सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का तथा युधिष्ठिर आदि के घोड़ों का वर्णन”
दुर्योधन ने पूछा ;- संजय! यह तो बताओ, सात अक्षौहिणी सेना पाकर राजाओं सहित कुंतीपुत्र युधिष्ठिर युद्ध की इच्छा से अब कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?
संजय ने कहा ;- राजन! युधिष्ठिर युद्ध की अभिलाषा लेकर मन-ही-मन अत्यंत प्रसन्न हो रहे हैं। भीमसेन, अर्जुन, तथा दोनों भाई नकुल-सहदेव भी भयभीत नहीं हैं। कुंतीकुमार अर्जुन ने तो अस्त प्रयोग संबंधी मन्त्र की परीक्षा के लिये अपने दिव्य रथ की प्रभा से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए उसे जोत रखा था। उस समय स्वर्णमय कवच धारण किये अर्जुन हमें बिजली के प्रकाश से सुशोभित मेघ के समान दिखायी दे रहे थे। उन्होंने सब ओर से उन मन्त्रों का सम्यक चिंतन करके हर्ष से उल्लसित होकर मुझसे कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘संजय! हम लोग युद्ध में अवश्य विजयी होंगे। उस विजय का यह पूर्वचिन्हृ अभी से प्रकट हो रहा है। तुम भी देख लो’। राजन! अर्जुन ने मुझसे जैसा कहा था, वैसा ही मैं भी समझता हूँ।
दुर्योधन बोला ;- संजय! तुम तो जूए में हारे हुए कुंतीपुत्रों का अभिनंदन करते हुए उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। बताओ तो सही, अर्जुन के रथ में कैसे घोड़े और कैसे ध्वज हैं ?
संजय ने कहा ;- प्रजानाथ! विश्वकर्मा त्वष्टा तथा प्रजापति ने इन्द्र के साथ मिलकर अर्जुन के रथ की ध्वजा में अनेक प्रकार के रूपों की रचना की है। उन तीनों ने देवमाया के द्वारा उस ध्वज में छोटी-बड़ी अनेक प्रकार की बहुमूल्य एवं दिव्य मूर्तियों का निर्माण किया है।
भीमसेन के अनुरोध की रक्षा के लिये पवन नंदन हनुमानजी उस ध्वज में युद्ध के समय अपने स्वरूप को स्थापित करेंगे। उस ध्वज ने एक योजन तक सम्पूर्ण दिशाओं तथा अगल-बगल एवं ऊपर के अवकाश को व्याप्त कर रखा था। विश्वकर्मा ने ऐसी माया रच रखी है कि वह ध्वज वृक्षों से आवृत अथवा अवरुद्ध होने पर भी कहीं अटकता नहीं है।
जैसे आकाश में बहुरंगा इन्द्रधनुष प्रकाशित होता है और यह समझ में नहीं आता कि वह क्या है? ठीक ऐसा ही विश्वकर्मा का बनाया हुआ वह रंग-बिरंगा ध्वज है। उसका रूप अनेक प्रकार का दिखायी देता है। जैसे अग्नि सहित धूम विचित्र तेजोमय आकार और रंग धारण करके सब ओर फैलकर ऊपर आकाश की ओर बढ़ता जाता है, उसी प्रकार विश्वकर्मा ने उस ध्वज का निर्माण किया है। उसके कारण रथ पर कोई भार नहीं बढ़ता है और न उसकी गति में कहीं कोई रुकावट ही पैदा होती है। अर्जुन के उस रथ में वायु के समान वेगशाली दिव्य एवं उत्तम जाति के श्वेत अश्व जुते हुए हैं, जिन्हें गन्धर्वराज चित्ररथ ने दिया था। नरेन्द्र! पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग आदि किसी भी स्थान में उन अश्वों की पूर्ण गति क्षीण या अवरुद्ध नहीं होती है। उस रथ में पूरे सौ घोड़े सदा जुते रहते हैं। उनमें से यदि कोई मारा जाता है तो पहले के दिये हुए वर के प्रभाव से नया घोड़ा उत्पन्न होकर उसके स्थान की पूर्ति कर देता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 14-17 का हिन्दी अनुवाद)
