सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के छटवें अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the 6 chapter to the 10 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

छठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रुपद का पुरोहित को दौत्यकर्म के लिये अनुमति देना तथा पुरोहित का हस्तिनापुर को प्रस्थान”

      राजा द्रुपद ने (पुरोहित से) कहा ;- पुरोहित जी! समस्त भूतों में प्राणधारी श्रेष्‍ठ हैं। प्राणधारियों में भी बुद्धि-जीवी श्रेष्ठ हैं। बुद्धिजीवी प्राणियों में भी मनुष्य और मनुष्यों में भी ब्राह्मण श्रेष्ठ माने गये हैं। ब्राह्मणों में विद्वान, विद्वानों में सिद्धान्त के जानकार, सिद्धान्त के ज्ञाताओं में भी तदनुसार आचरण करने वाले पुरुष तथा उनमें भी ब्रह्मवेता श्रेष्ठ हैं। मेरा ऐसा विश्वास है कि आप सिद्धान्त वेत्ताओं में


प्रमुख हैं आपका कुल तो श्रेष्ठ है ही, अवस्था तथा शास्त्र-ज्ञान में भी आप बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि शुक्राचार्य और बृहस्पति के समान है। दुर्योधन का आचार-विचार जैसा है, वह सब भी आपको ज्ञात ही है। कुन्ती पुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर आचार-विचार भी आप लोगों से छिपा नहीं है। धृतराष्ट्र की जानकारी में शत्रुओं ने पाण्डवों को ठगा है।

     विदुरजी के अनुनय-विनय करने पर भी धृतराष्ट्र अपने पुत्र का ही अनुसरण करते हैं। शकुनि ने स्वयं जूए के खेल में प्रवीण होकर यह जानते हुए भी कि युधिष्ठिर जूए के खिलाड़ी नहीं हैं, वे क्षत्रिय धर्म पर चलने वाले शुद्धात्मा पुरुष हैं, उन्हें समझ बूझकर जूए के लिए बुलाया। उन सबने मिलकर धर्मराज युधिष्ठिर को ठगा है। अब वे किसी भी अवस्था में स्वयं राज्य नहीं लौटायेंगे। परंतु आप राजा धृतराष्ट्र से धर्मयुक्त बातें कहकर उनके योद्धाओं का मन निश्चय ही अपनी ओर फेरे लेंगे। विदुर जी भी वहाँ आपके वचनों का समर्थन करेंगे तथा आप भीष्म, द्रोण एवं कृपाचार्य आदि में भेद उत्पन्‍नकर देंगे। जब मन्त्रीयों में फूट पड़ जायेगी और योद्धा भी विमुख होकर चल देंगे, तब उनका (प्रधान) कार्य होगा- पुनः नूतन सेना का संग्रह और संगठन। इसी बीच में एकाग्रचित्त वाले कुन्ती कुमार अनायास ही सेना का संगठन और द्रव्य का संग्रह कर लेंगे। जब वहाँ हमारे स्वजन उपस्थित रहेंगे और आप भी वहाँ रहकर लौटने में विलम्ब करेते रहेंगे तब निःसन्देह वे सेन्य संग्रह का कार्य उतने अच्छे ठंग से नहीं कर सकेंगे। वहाँ आपके जाने का यही प्रयोजन प्रधानरूप से दिखायी देता है। यह भी संभव है कि आपकी संगति से धृतराष्ट्र का मन बदल जाय और वे आपकी धर्मानुकुल बात स्वीकार कर लें। आप धर्मपरायण तो हैं, ही वहाँ धर्मानुकुल बर्ताव करते हुए कौरव कुल में जो कृपालु वृद्ध पुरुष है, उनके समक्ष पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित कुल धर्म का प्रतिपादन एक़ पाण्डवों के क्लेशों का वर्णन कीजियेगा। इस प्रकार आप उनका मन दुर्योधन की ओर से फोड़ लेंगे, इसमें मुझे कोई संशय नहीं है। आप को उनसे कोई भय नहीं है;कयोंकि आप वेदवेत्ता ब्राह्मण हैं। विशेषतः दूतकर्म में नियुक्त और वृद्ध हैं। अतः आप पुष्प नक्षत्र से युक्त जय नामक मुहूर्त में कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के कार्य की सिद्धि के लिये कौरवों के पास शीघ्र जाइये।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! महामना राजा द्रुपद के द्वारा इस प्रकार की अनुशासित होकर सदाचार-सम्पन्न पुरोहित ने हस्तिनापुर को प्रस्थान किया। वे विद्वान‌ तथा नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ थे। वे पाण्डवों के हित लिये शिष्यों के साथ कौरवों की (राजधानी) की ओर गये थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्ण का दुर्योधन तथा अर्जुन दोनों को सहायता देना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! पुरोहित को हस्तिनापुर भेजकर पाण्डव लोग यत्र-तत्र राजाओं के यहाँ अपने दूतों को भेजने लगे। अन्य सब स्थानों में दूत भेजकर कुरुकुलनन्दन कुन्ती पुत्र नरश्रेष्ठ धनंजय स्वयं द्वारकापुरी को गये। अब मधूकुल नन्दन श्रीकृष्ण और बलभद्र सैकडों वृष्णि अन्धक और भोज्यवंशी यादवों को साथ ले द्वारकापुरी की ओर चले थे, धृतराष्ट्रपुत्र राजा दुर्योधन ने अपने नियुक्त किये हुये गुप्तचरों से पाण्डवों की सारी चेष्टाओं का पता लगा लिया था। अब उसने सुना कि श्रीकृष्ण विराट नगर से द्वारका को जा रहे हैं, तब वह वायू के समान वेगवान उत्‍तम अश्वों तथा एक छोटी सी सेना के साथ द्वारकापुरी की ओर चल दिया। कुन्ती कुमार पाण्डुनन्दन अर्जुन ने भी उसी दिन शीघ्रता पूर्वक रमणीय द्वारकापुरी की ओर प्रस्थान किया। कुरु वंश का आनन्द बढ़ाने वाले उन दोनों नरवीरों ने द्वारका में पहुँच कर देखा, श्रीकृष्ण शयन कर रहे हैं। तब वे दोनों सोये हुये श्रीकृष्ण के पास गये। श्रीकृष्ण के शयनकाल में पहले दुर्योधन ने उनके भवन में प्रवेश किया और उनके सिराहने के ओर रक्खे हुए एक श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। तत्पश्चात महामना किरीटधारी अर्जुन ने श्रीकृष्ण के शयनागार में प्रवेश किया। वे बड़ी नम्रता से हाथ जोडे हुए श्रीकृष्ण के चरणों की ओर खड़े रहे। जागने पर वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्ण ने पहले अर्जुन को ही देखा। मधुसूदन ने उन दोनों का यथायोग्य आदर-सत्कार करके उनसे आगमन का कारण पूछा। तब दुर्योधन ने भगवान श्रीकृष्ण से हँसते हुए से-कहा। माधव! (पाण्डवों के साथ हमारा) जो युद्ध होने वाला है, उसमें आप मुझे सहायता दें। आपकी मेरे तथा अर्जुन के साथ एक सी मित्रता है एवं हम लोगों का आपके साथ सम्बन्ध भी समान ही है और मधुसूदन! आज मैं ही आपके पास पहले आया हूँ। पूर्वपूरूषों के सदाचार अनुसरण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष पहले आये हुए प्रार्थी की सहायता करते हैं। जनार्दन! आप इस समय संसार के सत्यपुरुषों में सबसे श्रेष्ठ हैं और सभी सर्वदा आपको सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। अतः आप सत्यपुरुषों के ही आचार का पालन करें।

