सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और कृपाचार्य का युद्ध देखने के लिये देवताओं का आकाश में विमानों पर आगमन”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर भयंकर धनुष धारण करने वाले कौरवों के वे सैनिक शनैः शनैः आगे बढ़ने लगे। उस समय वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो ग्रीष्म के अन्त एवं वर्षा के प्रारम्भ में मनद वायु द्वारा प्रेरित मेघ धीरे धीरे आ रहे हों। घुड़सवार योद्धा समीप आकर खड़े हो गये। घोड़ों के साथ ही भयंकर हाथी भी आगे बढ़ आये। उन्हें महावत तोमर और अंकुशों की मार से आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहे थे और उन हाथियों पर बैठे हुए शूर वीर अपने विचित्र कवचों की प्रभा से प्रकाशित हो रहे थे। राजन्! इसी समय देवताओं सहित इन्द्र विमान पर बैठ कर विश्वेदेव, अश्विनीकुमार तथा मरुद्गणों के साथ वहाँ आये, जहाँ परस्पर शत्रुता रखने वाले दो दलों का भयंकर संघर्ष छिड़ा हुआ था। उस समय देवता, यक्ष, गन्धर्व तथा बड़े बड़े नागों ( के विमानों ) से भरा हुआ वहाँ का आकाश बादलों के आवरण से रहित ग्रह मण्डल की भाँति शोभा पाने लगा। कृपाचार्य और अर्जुन के संग्राम में देवताओं के उन अस्त्रों की शक्ति का मनुष्यों पर प्रयोग करने वाले शूरवीरों के उस महा भयंकर युद्ध को अपनी आँखों से देखने के लिये देवता लोग पृथक् पृथक् अपने विमानों पर बैठकर आये थे।

      उन विमानों में देवराज इन्द्र का आकाशचारी विमान उस समय सबसे अधिक शोभा पा रहा था। वह इच्छानुसार चलने वाला दिव्य यान सब प्रकार के रत्नों से विभूषित था। उस विमान को एक करोड़ खंभों ने धारण कर रक्खा था। उनमें एक ओर सोने के और दूसरी ओर मणि एवं रत्नों के खंभे लगे थे। उस विमान में इन्द्र सहित तैंतीस देवता विराजमान थे। इनके सिवा गन्धर्व, राक्षस, सर्प, पितर, महर्षिगण, राजा, बसुमना, बलाक्ष, सुप्रतर्दन, अष्टक, शिबि, ययाति, नहुष, गय, मनु, पूरू, रघु, भानु, कृशाश्व, सगर, तथा नल - ये सब तेजस्वी रूप धारण करके देवराज के विमान में दृष्टिगोचर हो रहे थे। अग्नि, ईश, सोम, नरुण, प्रजापति, धाता, विधाता कुबेर, यम, अलम्बुष और उग्रसेन पृथक् पृथक् विमान अपनी - अपनी लंबाई चैड़ाई के अनुसार आकाश के विभिन्न प्रदेशों में प्रकाशित हो रहे थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 13-19 का हिन्दी अनुवाद)

     ये सभी देव समुदाय, सिद्ध और महर्षिगण अर्जुन तथा कौरव दल का युद्ध देखने के लिये जुटे थे। जनमेजय! जैसे वसन्त के प्रारम्भ में वन के फूलों की मनोहर सुगन्ध सब ओर फैलने लगती है, उसी प्रकार दिव्य मालाओं की पुण्यमय गन्ध वहाँ सब ओर छा गयी। उन विमानों में बैठे हुए देवताओं के रत्न, छत्र, वस्त्र, मालाएँ और चँवर आदि स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। धरती की धूल शान्त हो गयी थी और पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु पर ( दिव्य ) किरणों का प्रकाश छा गया था।

     वायु दिव्य गन्ध लेकर वहाँ पर सिथत योद्धाओं का सेवन करती थी। श्रेष्ठ देवताओं द्वारा लाये हुए भाँति - भाँति के विचित्र विमान अनेकानेक रत्नों से उद्भासित थे। उनमें से कुछ स्थिर हो गये थे और कुछ ( नीचे - ऊपर ) उड़ रहे थे। उनके द्वारा उद्भासित होने वाले आकाश की विचित्र शोभा हो रही थी। वहाँ विमानस्थ देवताओं से घिरे हुए वज्रधारी महा तेजस्वी इन्द्र पद्म और उत्पलों की माला पहने हुए सुशोभित हो रहे थे। वे अनेक वीरों के साथ छिड़े हुए अर्जुन के उस महान् संग्राम को बार - बार देखते थे, तो भी तृप्त नहीं होते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में देव गमन विषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध तथा कौरव पक्ष के सैनिकों द्वारा कृपाचार्य को हटा ले जाना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! कौरव सेनाओं को व्यूह रचना करके खड़ी हुई देखकर कुन्ती नन्दन अर्जुन ने विराटकुमार उत्तर को सम्बोधित करके कहा,

