्याय से अपनी पैतृक सम्पत्ति-का परित्याग करने योग्य नहीं है। इसके लिये प्रयत्न करते हुए यदि हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी अच्छा ही है। माधव! इस विषय में हमारा पहला ध्येय यही है कि हम और कौरव आपस में संधि करके शान्तभाव से रहकर उस सम्पत्ति का समानरूप से उपभोग करें।
दूसरा पक्ष यह है कि हम कौरवों को मारकर सारा राज्य अपने अधिकार में कर लें; परंतु यह भयंकर क्रूरतापूर्ण कर्म की पराकाष्ठा होगी क्योंकि इस दशा में कितने ही निरपराध मनुष्यों का संहार करने के पश्चात हमारी विजय होगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 44-57 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीकृष्ण! जिनका अपने साथ कोई सम्बन्ध न हो तथा जो सर्वथा नीच एवं शत्रुभाव रखने वाले हों, उनका भी वध करना उचित नहीं है। फिर जो सगे-सम्बन्धी, श्रेष्ठ और सुहृद् हैं, ऐसे लोगों का वध कैसे उचित हो सकता है? हमारे विरोधियों में अधिकांश हमारे भाई-बन्धु, सहायक और गुरुजन हैं। उनका वध तो बहुत बड़ा पाप है। युद्ध में अच्छी बात क्या है? कुछ नहीं। क्षत्रियों का यह धर्म पापरूप ही है। हम भी क्षत्रिय ही हैं, अत: वह हमारा स्वधर्म पाप होने पर भी हमें तो करना ही होगा, क्योंकि उसे छोड़कर दूसरी किसी वृत्ति को अपनाना भी निन्दा की बात होगी।
शूद्र सेवा का कार्य करता है, वैश्य व्यापार से जीविका चलाते हैं, हम क्षत्रिय युद्ध में दूसरों का वध करके जीवन-निर्वाह करते हैं और ब्राह्मणों ने अपनी जीविका के लिये भिक्षापात्र चुन लिया है। क्षत्रिय क्षत्रिय को मारता है, मछली मछली को खाकर जीती है और कुत्ता कुत्ते को काटता है। दशार्हनन्दन! देखिये; यही परम्परा से चला आने वाला धर्म है।
श्रीकृष्ण! युद्ध में सदा कलह ही होता है और उसी के कारण प्राणों का नाश होता है। मैं तो नीतिबल का ही आश्रय लेकर युद्ध करूंगा। फिर ईश्वर की इच्छा के अनुसार जय हो या पराजय। प्राणियों के जीवन और मरण अपनी इच्छा के अनुसार नहीं होते हैं। यही दशा जय और पराजय की भी है। यदुश्रेष्ठ! किसी को सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति भी असमय में नहीं होती है। युद्ध में एक योद्धा भी बहुत-से सैनिकों का संहार कर डालता है तथा बहुत से योद्धा मिलकर भी किसी एक को ही मार पाते हैं। कभी कायर शूरवीर को मार देता है और अयशस्वी पुरुष यशस्वी वीर को पराजित कर देता है।
न तो कहीं दोनों पक्षों की विजय होती देखी गयी है और न दोनों की पराजय ही दृष्टिगोचर हुई है। हां, दोनों के धन-वैभव का नाश अवश्य देखा गया है। यदि कोई पक्ष पीठ दिखाकर भाग जाय, तो उसे भी धन और जन दोनों की हानि उठानी पड़ती है। इससे सिद्ध होता है कि युद्ध सर्वथा पापरूप ही है। दूसरों को मारने वाला कौन ऐसा पुरुष है, जो बदले में स्वयं भी मारा न जाता हो? हृषीकेश! जो युद्ध में मारा गया, उसके लिये तो विजय और पराजय दोनों समान हैं।