     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजन! इसमें संदेह नहीं कि आप ही मेरे यहाँ पहले आये हैं, परंतु मैंने पहले कुन्तीनन्दन अर्जुन को ही


देखा। सुयोधन! आप पहले आये हैं और अर्जुन को मैंने पहले देखा है; इसलिये मैं दोनों की ही सहायता करूँगा। शास्त्र की आज्ञा है कि पहले बालकों को ही उनकी अभीष्ठ वस्तु देनी चाहिये; अतः अवस्था मेे छोटे होने के कारण पहले कुन्ती पुत्र अर्जुन ही अपनी अभीष्ट वस्तु पाने के अधिकारी हैं। मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर लोहा लेने वाले हैं। एक और तो वे दुर्धर्ष सैनिक युद्ध के लिये उद्यत रहेंगे और दूसरी ओर से अकेला मैं रहूँगा; परंतु मैं ना तो युद्ध करूँगा और न कोई शस्त्र ही धारण करूँगा। अर्जुन! इन दोनों में से कोई वस्तु, जो तुम्हारे मन को अधिक प्रिय जान पड़े, तुम पहले चुन लो; क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम्हें ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने का अधिकार है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर कुन्तीकुमार धनंजय ने संग्राम भूमि में युद्ध न करने वाले उन भगवान श्रीकृष्ण को ही (अपना सहायक) चुना, जो साक्षात शत्रुहन्ता नारायण हैं अजन्मा होते हुए भी स्वेच्छा से देवता, दानव तथा समस्त क्षत्रियों के सम्मुख मनुष्यों में अवतीर्ण हुए हैं। जनमेजय! तब दुर्योधन ने वह सारी सेना माँग ली, जो अनेक सह्स्त्रों टोलियों में संगठित थी। उन योद्धाओं को पाकर और श्रीकृष्ण को ठगा गया समझकर राजा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका बल भयंकर था। वह सारी सेना लेकर महाबली रोहिणी नन्दन बलरामजी के पास गया और उसने उन्हें अपने आने का सारा कारण बताया। तब शूरवंशी बलरामजी ने धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को इस प्रकार उत्‍तर दिया।

     बलदेवजी बोले ;- पुरुषसिंह! पहले राजा विराट के यहाँ विवाहोत्सव के अवसर पर मैंने जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हें मालूम हो गया होगा। कुरुनन्दन! तुम्हारे लिये मैंने श्रीकृष्ण को बाध्य करके कहा था कि हमारे साथ दोनों पक्षो का समान रूप से सम्बन्ध है! राजन! मैंने यह बात बार-बार दुहरायी, परंतु श्रीकृष्ण-को जँची नहीं और मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर एक छड़ भी अन्यत्र कहीं ठहर नहीं सकता। अतः मैं श्रीकृष्ण की ओर देखकर मन ही मन इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि मैं न तो अर्जुन की सहायता करूँगा और न दुर्योधन की ही। पुरुषरत्न! तुम समस्त राजाओं द्वारा सम्मानित भरत वंश में उत्पन्न हुए हो। जाओ, क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध करो।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! बलभद्र जी के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने उन्हें हृदय से लगाया और श्रीकृष्ण को ठगा गया जानकर युद्ध से अपनी निश्चित विजय समझ ली। तदनंतर धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन कृतवर्मा के पास गया कृतवर्मा नें उसे एक अक्षोहिणी सेना दी। उस सारी भंयकर सेना के द्वारा घिरा हुआ कुरुनन्दन दुर्योधन अपने सुहृदों का हर्ष बढ़ाता हुआ बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गया। दुर्योधन के चले जाने पर पीताम्बर धारी जगत्स्रष्टा जर्नादन श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा,

   श्री कृष्ण बोले ;- पार्थ! मैं तो युद्ध करूँगा नहीं; फिर तुमने क्या सोच-समझकर मुझे चुना है।