अर्जुन ने प्रसन्न होकर अपने छोटे भाई सहदेव को जो अश्व प्रदान किये थे, जिनके सम्पूर्ण अंग विचित्र रंग के हैं और पृष्ठभाग भी तीतर पक्षी के समान चितकबरे प्रतीत होते हैं तथा जो वीर भाई अर्जुन के अपने अश्वों की अपेक्षा भी उत्कृष्ट हैं, ऐसे सुन्दर अश्व बड़ी प्रसन्नता के साथ सहदेव के रथ का भार वहन करते हैं।अजमीढकुलनन्दन! देवराज इन्द्र के दिये हुए हरे रंग के उत्तम घोडे़, जो वायु के समान बलवान तथा वेगवान हैं, माद्रीकुमार वीर नकुल के रथ का भार वहन करते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पहले वे वृत्रशत्रु देवेन्द्र का भार वहन किया करते थे।
अवस्था और बल-पराक्रम में पूर्वोक्त अश्वों के ही समान महान वेगशाली, विचित्र रूप-रंग वाले उत्तम जाति के अश्व सुभद्रानन्दन अभिमन्यु सहित द्रौपदी के पुत्रों का भार वहन करते हैं। वे विशाल अश्व भी देवताओं के दिये हुए हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में संजयवाक्यविषयक छप्पनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“संजय द्वारा पाण्डवों की युद्धविषयक तैयारी का वर्णन, धृतराष्ट्र का विलाप, दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन, धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास तथा संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;- संजय! तुमने वहाँ युधिष्ठिर प्रसन्नता के लिये आये हुए किन-किन राजाओं को देखा था, जो पाण्डवों के हित के लिये मेरे पुत्र की सेना के साथ युद्ध करेंगे?
संजय ने कहा ;- राजन! मैंने वहाँ देखा कि वृष्णि और अन्धकवंश के प्रधान पुरुष भगवान श्रीकृष्ण पधारे हुए हैं। वहाँ चेकितान और युयुधान सात्यकि भी उपस्थित हैं। अपने को पौरुषशाली वीर मानने वाले वे दोनों विख्यात महारथी अलग-अलग एक-एक अक्षौहिणी सेना के साथ पाण्डवों की सहायता के लिये आये हैं। पांचाल नरेश द्रुपद, धृष्टद्युम्न और सत्यजित आदि दस वीर पुत्रों के साथ शिखण्डी द्वारा सुरक्षित हो कवच आदि से सम्पूर्ण सैनिकों के शरीरों को आच्छादित करके उन सबकी एक अक्षौहिणी सेना के साथ युधिष्ठिर का मान बढा़ने के लिये वहाँ आये हुए हैं।
राजा विराट अपने दो पुत्रों शंख और उत्तर को साथ लिये, सूर्यदत्त और मदिराक्ष आदि वीर भ्राताओं और अन्य पुत्रों के साथ एक अक्षौहिणी सेना से घिरे हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर की सहायता के लिये उपस्थित हैं। जरासंधकुमार मगधनरेश सहदेव तथा चेदिराज धृष्टकेतु ये दोनों भी अलग-अलग एक-एक अक्षौहिणी सेना लेकर आये हैं।
लाल रंग की ध्वजा वाले जो पांचों भाई केकयराजकुमार हैं, वे सभी एक अक्षौहिणी सेना के साथ पाण्डवों की सेवा में उपस्थित हुए हैं। मैंने इन सबको इतनी सेनाओं के साथ वहाँ आया हुआ देखा है। ये लोग पाण्डवों के हित के लिये दुर्योधन की सेना के साथ युद्ध करेंगे।
