सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन के पराक्रम से डरे हुए धृतराष्‍ट्र का विलाप”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! तुमने जिन लोगों के नाम बताये हैं, ये सभी बड़े उत्‍साही वीर हैं। इनमें भी जितने लोग वहाँ एकत्र हुए हैं, वे सब एक ओर और भीमसेन एक ओर। तात! मुझे क्रोध में भरे हुए अमर्षशील भीमसेन से बड़ा डर लगता है; ठीक उसी तरह, जैसे महान मृग को किसी व्‍याघ्र से सदा भय बना रहता है। वत्‍स! सिंह से डरे हुए दूसरे पशु की भाँति मैं भीमसेन से भयभीत हो रातभर गर्म-गर्म लंबी सांसें खींचता हुआ जागता रहता हूँ।

    म‍हाबाहु भीम इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। मैं अपनी सेना में किसी को भी ऐसा नहीं देखता, जो भीम का सामना कर सके युद्ध में इसके वेग को सह सके। कुन्तीकुमार पाण्‍डुपुत्र भीम असहनशील तथा वैर को दृढ़तापूर्वक पकड़कर रखने वाला है। उसकी की हुई हंसी भी हंसी के लिये नहीं होती, वह उसे सत्य कर दिखाता है। उसका स्वभाव उद्धत है। वह टेढ़ी निगाह से देखता और बड़े जोर से गर्जना करता है। वह महान वेगशाली, अत्यन्त उत्साही, विशालबाहु और महाबली है। वह युद्ध करके मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों को अवश्‍य मार डालेग। मेरे पुत्र भी बड़े दुराग्रही हैं; अत: हाथ में गदा लिये कुरुश्रेष्‍ठ वृकोदर भीम दण्‍डपाणि यमराज की भाँति युद्ध में इनका निश्चय ही वध कर डालेगा।

    मैं मन की आँखों से देख रहा हूँ, भीमसेन की स्वर्ण भूषित भयंकर गदा, जो लोहे की बनी हुई और आठ कोनों से युक्त है, ब्रह्मदण्‍ड के समान उठी हुई है। जैसे बलवान सिंह मृगों के यूथों में नि:शंक विचरण करता है, उसी प्रकार भीमसेन मेरी विशाल वाहिनियों में बेखट के विचरेगा। बाल्यकाल में भी मेरे सब पुत्रों में एकमात्र वह भीमसेन ही


क्रूर पराक्रमी, बहुत अधिक खाने वाला, सबके प्रतिकुल चलने वाला तथा सदा अत्यन्त वेगशाली था। उसकी याद आते ही मेरा हृदय कांपने लगता है। मेरे दुर्योधन आदि पुत्र बचपन में भी जब उसके साथ खेल-कूद में लड़ते थे, तब वह गजराज की भाँति इन सबको मसल देता था। 

    मेरे पुत्र उसके बल-पराक्रम से सदा ही कष्‍ट में पड़े रहते थे। भयंकर पराक्रमी भीमसेन ही इस फूट की जड़ है। मुझे अपने सामने दीख सा रहा है कि भीमसेन युद्ध में क्रोध से मूर्च्छित हो मनुष्‍य, हाथी और घोड़ों की समस्त सेनाओं को काल का ग्रास बनाता जा रहा है।

   वह अस्त्रविद्या में द्रोणाचार्य तथा अर्जुन के समान है, वेग में वायु की समानता करता है एवं क्रोध में महेश्‍वर के तुल्य है। ऐसे भीम को युद्ध में कौन मार सकता है? संजय! मुझे अमर्ष में भरे हुए शूरवीर भीमसेन का समाचार सुनाओ। मैं तो यही सबसे बड़ा लाभ मानता हूँ कि उस शत्रुघाती मनस्वी वीर ने उसी समय मेरे सब पुत्रों को नहीं मार डाला। जिसने पूर्वकाल में भयंकर बलशाली यक्षों तथा राक्षसों का वध किया है, युद्ध में उसका वेग कोई मनुष्‍य कैसे सह सकेगा? 

    संजय! पाण्‍डुकुमार भीमसेन बचपन में भी कभी मेरे वश में नहीं रहा; फिर जब मेरे दुष्‍ट पुत्रों ने उसे बार-बार कष्‍ट दिया है, तब वह इस समय मेरे वश में कैसे हो सकता है? 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

वह क्रूर और क्रोधी है। टूट भले ही जाय, पर झुक नही सकेगा। सदा टेढ़ी निगाह से ही देखता है। उसकी भौहें क्रोध के कारण परस्पर गुंथी रहती हैं। ऐसा भीमसेन कैसे शान्त हो सकेगा? गोरे रंग का वह शूरवीर भीमसेन ताड़ के समान ऊँचा है। ऊँचाई मे वह अर्जुन से एक बित्ता अधिक है, बल में उसकी समता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। वह स्पष्‍ट नहीं बोलता। उसकी आँखें सदा मधु के समान पिंगल वर्ण की दिखायी देती हैं। वह महाबली मध्‍यम पाण्‍डव अपने वेग से घोड़ों को भी लांघ सकता है और बल से हाथियों को भी पराजित कर सकता है। 

    मैंने बाल्यकाल में ही व्यासजी के मुख से पहले इस पाण्‍डु पुत्र के अद्भुत रूप और पराक्रम का यथार्थ वर्णन सुना था। निष्‍ठुर पराक्रम प्रकट करने वाला यह भयंकर भीमसेन समरभूमि में कुपित होकर लौहदंड से मेरे रथों, हाथियों, पैदल मनुष्‍यों और घोड़ों का भी संहार कर डालेगा। तात संजय! सदा क्रोध में भरा रहने वाला अमर्षशील भीमसेन प्रहार करने वाले योद्धाओं में सबसे श्रेष्‍ठ है। मेरे पुत्रों के प्रतिकुल आचरण करते समय मैंने पहले कई बार उसका अपमान किया है। 

    उसकी लोहे की गदा सीधी, मोटी, सुन्दर पार्श्‍वभाग वाली और सुवर्ण से विभूषित है, वह शत-शत वज्रपात के समान बड़े जोर से आवाज करती और एक ही चोट में सैकड़ों को मार डालती है। मेरे बेटे उसका आघात कैसे सह सकेंगे? तात! भीमसेन एक दुर्गम अपार समुद्र है, इसे पार करने के लिये न तो कोई नौका है और न इसकी कहीं थाह ही है; बाण ही इसका वेग है, तो भी मेरे मूर्ख पुत्र इस भीमसेन-मय दुर्गम समुद्र को पार करना चाहते हैं। 

