सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन द्वारा आत्‍मप्रशंसा”

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पिता की यह बात सुनकर अत्‍यंत असहिष्‍णु दुर्योधन ने भीतर ही भीतर भारी क्रोध करके पुन: इस प्रकार कहा- 

    दुर्योधन बोला ;- ‘नृपश्रेष्‍ठ! आप जो ऐसा मानते हैं कि कुंती के पुत्रों को जीतना असम्‍भव है, क्‍योंकि देवता उनके सहायक हैं,यह ठीक नहीं है। आपके मन से यह भय निकल जाना चाहिये। ‘भरतनंदन! काम (राग), द्वेष, संयोग (ममता), लोभ और द्रोह (क्रोध) रूपी दोषों से रहित होने के कारण तथा दूषित भावों की उपेक्षा कर देने के कारण ही देवताओं ने देवत्‍व प्राप्‍त किया है। 

    ‘यह बात पूर्वकाल में द्वैपायन व्‍यास जी, महातपस्‍वी नारद जी तथा जगदग्निनंदन परशुराम जी ने हम लोगों को बतायी थी। ‘भरतश्रेष्‍ठ! देवता मनुष्‍यों की भाँति काम, क्रोध, लोभ और द्वेषभाव से किसी कार्य में प्रवृत्‍त नहीं होते हैं। ‘यदि अग्नि, वायु, धर्म, इन्‍द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार भी कामना के वशीभूत होकर सब कार्यों में प्रवृत्‍त होने लग जाते, तब तो कुंतीपुत्रों को कभी दु:ख उठाना ही नहीं पड़ता। ‘अत: भरतनंदन! आप किसी प्रकार भी ऐसी चिंता न करें; क्‍योंकि देवता सदा दिव्‍यभाव-शम आदि की ही अपेक्षा रखते हैं, काम, क्रोध आदि आसुर भावों की नहीं।

     ‘तथापि यदि देवताओं में कामनावश द्वेष और लोभ लक्षित होता है तो उनमें देवत्व का अभाव हो जाने के कारण उनकी वह शक्ति हम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं दिखा सकेगी, क्‍योंकि देवों में देवभाव की प्रधानता है। ‘वैसे तो मुझमें भी दैवबल है ही; यदि मैं अभिमन्त्रित कर दूं तो सदा सम्‍पूर्ण लाकों को जलाकर भस्‍म कर डालने की इच्‍छा से प्रज्‍वलित हुई आग भी सब ओर से सिमटकर बुझ जायगी। ‘भारत! यदि कोई ऐसा उत्‍कृष्‍ट तेज है, जिससे देवता युक्‍त हैं तो मुझे भी देवताओं से ही अनुपम तेज प्राप्‍त हुआ है, यह आप अच्‍छी तरह जान लें। 

    ‘राजन! मैं सब लोगों के देखते-देखते विदीर्ण होती हुई पृथ्वी तथा टूटकर गिरते हुए पर्वत शिखरों को भी मन्‍त्रबल से अभिमन्त्रित करके पहले की भाँति स्‍थापित कर सकता हूँ। ‘इस चेतन-अचेतन और स्‍थावर-जंगम जगत के विनाश के लिये प्रकट हुई महान कोलाहलकारी भयंकर शिलावृष्टि अथवा आंधी को भी मैं सदा समस्त प्राणियों पर दया करके सबके देखते-देखते यहीं शांत कर सकता हूँ। ‘मेरे द्वारा स्‍तम्भित किये हुए जल के ऊपर रथ और पैदल सेनाएं चल सकती हैं। एकमात्र मैं ही दैव तथा आसुर शक्तियों को प्रकट करने में समर्थ हूँ। 

    ‘मैं किसी कार्य के उद्देश्‍य से जिन-जिन देशों में अनेक अक्षौहिणी सेनाएं लेकर जाता हूँ, उनमें जहां-जहाँ मेरी इच्‍छा होती है, उन सभी स्‍थानों में मेरे घोड़ा अप्रतिहत गति से विचरते हैं। ‘मेरे राज्‍य में सर्प आदि भयंकर जीव-जंतु नहीं हैं। यदि कोई भयंकर प्राणी हो तो भी वे मेरे मन्‍त्रों द्वारा सुरक्षित जीव-जंतुओं की कभी हिंसा नहीं करते हैं। 