     अर्जुन बोले ;- भगवन! आप अकेले ही उन सबको नष्ट करने में समर्थ हैं, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। पुरुषोत्तम! (आपकी ही कृपा से) मैं भी अकेला ही उन सब शत्रुओं का संहार करने में समर्थ हूँ। परंतु आप संसार में यशस्वी हैं। आप जहाँ भी रहेंगे, वह यश आपका ही अनुसरण करेगा। मुझे भी यश की इच्छा है ही; इसीलिये मैंने आपका वरण किया है। मेरे मन में बहुत दिनों से यह अभिलाषा थी कि आपको अपना सारथि बनाऊँ अपने जीवन‌-रथ की बागडोर आपके हाथों में सौप दूँ। मेरी इस चिरकालिक अभिलाषाको आप पूर्ण करें। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा पार्थ! तुम जो (शत्रुओं- पर विजय पाने में) मेरे साथ स्पर्धा रखते हो,यह तुम्हारे लिये ठीक ही है। मैं तुम्हारा सारथ्य करूँगा। तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण हो।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार (अपनी इच्छा पूर्ण होने से) प्रसन्न हुए अर्जुन श्रीकृष्ण के सहित मुख्य-मुख्य दशार्हवंशी यादवों से घिरे हुए पुनः युधिष्ठिर के पास आये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

अठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न हो उसे वर देना और युधिष्ठिर से मिलकर उन्हें आश्वासन देना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! पाण्डवों के दूतों के मुख से उनका संदेश सुनकर राजा शल्य अपने महारथी पुत्रों के साथ विशाल सेना से घिरकर पाण्डवों के पास चले। नरश्रेष्ठ शल्य इतनी अधिक सेना का भरण पोषण करते थे कि उसका पड़ाव पड़ने पर आधी योजन भूमि घिर जाती थी। राजन! महान बलवान और पराक्रमी शल्य अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। सैकड़ों और हजारों वीर क्षत्रिय शिरोमणि उनकी विशाल वाहिनी का संचालन करने वाले सेनापति थे। वे सबके सब शौर्य-सम्पन्न, अद्भुत कवच धारण करने वाले तथा विचित्र ध्वज एवं धनुष से सुशोभित थे। उन सब के अंगों में विचित्र आभूषण शोभा दे रहे थे। सभी के रथ और वाहन विचित्र थे। सबके गले में विचित्र मालाएँ शुशोभित थीं। सबके वस्त्र और अंलकार अद्भुत दिखायी देते थे। उन सबने अपने-अपने देश की वेष-भूषा धारण कर रक्खी थी। राजा शल्य समस्त प्राणियों को व्यथित और पृथ्वी को कम्पित से करते हुए अपनी सेना को धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों-पर ठहराकर विश्राम देते हुए उस मार्ग पर चले, जिससे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के पास शीघ्र पहुँच सकते थे। भरतनन्दन! उन्हीं दिनों दुर्योधन ने महारथी एवं महामना राजा शल्य का आगमन सुनकर स्वयं आगे बढकर (मार्ग में ही) उनका सेवा-सत्कार प्रारम्भ कर दिया। दुर्योधन ने राजा शल्य के स्वागत सत्कार के लिये रमणीय प्रदेशों में बहुत से सभा भवन तैयार कराये, जिनकी दीवारों में रत्न जडे हुए थे उन भवनों को सब प्रकार से सजाया गया था। नाना प्रकार के शिल्पियों ने उनमें अनेकानेक क्रीड़ा-विहार के स्थान बनाये थे। वहाँ भाँति-भाँति के वस्त्र, मालाएँ, खाने-पीने का समान तथा सत्कार की अन्यान्य वस्तुएँ रक्खी गयी थीं। अनेक प्रकार के कुएँ तथा भाँति-भाँति की बावड़ियाँ बनायी गयीं थीं, जो हृदय के हर्ष को बढ़ा रही थीं। बहुत से ऐसे गृह बने थे, जिनमें जल की विशेष सुविधा सुलभ की गयी थी। सब ओर विभिन्न स्थानों में बने हुए उन सभा भवनों में पहुँचकर राजा शल्य दुर्योधन के मन्त्रियों द्वारा देवताओं की भाँति पूजित होते थे। इस तरह (यात्रा करते हुए) शल्य किसी दूसरे समान भवन में गये, जो देव मन्दिरों के समान प्रकाशित होता था। वहाँ उन्‍हें अलौकिक कल्याणमय भोग प्राप्त हुए। उस समय उन क्षत्रियशिरोमणि नरेश ने अपने आपको सबसे अधिक सोभाग्यशाली समझा। उन्‍हें देवराज इन्द्र भी अपने से तुच्छ प्रतीत हुए। उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्होंने सेवको से पूछा। युधिष्ठिर के किन आदमियों ने ये सभा भवन बनाये हैं। उन सबको बुलाओ। मैं उन्‍हें पुरस्कार देने के योग्य मानता हूँ। 'मैं इन सबको अपनी प्रसन्नता के फलस्वरूप कुछ पुरस्कार दूँगा, कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर को भी मेरे इस व्यवहार का अनुमोदन करना चाहिये।' यह सुनकर सब सेवकों ने विस्मित हो दुर्योधन से वे सारी बातें बतायीं। जब हर्ष से भरे हुए राजा शल्य (अपने प्रति किये गये उपकार के बदले) प्राण तक देने को तैयार हो गये, तब गुप्तरूप से वहीं छिपा हुआ दुर्योधन मामा शल्य के सामने आया। उसे देखकर तथा उसी ने यह सारी तैयारी की है, यह जानकर मद्रराज ने प्रसन्नतापूर्वक दुर्योधन को हृदय से लगा लिया और कहा- 'तुम अपनी अभीष्ट वस्तु मुझसे माँग लो।'

      दुर्योधन ने कहा ;- कल्याण स्वरूप महानुभाव! आपकी बात सत्य हो। आप मुझे अवश्य वर दीजिये। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी समपूर्ण सेना के अधिनायक हो जायँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद)