    मैं चीखता-चिल्लाता रह जाता हूँ, परंतु अपने को पण्डित समझने वाले ये मूर्ख पुत्र मेरी बात नहीं सुनते हैं। ये केवल वृक्ष की ऊँची शाखा में लगे हुए शहद को देखते हैं, वहाँ से गिरने का तो भयानक खटका है, उसकी ओर इनका ध्‍यान नहीं है। जैसे महान मृग सिंह से भिड़ जायं, उसी प्रकार जो लोग उस मनुष्‍यरूपी यमराज के साथ लड़ने के लिये युद्धभूमि में उतरेंगे, उन्हें विधाता ने ही मृत्यु के लिये प्रेरित करके भेजा है, ऐसा मानना चाहिये।

    तात संजय! भीमसेन की गदा छींके पर रखने योग्य, चार हाथ लंबी और छ: कोणों से विभूषित है। उस अत्यन्त तेजस्विनी गदा का स्पर्श भी दु:खदाय‍क है। जब भीम उसे मेरे पुत्रों पर चलायेगा, तब वे उसका आघात कैसे सह सकेंगे? भीमसेन जब क्रोधजनित आंसू बहाता और बारंबार अपने ओष्‍ठप्रान्त को चाटता हुआ गदा घुमा-घुमाकर हाथियों के मस्तक वि‍दीर्ण करने लगेगा, सामने भयंकर गर्जना करने वाले गजराजों को लक्ष्‍य करके उनकी ओर दौडे़गा, प्रतिकूल दिशा की ओर भागने वाले मदोन्मत्त हाथियों की गर्जना के उत्तर में स्वयं भी सिंहनाद करेगा और मेरे रथियों की सेनाओं में घुसकर श्रेष्‍ठ वीरों को चुन-चुनकर मारने लगेगा, उस समय अग्नि के समान प्रज्वलित होने वाले भीम के हाथ से मेरे पुत्र कैसे जीवित बचेंगे? 

    महाबाहु भीम मेरी सेना में घुसकर अपने रथ के लिये रास्ता बनाता, मेरी विशाल वाहिनी को खदेड़ता और हाथ में गदा‍ लिये नृत्य-सा करता हुआ जब आगे बढे़गा, तब प्रलयकाल का दृश्‍य उपस्थित कर देगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 33-51 का हिन्दी अनुवाद)

    जैसे मद की धारा बहाने वाला मतवाला हाथी फूले हुए वृक्षों को तोड़ता हुआ आगे बढ़ता है, उसी प्रकार भीमसेन समर भूमि में मेरे पुत्रों की सेना के भीतर प्रवेश करेगा। संजय! वह पुरुषसिंह भीम रथों को रथी, सारथि, अश्व तथा ध्‍वजाओं से शून्य कर देगा एवं रथियों और घुड़सवारों के अंग-भंग कर डालेगा। जैसे गंगाजी का बढ़ता हुआ वेग जलमय प्रदेश में स्थित हुए नाना प्रकार के तटवर्ती वृक्षों को गिराकर नष्‍ट कर देता है, उसी प्रकार भीम युद्धभूमि में आकर मेरे पुत्रों की सेना का संहार कर डालेगा।

    संजय! निश्‍चय ही भीमसेन के भय से पीडित होकर मेरे पुत्र, सेवक त‍था सहायक नरेश विभिन्न दिशाओं में भाग जायंगे। परम बुद्धिमान और बलवान महाबली मगधराज जरासंध ने यह सारी पृथ्वी अपने वश में करके इसे पीड़ा देना प्रारम्भ किया था, परंतु भीमसेन ने भगवान श्रीकृष्‍ण के साथ उसके अन्त:पुर में जाकर उस महापराक्रमी नरेश को मार गिराया।

   भीष्‍मजी के प्रताप से कुरुवंशी और नीतिबल से अंधक-वृष्णिवंश के लोग जो जरासंध के वश में नहीं पड़े, वह केवल दैवयोग था। परंतु अपनी भुजाओं से सुशोभित होने वाले वीर पाण्‍डुपुत्र भीम ने वेगपूर्वक वहाँ जाकर बिना किसी अस्त्र शस्त्र के ही उस जरासंध को यमलोक पहुँचा दिया, इससे बढ़कर पराक्रम और क्या होग?

    संजय! जैसे विषधर सर्प बहुत दिनों से संचित किये हुए विष को किसी पर उगलता है, उसी प्रकार भीमसेन भी दीर्घकाल से संचित अपने तेज को रणमूमि में मेरे पुत्रों पर छोडे़गा। जैसे देवश्रेष्‍ठ इन्द्र वज्र से दानवों का संहार करते हैं, उसी प्रकार हाथ में गदा लिये भीमसेन मेरे पुत्रों का संहार कर डालेगा।

   उसका आक्रमण दु:सह है। उसकी गति को कोई रोक नहीं सकता। उसका वेग और पराक्रम तीव्र है। मैं प्रत्यक्ष देख-सा रहा हूँ कि वह भीम क्रोध से अत्यन्त लाल आँखें किये इधर ही दौड़ा आ रहा है। यदि वह गदा, धनुष, रथ और कवच को छोड़कर केवल दोनों भुजाओं से युद्ध करे तो भी उसके सामने कौन पुरुष ठहर सकता हैं?

    उस बुद्धिमान भीम के बल और पराक्रम को जैसे मैं जानता हूँ, उसी प्रकार ये भीष्‍म, विप्रवर द्रोणाचार्य तथा शरद्वान के पुत्र कृप भी जानते हैं। तथापि ये नरश्रेष्‍ठ शिष्‍ट पुरुषों के व्रत को जानते हैं, इसलिये युद्ध में प्राण त्याग करने की इच्छा से मेरे पुत्रों की सेना के अग्र-भाग में डटे रहेंगे। पुरुष का भाग्य ही सबसे विशेष प्रबल है, क्योंकि मैं पाण्‍डवों की विजय समझकर भी अपने पुत्रों को रोक नहीं पाता हूँ।

वे महाधनुर्धर भीष्‍म आदि पुरातन स्वर्गीय मार्ग का आश्रय ले पार्थिव यश की रक्षा करते हुए घमासान युद्ध में अपने प्राण त्याग देंगे। तात! इनके लिये जैसे मेरे पुत्र हैं, वैसे ही पाण्‍डव भी हैं। दोनों ही भीष्‍म के पौत्र तथा द्रोण और कृप के शिष्‍य हैं।