जो मनुष्यों, देवताओं, गन्धर्वों तथा असुरों की भी व्युह-रचना-प्राणली को जानते हैं, वे महारथी धृष्टद्युम्न पाण्डव पक्ष की सेना के अग्रभाग में सेनापति होकर रहेंगे। राजन! शान्तनुनन्दन भीष्मजी के वध का कार्य शिखण्डी को सौंपा गया है। राजा विराट मत्स्यदेशीय योद्धाओं के साथ शिखण्डी की सहायता के लिये उसका अनुसरण करेंगे।
बलवान मद्रनरेश ज्येष्ट पाण्डव युधिष्ठिर के हिस्से में पड़े हैं, युधिष्ठिर ही उनके साथ युद्ध करेंगे। परंतु यह बंटवारा सुनकर कुछ लोग वहाँ बोल उठे थे कि ये दोनों तो हमें परस्पर समान शक्तिशाली नहीं जान पड़ते। अपने सौ भाइयों तथा पुत्रों सहित दुर्योधन और पूर्व एवं दक्षिण दिशा के कौरव सैनिक भीमसेन का भाग नियत किये गये हैं। वैकर्तन कर्ण, अश्वत्थामा, विकर्ण और सिंधुराज जयद्रथ ये सब अर्जुन के हिस्से में पड़े हैं।
इनके सिवा और भी अपने को शूरवीर मानने वाले जो कोई नरेश इस भूमण्डल में अजेय माने जाते हैं, उन सबको कुन्तीकुमार अर्जुन ने अपना भाग निश्चित किया है। पांच भाई केकयराजकुमार भी महान धनुर्धर हैं। वे समरांगण में अपने विरोधी केकयदेशीय योद्धाओं को ही अपना भाग मानकर युद्ध करेंगे।
मालव, शाल्व तथा त्रिगर्त देश के सैनिक और संशप्तक सेना के दो प्रमुख वीर भी उन केकयराजकुमारों के ही भाग नियत किये गये हैं।दुर्योधन तथा दु:शासन के सभी पुत्र और राजा बृहद्बल , सुभद्रानन्दन अभिमन्यु के हिस्से में पड़े हैं। भरतनन्दन! सुवर्णनिर्मित ध्वजाओं से युक्त महाधनुर्धर द्रौपदी पुत्र भी धृष्टद्युम्न के साथ द्रोण पर आक्रमण करेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
चेकितान द्वैरथ संग्राम में सोमदत्त के साथ युद्ध करना चाहते हैं। सात्यकि भोजवंशी कृतवर्मा के साथ युद्ध करने को उत्सुक हैं। महाराज! युद्ध में इन्द्र के समान पराक्रमी शूरवीर माद्रीनन्दन सहदेव ने आपके साले सुबलपुत्र शकुनि को अपना भाग निश्चित किया है। उस धूर्त जुआरी शकुनि का पुत्र जो उलूक है तथा जो सारस्वतप्रदेश के सैनिक हैं, उन सबको माद्रीकुमार नकुल ने अपना भाग नियत किया है। राजन! दूसरे भी जो-जो नरेश आपकी ओर से युद्ध में पदार्पण करेंगे, उन सबका भी नाम ले-लेकर पाण्डवों ने उन्हें अपना भाग निश्चित किया है।
इस प्रकार पाण्डवों की सेनाएं पृथक-पृथक भागों में बंटी हुई हैं। अब पुत्रों सहित आपका जो कर्तव्य हो, उसे अविलम्ब पूरा करें।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! समरभूमि के प्रमुख भाग में बलवान भीमसेन के साथ जिनका युद्ध होने वाला है, वे कपटपूर्ण जूआ खेलने वाले मेरे सभी मूर्ख पुत्र अब नहीं के बराबर हैं। भूमण्डल के समस्त राजाओं का वध करने के लिये मानो कालधर्मा यमराज ने उनका प्रोक्षण किया है; अत: जैसे पतंग आग में गिरते हैं, वैसे ही ये सब नरेश गांडीव धनुष की आग में समा जायंगे।