   ‘महाराज! मेरे राज्‍य में रहने वाली प्रजा के लिये बादल प्रचुर जल बरसाता है, सम्‍पूर्ण प्रजा धर्म में तत्‍पर रहती है तथा मेरे राष्‍ट्र में अनावृष्टि और अतिवृष्टि आदि किसी प्रकार का भी उपद्रव नहीं है। ‘जिनसे मैं द्वेष रखता हूँ, उनकी रक्षा का साहस अश्र्विनी कुमार, वायु, अग्नि, मरुद्गणों सहित इन्‍द्र तथा धर्म में भी नहीं है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)

‘यदि ये लोग अनायास ही मेरे शत्रुओं की रक्षा करने में समर्थ होते तो कुंती के पुत्र तेरह वर्षों तक कष्‍ट नहीं भोगते। ‘पिताजी! मैं आपसे यह सत्‍य कहता हूँ कि देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी मेरे शत्रु की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। ‘मैं अपने मित्रों और शत्रुओं दोनों के विषय में शुभ या अशुभ जैसा भी चिंतन करता हूँ, वह पहले कभी निष्‍फल नहीं हुआ है। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले महाराज! मैं जो बात मुंह से कह देता हूँ कि यह इसी प्रकार होगा, मेरा वह कथन पहले कभी भी मिथ्‍या नहीं हुआ है। इसीलिये लोग मुझे सत्‍यवादी मानते हैं। 

   ‘राजन! मेरा यह माहात्‍म्‍य सब लोगों की आंखों के समक्ष है; सम्‍पूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध है। मैंने आपके आश्वासन के लिये ही इसकी यहाँ चर्चा की है, आत्‍मप्रशंसा करने के लिये नहीं। ‘महाराज! आज से पहले मैंने कभी भी आत्‍मप्रशंसा नहीं की है; क्‍योंकि मनुष्‍य जो अपनी प्रशंसा करता है, यह अच्‍छे पुरुषों का कार्य नहीं है। ‘आप किसी दिन सुनेंगे कि मैंने पाण्‍डवों को, मत्‍स्‍यदेश के योद्धाओं को, केकयों सहित पाञ्चालों को तथा सात्‍यकि और वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण को भी जीत लिया है। ‘जैसे नदियां समुद्र में मिलकर सब प्रकार से अपना अस्तित्‍व खो बैठती हैं, उसी प्रकार वे पाण्‍डव आदि योद्धा मेरे पास आने पर अपने कुल-परिवार सहित नष्‍ट हो जायंगे।

    ‘मेरी बुद्धि उत्तम है, तेज उत्‍कृष्‍ट है, बल-पराक्रम महान है, विद्या बड़ी है तथा उद्योग भी सबसे बढ़कर है। ये सारी वस्‍तुएं पाण्‍डवों की अपेक्षा मुझमें अधिक हैं। ‘पितामह भीष्‍म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, शल्‍य तथा शल ये लोग अस्‍त्रविद्या के विषय में जो कुछ जानते हैं, वह सारा ज्ञान मुझमें विद्यमान है।'शत्रुओं का दमन करने वाले जनमेजय! दुर्योधन के ऐसा कहने पर भरतनंदन धृतराष्‍ट्र ने युद्ध की इच्‍छा रखने वाले दुर्योधन के अभिप्राय को समझकर पुन: संजय से समयोचित प्रश्‍न किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यांनसंधिपर्व में दुर्योधनवाक्‍य विषयक इकसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण की आत्‍मप्रशंसा, भीष्‍म के द्वारा उस पर आक्षेप, कर्ण का सभा त्‍यागकर जाना और भीष्‍म का उसके प्रति पुन: आक्षेपयुक्‍त वचन कहना”

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विचित्रवीर्य-नंदन धृतराष्‍ट्र को पहले की ही भाँति कुंतीकुमार अर्जुन के विषय में बारंबार प्रश्‍न करते देख उनकी कोई परवा न करके कर्ण ने कौरव-सभा में दुर्योधन को हर्षित करते हुए कहा-

   कर्ण बोला ;- ‘राजन! मैंने पूर्वकाल में झूठे ही अपने को ब्राह्मण बताकर परशुराम जी से जब ब्रह्मास्त्र की शिक्षा प्राप्‍त कर ली, तब उन्‍होंने मेरा यथार्थ परिचय जानकर मुझसे इस प्रकार कहा,