    संजय! भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य- ये तीनों वृद्ध श्रेष्‍ठ पुरुष हैं; अत: हमारे आश्रय में रहकर इन्होंने जो कुछ भी दान-यज्ञ आदि किया है, ये उसका बदला चुकायेंगे। जो अस्त्र-शस्त्र धारण करके क्षत्रिय धर्म की रक्षा करना चाहता है, उस क्षत्रिय के लिये संग्राम में होने वाली मृत्यु को ही श्रेष्‍ठ एवं उत्तम माना गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 52-61 का हिन्दी अनुवाद)

   जो लोग पाण्‍डवों से युद्ध करना चाहते हैं, उन सबके लिये मुझे बड़ा शोक हो रहा है। विदुर ने पहले ही उच्च स्वर से जिसकी घोषणा की थी, वही यह भय आज आ पहुँचा है। संजय! मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि ज्ञान दु:ख का नाश नहीं कर सकता, अपितु प्रबल दु:ख ही ज्ञान का भी नाश करने वाला बन जाता है। जीवन्मुक्त महर्षि भी लोक व्यवहार की ओर दृष्टि रखकर सुख के साधनों से सुखी और दु:ख से दुखी होते हैं। 

   फिर जो पुत्र, राज्य, पत्नी, पौत्र तथा बन्धु-बान्धवों में जहाँ-तहाँ सहस्रों प्रकार से मोहवश आसक्त हो रहा है, उसकी तो बात ही क्या है? इस महान संकट के विषय में मैं क्या उचित प्रतीकार कर सकता हूँ? मुझे तो बार-बार विचार करने पर कौरवों का विनाश ही दिखायी पड़ता है। 

   द्यूतक्रीड़ा आदि की घटनाएं ही कौरवों पर भारी विपत्ति लाने का कारण प्रतीत होती हैं। ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले मूर्ख दुर्योधन ने लोभवश यह पाप किया है। मैं समझता हूँ कि अत्यन्त तीव्र गति से चलने वाले काल का ही यह क्रमश: प्राप्त होने वाला नियम है। इस कालचक्र में उसकी नेमि के समान मैं जुड़ा हुआ हूँ, अत: मेरे लिये इससे दूर भागना सम्भव नहीं है। संजय! क्या करूं, कैसे करूं और कहाँ चला जाऊं? ये मूर्ख कौरव काल के वशीभूत होकर नष्‍ट होना चाहते हैं। 

    तात! मेरे सौ पुत्र यदि युद्ध में मारे गये, तब विवश होकर मैं इनकी अनाथ स्त्रियों का करुण-क्रन्दन सुनूंगा। हाय! मेरी मृत्यु किस प्रकार हो सकती है? जैसे गर्मी में प्रज्वलित हुई अग्नि हवा का सहारा पाकर घास-फूस एवं जंगल को भी जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन सहित पाण्‍डुनन्दन भीम गदा हाथ में लेकर मेरे सब पुत्रों को मार डालेगा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृर्तराष्‍ट्रवाक्यविषयक इक्यावनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! जिनके मुँह से कभी कोई झूठ बात निकलती हमने नहीं सुनी है तथा जिनके पक्ष में धनंजय जैसे योद्धा हैं, उन धर्मराज युधिष्ठिर को तीनों लोकों का राज्य भी प्राप्त हो सकता है। मैं निरन्तर सोचने-विचारने पर भी युद्ध में गाण्‍डीवधारी अर्जुन का ही सामना करने वाले किसी ऐसे वीर को नहीं देखता, जो रथ पर आरुढ़ हो उनके सम्मुख जा सके। 

   जो हृदय को विदीर्ण कर देने वाली कर्णी और नालीक आदि बाणों की निरन्तर वर्षा करते हैं, उन गाण्‍डीवधन्वा अर्जुन का युद्ध में सामना करने वाला कोई भी समकक्ष योद्धा नहीं है। यदि बलवानों में श्रेष्‍ठ, अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान तथा युद्ध में कभी पराजित न होने वाले, मनुष्‍यों में अग्रगण्‍य वीरवर द्रोणाचार्य और कर्ण अर्जुन पर विजय प्राप्त होने में महान संदेह रहेगा। मैं तो देखता हूँ मेरी विजय होगी ही नहीं, क्योंकि कर्ण दयालु और प्रमादी है और आचार्य द्रोण वृद्ध होने के साथ ही अर्जुन के गुरु हैं। 

   कुन्तीपुत्र अर्जुन समर्थ और बलवान है। उनका धनुष भी सुदृढ़ है। वे आलस्य और थकावट को जीत चुके हैं, अत: उनके सा‍थ जो अत्यन्त भयंकर युद्ध छिडे़गा, उसमें सब प्रकार से उनकी ही विजय होगी। समस्त पाण्‍डव अस्त्रविद्या के ज्ञाता, शूरवीर तथा महान यश को प्राप्त हैं। वे समस्त देवताओं का ऐश्वर्य छोड़ सकते हैं, परंतु अपनी विजय से मुँह नहीं मोडे़ंगे। निश्‍चय ही द्रोणाचार्य और कर्ण का वध हो जाने पर हमारे पक्ष के लोग शान्त हो जायंगे अथवा अर्जुन के मारे जाने पर पाण्‍डव शान्त हो बैठेंगे, परंतु अर्जुन का वध करने वाला तो कोई है ही नहीं, उन्हें जीतने वाला भी संसार में कोई नहीं है। मेरे मन्दबुद्धि पुत्रों के प्रति उनके हृदय में जो क्रोध जाग उठा है, वह कैसे शान्त होगा?

