सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के छियासठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (From the 66 chapter to the 70 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

छियासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन के द्वारा समस्त कौरव दल की पराजय तथा कौरवों का स्वदेश को प्रस्थान”

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महात्मा अर्जुन ने जब इस प्रकार युद्ध के लिये ललकारा, तब धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन अंकुश की चोट खाये हुए मतवाले गजराज की भाँति उनके कटु वचन रूपी अंकुश से पीड़ित हो पुनः लौट पड़ा। अपमान को न सह सका, अतएव जैसे पैरों से कुचला हुआ सर्प बदला लेने के लिये लौट पड़ता है, उसी प्रकार दुर्योधन अपने रथ के साथ लौट आया। उसको लौटते देख कर्ण भी अपने घायल शरीर को किसी प्रकार संभालकर लौट पड़ा और दुर्योधन के उत्तर ( वाम ) भाग में रहकर युद्ध भूमि में पार्थ का सामना करने के लिये चला। नरवीर कर्ण सोने की माला से अलंकृत था। तदनन्तर सुनहरे रंग की चादर ओढ़े शान्तनु नन्दन भीष्म भी बड़े वेग से रथ घुमाकर वहाँ आ पहुँचे। वे शत्रु को पराजित करने में समर्थ थे। महाबाहु भीष्म धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाकर पश्चिम या पीछे की ओर से पार्थ के आक्रमण से दुर्योधन की रक्षा करने लगे। तत्पश्चात द्रोण, कृपाचार्य, विविंशति और दुःशासन भी शीघ्र ही घूमकर आ गये। वे सब अपने विशाल धनुष को ताने हुए पूर्व या सामने की ओर से दुर्योधन की रक्षा के लिये बड़ी उतावली के साथ आये थे।

    जैसे सूर्य घिरती हुई मेघों की घटा को अपनी किरणों से तपाता है, उसी प्रकार वेगशाली कुंती पुत्र धनंजय ने भारी जल प्रवाह के समान लौटती हुई उन कौरव सेनाओं को देखकर उन्हें संताप देना आरम्भ किया। दिव्य अस्त्र धारण किये हुए उन योद्धाओं ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और जैसे बादल पहाड़ के ऊपर सब ओर से पानी बरसाते हैं? उसी प्रकार वे निकट आकर उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। तब शत्रुओं का वेग सहन करने वाले इन्द्र के पुत्र गाण्डीवधारी अर्जुन ने अपने अस्त्र से कौरव दल के उन श्रेष्ठ वीरों के अस्त्रों का निवारण करके सम्मोहन नामक दूसरा अस्त्र प्रकट किया, जिसका निवारण करना किसी के लिये भी असम्भव था। फिर तो उन महाबली ने सुन्दर पंख और पैनी धार वाले बाणों द्वारा सम्पूर्ण दिशाओं और दिक्कोणों को आच्छादित करके गाण्डीव धनुष की ( भयंकर ) टंकार से कौरव योद्धाओं के हृदय में बड़ी व्यथा उत्पन्न कर दी। तत्पश्चात शत्रुहन्ता कुन्ती कुमार ने भयंकर शब्द करने वाले अपने महाशंख को, जिसकी आवाज बहुत दूर तक सुनायी पड़ती थी, दोनों हाथें से थामकर बजाया। उसकी ध्वनि सम्पूर्ण दिशाओं-विदिशाओं, आकाश तथा पृथ्वी में सब ओर गूँज उठी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद)

    अर्जुन के बजाये हुए उस शंख की आवाज से समस्त कौरव वीर मोहित ( मूर्च्छित ) हो गये और अपने दुर्लभ धनुषों को त्यागकर सबके सब गहरी शान्ति ( बेहोशी ) में डूब गये। उन कौरव महारथियों के अचेत हो जाने पर अर्जुन को उत्तरा की कही हुई बातें स्मरण हो आयीं और उन्होंने मत्स्य नरेश के पुत्र उत्तर से कहा,

  अर्जुन बोले ;- ‘नरवीर! ये कौरव अभी बेहोश पड़े हुए हैं। ये जब तक होश में आवें, उसके पहले ही सेना के बीच से निकल जाओ। आचार्य द्रोण और कृपाचार्य के शरीर पर जो श्वेत वस्त्र सुशोभित हैं, कर्ण के अंगों पर जो सुन्दर पीले रंग का वस्त्र है, अश्वत्थामा तथा राजा दुर्योधन के शरीर पर जो नीले रंग के कपड़े हैं, उन सबको उतार लो।


‘मैं समझता हूँ, पितामह भीष्म को होश बना हुआ है; क्योंकि वे इस सम्मोहन अस्त्र को निवारण करने की विधि जानते हैं। उनके घोड़ों को बाँयीं ओर छोड़कर जाना; क्योंकि जिनकी चेतना लुप्त नहीं हुई है, ऐसे वीरों के निकट से जाना हो, तो इसी प्रकार जाना चाहिये’। तब महामना विराट पुत्र घोड़ों की रास छोड़कर रथ से कूद पड़ा और उन महारथियों के कपड़े लेकर फिर शीघ्र ही अपनी रथ पर चढ़ गया। तत्पश्चात विराट कुमार ने सोने के साज-सामान से सुशोभित उन चारों सुन्दर घोड़ों को हाँक दिया। वे श्वेत घोड़े अर्जुन को रथ में लिये हुए रणभूमि के मध्य भाग से निकले और रथारोहियों की ध्वजा युक्त सेना का घेरा पार करके बाहर पहुँच गये। मनुष्यों में प्रणान वीर अर्जुन को इस प्रकार जाते देख वेगशाली भीष्म ने बाण मारकर उन्हें घायल कर दिया। तब अर्जुन ने भी भीष्म के घोड़ों को मारकर दो बाणों से उन्हें भी घायल कर दिया। दुर्भेद्य धनुष वाले अर्जुन भीष्म को युद्ध भूमि में छोड़कर और उनके सारथि को बाण से बींधकर रथों के घेरे से बाहर जा खड़े हुए। उस समय वे बादलों को छिन्न भिन्न करके प्रकाशित होने वाले सूर्य देव की भाँति शोभा पा रहे थे। थोड़ी देर बाद होश में आकर कौरव वीरों ने देखा, देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी कुन्ती पुत्र अर्जुन युद्ध में रथों के घेरे से बाहर हो अकेले खड़े हैं।