श्रीकृष्ण! मैं तो ऐसा मानता हूँ कि पराजय मृत्यु से अच्छी वस्तु नहीं है। जिसकी विजय होती है, उसे भी निश्चय ही धन-जन की भारी हानि उठानी पड़ती है। युद्ध समाप्त होने तक कितने ही विपक्षी सैनिक विजयी योद्धा के अनेक प्रियजनों को मार डालते हैं। जो विजय पाता है, वह भी कुटुम्ब और धन सम्बन्धी बल से शून्य हो जाता है। और कृष्ण! जब वह युद्ध में मारे गये अपने पुत्रों और भाइयों को नहीं देखता है, तो वह सब ओर से विरक्त हो जाता है; उसे अपने जीवन से भी वैराग्य हो जाता है।
जो लोग धीर-वीर, लज्जाशील, श्रेष्ठ और दयालु हैं, वे ही प्राय: युद्ध में मारे जाते हैं और अधम श्रेणी के मनुष्य जीवित बच जाते हैं। जनार्दन! शत्रुओं को मारने पर भी उनके लिये सदा मन में पश्चात्ताप बना रहता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 58-71 का हिन्दी अनुवाद)
भागे हुए शत्रु का पीछा करना अनुबन्ध कहलाता है, यह भी पापपूर्ण कार्य है। मारे जाने वाले शत्रुओं में से कोई-कोई बचा रह जाता है। वह अवशिष्ट शत्रु शक्ति का संचय करके विजेता के पक्ष में जो लोग बचे हैं, उनमें से किसी को जीवित नहीं छोडना चाहता। वह शत्रु का अन्त कर डालने की इच्छा से विरोधी दल को सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर देने का प्रयत्न करता है। विजय की प्राप्ति भी चिरस्थायी शत्रुता की सृष्टि करती है। पराजित पक्ष बड़े दु:ख से समय बिताता है। जो किसी से शत्रुता न रखकर शान्ति का आश्रय लेता है, वह जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर सुख से सोता है।
किसी से वैर बांधने वाला पुरुष सर्वयुक्त गृह में रहने वाले की भाँति उद्विग्नचित्त होकर सदा दु:ख की नींद सोता है। जो शत्रु के कुल में आबालवृद्ध सभी पुरुषों का उच्छेद कर डालता है, वह वीरोचति यश से वंचित हो जाता है। वह समस्त प्राणियों में सदा बनी रहने वाली अपकीर्ति का भागी होता है। दीर्घकाल तक मन में दबाये रखने पर भी वैर की आग सर्वथा बुझ नहीं पाती; क्योंकि यदि कोई उस कुल में विद्यमान है,तो उससे पूर्व घटित वैर बढा़ने वाली घटनाओं को बताने वाले बहुत-से लोग मिल जाते हैं।
केशव! जैसे घी डालने पर आग बुझने के बजाय और अधिक प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वैर करने से वैर की आग शान्त नहीं होती, अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। क्योंकि दोनों पक्षों में सदा कोई-न-कोई छिद्र मिलने की सम्भावना रहती है इसलिये दोनों पक्षों मे से एक का सर्वथा नाश हुए बिना पूर्णत: शान्ति प्राप्त नहीं होती है। जो लोग छिद्र ढूढ़ते रहते हैं, उनके सामने यह दोष निरन्तर प्रस्तुत रहता है।
यदि अपने में पुरुषार्थ है, तो पूर्व वैर को याद करके जो हृदय को पीड़ा देने वाली प्रबल चिन्ता सदा बनी रहती है, उसे वैराग्यपूर्वक त्याग देने से ही शान्ति मिल सकती है; अथवा मर जाने से ही उस चिन्ता का निवारण हो सकता है। अथवा शत्रुओं को समूल नष्ट कर देने से ही अभीष्ट फल की सिद्धि हो सकती है। परंतु मधुसूदन! यह बड़ी क्रूरता का कार्य होगा। राज्य को त्याग देने से उसके बिना जो शान्ति मिलती है, वह भी वध के ही समान है। क्योंकि उस दशा में शत्रुओं से सदा यह संदेह बना रहता है कि ये अवसर देखकर प्रहार करेंगे और धन-सम्पत्ति से वंचित होने के कारण अपने विनाश की सम्भावना भी रहती ही है।