मैं तो समझता हूँ; जिनका हम लोगों के साथ वैर ठन गया है, वे महात्मा पाण्डव समरांगण में हमारी विशाल सेना को अवश्य मार भगायेंगे। उनके द्वारा खदेड़ी हुई उस सेना का अनुसरण अथवा सहयोग कौन कर सकेंगे? समस्त पाण्डव अतिरथी शूरवीर, यशस्वी, प्रतापी, युद्धविजयी तथा अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी हैं।
संजय! युधिष्ठिर जिनके नेता हैं, भगवान मधुसूदन जिनके रक्षक हैं, पाण्डुपुत्र वीरवर अर्जुन और भीमसेन जिनके प्रमुख योद्धा हैं, नकुल, सहदेव, पृषत्वंशी धृष्टद्युम्न, सात्यकि, द्रुपद, धृष्टकेतु, सुकेतु, पांचालदेशीय उत्तमौजा, दुर्जय युधामन्यु, शिखण्डी, क्षत्रदेव, विराटकुमार उत्तर, काशि, चेदि तथा मत्स्यदेश के सैनिक, सृंजयवंशी क्षत्रिय, विराटकुमार बभ्रु तथा पांचालदेशीय प्रभद्रकगण जिनके पक्ष में युद्ध के लिये उद्यत हैं, जिनकी इच्छा के बिना देवराज इन्द्र भी इस पृथ्वी का अपहरण नहीं कर सकते, जो वीर तथा रणधीर हैं, जो पर्वतों को भी विदीर्ण कर सकते हैं, जिनका प्रताप देवताओं के समान है तथा जो समस्त सदगुणों से सम्पन्न हैं, उन्हीं पाण्डवों के साथ मेरा दुष्ट पुत्र दुर्योधन मेरे चीखते-चिल्लाते हुए भी युद्ध करना चाहता है।
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! हम कौरव तथा पाण्डव दोनों एक ही जाति के हैं और दोनों इसी भूमि पर रहते हैं। फिर एकमात्र पाण्डवों की ही विजय होगी, यह धारणा आपने कैसे बना ली? तात! पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दुर्जय वीर कर्ण, जयद्रथ, सोमदत्त तथा अश्वत्थामा, ये सभी उत्तम तेजस्वी और महान धनुर्धर हैं। देवताओं सहित इन्द्र भी इन्हें युद्ध में जीत नहीं सकते; फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है?
तात! ये सभी भूपाल श्रेष्ठ, शस्त्रधारी और शूरवीर होने के साथ ही मेरे लिये पाण्डवों को पीड़ा देने में समर्थ हैं। पाण्डव मेरे पक्ष के इन वीरों की ओर आँख उठाकर देखने में भी समर्थ नहीं है। पुत्रों सहित पाण्डवों के साथ मैं अकेला ही समरांगण में युद्ध करने की शक्ति रखता हूँ।
भरतनन्दन! जो भूपाल मेरा प्रिय करना चाहते हैं, वे सब उन पाण्डवों को आगे बढ़ने से उसी प्रकार रोक देंगे, जैसे फन्दे से हिरन के बच्चों को रोका जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 42-62 का हिन्दी अनुवाद)
मेरे पक्ष की विशाल रथसेना तथा मेरे सैनिकों के बाण-समूहों से आहत होकर पांचाल और पाण्डव भाग खडे़ होंगे।
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! मेरा यह पुत्र पागल के समान प्रलाप कर रहा है। यह युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर को कभी जीत नहीं सकता। पुत्रों सहित धर्मज्ञ एवं यशस्वी महात्मा पाण्डव कितने बलशाली हैं, इस बात को भीष्म जी अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिये उन्हें उन महात्माओं के साथ युद्ध छेड़ने की बात पसंद नहीं आयी।
संजय! तुम पुन: मेरे सामने पाण्डवों की चेष्टा का वर्णन करो। कौन ऐसा वीर है, जो वेगशाली और तेजस्वी महाधनुर्धर पाण्डवों को बार-बार उसी प्रकार उत्तेजित किया करता है, जैसे घी की आहुति डालने से आग प्रज्वलित हो उठती है।