    उन्हें इस अवस्था में देखकर धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन तुरंत बोल उठा,

   दुर्योधन बोला ;- ‘पितामह! यह आपके हाथ से कैसे बच गया? आप इसे इस प्रकार मथ डालिये, जिससे यह छूटने न पावे।’ तब शान्तनु नन्दन भीष्म ने हँसकर दुर्योधन से कहा- ‘राजन्! जब तू अपने विचित्र धनुष और बाणों को त्यागकर यहाँ गहरी शान्ति में डूबा हुआ अचेत पड़ा था, उस समय तेरी बुद्धि कहाँ गयी थी? और पराक्रम कहाँ था?

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्षष्टितम अध्याय के श्लोक 21-30 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘ये अर्जुन कभी निर्दयता का व्यवहार नहीं कर सकते। इनका मन कभी पापाचार में प्रवृत्त नहीं होता। ये त्रिलोकी के राज्य के लिये भी अपना धर्म नहीं छोड़ सकते। यही कारण है कि इन्होंने इस युद्ध में हम सबके प्राण नहीं लिये। कुरुकुल के प्रमुख वीर! अब तू शीघ्र ही कुरु देश को लौट चल। अर्जुन भी गायों को जीतकर लौट जायँ। अब मोहवश मेरा अपना स्वार्थ भी नष्ट न हो जाय, इसका ध्यान रख। सबको वही काम करना चाहिये, जिससे अपना कल्याण हो’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पितामह के ये अपने लिये हितकर वचन सुनकर राजा दुर्योधन के मन में युद्ध की इच्छा नहीं रह गयी। वह भीतर ही भीतर अत्यन्त अमर्ष का भार लिये लंबी साँसें भरता हुआ चुप सा हो गया। अन्य सब योद्धाओं को भी भीष्म जी का वह कथन हितकर जान पड़ा; क्योंकि युद्ध करने से तो धनुजय रूपी अग्नि उत्तरोत्तर बड़ कर प्रचण्ड रूप ही धारण करती जाती, यह सब सोचकर उन सबने दुर्योधन की रक्षा करते हुए अपने देश को लौट जाने का ही निश्चय किया। उन कौरव वीरों को वहाँ से प्रस्थान करते देख कुन्ती पुत्र धनंजय मन ही मन बड़े प्रसन्न हुए। वे दो घड़ी तक किसी से अनुनय विनयपूर्ण वचन न कहकर मौन रहे। फिर लौटकर उन्होंने वृद्ध पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कुछ बातचीत भी की। फिर अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा अन्य माननीय ( बाह्लीक, सोमदत्त आदि ) कौरवों को बाणों की विचित्र रीति से नमस्कार करके पार्थ ने एक बाण मारकर दुर्योधन के उत्तम रत्न जटित विचित्र मुकुट को काट डाला।

     इसी प्रकार अन्य माननीय वीरों से भी विदा ले गाण्डीव की अंकार से सम्पूर्ण जगत को प्रतिध्वनित करके वीर अर्जुन ने सहसा देवदत्त नामक शंख बजाया और शत्रुओं का दिल दहला दिया। इस प्रकार अपने रथ की सुवर्ण माला मण्डित ध्वजा से सम्पूर्ण शत्रुओं का तिरस्कार करके अर्जुन विजयोल्लास से विशेष शोभा पाने लगे। कौरव चले गये, यह देखकर किरीटधारी अर्जुन को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मत्स्य नरेश के पुत्र उत्तर से वहाँ इस प्रकार कहा,

    अर्जुन बोले ;- ‘राजकुमार! अब घोड़ों को लौटाओ। तुम्हारी गौओं को जीत लिया गया और शत्रु भाग गये; इसलिये अब तुम आनन्द पूर्वक नगर की ओर चलो’।

    अर्जुन के साथ होने वाला कौरवों का अत्यन्त अद्भुत युद्ध देखकर देवता लोग बड़े प्रसन्न हुए और अर्जुन के पराक्रम का स्मरण करते हुए अपने-अपने भवन को चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में समस्त कौरवों के पलायन से सम्बन्ध रखने वाला छियासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (गोहरण पर्व)

सड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

“विजयी अर्जुन और उत्तर का राजधानी की ओर प्रस्थान”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार बैल सी विशाल आँखों वाले अर्जुन उस समय युद्ध में कौरवों को जीतकर विराट का वह महान गोधन लौटा लाये। जब कौरव दल के लोग चले गये या इधर उधर सब दिशाओं में भाग गये, उस समय बहुत से कौरव सैनिक जो घने जंगल में छिपे हुए थे, वहाँ से निकल कर डरते-डरते अर्जुन के पास आये। उनके मन में भय समा गया था। वे भूखे प्यासे और थके माँदे थे। परदेश मे होने के कारण उनके हृदय की व्याकुलता और बढ़ गयी थी। वे उस समय केश खोले और हाथ जोड़े हुए खड़े दिखायी दिये। वे सब-के-सब अर्जुन को प्रणाम करके घबराये हुए बोले,

    सैनिक बोले ;- ‘कुन्ती नन्दन! हम आपकी क्या सेवा करें? अर्जुन! हम आपसे हृदय के भीतर छिपे हुए अपने प्राणों की रक्षा के लिये याचना करते हैं। हम लोग आपके दास और अनाथ हैं; अतः आपको सदा हमारी रक्षा करनी चाहिये’।