अत: हम लोग न तो राज्य त्यागना चाहते हैं और न कुल के विनाश की ही इच्छा रखते हैं। यदि नम्रता दिखाने से भी शान्ति हो जाय तो वही सबसे बढ़कर है। यद्यपि हम युद्ध की इच्छा न रखकर साम, दान और भेद सभी उपायों से राज्य की प्राप्ति के लिये प्रयत्न कर रहे हैं, तथापि यदि हमारी सामनीति असफल हुई तो युद्ध ही हमारा प्रधान कर्तव्य होगा; हम पराक्रम छोड़कर बैठ नहीं सकते।
जब शान्ति के प्रयत्नों में बाधा आती है, तब भयंकर युद्ध स्वत: आरम्भ हो जाता है। पण्डितों ने इस युद्ध की उपमा कुत्तों के कलह से दी है। कुत्ते पहले पूंछ हिलाते हैं, फिर गुर्राते और गर्जते हैं। तत्पशचात एक-दूसरे के निकट पहुँचते हैं। फिर दांत दिखाना और भूँकना आरम्भ करते हैं। तत्पश्चात उनमें युद्ध होने लगता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 72-87 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीकृष्ण! उनमें जो बलवान होता है, वही उस मांस को खाता है, जिसके लिये कि उनमें लड़ाई हुई थी। यही दशा मनुष्यों की है। इनमें कोई विशेषता नहीं है। यह सर्वथा उचित है कि बलवानों की दुर्बलों के प्रति आदर बुद्धि न हो। वे उसका विरोध भी नहीं करते। दुर्बल वही है, जो सदा झुकने के लिये तैयार रहे। जनार्दन! पिता, राजा और वृद्ध सर्वथा समादर के ही योग्य हैं। अत: धृतराष्ट्र हमारे लिये सदा माननीय एवं पूजनीय हैं। माधव! धृतराष्ट्र में अपने पुत्र के प्रति प्रबल आसक्ति है। वे पुत्र के वश में होने के कारण कभी झुकना नहीं स्वीकार करेंगे।
माधव श्रीकृष्ण! ऐसे समय में आप क्या उचित समझते हैं? हम कैसा बर्ताव करें, जिससे हमें अर्थ और धर्म से भी वंचित न होना पड़े? पुरुषोत्तम मधुसूदन! ऐसे महान संकट के समय हम आपको छोड़कर और किससे सलाह ले सकते हैं। श्रीकृष्ण! आपके समान हमारा प्रिय, हितैषी, समस्त कर्मों के परिणाम को जानने वाला और सभी बातों में एक निश्चित सिद्धान्त रखने वाला सुहृद् कौन है?
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा,
भगवान श्री कृष्ण बोले ;- ‘राजन! मैं दोनों पक्षों के हित के लिये कौरवों की सभा में जाऊंगा। ‘वहाँ जाकर आपके लाभ में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाते हुए यदि मैं दोनों पक्षों में संधि करा सका, तो समझूंगा कि मेरे द्वारा यह महान फलदायक एवं बहुत बड़ा पुण्यकर्म सम्पन्न हो गया। ‘ऐसा होने पर एक-दूसरे के प्रति रोष में भरे हुए इन कौरवों, सृंजयों, पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों को तथा इस सारी पृथ्वी को भी मानो मैं मौत के फंदे से छुड़ा लूंगा।'
युधिष्ठिर बोले ;- श्रीकृष्ण! मेरा यह विचार नहीं है कि आप कौरवों के यहाँ जायं; क्योंकि आपकी कही हुई अच्छी बातों को भी दुर्योधन नहीं मानेगा। इसके सिवा इस समय दुर्योधन के वश में रहने वाले भूमण्डल के सभी क्षत्रिय वहाँ एकत्र हुए हैं। उनके बीच में आपका जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। माधव! यदि दुर्योधन ने द्रोहवश आपके साथ कोई अनुचित बर्ताव किया, तो धन, सुख, देवत्य तथा सम्पूर्ण देवताओं का ऐश्वर्य भी हमें प्रसन्न नहीं कर सकेगा।