संजय ने कहा ;- भारत! धृष्टद्युम्न सदा ही इन पाण्डवों को उत्तेजित करते रहते हैं। वे कहते हैं- ‘भरतकुलभूषण पाण्डवो! आप लोग युद्ध करें, उससे तनिक भी भयभीत न हों।
‘धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के द्वारा एकत्र किये हुए जो-जो नरेश अस्त्र-शस्त्रों की मारकाट से व्याप्त हुए भयानक संग्राम में मेरे सामने आयेंगे, वे कितने ही क्रोध में भरे हुए क्यों न हों, सगे-सम्बन्धियों सहित रणभूमि में आये हुए उन सभी राजाओं को मैं अकेला ही उसी प्रकार वश में कर लूंगा, जैसे तिमि नामक महामत्स्य जल की दूसरी मछलियों को निगल जाता है।
‘भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य तथा दुर्योधन इन सबको मैं उसी भाँति आगे बढ़ने से रोक दूंगा, जैसे किनारा समुद्र को रोके रखता है’।
इस प्रकार बोलते हुए धृष्टद्युम्न से धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने कहा,
युधिष्ठिर बोले ;- ‘महाबाहो! पाण्डवों सहित समस्त पांचाल वीर तुम्हारे धैर्य और पराक्रम का ही आश्रय लेकर युद्ध के लिये उद्यत हुए हैं, इसलिये तुम्हीं इस संग्राम से हम लोगों का उद्धार करो। मैं जानता हूँ कि तुम क्षत्रिय धर्म में प्रतिष्ठित हो और युद्ध की इच्छा से सामने आये हुए समस्त कौरवों को अकेले ही कैद कर लेने की पूरी शक्ति रखते हो।
‘परंतप! तुम जो कुछ करोगे, वही हमारे लिये मंगलकारी होगा। जो वीर पुरुष अपना पौरूष प्रकट करते हुए युद्धभूमि से पराजित होकर भागे हुए शरणार्थी सैनिकों के सामने खड़ा होता है, उसे सहस्रों की सम्पत्ति देकर भी खरीद ले यही नीतिज्ञ पुरुषों का मत है। ‘नरश्रेष्ठ! इसमें संदेह नहीं कि तुम शूर, वीर और पराक्रमी हो तथा युद्ध में भय से पीड़ित हुए सैनिकों की रक्षा कर सकते हो।'
धर्मात्मा कुन्तीकुमार युधिष्ठिर जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय धृष्टद्यूम्न ने मुझसे भय रहित यह वचन कहा,
धृष्टद्यूम्न ने कहा ;- ‘सूत! वहाँ दुर्योधन के जितने योद्धा हैं, उनसे, समस्त देशवासियों से, बाह्लीक आदि प्रतीपवंशी कौरवों से, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य से, सूतपुत्र कर्ण से, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा से तथा जयद्रथ, दु:शासन, विकर्ण, राजा दुर्योधन और भीष्म से भी शीघ्र जाकर मेरा यह संदेश कहो। अभी जाओ, विलम्ब मत करो। वह संदेश इस प्रकार है ‘कौरवो! राजा युधिष्ठिर सद्व्यवहार से ही वश में किये जा सकते हैं युद्ध से नहीं। ऐसा अवसर न आने दो कि देवताओं द्वारा सुरक्षित वीरवर अर्जुन तुम लोगों का वध कर डाले। धर्मराज युधिष्ठिर को शीघ्र उनका राज्य सौंप दो और विश्वविख्यात वीर पाण्डुकुमार अर्जुन से क्षमा-याचना करो।