     आपके लिये जैसे पाण्डव हैं, वैसा ही मैं हूँ। प्रभो! मैं आपका भक्त होने के कारण आपके द्वारा समाद्दत और पालित होने योग्य हूँ अतः मुझे अपनाइये।

    शल्य ने कहा ;- महाराज! तुम्हारा कहना ठीक है। भूपाल! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही वर तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक देता हूँ। यह ऐसा ही होगा- मैं तुम्हारी सेना का अधिनायक बनूँगा।

      वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन! उस समय शल्य ने दुर्योधन से कहा,

   शल्य बोले ;- 'तुम्हारी यह प्रार्थना तो स्वीकार कर ली। अब कौन सा कार्य करूँ?' यह सुनकर गान्धारीनन्दन दुर्योधन ने बार-बार यही कहा कि,

दुर्योधन बोला ;- मेरा तो सब काम आपने पूरा कर दिया।

     शल्य बोले ;- नरश्रेष्ठ दुर्योधन! अब तुम अपने नगर-को जाओ। मैं


शत्रुदमन युधिष्ठिर से मिलने जाऊँगा। नरेश्रवर! में युधिष्ठिर से मिलकर शीघ्र ही लौट आऊँगा। पाण्डुपुत्र नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर से मिलना भी अत्यन्त आवश्क है। 

 दुर्योधन ने कहा ;- राजन! पृथ्वीपते! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से मिलकर आप शीघ्र चले आइये। राजेन्द्र! हम आपके ही अधीन हैं। आपने हमें जो वरदान दिया है, उसे याद रखियेगा।

    शल्य बोले ;- नरेश्वर! तुम्हारा कल्याण हो। तुम अपने नगर को जाओ। मैं शीघ्र आऊँगा। ऐसा कहकर राजा शल्य तथा दुर्योधन दोनों एक दूसरे से गले मिलकर विदा हुए। इस प्रकार शल्य से आज्ञा लेकर दुर्योधन पुनः अपने नगर को लौट आया और शल्य कुन्ती कुमार से दुर्योधन की वह करतूत सुनाने के लिये युधिष्ठिर के पास गये। विराट नगर के उपलव्य नामक प्रदेश में जाकर वे पाण्डवों की छावनी में पहुँचे और वहीं सब पाण्डवों से मिले। पाण्डव पुत्रों से मिलकर महाबाहु शल्य ने उनके द्वारा विधिपूर्वक दिये हुए पाद्य, अर्ध्य और गौको ग्रहण किया। तत्पश्चात शत्रुसूदन मद्रराज शल्य ने कुशल-प्रश्न के अनन्तर बड़ी प्रसन्नता के साथ युधिष्ठिर को हृदय से लगाया। इसी प्रकार उन्होंने हर्ष में भरे हुए दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को तथा अपनी बहिन के दोनों जुड़वे पुत्रों नकुल-सहदेव को भी गले लगाया। भारत! तदनन्तर द्रौपदी, सुभद्रा तथा अभिमन्यु ने महाबाहु शल्य के पास आकर उन्‍हें प्रणाम किया। उस समय उदारचेता धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने दोनों हाथ जोडकर शल्य से कहा। 

    युधिष्ठिर बोले ;- राजन! आपका स्वागत है इस आसन पर विराजिये।

वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा शल्य सुवर्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए। उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने सबको सुख देने वाले शल्य से कुशल-समाचार पूछा उन समस्त धर्मात्मा पाण्डवों से घिरकर आसन पर बैठे हुए राजा शल्य कुन्ती कुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले,

    शल्य बोले ;- 'नृपतिश्रेष्ठ कुरुनन्दन! तुम कुशल से तो हो न? विजयी वीरों में श्रेष्ठ नरेश! यह बडे सौभाग्य की बात है कि तुम बनवास के कष्ट से छुटकारा पा गये। ‘राजन! तुमने अपने भाइयों तथा इस द्रुपद कुमारी कृष्णा के साथ निर्जन वन में निवास करके अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है। ‘भारत! भयकंर अज्ञातवास करके तो तुम लोगों ने और भी दुष्कर कार्य सम्पन्न किया है। जो अपने राज्य से वंचित हो गया हो, उसे तो कष्ट ही उठाना पड़ता है, सुख कहाँ से मिल सकता है? शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! दुर्योधन के दिये हुए इस महान दुःख के अन्त में अब तुम शत्रुओं को मारकर सुख के भागी होओगे। 'महाराज! नरेश्वर! तुम्हें लोकतन्त्र का सम्यक् ज्ञान है। तात! इसीलिये तुम में लोभ जनित कोई भी बर्ताव नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 34-54 का हिन्दी अनुवाद)

     भारत! प्राचीन राजर्षियों के मार्ग का अनुसरण करो। तात युधिष्ठिर! तुम सदा दाम, तपस्या और सत्य में ही सलग्न रहो राजा युधिष्ठिर! क्षमा इन्द्रियसंयम, सत्य, अहिंसा तथा अद्भुत लोक-ये सब तुम में प्रतिष्ठत है। महाराज! तुम कोमल, उदार, ब्राहाण भक्त, दानी, तथा धर्मपरायण हो। संसार जिनका साक्षी है, ऐसे बहुत से धर्म तम्हें ज्ञात हैं। तात! परंतप! तुम्हें इस सम्पूर्ण जगत् का तत्त्व ज्ञात है। भरत श्रैष्ठ नरेश! तुम्हें इस महन संकट से पार हो गये, यह बड़े सौभाग्य की बात है। राजेन्द्र! तुम धर्मात्मा एवं धर्म की निधि हो। राजन! तुमने भाइयों सहित अपनी दुष्कर प्रतिज्ञा पूरी कर ली है और इस अवस्था में तुम्हें देख रहा हूँ यह मेरा अहो भाग्य है।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- तदनन्तर राजा शल्य ने दुर्योधन के मिलने, सेवा शुश्रषा करने और उसे अपने वरदान देने की सारी बातें कह सुनायी। 

