सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से पैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का मुख्‍य-मुख्‍य कुरुवंशियों के प्रति संदेश”

   युधिष्ठिर बोले ;- संजय! साधु-असाधु, बालक-वृद्ध तथा निर्बल एवं बलिष्‍ठ– 'सबको विधाता अपने वश में रखता है। वही सबका नियंता है और प्राणियों के पूर्वजन्‍म के कर्मों के अनुसार उन्‍हें सब प्रकार का फल देता है। वही मूर्ख को विद्वान और विद्वान को मूर्ख बना देता है। दुर्योधन अथवा धृतराष्‍ट्र यदि मेरे बल और सेना का समाचार पूछें तो तुम उन्‍हें सब ठीक-ठीक बता देना। जिससे वे प्रसन्‍न होकर आपस में सलाह करके यथार्थ रूप से अपने कर्तव्‍य का निश्चय कर सकें।' संजय! तुम कुरुदेश में जाकर मेरी ओर से महाबली धृतराष्‍ट्र को प्रणाम करके उनके दोनों पैर पकड़ लेना और उनसे स्‍वास्‍थ्‍य का समाचार पूछना। तत्‍पश्चात कौरवों से घिरकर बैठे हुए इन महाराज धृतराष्‍ट्र से कहना,-‘राजन! पाण्‍डव लोग आपकी ही सामर्थ्‍य से सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं।'

   ‘शत्रुदमन नरेश! जब वे बालक थे, तब आपकी ही कृपा से उन्‍हें राज्‍य मिला था। पहले उन्‍हें राज्‍य पर बिठाकर अब अपने ही आगे उन्‍हें नष्‍ट होते देख उपेक्षा न कीजिये’। संजय! उन्‍हें ये भी बताना कि ‘तात! यह सारा राज्‍य किसी एक के ही लिये पर्याप्‍त हो, ऐसी बात नहीं है। हम सब लोग मिलकर एक साथ रहकर सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करें, इसके विपरीत करके आप शत्रुओं के वश में न पड़ें’।

     इसी तरह भरतवंशियों के पितामह शांतनुनंदन भीष्‍मजी को भी मेरा नाम लेते हुए सिर झुकाकर प्रणाम करना और प्रणाम के पश्चात हमारे उन पितामह से इस प्रकार कहना,-‘दादाजी! आपने शांतनु के डूबते हुए वंश का पुनरुद्धार किया था। अब फिर अपनी बुद्धि से विचार करके कोई ऐसा काम कीजिये, जिससे आपके सभी पौत्र परस्‍पर प्रेमपूर्वक जीवन बिता सकें'

    संजय! इसी प्रकार कौरवों के मंत्री विदुरजी से कहना,-‘सौम्‍य! आप युद्ध न होने की ही सलाह दें; क्‍योंकि आप युधिष्ठिर का हित चाहने वाले हैं’। 

    तदनंतर कौरवों की सभा में बैठे हुए अमर्ष में भरे रहने-वाले राजकुमार दुर्योधन से बार-बार अनुनय-विनय करके कहना,- ‘तुमने द्रौपदी को बिना किसी अपराध के सभा में बुलाकर जो उसका तिरस्‍कार किया, उस दु:ख को हम लोगों ने इसलिये चुपचाप सह लिया है कि हमें कौरवों का वध न करना पड़े।' इसी प्रकार पाण्‍डवों ने अत्‍यंत बलिष्‍ठ होते हुए भी जो पहले और पीछे के सभी क्‍लेशों को सहन किया है, उसे सब कौरव जानते हैं। ‘सौम्‍य! तुमने हम लोगों को मृगछाला पहनाकर जो वन में निर्वासित कर दिया,उस दु:ख को भी हम इसलिये सह लेते हैं कि हमें कौरवों का वध न करना पड़े। तुम्‍हारी अनुमति से दु:शासन ने माता कुंती की उपेक्षा करके जो द्रौपदी के केश पकड़ लिये, उस अपराध की भी हमने इसीलिये उपेक्षा कर दी है।'

     ‘परंतप! परंतु अब हम अपना उचित भाग निश्चय ही लेंगे। नरश्रेष्‍ठ! तुम दूसरों के धन से अपनी लोभयुक्‍त बुद्धि हटा लो।' राजन! इस प्रकार हम लोगों में परस्‍पर शांति एवं प्रीति बनी रह सकती है। हम शांति चाहते हैं; भले ही तुम हमें राज्‍य का एक हिस्‍सा ही दे दो। ‘अविस्थल, वृकस्थल, माकंदी, वारणावत तथा पांचवा कोई भी एक गांव दे दो। इसी पर युद्ध की समाप्ति हो जायगी।' ‘सुयोधन! हम पांच भाइयों को पांच गांव दे दो।' महाप्राज्ञ संजय! ऐसा हो जाने पर अपने कुटुम्‍बीजनों के साथ हम लोगों की शांति बनी रहेगी। ‘भाई भाई से मिले और पिता पुत्र से मिले। पाञ्चालदेशीय क्षत्रिय कुरुवंशियों के साथ मुसकराते हुए मिलें। मेरी यही कामना है कि कौरवों तथा पाञ्चालों को अक्षतशरीर देखूं। तात! भरतश्रेष्‍ठ दुर्योधन! हम सब लोग प्रसन्‍नचित्‍त होकर शांत हो जाय, ऐसी चेष्‍टा करो’। संजय! मैं शांति रखने में भी समर्थ हूँ ओर युद्ध करने में भी। धर्म और अर्थ के विषय का भी मुझे ठीक-ठीक ज्ञान है। मैं समयानुसार कोमल भी हो सकता हूँ और कठोर भी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत संजययानपर्व में युधिष्ठिरसंदेशविषयक इकतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन द्वारा कौरवों के लिये संदेश देना, संजय का हस्तिनापुर जा धृतराष्ट्र से मिलकर उन्‍हें युधिष्ठिर-का कुशल समाचार कहकर धृतराष्‍ट्र के कार्य की निंदा करना”

    वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर कुंतीपुत्र अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्‍ण के सुनते हुए वहाँ संजय से इस प्रकार कहा।

    अर्जुन बोले ;- संजय! शांतनुनंदन पितामह भीष्‍म, धृतराष्‍ट्र, पुत्रसहित द्रोणाचार्य, महाराज शल्‍य, बाह्लीक, विकर्ण, सोमदत्त, सुबलपुत्र शकुनि, विविंशति, चित्रसेन, जयत्सेन तथा योद्धाओं में श्रेष्‍ठ शूरवीर भगदत्त-इन सबसे और दूसरे भी जो कौरव वहाँ रहते हैं, युद्ध की इच्‍छा से जो-जो राजा वहाँ एकत्र हुए हैं तथा दुर्योधन ने जिन-जिन भूमिपालों और सिंधु-देशीय वीरों को बुला रखा है, उन सबसे भी यथोचित रीति से मिलकर मेरी ओर से कुशल ओर अभिवादन कहना। तत्‍पश्चात राजाओं की मण्‍डली में पापियों के सिरमौर दुर्योधन को मेरा संदेश सुना देना।

     वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार कुंती-पुत्र धनंजय ने संजय को जाने की अनुमति देकर अर्थ और अधर्म से युक्‍त बात कही, जो स्‍वजनों को हर्ष देने वाली तथा धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को भयभीत करने वाली थी।

   अर्जुन के इस प्रकार आदेश देने पर संजय ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर उसे शिरोधार्य किया। तत्‍पश्चात उसने अन्‍य कुंती-कुमारों तथा यशस्‍वी भगवान श्रीकृष्‍ण से जाने की अनुमति मांगी। पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर संजय महामना राजा धृतराष्‍ट्र के सम्‍पूर्ण आदेशों का पालन करके उस समय वहाँ से प्रस्थित हुए। हस्तिनापुर पहुँचकर उन्‍होंने शीघ्र ही राजभवन में प्रवेश किया और अन्‍त:पुर के निकट जाकर द्वारपाल से कहा,

   संजय बोला ;- ‘द्वारपाल! तुम राजा धृतराष्‍ट्र को मेरे आने की सूचना दो ओर कहो-‘पाण्‍डवों के पास से संजय आया है। विलम्‍ब न करो।' ‘द्वारपाल! यदि महाराज जागते हो तो तुम उन्‍हें मेरा प्रणाम कहना। उनकी सूचना मिल जाने पर मैं भीतर प्रवेश करूंगा। मुझे उनसे एक आवश्‍यक निवेदन करना है। 'यह सुनकर द्वारपाल महाराज के पास गया और इस प्रकार बोला। 

    द्वारपाल ने कहा ;- महाराज! आपको नमस्‍कार है। पाण्‍डवों के पास से लौटे हुए दूत संजय आपके दर्शन की इच्‍छा से द्वार पर खड़े है। राजन! आज्ञा दीजिये, ये संजय क्‍या करें? 

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- द्वारपाल! संजय का स्‍वागत है। उसे कहो कि मैं सकुशल हूं, अत: इस समय उससे भेंट करने को तैयार हूँ। उसे भीतर ले आओ। उससे मिलने में मुझे कभी भी अड़चन नहीं होती। फिर वह दरवाजे पर सटकर क्‍यों खड़ा है?