‘सव्यसाची पाण्डुपुत्र अर्जुन जैसे सत्यपराक्रमी हैं, वैसा योद्धा इस भूमण्डल में दूसरा कोई नहीं है। ‘गांडीव धनुष धारण करने वाले वीर अर्जुन का दिव्य रथ देवताओं द्वारा सुरक्षित है। कोई भी मनुष्य उन्हें जीत नहीं सकता, अत: तुम लोग अपने मन को युद्ध की ओर न जाने दो’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसंधिपर्व में संजय वाक्य विषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)
अट्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिये समझाना, दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पाण्डवों से युद्ध करने का ही निश्चय तथा धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना”
धृतराष्ट्र बोले ;- संजय! पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर क्षात्र तेज से सम्पन्न हैं। उन्होंने कुमारावस्था से ही विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन किया है, परंतु मेरे ये मूर्ख पुत्र मेरे विलाप की ओर ध्यान न देकर उन्हीं युधिष्ठिर के साथ युद्ध छेड़ने वाले हैं। भरतकुलभूषण शत्रुदमन दुर्योधन! तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ। श्रेष्ठ पुरुष किसी भी दशा में युद्ध की प्रशंसा नहीं करते हैं।
शत्रुओं का दमन करने वाले वीर! तुम पाण्डवों को उनका यथोचित राज्यभाग दे दो। बेटा! मन्त्रियों सहित तुम्हारे जीवन निर्वाह के लिये तो आधा राज्य ही पर्याप्त है। समस्त कौरव यही धर्मानुकूल समझते हैं कि तुम महात्मा पाण्डवों के साथ शांति बनाये रखने की बात स्वीकार कर लो। वत्स! तुम इस अपनी ही सेना की ओर दृष्टिपात करो। यह तुम्हारा विनाशकाल ही उपस्थित हुआ है, परंतु तुम मोहवश इस बात को समझ नहीं रहे हो।
देखो, न तो मैं युद्ध करना चाहता हूँ, न बाह्लीक इसकी इच्छा रखते है और न भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, संजय, सोमदत्त, शल्य तथा कृपाचार्य ही युद्ध करना चाहते हैं। सत्यव्रत, पुरूमित, जय और भूरिश्रवा भी युद्ध के पक्ष में नहीं है।
शत्रुओं से पीड़ित होने पर कौरव सैनिक जिनके आश्रय में खड़े हो सकते हैं, वे ही लोग युद्ध का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं। तात! उनके इस विचार को तुम्हें भी पसंद करना चाहिये। मैं जानता हूँ तुम अपनी इच्छा से युद्ध नहीं कर रहे हो, अपितु पापात्मा दु:शासन, कर्ण तथा सुबलपुत्र शकुनि ही तुमसे यह कार्य करा रहे हैं।
दुर्योधन बोला ;- पिताजी! मैंने आप, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, संजय, भीष्म, काम्बोजनरेश, कृपाचार्य, बाह्लीक, सत्यव्रत, पुरूमित्र, भूरिश्रवा अथवा आपके अन्याय योद्धाओं पर सारा बोझ रखकर पाण्डवों को युद्ध के लिये आमन्त्रित नहीं किया है। तात! भरतश्रेष्ठ! मैंने तथा कर्ण ने रणयज्ञ का विस्तार करके युधिष्ठिर को बलिपशु बनाकर उस यज्ञ की दीक्षा ले ली हैं।
इसमें रथ ही वेदी है, खड्ग स्त्रुवा है, गदा स्त्रुक है, कवच मृगमर्च है, रथ का भार वहन करने वाले मेरे चारों घोडे़ ही चार होता है, बाण कुश हैं और यश ही हविष्य है। नरेश्वर! हम दोनों समरांगण में अपने इस यज्ञ के द्वारा यमराज का यजन करके शत्रुओं को मारकर विजयी हो विजय-लक्ष्मी से शोभा पाते हुए पुन: राजधानी में लौटेंगे।