श्रीभगवान ने कहा ;- महाराज! धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन कितना पापाचारी है, यह मैं जानता हूँ। तथापि वहाँ जाकर संधि के लिये प्रयत्न करने पर हम सब लोग सम्पूर्ण जगत के राजाओं की दृष्टि में निंदा के पात्र न होंगे। मेरे तिरस्कार के भय से भी चिन्तित न हों, कयोंकि जैसे क्रोध में भरे हुए सिंह के समान दूसरे पशु नहीं ठहर सकते हैं, उसी प्रकार यदि मैं कोप करूं, तो संसार के सारे भूपाल भी मिलकर युद्ध में मेरे सामने खड़े नहीं हो सकते हैं। यदि वे मेरे साथ थोड़ा-सा भी अनुचित बर्ताव करेंगे, तो मैं उन समस्त कौरवों को जलाकर भस्म कर डालूंगा; यह मेरा निश्चित विचार है।
अत: कुंतीनंदन! मेरा वहाँ जाना कदापि निरर्थक नहीं होगा। सम्भव है, वहाँ अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि हो जाय और यदि काम न बना, तो भी हम निंदा से तो बच जायंगे।
युधिष्ठिर बोले ;- श्रीकृष्ण ! आपकी जैसी रुचि हो, वही कीजिये । आपका कल्याण हो । आप प्रसन्नतापूर्वक कौरवोंके पास जाइये। आशा है, मैं पुनः आपको अपने कार्यमें सफल होकर यहाँ सकुशल लौटा हुआ देखूँगा। विष्वक्सेन प्रभो ! आप कुरुदेशमें जाकर भरतवंशियों को शान्त कीजिये, जिससे हम सब लोग शुद्ध हृदयसे प्रसन्नचित्त होकर एक साथ रह सकें।
आप हमलोगों के भाई और मित्र हैं। अर्जुनके तथा मेरे भी प्रीतिभाजन हैं । आपके सौहार्द के विषयमें हमारे मनमें कोई शंका नहीं है । अतः आप उभय पक्षकी भलाई के लिये वहाँ जाइये | आपका कल्याण हो । श्रीकृष्ण ! आप हमको जानते हैं, कौरवोंको भी जानते हैं, हम दोनोंके स्वार्थोंसे भी आप अपरिचित नहीं हैं और बातचीत कैसे करनी चाहिये, यह भी आपको अच्छी तरह ज्ञात है। अतः जिस-जिस बात से हमारा हित हो, वह सब आप दुर्योधनको बतावें, केशव ! जो-जो बात धर्मसंगत, युक्तियुक्त और हितकर हो, वह सब कोमल हो या कठोर आप अवश्य कहें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवद्यानपर्व में युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्णको प्रेरणाविषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
तीहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना”
श्रीभगवान बोले ;– राजन! मैंने संजय की और आप की भी बातें सुनी हैं। कौरवों का क्या अभिप्राय है, वह सब मैं जानता हूँ और आपका जो विचार है, उससे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ। आपकी बुद्धि धर्म में स्थित है और उनकी बुद्धि ने शत्रुता का आश्रय ले रखा है। आप तो बिना युद्ध किए जो कुछ मिल जाये, उसी को बहुत समझेंगे।
परंतु महाराज! यह क्षत्रिय का नैष्ठिक कर्म नहीं है। सभी आश्रमों के श्रेष्ठ पुरुषों का यह कथन है कि क्षत्रिय को भीख नहीं मांगनी चाहिए। उसके लिए विधाता ने यही सनातन कर्तव्य बताया है कि वह संग्राम में विजय प्राप्त करे अथवा वहीं प्राण दे दे। यही क्षत्रिय का स्वधर्म है। दीनता अथवा कायरता उसके लिए प्रशंसा की वस्तु नहीं है।