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर सूतपुत्र संजय ने बुद्धिमान, शूरवीर तथा श्रेष्‍ठ पुरुषों से सुरक्षित विशाल राजभवन में प्रवेश किया और सिंहासन पर बैठे हुए विचित्रवीर्यनंदन महाराज धृतराष्‍ट्र के पास जा हाथ जोड़कर कहा। 

     संजय बोला ;- ‘भूपाल! आपको नमस्‍कार है। नरदेव! मैं संजय हूँ और पाण्‍डवों के पास जाकर लौटा हूँ। उदारचित्‍त पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर ने आपको प्रणाम करके आपकी कुशल पूछी। उन्‍होने बड़ी प्रसन्‍नता के साथ आपके पुत्रों का समाचार पूछा है। राजन! आप अपने पुत्रों, नातियों, सुहृदों, मन्त्रियों तथा जो आपके आश्रित रहकर जीवन निर्वाह करते हैं, उन सबके साथ आनन्‍दपूर्वक हैं न? धृतराष्ट्र ने कहा-तात संजय! मैं तुम्‍हारा स्‍वागत करके पूछता हूँ कि कुंतीनंदन अजातशत्रु युधिष्ठिर सुख से हैं न? क्‍या कौरवों के राजा युधिष्ठिर अपने पुत्र, मंत्री तथा छोटे भाइयों सहित सकुशल हैं?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय ने कहा ;- ‘पाण्‍डुपुत्र राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियों सहित सकुशल हैं और पहले आपके सामने जो उनका राज्‍य और धन आदि उन्‍हें प्राप्‍त था, उसे पुन: वापस लेना चाहते हैं। वे विशुद्धभाव से धर्म और अर्थ का सेवन करने वाले, मनस्‍वी, विद्वान दूरदर्शी ओर शीलवान हैं। भारत! पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर की दृष्टि में अन्‍य धर्मों की अपेक्षा दया ही परम धर्म है। वे धनसंग्रह की अपेक्षा धर्म-पालन को ही श्रेष्‍ठ मानते हैं। उनकी बुद्धि धर्मविहीन एवं निष्‍प्रयोजन सुख तथा प्रिय वस्‍तुओं का अनुसरण नहीं करती है। महाराज! सूत में बंधी हुई कठपुतली जिस प्रकार दूसरों से प्रेरित होकर ही नृत्‍य करती है, उसी प्रकार मनुष्‍य परमात्‍मा की प्रेरणा से ही प्रत्‍येक कार्य के लिये चेष्‍टा करता है।

    पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर के इस कष्‍ट को देखकर मैं यह मानने लगा हूँ कि मनुष्‍य पुरुषार्थ की अपेक्षा दैव (ईश्र्वरीय) विधान ही बलवान है। अपका कर्मदोष अत्‍यंत भयंकर, अवर्णनीय तथा भविष्‍य में पाप एवं दु:ख की प्राप्ति कराने वाला है। इसे भी देखकर मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि परमात्‍मा का विधान ही प्रधान है। जब तक विधाता चाहता है, तभी तक यह मनुष्‍य सीमित समय तक ही प्रशंसा पाता है। जैसे सर्प पुरानी केंचुल को, जो शरीर में ठहर नहीं सकती, उतारकर चमक उठता है, उसी प्रकार अजातशत्रु वीर युधिष्ठिर पाप का परित्‍याग करके और उस पाप को आप पर ही छोड़कर अपने स्‍वाभाविक सदाचार से सुशोभित हो रहे हैं। महाराज! जरा आप अपने कर्म पर तो ध्‍यान दीयिये।

      धर्म और अर्थ से युक्‍त जो श्रेष्‍ठ पुरुषों का व्‍यवहार है, आपका बर्ताव उससे सर्वथा विपरीत है। राजन! इसी के कारण इस लोक में आपकी निंदा हो रही है और पुन: परलोक में भी आपको पापमय नरका का दु:ख भोगना पड़ेगा। भरतवंशशिरोमणे! आप इस समय अपने पुत्रों के वश में होकर पाण्‍डवों को अलग करके अकेले उनकी सारी सम्‍पत्ति ले लेना चाहते हैं; पहले तो इसकी सफलता में ही संदेह है। इस भूमण्‍डल में इस अधर्म के कारण आपकी बड़ी भारी निंदा होगी। अत: यह कार्य कदापि आपके योग्‍य नहीं है। जो लोग बुद्धिहीन, नीच कुल में उत्‍पन्‍न,क्रुर, दीर्घकाल-तक वैरभाव बनाये रखने वाले, क्षत्रियोचित्‍त युद्धविद्या में अ‍नभिज्ञ, परा‍क्रमहीन और अशिष्‍ट होते हैं, ऐसे ही स्‍वभाव के लोगों पर आपत्तियां आती हैं।

    जो कुलही, बलवान, यशस्‍वी, बहुत विद्वान, सुखजीवी और मन को वश में रखनेवाला है तथा जो परस्‍पर गुंथे हुए धर्म ओर अधर्म को धारण करता है, वही भाग्‍यवश अभीष्‍ठ गुण-सम्‍पत्ति प्राप्‍त करता है। आप श्रेष्‍ठ मन्त्रियों का सेवन करने वाले हैं, स्‍वयं भी बुद्धिमान हैं, आपत्तिकाल में धर्म और अर्थ का उचित रूप से प्रयोग करते हैं, सब प्रकार की अच्‍छी सलाहों से भी आप युक्‍त हैं। फिर आप-जैसे साधन सम्‍पन्‍न विद्वान पुरुष ऐसा क्रूरतापूर्ण कार्य कैसे कर सकते हैं? सदा कर्मों में नियुक्‍त किये हुऐ ये आपके मन्‍त्रवेत्‍ता मन्‍त्री कर्ण आदि एकत्र होकर बैठक किया करते हैं। इन्‍होंने जो प्रबल निश्चय कर लिया है, यह अवश्‍य ही कौरवों के भावी विनाश का कारण बन गया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 22-32 का हिन्दी अनुवाद)

   राजन! यदि अजातशत्रु युधिष्ठिर आप पर ही सारे पापों (दोषों)का भार डालकर पाप के बदले पाप करने की इच्‍छा कर लें तो सारे कौरव असमय में ही नष्‍ट हो जायं और संसार में केवल आपकी निंदा फैल जाय। ऐसी कौन-सी वस्‍तु है, जो लोकपालों के अधिकार से बाहर हो? तभी तो अर्जुन स्‍वर्ग-लोक को देखने के लिये गये थे। इस प्रकार लोकपालों द्वारा सम्‍मानित होने पर भी उन्‍हें कष्‍ट भोगना पड़ता है तो नि:संदेह यह कहा जा सकता है कि दैवबल के सामने मनुष्‍य का पुरुषार्थ कुछ भी नहीं है। ये शोर्य, विद्या आदि गुण अपने पूर्वकर्म के अनुसार ही प्राप्‍त होते हैं और प्राणियों की वर्तमान उन्‍नति तथा अवनति भी अनित्‍य है। यह सब सोचकर राजा बलि ने जब इसका पार नहीं पाया, तब यही निश्चय किया कि इस विषय में काल (दैव) के सिवा और कोई कारण नहीं है। आंख, कान, नाक, त्‍वचा तथा जिहृा-ये पांच ज्ञानेन्द्रियां समस्‍त प्राणियों के रूप आदि विषयों के ज्ञान के स्‍थान (कारण) हैं।

   तृष्‍णा का अंत होने के पश्चात ये सदा प्रसन्‍न ही रहती हैं। अत: मनुष्‍य को चाहिये कि वह व्‍यथा और दु:ख से रहित हो तृष्‍णा की निवृत्ति के लिये उन इन्द्रियों को अपने वश में करे। कहते हैं, केवल पुरुषार्थ का अच्‍छे ढंग से प्रयोग होने पर भी वह उत्‍तम फल देने वाला होता है, जैसे माता-पिता के प्रयत्‍न से उत्‍पन्‍न हुआ पुत्र विधिपूर्वक भोजनादि द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त होता है; परंतु मैं इस मान्‍यता पर विश्वास नहीं करता। राजन! इस जगत में प्रिय-अप्रिय, सुख-दु:ख, निंदा-प्रशंसा- ये मनुष्‍य को प्राप्‍त होते ही रहते हैं। इसीलिये लोग अपराध करने पर अपराधी की निंदा करते हैं ओर जिसका बर्ताव उत्‍तम होता है, उस साधु पुरुष की ही प्रशंसा करते हैं। अत: आप जो भरतवंश में विरोध फैलाते हैं, इसके कारण मैं तो आपकी निंदा करता हूं; क्‍योंकि इस कौरव-पाण्‍डव-विरोध से निश्चय ही समस्‍त प्रजाओं का विनाश होगा। यदि आप मेरे कथनानुसार कार्य नहीं करेंगे तो आपके अपराध से अर्जुन समस्‍त कौरव वंश को उसी प्रकार दग्‍ध कर डालेंगे, जैसे आग घास-फूस के समूह को जला देती है।

   राजन! महाराज! समस्‍त संसार में एकमात्र आप ही अपने स्‍वेच्‍छाचारी पुत्र की प्रशंसा करते हुए उसके अधीन होकर द्यूतक्रीड़ा के समय जो उसकी प्रशंसा करते थे तथा शां‍त न हो सके, उसका अब यह भयंकर परिणाम अपनी आंखों से देख लीजिये। नरेन्‍द्र! आपने ऐसे लोगों को इकट्ठा कर लिया है, जो विश्वास के योग्‍य नहीं है तथा विश्वसनीय पुरुषों (पाण्‍डवों) को आपने दण्‍ड दिया है, अत: कुरुकुल नंदन! अपनी इस (मा‍नसिक) दुर्बलता के कारण आप अनंत एवं समृद्धिशालिनी पृथ्वी की रक्षा करने में कभी समर्थ नहीं हो सकते। नरश्रेष्‍ठ! इस समय रथ के वेग से हिलने डुलने के कारण मैं थक गया हूं, यदि आज्ञा हो तो सोने के लिये जाऊँ। प्रात:-काल जब सभी कौरव सभा में एकत्र होंगे, उस समय वे अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनेंगे। 

   धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- सूतपुत्र! मैं आज्ञा देता हूं, तुम अपने घर जाओ और शयन करो। सबेरे सब कौरव सभा में एकत्र हो तुम्‍हारे मुख से अजातशत्रु युधिष्ठिर के संदेश को सुनेंगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अतंर्गत संजययानपर्व में धृतराष्‍ट्रसंजयसंवादविषयक बत्‍तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र-विदुर-संवाद”

   वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! महाबुद्धिमान राजा धृतराष्‍ट्र ने द्वारपाल से कहा,

   धृतराष्ट्र बोले ;- ‘मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्‍हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ’। धृतराष्‍ट्र का भेजा हुआ वह दूत जाकर विदुर से बोला,

   दूत बोला ;-‘महामते! हमारे स्‍वामी महाराज धृतराष्‍ट्र आपसे मिलना चाहते हैं।' उसके ऐसा कहने पर विदुरजी राजमहल के पास जाकर बोले,

   विदुरजी बोले ;- ‘द्वारपाल! धृतराष्‍ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो’। 

   द्वारपाल ने जाकर कहा ;- महाराज! आपकी आज्ञा से विदुर जी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्‍हें क्‍या कार्य बताया जाय?

  धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- महाबुद्धिमान दूरदूर्शी विदुर को भीतर ले आओ, मुझे इस विदुर से मिलने में कभी भी अड़चन नहीं है।

   द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला ;- विदुरजी! आप बुद्धिमान महाराज धृतराष्‍ट्र के अन्‍त:पुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है।

   वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- राजन! तदनंतर विदुर धृतराष्‍ट्र के महल के भीतर जाकर चिंता में पड़े हुए राजा से हाथ जोड़कर बोले,

   विदुर बोले ;- 'महाप्राज्ञ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। यदि मेरे करने योग्‍य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये।' 

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! बुद्धिमान संजय आया था, वह मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनायेगा। आज में उस कुररुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका- यही मेरे अंगों का जला रहा है ओर इसी ने मुझे अब तक जगा रखा है। तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभीतक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्‍याण की बात समझो, वह कहो; क्‍योंकि हम लोगों में तुम्‍हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। संजय जब से पाण्‍डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तब से मेरे मन को पूर्ण शांति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियां वि‍कल हो रही हैं। कल वह क्‍या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय बड़ी भारी चिंता हो रही है।

   विदुरजी बोले ;- राजन! जिसका बलवान के साथ विरोध हो गया है, उस साधनहीन दुर्बल मनुष्‍य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है, उस कामी को तथा चोर को रात में नींद नहीं आती। 

   धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- विदुर! मैं तुम्‍हारे धर्मयुक्‍त तथा कल्‍याण करने वाले सुंदर वचन सुनना चाहता हूँ; क्‍योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्‍हीं विद्वानों के भी माननीय हो। 

   विदुरजी बोले ;- महाराज धृतराष्‍ट्र! श्रेष्‍ठ लक्षणों से सम्‍पन्‍न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्‍वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे,


पर आपने उन्‍हें वन में भेज दिया। आप धर्मात्‍मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों की ज्‍योति से हीन होने के कारण उन्‍हें पहचान न सके, इसी से उनके अत्‍यंत विपरीत हो गये और उन्‍हें राज्‍य का भाग देने में आपकी सम्‍मति नहीं हुई।

     युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्‍य तथा पराक्रम है; वे आप में पूज्‍यबुद्धि रखते हैं। इन्‍हीं सद्गणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत-से क्‍लेश सह रहे हैं। आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दु:शासन- जैसे अयोग्‍य व्‍यक्तियों पर राज्‍य का भार रखकर कैसे कल्‍याण चाहते हैं? अपने वास्‍तविक स्‍वरूप का ज्ञान, उद्योग, दु:ख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता- ये गुण, जिस मनुष्‍य-को पुरुषार्थ से च्‍युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। जो अच्‍छे कर्मों का सेवन करता है और बुरे कर्मों से दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके वे सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद)

   क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्‍जा उद्दण्‍डता तथा अपने को पूज्‍य समझना- ये भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्‍ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। दूसरे लोग जिसके कर्तव्‍य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा हो जाने पर ही जानते हैं, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्‍पत्ति अथवा दरिद्रता ये जिसके कार्य में विघ्‍न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है। जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धि वाले पुरुष शक्ति के अनुसार काम करने की इच्‍छा रखते हैं और करते भी हैं तथा किसी वस्‍तु को तुच्‍छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते। विद्वान पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है; किंतु शीघ्र ही समझ लेता है, समझकर कर्तव्‍यबुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्‍त होता है- कामना से नहीं, बिना पुछे दूसरे के विषय में व्‍यर्थ कोई बात नहीं कहता है। उसका यह स्‍वभाव पण्डित की मुख्‍य पहचान है। पण्डितों की-सी बुद्धि रखने वाले मनुष्‍य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं हैं।

     जो पहले निश्चय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है। भरतकुलभूषण! पण्डित जन श्रेष्‍ठ कर्मों में रुचि रखते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूल नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गंगाजी के हृद (गहरे गर्त) के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वही पण्डित कहलाता है। जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थों की असलियत का ज्ञान रखने वाला, सब कार्यों के करने का ढंग जानने वाला तथा मनुष्‍यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्‍य पण्डित कहलाता है। जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढंग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, वह पण्डित कहलाता है।

     जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो शिष्‍ट पुरुषों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही पण्डित की संज्ञा पा सकता है। बिना पढे़ ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े़ मनोरथ करने वाले और बिना काम किये ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्‍य को पण्डित लोग मूर्ख कहते हैं। जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है। जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है तथा जो अपने से बलवान के साथ वैर बांधता है, उसे मूढ़ विचार का मनुष्‍य कहते हैं। जो शत्रु को मित्र बनाता है और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्‍ट पहुँचाता है तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 34-49 का हिन्दी अनुवाद)

    भरतश्रेष्‍ठ! जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है। जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद मित्र नहीं मिलता, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं। मूढ़ चित्त वाला अधम मनुष्‍य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्‍वसनीय मनुष्‍य पर भी विश्‍वास करता है। स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्‍य महामूर्ख है। जो अपने बल को न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में मूढ़ बुद्धि कहलाता है। राजन! जो अनाधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी उद्दण्‍डतापूर्वक नहीं चलता, वह पण्डित कहलाता है। जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा?

    मनुष्‍य अकेला पाप कर के धन कमाता है और उस धन का उपभोग बहुत-से लोग करते हैं। उपभोग करने वाले तो दोष से छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है, एक को भी मारे या न मारे। परन्तु बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्‍ट्र का विनाश कर सकती है। एक बुद्धि से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्‍चय करके (चार साम, दान, भेद,दण्‍ड) से तीन (शत्रु, मित्र तथा उदासीन) को वश में कीजिये। पांच (इन्द्रियों) को जीतकर छ: (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्‍ड की कठोरता और अन्याय से धनोपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये,

     विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है; किंतु गुप्त मन्त्रणा का प्रकाशित होना राष्‍ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्‍ट भोजन न करे, अकेले किसी विषय का निश्चय न करे, अकेले रास्ता न चले और बहुत से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे। राजन! जैसे समु्द्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्‍य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्‍यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 50-66 का हिन्दी अनुवाद)

    इस जगत में क्षमा वशीकरण रूप है। भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्ति रूपी तलवार है, उसका दुष्‍ट पुरुष क्या कर लेंगे? तृण रहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्‍ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। समुद्र पर्यन्त इस सारी पृथ्‍वी में ये दो प्रकार के अधम पुरुष हैं- अकर्मण्‍य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी। बिल में रहने वाले जीवों को जैसे साँप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्‍वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण- इन दोनों को खा जाती है। जरा भी कठोर न बोलना और दुष्‍ट पुरुषों का आदर न करना- इन दो कर्मों को करने वाला मनुष्‍य इस लोक में विशेष शोभा पाता है।
    दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्‍य का आदर करने वाले पुरुष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्‍वास करके चलने-वाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता है और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है- ये दोनों ही अपने लिये तीक्ष्‍ण कांटों के समान हैं एवं अपने शरीर को सुखाने वाले हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते-अ‍कर्मण्‍य गृहस्थ और प्रपंच में लगा हुआ संन्यासी। राजन! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला।

    न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने चाहिये- अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना। जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्‍ट सहन न कर सके- इन दो प्रकार के मनुष्‍यों को गले में मजबूत पत्थर बांधकर पानी में डूबा देना चाहिये। पुरुषश्रेष्‍ठ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्‍डल को भेदकर ऊर्ध्‍वगति प्राप्त होते हैं- योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रओं के सम्मुख युद्ध करके मारा गया योद्धा। भरतश्रेष्‍ठ! मनुष्‍यों की कार्य सिद्धि के लिये उत्तम, मध्‍यम और अधम- ये तीन प्रकार के न्यायानूकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान जानते हैं। राजन! उत्तम, मध्‍यम और अधम- ये तीन प्रकार के पुरुष होते हैं; इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिये। राजन! तीन ही धन के अधिकारी नहीं माने जाते- स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसी का होता है, जिसके अधीन ये रहते हैं। दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग- ये तीनों ही दोष क्षय करने वाले होते हैं। काम, क्रोध और लोभ- ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे है; अत: इन तीनों को त्याग देना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 67-86 का हिन्दी अनुवाद)