     अर्जुन ने कहा ;- सैनिकों! जो लोग अनाथ, दुखी, दीन, दुर्बल, पराजित, अस्त्र शस्त्रों को नीचे डाल देने वाले, प्राणों से निराश एवं हाथ जोड़कर शरणागत होते हैं, उन सबको मैं नहीं मारता हूँ। तुम्हारा भला हो। तुम कुशल पूर्वक घर लौट जाओ। तुम्हें मेरी ओर से किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये। मैं संकट में पड़े हुए मनुष्यों को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिये मैं तुम्हें पूरा - पूरा विश्वास दिलाता हूँ।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन की वह अभय दान युक्त वाणी सुनकर वहाँ आये हुए समस्त योद्धाओं ने उन्हें आयु, कीर्ति तथा सुयश बढ़ाने वाले आशीर्वाद देते हुए उनका अभिनन्दन किया। उस समय अर्जुन शत्रुओं को छोड़कर- उन्हें जीवन दान दे, मद की धारा बहाने वाले हाथी की भाँति मस्ती की चाल से विराट नगर की ओर लौटे जा रहे थे। कौरवों को उन पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ। कौरवों की सेना मेघों की घटा सी उमड़ आयी थी; किंतु शत्रुहन्ता पार्थ ने उसे मार भगाया। इस प्रकार शत्रु सेना को परास्त करके अर्जुन ने उत्तर को पुनः हृदय से लगाकर कहा,

   अर्जुन बोले ;- ‘तात! तुम्हारे पिता के समीप समस्त पाण्डव निवास करते हैं, यह बात अब तक तुम्हीं को विदित हुई है; अतः तुम नगर में प्रवेश करके पाण्डवों की प्रशंसा न करना, नहीं तो मत्स्यराज डरकर प्राण त्याग देंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘राजधानी में प्रवेश करके पिता के समीप जाने पर तुम यही कहना कि मैंने कौरवों की उस विशाल सेना पर विजय पायी है और मैंने ही शत्रुओं से अपनी गौओं को जीता है। सारांश यह कि युद्ध में जो कुछ हुआ है, वह सब तुम अपना ही किया हुआ पराक्रम बताना’।

   उत्तर ने कहा ;- सव्यसाचिन! आपने जो पराक्रम किया है, वह दुसरे के लिये असम्भव है। वैसा अदभुत कर्म करने की मुझ में शक्ति नहीं है; तथापि जब तक आप मुझे आज्ञा न देंगे, तब तक पिता जी के निकट आपके विषय में मैं कुछ नहीं कहूँगा।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विजयशील अर्जुन पूर्वोक्त रूप से शत्रु सेना को परास्त करके कौरवों के हाथ से सारा गोधन छीन लेने के बाद पुनः श्मशान भूमि में उसी शमी वृक्ष के समीप आकर खड़े हुए। उस समय उनके सभी अंग बाणों के आघात से क्षत विक्षत हो रहे थे। तदन्नतर वह अग्नि के समान तेजस्वी महावानर ध्वज निवासी भूतगणों के साथ आकाश में उड़ गया। उसी प्रकार ध्वज सहित वह दैवी माया भी विलीन हो गयी और अर्जुन के रथ में फिर वही सिंह ध्वज लगा दिया गया। कुरुकुल शिरोमणि पाण्डवों के युद्ध क्षमता वर्धक आयुधों, तरकसों और बाणों को फिर पूर्वत शमी वृक्ष पर रखकर मत्स्य कुमार उत्तर महात्मा अर्जुन को सारथि बना उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक नगर को चला। शत्रुहनता कुन्ती पुत्र ने शत्रुओं को मारकर महान वीरोचित पराक्रम करके पुनः पूर्ववत सिर पर वेणी धारण कर ली और उत्तर के घोड़ों की रास सँभाली। इस प्रकार बृहन्नला का रूप धारण कर महामना अर्जुन ने सारथि के रूप में प्रसन्नतापूर्वक राजधानी में प्रवेश किया।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! तदनन्तर कौरव युद्ध से भागकर विवशता पूर्वक लौट गये। उन सबने दीन भाव से उस समय हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया। इधर अर्जुन ने नगर में रास्ते में आकर उत्तर से कहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तषष्टितम अध्याय के श्लोक 18-23 का हिन्दी अनुवाद)

    अर्जुन बोले ;- ‘महाबाहु राजकुमार! देख लो, तुम्हारे सब गोधन


ग्वालों के साथ यहाँ आ गये हैं। वीर! अब हम लोग घोड़ों को पानी पिला और नहलाकर उनकी थकावट दूर हो जाने के बाद अपरान्हकाल में विराट नगर चलेंगे। ‘तुम्हारे द्वारा भेजे हुए ये ग्वाले तुरंत नगर में विजय का पिंय संवाद सुनाने के लिये जायँ और यह घोषित कर दें कि राजकुमार उत्तर की जीत हुई है’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब अर्जुन के कथनानुसार उत्तर ने बड़ी उतावली के साथ दूतों को आज्ञा दी,

   उत्तर बोला ;- ‘जाओ और सूचित करो कि महाराज की विजय हुई है। शत्रु भाग गये और गौएँ जीतकर वापस लायी गयी हैं’। इस प्रकार भरतकुल और मत्स्यकुल के उन दोनों वीरों ने आपस में सलाह करके पूर्वोक्त शमी वृक्ष के समीप जा पहले के उतारे हुए अपने अलंकार आदि शरीर पर धारण कर लिये थे और उनके रखने के पात्र भी रथ पर चढ़ा लिये थे। इस तरह शत्रुओं की सम्पूर्ण सेना को पराजित करके कौरवों से सारा गोधन छीनकर विराट कुमार वीर उत्तर बृहन्नला सारथि के साथ प्रसन्नतापूर्वक नगर की ओर प्रस्थित हुआ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर का आगमन विषयक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा विराट की उत्तर के विषय में चिन्ता, विजयी उत्तर का नगर में प्रवेश, प्रजाओं द्वारा उनका स्वागत, विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा प्रार्थना एवं उत्तर से युद्ध का समाचार पूछना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सेनाओं के स्वामी राजा विराट ने ( दक्षिण गोष्ठ की ) गौओं को जीतकर शीघ्र ही चारों पाण्डवों के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक नगर में प्रवेश किया। महाराज! संग्राम में त्रिगर्तों को हराकर सम्पूर्ण गौएँ वापस ले विजय लक्ष्मी से सम्पन्न महाराज विराट कुंती पुत्रों के साथ बड़ी शोभा पाने लगे। मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाले वीरवर राजसिंहासन पर विराजमान हुए। उस समय शत्रुओं को संताप देने वाले सब शूरवीर कुंती पुत्रों के साथ राजा की सेवा के लिये उनके पास बैठे। फिर ब्राह्मणों सहित समस्त प्रजा वर्ग के लोग उपस्थित हुए। सबने सेना सहित मत्स्यराज का अभिनन्दन एवं स्वागत सत्कार किया। तदनन्तर मत्स्य देश के राजा सेनाओं के स्वामी विराट ने ब्राह्मणों तथा प्रजावर्ग के लोगों को विदा कर दिया और ( अन्तःपुर में जाकर ) उत्तर के विषय में पूछा,