    युधिष्ठिर बोले ;- वीर महाराज! आपने प्रसन्नचित्‍त होकर जो दुर्योधन को उसकी सहायता का वचन दे दिया, वह अच्छा ही किया। परन्तु पृथ्वीपते! आपका कल्याण हो। मैं आपके द्वारा अपना भी एक काम कराना चहाता हूँ। साधू शिरोमणे! वह न करने योग्य होने पर भी मेरी ओर देखते हुए आपको अवश्य करना चाहिये। वीरवर! सुनिये; मैं वह कार्य आपको बता रहा हूँ। महाराज! आप इस भूतल पर संग्राम में सारथि का काम करने के लिए वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण समान माने गये हैं। नृपशिरोमणे! जब कर्ण और अर्जुन के दैरथयुद्ध का अवसर प्राप्त होगा, उस समस भी आपको ही कर्ण के सारथि का काम करना पड़ेगा; इसमे तनिक संशय नहीं है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो उस युद्ध में आप को अर्जुन की रक्षा करनी होगी। आपका कार्य इतना ही होगा कि आप कर्ण का उत्साह भंग करते रहें। वही कर्ण से हमें विजय दिलाने वाला होगा। मामा जी! मेरे लिये यह न करने योग्य भी कार्य करें। 

    शल्य बोले ;- पाण्डुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी बात सुनो! युद्ध में महामना सूतपुत्र कर्ण के तेज और उत्‍साह को नष्ट करने के लिये तुम जो मुझसे अनुरोध करते हो, वह ठीक नहीं है। यह निश्चय है कि मैं उस युद्ध में उसका सारथि होऊँगा। स्वयं कर्ण भी सदा मुझे सारथि कर्म में भगवान श्रीकृष्ण के समान समझता है। कुरुक्षेष्ठ! जब


कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध की इच्छा करेगा, उस समय मैं अवश्य ही प्रतिकूल अहितकर वचन बोलूंगा, जिससे उसका अभिमान और तेज नष्ट हो जायेगा और युद्ध में सुखपूर्वक मारा जा सकेगा। पाण्डुनन्दन! मैं तुमसे यह सत्य कहता हूँ। तात! तुम मुझसे जो कुछ कह रहे हो, वह अवश्य पूर्ण करूँगा। इसके सिवा और भी जो कुछ मुझसे हो सकेगा, तुम्हारा वह प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। महातेजस्वी वीरवर युधिष्ठिर! तुमने द्यूतसभा में द्रौपदी के साथ जो दुःख उठाया है, सूतपूत्र कर्ण ने तुम्हें जो कठोर बातें सुनायी हैं तथा पूर्वकाल में दमयन्ती ने जैसे अशुभ (दुःख) भोगा था, उसी प्रकार द्रौपदी ने जटासुर तथा कीचक से जो महान क्लेश प्राप्त किया है, यह सभी दुःख भविष्य में तुम्हारे लिये सुख के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। इसके लिये तुम्हें खेद नहीं करना चाहिये; क्योंकि विधाता का विधान अति प्रबल होता है। युधिष्ठिर! महात्मा पुरुष भी समय-समय पर दुःख पाते हैं। पृथ्वीपते! देवताओं ने भी बहुत दुःख उठाये हैं। भरतवंशी नरेश! सुना जाता है कि पत्नी सहित महामना देवराज इन्द्र ने महान दुःख भोगा है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योग पर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्र के द्वारा त्रिशिरा का वध, वृत्रासुर की उतपत्ति उसके साथ इन्द्र का युद्ध तथा देवताओं की पराजय”

   युधिष्ठिर ने पूछा ;- राजेन्द्र! पत्नी सहित महामना इन्द्र ने कैसे अत्यन्त भयंकर दुःख प्राप्त किया था? यह मैं जानना चाहता हूँ।

      शल्य ने कहा ;- भरतवंशी नरेश! यह पूर्वकाल में घटित पुरातन इतिहास है। पत्नी सहित इन्द्र ने जिस प्रकार महान दुखः प्राप्त किया था, वह बताता हूँ, सुनो। त्वष्टा नाम से प्रसिद्ध एक प्रजापति थे, जो देवताओं में श्रेष्ठ और महान तपस्वी माने जाते थे। कहते हैं, उन्होंने इन्द्र के प्रति द्रोहबुद्धि हो जाने के कारण ही तीन सिर वाला पुत्र उत्पन्न किया। उस महातेजस्वी बालक का नाम था विश्वरूप। वह सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि के समान तेजस्वी एवं भयंकर अपने उन तीनों मुखों द्वारा इन्द्र का स्थान पाने की प्रार्थना करता था। वह अपने एक मुख से वेदों का स्वाध्याय करता, दूसरे से सुरा पीता और तीसरे से सम्पूर्ण दिशाओं की ओर इस प्रकार देखता था, मानो उन्हें पी जायेगा। शत्रुदमन! त्वष्टा का वह पुत्र कोमल स्वभाव वाला, तपस्वी, जितेन्द्रिय तथा धर्म और तपस्या के लिये सदा उद्यत रहने वाला था। उसका बड़ा भारी तीव्र तप दूसरों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। उस अमित तेजस्वी बालक का तपोबल तथा सत्य देख कर इन्द्र को बडा दुःख हुआ। वे सोचने लगे, 'कहीं यह इन्द्र न हो जाय। 'क्या उपाय किया जाय जिससे यह भोगों में आसक्त हो जाय और भारी तपस्या में प्रवृत्‍त न हो? क्योंकि यह वृद्धि को प्राप्त हुआ त्रिशिरा तीनों लोकों को अपना ग्रास बना लेगा'। भरतश्रेष्ठ! इस तरह बहुत सोच-विचार करके बुद्धिमान् इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र को लुभाने के लिये अप्सराओं को आज्ञा दी। अप्सराओ! जिस प्रकार त्रिशिरा कामभोगों में अत्यन्त आसक्त हो जाय, शीघ्र वैसा ही यत्न करो। जाओ, उसे लुभाओ, विलम्ब न करो। सुन्दरियो! तुम सब श्रृंगार के अनुरूप वेष धारण करके मनोहर हारों से विभूषित, हाव-भाव से संयुक्त तथा सौन्दर्य से सुशोभित हो विश्वरूप को लुभाओ। तुम्हारा कल्याण हो, मेरे भय को शान्त करो। वरांगनाओ! मैं अपने आपको अस्वस्थचित्त देख रहा हूँ, अतः अबलाओ! तुम मेरे इस अत्यन्त घोर भय का शीघ्र निवारण करो। 