    भारत! वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और पुत्र का जन्म- ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्‍ट से छूटना- यह एक ओर; वे तीन और यह एक बराबर ही हैं। भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले- इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्‍यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये। थोड़ी बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करने वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। ये चारों महाबली राजा के लिये त्याग ने योग्य बताये गये हैं। विद्वान पुरुष ऐसे लोगों को पहचान लें।

     तात! गृहस्‍थ धर्म में स्थित आप लक्ष्‍मीवान के घर में चार प्रकार के मनुष्‍यों को सदा रहना चाहिये-अपने कुटुम्‍ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्‍च कुल का मनुष्‍य, धनहीन मित्र ओर बिना संतान की बहिन। महाराज! इन्‍द्र के पूछने पर उनसे बृहस्‍पतिजी ने जिन चारों को तत्‍काल फल देन वाला बताया था, उन्‍हें आप मुझसे सुनिये- देवताओं का संकल्‍प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता ओर पापियों का विनाश। चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्‍पादित न हों, तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं- आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्‍वाध्‍याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्‍ठान। भरतश्रेष्‍ठ! पिता, माता, अग्नि, आत्‍मा और गुरु- मनुष्‍य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्‍न से सेवा करनी चाहिये।

     देवता, पितर, मनुष्‍य, संयासी और अतिथि- इन पांचों की पूजा करने वाला मनुष्‍य शुद्ध यश प्राप्‍त करता है। राजन! आप जहाँ-जहाँ जायंगे, वहाँ-वहाँ मित्र, शत्रु, उदासीन, आश्रय देन वाले तथा आश्रय पाने वाले- ये पांच आपके पीछे लगे रहेंगे। पांच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरुष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्‍त हो जाय तो उससे उसकी वृद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी। ऐश्र्वर्य या उन्‍नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्‍द्रा (ऊंघना), डर, क्रोध,आलस्‍य तथा दीर्घसूत्रता इन छ: दुर्गुणों को त्‍याग देना चाहिये। उपदेश न देने वाले आचार्य, मन्‍त्रोच्‍चारण न करने वाले होता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कुद वचन बोलने वाली स्‍त्री, ग्राम में रहने की इच्‍छा वाले ग्‍वाले तथा वन में रहने की इच्‍छावाले नाई-इन छ: को उसी भाँति छोड़ दे, जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्‍य छिद्र युक्‍त नाव का परित्‍याग कर देता है। मनुष्‍य को कभी भी सत्‍य, दान, कर्मण्‍यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य- इन छ: गुणों का त्‍याग नहीं करना चाहिये।

     राजन! धन की प्राप्ति, नित्‍य नीरोग रहना, स्‍त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अंदर रहना तथा धन पैदा कराने वाली विद्या का ज्ञान- ये छ: बातें इस मनुष्‍य लोक में सुखदायिनी होती हैं। मन में नित्‍य रहने वाले छ: शत्रु-(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्‍सर्य) को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्‍त नहीं होता, फिर उनसे उत्‍पन्‍न होने वाले अनर्थों से युक्‍त होने की तो बात ही क्‍या है? निम्‍नाकित छ: प्रकार के मनुष्‍य छ: प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती। चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, कामोन्‍मत्‍त स्त्रियां कामियों से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़ने वालों से तथा विद्वान पुरुष मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं। मुहूर्त भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्‍त्री, विद्या तथा शूद्रों से मेल- ये छ: चीजें नष्‍ट हो जाती हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 87-106 का हिन्दी अनुवाद)

    ये छ: प्राय: सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्‍मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्‍त हो जाने पर शिष्‍य आचार्य का, वि‍वाहित बेटे माता का, काम वासना की शांति हो जाने पर पुरुष स्‍त्री का, कृतकार्य मनुष्‍य सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटने के बाद वेद्य का राजन! नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्‍छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निर्भय होकर र‍हना- ये छ: मनुष्‍य लोक के सुख हैं। ईर्ष्‍या करने वाला, घृणा करने वाला, अंसतोषी, क्रोधी, सदा शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्‍य पर जीवन-निर्वाह करने वाला- ये छ: सदा दुखी रहते हैं। स्‍त्रीविषयक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्‍यंत कठोर दण्‍ड देना और धन का दुरुपयोग करना- ये सात दु:खदायी दोष राजा को सदा त्‍याग देने चाहिये। इनसे दृढ़मूल राजा भी प्राय: नष्‍ट हो जाते हैं। विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्‍य के आठ पूर्वचिन्‍हृ हैं- प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोध का पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निंदा में आनंद मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्‍मरण नहीं करता तथा कुछ मांगने पर उनमें दोष निकालने लगता है।
इन सब दोषों को बुद्धिमान मनुष्‍य समझे और समझकर त्‍याग दे। भारत! मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्‍न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्‍नति, अभीष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति और जन-समाज में सम्‍मान- ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं। बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह,शास्‍त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता- ये आठ गुण पुरुष की ख्‍याति बढ़ा देते हैं। जो विद्वान पुरुष नौ दरवाजे वाले, तीन  खंभो वाले, पांच (ज्ञानेन्द्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को तत्त्व से जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है। महाराज धृतराष्‍ट्र! दस प्रकार के लोग धर्म के तत्त्व को नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी- ये दस हैं। अत: इन सब लोगों में विद्वान पुरुष आसक्त न होवे। इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लाद ने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था।
     नीतिज्ञ लोग उस पुरातन इतिहास का उदाहरण देते हैं। जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है और सुपात्र- को धन देता है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा करने वाला है, उस (के व्यवहार और वचनों) का सब लोग प्रमाण मानते हैं। जो मनुष्‍यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है उन्हीं को जो दण्‍ड देता है, जो दण्‍ड देने की न्युनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजा की सेवा में सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है। जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रु के साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसंद नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 107-123 का हिन्दी अनुवाद)

    जो धुरन्धर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दु:ख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं। जो घर छोड़कर निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्‍ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान- इन सबका सेवन नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पंसद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, असमर्थ होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्‍य सब जगह प्रशंसा पाता है। जो कभी उद्दण्‍डका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की श्‍लाघा भी नहीं करता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्‍य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं।

     जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्ति में पड़ा हूँ’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरुष को आर्यजन सर्वश्रेष्‍ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दु:ख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्‍य देश के व्यवहार, अवसर तथा जातियों के धर्मों को तत्त्व से जानना चाहता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहाँ कहीं भी जाता है, सदा महान जनसमूह-पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्‍ठ है।
जो दान, होम, देवपूजन, मांगलिक कर्म, प्रायश्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार- इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता,व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ नहीं; और गुणों में बढे़-चढे़ पुरुषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान की नीति श्रेष्‍ठ नीति है। जो अपने आश्रित जनों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र नहीं है, उस मनस्वी पुरुष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसकी अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभिष्‍ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोडा़ भी काम बिगड़ने नहीं पाता।

     जो मनुष्‍य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्‍ठ रत्न की भाँति अपनी जाति वालों में अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्‍ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होन के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन!  शाप से दग्ध राजा पाण्‍डु के जो पांच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पांच इन्द्रों के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपने ही बचपन से पाला और शिक्षा दी हैं; वे भी आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्दित होते हुए सुख भोगिये। नरेन्द्र! ऐसा करने पर आप देवताओं तथा मनुष्‍यों की आलोचना के विषय नहीं रह जांयगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के नीतिवाक्यविषयक तैतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र के प्रति विदुरजी के नीतियुक्‍त वचन”

     धृतराष्‍ट्र बोले ;- तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभी तक जाग रहा हूँ; तुम मेरे करने योग्‍य जो कार्य समझो, उसे बताओ; क्‍योंकि हम लोगों में तुम्‍हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। उदारचित्‍त विदुर! तुम अपनी बुद्धि से विचार कर मुझे ठीक-ठीक उपदेश करो। जो बात युधिष्ठिर के लिये हितकर और कौरवों के लिये कल्‍याणकारी समझो, वह सब अवश्‍य बताओ। विद्वन मेरे मन में अनिष्‍ट की आशंका बनी रहती है, इसलिये मैं सर्वत्र अनिष्‍ट ही देखता हूँ, अत: व्‍याकुल हृदय से मैं तुमसे पूछ रहा हूँ- अजातशत्रु युधिष्ठिर क्‍या चाहते हैं, सो सब ठीक-ठीक बताओ।
    विदुरजी ने कहा ;- राजन! मनुष्‍य को चाहिये कि वह जिसकी पराजय नहीं चाहता, उसको बिना पूछे भी अच्‍छी अथवा बुरी, कल्‍याण करने वाली या अनिष्‍ट करने वाली- जो भी बात हो, बता दे इसलिये राजन! जिससे समस्‍त कौरवों का हित हो, मैं वही बात आपसे कहूँगा। मैं जो कल्‍याणकारी एवं धर्मयुक्‍त वचन कह रहा हूँ, उन्‍हें आप ध्‍यान देकर सुनें। भारत! असत उपायों आदि का प्रयोग करके जो कपटपूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं, उनमें आप मन मत लगाइये। इसी प्रकार अच्‍छे उपायों का उपयोग करके सावधानी के साथ किया गया कोई कर्म यदि सफल न हो तो बुद्धिमान पुरुष को उसके लिये मन में ग्‍लानि नहीं करनी चाहिये।
     किसी प्रयोजन से किये गये कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिये। खूब सोच-विचार कर काम करना चाहिये, जल्‍दबाजी से किसी काम का आरम्‍भ नहीं करना चाहिये। धीर मनुष्‍य को उचित है कि पहले कर्मों का प्रयोजन, परिणाम तथा अपनी उन्‍नति का विचार करके फिर काम आरम्‍भ करे या न करे। राजा स्थिति, लाभ, हानि, खजाना, देश तथा दण्‍ड आदि की मात्रा को नहीं जानता, वह राज्‍य पर स्थिर नही रह सकता। जो इनके प्रमाणों को उपर्युक्‍त प्रकार से ठीक-ठीक जानता है तथा धर्म और अर्थ के ज्ञान में दत्तचित्त रहता है, वह राज्‍य को प्राप्‍त करता है। ‘अब तो राज्‍य प्राप्‍त हो हो ही गया’-ऐसा समझकर अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये। उद्दण्‍डता सम्‍पत्ति को उसी प्रकार नष्‍ट कर देती है, जैसे सुंदर रूप को बुढ़ापा। जैसे मछली बढ़िया खाद्य वस्‍तु से ढकी हुई लोहे की कांटी को लोभ में पड़कर निगल जाती है, उससे होने वाले परिणाम पर विचार नहीं करती (अतएव मर जाती है)।
      अत: अपनी उन्‍नति चाहने वाले पुरुष को वही वस्‍तु खानी(या ग्रहण करनी) चाहिये, जो खाने योग्‍य हो तथा खायी जा सके, खाने (या ग्रहण करने ) पर पच सके और पच जाने पर हितकारी हो। जो पेड़ से कच्‍चे फलों को तोड़ता है, वह उन फलों से रस तो पाता नहीं, परंतु उस वृक्ष के बीज का नाश हो जाता है। परंतु जो समय पर पके हुए फल को ग्रहण करता है, वह फल से रस पाता है और उस बीज से पुन: फल प्राप्‍त करता है। जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनके मधु का ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्‍ट दिये बिना ही उनसे धन ले।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद)