तात! मैं, कर्ण तथा भाई दु:शासन- हम तीन ही समरभुमि में पाण्डवों का संहार कर डालेंगे। या तो मैं ही पाण्डवों को मारकर इस पृथ्वी का शासन करूंगा या पाण्डव ही मुझे मारकर भूमण्डल का राज्य भोगेंगे। राज्यच्युत न होने वाले महाराज! मैं जीवन, राज्य, धन- सब कुछ छोड़ सकता हूँ, परंतु पाण्डवों के साथ मिलकर कदापि नहीं रह सकता।
पूज्य पिताजी! तीखी सूई के अग्रभाग से जितनी भूमि बिध सकती है, उतनी भी मैं पाण्डवों को नहीं दे सकता।
धृतराष्ट्र बोले ;- तात कौरवगण! दुर्योधन को तो मैंने त्याग दिया। यमलोक को जाते हुए उस मूर्ख का तुम लोगों में से जो अनुसरण करेंगे मैं उन सभी लोगों के लिये शोक में पड़ा हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)
प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ व्याघ्र जैसे रूरू नामक मृगों के झुंडों में,
घुसकर बड़ों-बड़ों को मार डालते हैं, उसी प्रकार योद्धाओं में अग्रगण्य पाण्डव युद्ध में एकत्र होकर कौरवों के प्रधान-प्रधान वीरों का वध कर डालेंगे। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पुरुष से तिरस्कृत हुई नारी की भाँति इस भरतवंशियों की सेना को विशाल बांहों वाले वीर सात्यकि ने अपने अधिकार में करके रौंद डाला है और वह अब विपरीत दिशा की ओर अस्त-व्यस्त दशा में भागी जा रही है।
मधुवंशी सात्यकि युधिष्ठिर के भरे-पूरे बल-वैभव को और भी बढा़ते हुए, जैसे किसान खेतों में बीज बोता है, उसी प्रकार समर-भूमि में बाण बिखरते हुए खडे़ होंगे। सेना में समस्त पाण्डव योद्धाओं के आगे भीमसेन खडे़ होंगे और समस्त योद्धा उन्हें भयरहित प्राकार के समान मानकर उन्हीं का आश्रय लेंगे।
जब तुम देखोगे कि भीमसेन ने पर्वताकार गजराजों के दांत तोड़ एवं कुम्भस्थल विदीर्ण करके उन्हें रक्तरंजित दशा में धराशायी कर दिया है और वे रणभूमि में टूट-फूटकर गिरे हुए पर्वतों के समान दृष्टिगोचर हो रहे हैं, तब उन सब पर दृष्टिपात करके भीमसेन के स्पर्श से भी भयभीत होकर मेरी कही हुई बातों को याद करोगे। भीमसेन जब घोडे़, रथ और हाथियों से भरी हुई सारी कौरव सेना को अपनी क्रोधाग्नि से दग्ध करने लगेंगे, उस समय अग्नि के समान उनका प्रबल वेग देखकर तुम्हें मेरी बातें याद आयेंगी ,
तुम लोगों पर बहुत बड़ा भय आने वाला है। मैं नहीं चाहता कि पाण्डवों के साथ तुम्हारा युद्ध हो। यदि हो गया तो तुम लोग भीमसेन की गदा से मारे जाकर सदा के लिये शान्त हो जाओगे। काटकर गिराये हुए विशाल वन की भाँति जब तुम कौरव सेना को भीमसेन के द्वारा मार गिरायी हुई देखोगे, तब तुम्हें मेरे वचनों का स्मरण हो आयेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र ने वहाँ बैठे हुए समस्त भूपालों से उपर्युक्त बातें कहकर उन्हें समझा-बुझाकर पुन: संजय से पूछा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृतराष्ट्रवाक्यविषयक अट्ठानवां अध्याय पूरा हुआ)
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