     अप्सराएँ बोलीं ;- शक्र! बलनिषूदन! हम लोग विश्वरूप को लुभाने के लिये ऐसा यत्न करेंगी, जिससे उनकी ओर से आपको कोई भय नहीं प्राप्त होगा। देव! जो तपोनिध विश्वरूप अपने दोनों नेत्रों से सबको दग्ध करते हुए से विराज रहे हैं, उन्हें प्रलोभन में डालने के लिए हम सब अप्सराएँ एक साथ जा रही हैं। वहाँ उन्हें वश में करने तथा आपके भय को दूर हटाने के लिये हम पूर्ण प्रयत्न करेंगी।

    शल्य बोले ;- राजन! इन्द्र की आज्ञा पाकर वे सब अप्सराएँ त्रिशिरा के समीप गयीं। उन सुन्दरियों ने भाँति-भाँति के हाव-भावों


द्वारा उन्हें लुभाने का प्रयत्न किया तथा प्रतिदिन विश्वरूप को अपने अगों के सौन्दर्य का दर्शन कराया। तथापि वे महातपस्वी महर्षि उन सबको देखते हुए हर्ष आदि विकारों को नहीं प्राप्त हुए; अपितु वे इन्द्रियों को वश में करके पूर्वसागर के समान शान्तभाव से बैठ रहे। वे सब अप्सराएँ (त्रिशिरा को विचलित करने का) पूरा प्रयत्न करके पुनः देवराज इन्द्र की सेवा में उपस्थित हुईं और हाथ जोड़कर बोलीं,

    अप्सराएँ बोली ;- प्रभो! वे त्रिशिरा बड़े दुर्धर्ष तपस्वी हैं, उन्‍हें धैर्य से विचलित नहीं किया जा सकता। महाभाग! अब आपको जो कुछ करना हो, उसे कीजिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर! तब परम बुद्धिमान‍ इन्द्र ने अप्सराओं का आदर-सत्कार करके उन्हें विदा कर दिया और वे त्रिशिरा के वध का उपाय सोचने लगे। प्रतापी वीर बुद्धिमान देवराज इन्द्र चुपचाप सोचते हुए त्रिशिरा के वध के विषय में एक निश्चय पर पहुँच गये। (उन्होंने सोचा) आज मैं त्रिशिरा पर वज्र का प्रहार करूँगा जिससे वह तत्काल नष्ट हो जायेगा। बलवान् पुरुष को दुर्बल होने पर भी बढ़ते हुए अपने शत्रु की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। शास्त्रयुक्त बुद्धि से त्रिशिरा के वध का दृढ़ निश्चय करके क्रोध में भरे हुए इन्द्र ने अग्नि के समान तेजस्वी, घोर एवं भंयकर वज्र को त्रिशिरा की ओर चला दिया। उस वज्र की गहरी चोट खाकर त्रिशिरा मरकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो वज्र के आघात से टूटा हुआ पर्वत का शिखर भूतल पर पड़ा हो। त्रिशिरा को वज्र के प्रहार से प्राणशून्य होकर पर्वत की भाँति पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी देवराज इन्द्र को शान्ति नहीं मिली। वे उनके तेज से संतप्त हो रहे थे। क्योंकि वे मारे जाने पर भी अपने तेज से उद्दीप्त होकर जीवित-से दिखायी देते थे। युद्ध में मारे हुए त्रिशिरा के तीनों सिर जीते-जागते से अद्भुत प्रतीत हो रहे थे। इससे अत्यन्त भयभीत हो इन्द्र भारी सोच-विचार में पड़ गये। इसी समय एक बढ़ई कंधे पर कुल्हाड़ी लिये उधर आ निकला। महाराज! वह बढ़ई उसी वन में आया, जहाँ त्रिशिरा को मार गिराया गया था। डरे हुए शचीपति इन्द्र ने वहाँ अपना काम करते हुए बढ़ई को देखा। देखते ही पाकशासन इन्द्र ने तुरन्त उससे कहा,

      इन्द्र बोले ;- बढ़ई! तू शीघ्र इस शव के तीनों मस्तकों के टुकड़े-टुकड़े कर दे। मेरी इस आज्ञा का पालन कर। 

    बढ़ई ने कहा ;- इसके कंधे तो बड़े भारी और विशाल हैं। मेरी यह कुल्हाड़ी इस पर काम नहीं देगी और इस प्रकार किसी प्राणी की हत्या करना तो साधु पुरुषों-द्वारा निन्दित पाप कर्म है, अतः मैं इसे नहीं कर सकूँगा।

     इन्द्र ने कहा ;- बढ़ई! तू भय न कर। शीघ्र मेरी इस आज्ञा का पालन कर। मेरे प्रसाद से तेरी यह कुल्हाड़ी वज्र के समान हो जायेगी।

    बढ़ई ने पूछा ;- आज इस प्रकार भयानक कर्म करने वाले आप कौन हैं, यह कैसे समझूँ? मैं आपका परिचय सुनना चाहता हूँ। यह यथार्थ रूप से बताइये।

    इन्द्र ने कहा ;- बढ़ई! तुझे मालूम होना चाहिये कि मैं देवराज इन्द्र हूँ। मैंने जो कुछ कहा है, उसे शीघ्र पूरा कर। इस विषय में कुछ विचार न कर। 

    बढ़ई ने कहा ;- देवराज! इस क्रूर कर्म से आपको यहाँ लज्जा कैसे नहीं आती है? इस ऋषि कुमार की हत्या करने से ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, क्या उसका भय आपको नहीं है?