    दूसरे योद्धा भी अस्त्र चलाना जानते हैं, परंतु वे कभी हारते हैं और कभी जीतते भी हैं। केवल अर्जुन ही ऐसे हैं, जिनकी निरन्तर विजय ही सुनी जाती है। खाण्‍डवदाह के समय अर्जुन ने मुख्‍य-मुख्‍य तैंतीस देवताओं को युद्ध के लिये ललकार कर अग्निदेव को तृप्त किया और सभी देवताओं को जीत लिया। उनकी कभी पराजय हुई हो, इसका पता हमें आज तक नहीं लगा। 

   तात! साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण, जिनका स्वभाव और आचार-व्यवहार भी अर्जुन के ही समान है, अर्जुन का रथ हांकते हैं, अत: इन्द्र की विजय की भाँति उनकी भी विजय निश्चित है। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन एक रथ पर उपस्थित हैं और गाण्‍डीव धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ी हुई है, इस प्रकार ये तीनों तेज एक ही सा‍थ एकत्र हो गये हैं, यह हमारे सुनने में आया है। हम लोगों के यहाँ न तो वैसा धनुष है, न अर्जुन जैसा पराक्रमी योद्धा है और न श्रीकृष्ण के समान सारथि ही है, परंतु दुर्योधन के वशीभूत हुए मेरे मूर्ख पुत्र इस बात को नहीं समझ पाते।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 14-20 का हिन्दी अनुवाद)

    तात संजय! अपने तेज से जलता हुआ वज्र किसी के मस्त‍क पर पड़कर सम्भव हैं, उसके जीवन को बचा दे, परंतु किरीटधारी अर्जुन के चलाये हुए बाण जिसे लग जायंगे, उसे जीवित नहीं छोडे़ंगे। मुझे तो वीर धनंजय युद्ध में बाणों को चलाते, योद्धाओं के प्राण लेते और अपनी बाण वर्षा द्वारा उनके शरीरों से मस्तकों को काटते हुए से प्रतीत हो रहे हैं। क्या गाण्‍डीव धनुष से प्रकट हुआ बाणमय तेज सब ओर प्रज्वलित-सा होकर मेरे पुत्रों की विशाल वाहिनी को युद्ध में जलाकर भस्म कर डालेगा? मुझे स्पष्‍ट प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्‍ण के रथ-संचालन की आवाज सुनकर भरतवंशियों की यह सेना सव्यसाची अर्जुन के भय से पीड़ित और नाना प्रकार से आतंकित हो जायगी। 

    जैसे वायु के वेग से बढ़ी हुई आग सब और फैलकर प्रचण्‍ड लपटों से युक्त हो घास-फूस अथवा जंगल को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार अर्जुन मेरे पुत्रों को दग्ध कर डालेंगे। जिस समय शस्त्रपाणि किरीटधारी अर्जुन समरभूमि में रोषपूर्वक पैने बाण समूहों की वर्षा करेंगे, उस समय विधाता के रचे हुए सर्वसंहारक काल के समान उनसे पार पाना असम्भव हो जायगा।

    उस समय मैं महलों में बैठा हुआ बार-बार कौरवों की विविध अवस्थाओं की कथा सुनता रहूंगा। अहो! युद्ध के मुहाने पर निश्चय ही सब ओर से यह भरतवंश का विनाश आ पहुँचा है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यान‍संधिपर्व में धृतराष्‍ट्रवाक्यविषयक बावनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरव-सभा में धृतराष्‍ट्र का युद्ध से भय दिखाकर शान्ति के लिये प्रस्ताव करना”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;- संजय! जैसे समस्त पाण्‍डव पराक्रमी और विजय के अभिलाषी हैं, उसी प्रकार उनके सहायक भी विजय के लिये कटिबद्ध तथा उनके लिये अपने प्राण निछावर करने को तैयार हैं। तुमने ही मेरे निकट पराक्रमशाली पांचाल, केकय, मत्स्य, मागध तथा वत्सदेशीय उत्कृष्‍ट भूमिपालों के नाम लिये हैं ये सभी पाण्‍डवों की विजय चाहते हैं। 

    इनके सिवा जो इच्छा करते ही इन्द्र आदि देवताओं सहित इन सम्पूर्ण लोकों को अपने वश में कर सकते हैं, वे जगत्स्त्रष्‍टा महाबली भगवान श्रीकृष्‍ण भी पाण्‍डवों को विजय दिलाने का दृढ़ निश्‍चय कर चुके हैं। शिनि के पौत्र सात्यकि ने थोडे़ ही समय में अर्जुन से उनकी सारी अस्त्रविद्या सीख ली थी। इस युद्ध में वे भी बीज की भाँति बाणों को बोते हुए पाण्‍डव पक्ष की ओर से खडे़ होंगे। उत्तम अस्त्रों का ज्ञाता और क्रूरतापूर्ण पराक्रम प्र‍कट करने वाला पांचाल राजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न भी मेरी सेनाओं में घुसकर युद्ध करेगा।

     तात संजय! मुझे युधिष्ठिर के क्रोध से, अर्जुन के पराक्रम से, दोनों भाई नकुल और सहदेव से तथा भीमसेन से बड़ा भय लगता हैं। संजय! इन नरेशों के द्वारा मेरी सेना के भीतर जब अलौकिक अस्त्रों का जाल-सा बिछा दिया जायगा, तब मेरे सैनिक उसे पार नहीं कर सकेंगे; इसीलिये मैं बिलख रहा हूँ। 

    पाण्‍डुनन्दन युधिष्ठिर दर्शनीय, मनस्वी, लक्ष्‍मीवान, ब्रह्मर्षियों के समान तपस्वी, मेधावी, सुनिश्चित बुद्धि से युक्त, धर्मात्मा, मित्रों तथा मन्त्रियों से सम्पन्न, युद्ध के लिये उद्योगशील सैनिकों से संयुक्त, महारथी भाइयों और वीरशिरोमणि श्वशुरों से सु‍रक्षित, धैर्यवान, मन्त्रणा को गुप्त रखने वाले, पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी, दयालु, उदार, लज्जाशील, यथार्थ पराक्रम से सम्पन्न, अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, मन को वश में रखने वाले, वृद्धसेवी तथा जितेन्द्रिय हैं। इस प्रकार सर्वगुणसम्पन्न और प्रज्वलित अग्नि के समान ताप देने वाले उन युधिष्ठिर के सम्मुख युद्ध करने के लिये कौन मूर्ख जा सकेगा? कौन अचेत एवं मरणासन्न मनुष्‍य पतंगों की भाँति दुर्निवार पाण्‍डवरूपी अग्नि में जान-बूझकर गिरेगा? 