      जैसे माली बगीचे में एक-एक फूल तोड़ता है, उसकी जड़ नहीं काटता, उसी प्रकार राजा प्रजा की रक्षापूर्वक उनसे कर ले। कोयला बनान वाले की तरह जड़ से नहीं काटे। इसे करने से मेरा क्‍या लाभ होगा और न करने से क्‍या हानि होगी- इस प्रकार कर्मों के विषय में भली-भाँति विचार करके फिर मनुष्‍य (कर्म) करे या न करे। कुछ ऐसे व्‍यर्थ कार्य हैं,जो नित्‍य अप्राप्‍त होने के कारण आरम्‍भ करने योग्‍य नहीं होते; क्‍योंकि उनके लिये किया हुआ पुरुषार्थ भी व्‍यर्थ हो जाता है। जिसकी प्रसन्‍नता का कोई फल नहीं और क्रोध भी व्‍यर्थ है, उसको प्रजा स्‍वामी बनाना नहीं चाहती- जैसे स्‍त्री नपुंसक को पति नहीं बनाना चाहती। जिनका मूल (साधन) छोटा और फल महान हो, बुद्धिमान पुरुष उनको शीघ्र ही आरम्‍भ कर देता है; वैसे कर्मों में वह विघ्न नहीं आने देता। जो राजा इस प्रकार प्रेम के साथ कोमल दृष्टि से देखता है, मानो आँखों से पीना चाहता है, वह चुपचाप बैठा भी रहे, तो भी प्रजा उससे अनुराग रखती है।
     राजा वृक्ष की भाँति अच्‍छी तरह फूलने (प्रसन्‍न रहने) पर भी फल से ख़ाली रहे । यदि फल से युक्‍त (देने वाला) हो तो भी जिस पर चढ़ा न जा सके, ऐसा (पहुँच के बाहर) होकर रहे। कच्‍चा होने पर भी पके (शक्तिसम्‍पन्‍न) की भाँति अपने को प्रकट करे। ऐसा करने से वह नष्‍ट नहीं होता। जो राजा नेत्र, मन, वाणी और कर्म- इन चारों से प्रजा को प्रसन्‍न करता है, उसी से प्रजा प्रसन्‍न रहती है। जैसे व्‍याघ से हिरन भयभीत होते हैं, उसी प्रकार जिससे समस्‍त प्राणी डरते हैं, वह समुद्र पर्यन्‍त पृथ्वी का राज्‍य पाकर भी प्रजाजनों के द्वारा त्‍याग दिया जाता है। अन्‍याय में स्थित हुआ राजा बाप-दादों का राज्‍य पाकर भी अपने कर्मों से उसे इस तरह भ्रष्‍ट कर देता है, जैसे हवा बादल को छिन्‍न-भिन्‍न कर देती है। परम्‍परा से सज्‍जन पुरुषों द्वारा किये हुए धर्म का आचरण करने वाले राजा के राज्‍य की पृथ्‍वी धन-धान्‍य से पूर्ण होकर उन्‍नति को प्राप्‍त होती है ओर उसके ऐश्र्वर्य को बढ़ाती है। जो राजा धर्म को छोड़ता और अधर्म का अनुष्‍ठान करता है, उसकी राज्‍यभूमि आग पर रखे हुए चमड़े की भाँति संकुचित हो जाती है। ओर दूसरे राष्‍ट्रों का नाश करने के लिये जिस प्रकार का प्रयत्‍न किया जाता है, उसी प्रकार की तत्‍परता अपने राज्‍य की रक्षा के लिये करनी चाहिये। धर्म से ही राज्‍य प्राप्‍त करें और धर्म से ही उसकी रक्षा करें; क्‍योंकि धर्ममूलक राज्‍यलक्ष्‍मी को पाकर न तो राजा उसे छोड़ता है और न वही राजा को छोड़ती है। निरर्थक बोलने वाले पागल तथा बकवाद करने वाले बच्‍चे से भी सब ओर से उसी भाँति सार बात ग्रहण करनी चाहिये, जैसे पत्‍थरों में से सोना लिया जाता है। जैसे शिलोञ्छवृत्ति से जीविका चलाने वाला अनाज का एक एक दाना चुगता रहता है, उसी प्रकार धीर पुरुष को जहाँ-तहाँ से भावपूर्ण वचनों, सूक्तियों और सत्‍कर्मों का संग्रह करते रहना चाहिये। गौएं गन्‍ध से, ब्राह्मण लोग वेदों से, राजा गुप्‍तचरों से और अन्‍य साधारण लोग आँखों से देखा करते हैं। राजन! जो गाय बड़ी कठिनाई से दुहने देती है, वह बहुत क्‍लेश उठाती है; किंतु जो आसानी से दूध देती है, उसे लोग कष्‍ट नहीं देते।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 36-52 का हिन्दी अनुवाद)

    जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्‍हें आग में नहीं तपाते। जो काठ स्‍वयं झुका होता है, उसे कोई झुकाने का प्रयत्‍न नहीं करता। इस दृष्‍टांत के अनुसार बुद्धिमान पुरुष को अधिक बलवान के सामने झुक जाना चाहिये; जो अधिक बलवान के सामने झुकता है, वह मानो इन्‍द्र को प्रणाम करता है। पशुओं के रक्षक या स्‍वामी हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं,मंत्री,स्त्रियों के बंधु (रक्षक) हैं पति और ब्राह्मणों के बान्‍धव हैं वेद। सत्‍य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से (सुंदर) रूप की रक्षा होती है और सदाचार से कुल की रक्षा होती है। भली-भाँति संभालकर रखने से नाज की रक्षा होती है, फेरने से घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बांरबार देख-भाल करने से गौओं की तथा मैले वस्‍त्रों से स्त्रियों की रक्षा होती है। मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्‍य का केवल ऊंचा कुल मान्‍य नहीं हो सकता; क्‍योंकि नीच कुल में उत्‍पन्‍न मनुष्‍य का भी सदाचार श्रेष्‍ठ माना जाता है।
      जो दूसरों के धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख, सौभाग्‍य और सम्‍मान पर डाह करता है, उसका यह रोग असाध्‍य है। न करने योग्‍य काम करने से, करने योग्‍य काम में प्रमाद करने से तथा कार्य सिद्धि होने के पहले ही मन्‍त्र प्रकट हो जाने से डरना चाहिये और जिससे नशा चढ़े, ऐसी मादक वस्‍तु नहीं पीनी चाहिये। विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊंचे कुल का मद है। ये घमंडी पुरुषों के लिये तो मद हैं, परंतु ये (विद्या, धन और कुलीनता) ही सज्‍जन पुरुषों के लिये दम के साधन हैं। कभी किसी कार्य में सज्‍जनों द्वारा प्रार्थित होने पर दुष्‍ट लोग अपने को प्रसिद्ध दुष्‍ट जानते हुए भी सज्‍जन मानने लगते हैं। मनस्‍वी पुरुषों को सहारा देने वाले संत हैं; संतों के भी सहारे संत ही हैं, दुष्‍टों को भी सहारा देने वाले संत हैं, पर दुष्‍ट लोग संतो को सहारा नहीं देते। अच्‍छे वस्‍त्र वाला सभा को जीतता है; जिसके पास गौ है, वह (दूध, घी, मक्खन, खोवा आदि पदार्थों के आस्‍वादन से) मीठे स्‍वाद की आकांक्षा को जीत लेता है, सवारी से चलने वाला मार्ग को जीत लेता (तय कर लेता) है और शीलस्‍वभाव वाला पुरुष सब पर विजय पा लेता है। पुरुष में शील ही प्रधान है; जिसका वही नष्‍ट हो जाता है, इस संसार में उसका जीवन, धन और बंधुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।
     भरतश्रेष्‍ठ! धनोन्‍मत्‍त (तामस स्‍वभाव वाले) पुरुषों के भोजन में मांस की, मध्‍यम श्रेणी वालों के भोजन में गौरस की तथा दरिद्र के भोजन में तेल की प्रधानता होती है। दरिद्र पुरुष सदा स्‍वादिष्‍ट भोजन ही करते हैं; क्‍योंकि भूख उनके भोजन में (विशेष) स्‍वाद उत्‍पन्‍न कर देती है और वह भूख धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है। राजन! संसार में धनियों को प्राय: भोजन को पचाने की शक्ति नहीं होती, किंतु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाते हैं। अधम पुरुषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्‍यम श्रेणी के मनुष्‍यों को मृत्‍यु से भय होता है; परंतु उत्‍तम पुरुषों को अपमान से ही महान भय होता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद)

    यों तो (मादक वस्‍तुओं के) पीने का नशा आदि भी नशा ही है, किंतु ऐश्वर्य का नशा तो बहुत ही बुरा है; क्‍योंकि ऐश्वर्य के मद से मतवाला पुरुष भ्रष्‍ट हुए बिना होश में नहीं आता। वश में न होने के कारण विषयों में रमने वाली इन्द्रियों से यह संसार उसी भाँति कष्‍ट पाता है, जैसे सूर्य आदि ग्रहों से नक्षत्र तिरस्‍कृत हो जाते हैं। जो मनुष्‍य जीवों को वश में करने वाली सहज पांच इन्द्रियों से जीत लिया गया, उसकी आपत्तियां शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भाँति बढ़ती हैं। इन्द्रियों सहित मन को जीते बिना ही जो मन्त्रियों को जीतने की इच्‍छा करता है या मन्त्रियों को अपने अधीन किये बिना शत्रु जीतना चाहता है, उस अजितेन्द्रिय पुरुष को सब लोग त्‍याग देते हैं। जो पहले इन्द्रियों सहित मन ही शत्रु समझकर जीत लेता है, उसके बाद यदि वह मन्त्रियों तथा शत्रुओं को जीतने की इच्‍छा करे तो उसे सफलता मिलती है।
      इन्द्रियों तथा मन को जीतने वाले, अप‍राधियों को दण्‍ड देने वाले और जांच-परखकर काम करने वाले धीर पुरुष की लक्ष्मी अत्‍यंत सेवा करतीहै। राजन! मनुष्‍य का शरीर रथ है, बुद्धि सारथि है और इन्द्रियां इसके घोड़े हैं। इनको वश में करके सावधान रहने वाला चतुर एवं धीर पुरुष काबू में किये हुए घोड़ों से रथी की भाँति सुखपूर्वक संसार-पथ का अतिक्रमण करता है। शिक्षा न पाये हुए तथा काबू में न आने वाले घोड़े जैसे मूर्ख सारथि को मार्ग में मार गिराते हैं, वैसे ही ये इन्द्रियां वश में न रहने पर पुरुष को मार डालने में भी समर्थ होती हैं। इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण अर्थ को अनर्थ और अनर्थ को अर्थ समझकर अज्ञानी पुरुष बहुत बड़े दु:ख को भी सुख मान बैठता है। जो धर्म और अर्थ का परित्‍याग करके इन्द्रियों के वश में हो जाता है, वह शीघ्र ही ऐश्वर्य, प्राण, धन तथा स्‍त्री से हाथ धो बैठता है। जो अधिक धन का स्‍वामी होकर भी इन्द्रियों पर अधिकार नहीं रखता, वह इन्द्रियों को वश में न रखने के कारण ही ऐश्वर्य से भ्रष्‍ट हो जाता है। मन, बुद्धि और इन्द्रियों को अपने अधीन कर अपने से ही अपने आत्मा को जानने की इच्‍छा करे; क्‍योंकि आत्‍मा ही अपना बंधु और आत्‍मा ही अपना शत्रु है।
      जिसने स्‍वयं अपने आत्मा को ही जीत लिया है, उसका आत्‍मा ही उसका बंधु है। वही आत्‍मा जीता गया होने पर सच्‍चा बंधु और वही न जीता हुआ होने पर शत्रु है। राजन! जिस प्रकार सूक्ष्‍म छेदवाले जाल में फंसी हुई दो बड़ी-बड़ी मछलियां मिलकर जाल को काट डालती हैं, उसी प्रकार ये काम और क्रोध दोनों विवेक को लुप्त कर देते हैं। जो इस जगत में धर्म तथा अर्थ का विचार करके विजय साधन-सामग्री का संग्रह करता है, वही उस सामग्री से युक्त होने के कारण सदा सुखपूर्वक समृद्धिशाली होता रहता है। जो चित्त के विकारभूत पांच इन्द्रिय रूपी भीतरी शत्रुओं को जीते बिना ही दूसरे शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसे शत्रु पराजित कर देते हैं। इन्द्रियों पर अधिकार न होने के कारण बड़े-बड़े़ साधु भी अपने कर्मों से तथा राजा लोग राज्य के भोग विलासों से बंधे रहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 70-86 का हिन्दी अनुवाद)

     पापाचारी दुष्‍टों का त्याग न करके उनके साथ मिले रहने से निरपराध सज्जनों को भी उन (पापियों) के समान ही दण्‍ड़ प्राप्त होता है, जैसे सूखी लकड़ी में मिल जाने से गीली भी जल जाती है; इसलिये दुष्‍ट पुरुषों के साथ कभी मेल न करें। जो पांच विषयों की ओर दौड़ने वाले अपने पांच इन्द्रिय-रूपी शत्रुओं को मोह के कारण वश में नहीं करता, उस मनुष्‍य को विपत्ति ग्रस लेती है। गुणों में दोष न देखना, सरलता, पवित्रता, संतोष, प्रिय वचन बोलना, इन्द्रियदमन, सत्यभाषण तथा सरलता- ये गुण दुरात्मा पुरुषों में नहीं होते। भारत! आत्मज्ञान, अक्रोध, सहनशीलता, धर्मपरायणता, वचन की रक्षा तथा दान- ये गुण अधम पुरुषों में नहीं होते। मूर्ख मनुष्‍य विद्वानों को गाली और निन्दा से कष्‍ट पहुँचाते हैं। गाली देने वाला पाप का भागी होता है और क्षमा करने वाला पाप से मुक्त हो जाता है।
     दुष्‍ट पुरुषों का बल है हिंसा, राजाओं का बल है दण्ड देना, स्त्रियों का बल है सेवा और गुणवानों का बल है क्षमा। राजन! वाणी का पूर्ण संयम तो बहुत कठिन माना ही गया है; परंतु विशेष अर्थयुक्त और चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती । राजन! मधुर शब्दों में कही हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है; किंतु वही यदि कटु शब्दों में कही जाय तो महान अनर्थ का कारण बन जाती है। बाणों से बिंधा हुआ त‍था फरसे से काटा हुआ बन भी अ‍कुंरित हो जाता है; किंतु कटु वचन क‍हकर वाणी से किया हुआ भयानक घाव नहीं भरता। कर्णि, नालीक और नाराच नाम‍क बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, परंतु कटु वचनरूपी बाण नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर धंस जाता है।
     कटु वचन रूपी बाण मुख से निकलकर दूसरों के मर्म-स्‍थान पर ही चोट करते हैं; उनसे आहत मनुष्‍य रात-दिन घुलता रहता है। अत: विद्वान पुरुष दूसरों पर उनका प्रयोग न करें। देवता लोग जिसे पराजय देते है; उसकी बुद्धि को पहले ही हर लेते है; इससे वह नीच कर्मों पर ही अधिक दृष्टि रखता है। विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धि मलिन हो जाती है; फिर तो न्याय के समान प्रतीत होने वाला अन्याय हृदय से बाहर नहीं निकलता। भरतश्रेष्‍ठ! आपके पुत्रों की वह बुद्धि पाण्‍डवों के प्रति विरोध से व्याप्त हो गयी है; आप उन्हें पहचान नहीं रहे हैं। महाराज धृतराष्‍ट्र! जो राजलक्षणों से सम्पन्न होने के कारण त्रिभुवन का भी राजा हो सकता है, वह आपका आज्ञाकारी युधिष्ठिर ही इस पृथ्वी का शासक होने योग्य है। वह धर्म तथा अर्थ के तत्त्व को जानने वाला, तेज और बुद्धि से युक्त, पूर्ण सौभाग्यशाली तथा आपके सभी पुत्रों से बढ़-चढ़कर है। राजेन्द्र! धर्मधारियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर दया, सौम्यभाव तथा आपके प्रति गौरव बुद्धि के कारण बहुत कष्‍ट सह रहा है।
(इस प्रकार महाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के नीतिवाक्यविषयक चौतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

पैतीसवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“विदुर के द्वारा केशिनी के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवाद का वर्णन करते हुए धृतराष्‍ट्र को धर्मोपदेश”

    धृतराष्‍ट्र ने कहा ;- महाबुद्धे! तुम पुन: धर्म और अर्थ से यु‍क्त बातें कहो। इन्हें सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती। इस विषय में तुम विलक्षण बातें कह रहे हो।
     विदुरजी बोले ;- राजन! सब तीर्थों में स्नान और सब प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव ये दोनों एक समान हैं; अथवा कोमलता के बर्ताव का विशेष महत्त्व। विभो! आप अपने पुत्र कौरव, पाण्‍डव दोनों के साथ (समान रूप से) कोमलता का बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से इस महान सुयश प्राप्त करके मरने के पश्चात लोक में आप स्वर्गलोक में जायंगे। पुरुषश्रेष्‍ठ! इस लोक में जब त‍क मनुष्‍य की पावन कीर्ति का गान किया जाता है, तब त‍क वह स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है। इस विषय में उस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें केशिनी के लिये सुधन्वा के साथ विरोचन के विवाद का वर्णन है। राजन! एक समय की बात है, केशिनी नाम वाली एक अनुपम सुन्दरी कन्या सर्वश्रेष्‍ठ पति को वरण करने की इच्छा से स्वयंवर-सभा में उपस्थित हुई। उसी समय दैत्यकुमार विरोचन उसे प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आया। तब केशिनी ने वहाँ दैत्यराज से इस प्रकार बातचीत की।
      केशिनी बोली ;- विरोचन! ब्राह्मण श्रेष्‍ठ होते हैं या दैत्य? यदि ब्राह्मण श्रेष्‍ठ होते हैं तो सुधन्वा ब्राह्मण ही मेरी शय्यापर क्यों न बैठे? अर्थात मैं सुधन्वा से ही विवाह क्यों न करूं।
     विरोचन ने कहा ;- केशिनी! हम प्रजापति की श्रेष्‍ठ संतानें हैं, अत: सबसे उत्तम हैं। यह सारा संसार हम लोगों का ही है। हमारे सामने देवता क्या हैं? और ब्राह्मण कौन चीज हैं?
    केशिनी बोली ;- विरोचन! इसी जगह हम दोनों प्रतीक्षा करें; कल

प्रात:काल सुधन्वा यहाँ आवेगा। फिर मैं तुम दोनों को एकत्र उपस्थित देखूँगी। 
  विरोचन बोला ;- कल्याणी! तुम जैसा कहती हो, वही करूंगा। भीरू! प्रात:काल तुम मुझे और सुधन्वा को एक साथ उपस्थित देखोगी।
  विदुरजी कहते हैं ;- राजाओं में श्रेष्‍ठ धृतराष्‍ट्र! इसके बाद जब रात बीती और सूर्यमण्‍डल का उदय हुआ, उस समय सुधन्वा उस स्थान पर आया, जहाँ विरोचन केशिनी के साथ उपस्थित था। भरतश्रेष्‍ठ! सुधन्वा प्रह्लादकुमार विरोचन और केशिनी के पास आया। ब्राह्मण को आया देख केशिनी उठ खड़ी हुई और उसने उसे आसन, पाद्य और अर्घ्‍य निवेदन किया।
     सुधन्वा बोला ;- प्रह्लादनन्दन! मैं तुम्हारे इस सुवर्णमय सुन्दर सिंहासन को केवल छू लेता हूँ, तुम्हारे साथ इस पर बैठ नहीं सकता; क्योंकि ऐसा होने से हम दोनों एक समान हो जायंगे।
    विरोचन ने कहा ;- सुधन्वन! तुम्हारे लिये तो पीढा़, चटाई या कुश का आसन उचित है; तुम मेरे साथ बराबर के आसन पर बैठने योग्य हो ही नहीं।
     सुधन्वा ने कहा ;- विरोचन! पिता और पुत्र एक साथ एक आसन पर बैठ सकते हैं; दो ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वृद्ध, दो वैश्य और दो शूद्र भी एक साथ बैठ सकते हैं; किंतु दूसरे कोई दो व्यक्ति परस्पर एक साथ नहीं बैठ सकते। तुम्हारे पिता प्रह्लाद नीचे बैठकर ही उच्चासन आसीन हुए मुझ सुधन्वा की सेवा किया करते हैं। तुम अभी बालक हो, घर में सुख से पले हो; अत: तुम्हें इन बातों का कुछ भी ज्ञान नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)

    विरोचन बोला ;- सुधन्वन! हम असुरों के पास जो कुछ भी सोना,गौ, घोड़ा आदि धन है, उसकी मैं बाजी लगाता हूँ; हम-तुम दोनों चलकर जो इस विषय के जानकार हों, उनसे पूछें कि हम दोनों में कौन श्रेष्‍ठ है?
     सुधन्वा बोला ;- विरोचन! सुवर्ण, गाय और घोड़ा तुम्हारे ही पास रहें। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाकर जो जानकार हों, उनसे पूछें। 
   विरोचन ने कहा ;- अच्छा, प्राणों की बाजी लगाने के पश्‍चात हम दोनों कहाँ चलेंगे? मैं तो न देवताओं के पास जा सकता हूँ और न कभी मनुष्‍यों से ही निर्णय करा सकता हूँ।
     सुधन्वा बोला ;- प्राणों की बाजी लग जाने पर हम दोनों तुम्हारें पिता के पास चलेंगे। प्रह्लाद अपने बेटे के (जीवन के) लिये भी झूठ नहीं बोल सकते हैं।
    विदुरजी ने बोला ;- राजन! इस तरह बाजी लगाकर परस्पर क्रुद्ध हो विरोचन और सुधन्वा दोनों उस समय वहाँ गये, जहाँ प्रह्लाद थे। 
    प्रह्लाद ने कहा ;- जो कभी भी एक सा‍थ नहीं चले थे, वे ही दोनों ये सुधन्वा और विरोचन आज सांप की तरह क्रुद्ध होकर एक ही राह से आते दिखायी देते हैं। विरोचन! मैं तुमसे पूछता हूँ,क्या सुधन्वा के साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी है? फिर कैसे एक साथ आ रहे हो? पहले तो तुम दोनों कभी एक साथ नहीं चलते थे।
     विरोचन बोला ;- पिताजी! सुधन्वा के साथ मेरी मित्रता नहीं हुई हैं। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाये आ रहे हैं। मैं आपसे यथा‍र्थ बात पूछता हूँ। मेरे प्रश्‍न का झूठा उत्तर न दीजियेगा।
    प्रह्लाद ने कहा ;- सेवको! सुधन्वा के लिये जल और मधुपर्क भी लाओ। (फिर सुधन्वा से कहा) ब्रह्मन्! तुम मेरे पूजनीय अतिथि हो, मैंने तुम्हें दान करने के लिये खूब मोटी-ताजी सफेद गौ रखी है।
     सुधन्वा बोला ;- प्रह्लाद! जल और मधुपर्क तो मुझे मार्ग में ही मिल गया है। तुम तो जो मैं पूछ रहा हूँ, उस प्रश्‍न का ठीक-ठीक उत्तर दो- ब्राह्मण श्रेष्‍ठ हैं अथवा विरोचन?
    प्रह्लाद बोले ;- ब्रह्मन! मेरे एक ही पुत्र है और इधर तुम स्वयं उपस्थित हो; भला, तुम दोनों के विवाद में मेरे जैसा मनुष्‍य कैसे निर्णय दे सकता है?
    सुधन्वा बोला ;- मतिमन! तुम्हारे पास गौ तथा दूसरा जो कुछ भी प्रिय धन हो, वह सब अपने औरस पुत्र विरोचन को दे दो; परंतु हम दोनों के विवाद में तो तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना ही चाहिये।
    प्रह्लाद ने कहा ;- सुधन्वन! अब मैं तुमसे यह बात पूछता हूँ- जो सत्य न बोले अथवा असत्य निर्णय करे, ऐसे दुष्‍ट वक्ता की क्या स्थिति होती है?
    सुधन्वा बोला ;- सौत वाली स्त्री, जूए में हारे हुए जुआरी और भार ढोने से व्यथित शरीर वाले मनुष्‍य की रात में जो स्थिति होती है, वही स्थिति उल्टा न्याय देने वाले वक्ता की भी होती है। जो झूठा निर्णय देता है, वह राजा नगर में कैद होकर बाहरी दरवाजे पर भूख का कष्‍ट उठाता हुआ बहुत-से शत्रुओं-को देखता है। पशु के लिये झूठ बोलने से पांच, गौ के लिये झूठ बोलने पर दस, घोडे़ के लिये असत्य-भाषण करने पर सौ पीढ़ियों को और मनुष्‍य के लिये झूठ बोलने पर एक हजार पीढ़ियों को मनुष्‍य नरक में गिराता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 34-50 का हिन्दी अनुवाद)

    सुवर्ण के लिये झूठ बोलने वाला अपनी भूत और भविष्‍य सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है। पृथ्वी त‍था स्त्री के लिये झूठ कहने वाला तो अपना सर्वनाश ही कर लेता है; इसलिये तुम भूमि या स्त्री के लिये कभी झूठ न बोलना। 
    प्रह्लाद ने कहा ;- विरोचन! सुधन्वा के पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्‍ठ हैं , सुधन्‍वा तुमसे श्रेष्‍ठ है, इसकी माता तुमहारी माता से श्रेष्‍ठ है; अत:

