सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 61 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का उत्तर कुमार को आश्वासन तथा अर्जुन से दुःशासन आदि की पराजय”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार वैकर्तन कर्ण को जीतकर अर्जुन ने विराट कुमार उत्तर से कहा,

   अर्जुन बोले ;- ‘सारथे! तुम मुझे इस सेना की ओर ले चलो, जिसकी ध्वजा पर सुवर्णमय ताड़ वृक्ष का चिह्न है। ‘उस रथ पर हम सबके पितामह शन्तनु नन्दन भीष्मजी बैठे हैं। वे मेरे साथ युद्ध की इच्छा रचाकर खड़े हैं। उनका दर्शन देवताओं के समान है’। यह सुनकर उत्तर ने, जो बाणों से अत्यन्त घायल हो चुका था, रथों, हाथियों और घोड़ों से भरी हुई विशाल सेना की ओर देखकर कहा ,

    उत्तर बोला ;- ‘वीर! अब मैं युद्ध भूमि में आपके उत्तम घोड़ों को नहीं सम्हाल सकूँगा। मेरे प्राण बड़ी व्यथा में हैं और मन व्याकुल सा हो रहा है। ‘आपके तथा कौरव वीरों के द्वारा प्रयुक्त होने वाले दिव्यास्त्रों का प्रभाव यह हैं कि मुझे दसों दिशाएँ भागती सी प्रतीत होती हैं। ‘मैं चर्बी, रक्त और मेद की गन्ध से मूर्च्छित हो रहा हूँ। आज आपके देखते - देखते मेरा मन दुविधा में पड़ गया है।

   ‘युद्ध में इतने शूरवीरों का जमघट मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वीरवर! गदाओं के भारी आघात, शंखों के भयंकर शब्द, शूरवीरों के सिंहनाद, हाथियों के चिग्घाड़ तथा वज्र की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव धनुष की भारी टंकार ध्वनि से मेरा चित्त मोहित हो गया है। मेरी श्रवण्ध शक्ति और स्मरण शक्ति भी जवाब दे चुकी है। ‘रण भूमि में आप निरन्तर गाण्डीव धनुष को खींचते और टंकारते रहते हैं, जिससे यह अलातचक्र के समान गोल प्रतीत होता है। उसे देखकर मेरी आँखें चैंधियाँ रही हैं तथा हृदय फटा सा जा रहा है। ‘इस संग्राम में कुपित हुए पिनाकपणि भगवान् रुद्र की भाँति आपका शरीर भयानक जान पड़ता है और लगातार धनुष बाण चलाने के व्यायाम में संलग्न रहने वाले आपकी भुजाओं को देखकर भी मुझे भय लगता है। ‘आप कब उत्तम बाणों को हाथों में लेते, कब धनुष पर रखते और कब उन्हें छोड़ते हैं, यह सब मैं नहीं देख पाता और देखने पर भी मुझे चेत नहीं रहता। इस समय मेरे प्राण अकुला रहे हैं। यह पृथ्वी काँपती सी जान पड़ती है। इस समय मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि घोड़ों की रास सँभाल सकूँ और चाबुक लेकर इन्हें हाँकूँ’।

     अर्जुन बोले ;- नरश्रेष्ठ! डरो मत। अपने आपको सँभालो तुमने भी युद्ध के मुहाने पर बड़े अद्भुत पराक्रम दिखाये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

   तुम राजकुमार हो। तुम्हारा कल्याण हो। तुमने मत्स्य नरेश के विख्यात वंश में जन्म ग्रहण किया है; अतः शत्रुओं के संहार के अवसर पर तुम्हें शिथिल नहीं होना चाहिये। राजपुत्र! तुम तो शत्रुओं का नाश करने वाले हो, अतः पूर्ण रूप से धैर्य धारण करके रथ पर बैठो और युद्ध करते समय मेरे घोड़ों को काबू में रक्खो।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार समझा बुझाकर रथियों में श्रेष्ठ और मनुष्यों मे सर्वोत्तम महाबाहु अर्जुन विराट कुमार उत्तर से पुनः यह वचन बोले,

    अर्जुन बोले ;- ‘राजकुमार! तुम शीघ्र ही पितामह भीष्म की इसी सेना के सामने मेरा रथ ले चलो, मुझे पहुँचाओ। इस युद्ध में मैं इनकी प्रत्यन्चा भी काट डालूँगा। ‘आज मुझे विचित्र दिव्यास्त्रों का प्रहार करते देखो। जैसे आकाश में मेघों की घटा से बिजली प्रकट होती है, उसी प्रकार ( बाणों की विद्युच्छटा प्रकट करने वाले ) मेरे गाण्डीव धनुष को, जिसके पृष्ठ भाग में सोना मढ़ा है, आज कौरव लोग विस्मित होकर देखेंगे। आज सारी शत्रु मण्डली इकट्ठी होकर यह अनुमान लगायेगी कि अर्जुन किस हाथ से बाण चलाते हैं ? दाहिने हाथ से या बायें से ? आज मैं परलोक की ओर प्रवाहित होने वाली ( शत्रु सेना रूप ) दुर्लंघ्य नदी को मथ डालूँगा, जिसमें रक्त ही जल है, रथ भँवर है और हाथी ग्राह के स्थान में हैं।