    राजा युधिष्ठिर सूक्ष्‍म और एक स्थान में अवरुद्ध अग्नि के समान हैं। मैंने मिथ्‍या व्यवहार से उनका तिरस्कार किया है, अत: वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रों का अवश्‍य विनाश कर डालेंगे। कौरवों में पाण्‍डवों के साथ युद्ध न होना ही अच्छा मानता हूँ। तुम लोग इसे अच्छी तरह समझ लो। यदि युद्ध हुआ तो समस्त कुरुकुल का विनाश अवश्‍यम्भावी है। मेरी बुद्धि का यही सर्वोत्तम निश्‍चय है। इसी से मेरे मन को शान्ति मिलती है। यदि तुम्हें भी युद्ध न होना ही अभीष्‍ट हो तो हम शान्ति के लिये प्रयत्न करें। युधिष्ठिर हमें युद्ध की चर्चा से क्लेश में पड़े देख हमारी उपेक्षा नहीं कर सकते। वे तो मुझे ही अधर्मपूर्वक कलह बढा़ने में कारण मानकर मेरी निन्दा करते हैं फिर मेरे ही द्वारा शान्ति-प्रस्ताव उपस्थित किये जाने पर वे क्यों नहीं सहमत होंगे? 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत यानसंधिपर्व में धृतराष्‍ट्रवा‍क्यविषयक तिरपनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का धृतराष्‍ट्र को उनके दोष बताते हुए दुर्योधन पर शासन करने की सलाह देना”

   संजय ने कहा ;- महाराज! आप जैसा कह रहे हैं, वही ठीक है। भारत! युद्ध में तो गांडीव धनुष के द्वारा क्षत्रिय-समुदाय का विनाश ही दिखायी देता है। परंतु सदा से बुद्धिमान मान जाने वाले आपके संबंध में मैं यह नहीं समझ पाता हूँ कि आप सव्‍याची अर्जुन के बल-पराक्रम को अच्‍छी तरह जानते हुए भी क्‍यों अपने पुत्रों के अधीन हो रहे हैं? 

   भरतकुलभूषण महाराज! आप स्‍वभाव से ही पाण्‍डवों का अपराध करने वाले हैं। इस कारण इस समय आपके द्वारा जो विचार वयक्‍त किया गया है, यह सदा स्थिर रहने वाला नहीं है। आपने आरम्‍भ से ही कुंतीपुत्रों के साथ कपटपूर्ण बर्ताव किया है। जो पिता के पद पर प्रतिष्ठित है, श्रेष्‍ठ सुहृद है और मन में भली-भाँति सावधानी रखने वाला है, उसे अपने आश्रितों का हित-साधन ही करना चाहिये। द्रोह रखने वाला पुरुष पिता अथवा गुरुजन नहीं कहला सकता। 

     महाराज! द्यूतक्रीड़ा के समय जब आप अपने पुत्रों के मुख से सुनते कि यह जीता, यह पाया तथा पाण्‍डवों की पराजय हो रही है, तब आप बालकों की तरह मुसकरा उठते थे। उस समय पाण्‍डवों के प्रति कितनी ही कठोर बातें कही जा रही थीं, परंतु मेरे पुत्र सारा राज्‍य जीतते चले जा रहे हैं, यह जानकर आप उनकी उपेक्षा करते जाते थे। यह सब इनके भावी विनाश या पतन का कारण होगा, इसकी ओर आपकी दृष्टि नहीं जाती थी।

   महाराज! कुरुजांगल देश ही आपका पैतृक राज्‍य है, किंतु शेष सारी पृथ्वी उन वीर पाण्‍डवों ने ही जीती है, जिसे आप पा गये हैं। नृपश्रेष्‍ठ! कुंतीपुत्रों ने अपने बाहुबल से जीतकर यह भूमि आपकी सेवा में समर्पित की है, परंतु आप उसे अपनी जीती मानते हैं। राजशिरोमणे! घोषयात्रा के समय गन्‍धर्वराज चित्रसेन ने आपके पुत्रों को कैद कर लिया था। वे सब के सब बिना नाव के पानी में डू‍ब रहे थे, उस समय उन्‍हें अर्जुन ही पुन: छुड़ाकर ले आये थे। 

    राजन! पाण्‍डव लोग जब द्यूतक्रीड़ा में छले गये और हारकर वन में जाने लगे, उस समय आप बच्‍चों की तरह बांरबार मुसकराकर अपनी प्रसन्‍नता प्रकट कर रहे थे। जब अर्जुन असंख्‍य तीखे बाण समूहों की वर्षा करने लगेंगे, उस समय समुद्र भी सूख सकते हैं, फिर हाड़-मांस के शरीर से पैदा हुए प्राणियों की तो बात ही क्‍या है? बाण चलाने वाले वीरों में अर्जुन श्रेष्‍ठ हैं, धनुषों में गांडीव उत्‍तम है, समस्‍त प्राणियों में भगवान श्रीकृष्‍ण श्रेष्‍ठ हैं, आयुधों में सुदर्शन चक्र श्रेष्‍ठ है और पताका वाले ध्‍वजों में वानर में उपलक्षित ध्‍वज ही श्रेष्‍ठ एवं प्रकाशमान है। 

     राजन! इस प्रकार इन सभी श्रेष्‍ठतम वस्‍तुओं को अपने साथ लिये हुए जब श्‍वेत घोडों वाले अर्जुन रथ पर आरूढ़ हो रणभूमि में उपस्थित होंगे, उस समय ऊपर उठे हुए कालचक्र के समान वे हम सब लोगों का संहार कर डालेंगे। राजाओं में श्रेष्‍ठ भरतभूषण महाराज! अब तो यह सारी पृथ्वी उसी के अधिकार में रहेगी, जिसकी ओर से भीमसेन और अर्जुन जैसे योद्धा लड़ने वाले होंगे। वही राजा होगा। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद)

   आपकी सेना के अधिं‍काश वीर भीमसेन के हाथों मारे जायेंगे और दुर्योधन आदि कौरव विपत्ति के समुद्र में डूबती हुई इस सेना को देखते-देखते स्‍वयं भी नष्‍ट हो जायंगे।

     प्रभो! महाराज! आपके पुत्र तथा इनका साथ देने वाले नरेश भीमसेन और अर्जुन भयभीत होकर कभी विजय नहीं पा सकेंगे। मत्‍स्‍यदेश के क्षत्रिय अब आपका आदर नहीं करते हैं। पांचाल, केकय, शाल्व तथा शूरसेन देशों के सभी राजा एवं राजकुमार आपकी अवहेलना करते हैं। वे सब परम बुद्धिमान अर्जुन के पराक्रम को जानते हैं, अत: उन्‍हीं के पक्ष में मिल गये हैं। युधिष्ठिर के प्रति भक्ति रखने के कारण वे सब सदा ही आपके पुत्रों के साथ विरोध रखते हैं। महाराज! जो सदा धर्म में तत्‍पर रहने के कारण वध और क्‍लेश पाने के कदापि योग्‍य नहीं थे, उन पाण्‍डुपुत्रों को जिसने सदा विपरीत बर्ताव से कष्‍ट पहुँचाया है और जो इस समय भी उनके प्रति द्वेषभाव ही रखता है, आपके उस पापी पुत्र दुर्योधन को ही सभी उपायों से साथियों सहित काबू में रखना चाहिये। आप बांरबार इस तरह शोक न करें। द्यूतक्रीड़ा के समय मैंने तथा परम बुद्धिमान विदुरजी ने भी आपको यही सलाह दी थी, परंतु आपने ध्‍यान नहीं दिया। 