    अर्जुन बोले ;- ‘उत्तर! जिसकी ध्वजा पर सोने की वेदी का चिह्न दिखायी देता है, उस रथ के दाहिने होकर चलो। उधर ही शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य हैं’।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! धनंजय की बात सुनकर विराट कुमार उत्तर ने तुरंत ही चाँदी के समान चमकीले उन श्वेत घाड़ों को; जो सोने के साज सामान से सुशोभित हो रहे थे, हाँका। घाड़ों को वेग पूर्वक भगाने के जितने उत्तम ढंग हैं, क्रमशः उन सबका सहारा लेकर उत्तर ने उन चन्द्रमा के समान श्वेत घोड़ों को इतनी तीव्र गति से आगे बढ़ाया, मानो वे कुपित होकर भाग रहे हों। अश्व विद्या में प्रवीण विराट पुत्र ने पहले कौरव सेना के समीप जाकर उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को पुनः लौटाया और दाँयी ओर से घुमाकर बाँयीं ओर बढ़ा दिया। अश्व संचालन का रहस्य जानने वाले मत्स्य देश के पुत्र ने रथ की चाल से कौरवों को मोह ( भ्रम ) में डाल दिया - वे यह न जान सके कि रथ किस महारथी के पास जाना चाहता है। विराट नन्दन महाबली उत्तर को किसी ओर से कोई भय नहीं था। उसने कृपाचार्य के रथ के समीप जा रथ द्वारा उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके सामने जा वह रथ रोककर खड़ा हो गया। तब अर्जुन ने अपना नाम सुनाकर और पूरा बल लगाकर भारी आवाज करने वाले अपने उत्तम शंख देवदत्त को बजाया।

     युद्ध भूमि में वैसे महापराक्रमी विजयशील अर्जुन के द्वारा बजाये जाने पर उस शंख से इतने जोर की आवाज हुई, मानो कोई पर्वत फट गया हो। उस समय समसत कौरव अपने सैनिकों के साथ यह कह कर उस शंख की सराहना करने लगे कि अहो! यह अद्भुत शंख है। जो अर्जुन के इस प्रकार बजाने पर भी उसके सैंकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते। वह शंखनाद स्वर्गलोक से टकराकर जब पुनः लौटा, तब इस प्रकार सुनायी दिया, मानो इन्द्र का चलाया हुआ वज्र किसी पर्वत पर गिरा हो। वीरवर कृपाचार्य बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। उन्हें जीतना अत्यन्त कठिन था। वे अर्जुन के शंख बजाने के अनन्तर उनके प्रति कुपित हो उठे। शरद्वान् के पुत्र महारथी कृपाचार्य उस समय अर्जुन के शंखनाद को नहीं सह सके उनके मन में अर्जुन पर कुछ रोष हो आया; इसलिये युद्ध के (उनके साथ ) अभिलाषी होकर उन महापराक्रमी महारथी ने अपना शंख लेकर उसे बड़े जोर से फूँका।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

    रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने उस शंखनाद से तीनों लोकों को गुँजाकर उस समय हाथ में धनुष ले लिया और उसकी प्रत्यन्चा खींचकर टंकार ध्वनि की। वे दोनों महारथी बड़े पराक्रमी और सूर्य के समान तेजस्वी थे; अतः युद्ध करने के लिये खड़े हुए वे दोनों वीर शरत्काल के दो मेघों की भाँति शोभा पाने लगे। तदनन्तर कृपाचार्य ने मर्मस्थान को विदीर्ण करने वाले दस तीखे बाणों द्वारा शत्रुवीरों के संहारक कुन्ती नन्दन अर्जुन को तुरंत बींध डाला। तब अर्जुन ने भी अपने विश्वविख्यात उत्तम आयुध गाण्डीव को ( कान तक) खींचकर


बहुत से मर्मभेदी नाराच छोड़े। किंतु अर्जुन के द्वारा चलाये हुए उन रक्त पीने वाले नाराचों को अपने पास आने से पहले ही कृपाचार्य ने तीखे बाण मारकर उनके सैंकड़ों और हजारों टुकड़े कर डाले।

    तब सामर्थ्यशाली महारथी कुन्ती पुत्र अर्जुन ने क्रोध में भरकर बाण चलाने की विचित्र पद्धतियों का प्रदर्शन करते हुए बाणों की झड़ी लगाकर सम्पूर्ण दिशा विदिशाओं को ढँक दिया और आकाश को सब ओर से एक मात्र अन्धकार में निमग्न सा कर दिया। तदनन्तर अचिन्त्य मन बुद्धि वाले पृथा पुत्र अर्जुन ने सैंकड़ों बाण मारकर कृपाचार्य को ढँक दिया। आग की लपटों के समान जलाने वाले उन तीखे बाणों से पीड़ित होने पर कृपाचार्य को बड़ा क्रोध हुआ। तब उन्होंने अनुपम पराक्रमी महात्मा पृथा पुत्र को युद्ध में तुरंत ही दस हजार बाणों से पीड़ित करके बड़े जोर से गर्जना की। तब वीर अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए झुकी हुई गाँठ वाले सुनहरे पर्वाग्र ( फल ) वाले चार बाणों द्वारा बड़ी उतावली से कृपाचार्य के चारों घोड़ों को बींध डाला। वे चारों बाण बड़े तीखे और उत्तम थे। विषाग्नि से जलते हुए सर्पों की भाँति उन तेज बाणों की मार खाकर वे सभी घोड़े सहसा उछल पड़े।

    इससे कृपाचार्य अपने स्थान से गिर गये। कृपाचार्य को स्थान से गिरा हुआ देख शत्रुवीरों का नाश करने वाले कुरुनन्दन अर्जुन ने उनके गौरव की रक्षा करते हुए उन पर बाणों से आघात नहीं किया। किंतु कृपाचार्य ने पुनः अपना सथान ग्रहण कर लेने पर तुरंत ही सफेद चील के पंखो से युक्त दस बाणों का प्रहार करके सव्यसाची अर्जुन को बींध डाला। तब अर्जुन ने एक तीखे भल्ल नामक बाण द्वारा कृपाचार्य का धनुष काट डाला और पुनः उनके दस्ताने को नष्ट कर दिया। उसके बाद पार्थ ने मर्म भेदी तीखे बाणों द्वारा उनके कवच को भी छिन्न भिन्न कर दिया, किंतु उनके शरीर को तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचाया। कवच से मुक्त होने पर कृपाचार्य का शरीर इस प्रकार सुशोभित हुआ, मानो समय पर केंचुल छूटने के बाद सर्प का शरीर सेशाुभित हो रहा हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 29-43 का हिन्दी अनुवाद)