     इन्द्र ने कहा ;- यह मेरा महान शक्तिशाली शत्रु था, जिसे मैंने वज्र से मार डाला है। इसके बाद ब्रह्महत्या से अपनी शुद्धि करने के लिये मैं किसी ऐसे धर्म का अनुष्ठान करूँगा, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुष्कर हो। बढ़ई! यद्यपि यह मारा गया है, तो भी अभी तक मुझे इसका भय बना हुआ है। तू शीघ्र इसके मस्तकों के टुकड़े-टुकड़े कर दे। मैं तैरे ऊपर अनुग्रह करूँगा। मनुष्य हिंसा प्रधान तामस यज्ञों में पशु का सिर तेरे भाग के रूप में देंगे। बढ़ई! यह तेरे ऊपर मेरा अनुग्रह है अब तू जल्दी मेरा प्रिय कार्य कर।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 38-58 का हिन्दी अनुवाद)

     शल्य कहते हैं ;- राजन! यह सुनकर बढ़ई ने उस समय महेन्द्र की आज्ञा के अनुसार कुठार से त्रिशिरा के तीनों सिरों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। कट जाने पर उनके अंदर से तीन प्रकार के पक्षी बाहर निकले, कपिञ्जल, तीतर और गौरैये। जिस मुख से वे वेदों का पाठ करते तथा केवल सोमरस पीते थे, उससे शीघ्रतापूर्वक कपिञ्जल पक्षी बाहर निकले थे। युधिष्ठिर! जिसके द्वारा वे सम्पूर्ण दिशाओं को इस प्रकार देखते थे, मानो पी जायँगे, उस मुख से तीतर पक्षी निकले। भरतश्रेष्ठ! त्रिशिरा का जो मुख सुरापान करने वाला था, उससे गौरैये तथा वाज नामक पक्षी प्रकट हुए। उन तीनों सिरों के कट जाने पर इन्द्र की मानसिक चिन्ता दूर हो गयी। वे प्रसन्न होकर स्वर्ग लौट गये तथा बढ़ई भी अपने घर चला गया। उस बढ़ई ने भी अपने घर जाकर किसी से कुछ नहीं कहा। तदनन्तर इन्द्र ने ऐसा काम किया है, यह एक वर्ष तक किसी को मालूम नहीं हुआ। युधिष्ठिर! वर्ष पूर्ण होने पर भगवान पशुपति के भूतगण यह हल्ला मचाने लगे कि हमारे स्वामी इन्द्र ब्रह्महत्यारे हैं। तब पाकशासन इन्द्र ने ब्रह्महत्या से मुक्ति पाने के लिये कठिन व्रत का आचरण किया। वे देवताओं तथा मरुग्दणों के साथ तपस्या में संलग्न हो गये। उन्होंने समुद्र, पृथ्वी, वृक्ष तथा स्त्रीसमुदाय को अपनी ब्रह्महत्या बाँटकर उन सब को अभीष्ट वरदान दिया। इस प्रकार वरदायक इन्द्र ने पृथ्वी, समुद्र वनस्पति तथा स्त्रियों को वर देकर उस ब्रह्महत्या को दूर किया। तदनन्तर शुद्ध होकर भगवान इन्द्र देवताओं, मनुष्यों तथा महर्षियों से पूजित होते हुए अपने इन्द्रपद पर आसीन हुए। दैत्यों का संहार करने वाले इन्द्र ने शत्रु मारकर अपने आपको कृतार्थ माना। इधर त्वष्टा प्रजापति ने जब यह सुना कि इन्द्र ने मेरे पुत्र को मार डाला है, तब उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं ओर वे इस प्रकार बोले।

   त्वष्टा ने कहा ;- मेरा पुत्र सदा क्षमाशील, संयमी और जितेन्द्रिय रहकर तपस्या में लगा हुआ था, तो भी इन्द्र ने बिना किसी अपराध के उसकी हत्या की है। अतः मैं भी देवेंद्र के विनाश के लिये वृत्रासुर को उत्पन्न करूँगा। आज संसार के लोग मेरा पराक्रम तथा मेरी तपस्या का महान बल देखें। साथ ही वह पापात्मा और दुरात्मा देवेन्द्र भी मेरा महान तपोबल देख ले। ऐसा कहकर क्रोध में भरे हुए तपस्वी एवं महायशस्वी त्वष्टा ने आचमन करके अग्नि में आहुति दे घोर रूपवाले वृत्रासुर को उत्पन्न करके उससे कहा,

   त्वष्टा बोले ;- 'इन्द्रशत्रो! तू मेरी तपस्या के प्रभाव से खूब बढ़ जा'।


उनके इतना कहते ही सूर्य ओर अग्नि के समान तेजस्वी वृत्रासुर सारे आकाश को आक्रान्त करके बहुत कड़ा हो गया। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो प्रलयकाल का सूर्य उदित हुआ हो।

  वृत्रासुर ने पूछा ;- 'पिताजी मैं क्या करूँ?' 