   राजेन्‍द्र! आपने जो पाण्‍डवों के बल-पराक्रम की चर्चा करके असमर्थ की भाँति विलाप किया है, यह सब व्‍यर्थ है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसंधिपर्व में संजय वाक्‍य विषयक चौवनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र को धैर्य देते हुए दुर्योधन द्वारा अपने उत्‍कर्ष और पाण्‍डवों के अपकर्ष का वर्णन”

   दुर्योधन बोला ;- महाराज! आप डरें नहीं; आपके द्वारा हम लोग शोक करने योग्‍य नहीं हैं। प्रभो! हम बलवान और शक्तिशाली हैं तथा समर भूमि में शत्रुओं को जीतने की शक्ति रखते हैं। पाण्‍डवों को जब हमने वन में भेज दिया, उस समय शत्रुओं के राष्‍ट्रों को धूल में मिला


देने वाले विशाल सैन्‍यसमूह के साथ श्रीकृष्‍ण यहाँ आये थे। उनके साथ केकयराजकुमार, धृष्‍टकेतु, द्रुपदपुत्र धृष्‍टद्युम्‍न तथा और भी बहुत-से नरेश, पाण्‍डवों के अनुयायी हैं, यहाँ तक पधारे थे। 

    वे सभी महारथी इंद्रप्रस्थ के निकट तक आये और परस्‍पर मिलकर समस्‍त कौरवों सहित आपकी निंदा करने लगे। भारत! वे नरेश श्रीकृष्‍ण की प्रधानता में संगठित हो वन में विराजमान मृगचर्मधारी युधिष्ठिर के समीप जाकर बैठे और सगे-सम्‍बन्धियों सहित आपका मूलोच्‍छेद कर डालने की इच्‍छा रखकर कहने लगे ‘धृतराष्‍ट्र के हाथ से राज्‍य को लौटा लेना ही कर्तव्‍य है’। 

    भरतश्रेष्‍ठ! उनके इस निश्चय को सुनकर मैंने कुटुम्‍बी जनों के वध की आशंका से भयभीत हो भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य से इस प्रकार निवेदन किया ‘तात! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्‍डव लोग अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर नहीं रहेंगे; क्‍योंकि वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण हम सब लोगों का पूर्णत: विनाश कर डालना चाहते हैं। ‘केवल विदुर जी को छोड़कर आप सब लोग मार डालने के योग्‍य समझे गये हैं, यह बात मुझे मालूम हुई है। कुरुश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र धर्मज्ञ हैं, यह सोचकर उनका भी वध नहीं किया जायगा।

      ‘तात! श्रीकृष्ण हमारा सर्वनाश करके कौरवों का एक राज्‍य बनाकर उसे युधिष्ठिर को सौंपना चाहते हैं। ‘ऐसी अवस्‍था में इस समय हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? हम उनके चरणों पर गिरें, पीठ दिखाकर भाग जायं अथवा प्राणों का मोह छोड़कर शत्रुओं का सामना करें। ‘उनके साथ युद्ध होने पर हमारी पराजय निश्चित है, क्‍योंकि इस समय समस्‍त भूपाल राजा युधिष्ठिर के अधीन हैं। इस राज्‍य में रहने वाले सब लोग हमसे धृणा करते हैं। हमारे मित्र भी कुपित हो गये हैं। सम्‍पूर्ण नरेश और आत्‍मीयजन सभी हमें धिक्‍कार रहे हैं। 

‘मैं समझता हूँ, इस समय नतमस्‍तक हो जाने में कोई दोष नहीं है। इससे हम लोगों में सदा के लिये शांति हो जायगी, केवल अपने प्रज्ञाचक्षु पिता महाराज धृतराष्‍ट्र के लिये ही मुझे शोक हो रहा है। ‘उन्‍होंने मेरे लिये अनंत क्‍लेश और दु:ख सहन किये हैं। ‘नरश्रेष्‍ठ पिताजी! आपके पुत्रों तथा मेरे भाइयों ने केवल मेरी प्रसन्‍नता के लिये शत्रुओं को सदा ही सताया है; ये सब बातें आप पहले से ही जानते हैं।    ‘इसलिये वे महा‍रथी पाण्‍डव मन्त्रियों सहित महाराज धृतराष्‍ट्र के कुल का समूलोच्‍छेद करके अपने वैर का बदला लेंगे’। 

     भारत! मेरी यह बात सुनकर आचार्य द्रोण, पितामह भीष्‍म, कृपाचार्य तथा अश्‍वत्‍थामा ने मुझे बड़ी भारी चिंता में पड़कर सम्‍पूर्ण इन्द्रियों से व्‍यथित हुआ जान आश्वासन देते हुए कहा,-‘परंतप! यदि शत्रुपक्ष के लोग हमसे द्रोह रखते हैं तो तुम्‍हें डरना नहीं चाहिये। शत्रुलोग युद्ध में उपस्थित होने पर हमें जीतने में असमर्थ हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘हममें से एक-एक वीर भी समस्‍त राजाओं को जीतने की शक्ति रखता है। शत्रु लोग आवें तो सही, हम अपने पैने बाणों से उनका धमंड चूर-चूर कर देंगे। भारत! पहले की बात है, अपने पिता शांतनु की मृत्‍यु के पश्‍चात भीष्‍म जी ने किसी समय अत्‍यंत क्रोध में भरकर एकमात्र रथ की सहायता से अकेले ही सब राजाओं को जीत लिया था। रोष में भरे हुए कुरुश्रेष्‍ठ भीष्‍म ने जब उनमें से बहुत-से राजाओं को मार डाला,तब वे डर के मारे पुन: इन्‍हीं देवव्रत भीष्‍म की शरण में आये। 