महाबाहु युधिष्ठिर! दीनता का आश्रय लेने से क्षत्रिय की जीविका नहीं चल सकती। शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! अब पराक्रम दिखाइये और शत्रुओं का संहार कीजिये। परंतप! धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े लोभी हैं। इधर उन्होंने बहुत से मित्र राजाओं का संग्रह कर लिया है और उनके साथ दीर्घ काल तक रहकर अपने प्रति उनका स्नेह भी बढ़ा लिया है। शिक्षा और अभ्यास आदि के द्वारा भी उन्होंने विशेष शक्ति का संचय कर लिया है। अत: प्रजानाथ! ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे वे आपको आधा राज्य देकर आपके प्रति समता स्थापित करें। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि उनके पक्ष में हैं, इसलिए वे अपने को आप से अधिक बलवान समझते हैं।
अत: शत्रुदमन राजन! जब तक आप इनके साथ नरमी का बर्ताव करेंगे, तब तक ये आपके राज्य का अपहरण करने की ही चेष्टा करेंगे। शत्रुमर्दन नरेश! आप यह न समझें कि धृतराष्ट्र के पुत्र आप पर कृपा करके या अपने को दीन-दुर्बल मानकर अथवा धर्म एवं अर्थ की ओर दृष्टि रखकर आपका मनोरथ पूर्ण कर देंगे। पाण्डुनन्दन! कौरवों के संधि न करने का सबसे बड़ा कारण या प्रमाण तो यही है कि उन्होंने आपको कौपीन धारण कराकर तथा उतने दीर्घकाल के लिए वनवास का दुष्कर कष्ट देकर भी कभी इसके लिए पश्चाताप नहीं किया।
राजन! आप दानशील, कोमलस्वभाव, मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले, स्वभावत: धर्मपरायण तथा सबके हैं, तो भी क्रूर दुर्योधन ने उस समय पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, बुद्धिमान विदुर, साधु, ब्राह्मण, राजा धृतराष्ट्र, नगर निवासी जनसमुदाय तथा कुरुकुल के सभी श्रेष्ठ पुरुषों के देखते-देखते आपको जुए में छल से ठग लिया और आपने उस कुकृत्य के लिए वह अब तक लज्जा का अनुभव नहीं करता है। राजन! ऐसे कुटिल स्वभाव और खोटे आचरण वाले दुर्योधन के प्रति आप प्रेम न दिखावें। भारत! धृतराष्ट्र के वे पुत्र तो सभी लोगों के वध्य हैं; फिर आप उनका वध करें, इसके लिए तो कहना ही क्या है? क्या आप वह दिन भूल गए, जबकि दुर्योधन ने भाइयों सहित आपको अपने अनुचित वचनों द्वारा मार्मिक पीड़ा पहुँचाई थी। वह अत्यंत हर्ष से फूलकर अपनी मिथ्या प्रशंसा करता हुआ अपने भाइयों के साथ कहता था– 'अब पांडवों के पास इस संसार में 'अपनी' कहने के लिए इतनी-सी भी कोई वस्तु नहीं रह गई है। केवल नाम और गोत्र बचा है, परंतु वह भी शेष नहीं रहेगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)
दीर्घकाल के पश्चात इनकी भारी पराजय होगी। इनकी स्वाभाविक शूरता-वीरता आदि नष्ट हो जाएगी और ये मेरे पास ही प्राण त्याग करेंगे'। उन दिनों जब जूए का खेल चल रहा था, अत्यंत दुरात्मा पापी दु:शासन अनाथ की भाँति रोती कलपती हुई महारानी द्रौपदी को उनके केश पकड़कर राजसभा में घसीट लाया और भीष्म तथा द्रोणाचार्य आदि के समक्ष उसने उनका उपहास करते हुए बारंबार उसे 'गाय' कहकर पुकारा। यद्यपि आपके भाई भयंकर पराक्रम प्रकट करने में समर्थ थे, तथापि आपने इन्हें रोक दिया, इसलिए धर्म बंधन में बंधे होने के कारण ये उस समय उस अन्याय का कुछ भी प्रतीकार न कर सके।