      ‘आज झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कौरवउ सेना रूपी जंगल को काट डालूँगा। हाथ, पैर, सिर, पृष्ठ ( पीठ ) तथा बाहु आदि अंग ही विविध शाखाओं के रूप में फैलकर इस कौरव वन को सघन किये हुए हैं। ‘जैसे वन में लगे हुए दावानल को आगे बढ़ने के लिये सैंकड़ों मार्ग सुलभ होते हैं, उसी प्रकार कौरव सेना पर विजय पाने वाले मुझ एकमात्र धनुर्धर वीर के लिये इसमें सैंकड़ों मार्ग प्रकट हो जायँगे। ‘मेरे बाणों से घायल हुई सारी सेना को तुम चक्र की भाँति घमूती हुई देखोगे। आज तुम्हें बाण विद्या में प्राप्त की हुई अपनी विचित्र शिक्षा का परिचय कराऊँगा। ‘तुम सम - विषम ( ऊँची - नीची ) भूमियों में सम्भ्रम रहित ( सावधान ) होकर रथ पर बैठो ( और घोड़ों की संभाल रखो। ) आज मैं सारे आकाश को घेरकर खड़े हुए ( महान् ) पर्वत को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर डालूँगा। ‘मैंने पहले देवराज इन्द्र की आज्ञा से युद्ध में उनके शत्रु पौलोम और कालचान्ज नामक लाखों दानवों का वध किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 26-37 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैंने धनुष पकड़ते समय मुट्ठी को दृढ़ रखना इन्द्र से, बाण चलाते समय हाथों की फुर्ती ब्रह्माजी से तथा संकट के समय विचित्र प्रकार के तुमुल युद्ध करने की कला प्रजापति से सीखी है। ‘पहले की बात है, मैंने समुद्र के उस पार हिरण्यपुर में निवास करने वाले साठ हजार भयंकर धनुर्धर महारथियों को परास्त किया था। ‘आज देख लेना, जैसे प्रबल वेग से आयी हुई जल की बाढ़ किनारों को काट - काट कर गिरा देती है, उसी प्रकार मैं कौरव दल के सैन्य समूहों को गिराऊँगा। ‘कौरवों की सेना एक जंगल के समान है, उसमें ध्वज ही वृक्ष हैं, पैदल सैनिक घास फूस हैं तथा रथ ही सिंहों के स्थान में हैं। मैं अपने अस्त्र शस्त्र रूपी अग्नि से आज इस कौरव वन को जलाकर भस्म कर दूँगा। ‘जैसे व्याघ्र घोंसले में बैठे हुए पक्षियों को भी मार गिराता है, उसी प्रकार मैं मुड़ी हुई नोक वाले ( तीखे ) बाणों से मारकर उन सभी कौरव वीरों को रथों की बैठकों से नीचे गिरा दूँगा। जैसे वज्रधारी इन्द्र अकेले ही समस्त असुरों का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार मैं भी अकेला ही यहाँ युद्ध के लिये सावधान होकर खड़े हुए सावधान होकर खड़े हुए समसत महाबली योद्धाओं का भली-भाँति विनाश कर डालूँगा। ‘मैंने भगवान् रुद्र से रौद्रास्त्र की वरुण से वारुणास्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। इसी प्रकार साक्षात् इन्द्र से मैंने वज्र आदि अस्त्र प्राप्त किये हैं। ‘वीर मानव रूपी सिंहों से सुरक्षित इस भयंकर कौरव वन को मैं अकेला ही उजाड़ डालूँगा, अतः विराट कुमार तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये’।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! सव्यसाची अर्जुन के इस प्रकार सान्त्वना देने पर विराट कुमार उत्तर ने भीष्मजी के द्वारा सब ओर से सुरक्षित रथियों की भयंकर सेना में प्रवेश किया। रण भूमि मेें कौरवों को जीतने की इचछा से आते हुए महाबाहु अर्जुन को कठोर कर्म करने वाले गंगा नन्दन भीष्म ने बिना किसी घबराहट के रोक दिया। तब अर्जुन ने उनकी ओर घूमकर सुनहरी धार वाले बाणों से भीष्मजी की ध्वजा को जड़ से काट गिराया, बाणों से छिद जाने के कारण वह ध्वजा पृथ्वी पर गिर पड़ी। इतने ही में विचित्र माला और आभूषणों से विभूषित और अस्त्र संचालन की विद्या में निपुण चार महाबली मनस्वी वीर दुःशासन, विकर्ण, दुःसह और विविंशति वहाँ भयंकर धनुष वाले अर्जुन पर चढ़ आये और वहाँ आकर उन्होंने उग्रधन्वा बीभत्यसु को चारों ओर से घेर लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकषष्टितम अध्याय के श्लोक 38-46 का हिन्दी अनुवाद)