    भरतश्रेष्‍ठ! वे ही पूर्ण साम‍र्थ्‍यशाली भीष्‍म युद्ध में शत्रुओं को जीतने के लिये हमारे साथ हैं, अत: आपका भय दूर हो जाना चाहिये। इन अमिततेजस्‍वी भीष्‍म आदि ने उसी समय युद्ध में हमारा साथ देने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। पहले यह सारी पृथ्वी हमारे शत्रुओं के काबू में थी, किंतु अब हमारे हाथ में आ गयी है। हमारे ये शत्रु अब हमें युद्ध में जीतने की शक्ति नहीं रखते। सहायकों के अभाव में पाण्‍डव पंख कटे हुए पक्षी के समान असहाय एवं पराक्रमशून्‍य हो गये हैं। भरतश्रेष्‍ठ! इस समय यह पृथ्‍वी हमारे अधिकार में है। हमने जिन राजाओं को यहाँ बुलाया है, ये सब सुख और दु:ख में भी हमारे साथ एक-सा प्रयोजन रखते हैं, हमारे सुख-दु:ख को अपना ही सुख-दु:ख मानते हैं।

    इतने पर भी आप शत्रुओं की मिथ्‍या प्रशंसा सुनकर पागल से हो उठै हैं और दुखी एवं भयभीत होकर नाना प्रकार से विलाप कर रहे हैं। यह सब देखकर ये राजा लोग यहाँ हँस रहे हैं। इन राजाओं में से प्रत्‍येक अपने आपको पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने में समर्थ मानता है; अत: आपके मन में जो भय आ गया है, वह निकल जाना चाहिये। 

    मेरी सम्‍पूर्ण सेना को इन्‍द्र भी नहीं जीत सकते। स्‍वयम्‍भू ब्रह्माजी भी इसका नाश नहीं कर सकते। प्रभो! युधिष्ठिर तो मेरी सेना तथा प्रभाव से इतने डर गये हैं कि राजधानी या नगर लेने की बात छोड़कर अब पांच गांव मांगने लगे हैं। भारत! आप जो कुंतीकुमार भीम को बहुत शक्तिशाली मान रहे हैं, वह भी मिथ्‍या ही है; क्‍योंकि आप मेरे प्रभाव को पूर्ण रूप से नहीं जानते हैं। 

   गदायुद्ध में मेरी समानता करने वाला इस पृथ्‍वी पर न तो कोई है, न भूतकाल में कोई हुआ था और न भविष्‍य में ही कोई होगा। गदायुद्ध का मेरा अभ्‍यास बहुत अच्‍छा है। मैंने गुरु के समीप क्‍लेशसहनपूर्वक रहकर अस्‍त्र विद्या सीखी है और उसमें मैं पारंगत हो गया हूँ। अत: भीमसेन से या दूसरे योद्धाओं से मुझे कभी कोई भय नहीं है।

    आपका कल्‍याण हो। बलराम जी का भी यही निश्चय है कि गदायुद्ध में दुर्योधन के समान दूसरा कोई नहीं है। यह बात उन्‍होंने उस समय कही थी, जब मैं उनके पास रहकर गदा की शिक्षा ले रहा था। 

    मैं युद्ध में बलराम जी के समान हूँ और बल में इस भूतलपर सबसे बढ़कर हूँ। युद्ध में भीमसेन मेरी गदा का प्रहार कभी नहीं सह सकते। महाराज! मैं रोष में भरकर भीमसेन पर गदा का जो एक बार प्रहार करूंगा, वह अत्‍यंत भयंकर एक ही आघात उन्‍हें शीघ्र ही यमलोक पहुँचा देगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद)

   राजन! मैं चाहता हूँ कि युद्ध में गदा हाथ में लिये हुए भीमसेन को अपने सामने देखूँ। मैंने दीर्घकाल से अपने मन में सदा इसी मनोरथ के सिद्ध होने की इच्‍छा रखी है। युद्ध में मेरी गदा से आहत हुए कुंतीपुत्र भीमसेन का शरीर छिन्‍न-भिन्‍न हो जायगा और वे प्राणशून्‍य होकर पृथ्वी पर पड़ जायेंगे। 

   यदि मैं एक बार अपनी गदा का आघात कर दूं तो हिमालय पर्वत भी लाखों टुकड़ों में विदीर्ण हो जायगा। भीमसेन भी इस बात को जानते हैं। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन को भी यह ज्ञात है। यह निश्चत है कि गदायुद्ध में दुर्योधन के समान दूसरा कोई नहीं है। अत: राजन! भीमसेन से जो आपको भय हो रहा है, वह दूर हो जाना चाहिये। मैं महायुद्ध में उन्‍हें मार गिराऊंगा। इसलिये आप मन में खेद न करें। 

   भरतश्रेष्‍ठ! मेरे द्वारा भीमसेन के मारे जाने पर हमारे पक्ष के बहुत से रथी जो अर्जुन के समान या उनसे भी बढ़कर हैं, उनके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणों की वर्षा करने लगेंगे। भारत! भीष्‍म, द्रोण, कृप, अश्वत्‍थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, प्राग्‍ज्‍योतिनरेश भगदत्त, मद्रराज शल्‍य तथा सिंधुराज जयद्रथ इनमें से एक-एक वीर समस्‍त पाण्‍डवों को मारने की शक्ति रखता है। यदि ये सब एक साथ मिल जायं तो क्षणभर में उन सबको यमलोक पहुँचा देंगे। 

राजाओं की समस्‍त सेना एकमात्र अर्जुन को परास्‍त करने में असमर्थ कैसे होगी? इसके लिये कोई कारण नहीं है। भीष्‍म, द्रोणाचार्य, अश्वत्‍थामा तथा कृपाचार्य के चलाये हुए सैकड़ों बाण समूहों से विद्व होकर कुंतीपुत्र अर्जुन को विवशतापूर्वक यमलोक में जाना पड़ेगा। 

   भरतनंदन! हमारे पितामह गंगापुत्र भीष्‍मजी तो अपने पिता शांतनु से भी बढ़कर पराक्रमी हैं। ये ब्रह्मर्षियों के समान प्रभाव से सम्‍पन्‍न होकर उत्‍पन्‍न हुए हैं। इनका वेग देवताओं के लिये भी अत्‍यंत दु:सह है। 

    राजन! भीष्‍म जी को मारने वाला तो कोई है ही नहीं; क्‍योंकि उनके पिता ने प्रसन्‍न होकर उन्‍हें यह वरदान दिया है कि तुम अपनी इच्‍छा के बिना नहीं मरोगे। दूसरे वीर आचार्य द्रोण हैं, जो ब्रह्मर्षि भारद्वाज के वीर्य से कलश में उत्‍पन्‍न हुए हैं। महाराज! इन्‍ही आचार्य द्रोण से वीर अश्वत्‍थामा की उत्‍पत्ति हुई है, जो अस्‍त्रविद्या के बहुत बड़े पण्डित हैं।