   परशुराम जी ने कहा ;- ‘कर्ण-अंत समय आने पर तुम्‍हें इस ब्रह्मास्त्र का स्‍मरण नहीं रहेगा। 

   ‘यद्यपि मेरे द्वारा उन महर्षि का महान अपराध हुआ था, तथापि उन गुरुदेव ने जो मुझे शाप नहीं दिया, यह उनका मेरे ऊपर बहुत बड़ा अनुग्रह है। अन्‍यथा वे प्रचण्‍ड तेजस्‍वी महामुनि समुद्र सहित सारी पृथ्वी को भी दग्‍ध कर सकते हैं। ‘मैंने अपने पुरुषार्थ तथा सेवा-शुश्रूषा से उनके मन को प्रसन्‍न कर लिया था। वह ब्रह्मास्त्र अब भी मेरे पास है। मेरी आयु भी अभी शेष है; अत: मैं पाण्‍डवों को जीतने में समर्थ हूँ। यह सारा भार मुझ पर छोड़ दिया जाय।

    ‘महर्षि परशुराम का कृपा प्रसाद पाकर मैं पलक मारते-मारते पाञ्चाल, करूष तथा कत्‍स्‍यदेशीय योद्धाओं और कुंतीकुमारों को पुत्र-पोत्रों सहित मारकर शस्‍त्र द्वारा जीते हुए पुण्‍य-लोकों में जाऊंगा। ‘पितामह भीष्‍म आपके ही पास रहें, आचार्य द्रोण तथा समस्‍त मुख्‍य-मुख्‍य भूपाल भी आपके ही समीप रहें। मैं अपनी प्रधान सेना के साथ जाकर अकेले ही सब कुंतीकमारों को मार डालुंगा। इसका सारा भार मुझ पर रहा’। कर्ण को ऐसी बातें करते देख भीष्‍मजी ने उससे कहा-‘कर्ण! क्‍यों अपनी वीरता की डींग हाक रहा है? जान पड़ता है, काल ने तेरी बुद्धि को ग्रस लिया है। क्‍या तू नहीं जानता कि युद्ध में तुझ प्रधान वीर के मारे जाने पर सारे धृतराष्‍ट्र पुत्र ही मृत प्राय हो जायंगे।

    ‘श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन ने खाण्‍डववन का दाह करते समय जो पराक्रम किया था, उसे सुनकर ही बान्‍धवों सहित तुझे अपने मन पर काबू रखना उचित था। ‘देवेश्वर महात्‍मा भगवान महेन्‍द्र ने तुझे जो शक्ति प्रदान की है, वह भगवान केशव के चलाये हुए चक्र से आहत हो समरभूमि में छिन्‍न-भिन्‍न एवं दग्‍ध हो जायेगी। इसे तू अपनी आंखों से देख लेगा। ‘तेरे पास जो सर्प-मुख बाण प्रकाशित होता है और तू प्रयत्‍नपूर्वक सदा ही पुष्‍पमाला आदि श्रेष्‍ठ उपचारों द्वारा जिसकी पूजा किया करता है, वह पाण्‍डुपुत्र अर्जुन के बाण-समूहों से छिन्‍न-भिन्‍न होकर तेरे साथ ही नष्‍ट हो जायगा। 

   ‘कर्ण! बाणासुर और भौमासुर का वध करने वाले वे वसुदेवनंदन भगवान श्रीकृष्‍ण किरीटधारी अर्जुन की रक्षा करते हैं, जो तेरे-जैसे तथा तुझसे भी प्रबल शत्रुओं का भयंकर संग्राम में विनाश कर सकते हैं।' 

कर्ण बोला ;- इसमें संदेह नहीं कि वृष्णि कुल के स्‍वामी महात्‍मा


श्रीकृष्‍ण का जैसा प्रभाव बताया गया है, वे वैसे ही हैं। बल्कि उससे भी बढ़कर हैं।परंतु मेरे प्रति जो किंचित कटुवचन का प्रयोग किया गया है; उसका परिणाम क्‍या होगा? यह पितामह भीष्‍म मुझसे सुने लें। 




(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 13-18 का हिन्दी अनुवाद)

   मैं अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र रख देता हूँ। अब कभी पितामह मुझे इस सभा में अथवा युद्धभूमि में नहीं देखेंगे। भीष्‍म! आपके शांत हो जाने पर ही समस्‍त भूपाल रणभूमि में मेरा प्रभाव देखेंगे। 