जब आप वन की ओर जाने लगे, उस समय भी वह बंधु-बांधवों के बीच में ऊपर कही हुई तथा और भी बहुत-सी कठोर बातें कहकर अपनी प्रशंसा करता रहा। जो लोग वहाँ बुलाये गए थे, वे सभी नरेश आपको निरपराध देखकर रोते और आँसू बहाते हुए रुँधे हुए कंठ से उस समय चुपचाप सभा में बैठे रहे,
ब्राह्मणों सहित उन राजाओं ने वहाँ दुर्योधन की प्रशंसा नहीं की। उस समय सभी सभासद उसकी निंदा ही कर रहे थे। शत्रुसूदन! कुलीन पुरुष की निंदा हो या वध इनमें से वध ही उसके लिए अत्यंत गुणकारक है; निंदा नहीं। निंदा तो जीवन को घृणित बना देती है।
महाराज! जब इस भूमंडल के सभी राजाओं ने निंदा की, उसी समय उस निर्लज्ज दुर्योधन की एक प्रकार से मृत्यु हो गई। जिसका चरित्र इतना गिरा हुआ है, उसका वध करना तो बहुत साधारण कार्य है। जिसकी जड़ कट गयी हो और जो गोल वेदी के आधार पर खड़ा हो, उस वृक्ष की भाँति दुर्योधन के भी धराशायी होने में अब अधिक विलंब नहीं है। खोटी बुद्धिवाला दुराचारी दुर्योधन दुष्ट सर्प की भाँति सब लोगों के लिए वध्य है। शत्रुओं का नाश करने वाले महाराज! आप दुविधा में न पड़ें, इस दुष्ट को अवश्य मार डालें। निष्पाप नरेश! आप जो पितृतुल्य धृतराष्ट्र तथा पितामह भीष्म के प्रति प्रणाम एवं नम्रतापूर्ण बर्ताव करते हैं, वह सर्वथा आपके योग्य हैं। मैं भी इसे पसंद करता हूँ। राजन! दुर्योधन के संबंध में जिन लोगों का मन दुविधा में है जो लोग उसके अच्छे या बुरे होने का निर्णय नहीं कर सके हैं, उन सब लोगों का संदेह मैं वहाँ जाकर दूर कर दूँगा।
मैं राजसभा में जुटे हुए भूपालों की मंडली में आपके सर्वसाधारण गुणों का वर्णन और दुर्योधन के दोषों तथा अपराधों का उदघाटन करूँगा। मेरे मुख से धर्म और अर्थ से संयुक्त हितकर वचन सुनकर नाना जनपदों के स्वामी समस्त भूपाल आपके विषय में यह निश्चित रूप से समझ लेंगे कि युधिष्ठिर धर्मात्मा तथा सत्यवादी हैं और दुर्योधन के संबंध में भी उन्हें यह निश्चय हो जाएगा कि उसने लोभ से प्रेरित होकर ही सारा अनुचित बर्ताव किया। मैं वहाँ आये हुए चारों वर्णों के आबालवृद्ध जनसमुदाय को अपनाकर उनके सामने तथा पुरवासियों और देशवासियों के समक्ष भी इस दुर्योधन की निंदा करूंगा।
वहाँ शांति के लिए याचना करने पर आप अधर्म के भी भागी न होंगे। सब राजा कौरवों की तथा धृतराष्ट्र की ही निंदा करेंगे। सब लोग दुर्योधन को अन्यायी समझकर त्याग देंगे और वह निंदनीय होने के कारण नष्टप्राय हो जाएगा। उस दशा में आपका दूसरा कौन-सा कार्य शेष रह जाता है? जिसे सम्पन्न किया जाए।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)
वहाँ पहुँच कर आपके स्वार्थ की सिद्धि में तनिक भी त्रुटि न आने देते हुए मैं समस्त कौरवों से संधि-स्थापन के लिए प्रयत्न करूंगा और उनकी चेष्टाओं पर दृष्टि रखूँगा। भारत! मैं जाकर कौरवों की युद्ध विषयक तैयारी की बातें जान-सुनकर आपकी विजय के लिए पुन: यहाँ लौट आऊँगा।