    वीर दुःशासन ने भल्ल नामक एक बाण से विराट कुमार उत्तर को घायल करके दूसरे से अर्जुन की छाती छेद डाली। तब अर्जुन उसकी ओर मुड़े और मोटी धार और गीध की पाँख जैसे पंख वाले बाण से दुःशासन के सुवर्ण जटित धनुष को काट डाला। तत्पश्चात् उसकी छाती में भी पाँच बाण मारे। पार्थ के बाणों से अत्यनत पीड़ित हो दुःशासन युद्ध छोड़कर भाग गया। तब धृतराष्ट्र पुत्र विकर्ण ने शत्रुवीरों का नाश करने वाले अर्जुन को सीधे लक्ष्य की ओर जाने वाले गृध्रपत्र युक्त तीखे बाणों से बींध डाला।

   तत्पश्चात् कुन्ती नन्दन अर्जुन ने झुकी हुई गाँठ वाले बाण से उसको भी ललाट में बींध डाला। उस बाण से घायल होकर विकर्ण तुरंत ही रथ से नीचे गिर पड़ा। तब दुःसह और विविंशति अर्जुन की ओर दौड़े और युद्ध में भाई का बदला लेने के लिये उनके ऊपर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। फिर धनंजय ने गृध्र की पाँख वाले दो तीखे बाणों द्वारा उन दोनों को एक ही साथ घायल करके बिना किसी घबराहट के उनके घोड़ों को भी मार गिराया। घोड़ों के मारे जाने और शरीर के बिंध जाने पर उन दोनों धृतराष्ट्र कुमारों के पास उनके सेवक आ पहुँचे और उन्हें दूसरे रथ पर डालकर अन्यत्र हटा ले गये। किसी से परास्त न होने वाले किरीट मालाधारी महाबली कुन्ती नन्दन अर्जुन का निशाना कभी चूकता नहीं था। ये उस सेना में सब ओर विचरने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में अर्जुन दुःशासन आदि के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का सब योद्धाओं और महारथियों के साथ युद्ध”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर कौरव सेना के सब महारथी मिलकर एक साथ संगठित होकर बड़ी सावधानी के साथ अर्जुन का सामना करने लगे। परंतु असीम आत्मबल से सम्पन्न कुन्ती पुत्र ने सब ओर सायकों का जाल सा बिछाकर कुहरे से ढके हुए पहाड़ों की तरह उन सब महारथियों को आच्छादित कर दिया। बड़े-बड़े गजराजों के चिग्घाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने और नगाड़ों तथा शंखों के बजाये जाने से जो शब्द हुए, उनके एकत्र मिलने से उस रण भूमि में भारी कोलाहल मच गया। पार्थ के सहस्रों बाण समुदाय मनुष्यों और घोड़ों के शरीरों को छेदकर और उनके लोहे के बने हुए कवचों को भी छिन्न भिन्न करके नीचे गिरा रहे थे। जैसे शरद् ऋतु के ( निर्मल आकाश में ) दोपहर का सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणें फैलाकर प्रकाशित होता है, उसी प्रकार संग्राम में पाण्डु नन्दन अर्जुन शत्रु सेना पर उतावली के साथ बाण वर्षा करते हुए सुशोभित होते थे। उस समय अत्यन्त भयभीत होकर रथी सैनिक रथों से कूदकर और घुड़सवार घोड़ों की पीठ से उछलकर जान लेकर भाग चले और पैदल योद्धा तो भूमि पर थे ही; उनहोंने भी ( डर के मारे ) इधर उधर की राह ली। महामना शूरवीर ताँबे और लोहे के बने हुए कवच जब बाणों से कटते थे, तब उनका बड़ा भारी शब्द होता था।

      कुछ ही देर में युद्ध का सारा मैदान मूर्च्छित हुए सैनिकों के शरीरों से पट गया। तीखे बाणों की मार से जिनके प्राण निकल गये, उन हाथी सवारों, घुड़सवारों तथा रथ की बैठे से गिरे हुए मनुष्यों की लाशों से वहाँ की भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस समय ऐसा जान पड़ता था, जैसे धनुष हाथ में लिये अर्जुन युद्ध भूमि में सब ओर नाचते फिर रहे हों। गाण्डीव की टंकार वज्र की गड़गड़ाहट को भी मात कर रही थी। उसे सुनकर समस्त सैनिक भयभीत हो उस महान संग्राम से भाग निकले। युद्ध के मुहाने पर कुण्डल और पगड़ी धारण किये असंख्य कटे हुए सिर पड़े दिखायी देते थे। कितने ही सोने के हार इधर उधर गिरे थे। अर्जुन के बाणों से मथित हुई लाशों से वहाँ की जमीन पट गयी थी। कितनी ही भुजाएँ कटकर गिरी थीं; जो अब भी ( मुट्ठी में दृढ़ता पूर्वक ) धनुष पकड़े हुए थीं। उन हाथों में बाजू बन्द, कड़े, अंगूठी आदि आभूषण सभी ज्यों के त्यों थे। इन सबसे आच्छादित होकर उस रण भूमि की विचित्र शोभा हा रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विषष्टितम अध्याय के श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)

     भरत श्रेष्ठ! बीच में तीखे बाणो से काटकर गिराये जाने वाले योद्धाओं के मस्तकों की श्रेणी आकाश से होने वाली पत्थरों की वर्षा सी जान पड़ती थी। भयानक पराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन तेरह वर्षों तक वन में हववश होकर रुके थे। अब ( उपयुक्त अवसर पाकर ) वे वीर पाण्डु कुमार धृतराष्ट्र के पुत्रों पर अपनी क्रोधाग्नि बरसाते तथा अपने रौद्र रूप का दर्शन कराते हुए रण भूमि में विचरने लगे। कौरव योद्धाओं का दग्ध करने वाले अर्जुन का वह पराक्रम देखकर सभी सैनिक दुर्योधन के सामने ही ठण्डे पड़ गये। भारत! विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन उस सेना को भयभीत करके ( सामने आये हुए ) महारथियों को भगाकर रण भूमि में चारों ओर घूमने लगे। पार्थ ने उस समय वहाँ खून की नदी बहा दी; जो बड़ी भयंकर थी। उसमें जल की जगह रक्त की धारा बहती थी तथा रक्त की ही तरंगें उठती थीं। हड्डियाँ ही उसमें सेवार बनकर छा रही थी। जान पड़ता था, कि प्रलय काल में साक्षात काल ने ही उसका निर्माण किया हो। उसमें धनुष और बाण ऐसे बहते थे, मानों डोंगियाँ चल रही हों। उसका स्वरूप बड़ा भयानक लगता था।
      केश उसमें सेवार और घास के समान प्रतीत होते थे। उसमें वीरों के कवच और पगडि़याँ भरी थीं। हाथी कछुओं और बड़े-बड़े जल हस्तियों के समान जान पड़ते थे। मेदा, चर्बी तथा रुधिर को बहाने वाली वह नदी महान भय को बढ़ाने वाली थी। उसकी स्थिति बड़ी भीषण थी। उस रौद्र रूपा नदी के तट पर ( रक्तभोजी) हिंसक जन्तु कोलाहल कर रहे थे। तीखे शस्त्र उसके भीतर बड़े-बड़े ग्राहों के समान जान पड़ते थे। मांसभोजी जीव जन्तु वहाँ निवास करते थे। मोतियों की मालाएँ लहरों के समान जान पड़ती थीं। विचित्र आभूषण उसमें उठते हुए जल के बुलबुले जैसे प्रतीत होते थे। बाणों के समूह बड़ी-बड़ी भँवरें थे। हाथी घडि़यालों से जान पड़ते थे; अतः उसके पार जाना अत्यन्त कठिन था। बड़े-बड़े रथ उसके भीतर विशाल टापू जैसे प्रतीत होते थे। शंख और नगाड़ों की आवाज ही उस नदी की कलकल ध्वनि थी। इस प्रकार अर्जुन ने वहाँ खून की दुर्लंघ्य नदी बहा दी। अर्जुन कब बाण हाथ में लेते, गाण्डीव धनुष पर रखते, कब उसकी प्रत्यन्चा खींचते और बाण छोड़ते हैं, यह कोई भी मनुष्य नहीं देख पाता था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में अर्जुन के संकुल युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (गोहरण पर्व)

तिरसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन पर समस्त कौरव पक्षीय महारथियों का आक्रमण और सबका युद्ध भूमि से पीठ दिखाकर भागना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, विविंशति, पुत्र सहित आचार्य द्रोण और महारथी कृपाचार्य- ये सब योद्धा रोष में भरकर धनंजय को मार डालने की इच्छा से अपने

मजबूत और दृढ़ धनुषों की टंकार फैलाते हुए उन पर पुनः चढ़ आये। महाराज! तब वानर युक्त ध्वजा वाले अर्जुन भी सूर्य के समान तेजस्वी तथा फहराती हुई पताका से सुशोभित रथ के द्वारा सब ओर से उनका सामना करने के लिये आगे बढ़े। यह देख कृपाचार्य, कर्ण, तथा रथियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण- ये महापराक्रमी धनुजय को ( चारों ओर से ) घेरकर अपने महान धनुषों से उनपर राशि-राशि बाणों का खूब जमेर प्रहार करने लगे। वे तीनों महारथी धनंजय को मार गिराने की इच्छा से वर्षाकाल के मेघों की भाँति सायकों की वर्षा कर रहे थे। उन्होंने समा भूमि में थोड़ी ही दूर पर पार्थ की गति को कुण्ठित करके बड़े चाव से बहुसंख्यक पंख युक्त बाणों की बौछार करते हुए उन्हें तुरंत ढँक दिया। वे महारथी जब इस प्रकार सब ओर से अर्जुन पर दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों की वर्षा करने लगे, उस समय उनके शरीर का दो अंगुल भाग भी बाणों से ख़ाली नहीं दिखायी देता था। तब महारथी अर्जुन ने हँसते हुए गाण्डीव धनुष पर सूर्य के समान तेजस्वी दिव्य ऐन्द्रास्त्र का संधान किया। फिर तो महाबली किरीटमाली कुन्ती नन्दन अर्जुन सूर्य की भाँति बाण रूपी प्रचण्ड किरणों को बिखेरते हुए समर भूमि में आगे बढ़े। उन्होंने समस्त कौरव योद्धाओं को सायकों से ढँक दिया।
      तैसे मेघों में बिजली और पर्वत पर आग की ज्वाला शोभा पाती है, उसी प्रकार अर्जुन के हाथ में गाण्डीव धनुष सुशोभित होता था। वह आकाश में इन्द्र धनुष सा झुका हुआ था। जैसे मेघ के वर्षा करते समय आकाश में बिजली चमक उठती है और वह सम्पूर्ण दिशाओं तथा पृथ्वी को भी सब ओर से प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार बाणों की वर्षा करते हुए गाण्डीव धनुष ने दसों दिशाओं को सम्पूर्णतया आच्छादित कर दिया। जनमेजय! उस समय वहाँ हाथी सवार और रथी आदि सब सैनिक मोहित ( मूर्च्छित ) हो रहे थे। सबने शान्ति ( जड़ता और मूकता ) धारण कर ली थी। किसी का होश ठिकाने न था। सभी योद्धाओं ने हतोत्साह होकर युद्ध से मुँह मोड़ लिया। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार सारी सेना का व्यूह टूट गया। सब सैनिक अपने जीवन से निराश होकर चारों दिशाओं में भागने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में अर्जुन के संकुल युद्ध विषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (गोहरण पर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध तथा मूर्च्छित भीष्म का सारथि द्वारा रण भूमि से हटाया जाना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भरतवंश के सुप्रसिद्ध वीर शान्तनु नन्दन पितामह भीष्म अपने पक्ष के योद्धाओं का संहार होते देख अर्जुन की ओर दौड़े। उन्होंने हाथ में सुवर्ण भूषित श्रेष्ठ धनुष और शत्रुओं को मथ डालने वाले तीखे एवं मर्मभेदी बाण ले रक्खे थे। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे वे नररेष्ठ भीष्म सूयोदय काल में उदयाचल की भाँति सुशोभित हो रहे थे। गंगा नन्दन भीष्म ने शंख बजाकर धृतराष्ट्र के पुत्रों का हर्ष बढ़ाया और दाहिनी ओर मुड़कर अर्जुन को आगे बढ़ने से रोका। शत्रुवीरों का हनन करने वाले कुन्ती कुमार धनंजय ने भीष्म को आते देख प्रसन्नचित्त होकर उनका सामना किया; ठीक उसी तरह, जैसे पर्वत अविचल भाव से खड़ा हो जल बरसाने वाले मेघ का आघात सहन करता है। तब पराक्रमी भीष्म ने पार्थ की ध्वजा पर फुफकारते हुए सर्पों के समान अत्यन्त वेगशाली आठ बाण मारे। उन बाणों ने पाण्डु नन्दन अर्जुन की ध्वजा के समीप पहुँच कर वहाँ बैठे हुए तेजस्वी वानर को तथा ध्वजा के अग्र भाग में निवास करने वाले अन्य भूतों को भी गहरी चोट पहुँचायी। तब पाण्डु कुमार ने मोटी धार वाले विशाल भल्ल के द्वारा भीष्म का छत्र काट दिया, जिससे वह तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर कुन्ती नन्दन ने शीघ्रता करते हुए उनकी ध्वजा को भी अपने बाणों से छेद डाला और रथ के घोड़ों, पाश्र्वरक्षकों तथा सारथि को भी बहुत घायल कर दिया।
       भीष्म जी अपने सैनिकों पर किये गये अर्जुन के उस पराक्रम को सह न सके। वे यह जानते हुए भी कि से पाण्डु पुत्र धनंजय हैं, महान दिव्यास्त्र द्वारा उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। परंतु असीम आत्मबल से सम्पन्न पाण्डु पुत्र अर्जुन जैसे पर्वत महामेघ का सामना करता है, उसी प्रकार भीष्म पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हुए उनका सामना करने लगे।। उन दोनों का यह तुमुल युद्ध रोंगटे खड़े कर देने वाला था। पार्थ के साथ भीष्म का वह संग्राम बलि और इन्द्र के युद्ध के समान था। समस्त कौरव योद्धा अपने सैनिकों के साथ खड़े खड़े तमाशा देखने लगे। रण भूमि में भीष्म और पाण्डु कुमार के भल्ल ऐ दूसरे से टकराकर वर्षा काल के आकाश में जुगनुओं की भाँति चमक उठते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

  राजन! दाँयें-बाँयें बाण फेंकने वाले पार्थ के द्वारा घुमाया जाता हुआ गाण्डीव धनुष अलात चक्र के समान जान पड़ता था। तदनन्तर जैसे मेघ अपनी जलधाराओं से पर्वत को भी आच्छादित कर देता ह।, उसी प्रकार अर्जुन ने सैंकड़ों पैने बाणों से भीष्म को ढँक दिया। जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो, उसी प्रकार वहाँ प्रकट हुई उस बाण वर्षा को भीष्म ने अपने सायकों से छिन्न भिन्न कर दिया और पाण्डु पुत्र अर्जुन को कुण्ठित कर दिया। तदनन्तर रण भूमि में कटकर टुकड़े-टुकड़े हुए वे बाण समूह अर्जुन के रथ पर बिखरने लगे। इसके बाद पुनः पाण्डु पुत्र अर्जुन के रथ से टिड्डियों के दल की भाँति तुरंत ही सोने के पंख वाले बाणों की वर्षा प्रारम्भ हुई; किंतु भीष्म ने सैेंकड़ों पैने बाणों द्वारा उसे फिर शान्त कर दिया। उस समय समस्त कौरव साधुवाद देते हुए बोल उठे,,
    कौरव बोले ;- ‘अहो! भीष्म जी ने यह दुष्कर पराक्रम किया, जो कि अर्जुन के साथ युद्ध किया’। अर्जुन बलवान, तरुण? कुशल और शीघ्रता पूर्वक बाण चलाने वाले हैं। शान्तनु नन्दन भीष्म, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण अथवा आचार्य प्रवर महाबली भरद्वाज नन्दन द्रोण के सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो संग्राम में पार्थ का वेग रोक सके? वे दोनों भरत कुल शिरोमणि महाबली वीर समसत प्राणियों के नेत्रों में मोह एवं आश्चर्य उत्पन्न करते हुए अस्त्रों द्वारा एक दूसरे के अस्त्रों का निवारण करके खेल सा कर रहे थे। प्रजापत्य, ऐन्द्र, आग्नेय, भयंकर रौद्र, कौबेर, वारुण, याम्य तथा वायव्य अस्त्रों का प्रयोग करते हुए वे दोनों महापुरुष समर भूमि में विचर रहे थे। उस समय युद्ध में उन दोनों की ओर देखकर सब प्राणी आश्चर्य चकित हो बोल उठते थे- ‘महाबाहु पार्थ! साधुवाद, महाबाहु भीष्म! साधुवाद। ‘भीष्म और मार्थ के युद्ध में जो यह बड़े-बड़े दिव्यास्त्रों का महान प्रयोग देखा जा रहा है, यह मनुष्यों में अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है’।
      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता भीष्म और अर्जुन में कुछ काल तक दिव्यास्त्रों का युद्ध चलता रहा। उसके समाप्त हो जाने पर पुनः बाण युद्ध प्रारम्भ हुआ। तदनन्तर विजयशील अर्जुन ने निकट आकर छुरे के समान धार वाले एक बाण से भीष्म के सुवर्ण भूषित धनुष को काट डाला। किंतु विशाल भुजाओं वाले महारथी भीष्म ने पलक मारते-मारते उस युद्ध में दूसरा धनुष ले उस पर प्रत्यन्चा चढ़ा दी और क्रोध में भरकर धनंजय पर बहुत से बाणों का प्रहार किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 29-40 का हिन्दी अनुवाद)

       तब महातेजस्वी अर्जुन ने भी भीष्म पर बहुत से पैने बाण फेंके और भीष्म ने भी पाण्डु पुत्र को अनेक तीखे बाण मारे। राजन! ये दोनों महात्मा दिव्यास्त्रों के पण्डित थे और एक दूसरे पर पैने बाण फेंक रहे थे। उस समय उन दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखायी दे रहा था। किरीटमाली कुन्ती कुमार अर्जुन और शान्तनु नन्दन भीष्म दोनों ही अतिरथी वीर थे। उन्होंने अपने बाणों से दसों दिशाओ को आच्छादित कर दिया। राजा जनमेजय! उस युद्ध में कभी पाण्डु पुत्र अर्जुन भीष्म से बढ़ जाते थे, तो कभी भीष्म ही अर्जुन को लाँघ जाते थे। जगत में यह एक अद्भुत बात थी। राजन! भीष्म के रथ की रक्षा करने वाले शूरवीर सैनिक अर्जुन के द्वारा मारे जाकर उनके रथ के दोनों ओर पड़े थे। तदनन्तर श्वेतवाहन अर्जुन के पंखधारी बाण गाण्डीव धनुष से छूटकर संसार को शत्रु रहित करने की इच्छा से सब ओर आने लगे।

       उनके रथ निकलते हुए सुनहरे पंख वाले श्वेत बाण आकाश में हंसों की पंक्ति से दिखायी देते थे। अर्जुन विचित्र ढंग से मर्मभेदी दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर रहे थे और आकाश में खड़े हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनका वह अस्त्र कौशल देख रहे थे। उस समय प्रतापी चित्रसेन गन्धर्व ने अर्जुन की ओर देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो देवराज इन्द्र से उनके विचित्र एवं अद्भुत रण कौशल की प्रशसा करते हुए कहा- ‘प्रभो! देखिये, ये पार्थ के छोड़े हुए बाण परस्पर सटे हुए से जा रहे हैं। दिव्यास्त्र प्रकट करने वाले अर्जुन की यह अस्त्र संचालन कला विचित्र एवं अद्भुत है। ‘दूसरे मनुष्य इस दिव्यास्त्र का संधान नहीं कर सकते; क्योंकि यह अस्त्र दूसरे मनुष्यों के पास है ही नहीं। यहाँ प्राचीन काल के बड़े-बड़े अस्त्रों का अद्भुत समागम हुआ है। ‘अर्जुन कब बाण निकालते हैं, कब चढ़ाते हैं, कब छोड़ते हैं और कब गाण्डीव धनुष को खींचते हैं तथा इन क्रियाओं में कितना अन्तर पड़ता है; यह सब किसी को दिखायी ही नहीं देता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुःषष्टितम अध्याय के श्लोक 41-49 का हिन्दी अनुवाद)

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ‘आकाश में दोपहर के समय प्रचण्ड किरणों से तपते हुए सूर्य की ओर जैसे कोई देख नहीं सकता, उसी प्रकार प्रतापी पाण्डु पुत्र की ओर कौरव सैनिक आँख उठाकर देखने में भी असमर्थ हो गये हैं। ‘इसी प्रकार गंगा नन्दन भीष्म की ओर भी कोई मनुष्य देखने का साहस नहीं करता है। ‘दोनों वीर अपने अद्भुत कार्यों के लिये संग्राम के लिये संसार में प्रसिद्ध हैं। दोनों के पराक्रम उग्र हैं। दोनों एक सा पराक्रम दिखाने वाले तथा युद्ध में अत्यन्त दुर्जय हैं’। जनमेजय! चित्रसेन के ऐसा कहने पर देवराज इन्द्र ने दिव्य पुष्पों की वर्षा करके अर्जुन और भीष्म के इस अद्भुत संग्राम के प्रति आदर प्रकट किया। तदनन्तर शान्तनु नन्दन भीष्म ने ( कौरव सेना को ) घायल करने वाले सव्यसाची अर्जुन के देखते देखते बाण संधान करके उनका बाँयाँ पाश्र्व बींध डाला।
      तब अर्जुन ने भी हँसकर मोटी धार एवं गीध की पाँख वाले बाण से सूर्य के समान तेजस्वी भीष्म का धनुष फिर काट दिया। तत्पश्चात कुन्ती पुत्र धनंजय ने विजय के लिये प्रयत्नशील पराक्रमी भीष्म की

छाती में दस बाण मारकर गहरी चोट पहुँचायी। उससे पीड़ित हो रण दुर्धर्ष वीर महाबाहु भीष्म रथ का कूबर पकड़कर बहुत देर तक निश्चेष्ट बैठे रह गये। वे बेहोश थे। ‘ऐसी दशा में सारथि को रथी की रक्षा करनी चाहिये’ इस उपदेश का स्मरण करके महारथी भीष्म की प्राण रक्षा के उद्देश्य से उनके रथ और घोड़ों को काबू में रखने वाला सारथि उन्हें संग्राम भूमि से दूर हटा ले गया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में भीष्म के रण भूमि से हटाये जाने से सम्बन्ध रखने वाला चैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

पैसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और दुर्योधन का युद्ध, विकर्ण आदि योद्धाओं सहित दुर्योधन का युद्ध के मैदान से भागना”