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर महाधनुर्धर कर्ण सभा त्‍यगकर अपने घर चला गया। उस समय भीष्‍म ने कौरव सभा में उसकी हंसी उड़ाते हुए दुर्योधन से कहा- 

   भीष्म बोले ;- ‘सूतपुत्र कर्ण कैसा सत्‍यप्रतिज्ञ निकला पहले पाण्‍डवों को जीतने की प्रतिज्ञा करके अब युद्ध से मुंह मोड़कर भाग गया, भला वैसा महान भार वह कैसे संभाल सकता था? अब तुम लोग पाण्‍डव सेना के व्‍यूह का सामना करने के लिये अपनी सेना का भी व्‍यूह बनाकर युद्ध करो और परस्‍पर एक दूसरे के मस्‍तक काटकर भीमसेन के हाथों सारे संसार का संहार देखो। 

कर्ण कहता था- अवन्‍तीनरेश, कलिंगराज, जयद्रथ, चेदिश्रेष्‍ठ वीर तथा बाह्लिक के रहते हुए भी मैं सदा अकेला ही शत्रुओं के सहस्‍त्र-सहस्‍त्र एंव अयुत-अयुत योद्धओं का संहार कर डालूंगा।

    ‘जिस समय अनिंदनीय भगवान परशुराम जी के समीप कर्ण ने अपने को ब्राह्मण बताकर ब्रह्मास्त्र की शिक्षा ली, उसी समय उस नराधम सूतपुत्र के धर्म और तप का नाश हो गया’। जनमेजय! जब भीष्‍म जी ने ऐसी बात कही और कर्ण हथियार फेंककर चला गया, उस समय मन्‍दबुद्धि धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन ने शांतनुनंदन भीष्‍म से इस प्रकार कहा। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसधिपर्व में कर्ण और भीष्‍म के वचन विषयक बासठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

तिरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन करना और विदुर का दम की महिमा बताना”

  दुर्योधन बोला ;- पितामह! मनुष्‍यों में हम और पाण्‍डव शिक्षा की दृष्टि से समान हैं, हमारा जन्‍म भी एक ही कुल में हुआ है; फिर आप यह कैसे मानते हैं कि युद्ध में एकमात्र कुंतीकुमारों की ही विजय होगी। बल, पराक्रम, समवयस्‍कता, प्रतिभा और शास्‍त्रज्ञान इन सभी दृष्टियों से हम लोग और पाण्‍डव समान ही हैं। अस्‍त्र-बल, योद्धओं के संग्रह, हाथों की फुर्ती तथा युद्ध-कौशल में भी हम और वे एक-से ही हैं, सभी समान जाति के हैं और सबके सब मनुष्‍य योनि में ही उत्‍पन्‍न हुए हैं। 

 


  दादाजी! ऐसी दशा में भी आप कैसे जानते हैं कि विजय कुंतीपुत्रों की ही होगी। मैं आप, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, बाह्लिक तथा अन्‍य राजाओं के पराक्रम का भरोसा करके युद्ध का आरम्‍भ नहीं कर रहा हूँ। मैं विकर्तन पुत्र कर्ण तथा मेरा भाई दु:शासन हम तीन ही मिलकर युद्धभूमि में पांचों पाण्‍डवों को तीक्ष्‍ण बाणों से मार डालेंगे। 

   राजन! तदनंतर पर्याप्‍त दक्षिण वाले महायज्ञों का अनुष्‍ठान करके गायें, घाड़े और धन दान में लेकर ब्राह्मणों को तृप्‍त करूंगा। जैसे व्‍याध हरिण के बच्‍चों को जाल या फंदे में फंसाकर खींचते हैं और जैसे जल का प्रवाह कर्ण्धार रहित नौका-रोहियों को भंवर में डुबो देता है, उसी प्रकार जब मेरे सैनिक अपने बाहुबल से पाण्‍डवों को पीड़ित करेंगे, उस समय रथ और हाथी सवारों से भरी हुई मेरी विशाल वाहिनी की ओर देखते हुए वे पाण्‍डव और वह श्रीकृष्‍ण सब अपना अहंकार त्‍याग देंगे। 