मुझे तो शत्रुओं के साथ सर्वथा युद्ध होने की संभावना हो रही है, क्योंकि मेरे सामने ऐसे ही लक्षण प्रकट हो रहे हैं। मृग और पक्षी भयंकर शब्द कर रहे हैं। प्रदोष काल में प्रमुख हाथियों और घोड़ों के समुदाय में बड़ी भयानक आकृतियाँ प्रकट होती हैं। इसी प्रकार अग्निदेव भी नाना प्रकार के भयजनक वर्णों को धारण करते हैं। यदि मनुष्यलोक का संहार करने वाली अत्यंत भयंकर मृत्यु इनको नहीं प्राप्त हुई होती, तो ऐसी बातें देखने में नहीं आतीं। अत: नरेंद्र! आपके समस्त योद्धा युद्ध के लिए दृढ़ निश्चय करके भाँति-भाँति के शस्त्र, यंत्र, कवच, रथ, हाथी और घोड़ों को सुसज्जित कर लें तथा उन हाथियों, घोड़ों, एवं रथों पर सवार होकर युद्ध करने के निमित्त सदा तैयार रहें। इसके सिवा आपको युद्धोपयोगी जिन समस्त वस्तुओं का संग्रह करना है उन सबका भी आप संग्रह कर लीजिये।
पाण्डवप्रवर! नरेश्वर! यह निश्चय मानिये, आपके पास पहले जो समृद्धिशाली राज्य-वैभव था और जिसे आपने जूए में खो दिया था, वह सारा राज्य अब दुर्योधन अपने जीते-जी आपको कभी नहीं दे सकता।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवद्यानपर्व में श्रीकृष्ण वाक्य विषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
चौहोत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव”
भीमसेन बोले ;– मधुसूदन! आप कौरवों के बीच में वैसी ही बातें कहें, जिससे हम लोगों में शांति स्थापित हो सके। युद्ध की बात सुनाकर उन्हें भयभीत न कीजिएगा। दुर्योधन असहनशील , क्रोध में भरा रहनेवाला, श्रेय का विरोधी और मन में बड़े-बड़े हौंसले रखने वाला है। अत: उसके प्रति कठोर बात न कहियेगा, उसे सामनीति के द्वारा ही समझाने का प्रयत्न कीजिएगा। दुर्योधन स्वभाव से ही पापात्मा है। उसके हृदय में डाकुओं के समान क्रूरता भरी रहती है। वह ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो गया है और पांडवों के साथ सदा वैर बांधे रखता है।
वह अदूरदर्शी, निष्ठुर वचन बोलने वाला, दीर्घकाल तक क्रोध को मन में संचित रखने वाला, शिक्षा देने या सन्मार्ग पर ले जाया जाने की योग्यता से रहित, पापात्मा तथा शठता से प्रेम रखने वाला है। श्रीकृष्ण! वह मर जाएगा, किन्तु झुक न सकेगा। अपनी टेक नहीं छोड़ेगा। मैं समझता हूँ, ऐसे दुराग्रही मनुष्य के साथ संधि स्थापित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। दुर्योधन हितैषी सुहृदों के भी विपरीत आचरण करने वाला है। उसने धर्म को तो त्याग ही दिया है, झूठ को भी प्रिय मानकर अपना लिया है। वह मित्रों की भी बातों का खंडन करता है और उनके हृदय को चोट पहुँचाता है। उसने क्रोध के वशीभूत होकर दुष्ट स्वभाव का आश्रय ले रखा है। वह तिनकों में छिपे सर्प की भाँति स्वभावत: दूसरों की हिंसा करता है।
भगवन! दुर्योधन की सेना जैसी है, उसका शील और स्वभाव जैसा है, उसका बल और पराक्रम जिस प्रकार का है, वह सब कुछ आपको सब प्रकार से ज्ञात है। पूर्वकाल में पुत्र तथा बंधु-बांधवों सहित कौरव और हम लोग इन्द्र आदि देवताओं की भाँति परस्पर मिलकर बड़ी प्रसन्नता और आनंद के साथ रहते थे। परंतु मधुसूदन! जैसे शिशिर के अंत में ग्रीष्मकाल आने पर वन दावानल से जलने लगते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण भरतवंशी इस समय दुर्योधन की क्रोधाग्नि से जलने वाले हैं।