    अर्जुन द्वारा धनुष काट दिये जाने पर गौतम ( कृप ) ने दूसरा धनुष लेकर उस पर प्रत्यन्चा चढ़ा ली। यह एक अद्भुत सा बात हुई। परंतु कुन्ती नन्दन ने झुकी हुई गाँठ वाले एक बाण से उनके उस धनुष को भी काट दिया और इसी प्रकार कृपाचार्य के बहुत से दूसरे धनुष भी शत्रुवीरों का संहार करने वाले पाण्डु नन्दन ने हाथ की फुर्ती दिखाने में कुशल वीर की भाँति छिन्न भिनन कर डाले। इस तरह धनुष कट जाने पर प्रतापी कृपाचार्य ने पाण्डुपुत्र अर्जुन पर वज्र की भाँति प्रज्वलित रथ याक्ति चलायी। तब अर्जुन ने भारी उल्का की भाँति अपनी ओर आती हुई उस सुवर्ण भूषित शक्ति को दस बाण मारकर आकाश में ही काअ डाला। बुद्धिमान् पार्थ के द्वारा दस टुकड़ों में कटी हुई वह शक्ति पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब कृपाचार्य ने पुनः प्रत्यन्चा सहित धनुष लेकर उसके ऊपर एक ही साथ भल्ल नामक दस बाणों का संधान किया और उन दसों तीक्ष्ण बाणों द्वारा तुरंत ही अर्जुन को बींध डाला। तदनन्तर महातेजस्वी कुन्ती पुत्र ने उस संग्राम भूमि में कुपित हो ( कृपाचार्य पर ) पत्थर पर रगड़कर तेज किये हुए अग्नि के समान तेजस्वी तेरह बाण चलाये।

     एक बाण से उनके रथ का जूआ काटकर चार बाणों से चारों घोड़े मार डाले और छठे बाण से रथ के सारथि का सिर धड़ से अलग कर दिया। फिर उन महारथी अर्जुन ने तीन बाणों से रथ के तीनों वेणु, दो से रथ का धुरा और बारहवें भल्ल नामक बाण से उनके रथ की ध्वजा को भी उस समय रण भूमि में काट गिराया। इसके बाद इन्द्र के समान पराक्रमी फाल्गुन ने हँसते हुए से वज्र सदृश तेरहवें बाण द्वारा कृपाचार्य की छाती में चोट पहुँचायी। इस प्रकार धनुष, रथ, घोड़े और सारथि आदि के नष्ट हो जाने पर कृपाचार्य हाथ में गदा लिये रथ से कूद पड़े और तुरंत ही उसे अर्जुन पर दे मारा। जिसका सुवर्ण आदि से भली-भाँति परिष्कार किया गया था, वह कृपाचार्य द्वारा चलायी हुई भारी गदा अर्जुन के बाणों से प्रेरित हो उल्टी लौट गयी। शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य अत्यन्त अमर्ष में भरे थे। उनके प्राण बचाने की इच्छा वाले कौरव सैनिक सब ओर से आकर उस युद्ध में अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे। यह देख विराट पुत्र उत्तर ने घोड़ों को दाँयीं ओर से घुमाकर यमक मण्डल से रथ संचालन करते हुए उन सब योद्धाओं को बाण वर्षा से रोक दिया। इतने में ही वे नरश्रेष्ठ सैनिक कुन्ती पुत्र धनुजय से डरकर रथहीन कृपाचार्य को बड़े वेग से हटा ले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोष्ठी गौओं के अपहरण के प्रसंग में कृपाचार्य का पलायन सम्बन्धी सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का द्रोणाचार्य के साथ युद्ध और आचार्य का पलायन”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! जब कृपाचार्य रण भूमि से बाहर हटा लिये गये, तब लाल घोड़ों वाले दुर्धर्ष वीर आचार्य द्रोण ने धनुष - बाण लेकर श्वेतवाहन अर्जुन पर धावा किया। सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ गुरुदेव को अपने निकट आते देख विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन उत्तर से इस प्रकार बोले।

    अर्जुन ने कहा ;- सारथे! तुम्हारा कल्याण हो। जिस रथ की ध्वजा में ऊँचे डंडे के ऊपर पताका से विभूषित यह ऊँची सुवर्णमयी वेदी प्रकाशित हो रही है, वहाँ आचार्य द्रोण की सेना है। मुझे वहीं ले चलो। जिनके श्रेष्ठ रथ में जुते हुए सब प्रकार की शिक्षाओं में निपुण, चिकने, मूँगे के समान लाल रंग के, ताँबे से मुख वाले, सुन्दर तथा अच्छे ढेग से रथ का भार वहन करने वाले बड़े बड़े अश्व सुशोभित हो रहे हैं, वे महातेजस्वी दीर्घबाहु, बल एवं रूप से सम्पन्न तथा समसत संसार में विख्यात पराक्रमी प्रतापी वीर भरद्वाज नन्दन द्रोण हैं।

   ये बुद्धि में शुक्राचार्य और नीति में बृहापति के समान हैं। मारिष ( अमर कोष )! इनमें चारों वेद, ब्रह्मचर्य, संहार - विधि सहित सम्पूर्ण दिव्यास्त्र और समसत धनुर्वेद सदा प्रतिष्ठित है। इन विप्र शिरोमणि में क्षमा, इन्द्रिय संयम, सत्य, कोमलता, सरलता तथा अन्य बहुत से सद्गुण नित्य विद्यमान हैं। अतः मैं इन्हीं महाभाग आचार्य के साथ इस समर भूमि में युद्ध करना चाहता हूँ। अतः उत्तर! रथ बढ़ाओ और मुझे शीघ्र उन आचार्य के समीप पहुँचा दो।

      वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! अर्जनम के इस प्रकार आदेश देने पर विराट नन्दन उत्तर ने सोने के आभूषणों से विभूषित उन अश्वों को आचार्य द्रोण के रथ की ओर हाँक दिया। महा रथियों श्रेष्ठ पाण्डु नन्दन अर्जुन को बड़े वेग से अपनी ओर आते देख आचार्य द्रोण भी पार्थ की ओर आगे बढ़ आये, ठी उसी तरह जैसे एक उत्मत्त गजराज दूसरे मतवाले गजराज से भिड़ने के लिये जा रहा हो। तदनन्तर द्रोण ने सौ नगाड़ों के बराबर आवाज करने वाले अपने शंख को बजाया। उसे सुनकर सारी सेना में हलचल मच गयी, मानो समुद्र में ज्वार आ गया हो। रण भूमि में उन लाल रंग के सुन्दर घोड़ों को हंस के समान वर्ण वाले मन के सदृश वेगशाली श्वेत घोड़ों से मिला देख युद्ध करने के विषय में सब लोग आश्चर्य में पड़ गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

महाबलीद द्रोण और कुन्ती पुत्र अर्जुन दोनों महारथी बल वीर्य सम्पन्न, अजेय, अस्त्र विद्या के विशेषज्ञ और मनस्वी थे। युद्ध के सिरे पर वे दोनों आचार्य और शिष्य अपने अपने रथ पर बैठे हुए ( ही एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ाकर मानो ) परस्पर आलिंगन करने लगे। उन्हें इस अवस्था में देखकर भरत वंशियों की वह विशाल सेना बारंबार भय से काँपने लगी। तदनन्तर शत्रुवीरों का नाश करने वाले महारथी और महापराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन हर्षोल्लास में भर गये और आचार्य द्रोण के रथ से अपना रथ भिड़ाकर उन्हें प्रणाम करके हँसते हुए से शान्ति पूर्वक मधुर वाणी में यों बोले,

    अर्जुन बोले ;- ‘आचार्य! युद्ध में आप पर विजय पाना सर्वथा कठिन है। हम लोग अहुत वर्षों तक वन में रहकर कष्ट उठाते रहे हैं। अब शत्रुओं से बदला लेने की इचदा से आये हैं; अतः आप हम लोगों पर क्रोध न करें। अनघ! मैं तो आप पर तभी प्रहार करूँगा, जब पहले आप मुझ पर प्रहार कर लेंगे। मेरा यही निश्चय है, अतः आप ही पहले मुझपर प्रहार करें’।

     तब आचार्य द्रोण ने अर्जुन पर इक्कीस बाण चलाये; किंतु पार्थ ने उन सबको अपने पास आने से पहले ही काट गिराया, मानो उनके हाथ इस कला में पूर्ण सुशिक्षित थे। तदनन्तर पराक्रमी द्रोण ने अपनी अस्त्र चलाने की फुर्ती दिखाते हुए अर्जुन के रथ पर सहस्रों बाणों की वृष्टि की। उनका आत्मबल असीम था। उन्होंने चाँदी के समान अंग वाले अर्जुन के श्वेत घोड़ों को भी शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सफेद चील की पाँख वाले बाणों से ढँक दिया। जान पड़ता था, आचार्य यह सब करके अर्जुन के क्रोध को उभाड़ना चाहते थे। इस प्रकार भरद्वाज नन्दन द्रोण और किरीटधारी अर्जुन में युद्ध छिड़ गया। वे दोनों समर भूमि में ( एक दूसरे पर ) समान रूप से बाणों की वर्षा करने लगे। दोनों की विख्यात पराक्रमी थे। वेग में दोनों ही वायु के समान थे। वे दोनों गुरु शिष्य दिव्यास्त्रों के महापण्डित और उत्तम तेज से सम्पन्न थे। परसपर बाणों की झड़ी लगाते हुए दोनों ने सब राजाओं को मोह में डाल दिया। तदनन्तर जो जो सैनिक वहाँ आये थे, वे एक दुसरे पर तीव्र गति से बाण वर्षा करने वाले दोनों वीरों की ‘साधु - साधु’ कहकर सराहना करने लगे,- ‘भला, में अर्जुन के सिवा दूसरा कौन द्रोणाचार्य का सामना कर सकता है ? यह क्षत्रिय धर्म कितना भयंकर है कि शिष्य को गुरु से युद्ध करना पड़ा है।’ इस प्रकार वहाँ युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए योद्धा आपस में बातें करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद)

      दोनों महाबाहु वीर क्रोध में भरकर निकट आ गये और बाण समूहों से एक दूसरे का आचछादित करने लगे। उनमें से कोई भी पराजित होने वाला नहीं था। भरद्वाज नन्दन द्रोण अत्यन्त कुपित हो, जिसके पृष्ठ भाग में सुवर्ण जड़ा हुआ था और जिसे उठाना दूसरों के लिये बहुत कठिन था, उस मान् धनुष को खींचकर अर्जुन को बाणों से बींधने लगे। उन्होंने अर्जुन के रथ पर बाणों का जाल सा बिछा दिया। इतना ही नहीं, शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए उन तेजस्वी बाणों द्वारा उन्होंने सूर्य की प्रभा को भी आच्छादित कर दिया। जैसे मेघ पर्वत पर जल की वर्षा करता है, उसी प्रकार महाबाहु महारथी द्रोण पृथापुत्र अर्जुन को अत्यन्त वेगशाली तीखे बाणों द्वारा बींध रहे थे।

      इसी प्रकार हर्ष में भरे हुए वेगशाली पाण्डुनन्दन अर्जुन भी भार सहन करने में समर्थ और शत्रुओं का नाश करने वाला उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष लेकर बहुत से स्वर्ण भूषित विचित्र बाणों की वर्षा कर रहे थे। पराक्रमी पार्थ अपने धनुष से छूअे हुए बाण समूहों द्वारा तुरंत ही आचार्य द्रोण की बाण वर्षा को नष्ट करते जाते थे। यह एक अद्र्भुत सी बात थी। रथ से विचरने वाले कुन्ती पुत्र धनुजय सबके लिये दर्शनीय हो रहे थे। उन्होंने सब दिशाओं में एक ही साथ अस्त्रों की वर्षा दिखायी और आकाश को चारों और से बाणों द्वारा ढँककर एकमात्र अन्धकार में निमग्न कर दिया। उस समय आचार्य द्रोण कुहरे से ढके हुए की भाँति अदृश्य हो गये।। उत्तम बाणों से ढके हुए द्रोणाचार्य का स्वरूप उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो सब ओर से जलता हुआ कोई पर्वत हो। आचार्य द्रोण संग्राम भूमि में बड़ी शोभा पाने वाले थे।

      संग्राम में तब मेघ गर्जना के समान गम्भीर नाद करने वाले अग्नि चक्र के सदृश भयंकर परम उत्तम आयुधश्रेष्ठ धनुष की टंकार फैलाते हुए उसे ( कानों तक ) खींचा और अपने यार समूहों से अर्जुन के उन सब बाणों को काट डाला। उस समय जलते हुए बाँसों के चटखने का सा बड़ा भयंकर शब्द हो रहा था। जिनकी मन बुद्धि अमेय है, उन द्रोण ने अपने विचित्र धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंखों वाले बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं तथा सूर्य के प्रकाया को भी ढक दिया। उस समय सोने की पाँख और झुकी हुई गाँठ वाले आकाशचारी बाणों के बहुत से समुदाय आकाश में दृष्टिगोचर हो रहे थे। वे सभी पक्षधारी बाण समुदाय आचार्य द्रोण के धनुष से प्रकट हुए थे। आकाश में उन बाणों का समूह परसपर सटकर एक ही विशाल बाण के समान दिखायी देता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 42-55 का हिन्दी अनुवाद)

       इस प्रकार वे दोनों वीर सुवर्ण भूषित महाबाणों की वर्षा करते हुए आकाश को मानो उल्काओं से आच्छादित करने लगे। कंक और मोर की पाँख वाले उन दोनों के बाण शरद्ऋतु में आकाश में विचरने वाले हंसों की पाँत के समान सुशोभित होते थे।। महामना द्रोण और पाण्डु नन्दन अर्जुन काउ वह रोष पूर्ण युद्ध वृत्रासुर और इन्द्र के समान भयंकर प्रतीत होता था। जैसे दो हाथी एक दूसरे से भिड़कर दाँतों के अग्र भाग से प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों धनुष को अच्छी तरह खींचकर छोड़े हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को घायल कर रहे थे। क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरो की रण भूमि में बड़ी शोभा हो रही थी। वे उस संग्राम में पृथक् पृथक् दिव्यास्त्र प्रकर करते हुए धर्म युद्ध कर रहे थे। तदनन्तर विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन ने आचार्य प्रवर द्रोण के द्वारा चलाये हुए शान पर तेज किये हुए बाणों को अपने तीखे सायकों से नष्ट कर दिया। वे भयानक पराक्रमी थे, उन्होंने दर्शकों को अपना अस्त्र कौशल दिखाते हुए तुरंत बहुसंख्यक बाणों द्वारा आकाश को ढँक दिया।

     यद्यपि प्रचण्ड तेजस्वी नरश्रेष्ठ अर्जुन विपक्षी को मार डालने की इच्छा रखते थे, तो भी शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ आचार्य प्रवर द्रोण उस समर भूमि में झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा प्रहार करके अर्जुन के साथ मानो खेल कर रहे थे ( उनमें अर्जुन के प्रति वात्सल्य का भाव उमड़ रहा था )। उस तुमुल यंद्ध में अर्जुन दिव्यास्त्रों की वर्षा कर रहे थे, किंतु आचार्य अपने अस्त्रों द्वारा उनके अस्त्रों का निवारण मात्र करके उन्हें लड़ा रहे थे। वे दोनों नरश्रेष्ठ जब क्रोण और अमर्ष में भर गये, तब उनमें परस्पर देवताओं औश्र दानवों की भाँति घमासान युद्ध छिड़ गया। पाण्डु नन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण के छोड़े हुए ऐन्द्र, वायव्य और आग्नेय आदि अस्त्रों को उसके विरोधी अस्त्र द्वारा बार बार नष्ट कर देते थे। इस प्रकार वे दोनों महान् धनुर्धर शूरवीर तीखे बाण छोड़ते हुए अपनी बाण वर्षा द्वारा आकाश को एकमात्र अन्धकार में निमग्न करने लगे। अर्जुन के छोड़े हुए बाण जब देहधारियों पर पड़ते थे, तब पर्वतों पर गिरने वाले वज्र के समान भयंकर शब्द सुनायी देता था। जनमेजय! उस समय हाथी सवार, रथी और घुड़सवार लोहूलुहान होकर फूले हुए पलाश वृक्ष के समान दिखायी दकते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 56-68 का हिन्दी अनुवाद)

     द्रोणाचार्य और अर्जुन के उस युद्ध में पार्थ के बाणों से पीड़ित हो कितने ही योद्धा मारे गये थे। कितनों की केयूर भूषित भुजाएँ कटकर गिरीं थीं। विचित्र वेष भूषा वाले महारथी धराशायी हो रहे थे। सुवर्ण जटित विचित्र कवच और ध्वजाएँ वहाँ बिखरी पड़ीं थीं। इन सब कारणों से वह सारी सेना उद्धान्त ( भय से अचेत ) सी हो गयी थी। उन दोनों के धनुष भार सहन करने में समर्थ थे। वे उन धनुषों को कँपाते हुए ( तीखे ) बाणों क्षरा एक दूसरे को बींधते और आच्छादित कर देते थे। भरत श्रेष्ठ जनमेजय! तदनन्तर द्रोण और कुनती पुत्र में बलि और इन्द्र के संग्राम सा तुमुल युद्ध होने लगा। उस समय प्राणों की बाजी लगाकर ( युद्ध का जूआ खेला जा रहा था। ) दोनों वीर धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँठ वाले बाणों से एक दूसरे को विदीर्ण कर रहे थे।

    इसी समय आचार्य द्रोण की प्रशंसा करने वाले देवताओं का यह शब्द आकाश में गूँज उठा,

    देवता बोले ;- ‘अहो! द्रोणाचार्य ने बड़ा दुष्कर कार्य किया है कि अब तक अर्जुन के साथ युद्ध में डटे रह गये। ये अर्जुन तो शत्रुओं को मथ डालने वाले, महा पराक्रमी, दृढ़ मुष्टि वाले, दुर्धर्ष तथा सम्पूर्ण देवताओं और दैत्यों को जीतने वाले महारथी वीर हैं’। उस समर भूमि में अर्जुन का कभी न चूकने का स्वभाव, अस्त्र शस्त्रों की अद्भुत शिक्षा, हाथों की फुर्ती और दूर तक बाण मारने की शक्ति देखकर आचार्य द्रोण को भी बड़ा विस्मय हुआ। जनमेजय! तदनन्तर रण भूमि मेें कुनती पुत्र ने दिव्य गाण्डीव धनुष को ऊँचे उइाकर कुपित हो उसे दोनों हाथों से खींचना आरम्भ किया। फिर तो टिड्डियों के झुंड के समान उनकी ( अद्भुत ) बाण वर्षा देखकर वे सभी सैनिक आश्चर्य चकित हो ‘साधु - साधु’ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। उनके बाणों के भीतर वायु भी प्रवेश नहीं कर पाती थी। कुन्ती नन्दन अर्जुन निरन्तर बाणों को हााि में लेते, धनुष पर रखते और छोड़ते थे। कोई भी उनकी इन क्रियाओं में क्षण भर का भी अन्तर नहीं देख पाता था। इस प्रकार शीघ्रता पूर्वक अस्त्र प्रहार के द्वारा चलने वाले उस अत्यन्त भयंकर संग्राम में कुन्ती पुत्र अर्जुन शीघ्र एवं अत्यनत शीघ्र दूसरे दूसरे बाण प्रकट करने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 69-76 का हिन्दी अनुवाद)

     तत्पश्चात् एक ही साथ झुकी हुई गाँठ वाले एक लाख बाण द्रोणाचार्य के रथ के समीप आ गिरे। जनमेजय! गाण्डीवधन्वा अर्जुन के द्वारा जब द्रोण पर इस प्रकार बाणवर्षा होने लगी। तब कौरव सैनिकों में भारी हाहाकार मच गया। पाण्डु नन्दन के शीघ्रता पूर्वक अस्त्र संचालन के लिए इन्द्र ने उनकी बड़ी प्रशंसा की। उनके सिवा वहाँ जो गन्धर्व और अप्सराएँ आयी थीं, उन्होंने भी उनकी बडी सराहना की। तदनन्तर रथियों के यूथपति आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने रथारोहियों के विशाल समूह के साथ सहसा वहाँ पहुँचकर पाण्डु नन्दन को चारों ओर से घेर लिया।

     अश्वत्थामा ने महात्मा अर्जुन के उस पराक्रम की मन ही मन भूरि भमरि प्रशंसा की और उनपर अपना महान् क्रोध प्रकट किया। आचार्य पुत्र क्रोध के वशीभूत हो गया था। वह रण भूमि में जल बरसाने वाले मेघ की भाँति सहस्रों बाणों की बौछार करता हुआ पार्थ पर टूट पड़ा। तब महाबाहु अर्जुन ने जिधर अश्वत्थामा था, उसी ओर घोड़ों को घुमाकर आचार्य द्रोण को भाग जाने का अवसर दे दिया। अर्जुन के उत्तम बाणों से द्रोण के कवच और ध्वज छिन्न भिन्न हो चुके थे। वे स्वयं भी बहुत घायल हो गये थे, अतः मौका पाते ही वेगशाली घोड़ों को बढ़ाकर तुरंत वहाँ से भाग निकले।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में द्रोणाचार्य के पलायन से सम्बन्ध रखने वाला अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“अश्वत्थामा के साथ अर्जुन का युद्ध”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने रण भूमि में जब अर्जुन पर बड़े वेग से आक्रमण किया, तब अर्जुन ने भी प्रचण्ड वायु वेग के समान तीव्र गति से आते हुए अश्वत्थामा को रोका। उस समय जल बरसाने वाले मेघ की भाँति वह महान् शर समूह की वर्षा कर रहा था। उन दोनों में देवताओं और असुरों के समान भारी संघर्ष होने लगा। वे दोनों ( एक दूसरे पर ) बाणा समूहों की बौछार करते हुए वृत्रासुर और इन्द्र के समान जान पड़ते थे। उनके बाणों के जरल से आच्छादित होकर आकाश सब ओर से अन्धकारमय हो रहा था। उस समय न तो सूर्य प्रकाशित हो रहे थे और न वायु ही चल पाती थी। शत्रु विजयी जनमेजय! जब दोनों योद्धा एक दूसरे पर आघात करते, तब जलते हुए बाँसों के चटखने की भाँति चट चट शब्द होने लगता था। अर्जुन ने अश्वत्थामा के घोड़ों को घायल करके अल्पजीवी बना दिया। राजन्! वे मोह ग्रस्त ( मूर्च्छित ) होने के कारण किसी भी दिशा को नहीं जान पाते थे।

      तदनन्तर महापराक्रमी अश्वत्थामा ने रण भूमि में विचरते हुए अर्जुन का छोटा सा छिद्र ( तनिक सी असावधानी ) देख कर क्षुर नामक बाण से उनकी प्रत्यंचा काट डाली। उसके इस अतिमानुष कर्म को देखकर सब देवता उसकी बड़ी प्रशेसा करने लगे।

       द्रोण, भीष्म, कर्ण और कृपाचार्य - ये सभी महारथी साधुवाद देते हुए अश्वत्थामा के उस कार्य की सराहना करने लगे। तदनन्तर द्रोण पुत्र ने अपना श्रेष्ठ धनुष खींचकर कंक पक्षी के पंख वाले बाणों द्वारा रथियों में श्रेष्ठ पार्थ की छाती में पुनः भारी आघात पहुँचाया। उस समय महाबाहु पार्थ ठहाका मारकर हँसने लगे। फिर उन्होंने गाण्डीव धनुष पर बलपूर्वक प्रत्यन्चा चढ़ा दी। तदनन्तर पसीने से अर्धचन्द्राकार धनुष की डोर को माँजकर अर्जुन अश्वत्थामा से भिड़ गये, मानो कोई उन्मत्त गजयूथाधिपति किसी दूसरे मतवाले हाथी के साथ जा भिड़ा हो। इसके बाद उस रण भूमि में भूमण्डल के इन दोनों अनुपम वीरों का ऐसा भयंकर संग्राम हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। समसत कौरव विस्मय विमुग्ध होकर उन दोनों वीरों की ओर देखने लगे। महा पराक्रमी अश्वत्थामा और अर्जुन परस्पर भिड़े हुए दो यूथपतियों की भाँति लड़ रहे थे। वे दोनों सुरुषसिंह वीर विषधर सर्प के समान आकार वाले जलते हुए से बाणों द्वारा एक दूसरे को चोट पहुँचाने लगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)

       महात्मा पाण्डु नन्दन के पास दो दिव्य अक्षय तूणीर थे, इससे कुनती पुत्र शूरवीर अर्जुन रण भूमि में पर्वत की भाँति अविचल खड़े रहे। परंतु संग्राम में शीघ्रता पूर्वक बार बार शर संधान करने वाले अश्वत्थामा के बाण जल्दी समाप्त हो गये। इस कारण अर्जुन उसकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए। तब कर्ण ने अपने महान् धनुष को बड़े जोर से खींचकर टंकार की। उससे वहाँ महान् हाहाकार का शब्द होने लगा। तब अर्जुन ने जहाँ धनुष की टंकार हो रही थी, उधर दृष्टि डाली, तो वहाँ राधा नन्दन कर्ण दिखायी पड़ा। इससे उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। तब कुरुश्रेष्ठ अर्जुन रोष के वशीभूत हो कर्ण को ही मार डालने की इच्छा से दोनों आँखें ‘फाड़ - फाड़कर’ उसकी ओर देखने लगे। राजन्!

     इस प्रकार जब अर्जुन ने उधर दृष्टि हटाकर दूसरी ओर मुँह फेर लिया, तब बहुत से सैनिक तुरंत वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने द्रोण पुत्र के हजारों बाणों को ( रण भूमि से उठाकर ) उन्हें समर्पित कर दिया। तब शत्रु विजयी महाबाहु धनुजय ने द्रोण पुत्र को वहीं छोड़कर सहसा कर्ण पर ही धावा किया। और कर्ण के पास पहुँचकर उसके पास द्वन्द्व युद्ध की इच्छा रखते हुए कुन्ती कुमार ने क्रोध से लाल आँखें करके यह बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर ग्रोह के समय अर्जुन और अश्वत्थामा के युद्ध से सम्बन्ध रखने वाला उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन और कर्ण का संवाद तथा कर्ण का अर्जुन से हारकर भागना”

     अर्जुन बोले ;- कर्ण! पहले कौरवों की सभा में तूने जो अपनी बहुत प्रशंसा करते हुए यह बात कही थी कि युद्ध में मेरे समान दूसरा कोई योद्धा नहीं है। ( उसकी सच्चाई की परीक्षा के लिये ) यह युद्ध का अवसर उपस्थित हो गया है। कर्ण! आज इस महा संग्राम में मेरे साथ भिड़कर तू अपने को भली-भाँति निर्बल समझ लेगा और फिर कभी दूसरों का अपमान नहीं करेगा। पहले तूने केवल धर्म की अवहेलना करके बड़ी कठोर बातें कही हैं, परंतु तू जो कुछ करना चाहता है, वह तेरे लिये मैं अत्यन्त दुष्कर समझता हूँ। राधा नन्दन! मेरे साथ भिड़न्त होने के पहले कौरवों की सभा में तूने जो कुछ कहा है, आज मेरे साथ युद्ध करके वह सब सत्य कर दिखा। अरे!

     भरी सभा में दुरात्मा कौरव पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी को क्लेश दे रहे थे और तू मौज से यह सब देखता रहा। आज केवल उस अत्याचार का फल भोग ले। पहले मैं धर्म के बन्णन मे बँधा हुआ था। इसलिये मैंने सब कुछ (चुपचाप ) सह लिया। परंतु राधा पुत्र! आज के युद्ध में मेरे उस क्रोध का फल मेरी विजय के रूप में अभी देख ले। ओ दुर्मते! हमने बारह वर्षों तक वन में रहकर जो क्लेश सहन किये हैं, उनका बदला चुकाने के लिये आज मेरे बढ़े हुए क्रोध का फल तू अभी चख ले। कर्ण! आ, रण भूमि में मेरा सामना कर। समस्त कौरव और तेरे सैनिक सब दर्शक होकर हमारे युद्ध को देखें।

     कर्ण ने कहा ;- कुन्ती पुत्र! तू मुझसे जो कुछ कहता है उसे क्रिया द्वारा करके दिखा। मेरी बातें कार्य करने की अपेक्षा बहुत बढ़ चढ़कर होती हैं। यह बात भूमण्डल में प्रसिद्ध है। पार्थ! तेरा यह जबानी पराक्रम देखकर तो हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि तूने पहले जो कुछ सहन किया है, वह अपनी असमर्थता के ही कारण किया है। यदि तूने पहले धर्म के बन्धन में बँधकर कष्ट सहन किया है, तो आज भी तू उसी प्रकार बँधा हुआ है; तो भी तू अपने आपको उस बन्धन से मुक्त सा मान रहा है।यदि तूने वनवास के पूर्वोक्त नियम का भली-भाँति पालन कर लिया है, तो तू धर्म और अर्थ का ज्ञाता ठहरा। इस लिये तूने कष्ट सहा है और उसी को याद करके इस समय मेरे साथ लड़ना चाहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद)

    पार्थ! यदि इस समय साक्षात् इन्द्र भी तेरे लिये युद्ध करने आयें, तो भी युद्ध में पराक्रम दिखाते हुए मुझसे किसी प्रकार की व्यथा न होगी। कुन्ती कुमार! मेरे साथ युद्ध का जो तेरा हौसला है, वह अभी - अभी प्रकट हुआ है। अतः अब मेरे साथ तेरा युद्धउ होगा और आज तू मेरा बल स्वयं देख लेगा।

    अर्जुन बोले ;- राधा पुत्र! अभी कुछ ही देर पहले की बात है, मेरे सामने युद्ध से पीठ दिखाकर तू भाग गया था, इसीलिये अब तक जी रहा है; किंतु तेरा छोटा भाई मारा गया। तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा होगा, जो अपने भाई को मरवाकर और युद्ध का मुहाना छोड़कर ( भाग जाने के बाद भी ) भले मानसों के बीच में चाड़ा होकर डींग मारेगा ?।

      वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन किसी से भी परास्त होने वाले नहीं थे। वे कर्ण से उपर्युक्त बातें कहकर कवच को भी विदीर्ण कर देने वाले बाण छोड़ते हुए उसकी ओर बढ़े। महारथी कर्ण ने बड़ी प्रसन्नता के साथ मेघ के सदृश बाणों की वृष्टि करने वाले अर्जुन को अपने सायकों की भारी बौछार करके रोका। फिर तो आकाश में सब ओर भयंकर बाणों के समूह उड़ने लगे। अर्जुन से यह सहन न हो सका; अतः उनहोंने झुकी हुई गाँठ एवं तीखी नोक वाले बाण के घोड़ों को बींध डाला। भुजाओं में भी गहरी चोट पहुँचायी और हाथों के दस्तानों को भी पृथक् पृथक् विदीर्ण कर दिया।

     इतना ही नहीं, कर्ण के भाथा लटकाने की रस्सी को भी काट गिराया। तब कर्ण ने ( अलग रक्खे हुए ) छोटे तरकस से दूसरे बाण लेकर पाण्डु नन्दन अर्जुन के हाथ में चोट पहुँचायी। इससे उनकी मुट्ठी ढीली पड़ गयी। तब महाबाहु पार्थ ने कर्ण का धनुष काट दिया। यह देख कर्ण ने अर्लुन वपर शक्ति चलाई; किंतु पार्थ ने उसे बाणों से नष्ट कर दिया। इतने में ही राधा पुत्र कर्ण के बहुत से सैनिक वहाँ आ पहुँचे; किंतु अर्जुन ने गाण्डीव द्वारा छोड़े हुए बाणों से मारकर उन सबको यमलोक भेज दिया। तत्पश्चात् बीभत्सु ने भार ( शत्रुओं के आघात ) सहने में समर्थ तीखे बाणों द्वारा, जो धनुष को कान तक खींचकर छोड़े गये थे, कर्ण के घोड़ों को घायल कर दिया। वे घोड़े मरकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तत्पश्चात् पराक्रमी कुन्ती कुमार ने महान् तेजस्वी तथा अग्नि के समान प्रज्वलित दूसरे बाण द्वारा कर्ण की छाती में आघात किया। वह बाण कर्ण का कवच काटकर उसके वक्षःस्थल के भीतर घुस गया। इससे कर्ण को मूर्च्छा आ गयी और उसे किसी भी बात की सुध न रही। कर्ण को उस चोट से बड़ी भारी वेदना हुई और वह युद्ध भूमि को छोड़कर उत्तर दिशा की ओर भागा। यह देख अर्जुन और उत्तर दोनों महारथी जोर जोर से सिंहनाद करने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में कर्ण का पलायन विषयक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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