   विदुर ने कहा ;- सिद्वांत के जानने वाले वृद्ध पुरुष कहते हैं कि संसार में दम ही कल्‍याण का परम साधन है। ब्राह्मण के लिये तो विशेषरूप से है। वही सनातन धर्म है। जो दम रूपी गुण से युक्‍त है, उसी को दान, क्षमा और सिद्धि का यथार्थ लाभ प्राप्‍त होता है; क्‍योंकि दम ही दान, तपस्या, ज्ञान और स्‍वाध्‍याय का सम्‍पादन करता है।

   दम तेज की वृद्धि करता है। दम पवित्र एवं उत्‍तम साधन है। दम से निष्‍पाप एवं बढ़े हुए तेज से सम्‍पन्‍न पुरुष परब्रह्म परमात्मा को प्राप्‍त कर लेता है। जैसे मांसभोजी हिंसक पशुओं से सब जीव डरते रहते हैं, उसी प्रकार अदांत पुरुषों से सभी प्राणियों को सदा भय बना रहता है, जिनको हिंसा आदि दुष्‍कर्मों से रोकने के लिये ब्रह्माजी ने क्षत्रिय जाति की सृष्टि की है। 

   चारों आश्रमों में दम को ही उत्‍तम व्रत बताया गया है। यह दम जिन पुरुषों के अभ्‍यास में आकर उनके अभ्‍युदय का कारण बन जाता है, उनमें प्रकट होने वाले चिह्नों का मैं वर्णन करता हूँ। राजेन्‍द्र! जिस पुरुष में क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समदर्शिता, सत्‍य, सरलता, इन्द्रियसंयम, धीरता, मृदुता, लज्‍जा, स्थिरता, उदारता, अक्रोध, संतोष और श्रद्धा-ये गुण विद्यमान हैं, वह पुरुष दांत माना गया है। दमनशील पुरुष काम, लोभ, अभिमान, क्रोध, निद्रा, आत्‍मप्रशंसा, मान, ईर्ष्‍या तथा शोक-इन दुर्गुणों को अपने पास नहीं फटकने देता। कुटिलता और शठता का अभाव तथा आत्‍मशुद्धि यह दमयुक्‍त पुरुष का लक्षण है। 

   जो निर्लोभ, कम से कम चाहने वाला, भोगों के चिंतन से दूर रहने वाला तथा समुद्र के समान गम्‍भीर है, उस पुरुष को दांत कहा गया है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 18-24 का हिन्दी अनुवाद)

   जो सदाचारी, शीलवान, प्रसन्‍नचित्त तथा आत्‍म्‍ज्ञानी विद्वान है वह इस जगत में सम्‍मान पाकर मृत्‍यु के पश्चात उत्तम गति का भागी होता है। जिसे समस्‍त प्राणियों से निर्भयता प्राप्‍त हो गयी हो तथा जिससे सभी प्राणियों का भय दूर हो गया हो, वह परिपक्‍व बुद्धिवाला पुरुष मनुष्‍यों में श्रेष्‍ठ कहा गया है। जो सम्‍पूर्ण भूतों का हित चाहने वाला और सबके प्रति मेत्रीभाव रखने वाला है, उससे किसी भी पुरुष को उद्वेग नहीं प्राप्‍त होता है। जो समुद्र के समान गम्‍भीर एवं उत्‍कृष्‍ट ज्ञानरूपी अमृत से तृप्‍त है, वही परम शांति का भागी होता है।

    जो कर्तव्‍य कर्मो द्वारा आचरित है तथा पहले साधु पुरुषों के द्वारा जिसका आचरण किया गया है, उसे अपनाकर शमदम से सम्‍पन्‍न पुरुष सदा आनन्‍दमग्‍न रहते हैं। अथवा जो ज्ञान से तृप्‍त जितेन्द्रिय पुरुष नैष्‍कर्म्‍य का आश्रय लेकर काल की प्रतीक्षा करता हुआ अनासक्‍त भाव से लोक में विचरता रहता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्‍त होने में समर्थ होता है। जैसे आकाश में पक्षियों के चरणचिन्‍ह दिखायी नहीं देते हैं, वैसे ही ज्ञानानंद से तृप्‍त मुनि का मार्ग दृष्टिगोचर नहीं होता है अर्थात समझ में नहीं आता है।

   जो गृहस्‍थाश्रम को त्‍यागकर मोक्ष को ही आदर देता है, उसके लिये द्युलोक में तेजोमय सनातन स्‍थान की प्राप्ति होती है। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसंधिपर्वमें विदुरवाक्‍यसंबंधी तिरसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुर का कौटुम्बिक कलह से हानि बताते हुए धृतराष्‍ट्र को संधि की सलाह देना”

   विदुर जी कहते हैं ;-  तात! हमने पूर्वपुरुषों के मुख से सुन रखा है कि किसी समय एक चिड़ीमार ने चिड़ियों को फंसाने के लिये पृथ्वी पर एक जाल फैलाया। उस जाल में दो ऐसे पक्षी फंस गये, जो सदा साथ-साथ उड़ने और विचरने वाले थे। वे दोनों पक्षी उस समय उस जाल को लेकर आकाश में उड़ चले। चिड़ीमार उन दोनों को आकाश में उड़ते देखकर भी खिन्‍न या हताश नहीं हुआ। वे जिधर-जिधर गये, उधर-उधर ही वह उनके पीछे दौड़ता रहा। उन दिनों उस वन में कोई मुनि रहते थे, जो उस समय संध्‍या-वंदन आदि नित्‍यकर्म करके आश्रम में ही बैठै हुए थे। उन्‍होंने पक्षियों को पकड़ने के लिये उनका पीछा करते हुए उस व्‍याध को देखा।

कुरुनंदन! उन आकाशचारी पक्षियों के पीछे-पीछे भूमि पर पैदल दोड़ने वाले उस व्‍याध से मुनि ने निम्‍नाकिंत श्लोक के अनुसार प्रश्‍न किया-

   मुनि बोले ;- ‘अरे व्‍याध! मुझे यह बात बड़ी विचित्र और आश्चर्य-जनक जान पड़ती है कि तू आकाश में उड़ते हुए इन दोनों पक्षियों के पीछे पृथ्‍वी पर पैदल दोड़ रहा है’। 

    व्‍याध बोला ;- मुने! ये दोनों पक्षी आपस में मिल गये हैं, अत: मेरे एकमात्र जाल को लिये जा रहे हैं। अब ये जहां-कहीं एक दूसरे से झगड़ेंगे, वहीं मेरे वश में आ जायंगे।

   विदुर जी कहते हैं ;- राजन! तदनंतर कुछ ही देर में काल के वशीभूत हुए वे दोनों दुर्बुद्धि पक्षी आपस में झगड़ने लगे और लड़ते-


लड़ते पृथ्वी पर गिर पड़े। जब मौत के फंदे में फंसे हुए वे पक्षी अत्‍यंत कुपित होकर एक दूसरे से लड़ रहे थे, उसी समय व्‍याध ने चुपचाप उनके पास आकर उन दोनों को पकड़ लिया। इसी प्रकार जो कुटम्‍बीजन धन-सम्‍पत्ति के लिये आपस में कलह करते हैं, वे युद्ध करके उन्‍हीं दोनों पक्षियों की भाँति शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं। 

   साथ बैठकर भोजन करना, आपस में प्रेम से वार्तालाप करना, एक दूसरे के सुख-दु:ख को पूछना और सदा मिलते-जुलते रहना ये ही भाई-बंधुओं के काम हैं, परस्‍पर विरोध करना कदापि उचित नहीं है। जो शुद्ध हृदय वाले मनुष्‍य समय-समय पर बड़े-बूढो़ं की सेवा एवं संग करते रहते हैं, वे सिंह से सुरक्षित वन के समान दूसरों के लिये दुर्धर्ष हो जाते हैं, शत्रु उनके पास आने का साहस नहीं करते हैं।

    भरतश्रेष्‍ठ! जो धन को पाकर भी सदा दीनों के समान तृष्‍णा से पीड़ित रहते हैं, वे आपस में कलह करके अपनी सम्‍पत्ति शत्रुओं को दे डालते हैं। भरतकुलभूषण धृतराष्‍ट्र! जैसे जलते हुए काष्‍ठ अलग-अलग कर दिये जाने पर जल नहीं पाते, केवल धूआं देते हैं और परस्‍पर मिल जाने पर प्रज्‍वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार कुटम्‍बीजन आपसी फूट के कारण अलग-अलग रहने पर अशक्‍त हो जाते हैं तथा परस्‍पर संगठित होने पर बलवान एवं तेजस्‍वी होते हैं। कौरवनंदन! पूर्वकाल में किसी पर्वत पर मैंने जैसा देखा था, उसके अनुसार यह एक दूसरी बात बता रहा हूँ। इसे भी सुनकर आपको जिसमें अपनी भलाई जान पड़े, वही कीजिये। एक समय की बात है, हम बहुत-से भीलों और देवोपम ब्राह्मणों के साथ उत्‍तर दिशा में गन्‍धमादन पर्वत पर गये थे। हमारे साथ जो ब्राह्मण थे, उन्‍हें मन्‍त्र-यन्‍त्रादि रूप विद्या और औषधियों के साधन आदि की बातें बहुत प्रिय थीं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतु:षष्टितम अध्याय के श्लोक 17-27 का हिन्दी अनुवाद)