श्रीकृष्ण! आगे बताए जाने वाले ये अठारह विख्यात नरेश हैं, जिन्होंने बंधु-बांधवों सहित कुटुम्बीजनों तथा हितैषी सुहृदों का संहार कर डाला था। जैसे धर्म के विप्लव का समय उपस्थित होने पर तेज से प्रज्वलित होने वाले समृद्धिशाली असुरों में भयंकर कलह उत्पन्न हुआ था, उसी प्रकार हैहयवंश में मुदावर्त, नीपकुल में जनमेजय, तालजंघों के वंश में बहुल, कृमिकुल में उद्दंड वसु, सुवीरों के वंश में अजबिन्दु, सुराष्ट्रकुल में रुषर्द्धिक, बलीहवंश में अर्कज, चीनों के कुल में धौतमूलक विदेह वंश में हयग्रीव महौजा नामक क्षत्रियों के कुल में वरयु, सुंदरवंशी क्षत्रियों में बाहु, दीप्ताक्ष कुल में पुरूरवा, चेदि और मत्स्यदेश में सहज, प्रवीरवंश में वृषध्वज, चन्द्रवत्सकुल में धारण, मुकुटवंश में विगाहन तथा नंदिवेग कुल में शम ये सभी कुलांगार एवं नराधाम क्षत्रिय युगांतकाल आने पर ऊपर बताए अनुसार भिन्न-भिन्न कुलों में प्रकट हुए थे।
पूर्वोक्त अठारह राजाओं की भाँति यह कुलांगार, नीच एवं पापपुरुष दुर्योधन भी इस द्वापर युग के अंत में काल से प्रेरित हो हमारे कुरुकुल के विनाश का कारण होकर उत्पन्न हुआ है। अत: भयंकर पराक्रमी श्रीकृष्ण! आप उससे जो कुछ भी कहें , कोमल एवं मधुर वाणी में धीरे-धीरे कहें। आपका कथन धर्म एवं अर्थ से युक्त तथा हितकर हो। उसमें तनिक भी उग्रता न आने पावे। साथ ही इसका भी ध्यान रखें कि आपकी अधिकांश बातें उसकी रुचि के अनुकूल हों।
भगवन! हम सब लोग नीचे पैदल चलकर अत्यंत नम्र होकर दुर्योधन का अनुसरण करते रहेंगे, परंतु हमारे कारण से भरतवंशियों का नाश न हो। वासुदेव! हमारा कौरवों के साथ उदासीन भाव एवं तटस्थता बर्ताव भी जैसे बना रहे, वैसा ही प्रयत्न आपको करना चाहिए। किसी प्रकार भी कौरवों को अन्याय का स्पर्श नहीं होना चाहिए। श्रीकृष्ण! आप वहाँ बूढ़े पितामह भीष्मजी तथा अन्य सभासदों से ऐसा करने के लिए ही कहें, जिससे सब भाइयों में सौहार्द बना रहे और दुर्योधन भी शांत हो जाये।
मैं इस प्रकार शांति स्थापन के लिए कह रहा हूँ। राजा युधिष्ठिर भी शांति की ही प्रशंसा करते हैं और अर्जुन भी युद्ध के इच्छुक नहीं हैं, क्योंकि अर्जुन में बहुत अधिक दया भरी हुई है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवद्यानपर्व में भीम वाक्य विषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (भगवद्यान पर्व)
पचहत्तरवाँ अध्याय
हिंसा से ही प्रसन्न होने वाले क्रूर धृतराष्ट्र पुत्रों को मसल डालने की इच्छा मन में लेकर सदा युद्ध की ही प्रशंसा किया करते थे। परंतप! इन्हीं विचारों में डूबे रहने के कारण तुम रात में सोते भी नहीं थे, जागते ही रहते थे। कभी सोना ही पड़ा, तो औंधे-मुँह लेट जाते और सदा घोर, अशांत तथा रोषभरी बातें ही तुम्हारे मुँह से निकलती थीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें