सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the 36 chapter to the 40 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“दत्तात्रेय और साध्‍य देवताओं के संवाद का उल्‍लेख करके महाकुलीन लोगों का लक्षण बतलाते हुए विदुर का धृरातष्‍ट्र को समझाना”

    विदुरजी कहते हैं ;- राजन! इस विषय में लोग दत्तात्रेय और साध्‍य देवताओं के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं; यह मेरा भी सुना हुआ है। प्राचीन काल की बात है, उत्तम व्रत वाले महाबुद्धिमान महर्षि दत्तात्रेयजी हंस (परमहंस) रूप से विचर कर रहे थे; उस समय साध्‍य देवताओं ने उनसे पूछा। 

    साध्‍य बोले ;- महर्षे! हम सब लोग साध्‍य देवता हैं, केवल आपको


देखकर हम आपके विषय में कुछ अनुमान नहीं कर सकते। हमें तो आप शास्‍त्रज्ञान से युक्‍त, धीर एवं बुद्धिमान जान पड़ते हैं; अत: हम लोगों को अपनी विद्वत्तापूर्ण उदार वाणी सुनाने की कृपा करें।

  परमहंस ने कहा ;- साध्‍यदेवताओ! मैंने सुना है कि धैर्य-धारण, मनोनिग्रह तथा सत्‍य-धर्मों का पालन ही कर्तव्‍य है; इसके द्वारा पुरुष को चाहिये कि हृदय की सारी गांठ खोलकर प्रिय और अप्रिय को अपने आत्‍मा के समान समझे। दूसरों से गाली सुनकर भी स्‍वयं उन्‍हें गाली न दे। सहन करने वाले का रोका हुआ क्रोध ही गाली देने वाले को जला डालता है और उसके पुण्‍य को भी ले लेता है।

     दूसरों को न तो गाली दे और न उनका अपमान करे, मित्रों से द्रोह तथा नीच पुरुषों की सेवा न करे, सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो, रूखी तथा रोषभरी वाणी का परित्‍याग करे। इस जगत में रूखी बातें मनुष्‍यों के मर्मस्‍थान, हड्डी, हृदय तथा प्राणों को दग्‍ध करती रहती हैं; इसलिये धर्मानुरागी पुरुष जलाने वाली रूखी बातों का सदा के लिये परित्‍याग कर दे।

     जिसकी वाणी रूखी और स्‍वभाव कठोर है, जो मर्मस्‍थान पर आघात करता है और वाग्‍बाणों से मनुष्‍यों को पीड़ा पहुँचाता हैं, उसे ऐसा समझना चाहिये कि वह मनुष्‍यों में महादरिद्र है और वह अपने मुख से दरिद्रता अथवा मौत को बांधे हुए ढो रहा है। यदि दूसरा कोई इस मनुष्‍य को अग्नि और सूर्य के समान दग्‍ध करने वाले अत्‍यंत तीखे वाग्‍बाणों से बहुत चोट पहुँचावे तो वह विद्वान पुरुष चोट खाकर अत्‍यंत वेदना सहते हुए भी ऐसा समझे कि वह मेरे पुण्‍यों को पुष्‍ट कर रहा है। जैसे वस्‍त्र जिस रंग में रंगा जाय,वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्‍जन, असज्‍जन, तपस्‍वी अथवा चोर की सेवा करता है तो वह उन्‍हीं के वश में हो जाता है। उस पर उन्‍हीं का रंग चढ़ जाता है। 

    जो स्‍वयं किसी के प्रति बुरी बात नहीं कहता, दूसरों से भी नहीं कहलाता, बिना मार खाये स्‍वयं न तो किसी को मारता है और न दूसरों से ही मरवाता है, मार खाकर भी अपराधी को जो मारना नहीं चाहता, देवता भी उसके आगमन की बाट जोहते रहते हैं।

बोलने से न बोलना ही अच्‍छा बताया गया है, सत्‍य बोलना वाणी की दूसरी विशेषता है यानि मौन की अपेक्षा भी अधिक लाभपद्र है। (सत्‍य और) प्रिय बोलना वाणी की तीसरी विशेषता है। यदि सत्‍य और प्रिय के साथ ही धर्म-सम्‍मत भी कहा जाय, तो वह वचन की चौथी विशेषता है। मनुष्‍य जैसे लोगों के साथ रहता है, जैसे लोगों की सेवा करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही हो जाता है। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद)

    मनुष्‍य जिन-जिन विषयों से मन को हटाता जाता है, उन-उन से उसकी मुक्ति होती जाती है; इस प्रकार यदि सब ओर से निवृत्ति हो जाय तो उसे लेशमात्र दु:ख का भी कभी अनुभव नहीं होता। जो न तो स्‍वयं किसी से जीता जाता, न दूसरों को जीतने की इच्‍छा करता है, न किसी के साथ वेर करता और न दूसरों को चोट पहुँचाना चा‍हता है, जो निंदा और प्रशंसा में समान भाव रखता है, वह हर्ष-शोक से परे हो जाता है। जो सबका कल्‍याण चाहता है, किसी के अकल्‍याण की बात मन में भी नहीं लाता, जो सत्‍यवादी, कोमल ओर जितेन्द्रिय है, वह उत्तम पुरुष माना गया है।

    जो झूठी सान्‍त्‍वना नहीं देता, देने की प्रतिज्ञा करके दे ही देता है, दूसरों के दोषों को जानता है, वह मध्‍यम श्रेणी का पुरुष है।

    जिसका शासन अत्‍यंत कठोर हो, जो अनेक दोषों से दूषित हो, कलंकित हो, जो क्रोधवश किसी की बुराई करने से नहीं हटता हो, दूसरों के किये हुए उपकार को नहीं मानता हो, जिसकी किसी के साथ मित्रता नहीं हो तथा जो दुरात्‍मा हो- ये अधम पुरुष के भेद हैं। जो अपने ही ऊपर संदेह होने के कारण दूसरों से भी कल्‍याण होने का विश्‍वास नहीं करता,मित्रों को भी दूर रखता है, वह अवश्‍य ही अधम पुरुष है।

   जो अपनी ऐश्वर्य वृद्धि चाहता है, वह उत्तम पुरुषों की ही सेवा करे, समय आ पड़ने पर मध्‍यम पुरुषों की भी सेवा कर ले, परंतु अधम पुरुषों की सेवा कदापि न करे। मनुष्‍य दुष्ट पुरुषों के बल से, निरन्तर के उद्योग से, बुद्धि से तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप्त कर ले; परंतु इससे उत्तम कुलीन पुरुषों के सम्मान और सदाचार को वह पूर्णरूप से कदापि नहीं प्राप्त कर सकता।

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! धर्म और अ‍र्थ के अनुष्‍ठान में परायण एवं बहुश्रुत देवता भी उत्तम कुल में उत्पन्न पूरुषों की इच्छा करते हैं। इसि‍लये मैं तुमसे यह प्रश्‍न करता हूँ कि महान (उत्तम) कुलीन कौन हैं? 

   विदुरजी बोले ;- राजन! जिनमें तप, इन्द्रिय संयम, वेदों का स्वाध्‍याय, यज्ञ, पवित्र विवाह, सदा अन्नदान और सदाचार- ये सात गुण वर्तमान हैं, उन्हें महान (उत्तम) कुलीन कहते हैं। जिनका सदाचार शिथिल नहीं होता, जो अपने दोषों से माता-पिता को कष्‍ट नहीं पहुँचाते, प्रसन्न चित्त से धर्म का आचरण करते हैं त‍था असत्य का परित्याग कर अपने कुल की विशेष कीर्ति चाहते हैं, वे ही महान कुलीन हैं। यज्ञ न होने से, निन्दित कुल में विवाह करने से, वेद का त्याग और धर्म का उल्लघंन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं।

    देवताओं के धन का नाश, ब्राह्मण के धन का अपहरण और ब्राह्मणों की मर्यादा का उल्लघंन करने से उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। भारत! ब्राह्मणों के अनादर और निन्दा से तथा धरोहर रखी हुई वस्तु को छिपा लेने से अच्छे कुल भी निन्दनीय हो जाते हैं। गौओं, मनुष्‍यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुलों की गणना में नहीं आ सकते। थोडे़ धन वाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न हैं तो वे अच्छे कुलों की गणना में आ जाते हैं और महान यश प्राप्त करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद)

     सदाचार की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिये; धन तो आता और जाता रहता है। धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्‍य क्षीण नहीं माना जाता; किंतु जो सदाचार से भ्रष्‍ट हो गया, उसे तो नष्‍ट ही समझना चाहिये। जो कुल सदाचार से हीन हैं, गौओं, पशुओं, घोड़ों तथा हरी-भरी खेती से सम्पन्न होने पर भी उन्नति नहीं कर पाते। 

      हमारे कुल में कोई वैर करने वाला न हो, दूसरों के धन का अपहरण करने वाला राजा अथवा मन्त्री न हो और मित्र द्रोही, कपटी तथा असत्यवादी न हो। इसी प्रकार माता-पिता, देवता और अतिथियों को भोजन कराने से पहले भोजन करने-वाला भी न हो। हम लोगों में से जो ब्राह्मणों की हत्या करे, ब्राह्मणों के साथ द्वेष करे तथा पितरों को पिण्‍डदान एवं तर्पण न करे, वह हमारी सभा में प्रवेश न करें। 

    तृण का आसन, पृथ्वी, जल और चौथी मीठी वाणी- सज्जनों के घर में इन चार चीजों की कभी कमी नहीं होती। महाप्राज्ञ राजन! पुण्‍यकर्म करने वाले धर्मात्मा पुरुषों के यहाँ ये बड़ी श्रद्धा के साथ सत्कार के लिये उपस्थित की जाती हैं।  नृपवर! रथ छोटा-सा होने पर भी भार ढो सकता है, किंतु दूसरे काठ बड़े-बड़े होने पर भी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार उत्तम कुल में उत्पन्न उत्साही पुरुष भार सह सकते हैं, दूसरे मनुष्‍य वैसे नहीं होते। 

   जिसके कोप से भयभीत होना पड़े तथा शंकित होकर जिसकी सेवा की जाय, वह मित्र नहीं है। मित्र तो वही है, जिस पर पिता की भाँति विश्‍वास किया जा सके; दूसरे तो साथी मात्र हैं। पहले से कोई सम्बन्ध न होने पर भी जो मित्रता का बर्ताव करे, वही बन्धु, वही मित्र, वही सहारा और वही आश्रय है।

    जिसका चित्त चंचल है, जो वृद्धों की सेवा नहीं करता, उस अनिश्चितमति पुरुष के लिये मित्रों का संग्रह स्थायी नहीं होता। जैसे सूखे सरोवर के ऊपर ही हंस मंड़राकर रह जाते हैं, उसके भीतर नहीं प्रवेश करते, उसी प्रकार जिसका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी और इन्द्रियों का गुलाम है, अर्थ उसको त्याग देते हैं ।

    दुष्‍ट पुरुषों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है, वे सहसा क्रोध कर बैठते हैं और अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं। जो मित्रों से सत्कार पाकर और उनकी सहायता से कृतकार्य होकर भी उनके नहीं होते, ऐसे कृतघ्‍नों के मरने पर उनका मांस मांसभोजी जन्तु भी नहीं खाते। धन हो या न हो, मित्रों से कुछ भी न मांगते हुए उनका सत्कार तो करे ही। मित्रों के सार-असार की परीक्षा न करे। 

   संताप से रूप नष्‍ट होता है, संताप से बल नष्‍ट होता है, संताप से ज्ञान नष्‍ट होता है और संताप से मनुष्‍य रोग को प्राप्त होता है। अभीष्‍ट वस्तु शोक करने से नहीं मिलती; उससे तो केवल शरीर संतप्त होता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। इसलिये आप मन में शोक न करें।  मनुष्‍य बार-बार मरता और जन्म लेता है,बार-बार क्षय और वृद्धि को प्राप्त होता है, बार-बार स्वयं दूसरे से याचना करता है और दूसरे उससे याचना करते हैं तथा बारंबार वह दूसरों के लिये शोक करता है और दूसरे उसके लिये शोक करते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 47-63 का हिन्दी अनुवाद)

    सुख-दु:ख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन-मरण- ये क्रमश: सबको प्राप्त होते हैं; इसलिये धीर पुरुष को इनके लिये हर्ष और शोक नहीं करना चाहिये। ये छ: इन्द्रियां बहुत ही चंचल हैं; इनमें से जो-जो इन्द्रिय जिस-जिस विषय की ओर बढ़ती है, वहाँ-वहाँ बुद्धि उसी प्रकार क्षीण होती है, जैसे फूटे घड़े से पानी सदा चू जाता है।

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! सूक्ष्‍म धर्म से बंधे हुए, शिखा से सुशोभित होने वाले राजा युधिष्ठिर के साथ मैंने मिथ्‍या व्यवहार किया है; अत: वे युद्ध करके मेरे मूर्ख पुत्रों का नाश कर डालेंगे। महामते! यह सब कुछ सदा ही भय से उद्विग्न है, मेरा यह मन भी भय से उद्विग्न है; इसलिये जो उद्वेग-शून्य और शान्त पद हो, वही मुझे बताओ।

    विदुर जी बोले ;- पाप शून्य नरेश! विद्या, तप, इन्द्रिय-निग्रह और लोभ त्याग के सिवा और कोई आपके लिये शान्ति का उपाय मैं नहीं देखता। बुद्धि से मनुष्‍य अपने भय को दूर करता है, तपस्या से महत्पद को प्राप्त होता है, गुरुशुश्रूषा से ज्ञान और योग से शान्ति पाता है।

     मोक्ष की इच्छा रखने वाले मनुष्‍य दान के पुण्‍य का आश्रय नहीं लेते, वेद के पुण्‍य का भी आश्रय नहीं लेते; किंतु निष्‍काम-भाव से राग-द्वेष से रहित हो इस लोक में विचरते रहते हैं। सम्यक अध्‍ययन, न्यायोचित युद्ध, पुण्‍यकर्म और अच्छी तरह की हुई तपस्या के अन्त में सुख की वृद्धि होती है।

    राजन! आपस में फूट रखने वाले लोग अच्‍छे बिछौनों से युक्‍त पलंग पाकर भी कभी सुख की नींद नहीं सो पाते; उन्‍हें स्त्रियों के पास रहकर तथा सूत-मागधो द्वारा की हुई स्‍तुति सुनकर भी प्रसन्‍नता नहीं होती। जो परस्‍पर भेदभाव रखते हैं, वे कभी धर्म का आचरण नहीं करते। वे सुख भी नहीं पाते। उन्‍हें गौरव नहीं प्राप्‍त होता तथा उन्‍हें शांति की वार्ता भी नहीं सुहाती। 

     हित की बात भी कही जाय तो उन्‍हें अच्‍छी नहीं लगती। उनके योगक्षेम की भी सिद्धि नहीं हो पाती। राजन! भेदभाव वाले पुरुषों की विनाश के सिवा और कोई गति नहीं है। जैसे गौओं से दूध, ब्राह्मण में तप और युवती स्त्रियों में चंचलता का होना अधिक सम्‍भव है, उसी प्रकार अपने जातिबन्‍धुओं से भय होना भी सम्‍भव ही है।

    नित्‍य सींचकर बढ़ायी हुई पतली लताएं बहुत होने के कारण वर्षों तक नाना प्रकार के झोंके सहती हैं; यही बात स्‍तपुरुषों के विषय में भी समझनी चाहिये,

    भरतश्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र! जलती हुई लकड़ियां अलग-अलग होने पर धुआँ फेंकती हैं और एक साथ होने पर प्रज्‍वलित हो उठती हैं। इसी प्रकार जातिबंधु भी फूट होने पर दु:ख उठाते हैं और एकता होने पर सुखी रहते हैं। धृतराष्‍ट्र! जो लोग ब्राह्मणों, स्त्रियों, जाति वालों और गौओं-पर ही शूरता प्रकट करते हैं, वे डंठल से पके हुए फलों की भाँति नीचे गिरते हैं। यदि वृक्ष अकेला है तो वह बलवान, दृढ़मूल तथा बहुत बड़ा होने पर भी एक ही क्षण में आंधी के द्वारा बलपूर्वक शाखाओं सहित धराशायी किया जा सकता है। 

   किंतु जो बहुत-से वृक्ष एक साथ रहकर समूह के रूप में खड़े हैं, वे एक-दूसरे के सहारे बड़ी-से-बड़ी आंधी को भी सह सकते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षट्-त्रिंश अध्याय के श्लोक 64-74 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार समस्‍त गुणों से सम्‍पन्‍न मनुष्‍य को भी अकेले होने पर शत्रु अपनी शक्ति के अंदर समझते हैं, जैसे अकेले वृक्ष को वायु। किंतु परस्‍पर मेल होने से और एक से दूसरे को सहारा मिलने से जाति वाले लोग इस प्रकार वृद्धि को प्राप्‍त होते हैं, जैसे तालाब में कमल। 

   ब्राह्मण, गौ, कुटुम्‍बी, बालक, स्‍त्री, अन्‍नदाता और शरणागत- ये अवध्‍य होते हैं। राजन! आपका कल्‍याण हो, मनुष्‍य में धन और आरोग्‍य को छोड़कर दूसरा कोई गुण नहीं है; क्‍योंकि रोगी तो मुर्दे के समान है। महाराज! जो बिना रोग के उत्‍पन्‍न, कड़वा, सिर में दर्द पैदा करने वाला, पाप से सम्‍बद्ध, कठोर, तीखा और गरम है, जो सज्‍जनों द्वारा पान करने योग्‍य है और जिसे दुर्जन नहीं पी सकते- उस क्रोध को आप पी जाइये और शांत होइये। 

    रोग से पी‍ड़ित मनुष्‍य मधुर फलों का आदर नहीं करते, विषयों में भी उन्‍हें कुछ सुख या सार नहीं मिलता। रोगी सदा ही दुखी रहते हैं; वे न तो धन संबंधी भोगों का और न सुख का ही अनुभव करते हैं। राजन! पहले जूए में द्रौपदी को जीती गयी देखकर मैंने आपसे कहा था- ‘आप द्यूतक्रीडा में आसक्‍त दुर्योधन को रोकिये, विद्वान लोग इस प्रवञ्चना के लिये मना करते हैं।' किंतु आपने मेरा कहना नहीं माना। 

    वह बल नहीं, जिसका मृदुल स्‍वभाव के साथ विरोध हो; सूक्ष्‍म धर्म का शीध्र ही सेवन करना चाहिये। क्रूरतापूर्वक उपर्जित लक्ष्मी नश्वर होती है, यदि वह मृदुलतापूर्वक बढ़ायी गयी हो तो पुत्र-पौत्रों तक स्थिर रहती है।  राजन! आपके पुत्र पाण्‍डवों की रक्षा करें और पाण्‍डु के पुत्र आपके पुत्रों की रक्षा करें। सभी कौरव एक-दूसरे के शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र समझे। सबका एक ही कर्तव्‍य हो, सभी सुखी और समृद्धिशाली होकर जीवन व्‍यतीत करें।  अजमीढकुलनंदन! इस समय आप ही कौरवों के आधार-स्‍तम्‍भ हैं, कुरुवंश आपके ही अधीन है। तात! कुंती के पुत्र अभी बालक हैं और वनवास से बहुत कष्‍ट पा चुके हैं; इस समय उनका पालन करके अपने यश की रक्षा कीजिये।

     कुरुराज! आप पाण्‍डवों से संधि कर लें, जिससे शत्रुओं को आपका छिद्र देखने का अवसर न मिले। नरदेव! समस्‍त पाण्‍डव सत्‍य पर डटे हुए हैं; अब आप अपने पुत्र दुर्योधन को रोकिये। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजीके हितवाक्‍यविषयक छत्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र के प्रति विदुर जी का हितोपदेश”

    विदुरजी कहते हैं ;- राजेन्‍द्र! विचित्रवीर्यनंदन! स्‍वायम्‍भुव मनु ने इन सत्रह प्रकार के पुरुषों को आकाश पर मुक्‍कों से प्रहार करने वाले, न झुकाये जा सकने वाले, वर्षा कालीन इन्‍द्रधनुष को झुकाने की चेष्‍टा करने वाले तथा पकड़ में न आने वाली सूर्य की किरणों को पकड़ने का प्रयास करने वाले, बतलाया है।

    पाश हाथ में लिये यमराज के दूत इन सत्रह पुरुषों को नरक में ले जाते हैं, जो शासन के अयोग्‍य पुरुष पर शासन करता है, मर्यादा का उल्लंघन करके संतुष्‍ट होता है, शत्रु की सेवा करता है, रक्षण के अयोग्‍य स्‍त्री की रक्षा करने का प्रयत्‍न करता है तथा उसके द्वारा अपने कल्‍याण का अनुभव करता है, याचना करने के योग्‍य पुरुष से याचना करता है तथा आत्‍मप्रशंसा करता है, अच्‍छे कुल में उत्‍पन्‍न होकर भी नीच कर्म करता है, दुर्बल होकर भी सदा बलवान से वैर रखता है, श्रद्धाहीन को उपदेश करता है, न चाहने योग्‍य  वस्‍तु को चाहता है, श्वसुर होकर पुत्रवधू के साथ परिहास पसंद करता है तथा पुत्रवधू से एकांतवास करके भी निर्भय होकर समाज में अपनी प्रतिष्‍ठा चाहता है, परस्‍त्री में अपने वीर्य का आधान करता है, मर्यादा के बाहर स्‍त्री की निंदा करता है, किसी से कोई वस्‍तु पाकर भी ‘याद नहीं है’, ऐसा कहकर उसे दबाना चाहता है, मांगने पर दान देकर उसके लिये अपनी श्‍लाघा करता है और झूठ को सही साबित करने का प्रयास करता है। 

     जो मनुष्‍य अपने साथ जैसा बर्ताव करे,उसके साथ वेसा ही बर्ताव करना चाहिये- यही नीतिधर्म है। कपट का आचरण करने वाले के साथ कपटपूर्ण बर्ताव करे और अच्‍छा बर्ताव करने वाले के साथ साधुभाव से ही बर्ताव करना चाहिये। बुढ़ापा रूप का, आशा धैर्य का, मृत्यु प्राणों की, दूसरों के गुणों में दोषदृष्टि धर्माचरण का, काम लज्‍जा का, नीच पुरुषों की सेवा सदाचार का, क्रोध लक्ष्‍मी का और अभिमान सर्वस्‍व का ही नाश कर देता है।

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! जब सभी वेदों में पुरुष को सौ वर्ष की आयु वाला बताया गया है, तब वह किस कारण से अपनी पूर्ण आयु को नहीं पाता?

      विदुर जी बोले ;- राजन! आपका कल्‍याण हो। अत्‍यंत अभिमान, अधिक बोलना, त्‍याग का अभाव,क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिंता और मित्रद्रोह- ये छ: तीखी तलवारें देहधरियों की आयु को काटती हैं। ये ही मनुष्‍यों का वध करती हैं, मूत्‍यु नहीं।

    भारत! जो अपने ऊपर विश्वास करने वाले पुरुष की स्‍त्री के साथ समागम करता है, जो गुरुस्‍त्रीगामी है, ब्राह्मण होकर शूद्रा स्‍त्री के साथ विवाह करता है, शराब पीता है तथा जो ब्राह्मण पर आदेश चलाने वाला, ब्राह्मणों की जीविका नष्‍ट करने वाला, ब्राह्मणों को सेवा कार्य के लिये इधर-उधर भेजने वाला और शरणागत की हिंसा करने वाला है- ये सबके सब ब्रह्म हत्‍यारे के समान हैं; इनका संग हो जाने पर प्रायश्चित करे- यह वेदों की आज्ञा है।

    बड़ों की आज्ञा मानने वाला, नीतिज्ञ, दाता, यज्ञशेष अन्‍न का भोजन करने वाला, हिंसा रहित, अनर्थपूर्ण कार्यों से दूर रहने वाला, कृतज्ञ, सत्‍यवादी और कोमल स्‍वभाव वाला विद्वान स्‍वर्गगामी होता है। राजन! सदा प्रिय वचन बोलने वाले मनुष्‍य तो सहज में ही मिल सकते हैं; किंतु जो अप्रिय हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्‍ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तत्रिंश अध्याय के श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद)

    जो धर्म का आश्रय लेकर तथा स्‍वामी को प्रिय लगेगा या अप्रिय- इसका विचार छोड़कर अप्रिय होने पर भी हित की बात कहता है, उसी से राजा को सच्‍ची सहायता मिलती है।

    कुल की रक्षा के लिये एक मनुष्‍य का, ग्राम की रक्षा के लिये कुल का, देश की रक्षा के लिये गांव का और आत्‍मा के कल्‍याण के लिये सारी पृथ्वी का त्‍याग कर देना चाहिये। आपत्ति के लिये धन की रक्षा करे, धन के द्वारा भी स्‍त्री की रक्षा करे और स्‍त्री एवं धन दोनों के द्वारा सदा अपनी रक्षा करे। पूर्वकाल में जूआ खेलना मनुष्‍यों में वैर डालने का कारण देखा गया है; अत: बुद्धिमान मनुष्‍य हँसी के लिये भी जूआ न खेले।

    प्रतीपनंदन! विचित्रवीर्यकुमार! राजन! मैंने जूए का खेल आरम्‍भ होते समय भी कहा था कि यह ठीक नहीं है, किंतु रोगी को जैसे दवा और पथ्‍य अच्‍छे नहीं लगते, उसी तरह मेरी यह बात भी आपको अच्‍छी नहीं लगी।

नरेन्‍द्र! आप कौओं के समान अपने पुत्रों के द्वारा विचित्र पंख वाले मोरों के सदृश पाण्‍डवों को पराजित करने का प्रयत्‍न कर रहे हैं; सिंहों को छोड़कर सियारों की रक्षा कर रहे हैं; समय आने पर आपको इसके लिये पश्चाताप करना पड़ेगा। तात! जो स्‍वामी सदा हितसाधन में लगे रहने वाले अपने भक्‍त सेवक पर कभी क्रोध नहीं करता, उस पर भृत्‍यगण विश्वास करते हैं और उसे आपत्ति के समय भी नहीं छोड़ते।

     सेवकों की जीविका बंद करके दूसरों के राज्‍य और धन के अपहरण का प्रयत्‍न नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि अपनी जीविका छिन जाने से भोगों से वंचित होकर पहले के प्रेमी मंत्री भी उस समय विरोधी बन जाते हैं और राजा का परित्‍याग कर देते हैं। पहले कर्तव्‍य एवं आय-व्‍यय और उचित वेतन आदि का निश्चय करके फिर सुयोग्‍य सहायकों का संग्रह करें,क्‍योंकि कठिन से कठिन कार्य भी सहायकों द्वारा साध्‍य होते हैं।

    जो सेवक स्‍वामी के अभिप्राय को समझकर आलस्‍य रहित हो समस्‍त कार्यों को पूरा करता है, जो हित की बात कहने वाला, स्‍वामिभक्‍त, सज्‍जन और राजा की शक्ति को जानने वाला है, उसे अपने समान समझकर उस पर कृपा करनी चाहिये।

    जो सेवक स्‍वामी के आज्ञा देने पर उनकी बात का आदर नहीं करता,किसी काम में लगाये जाने पर अस्‍वीकार कर देता है, अपनी बुद्धि पर गर्व करने और प्रतिकूल बोलने वाले उस भृत्‍य को शीघ्र ही त्‍याग देना चाहिये। अहंकार रहित, कायरता-शून्‍य, शीघ्र काम पूरा करने वाला, दयालु, शुद्ध हृदय, दूसरों के बहकावें में न आने वाला, नीरोग और उदार वचन वाला- इन आठ गुणों से युक्‍त मनुष्‍य को ‘दूत’ बनाने योग्‍य बताया गया है। सावधान मनुष्‍य विश्वास करके असमय में कभी किसी दूसरे के घर न जाय,रात में छिपकर चौराहे पर न खड़ा हो और राजा जिस स्‍त्री को चाहता हो, उसे प्राप्‍त करने का यत्‍न न करे।

     दुष्‍ट सहायकों वाला राजा जब बहुत लोगों के साथ मन्‍त्रणा-समिति में बैठकर सलाह ले रहा हो, उस समय उसकी बात का खण्‍डन न करे; ‘मैं तुम पर विश्वास नहीं करता’ ऐसा भी न कहे, अपितु कोई युक्तिसंगत बहाना बनाकर वहाँ से हट जाय। अधिक दयालु राजा, व्‍याभिचारिणी स्‍त्री, राजकर्मचारी पुत्र, छोटे बच्‍चों वाली विधवा, सैनिक और जिसका अधिकार छिन लिया गया हो, वह पुरुष इन सबके साथ लेने-देन का व्‍यवहार न करे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तत्रिंश अध्याय के श्लोक 31-47 का हिन्दी अनुवाद)

    ये आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, शास्‍त्रज्ञान, इन्द्रियनिग्रह, पराक्रम, अधिक न बोलने का स्‍वभाव, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता।  तात! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्‍त्‍वपूर्ण गुणों पर हठात अधिकार कर लेता है। राजा जिस समय किसी मनुष्‍य का सत्‍कार करता है, उस समय यह गुण उपर्युक्‍त सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है।

   नित्‍य स्‍नान करने वाले मनुष्‍य को बल, रूप, मधुरस्‍वर, उज्‍जवल वर्ण, कोमलता, सुगंध, पवित्रता, शोभा, सुकुमारता और सुंदरी स्त्रियां- ये दस लाभ प्राप्‍त होते हैं। थोड़ा भोजन करने वाले को निम्नांकित छ: गुण प्राप्‍त होते हैं- आरोग्‍य, आयु, बल और सुख तो मिलते ही हैं, उसकी संतान उत्तम होती है तथा ‘यह बहुत खाने वाला है’ ऐसा कहकर लोग उस पर आक्षेप नहीं करते।

   अकर्मण्‍य, बहुत खाने वाले, सब लोगों से वैर करने वाले, अधिक मायावी, क्रूर, देश-काल का ज्ञान न रखने वाले और निंदित वेष धारण करने वाले मनुष्‍य को कभी अपने घर में न ठहरने दे। बहुत दुखी होने पर भी कृपण, गाली बकने वाले, मूर्ख, जंगल में रहने वाले, धूर्त, नीच सेवी, निर्दयी, वैर बांधने वाले और कृतघ्न से कभी सहायता की याचना नहीं करनी चाहिये। क्‍लेशप्रद कर्म करने वाले, अत्‍यंत प्रमादी, सदा असत्‍य भाषण करने वाले, अस्थिर भक्ति वाले, स्‍नेह से रहित, अपने को चतुर मानने वाले-इन छ: प्रकार के अधम पुरुषों की सेवा न करे। 

धन की प्राप्ति सहायक की अपेक्षा रखती है और सहायक धन की अपेक्षा रखते हैं; ये दोनों एक-दूसरे के आश्रित हैं, परस्‍पर के सहयोग बिना इनकी सिद्धि नहीं होती। पुत्रों को उत्‍पन्‍न कर उन्‍हें ऋण के भार से मुक्‍त करके उनके लिये किसी जीविका का प्रबंध कर दे; अपनी सभी कन्याओं का योग्‍य वर के साथ विवाह कर दे तत्‍पश्‍चात वन में मुनिवृत्ति से रहने की इच्‍छा करे। जो सम्‍पूर्ण प्राणियों के लिये हितकर और अपने लिये भी सुखद हो, उसे ईश्र्वरार्पण बुद्धि से करे; सम्‍पूर्ण सिद्धियों का यही मूलमंत्र है। जिसमें बढ़ने की शक्ति, प्रभाव, तेज, पराक्रम, उद्योग और निश्चय है, उसे अपनी जीविका के नाश का भय कैसे हो सकता है। 

     पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने में जो दोष है, उन पर दृष्टि डालिये; उनसे संग्राम छिड़ जाने पर इन्‍द्र आदि देवताओं को भी कष्‍ट ही उठाना पड़ेगा। इसके सिवा पुत्रों के साथ वैर, नित्‍य उद्वेगपूर्ण जीवन, कीर्ति का नाश और शत्रुओं को आनन्‍द होगा। इन्‍द्र के समान पराक्रमी महाराज! आकाश में तिरछा उदित हुआ धूमकेतु जैसे सारे संसार में अशांति और उपद्रव खड़ा कर देता है, उसी तरह भीष्‍म, आप, द्रोणाचार्य और राजा युधिष्ठिर का बढ़ा हुआ कोप इस संसार का संहार कर सकता है। 

   आपके सौ पुत्र, कर्ण और पांच पाण्‍डव- ये सब मिलकर समुद्रपर्यत्‍न सम्‍पर्ण पृथ्वी का शासन कर सकते हैं। 

   राजन! आपके पुत्र वन के समान हैं और पाण्‍डव उस में रहने वाले व्‍याघ्र हैं। आप व्‍याघ्रों सहित समस्‍त वन को नष्‍ट न कीजिये तथा वन से उन व्‍याघ्रों को दूर न भगाइये। व्‍याघ्रों के बिना वन की रक्षा नहीं हो सकती तथा वन के बिना व्‍याघ्र नहीं रह सकते; क्‍योंकि व्‍याघ्र वन की रक्षा करते हैं और वन व्‍याघ्रों की। जिनका मन पापों में लगा रहता है, वे लोग दूसरों के कल्‍याणमय गुणों को जानने की वैसी इच्‍छा नहीं रखते, जैसी कि उनके अवगुणों को जानने की रखते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्‍तत्रिंश अध्याय के श्लोक 48-64 का हिन्दी अनुवाद)

    जो अर्थ की पूर्ण सिद्धि चाहता हो, उसे पहले धर्म का ही आचरण करना चाहिये। जैसे स्‍वर्ग से अमृत दूर नहीं होता, उसी प्रकार धर्म से अर्थ अलग नहीं होता। जिसकी बुद्धि पाप से हटाकर कल्‍याण में लगा दी गयी है, उसने संसार में जो भी प्रकृति और विकृति है- उस सबको जान लिया है।  जो समयानुसार धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, वह इस लोक और परलोक में भी धर्म, अर्थ और काम को प्राप्‍त करता है। 

   राजन! जो क्रोध और हर्ष के उठे हुए वेग को रोक लेता है और आपत्ति में भी मोह को प्राप्‍त नहीं होता, वही राजलक्ष्‍मी का अधिकारी होता है। राजन! आपका कल्‍याण हो, मनुष्‍य में सदा पाँच प्रकार का बल होता है; उसे सुनिये। जो बाहुबल नामक प्रथम बल है,निकृष्ट बल कहलाता है; मंत्री का मिलना दूसरा बल है ,मनीषी लोग धन के लाभ को तीसरा बल बताते हैं, और राजन! जो बाप-दादों से प्राप्त हुआ मनुष्य का स्वाभाविक बल  है,वह 'अभिजात' नामक चौथा बल है। भारत! जिससे इन सभी बलों का संग्रह हो जाता है तथा जो सब बलों में श्रेष्ठ बल है, वह पाँचवा 'बुद्धि का बल' कहलाता है।

    जो मनुष्य का बहुत बड़ा अपकार कर सकता है,उस पुरुष के साथ वैर ठानकर इस विश्वास पर निश्चिन्‍त न हो जाय कि मैं उससे दूर हूँ। ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो स्‍त्री, राजा, साँप, पढ़े हुए पाठ, सामर्थ्‍यशाली व्‍यक्ति, शत्रु, भोग और आयु पर पूर्ण विश्वास कर सकता है? 

      जिसको बुद्धि के बाण से मारा गया है, उस जीव के लिये न कोई वैद्य है, न दवा है, न होम, न मंत्र, न कोई मांगलिक कार्य, न अथर्ववेदोक्‍त प्रयोग और न भली-भाँति सिद्ध जड़ी-बूटी ही है। 

    भारत! मनुष्‍यों को चाहिये कि वह साँप, अग्नि, सिंह और अपने कुल में उत्‍पन्‍न व्‍यक्ति का अनादर न करे; क्‍योंकि ये सभी बड़े तेजस्‍वी होते हैं। संसार में अग्नि एक महान तेज है, वह काठ में छिपी रहती है; किंतु जब तक दूसरे लोग प्रज्वलित न कर दें, तब तक वह उस काठ को नहीं जलाती। वही अग्नि यदि काष्‍ठ से मथकर उद्दीप्‍त कर दी जाती है तो वह अपने तेज से उस काठ को, जंगल को तथा दूसरी वस्‍तुओं को भी जल्‍दी ही जला डालती है। इसी प्रकार अपने कुल में उत्‍पन्‍न वे अग्नि के समान तेजस्‍वी पाण्‍डव क्षमा भाव से युक्‍त और विकार शून्‍य हो काष्‍ठ में छिपी अग्नि की तरह गुप्‍त रूप से स्थित हैं। 

    अपने पुत्रों सहित आप लता के समान हैं और पाण्‍डव महान शालवृक्ष के सदृश हैं; महान वृक्ष का आश्रय लिये बिना लता कभी बढ़ नहीं सकती।

     राजन! अम्बिकानंदन! आपके पुत्र एक वन हैं और पाण्‍डवों को उसके भीतर रहने वाले सिंह समझिये। तात! सिंह से सूना हो जाने पर वन नष्‍ट हो जाता है और वन के बिना सिंह भी नष्‍ट हो जाते हैं। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के हितवाक्‍यविषयक सैंतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

अड़तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुरजी का नीतियुक्‍त उपदेश”

    विदुर जी कहते हैं ;- राजन! जब कोई वृद्ध पुरुष निकट आता है, उस समय नवयुवक व्‍यक्ति के प्राण ऊपर को उठने लगते हैं; फिर जब वह वृद्ध के स्‍वागत में उठकर खड़ा होता है और प्रणाम करता है, तब प्राणों को पुन: वास्‍तविक स्थिति में प्राप्‍त करता है। 

     धीर पुरुष को चाहिये, जब कोई पुरुष अतिथि के रूप में घर पर आवे, तब पहले आसन देकर एवं जल लाकर उसके चरण पखारे, फिर उसकी कुशल पूछकर अपनी स्थिति बतावे, तदनंतर आवश्‍यकता समझकर अन्‍न भोजन करावे। वेदवेत्ता ब्राह्मण जिसके घर दाता के लोभ, भय या कंजूसी के कारण जल, मधुपर्क और गौ को नहीं स्‍वीकार करता, श्रेष्‍ठ पुरुषों ने उस गृहस्‍थ का जीवन व्‍यर्थ बताया है। 

   वैद्य, चीरफाड़ करने वाला, ब्रह्मचर्य से भ्रष्‍ट, चोर, क्रूर, शराबी, गर्भ हत्‍यारा, सेना जीवी और वेद विक्रेता- ये यद्यपि पैर धोने के योग्‍य नहीं हैं, तथापि यदि अतिथि होकर आवें तो विशेष प्रिय यानि आदर के योग्‍य होते हैं। नमक, पका हुआ अन्‍न, दही, मधु, तेल, घी, तिल, मांस, फल, साग, लाल कपड़ा, सब प्रकार की गंध और गुड़ इतनी वस्‍तुएं बेचने योग्‍य नहीं है।  जो क्रोध न करने वाला, लोष्‍ट, पत्‍थर और सुवर्ण को एक-सा समझने वाला, शोकहीन, संधि-विग्रह से रहित, निंदा-प्रशंसा से शून्‍य, प्रिय-अप्रिय का त्‍याग करने वाला तथा उदासीन है, वही भिक्षुक है। 

    जो नीवार, कंद-मूल, इङ्गुदीफल और साग खाकर निर्वाह करता है, मन को वश में रखता है, अग्निहोत्र करता है, वन में रहकर भी अतिथि सेवा में सदा सावधान रहता है, वही पुण्‍यात्‍मा तपस्वी श्रेष्‍ठ माना गया है। बुद्धिमान पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चिंत न रहे कि मैं दूर हूँ। बुद्धिमान की बांहें बड़ी लंबी होती हैं, सताया जाने पर वह उन्‍हीं बांहों से बदला लेता है। 

    जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करे ही नहीं; किंतु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी अधिक विश्वास न करे। विश्वास से जो भय उत्‍पन्‍न होता है, वह मूल का भी उच्‍छेद कर डालता है। मनुष्‍य को चाहिये कि वह ईर्ष्‍यारहित, स्त्रियों का रक्षक, सम्‍पत्ति का न्‍यायपूर्वक विभाग करने वाला, प्रियवादी, स्‍वच्‍छ तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो, परंतु उनके वश में कभी न हो। 

    स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी कही गयी हैं। ये अत्‍यंत सौभाग्‍यशालिनी, आदर के योग्‍य, पवित्र तथा घर की शोभा हैं; अत: इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए। 

अन्त:पुर की रक्षा का कार्य पिता को सौंप दे, रसोई-घर का प्रबन्ध माता के हाथ में दे, गौओं की सेवा में अपने समान व्यक्ति को नियुक्त करे और कृषि का कार्य स्वयं ही करे। इसी प्रकार सेवकों द्वारा वाणिज्य-व्यापार करे और पुत्रों के द्वारा ब्राह्मणों की सेवा करे। 

   जल से अग्नि, ब्राह्मण से क्षत्रिय और पत्थर से लोहा पैदा होता है। इनका तेज सर्वत्र व्याप्त होने पर भी अपने उत्पत्ति स्थान में शान्त हो जाता है। अच्छे कुल में उत्पन्न, अग्नि के समान तेजस्वी, क्षमाशील और विकारशून्य संत पुरुष सदा काष्‍ठ में अग्नि की भाँति शान्तभाव से स्थित रहते हैं। जिस राजा की मन्त्रणा को उसके बहिरंग एवं अन्तरंग कोई भी मनुष्‍य नहीं जानते, सब ओर दृष्टि रखने वाला वह राजा चिरकाल त‍क ऐश्वर्य का उपभोग करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टात्रिंश अध्याय के श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)

    धर्म, काम और अर्थ सम्बन्धी कार्यों को करने से पहले न बतावे, करके ही दिखावे। ऐसा करने से अपनी मन्त्रणा दूसरों पर प्रकट नहीं होती। पर्वत की चोटी अथवा राजमहल पर चढ़कर एकान्त स्थान में जाकर या जंगल में तृण आदि से अनावृत स्थान पर मन्त्रणा करनी चाहिये। भारत! जो मित्र न हो, मित्र होने पर भी पण्डित न हो, पण्डित होने पर भी जिसका मन वश में न हो, वह अपनी गुप्त मन्त्रणा जानने के योग्य नहीं है।

      राजा अच्छी तरह परीक्षा किये बिना किसी को अपना मन्त्री न बनावे; क्योंकि धन की प्राप्ति और मन्त्र की रक्षा का भार मन्त्री पर ही रहता है। जिसके धर्म, अर्थ और काम विषयक सभी कार्यों को पूर्ण होने के बाद ही सभासदगण जान पाते हैं, वही राजा समस्त राजाओं में श्रेष्‍ठ है। अपने मन्त्र को गुप्त रखने वाले उस राजा को नि:संदेह सिद्धि प्राप्त होती हैं। 

    जो मोहवश बुरे कर्म करता है, वह उन कार्यों का विप‍रीत परिणाम होने से अपने जीवन से भी हाथ धो बैठता है। उत्तम कर्मों का अनुष्‍ठान तो सुख देने वाला होता है, किंतु उन्हीं का अनुष्‍ठान न किया जाय तो वह पश्चात्ताप का कारण माना गया है। जैसे वेदों को पढ़े बिना ब्राह्मण श्राद्धकर्म करवाने का अधिकारी नहीं होता, उसी प्रकार सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय नामक छ: गुणों को जाने बिना कोई गुप्त मन्त्रणा सुनने का अधिकारी नहीं होता।

      राजन! जो सन्धि-विग्रह आदि छ: गुणों की जानकारी के कारण प्रसिद्ध है, स्थिति, वृद्धि और ह्रास को जानता है तथा जिसके स्वभाव की सब लोग प्रशंसा करते हैं, उसी राजा के अधीन पृथ्वी रहती है।      जिसके क्रोध और हर्ष व्यर्थ नहीं जाते, जो आवश्‍यक कार्यों की स्वयं देखभाल करता है और खजाने की भी स्वयं जानकारी रखता है, उसकी पृथ्‍वी पर्याप्त धन देने वाली ही होती। 

    भूपति को चाहिये कि अपने ‘राजा’ नाम से और राजोचित ‘छत्र’ के धारण से संतुष्‍ट रहे सेवकों को पर्याप्त धन दे, सब अकेला ही न हड़प ले। ब्राह्मण को ब्राह्मण जानता है, स्त्री को उसका पति जानता है, मन्त्री को राजा जानता है और राजा को भी राजा ही जानता है। वश में आये हुए वध के योग्य शत्रु को कभी छोड़ना नही चाहिये। यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिये और बल होने पर उसे मार ही ड़ालना चाहिये; क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है।

देवता, ब्राह्मण, राजा, वृद्ध, बालक और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्नपूर्वक सदा रोकना चाहिये। मूर्खों द्वारा सेवित निरर्थक कलह का बुद्धिमान पुरुष को त्याग कर देना चाहिये। ऐसा करने से उसे लोक में यश मिलता है और अनर्थ का सामना नहीं करना पड़ता। जिसके प्रसन्न होने का कोई फल नहीं तथा जिसका क्रोध भी व्यर्थ होता है, ऐसे राजा को प्रजा उसी भाँति नहीं चाहती, जैसे स्त्री नंपुसक पति को। 

     बुद्धि से धन प्राप्त होता है और मूर्खता दरिद्रता का कारण है- ऐसा कोई नियम नहीं है। संसार चक्र के वृत्तान्त को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं, दूसरे लोग नहीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टात्रिंश अध्याय के श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद)

    भारत! मूर्ख मनुष्‍य विद्या, शील, अवस्था, बुद्धि, धन और कुल में बड़े माननीय पुरुषों का सदा अनादर किया करता है। जिसका चरित्र निन्दनीय है, जो मूर्ख, गुणों में दोष देखने वाला, अधार्मिक, बुरे वचन बोलने वाला और क्रोधी है, उसके ऊपर शीघ्र ही अनर्थ टूट पड़ते हैं। 

   ठगी न करना, दान देना, प्रतिज्ञा का उल्लघंन न करना और अच्छी तरह कही हुई बात ये सब सम्पूर्ण भूतों को अपना बना लेते हैं। किसी को भी धोखा न देने वाला, चतुर, कृतज्ञ, बुद्धिमान और कोमल स्वभाव वाला राजा खजाना समाप्त हो जाने पर भी सहायकों को पा जाता है अर्थात उसे सहायक मिल जाते हैं। 

    धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्र से द्रोह न करना- ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं। राजन! जो अपने आश्रितों में धन का ठीक-ठीक बंटवारा नहीं करता तथा जो दुष्‍ट स्वभाव वाला, कृतघ्‍न और निर्लज है, ऐसा राजा इस लोक में त्याग देने योग्य है। जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोंष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहने वाले मनुष्‍य की भाँति रात में सुख से नहीं सो सकता। 

   भारत! जिनके ऊपर दोषारोपण करने से योग-क्षेम में बाधा आती हो, उन लोगों को देवता की भाँति सदा प्रसन्न रखना चाहिये। जो धन आदि पदार्थ स्त्री, प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप दिये जाते हैं, वे संशय में पड़ जाते हैं।

    राजन! जहाँ का शासन स्त्री, जुआरी और बालक के हाथ में होता है, वहाँ के लोग नदी में पत्थर की नाव पर बैठने वालों की भाँति विवश होकर विपत्ति के समुद्र में डूब जाते हैं। भारत! जो लोग जितना आवश्‍यक हैं, उतने ही काम में लगे रहते हैं, अधिक में हाथ नहीं डालते, उन्हें मैं पण्डित मानता हूँ; क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है। 

    केवल जुआरी जिसकी प्रशंसा करते हैं, नर्तक जिसकी प्रशंसा का गान करते हैं और वेश्‍याएं जिसकी बड़ाई किया करती हैं, वह मनुष्‍य जीता ही मुर्दे के समान है। 

भारत! आपने उन महान धनुर्धर और अत्यन्त तेजस्वी पाण्‍डवों को छोड़कर यह महान ऐश्वर्य का भार दुर्योधन के ऊपर रख दिया है।  इसलिये आप शीघ्र ही उस ऐश्वर्य मद से मूढ़ दुर्योधन को त्रिभुवन के साम्राज्य से गिरे हुए बलि की भाँति इस राज्य से भ्रष्‍ट होते देखियेगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरवाक्यविषयक अड़तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

उनतालीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र के प्रति विदुर जी का नीतियुक्‍त उपदेश”

   धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! यह पुरुष ऐश्वर्य की प्राप्ति और नाश में स्‍वतंत्र नहीं है। ब्रह्मा ने धागे से बंधी हुई कठपुतली की भाँति इसे प्रारब्‍ध के अधीन कर रखा है; इसलिये तुम कहते चलो, मैं सुनने के लिये धैर्य धारण किये बैठा हूँ। 
    विदुर जी बोले ;- भारत! समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोलें तो उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि की भी अवज्ञा ही होगी।
   संसार में कोई मनुष्‍य दान देने से प्रिय होता है, दूसरा प्रिय वचन बोलने से प्रिय होता है और तीसरा मंत्र तथा औषध के बल से प्रिय होता है; किंतु जो वास्‍तव में प्रिय है, वह तो सदा प्रिय ही है।
जिससे द्वेष हो जाता है, वह न साधु, न विद्वान और न बुद्धिमान ही जान पड़ता है। प्रिय व्‍यक्ति के तो सभी कर्म शुभ ही प्रतीत होते हैं और शत्रु के सभी कार्य पापमय।
    राजन! दुर्योधन के जन्‍म लेते ही मैंने कहा था कि केवल इसी एक पुत्र को आप त्‍याग दें। इसके त्‍याग से सौ पुत्रों की वृद्धि होगी और इसका त्‍याग न करने से सौ पुत्रों का नाश होगा। जो वृद्धि भविष्‍य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्‍त्‍व नहीं देना चाहिये और उस क्षय का भी बहुत आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्‍युदय का कारण हो। 
     महाराज! वास्‍तव में जो क्षय वृद्धि का कारण होता है, वह क्षय नहीं है; किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिये, जिसे पाने से बहुत से लाभों का नाश हो जाय।
धृतराष्‍ट्र! कुछ लोग गुण से समृद्ध होते हैं और कुछ लोग धन से। जो धन के धनी होते हुए भी गुणों से हीन हैं, उन्‍हें सर्वथा त्‍याग दीजिये।
  धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! तुम जो कुछ कह रहे हो, परिणाम में हितकर है; बुद्धिमान लोग इसका अनुमोदन करते हैं। यह भी ठीक है कि जिस ओर धर्म होता है, उसी पक्ष की जीत होती है, तो भी मैं अपने बेटे का त्‍याग नहीं कर सकता। 
   विदुर जी बोले ;- राजन! जो अधिक गुणों से सम्‍पन्‍न और विनयी है, वह प्राणियों का तनिक भी संहार होते देख उसकी कभी उपेक्षा नहीं कर सकता। जो दूसरों की निंदा में ही लगे रहते हैं, दूसरों को दु:ख देने और आपस में फूट डालने के लिये सदा उत्‍साह के साथ प्रयत्‍न करते हैं, जिनका दर्शन दोष से भरा है और जिनके साथ रहने में भी बहुत बड़ा खतरा है, ऐसे लोगों से धन लेने में महान दोष है और उन्‍हें देने में बहुत बड़ा भय है। 
     दूसरों में फूट डालने का जिनका स्‍वभाव है, जो कामी,निर्लज्‍ज, शठ और प्रसिद्ध पापी हैं, वे साथ रखने के कारण अयोग्‍य-निंदित माने गये हैं। 
     उपर्युक्‍त दोषों के अति‍रिक्‍त और भी जो महान दोष हैं, उनसे युक्‍त मनुष्‍यों का त्‍याग कर देना चाहिये। सौहार्द भाव निवृत्‍त हो जाने पर नीच पुरुषों का प्रेम नष्‍ट हो जाता है, उस सौहार्द से होने वाले फल की सिद्धि और सुख का भी नाश हो जाता है। फिर वह नीच पुरुष निंदा करने के लिये यत्‍न करता है, थोड़ा भी अपराध हो जाने पर मोहवश विनाश के लिये उद्योग आरम्‍भ कर देता है। उसे तनिक भी शांति नहीं मिलती।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद)

   वैसे नीच, क्रूर तथा अजितेन्द्रिय पुरुषों से हाने वाले संग पर अपनी बुद्धि से पूर्ण विचार करके विद्वान पुरुष उसे दूर से ही त्‍याग दे। जो अपने कुटुम्‍बी, दरिद्र, दीन तथा रोगी पर अनुग्रह करता है, वह पुत्र और पशुओं से वृद्धि को प्राप्‍त होता है और अनंत कल्‍याण का अनुभव करता है। 
     राजेन्‍द्र! जो लोग अपने भले की इच्‍छा करते हैं, उन्‍हें अपने जाति-भाइयों को उन्‍नतिशील बनाना चाहिये; इसलिये आप भली-भाँति अपने कुल की वृद्धि करें। राजन! जो अपने कुटम्‍बीजनों का सत्‍कार करता है, वह कल्‍याण का भागी होता है। भरतश्रेष्‍ठ! अपने कुटम्‍ब के लोग गुणहीन हों, तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये। फिर जो आपके कृपा‍भिलाषी एवं गुणवान हैं, उनकी तो बात ही क्‍या है।
   राजन! आप समर्थ हैं, वीर पाण्‍डवों पर कृपा कीजिये और उनकी जीविका के लिये कुछ गांव दे दीजिये। 
     नरेश्र्वर! ऐसा करने से आपको इस संसार में यश प्राप्‍त होगा। तात! आप वृद्ध हैं, इसलिये आपको अपने पुत्रों पर शासन करना चाहिये। भरतश्रेष्‍ठ! मुझे भी आपकी हित की बात कहनी चाहिये। आप मुझे अपना हितैषी समझें। तात! शुभ चा‍हने वाले को अपने जाति भाइयों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिये; बल्कि उनके साथ मिलकर सुख का उपभोग करना चाहिये।
    जाति-भाइयों के साथ परस्‍पर भोजन, बातचीत एवं प्रेम करना ही कर्तव्‍य है; उनके साथ कभी विरोध नहीं करना चाहिये। इस जगत में जाति-भाई ही तारते हैं और जाति-भाई ही डुबाते भी हैं। उनमें जो सदाचारी हैं, वे तो तारते हैं और दुराचारी डुबा देते हैं।
    राजेन्‍द्र! आप पाण्‍डवों के प्रति सद्व्‍यवहार करें। मानद! उनसे सुरक्षित होकर आप शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष हो जायं। 
   विषैले बाण हाथ में लिये हुए व्‍याघ के पास पहुँचकर जैसे मृग को कष्‍ट भोगना पड़ता है, उसी प्रकार जो जातीय बंधु अपने धनी बंधु के पास पहुँचकर दु:ख पाता है, उसके पाप का भागी वह धनी होता है। 
नरश्रेष्‍ठ! आप पाण्‍डवों को अथवा अपने पुत्रों को मारे गये सुनकर पीछे संताप करेंगे; अत: इस बात का पहले ही विचार कर लीजिये। 
इस जीवन का कोई ठिकाना नहीं है अतएव जिस कर्म के करने से खटिया पर बैठकर पछताना पड़े, उसको पहले से ही नहीं करना चाहिये।
       शुक्राचार्य के सिवा दूसरा कोई भी मनुष्‍य ऐसा नहीं है, जो नीति का उल्लघंन नहीं करता; अत: जो बीत गया, सो बीत गया, शेष कर्तव्य का विचार बुद्धिमान पुरुषों पर ही निर्भर है।
नरेश्र्वर! दुर्योधन ने पहले यदि पाण्‍डवों के प्रति यह अपराध किया है तो आप इस कुल में बड़े-बूढ़े हैं; आपके द्वारा उसका मार्जन हो जाना चाहिये। 
     नरश्रेष्‍ठ! यदि आप उनको राजपद पर स्थापित कर देंगे तो संसार में आपका कलंक धुल जायगा और आप बुद्धिमान पुरुषों के माननीय हो जायंगे। जो धीर पुरुषों के वचनों के परिणाम पर विचार करके उन्हें कार्यरूप में परिणत करता है, वह चिरकाल तक यश का भागी बना रहता है। अत्यन्त कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपेदश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उससे कर्तव्य ज्ञान न हुआ अथवा ज्ञान होने पर भी उसका अनुष्‍ठान न हुआ। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद)