    समस्‍त गन्‍धमादन पर्वत सब ओर से कुञ्च-सा जान पड़ता था। वहाँ दिव्‍य ओषाधियां प्रकाशित हो रही थीं। सिद्ध और गन्‍धर्व उस पर्वत पर निवास करते थे। वहाँ हम सब लोगों ने देखा, पर्वत की एक दुर्गम गुफा में जहाँ से कोई कूल-किनारा न होने के कारण गिरने की ही अधि‍क सम्‍भावना रहती है, एक मधुकोष है। वह मक्खियों का तैयार किया हुआ नहीं था। उसका रंग सुवर्ण के समान पीला था और वह देखने में घड़े के समान जान पड़ता था। 

   भयंकर विषधर सर्प उस मधु की रक्षा करते थे। कुबेर को वह मधु अत्‍यंत प्रिय था। हमारे साथी औषध-साधक ब्राह्मण लोग यह बता रहे थे कि इस मधु को पाकर मरणधर्मा मनुष्‍य भी अमरत्‍व प्राप्‍त कर लेता है। इसको पीने से अंधे को दृष्टि मिल जाती है और बूढ़ा भी जवान हो जाता है। महाराज! उस समय उस मधु का अद्भुत गुण सुनकर और उसे प्रत्‍यक्ष देखकर भीलों ने उसे पाने की चेष्‍टा की; परंतु सर्पों से भरी हुई उस दुर्गम पर्वतगुहा में जाकर वे सब-के सब नष्‍ट हो गये। 

    इसी प्रकार आपका यह दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वी का राज्‍य भोगना चाहता है। यह मोहवश केवल मधु को ही देखता है, भावी पतन या विनाश की ओर इसकी दृष्टि नहीं जाती है। दुर्योधन समरभूमि में सव्यसाची अर्जुन के साथ युद्ध करने की बात सोचता है, परंतु मैं इसके भीतर अर्जुन के समान तेज या परा‍क्रम नहीं देखता।

    जिस वीर ने अकेले ही रथपर बैठकर सारी पृथ्‍वी पर विजय पायी है, विराटनगर पर चढ़ाई करने गये हुए भीष्‍म और द्रोण जैसे महान योद्धाओं को भी जिसने भयभीत करके भगा दिया है, उसके सामने आपका पुत्र क्‍या पराक्रम कर सकता है? यह आप ही देखिये। आज भी वह वीर आपकी मेत्रीपूर्ण दृष्टि की प्रतीक्षा कर रहा है और आपकी आज्ञा से वह कौरवों का सारा अपराध क्षमा कर सकता है। 

   राजा द्रुपद, सत्‍स्‍यनरेश विराट और क्रोध में भरा हुआ अर्जुन ये तीनों वायु का सहारा पाकर प्रज्‍वलित हुई त्रिविध अग्नियों के समान जब युद्ध भूमि में आक्रमण करेंगे, तब‍ किसी को जीता नहीं छोड़ेंगे।महाराज धृतराष्‍ट्र! आप राजा युधिष्ठिर को अपनी गोद में बैठा लीजिये; क्‍योंकि जब दोनों पक्षों में युद्ध छिड़ जायगा, तब विजय किसकी होगी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसंधिपर्व में विदुरवाक्‍यविषयक चौसठवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र का दुर्योधन को समझना”