तुम आज सुधन्‍वा के द्वारा जीते गये। विरोचन! अब सुधन्‍वा तुम्‍हारे प्राणों का स्‍वामी है। सुधन्‍वन! अब यदि तुम दे दो तो मैं विरोचन को पाना चाहता हूँ।
    सुधन्‍वा बोला ;- प्रह्लाद! तुमने धर्म को ही स्‍वीकार किया है, स्‍वार्थवश झूठ नहीं कहा है; इसलिये अब तुम्‍हारे इस दुर्लभ पुत्र को फिर तुम्‍हें दे रहा हूँ। प्रह्लाद! तुम्‍हारे इस पुत्र विरोचन को मैंने पुन: तुम्‍हें दे दिया; किंतु अब यह कुमारी केशिनी के निकट चलकर मेरे पैर धोवे।
     विदुरजी कहते हैं ;- इसलिये राजेन्‍द्र! आप पृथ्‍वी के लिये झूठ न बोलें। बेटे के स्‍वार्थवश सच्‍ची बात न कहकर पुत्र और मन्त्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायं। देवता लोग चरवाहों की तरह डंडा लेकर किसी का पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्‍तम बुद्धि से युक्‍त कर देते हैं। मनुष्‍य जैसे-जैसे कल्‍याण में मन लगाता है, वैसे ही वैसे उसके सारे अभीष्‍ठ सिद्ध होते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। कपटपूर्ण व्‍यवहार करने वाले मायावी को वेद पापों से मुक्‍त नहीं करते; किंतु जैसे पंख निकल आने पर चिड़ियों के बच्‍चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अंतकाल में उस (मायावी) को त्‍याग देते हैं। शराब पीना, कलह, समूह के साथ वैर, पति-पत्‍नी में भेद पैदा करना, कुटुम्‍ब वालों में भेद बुद्धि उत्‍पन्‍न करना, राजा के साथ द्वेष, स्‍त्री और पुरुष में विवाद और बुरे रास्‍ते- ये सब त्‍याग देने योग्‍य बताये गये हैं। हस्‍तरेखा देखने वाला, चारी करके व्‍यापार करने वाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र और नर्तक इन सातों को कभी भी गवाह न बनावे।
     आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्‍वाध्‍याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्‍ठान- ये चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्‍पादित न हों तो भय प्रदान करने वाले होते हैं। घर में आग लगाने वाला, विष देने वाला, जारज संतान की कमाई खाने वाला, सोमरस बेचने वाला, शस्‍त्र बनाने वाला, चुगली करने वाला, मित्रद्रोही, परस्‍त्रीलम्पट, गर्भ की हत्‍या करने वाला, गुरुस्त्रीगामी, ब्राह्मण होकर शराब पीने वाला, अधिक तीखे स्‍वभाव वाला, कौए की तरह कायं-कायं करने वाला, नास्तिक, वेद की निंदा करने वाला, ग्रामपुरोहित: व्रात्‍य, क्रूर तथा शक्तिमान होते हुए भी ‘मेरी रक्षा करो’, इस प्रकार कहने वाले शरणागत का जो वध करता है- ये सबके सब ब्राह्महत्‍यारों के समान हैं। जलती हुई आग से सुवर्ण की पहचान होती है, सदाचार से सत्‍पुरुष की, व्‍यवहार से श्रेष्‍ठ पुरुष की, भय प्राप्‍त होने पर शूर की, आर्थिक कठिनाई में धीर की और कठिन आपत्ति में शत्रु एवं मित्र की परीक्षा होती है। बुढ़ापा (सुंदर) रूप को, आशा धीरता को, मृत्‍यु प्राणों को, असूया धर्माचरण को, क्रोध लक्ष्‍मी को, नीच पुरुषों की सेवा सत्‍स्‍वभाव को, काम लज्‍जा को और अभिमान सर्वस्‍व को नष्‍ट कर देता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 51-68 का हिन्दी अनुवाद)

      शुभ कर्मों से लक्ष्मी की उत्‍पत्ति होती है, प्रगल्‍भता से वह बढ़ती है, चतुरता से जड़ जमा लेती है और संयम से सुरक्षित रहती है। आठ गुण पुरुष की शोभा बढ़ाते हैं- बुद्धि, कुलीनता, दम, शास्‍त्रज्ञान, पराक्रम, बहुत न बोलना, यथाशक्ति दान देना ओर कृतज्ञ होना। तात! एक गुण ऐसा है, जो इन सभी महत्त्‍वपूर्ण गुणों-पर हठात अधिकार जमा लेता है। जिस समय राजा किसी मनुष्‍य का सत्‍कार करता है, उस समय यह एक ही गुण (राजसम्‍मान) सभी गुणों से बढ़कर शोभा पाता है। राजन! मनुष्‍य लोक में ये आठ गुण स्‍वर्गलोक का दर्शन कराने वाले हैं; इनमें से चार तो संतों के साथ नित्‍य सम्‍बद्ध हैं- उनमें सदा विद्यमान रहते हैं और चार का सज्‍जन पुरुष अनुसरण करते हैं। यज्ञ, दान, शास्‍त्रों का अध्‍ययन और तप- ये चार सज्‍जनों के साथ नित्‍य सम्‍बद्ध हैं; इन्द्रियनिग्रह, सत्‍य, सरलता तथा कोमलता- इन चारों का संत लोग अनुसरण करते हैं। यज्ञ, अध्‍ययन, दान, तप, सत्‍य, क्षमा, दया और निर्लोभता- ये धर्म के आठ प्रकार के मार्ग बताये गये हैं। इनमें से पहले चारों का तो कोई दम्‍भ के लिये सेवन कर सकता है, पर‍ंतु अंतिम चार तो जो महात्‍मा नहीं हैं, उनमें रह ही नहीं सकते। जिस सभा में बड़े-बूढ़े नहीं, वह सभा नहीं; जो धर्म की बात न कहे, वे बूढ़े नहीं; जिसमें सत्‍य नहीं,वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्‍य नहीं है। सत्य,विनय की मुद्रा, शास्‍त्रज्ञान, विद्या, कुलीनता, शील, बल, धन, शूरता और चमत्‍कारपूर्ण बात कहना- ये दस स्‍वर्ग के हेतु हैं।
    पापकीर्ति वाला निन्दित मनुष्‍य पापाचरण करता हुआ पाप के फल को ही प्राप्‍त करता है और पुण्‍य कीर्ति वाला (प्रशंसित) मनुष्‍य पुण्‍य करता हुआ अत्‍यंत पुण्‍यफल का ही उपभोग करता है। इसलिये प्रशंसित व्रत का आचरण करने वाले पुरुष को पाप नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि बारंबार‍ किया हुआ पाप बुद्धि को नष्‍ट कर देता। जिसकी बुद्धि नष्‍ट हो जाती है, वह मनुष्‍य सदा पाप ही करता रहता है। इसी प्रकार बारंबार किया हुआ पुण्‍य बुद्धि को बढ़ाता है। जिसकी बुद्धि बढ़ जाती है, वह मनुष्‍य सदा पुण्‍य ही करता है। इस प्रकार पुण्‍यकर्मा मनुष्‍य पुण्‍य करता हुआ पुण्‍यलोक को ही जाता है।
     इसलिये मनुष्‍य को चाहिये कि वह सदा एकाग्रचित्त होकर पुण्‍य का ही सेवन करे। गुणों में दोष देखने वाला, मर्म पर आघात करने वाला, निर्दयी, शत्रुता करने वाला और शठ मनुष्‍य पाप का आचरण करता हुआ शीघ्र ही महान कष्‍ट को प्राप्‍त होता है। दोष दृष्टि से रहित शुद्ध बुद्धि वाला पुरुष सदा शुभकर्मों का अनुष्‍ठान करता हुआ महान सुख को प्राप्‍त होता है और सर्वत्र उसका सम्‍मान होता है। जो बुद्धिमान पुरुषों से सद्बुद्धि प्राप्‍त करता है, वही पण्डित है; क्‍योंकि बुद्धिमान पुरुष ही धर्म और अर्थ को प्राप्‍त कर अनायास ही अपनी उन्‍नति करने में समर्थ होता है। दिन भर में ही वह कार्य कर ले, जिससे रात में सुख से रह सके और आठ महीनों में वह कार्य कर ले, जिससे वर्षां के चार महीने सुख से व्‍यतीत कर सके। पहली अवस्‍था में वह काम करे, जिससे वृद्धावस्‍था में सुखपूर्वक रह सके और जीवन भर वह कार्य करे, जिससे मरने के बाद भी सुख से रह सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचत्रिंश अध्याय के श्लोक 69-77 का हिन्दी अनुवाद)

   सज्‍जन पुरुष पच जाने पर अन्‍न की (निष्‍कलंक) यौवन बीत जाने पर स्‍त्री की, संग्राम जीत लेने पर शूर की और संसार सागर को पार कर लेने पर तपस्‍वी की प्रशंसा करते हैं। अधर्म से प्राप्‍त हुए धन के द्वारा जो दोष छिपाया जाता है, वह तो छिपता नहीं; उससे भिन्‍न और नया दोष प्रकट हो जाता है। अपने मन और इन्द्रियों को वश में करने वाले शिष्‍यों के शासक गुरु हैं, दुष्‍टों के शासक राजा हैं और छिपे-छिपे पाप करने वालों के शासक सूर्यपुत्र यमराज हैं। ऋषि, नदी, वंश एवं महात्‍माओं का तथा स्त्रियों के दुश्चरित्र का उत्‍पत्ति स्‍थान नहीं जाना जा सकता। राजन! ब्राह्मणों की सेवा-पूजा में संलग्‍न रहने वाला, दाता, कुटुम्‍बीजनों के प्रति कोमलता का बर्ताव करने वाला और शीलवान राजा चिरकाल तक पृथ्वी का पालन करता है। शूर, विद्वान और सेवा धर्म को जानने वाले- ये तीन प्रकार के मनुष्‍य पृथ्‍वीरूप लता से सुवर्णरूपी पुष्‍प का संचय करते हैं। भारत! बुद्धि से विचार कर किये हुए कर्म श्रेष्‍ठ होते हैं, बाहुबल से किये जाने वाले कर्म मध्‍यम श्रेणी के हैं,जंघा से किये जाने वाले कार्य अधम हैं और भार ढोने का काम महान अधम है।
     राजन! अब आप दुर्योधन, शकुनि, मूर्ख दु:शासन तथा कर्ण पर राज्‍य का भार रखकर उन्‍नति कैसे चाहते हैं? भरतश्रेष्‍ठ! पाण्‍डव तो सभी उत्‍तम गुणों से सम्‍पन्‍न हैं और आप में पिता का-सा भाव रखकर बर्ताव करते हैं; आप भी उन पर पुत्रभाव रखकर उचित बर्ताव कीजिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत प्रजागरपर्व में विदुरजी के नीतिवाक्‍यविषयक पैंतीसवां अध्‍यय पूरा हुआ)

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