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब भीष्म जी युद्ध का मुहाना छोड़कर दूर हट गये, तब धृतराष्ट्र के पुत्र महामना दुर्योधन अपने रथ की पताका फहराकर हाथ में धनुष ले सिंहनाद करता हुआ अर्जुन पर चढ़ आया। उस समय भयंकर धनुष धारण करने वाले प्रचण्ड पराक्रमी धनुजय शत्रुसेना में विचर रहे थे। दुर्योधन ने धनुष को कान तक खींचकर छोड़े हुए भल्ल नामक बाण से उनके ललाट में गहरी चोट पहुँचायी। वह बाण अर्जुन के ललाट में धुस गया। राजन! प्रशंसनीय पराक्रम वाले अर्जुन सुनहरी धर वाले उस धँसे हुए बाण के द्वारा उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे एक सुन्दर शिखर वाला पर्वत अपने ऊपर उगे हुए एक ही बाँस के प्रड़ से शोभा पा रहा हो। दुर्योधन के उस बाण से अर्जुन का ललाट विदीर्ण हो गया था और उससे गरम-गरम रक्त की अविच्छिन्न धारा बहने लगी। जाम्बूनद सुवर्ण की पाँख वाला वह विचित्र बाण पार्थ का ललाट छेदकर बड़ी शोभा पा रा था। तदनन्तर उग्र तेजस्वी अद्वितीय वीर अर्जुन ने दुर्योधन पर और दुर्योधन ने अर्जुन पर आक्रमण किया।
      अजमीढ़ वंश के वे दोनों प्रमुख वीर पुरुष एक समान पराक्रमी थे। उन्होंने संग्राम में एक दूसरे पर बड़े वेग से धावा किया। उसी समय एक पर्वताकार गजराज पर, जिसके मस्तक से मद टपक रहा था, चढ़कर विकर्ण पुनः विजयशाली कुन्ती नन्दन अर्जुन पर चढ़ आया। उसके साथ चार रथारोही योद्धा भी थे, जो हाथी के चारों पैरों की रक्षा कर रहे थे। गजराज को तीव्र गति से अपनी ओर आते देख धनंजय ने धनुष को कान तब खींचकर चलाये हुए लोहे के अत्यन्त वेगशाली बाण द्वारा उसके कुम्भ स्थल को बींध डाला। पार्थ का छोड़ा हुआ वह गीध पक्षी के परों वाला बाण उस हाथी के मस्तक में पंख सहित घुस गया; मानो इन्द्र का चलाया हुआ वज्र किसी प्रकाश पूर्ण गिरिराज को विदीर्ण करके उसके भीतर समा गया हो। वह गजराज अर्जुन के बाण से संतप्त हो उठा। उसकी अन्तरात्मा व्यथित हो गयी और सारा शरीर काँपने लगा। जैसे वज्र का मारा हुआ पर्वत शिखर ढह जाता है, उसी प्रकार वह गजराज शिथिल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस विशाल हाथी के धराशायी हो जाने पर विकर्ण बहुत डर गया और सहसा कूद कर शीघ्रता पूर्वक भाग गया और आठ सौ पग चलकर विविंशति के रथ पर चढ़ गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचषष्टितम अध्याय के श्लोक 11-18 का हिन्दी अनुवाद)

      उस वज्र सदृश बाण द्वारा पर्वत तथा मेघों की घटा के समान प्रतीत होने वाले गजराज को मारकर पार्थ ने वैसे ही दूसरे बाण से दुर्योधन की छाती छेद डाली। इस प्रकार गजराज और कुरुराज दोनों के घायल होने तथा गजराज के पाद रक्षकों सहित विकर्ण के भाग जाने पर गाण्डीव धनुष से छूटे हुए सायकों की मार खाकर पीड़ित हुए समस्त मुख्य-मुख्य योद्धा सहसा मैदान छोड़कर भाग गये। अर्जुन के हाथ से गजराज मारा गया औश्र सम्पूर्ण योद्धा भी रण भूमि छोड़कर भाग रहे हैं, यह देखकर कुरुवंश का प्रमुख वीर दुर्योधन भी, जिस ओर अर्जुन नहीं थे, उसी दिशा में रथ घुमाकर भागा। उस समय दुर्योधन का रूप भयंकर हो रहा था। वह हार खाकर बाण से घायल हो रक्त वमन करता हुआ भागा जा रहा था। यह देखकर शत्रु का वेग सहन करने वाले किरीटधारी अर्जुन ने ताल ठोंकी और मन में युद्ध के लिये उत्साह रखते हुए वे शत्रु को ललकारने लगे।
      अर्जुन बोले ;- धृतराष्ट्र के पुत्र! तू युद्ध से पीठ दिखाकर क्यों भागा जा रहा है? अरे! ऐसा करके तू अपनी कीर्ती और विशाल यष से हाथ धो बैठा है। आज तेरे विजय के बाजे पहले जैसे नहीं बज रहे हैं। तूने जिन्हें राज्य से उतार दिया है, उन्हीं महाराज युधिष्ठिर का आज्ञाकारी मैं तीसरा पाण्डव युद्ध के लिये खड़ा हूँ। अतः तू मेरा सामना करने के लिये लौटकर अपना मुँह तो दिखा। राजा का आचार-व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसकी याद तो कर ले। व्यर्थ ही इस पृथ्वी पर तेरा नाम दुर्योधन रक्खा गया। तू तो युद्ध छोड़कर भागा जा रहा है; अतः यहाँ तुझमें दुर्योधन नाम के अनुरूप कोई गुण नहीं है। दुर्योधन! अच्छा, तेरे आगे या पीछे कोई रक्षक नहीं दिखायी देता। अतः वीर पुरुष! तू युद्ध से भाग जा और पाण्डु पुत्र अर्जुन के हाथ से आज अपने प्यारे प्राणों की रक्षा कर ले।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में दुर्योधन का युद्ध से पलायन विषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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