   धृतराष्‍ट्र बोले ;- बेटा दुर्योधन! मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उस पर ध्‍यान दो। तुम इस समय अनजान बटोही के समान कुमार्ग को भी सुमार्ग समझ रहे हो। यही कारण है कि तुम सम्‍पूर्ण लोकों के आधारस्‍वरूप पांच महाभूतों के पांचों पाण्‍डवों के तेज का अपहरण करने की इच्‍छा कर रहे हो। कुंतीनंदन युधिष्ठिर यहाँ उत्तम धर्म का आश्रय लेकर रहते हैं। तुम मृत्यु को प्राप्‍त हुए बिना उन्‍हें जीत लोगे, यह कदापि सम्‍भव नहीं है। जैसे वृक्ष प्रचण्‍ड आंधी को डांट बतावे, उसी प्रकार तुम समरांगण में काल के समान विचरने वाले कुंतीकुमार भीमसेन को जिसके समान बलवान इस भूतल पर दूसरा कोई नहीं है, डराने धमकाने का साहस करते हो।

    जैसे पर्वत में मेरु श्रेष्‍ठ है, उसी प्रकार समस्‍त शस्‍त्रधारियों में गाण्‍डीवधारी अर्जुन श्रेष्‍ठ है। भला कौन बुद्धिमान मनुष्‍य रणभूमि में उसके साथ जूझने का साहस करेगा? जैसे देवराज इन्‍द्र वज्र छोड़ते हैं, उसी प्रकार पांचाल-राजकुमार धृष्टद्युम्न शत्रुओं की सेनापर बाणों की वर्षा करता है। वह अब किसे छिन्‍न-भिन्‍न नहीं कर डालेगा? 

   अंधक और वृष्णिवंश का सम्‍माननीय योद्धा सात्‍यकि भी दुर्धर्ष वीर है। वह सदा पाण्‍डवों के हित में तत्‍पर रहता है। युद्ध छिड़ने पर वह तुम्‍हारी समस्‍त सेना का संहार कर डालेगा। जो तुलना में तीनों लोगों से भी बढ़कर हैं, उन कमलनयन भगवान श्रीकृष्‍ण के साथ कौन समझदार मनुष्‍य युद्ध करेगा ? श्रीकृष्‍ण के लिये एक ओर स्‍त्री, कुटुम्‍बीजन, भाई-बंधु, अपना शरीर और यह सारा भूमण्‍डल है, तो दूसरी ओर अकेला अर्जुन है अर्थात वे अर्जुन के लिये इन सबका त्‍याग कर सकते हैं।

    जहाँ अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला दुर्धर्ष वीर पाण्‍डुपुत्र अर्जुन है, वही वसुदेवनंदन श्रीकृष्‍ण भी रहते हैं और जिस सेना में साक्षात श्रीकृष्‍ण विराज रहे हों, उसका वेग समस्‍त भूमण्‍डल के लिये भी असह्य हो जाता है। तात! तुम सत्‍पुरुषों तथा तुम्‍हारे हित की बात बताने वाले सुहृदों के कथनानुसार कार्य करो। वृद्ध शांतनुनंदन भीष्‍म तुम्‍हारे पितामह हैं। तुम उनकी प्रत्‍येक बात सहन करो। मैं भी कौरवों के हित की ही बात सोचता हूँ; अत: मेरी भी सुनो। आचार्यद्रोण, कृप, विकर्ण और महाराज बाह्लीक ये भी तुम्‍हारे हितैषी ही है; अत: तुम्‍हें मेरे ही समान इनका भी समादर करना चाहिये। भरतनंदन! ये सब लोग धर्म के ज्ञाता हैं और दोनों पक्ष के लोगों पर समानभाव से स्‍नेह रखते हैं। 

    विराटनगर में तुम्‍हारे भाइयों सहित जो सारी सेना युद्ध के लिये गयी थी, वह वहाँ की समस्‍त गौओं को छोड़कर अत्‍यंत भयभीत हो तुम्‍हारे सामने ही भाग खड़ी हुई थी। उस नगर में जो एक अर्जुन का बहुतों के साथ अत्‍यंत अद्भुत युद्ध हुआ सुना जाता है; वह एक ही दृष्‍टांत पर्याप्‍त है। देखो, जब अकेले अर्जुन ने इतना अद्भुत कार्य कर डाला, तब वे सब भाई मिलकर क्‍या नहीं कर सकते? अत: तुम पाण्‍डवों को अपना भाई ही समझो और उनकी वृत्ति (स्‍वत्‍व) उन्‍हें देकर उनके साथ भ्रातृत्‍व बढ़ाओ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत यानसंधिपर्व में धृतराष्‍ट्रवाक्‍यविषयक पैंसइवा अध्‍याय पूरा हुआ)

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