    आचार्यों में प्रधान कृप भी महर्षि गौतम के अंश से सरकण्‍डों के समूह में उत्‍पन्‍न हुए हैं। ये श्रीमान आचार्यपाद अवध्‍य हें, ऐसा मेरा विश्वास है।

    महाराज! अश्वत्‍थामा के ये पिता, माता और मामा तीनों ही अयोनिज हैं। अश्वत्‍थामा भी शूरवीर एवं मेरे पक्ष में स्थित हैं। राजन! ये सभी योद्धा देवताओं के समान पराक्रमी एवं महारथी हैं। 

    भरतश्रेष्‍ठ! ये चारों वीर युद्ध में देवराज इन्‍द्र को भी पीड़ा दे सकते हैं। अर्जुन तो इनमें से किसी एक की ओर भी आँख उठाकर देख नहीं सकते। ये नरश्रेष्‍ठ जब एक साथ होकर युद्ध करेंगे, तब अर्जुन को अवश्‍य मार डालेंगे। भीष्‍म, द्रोण और कृप इन तीनों के समान पराक्रमी तो अकेला कर्ण ही है, यह मेरी मान्‍यता है।

     भारत! परशुराम जी ने कर्ण को शिक्षा देने के पश्चात घर लौटने की आज्ञा देते हुए यह कहा था कि तुम अस्‍त्र-शस्‍त्रों के ज्ञान में मेरे समान हो। इसके सिवा कर्ण को जन्‍म के साथ ही दो सुंदर और कल्‍याणकारी कुण्डल प्राप्‍त हुए थे। 

(महाभारत (उद्योग पर्व) पंचपंचाशत्‍तम अध्याय के श्लोक 55-69 का हिन्दी अनुवाद)

   परंतु देवराज इन्‍द्र ने शत्रुओं को संताप देने वाले वीरवर कर्ण से शची के लिये वे दोनों कुण्डल मांग लिये। महाराज! कर्ण ने बदले में अत्‍यंत भयंकर एवं अमोघ शक्ति लेकर वे कुण्‍डल दिये थे। इस प्रकार उस अमोघ शक्ति से सुरक्षित कर्ण के सामने युद्ध के लिये आकर अर्जुन कैसे जीवित रह सकते हैं? राजन! हाथ पर रखे हुए फल की भाँति विजय की प्राप्ति तो मुझे अवश्‍य ही होगी। 

     भारत! इस पृथ्वी पर मेरे शत्रुओं की पूर्णत: पराजय तो इसी से स्‍पष्‍ट है कि ये पितामह भीष्‍म प्रतिदिन इस हजार विपक्षी योद्धओं का संहार करेंगे। परंतप! द्रोणाचार्य, अश्वत्‍थामा और कृपाचार्य भी उन्‍हीं के समान महाधनुर्धर हैं। इनके सिवा ‘संशप्‍तक’ नामक क्षत्रियों के समूह भी मेरे ही पक्ष में हैं; जो यह कहते हैं कि या तो हम लोग अर्जुन को मार डालेंगे या कपिध्‍वज अर्जुन ही हमें मार डालेंगे, तभी हमारे उनके युद्ध की समाप्ति होगी। वे सब नरेश अर्जुन के वध का दृढ़ निश्चय कर चुके हैं और उसके लिये अपने को पर्याप्‍त समझते हैं। ऐसी दशा में आप उन पाण्‍डवों से भयभीत हो अकस्‍मात व्‍यथित क्‍यों हो उठते हैं? 

     शत्रुओं को संताप देने वाले भरतनंदन! अर्जुन और भीमसेन के मारे जाने पर शत्रुओं के दल में दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध कर सकेगा? यदि आप किसी को जानते हों तो बताइये।

   राजन! पांचों भाई पाण्‍डव, धृष्‍टद्युम्‍न और सात्‍यकि ये कुल सात योद्धा ही शत्रु-पक्ष के सारभूत बल माने जाते हैं। 

     प्रजानाथ! हम लोगों के पक्ष में जो विशिष्‍ट योद्धा हैं, उनकी संख्‍या अधिक है; यथा भीष्‍म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि, अश्वत्‍थामा, वैकर्तन कर्ण, सोमदत्त, बाह्लिक, प्राग्‍ज्‍योतिषनरेश भगदत्त, शल्‍य, अवन्‍ती के दोनों राजकुमार विंद और अनुविंद, जयद्रथ, दु:शासन, दुर्मुख, दु:सह, श्रुतायु, चित्रसेन, पुरुमित्र, विविंशति, शल, भूरिश्रवा तथा आपका पुत्र विकर्ण। इस प्रकार अपने पक्ष के प्रमुख वीरों की संख्‍या शत्रुओं के प्रमुख वीरों से तीन गुनी अधिक है। 

    महाराज! अपने यहाँ ग्‍यारह अक्षौहिणी सेनाएं संग्रहीत हो गयी हैं, परंतु शत्रुओं के पक्ष में हमसे बहुत कम कुल सात अक्षौहिणी सेनाएं हैं; फिर मेरी पराजय कैसे हो सकतीहै? 

    राजन! बृहस्पति का कथन है शत्रुओं की सेना अपने से एक तिहाई भी कम हो तो उसके साथ अवश्‍य युद्ध करना चाहिये। परंतु मेरी यह सेना तो शत्रुओं की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक है, इसलिये यह अंतर मेरी सम्‍पूर्ण सेना की एक तिहाई से भी अधिक है।

    भारत! प्रजानाथ! मैं देख रहा हूँ कि शत्रुओं का बल हमारी अपेक्षा अनेक प्रकार से गुणहीन है, परंतु मेरा अपना बल सब प्रकार से बहुत अधिक एवं गुणशाली है। भरतनंदन! इन सभी दृष्टियों से मेरा बल अधिक है और पाण्‍डवों का बहुत कम है, यह जानकर आप व्‍याकुल एवं अधीर न हों।

   जनमेजय, ऐसा कहकर शत्रुनगर विजयी दुर्योधन ने शत्रुओं की स्थिति जान लेने के पश्चात समयोचित कर्तव्‍यों की जानकारी के लिये पुन: संजय से प्रश्‍न किया। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानस‍ंधि पर्व में दुर्योधनवाकयविषयक पचपनवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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