     राजा विराट बोले ;- ‘राजकुमार उत्तर कहाँ गये हैं ?’ तब घर में रहने वाली स्त्रियों और कन्याओं ने उनसे सब बातें बतायीं । ‘इसी प्रकार अन्तःपुर में रहने वाली स्त्रियों ने भी बताया कि कौरवों ने हमारे गोष्ठ का गोधन हर लिया है, अतः कुमार भूमिंजय अत्यन्त साहस के कारण क्रोध में भरकर अकेले ही उन गौओं को जीत लेने के लिये बृहन्नला के साथ निकले हैं। ‘सुना है, शान्तनु नन्दन भीष्म, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणाचार्य तथा द्रोण पुत्र अश्वत्थामा - ये छः अतिरथी वीर युद्ध के लिये आये हैं’।

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युद्ध में आगे बढ़ने वाले अपने पुत्र को बृहन्नला सारथि के साथ एक मात्र रथ की सहायता से कौरवों का सामना करने के लिये गया हुआ सुनकर राजा विराट को बड़ा संताप हुआ। उन्होंने ( अपने ) सभी प्रधान मन्त्रियों से कहा,

    विराट बोले ;- ‘कौरव हों या दूसरे कोई राजा, जब वे सुनेंगे कि त्रिगर्त लोग युद्ध में पीठ दिखाकर भाग गये हैं, तब वे कदापि यहाँ ठहर नहीं सकेंगे। ‘अतः मेरे सैनिकों में से जो लोग त्रिगर्तों के साथ होने वाले युद्ध मे घायल नहीं हुए हों, वे सब विशाल सेना के साथ राजकुमार उत्तर की रक्षा के लिये जायँ’। तत्पश्चात उन्होंने पुत्र की रक्षा के लिये विचित्र-विचित्र आयुधों और आभूषणों से विभूषित घुड़सवारों, हाथी सवारों, रथारोहियों तथा पैदल योद्धाओं के समूहों को, जो बड़े शूरवीर थे, भेजा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

    इस प्रकार सेनाओं के स्वामी मत्स्य नरेश विराट ने अपनी उस चतुरंगिणी सेना को शीघ्र आदेश दिया, ‘जाओ, शीघ्र पता लगाओ। कुमार जीवित है या नहीं। एक हिजड़ा जिसका सारथि बनकर गया है, वह मेरी समझ से तो अब जीवित नहीं होगा’। 

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा विराट को बहुत दुखी देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने उनसे हँसकर कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘नरेन्द्र! यदि बृहन्नला सारथि है, तो यह विश्वास कीजिये कि शत्रु आज आपकी वे गौएँ नहीं ले जा सकेंगे। उस हितैषी सारथि के सहयोग से सब कार्य ठीक - ठीक कर लेने पर आपका पुत्र युद्ध में समस्त राजाओं तथा संगठित होकर आये हुए कौरवों की तो बात ही क्या, देवता, असुर, सिद्ध और यक्षों पर भी निश्चय ही विजय पा सकता है’।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! इसी समय उत्तर के भेजे हुए शीघ्रगामी दूतों ने विराट नगर में आकर विजय की सूचना दी। मन्त्री ने वह सब समाचार महाराज से कह सुनाया। अपने पक्ष की उत्तम विजय और कौरवों की करारी हार हुई है। राजकुमार उत्तर नगर में आ रहे हैं। समसत गौएँ जीत ली गयीं तथा कौरव परास्त होकर भाग गये। शत्रुओं को संताप देने वाले कुमार उत्तर सारथि सहित सकुशल हैं।

    युधिष्ठिर ने कहा ;- महाराज! सौभाग्य की बात है कि गौएँ जीत ली गयीं और कौरव भाग गये। आपके पुत्र ने कौरवों पर जो विजय पायी है, उसे मैं कोई आश्चर्य के बात नहीं मानता। जिसका सारथि बृहन्नला हो, उसकी विजय तो निश्चित ही है। देवराज इन्द्र का शीघ्रगामी सारथि मातलि व श्रीकृष्ण का सारथि दारुक- ये दोनों बृहन्नला की समानता नहीं कर सकते।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अपने अमित पराक्रमी कुमार की विजय का समाचार सुनकर राजा विराट बड़े प्रसन्न हुए। उनके शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने वस्त्र और आभूषणों से उन दूतों का सत्कार किया और मन्त्री को आज्ञा दी,

   राजा विराट बोले ;- ‘मेरे नगर की सड़कों को पताकाओं से अलुकृत किया जाय। फूलों तथा नाना प्रकार के उपहारों से सब देवताओं की पूजा होनी चाहिये। कुमार, मुख्य मुख्य योद्धा, श्रृंगार से सुशोभित वारांगनाएँ और सब प्रकार के बाजे-गाजे मेरे पुत्र की अगवानी में भेजे जायँ। ‘एक मनुष्य शीघ्र ही हाथ में घण्टा लिये मतवाले गजराज पर बैठ जाय और नगर के समस्त चैराहों पर हमारी विजय का संवाद सुनावे। राजकुमारी उत्तरा भी उत्तम श्रृंगार और सुन्दर वेष-भूषा से सुशोभित हो अन्य राजकुमारियों के साथ मेरे पुत्र की अगवानी में जायँ’।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 27-36 का हिन्दी अनुवाद)