    जो विद्वान पापरूप फल देने वाले कर्मों का आरम्भ नहीं करता, वह बढ़ता है; किंतु जो पूर्व में किये हुए पापों का विचार न करके उन्हीं का अनुसरण करता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्‍य अगाध कीचड़ से भरे हुए घोर नरक में गिराया जाता है। 
     बुद्धिमान पुरुष मन्त्रभेद के इन छ: द्वारों को जाने और धन को रक्षित रखने की इच्छा से इन्हें सदा बंद रखे- मादक वस्तुओं का सेवन, निद्रा, आवश्‍यक बातों की जान‍कारी न रखना, अपने नेत्र-मुख आदि का विकार, दुष्‍ट मन्त्रियों पर विश्वास और कार्यों में अकुशल दूत पर भी भरोसा रखना। राजन! जो इन द्वारों को जानकर सदा बंद किये रहता हैं, वह अर्थ, धर्म और काम के सेवन में लगा रह कर शत्रुओं को वश में कर लेता है। 
    बृहस्पति के समान मनुष्‍य भी शास्त्रज्ञान अथवा वृद्धों की सेवा किये बिना धर्म और अर्थ का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। समुद्र में गिरी हुई वस्तु विनाश को प्राप्त हो जाती है; जो सुनता नहीं, उससे कही हुई बात भी विनष्‍ट हो जाती है; अजितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्रज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट ही है।
    बुद्धिमान पुरुष बुद्धि से जाचंकर अपने अनुभव से बारंबार उनकी योग्यता का निश्चय करे; फिर दूसरों से सुन कर और स्वयं देखकर भली-भाँति विचार करके विद्वानों के साथ मित्रता करे। विनयभाव अपयश का नाश करता है, पराक्रम अनर्थ को दूर करता है, क्षमा सदा ही क्रोध का नाश करती है और सदाचार कुलक्षण का अन्त करता है। 
    राजन! नाना प्रकार के परिच्छद, माता, घर, सेवा-शुश्रूषा और भोजन तथा वस्त्र के द्वारा कुल की परीक्षा करे। देहाभिमान से रहित पुरुष के पास भी यदि न्याय युक्त पदार्थ स्वत: उपस्थित हो तो वह उसका विरोध नहीं करता, फिर कातासक्त मनुष्‍य के लिये तो कहना ही क्या है? 
   जो विद्वानों की सेवा में रहने वाला, वैद्य, धार्मिक, देखने में सुन्दर, मित्रों से युक्त तथा मधुरभाषी हो, ऐसे सुहृद् की सर्वथा रक्षा करनी चाहिये। अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में- जो मर्यादा का उल्लघंन नहीं करता, धर्म की अपेक्षा रखता है, कोमल स्वभाव वाला तथा सलज्ज है, वह सैकड़ों कुलीनों से बढ़कर है। जिन दो मनुष्‍यों का चित्त से चित्त, गुप्त रहस्य से गुप्त रहस्य और बुद्धि से बुद्धि मिल जाती है, उनकी मित्रता कभी नष्‍ट नहीं होती। 
    मेधावी पुरुष को चाहिये कि तृण से ढंके हुए कुएं की भाँति दुर्बुद्धि एवं विचारशक्ति से हीन पुरुष का परित्याग कर दे; क्योंकि उसके साथ की हुई मित्रता नष्‍ट हो जाती है। विद्वान पुरुष को उचित है कि अभिमानी, मूर्ख, क्रोधी, साहसिक और धर्महीन पुरुषों के साथ मित्रता न करे। मित्र तो ऐसा होना चाहिये, जो कृतज्ञ, धार्मिक, सत्यवादी, उदार, दृढ़ अनुराग रखने वाला, जितेन्द्रिय, मर्यादा के भीतर रहने वाला और मैत्री का त्याग न करने वाला हो। इन्द्रियों को सर्वथा रोक कर रखना तो मृत्यु से भी बढ़कर कठिन है और उन्हें बिल्कुल खुली छोड़ देना देवताओं का भी नाश कर देता है। 
     सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना- ये सब गुण आयु को बढ़ाने वाले हैं- ऐसा विद्वान लोग कहते हैं। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 53-70 का हिन्दी अनुवाद)

     जो नष्‍ट हुए धन को स्थिर बुद्धि का आश्रय ले अच्छी नीति से पुन: लौटा लाने की इच्छा करता है, वह वीर पुरुषों का-सा आचरण करता है। जो आने वाले दु:ख को रोकने का उपाय जानता है, वर्तमान कालिक कर्तव्य के पालन में दृढ़ निश्चय रखने वाला है और अतीतकाल में जो कर्तव्य शेष रह गया है, उसे भी जानता है, वह मनुष्‍य कभी अर्थ से हीन नहीं होता। मनुष्‍य मन, वाणी और कर्म से जिसका निरन्तर सेवन करता है, वह कार्य उस पुरुष को अपनी ओर खींच लेता है। इसलिये सदा कल्याणकारी कार्यों को ही करे। मांगलिक पदार्थों का स्पर्श, चित्तवृत्तियों का निरोध, शास्त्र का अभ्‍यास, उद्योगशील, सरलता और सत्पुरुषों का बारंबार दर्शन- ये सब कल्याणकारी हैं। उद्योग में लगे रहना- उससे विर‍क्त न होना धन, लाभ और कल्याण का मूल है। इसलिये उद्योग न छोड़ने वाला मनुष्‍य महान हो जाता है और अनन्त सुख का उपभोग करता है।
   तात! समर्थ पुरुष के लिये सब जगह और सब समय में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त श्रीसम्पन्न बनाने वाला उपाय दूसरा नहीं माना गया है। जो शक्तिहीन है, वह तो सब पर क्षमा करे ही; जो शक्तिमान है, वह भी धर्म के लिये क्षमा करे तथा जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके लिये तो क्षमा सदा ही हितकारिणी होती है। 
    जिस सुख का सेवन करते रहने पर भी मनुष्‍य धर्म और अर्थ से भ्रष्‍ट नहीं होता, उसका यथेष्‍ट सेवन करे; किंतु मूढव्रत न करे। जो दु:ख से पीड़ित, प्रमादी, नास्तिक, आलसी, अजितेन्द्रिय और उत्साह रहित हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी का वास नहीं होता। 
     दुष्‍ट बुद्धि वाले लोग सरलता से युक्त और सरलता के ही कारण लज्जाशील मनुष्‍य को अशक्त मानकर उसका तिरस्कार करते हैं। अत्यन्त श्रेष्‍ठ, अतिशय दानी, अतीव शूरवीर, अधिक व्रत-नियमों का पालन करने वाले और बुद्धि के घमंड में चूर रहने वाले मनुष्‍य के पास लक्ष्‍मी भय के मारे नहीं जाती।
    लक्ष्मी न तो अत्यन्त गुणवानों के पास रहती है और न बहुत निर्गुणों के पास। यह न तो बहुत-से गुणों को चाहती है और न गुणहीन के प्रति ही अनुराग रखती है। उन्मत्त गौ की भाँति यह अन्धी लक्ष्‍मी कहीं-कहीं ही ठहरती है। 
    वेदों का फल है अग्निहोत्र करना, शास्त्राध्‍ययन का फल है सुशीलता और सदाचार, स्त्री का फल है रतिसुख और पुत्र की प्राप्ति तथा धन का फल है दान और उपभोग। जो अधर्म के द्वारा कमाये हुए धन से परलौकिक कर्म करता है, वह मरने के पश्‍चात उसके फल को नहीं पाता; क्योंकि उसका धन बुरे रास्ते से आया होता है। घोर जंगल में, दुर्गम मार्ग में, कठिन आपत्ति के समय, घबराहट में और प्रहार के लिये शस्त्र उठे रहने पर भी सत्त्व-सम्पन्न अर्थात आत्मबल से युक्त पुरुषों को भय नहीं होता।
    उद्योग, संयम, दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच-विचारकर कार्यारम्भ करना- इन्हें उन्नति का मूलमन्त्र समझिये। तपस्वियों का बल है तप, वेदवेत्ताओं का बल है वेद,पापियों का बल है हिंसा और गुणवानों का बल है क्षमा। जल, मूल, फल, दूध, घी, ब्राह्मण की इच्‍छापूर्ति, गुरु का वचन और औषध-ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते। 

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनचत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 71-85 का हिन्दी अनुवाद)

   जो अपने प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरों के प्रति भी न करे। थोड़े में धर्म का यही स्‍वरूप है। इसके विपरीत जिसमें कामना से प्रवृत्ति होती है, वह तो अधर्म है। अक्रोध से क्रोध को जीते, असाधु को सद्व्‍यवहार से वश में करे, कृपण को दान से जीते और झूठ पर सत्‍य से विजय प्राप्‍त करे। स्‍त्रीलम्‍पट, आलसी, डरपोक, क्रोधी, पुरुषत्‍व के अभिमानी, चोर, कृतघ्र और नास्तिक का विश्वास नहीं करना चाहिये। 
जो नित्‍य गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश और बल ये चारों बढ़ते हैं। 
जो धन अत्‍यंत क्‍लेश उठाने से , धर्म का उल्‍लंघन करने से अथवा शत्रु के सामने सिर झुकाने से प्राप्‍त होता हो, उसमें आप मन न लगाइये। 
    विद्याहीन पुरुष, संतानोत्‍पत्ति रहित स्‍त्रीप्रसंग, आहार न पाने वाली प्रजा और बिना राजा के राष्‍ट्र के लिये शोक करना चाहिये।
अधिक राह चलना देहधारियों के लिये दु:खरूप बुढ़ापा है, बराबर पानी गिरना पर्वतों का बुढ़ापा है, सम्‍भोग से वंचित रहने का दुख स्त्रियों के लिये बुढ़ापा है और वचनरूपी बाणों का आघात मन के लिये बुढ़ापा है।
    अभ्‍यास न करना वेदों का मल है; ब्राह्मणोचित नियमों का पालन न करना ब्राह्मण का मल है, बाह्लीक देश पृथ्‍वी का मल है तथा झूठ बोलना पुरुष का मल है, क्रीडा एवं हास-परिहास की उत्‍सुकता पतिव्रता स्‍त्री का मल है और पति के बिना परदेश में रहना स्‍त्री मात्र का मल है। सोने का मल है चाँदी, चाँदी का मल है राँगा, राँगे का मल है सीसा और सीसे का भी मल है मैलापन।
     अधिक सो कर नींद को जीतने का प्रयास न करे, कामोपभोग के द्वारा स्‍त्री को जीतने की इच्‍छा न करे, लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न रखे और अधिक पीकर मदिरा पीने की आदत को जीतने का प्रयास न करे।
     जिसका मित्र धन-दान के द्वारा वश में आ चुका है, शत्रु युद्ध में जीत लिये गये हैं और स्त्रियाँ खान-पान के द्वारा वशीभूत हो चुकी हैं, उसका जीवन सफल है अर्थात सुखमय है। जिनके पास हजार रूपये हैं, वे भी जीवित हैं तथा जिनके पास सौ रूपये हैं, वे भी जीवित हैं; अत: महाराज धृतराष्‍ट्र! आप अधिक का लोभ छोड़ दीजिये,इससे भी किसी तरह जीवन नहीं रहेगा, यह बात नहीं है। इस पृथ्वी पर जो भी धान, जौ, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सबके सब एक पुरुष के लिये भी पर्याप्‍त नहीं है। ऐसा विचार करने वाला मनुष्‍य मोह में नहीं पड़ता।
   राजन! मैं फिर कहता हूँ, यदि आपका अपने पुत्रों और पाण्‍डवों में समान भाव है तो उन सभी पुत्रों के साथ एक-सा बर्ताव कीजिये।

(इस प्रकारश्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अंतर्गत प्रजागरपर्वमें विदुरवाक्‍यविषयक उनतालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

चालीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“धर्म की महत्ता का प्रतिपादन तथा ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के धर्म का संक्षिप्‍त वर्णन”

    विदुरजी कहते हैं ;- राजन! जो सज्‍जन पुरुषों से आदर पाकर आसक्ति रहित हो अपनी शक्ति के अनुसार अर्थ-साधन करता रहता है, उस श्रेष्‍ठ पुरुष को शीघ्र ही सुयश की प्राप्ति होती है; क्‍योंकि संत जिस पर प्रसन्‍न होते हैं,वह सदा सुखी रहता है। 
    जो अधर्म से उपार्जित महान धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्‍ट हुए बिना ही त्‍याग देता है, वह जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुल को छोड़ता है, उसी प्रकार दु:खों से मुक्‍त हो सुखपूर्वक शयन करता है। 
झूठ बोलकर उन्‍नति करना, राजा के पास तक चुगली करना, गुरु जन पर भी झूठा दोषारोपण करने का आग्रह करना- ये तीन कार्य ब्रह्म हत्‍या के समान हैं। 
     गुणों में दोष देखना एकदम मृत्यु के समान है, निंदा करना लक्ष्‍मी का वध है तथा सेवा का अभाव, उतावलापन और आत्‍म-प्रशंसा- ये तीन विद्या के शत्रु हैं। 
   आलस्‍य, मद-मोह, चंचलता, गोष्‍टी, उद्दण्‍डता, अभिमान और स्‍वार्थ त्‍याग का अभाव- ये सात विद्यार्थियों के लिये सदा ही दोष माने गये हैं। सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ से मिले? विद्या चा‍हने-वाले के लिये सुख नहीं है; सुख की चाह हो तो विद्या को छोड़ें और विद्या चाहे तो सुख का त्‍याग करें। ईंधन से आग की, नदियों से समुद्र की, समस्‍त प्राणियों से मृत्‍यु की और पुरुषों से कुलटा स्‍त्री की कभी तृप्ति नहीं होती। 
    आशा धैर्य को, यमराज समृद्धि को, क्रोध लक्ष्‍मी को, कृपणता यश को और सार-संभाल का अभाव पशुओं को नष्‍ट कर देता है, परंतु राजन! ब्राह्मण यदि अकेला ही क्रुद्ध हो जाय तो सम्‍पूर्ण राष्‍ट्र का नाश कर देता है। बकरियाँ, काँसे का पात्र, चाँदी, मधु, धनुष, पक्षी,वेदवेत्ता ब्राह्मण, बूढ़ा कुटम्‍बी और विपत्तिग्रस्‍त कुलीन पुरुष- ये सब आपके घर में सदा मौजूद रहें। 
    भारत! मनुजी ने कहा है कि देवता, ब्राह्मण तथा अतिथियों की पूजा के लिये बकरी, बैल, चंदन, वीणा, दर्पण, मधु, घी, जल, ताँबे के बर्तन, शंग, शालग्राम और गोगेचन- ये सब वस्‍तुएं घर पर रखनी चाहिये। 
    तात! अब मैं तुम्‍हें यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोपरि पुण्‍यजनक बात बता रहा हूँ- कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिये भी कभी धर्म का त्‍याग न करें। धर्म नित्‍य है, किंतु सुख-दु:ख अनित्‍य है। जीव नित्‍य है, पर इसका कारण अनित्‍य है। आप अनित्‍य को छोड़कर नित्‍य में स्थित हो जाइये और संतोष धारण कीजिये; क्‍योंकि संतोष ही सबसे बड़ा लाभ है। 
     धन-धान्‍यादि से परिपूर्ण पृथ्वी का शासन करके अंत में समस्‍त राज्‍य और विपुल भोगों को यहीं छोड़कर यमराज के वश में गये हुए बड़े-बड़े बलवान एवं महानुभाव राजाओं की ओर दृष्टि डालिये। 
     राजन! जिसको बड़े कष्‍ट से पाला-पोसा था, वही पुत्र जब मर जाता है, तब मनुष्‍य उसे उठाकर तुरंत अपने घर से बाहर कर देते हैं। पहले तो उसके लिये बाल छितराये करुणा भरे स्‍वर में विलाप करते हैं, फिर साधारण काठ की भाँति उसे जलती चिता में झोंक देते हैं। मरे हुए मनुष्‍य का धन दूसरे लोग भोगते हैं, उसके शरीर की धातुओं को पक्षी खाते हैं या आग जलाती है। यह मनुष्‍य पुण्‍य-पाप से बंधा हुआ इन्‍हीं दोनों के साथ परलोक में गमन करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चत्‍वारिंश अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

   तात! बिना फल-फूल के वृक्ष को जैसे पक्षी छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उस प्रेत को उसके जाति वाले, सुहृद और पुत्र चिता में छोड़कर लौट आते हैं। अग्नि में डाले हुए उस पुरुष के पीछे तो केवल उसका अपना किया हुआ बुरा या भला कर्म ही जाता है। इसलिये पुरुष को चाहिये कि वह धीरे-धीरे प्रयत्‍नपूर्वक धर्म का ही संग्रह करे। 
     इस लोक और परलोक से ऊपर और नीचे तक सर्वत्र अज्ञानरूप महान अंधकार फैला हुआ है। वह इन्द्रियों को महान मोह में डालने वाला है। राजन! आप इसको जान लीजिये, जिससे यह आपका स्‍पर्श न कर सके। मेरी इस बात को सुनकर यदि आप सब ठीक-ठीक समझ सकेंगे तो इस मनुष्‍य लोक में आपको महान यश प्राप्‍त होगा और इहलोक तथा परलोक में आपके लिये भय नहीं रहेगा।
     भारत! यह जीवात्‍मा एक नदी है। इसमें पुण्‍य ही तीर्थ है। सत्‍यस्‍वरूप परमात्‍मा से इसका उद्गम हुआ है। धैर्य ही इसके‍ किनारे हैं। दया इसकी लहरें है। पुण्‍यकर्म करने वाला मनुष्‍य इसमें स्‍नान करके पवित्र होता है; क्‍योंकि लोभ रहित आत्‍मा सदा पवित्र ही है। 
    काम-क्रोधादिरूप ग्राह से भरी, पांच इन्द्रियों के जल से पूर्ण इस संसार नदी के जन्‍म-मरणरूप दुर्गम प्रवाह को धैर्य की नौका बनाकर पार कीजिये।
      जो बुद्धि, धर्म, विद्या और अवस्‍था में बड़े अपने बंधु-को आदर-सत्‍कार से प्रसन्‍न करके उससे कर्तव्‍य-अकर्तव्‍य के विषय में प्रश्‍न करता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। शिश्‍न और उदर की धैर्य से रक्षा करे, अर्थात कामवेग और भूख की ज्‍वाला को धैर्यपूर्वक सहे। इसी प्रकार हाथ-पैर की नेत्रों से, नेत्र और कानों की मन से तथा मन और वाणी की सत्‍कर्मों से रक्षा करे।
     जो प्रतिदिन जल से स्‍नान-संध्‍या-तर्पण आदि करता है, नित्‍य यज्ञोपवीत धारण किये रहता है, नित्‍य स्‍वाध्‍याय करता है, पतितों का अन्‍न त्‍याग देता है, सत्‍य बोलता है और गुरु की सेवा करता है, वह ब्राह्मण कभी ब्रह्मलोक से भ्रष्‍ट नहीं होता।
वेदों को पढ़कर, अग्निहोत्र के लिये अग्नि के चारों ओर कुश बिछाकर नाना प्रकार के यज्ञों द्वारा यजन कर और प्रजाजनों का पालन करके गौ और ब्राह्मणों के हित के लिये संग्राम में मृत्‍यु को प्राप्‍त हुआ क्षत्रिय शस्‍त्र से अन्‍त:करण पवित्र हो जाने के कारण ऊर्ध्‍वलोक को जाता है।
     वैश्य यदि वेद-शास्त्रों का अध्‍ययन करके ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा आश्रित जनों को समय-समय पर धन देकर उनकी सहायता करे और यज्ञों द्वारा तीनों अग्नियों के पवित्र धूम की सुगंध लेता रहे तो वह मरने के पश्‍चात स्‍वर्ग लोक में दिव्‍य सुख भोगता है।
    शूद्र यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍य की क्रम से न्‍याय-पूर्वक सेवा करके संतुष्‍ट करता है तो वह व्‍यथा से रहित, पापों से मुक्‍त होकर देह-त्‍याग के पश्चात स्‍वर्ग सुख का उपभोग करता है। 
    महाराज! आपसे यह मैंने चारों वर्णों का धर्म बताया है; इसे बताने का कारण भी सुनिये। आपके कारण पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर क्षत्रिय धर्म से गिर रहे हैं, अत: आप उन्‍हें पुन: राजधर्म में नियुक्‍त कीजिये। 
    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! तुम प्रतिदिन मुझे जिस प्रकार उपदेश दिया करते हो, वह बहुत ठीक है। सौम्‍य! तुम मुझसे जो कुछ भी कहते हो, ऐसा ही मेरा भी विचार है। 
   यद्यपि मैं पाण्‍डवों के प्रति सदा ऐसी ही बुद्धि रखता हूँ, तथापि दुर्योधन से मिलकर फिर बुद्धि पलट जाती है। प्रारब्‍ध का उल्लघंन करने की शक्ति किसी भी प्राणी में नहीं है। मैं तो प्रारब्ध को ही अचल मानता हूँ, उसके सामने पूरूषार्थ तो व्यर्थ है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरवाक्यविषयक चालीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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