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! राजा की इस आज्ञा को सुनकर बहुमूल्य वेशभूषा से सुशोभित सौभाग्यवती तरुणी स्त्रियों, सूत, मागध और बंदीजनों सहित समस्त पुरवासी, हाथों में मांगलिक वस्तुएँ लेकर भेरी, तूर्य, शंख तथा पणव आदि मांगलिक बाजे साथ लिये महाबली विराट के अनन्त पराक्रमी पुत्र उत्तर की आगवानी करने के लिये नगर से बाहर गये। राजन! तदनन्तर सेना, सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित कन्याओं और वारांगनाओं को भेजकर परम बुद्धिमान मत्स्य नरेश हर्षोल्लास में भरकर इस प्रकार बोले,

    राजा विराट बोले ;- सैरन्ध्री! जा, पासे ले आ। कंक! जूआ प्रारम्भ हो।’ उन्हें ऐसा कहते देख पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर बोले,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘राजन! मैंने सुना है, जब चालाक जुआरी अत्यन्त हर्ष में भरा हो, तो उसके साथ जूआ नहीं खेलना चाहिये। आज आप भी बड़े आनन्द में मग्न हैं; अतः आपके साथ जूआ खेलने का साहस नहीं होता, तथापि आपका प्रिय कार्य तो करना ही चाहता हूँ, अतः यदि आपकी इच्छा हो, तो खेल शुरू हो सकता है’।

    विराट ने कहा ;- स्त्रियाँ, गौएँ, सुवर्ण तथा अन्य जो कोई भी धन सुरक्षित रक्खा जाता है, बिना जूए के वह सब मुझे कुछ नहीं चाहिये। ( मुझे तो जूआ ही सबसे अधिक प्रिय )।

   कंक बोले ;- सबको मान देने वाले महाराज! आपको जूए से क्या लेना है? इसमें तो बहुत से दोष हैं। जूआ खेलने में अनेक दोष होते हैं, इसलिये इसे त्याग देना चाहिये। आपने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को देखा होगा अथवा उनका नाम तो अवश्य सुना होगा। वे अपने अत्यन्त समृद्धिशाली राष्ट्र को, देवताओं के समान तेजस्वी भाइयों कसे तथा समूचे राज्य को भी जूए में हार गये थे। अतः मैं जेए को पसंद नहीं करता। नाना प्रकार के रत्नों और धन को हार जाने के कारण अब वे जुआरी युधिष्ठिर निश्चय ही पश्चाताप करते होंगे। इस जूए में आसक्त होने पर राज्य का नाश होता है, फिर जुआरी एक दूसरे के प्रति कटु वचनों का प्रयोग करते हैं। जूआ एक ही दिन में महान धन राशि का नाश करने वाला है। अतः विद्वान् पुरुषों को इस ( धोखा देने वाले जूए ) पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। राजन्! तो भी यदि आपकी रुचि और आग्रह हो, तो हम खेलेंगे ही।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जूए का खेल आरम्भ हो गया। खेलते-खेलते मत्स्यराज ने पाण्डु नन्दन से कहा,

   विराट बोले ;- ‘देखो, आज मेरे बेटे ने युद्ध में उन प्रसिद्ध कौरवों पर विजय पायी है’।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद)

   तब महात्मा राजा युधिष्ठिर ने विराट से कहा ;- ‘बृहन्नला जिसका सारथि हो, वह युद्ध में कैसे नहीं जीतेगा?’ यह सुनते ही मत्स्य नरेश कुपित हो उठे और पाण्डु नन्दन से बोले,

   विराट बोले ;- ‘अधम ब्राह्मण! तू मेरे पुत्र के समान एक हिजड़े की प्रशंसा करता है। ‘क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसका तुझे ज्ञान नहीं है। निश्चय ही तू अपनी बातों से मेरा अपमान कर रहा है। भला मेरा पुत्र भीष्म-द्रोण आदि समस्त वीरों को क्यों नहीं जीत लेगा ? ब्रह्मन्! मित्र होने के नाते ही मैं तुम्हारे इस अपराध को क्षमा करता हूँ। यदि जीने की इच्छा हो, तो फिर ऐसी बात न कहना’।

     युधिष्ठिर बोले ;- जहाँ द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा, कर्ण, कृपाचार्य, राजा दुर्योधन तथा अन्य महारथी उपस्थित हों, वहाँ बृहन्नला के सिवा दूसरा कौन पुरुष, चाहे वह देवताओं से घिरा हुआ साक्षात देवराज इन्द्र ही क्यों न हो, उन सब संगठित वीरों का सामना कर सकता है। बाहुबल में जिसकी समानता करने वाला न कोई हुआ है और न होगा ही, युद्ध का अवसर आया देखकर जिसे अत्यन्त हर्ष होता है, जिसने युद्ध में एकत्र हुए देवता, असुर और मनुष्य- सबको जीत लिया है, वैसे बृहन्नला जैसे सहायक के होने पर राजकुमार उत्तर विजयी क्यों न होंगे ?

     विराट ने कहा ;- कंक! मैंने बहुत बार मना किया, तो भी तू अपनी जबान नहीं बंद कर रहा है। सच है, यदि शासन करने वाला राजा न हो, तो कोई भी धर्म का आचरण नहीं कर सकता।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इतना कहकर क्रोध में भरे हुए राजा विराट ने वह पासा युधिष्ठिर के मुख पर जोर से दे मारा तथा रोष पूर्वक डाँटते हुए उनसे कहा,

     विराट बोले ;- ‘फिर कभी ऐसी बात न कहना’। पासे का आघात जोर से लगा था, अतः उनकी नाक से रक्त की धारा बह चली। किंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस रक्त को पृथ्वी पर गिरने से पहले ही अपने दोनों हाथों में रोक लिया और पास ही खड़ी हुई द्रौपदी की ओर देखा। द्रौपदी अपने स्वामी के मन के अधीन रहने वाली और उनकी अनुगामिनी थी। उस सती-साध्वी देवी ने उनका अभिप्राय समझ लिया; अतः जल से भरा हुआ सुवर्णमय पात्र ले आकर युधिष्ठिर की


नाक से जो रक्त बहता था, वह उसमें ले लिया। इसी समय राजकुमार उत्तर बड़े हर्ष के साथ स्वच्छन्दता पूर्वक नगर में आये। मार्ग में उनके ऊपर उत्तम गन्ध और भाँति-भाँति के पुष्पहार बरसाये जा रहे थे।



(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद)

    मत्स्य देश के लोगों, पुर वासियों तथा सुन्दरी स्त्रियों ने उनका स्वागत किया; फिर राजभवन के द्वार पर पहुँचकर उन्होंने पिता को अपने आगमन की सूचना करवायी। तब द्वारपाल ने भीतर जाकर महाराज विराट से कहा,

   द्वारपाल बोला ;- ‘प्रभो! बृहन्नला के साथ राजकुमार उत्तर द्वार पर खड़े हैं’। इस समाचार से प्रसन्न होकर मत्स्यराज अपने सेवक से बोले,

    राजा विराट बोले ;- ‘मैं उन दोनों से मिलना चाहता हूँ; अतः उन्हें शीघ्र भीतर ले आओ’।

     तब जाते हुए सेवक के कान में युधिष्ठिर ने धीरे से कहा,

 युधिष्ठिर बोले ;- ‘पहले अकेले राजकुमार उत्तर ही यहाँ आयें। बृहन्नला को साथ में न ले आना’। ‘महाबाहो! बृहन्नला का यह निश्चित व्रत है कि जो युद्ध भूमि के सिवा अन्य किसी स्थान में मेरे शरीर में घाव कर दे या रक्त बहता दिखा दे, वह किसी प्रकार जीवित न रहने पाये। ‘मेरे शरीर में रक्त देखकर वह अत्यन्त कुपित हो उठेगा और इस अपराध को क्षमा नहीं करेगा एवं राजा विराट को मन्त्री, सेना और वाहनों सहित यहीं मार डालेगा’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा विराट के ज्येष्ठ पुत्र कुमार भूमिंजय ( उत्तर ) ने भीतर प्रवेश किया और पिता के दोनों चरणों में प्रणाम करके कंक को भी मस्तक झुकाया। उसने देखा, कंक एकान्त में भूमि पर बैठे हैं। सैरन्ध्री उनकी सेवा में उपस्थित है। उनका मन एकाग्र नहीं है और वे निरपराध हैं, तो भी उनके शरीर से रक्त बह रहा है। तब उत्तर ने बड़ी उतावली के साथ अपने पिता से पूछा,

   उत्तर बोला ;- ‘राजन्! किसने इन्हें मारा है? किसने यह पाप किया है?’ 

     विराट ने कहा ;- बेटा! मैंने ही इस कुटिल को मारा है। यह इतने सम्मान के योग्य कदापि नहीं है। देखो न, जब मैं तुम्हारे शौर्य की प्रशंसा करता हूँ, तब यह उस हिजड़े की बड़ाई करने लगता है।

     उत्तर बोले ;- राजन्! आपने इन्हें मारकर बड़ा अनुचित कार्य किया है। शीघ्र ही इनको मनाइये; अन्यथा ब्राह्मण का भयंकर क्रोध विष आपको यहाँ जड़ मूल सहित भस्म कर डालेगा।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! पुत्र की यह बात सुनकर अपने राष्ट्र की वृद्धि करने वाले महाराज विराट ने राख में छिपी हुई अग्नि की भाँति तेजस्वी कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर से क्षमा माँगी। राजा को क्षमा माँगते देख पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर ने कहा,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘राजन्! मैंने चिरकाल से क्षमा का व्रत ले रखा है, अतः आपका यह अपराध क्षमा हो चुका है। मुझे आप पर जरा भी क्रोध नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टषष्टितम अध्याय के श्लोक 64-76 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘महाराज! यदि नाक से बहने वाला यह रक्त धरती पर गिर जाता, तो आप सारे राष्ट्र के साथ नष्ट हो जाते इसमें कोई संदेह नहीं है। ‘राजन्! जो किसी की निन्दा या अपराध न करे, उसे मार देना अन्याय है, तथापि मैं आपके इस कार्य की निन्दा नहीं करता; क्योंकि बलवान राजा को प्रायः शीघ्र ही उेसे कठोर कर्म करने का अवसर प्राप्त हो जाता है’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! जब युधिष्ठिर की नाक से रक्त बहना बंद हो गया, उस समय बृहन्नला ने राज सभा में प्रवेश किया। उसने विराट को नमस्कार करके कंक को भी प्रणाम किया।

     इधर मत्स्य नरेश कुरुनन्दन युधिष्ठिर से क्षमा माँगकर सव्यसाची अर्जुन के सुनते ही रणभूमि से आये हुए उत्तर की प्रशंसा करने लगे। ‘कैकेयी नन्दन! तुम्हें पाकर मैं वास्तव में पुत्रवान हूँ। तुम्हारे समान मेरा दूसरा कोई पुत्र न हुआ है; न होगा ही। ‘तात! जो एक ही लक्ष्य के साथ-साथ सहस्रों लक्ष्यों का बेध करने के लिये बाण चलाता है और कहीं भी चूकता नहीं है, उस कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध किस प्रकार हुआ? बेटा! सारे मनुष्य लोक में जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं है, उन भीष्म जी के साथ तुम्हारी भिडन्त किस प्रकार हुई ? ‘तात! जो वृष्णि वीरों और कौरवों दोनों के आचार्य हैं अथवा दोनों के ही नहीं, सम्पूर्ण क्षत्रियों के आचार्य हैं, समस्त शस्त्र धारियों में जिनका सबसे ऊँचा स्थान है, उस द्रोणाचार्य के साथ तुम्हारा संग्राम किस प्रकार हुआ?

     ‘आचार्य के जो शूरवीर पुत्र सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं, जिनकी अश्वत्थामा नाम से ख्याति है, उनके साथ तुम्हारी लड़ाई कैसे हुई ? ‘बेटा! जैसे वणिक् अपना धन छिन जाने पर दुखी होते हैं, उसी प्रकार युद्ध में जिन्हें देखकर बड़े-बड़े योद्धा शिथिल हो जाते हैं, उन कृपाचार्य के साथ तुम्हारा संग्राम किस प्रकार हुआ? ‘तात! जो राजपुत्र अपने महान बाणों से पर्वत को भी विदीर्ण कर सकता है, उस दुर्योधन के साथ तुम्हारी मुठभेड़ कैसे हुई ?। ‘बेटा! कौरवों ने जिस गोधन को संग्राम में हड़प लिया था, उसे तुम जीतकर ले आये, यह बहुत अच्छा हुआ। आज हमारे शत्रु परास्त हो गये, इसलिये आजकी वायु मुझे बड़ी सुख दायिनी प्रतीत हो रही है। - नरश्रेष्ठ! तुमने उन समस्त शत्रुओें को युद्ध में जीतकर उन्हें भय में डाल दिया है और उन समस्त बलशालियों के हाथ से अपने सारे गोधन को इस प्रकार छीन लिया है, जैसे सिंह दूसरे जन्तुओं के हाथ से मांस छीन लेता है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में विराट - उत्तर संवाद विषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा विराट और उत्तर की विजय के विषय में बातचीत”

   उत्तर ने कहा ;- पिताजी! मैंने गौओं को नहीं जीता है और न मैंने शत्रुओं पर ही विजय पायी है। यह सब कार्य तो किसी देव कुमार ने किया है। मैं तो डरकर भागा जा रहा था; किंतु वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाले उस तरुण देव पुत्र ने मुझे लौटाया और वह स्वयं ही रथ के पिछले भाग में रथी बनकर बैठ गया। उसी ने उन गौओं को जीता है और कौरवों को भी परास्त किया है। पिता जी! यह सब उसी वीर का कर्म है। मैंने कुछ नहीं किया है। उसी ने कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, भीष्म और दुर्योधन- इन छहों महारथियों को अपने बाणों से मार कर युद्ध से भगा दिया। वहाँ जैसे यूथपति गजराज अपने झुंड के हाथियों सहित भागा जाता हो, उसी प्रकार दुर्योधन ओर विकर्ण आदि राजपुत्र भयभीत होकर भागने लगे; तब उन महाबली देवपुत्र ने दुर्योधन से कहा,

     देवपुत्र बोले ;- धृतराष्ट्र कुमार! अब हस्तिनापुर में तेरी जीवन रक्षा का कोइ उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अतः देश- देशान्तरों में घूमकर अपनी जान बचा। ‘राजन! भागने से तू नहीं बच सकता। युद्ध मे मन लगा। जीत लेगा, तो पृथ्वी का श्राज्य भोगेगा अथवा मारे जाने पर तुझे स्वर्ग मिलेगा’। महाराज! इतना सुनना था कि नरश्रेष्ठ दुर्योधन साँप की भाँति फुँफकारता हुआ रथ के द्वारा लौट आया और मन्त्रियों से झिारकर उस देवपुत्र पर वज्र सरीखे बाणों की वर्षा करने लगा। मारिष! उस समय उसे देखकर मेरे तो रोंगट खड़े हो गये ओर जाँघें काँपने लगी; किंतु उस देवपुत्र ने अपने बाणों द्वारा सिंह के समान पराक्रमी दुर्योधन और उसकी सेना को संतप्त कर दिया। सिंह के समान सुदृढ़ शरीर वाले उस तरुण वीर ने रथारोहियों की सेना को छिन्न-भिन्न करके हँसते-हँसते उन कौरवों को भी धराशायी कर दिया, जिससे उनके कपड़े उतार लिये गये। जैसे मदोन्मत्त सिंह वन में विचरने वाले मृगों को परास्त करता है, उसी प्रकार उस वीर देवपुत्र ने अकेले ही उन छः महारथियों को हराया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनसप्ततितम अध्याय के श्लोक 12-19 का हिन्दी अनुवाद)

      विराट ने पूछा ;- बेटा! वह महायशस्वी महाबाहु वीर देव पुत्र कहाँ है, जिसने युद्ध में कौरवों द्वारा काबू में की हुई मेरी गौओं को जीता है? जिस देवपुत्र ने तुम्हें और मेरी गौओं को भी बचाया है, मैं उस महापराक्रमी वीर को देखाना और उसका सत्कार करना चाहता हूँ।

    उत्तर ने कहा ;- पिता जी! वह महाबली देवपुत्र वहीं अन्तर्धान हो गया; किंतु मेरा विश्वास है कि वह कल या परसों यहाँ फिर प्रकट होगा।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार संकेत पूर्वक बताने पर भी सेनाओं के स्वामी राजा विराट नपुंसक वेश में छिपकर वहीं रहने वाले पाण्डु नन्दन अर्जुन को पहचान न सके। तदनन्तर महामना विराट की आज्ञा से बृहन्नला रूपी अर्जुन ने स्वयं विराट कन्या उत्तरा को वे सब कपड़े, जो महारथियों के शरीर से उतारे थे, दे दिये। भामिनी उत्तरा उन भाँति-भाँति के नवीन एवं बहुमूल्य वस्त्रों को लेकर बहुत प्रसन्न हुई। जनमेजय! कुन्ती नन्दन अर्जुन ने महामना उत्तर के साथ राजा युधिष्ठिर को प्रकट करेने के विषय में सलाह की और क्या क्या करना चाहिये, इन सब बातों का निश्चय कर लिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर उन्होंने उसी निश्चय के अनुसार सब कार्य ठीक - ठीक किया। भरतकुल शिरोमणि पाण्डव मत्स्य नरेश के पुत्र उत्तर के साथ वह सब व्यवस्था करके बड़े प्रसन्न हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में विराट - उत्तर संवाद विषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (वैवाहिक पर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का राजा विराट को महाराज युधिष्ठिर का परिचय देना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर नियत समय तक अपनी प्रतिज्ञा पालन करके अग्नि के समान तेजस्वी पाँचों भाई महारथी पाण्डव तीसरे दिन स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण कर समस्त राजोचित आभूषणों से विभूषित हो राज सभा में क्षर पर सिथत मदोन्मत्त गजराजों की भाँति सुशोभित होने लगे। वे राजा युधिष्ठिर को आगे करके विराट की सभा में गये और राजाओं के लिये रक्खे हुए सिंहासनों पर बैठे। उस समय वे भिन्न-भिन्न यज्ञ वेदियों पर प्रज्वलित अग्नियों के समान प्रकाशित हो रहे थे। पाण्डवों के वहाँ बैठ जाने पर राजा विराट अपने समस्त राजकाज करने के लिये सभा में आये।

     वहा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी श्री सम्पन्न पाण्डवों को देखकर पृथ्वीपति विराट ने दो घड़ी तक मन ही मन कुछ विचार किया। फिर वे कुपित होकर देवता के समान स्थित मरुद्गणों से घिरे हुए देवराज इन्द्र के तुल्य सुशोभित कंक से बोले,

    विराट बोले ;- ‘कंक! तुम्हें तो मैंने पासा फेंकने वाला सभासद बनाया था। आज बन ठन कर राज सिंहासन पर कैसे बैठ गये?’

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मोनो परिहास करने के लिये कहा गया हो, ऐसा विराट का यह वचन सुनकर अर्जुन मुसकराते हुए इस प्रकार बोले।

    अर्जुन ने कहा- राजन! आपके राजसिंहासन की तो बात ही क्या है, ये तो इन्द्र के भी आधे सिंहासन पर बैठने के अधिकारी हैं। ये ब्राह्मणभक्त, शास्त्रों के विद्वान, त्यागी, यज्ञशील तथा दृढ़ता के साथ अपने व्रत का पालन करने वाले हैं। ये मूर्तिमान धर्म हैं तथा पराक्रमी पुरुषों में श्रेष्ट हैं। इस जगत में ये सबसे बढ़कर बुद्धिमान और तपस्या के परम आश्रय हैं। ये नाना प्रकार के ऐसे अस्त्रों को जानते हैं, जिन्हें इस चराचर त्रिलोकी में दूसरा मनुष्य न तो जानता है और न कभी जान सकेगा। जिन अस्त्रों को देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर और बड़े बड़े नाग भी नहीं जानते, उन सबका इन्हें ज्ञान है। ये दीर्घदर्शी, महातेजस्वी तथा नगर और देश के लोगों को अत्यन्त प्रिय हैं। ये पाण्डवों में अतिरथी वीर हैं एवं सदा यज्ञ और धर्म के अनुष्ठान में संलग्न तथा मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं। ये महर्षियों के समान हैं, राजर्षि हैं और समस्त लोकों में विख्यात हैं। बलवान, धैर्यवान, चतुर, सत्यवादी और जितेन्द्रिय हैं। धन और संग्रह की दृष्टि से ये इन्द्र और कुबेर के समान हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्ततितम अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे महातेजस्वी मनु समस्त लोकों के रक्षक हैं, उसी प्रकार ये महातेजस्वी नरेश भी प्रजाजनों पर अनुग्रह करने वाले हैं। ये ही कुरुवंश में सर्वश्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर हैं। उदय काल के सूर्य की शान्त प्रभा के समान इनकी सुख दायिनी कीर्ति समस्त संसार में फैली हुई है। जैसे सूर्योदय होने पर सूर्य के तेज के पश्चात उनकी किरणें समस्त दिशाओं में फैल जाती हैं, उसी प्रकार इनके सुयश के साथ-साथ उसकी सुधाधवल किरणें समस्त दिशाओं में छा रही हैं।

     राजन! ये महाराज जब कुरुदेश में रहते थे, उस समय इनके पीछे दस हजार वेगवान हाथी चला करते थे। इसी प्रकार अच्छे घोड़ों से जुते हुए सवर्णमाला मण्डित तीस हजार रथ भी उस समय इनका अनुसरण करते थे। जैसे महर्षिगण इन्द्र की स्तुति करते हैं, उसी प्रकार पहले विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये आठ सौ सूत और मागध इनके गुण गाते थे। राजन! जैसे देवगण धनाध्यक्ष कुबेर का दरबार किया करते हैं, वैसे ही सब राजा और कौरव किंकरों की भाँति इनकी नित्य उपासना करते थे। इन महाभाग नरेश ने इस देश के सब राजाओं को वैश्यों की भाँति स्ववश ( अपने अधीन ) और विवश करके कर देने वाला बना दिया था। अत्यन्त उत्तम व्रत का पालन करने वाले इन महाराज के यहाँ प्रतिदिन अट्ठासी हजार महाबुद्धिमान स्नातकों की जीविका चलती थी। ये बेढ़े, अनाथ, पंगु और अंधे मनुष्यों को भी स्नेह पूर्वक पालन करते थे। ये नरेश अपनी प्रजा की धर्म पूर्वक पुत्र की भाँति रक्षा करते थे। ये भूपाल धर्म और इन्द्रिय संयम में ततपर तथा क्रोध को काबू में लिये दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। ये बड़े कृपालु, ब्राह्मण भक्त और सत्यवक्ता हैं। इनके प्रताप से दुर्योधन शक्तिशाली होकर भी कर्ण, शकुनि तथा अपने गणों के साथ शीघ्र ही संतप्त होने वाला है। नरेश्वर! इनके सद्गुणों की गणना नहीं की जा सकती। ये पाण्डु नन्दन नित्य धर्म परायण तथा दयालु स्वभाव के हैं। राजन! समस्त राजाओं के शिरोमणि पाण्डु नन्दन महाराज युधिष्ठिर इस प्रकार सर्वोत्तम गुणों से युक्त होकर भी राजोचित आसन के अणिकारी क्यों नहीं हैं?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत वैवाहिक पर्व में पाण्डव प्राकट्य विषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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