तब त्वष्टा ने कहा ;- 'इन्द्र को मार डालो।' उनके ऐसा कहने पर वृत्रासुर स्वर्गलोक में गया। तदनन्तर वृत्रासुर तथा इन्द्र में बड़ा भारी युद्ध छिड़ गया। कुरुक्षेत्र! वे दोनों क्रोध में भरे हुए थे। उनमें अत्यन्त घोर संग्राम होेने लगा। तदनन्तर कुपित हुए वीर वृत्रासुर ने शतक्रतु इन्द्र को पकड़ लिया ओर मुँह बाकर उन्हें उसके भीतर डाल लिया। वृत्रासुर के द्वारा इन्द्र के ग्रस लिये जाने पर सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवता घबरा गये। तब उन महासत्त्वशाली देवताओं ने जँभाई की सृष्टि की, जो वृत्रासुर का नाश करने वाली थी। जँभाई लेते समय जब वृत्रासुर ने अपना मुख फैलाया, तब बलनाशक इन्द्र अपने अंगो को समेटकर बाहर निकल आये। तभी से सब लोगों के प्राणों में जृम्भा शक्ति का निवास हो गया। इन्द्र को उसके मुख से निकला हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर वृत्रासुर तथा इन्द्र में पुनः युद्ध होने लगा। भरतश्रेष्ठ! क्रोध में भरे हुए उन दोनों वीरों का वह भयानक संग्राम बहुत देर तक चलता रहा। वृत्रासुर त्वष्ठा के तेज और बल से व्याप्त हो जब युद्ध में अधिक बलशाली हो बढ़ने लगा, तब इन्द्र युद्ध से विमुख हो गये। इंद्र के विमुख होने पर सब देवताओं को बड़ा दुःख हुआ। भारत! त्वष्टा के तेज से मोहित हुए सब देवता देवराज इन्द्र तथा ऋषियों से मिलकर सलाह करेने लगे कि अब हमें क्या करना चाहिये? राजन! भय से मोहत हुए सब देवता बहुत देर तक सोच-विचार कर के मन ही मन अविनाशी परमात्मा भगवान विष्णु की शरण में गये और वे वृत्रासुर के वध की इच्‍छा से मन्दराचल के शिखर पर ध्यानस्थ होकर बैठ गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्र सहित देवताओं का भगवान विष्णु की शरण में जाना और इन्द्र का उनके अज्ञानुसार संधि करके अवसर पाकर उसे मारना एवं ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना”

    इन्द्र बोले ;- देवताओ! वृत्रासुर ने इस समपूर्ण जगत को आक्रान्त कर लिया है। इसके योग्य कोई ऐसा अस्त्र शस्त्र नहीं, है जो इसका विनाश कर सके। पहले मैं सब प्रकार से सामर्थ्यशाली था; किंतु इस समय असमर्थ हो गया हूँ। आप लोगों का कल्याण हो। बताइये, कैसे क्या काम करना चाहिये? मुझे तो वृत्रासुर दुर्जय प्रतीत हो रहा है। वह तेजस्वी और महाकाय है। युद्ध में उसके बल-पराक्रम की कोई सीमा नहीं है। वह चाहे तो देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपना ग्रास बना सकता है। अतः देवताओ! इस विषय में मेरे इस निश्चय को सुनो। हम लोग भगवान विष्णू के धाम में चलें और उन परमात्मा से मिलकर उन्‍हीं से सलाह करके उस दुरात्मा के वध का उपाय जानें।

     शल्य बोले ;- राजन! इन्द्र के ऐसा कहने पर पर ऋषियों-सहित सम्पूर्ण देवता सबके शरणदाता अत्यन्त बलशाली भगवान विष्णु की शरण में गये। वे सबके सब वृत्रासुर के भय से पीड़ित थे। उन्होंने देवेश्वर भगवान विष्णु से इस प्रकार कहा,

    ऋषियों व सम्पूर्ण देवता बोले ;- प्रभो! आपने पूर्वकाल में अपने


तीन डगों द्वारा सम्पूर्ण त्रिलोकी को माप लिया था। विष्णो! आपने ही (मोहिनी अवतार धारण करके) दैत्यों के हाथ से अमृत छीना एवं युद्ध में उन सबका संहार किया तथा महादैत्य बलि को बाँधकर इन्द्र को देवताओं का राजा बनाया। 'आप ही सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी हैं। आप से ही यह समस्त चराचर जगत व्याप्त है। महादेव! आप ही अखिल विश्ववन्दित देवता हैं। सुरश्रेष्ठ! आप इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के आश्रय हों। असुरसूदन! वृत्रासुर ने इस सम्पूर्ण जगत को आक्रान्त कर लिया है।

      भगवान विष्णु बोले ;- देवताओ! मुझे तुम लोगों का उत्‍तम हित अवश्य करना है। अतः तुम सबको एक उपाय बताऊँगा, जिससे वृत्रासुर का अन्त होगा। तुम लोग ऋषियों और गन्धर्वों के साथ वहीं जाओ, जहाँ विश्वरूपधारी वृत्रासुर विद्यमान हैं। तुम लोग उसके साथ संधि कर लो तभी उसे जीत सकोगे। देवताओ! मेरे तेज से इन्द्र की विजय होगी। मैं इनके उत्‍तम आयुध वज्र में अदृश्य भाव से प्रवेश करूँगा। देवेश्वरगण! तुम लोग ऋषियों तथा गन्धर्वों के साथ जाओ और इन्द्र के साथ वृत्रासुर की संधि कराओ। इसमें विलम्ब न करो।

     शल्य कहते हैं ;- राजन! भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर ऋषि तथा देवता एक साथ मिलकर देवेन्द्र को आगे करके वृत्रासुर के पास गये। समस्त महाबली देवता जब वृत्रासुर के समीप आये, तब वह अपने तेज से प्रज्वलित होकर दसों दिशाओं को तपा रहा था, मानो सूर्य और चन्द्रमा अपना प्रकाश बिखेर रहे हों। इन्द्र के साथ सम्पूर्ण देवताओं ने वृत्रासुर को देखा। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों तीनों लोकों को अपना ग्रास बना लेगा। उस समय वृत्रासुर के पास आकर ऋषियों नें उससे यह प्रिय वचन कहा,

    ऋषिगण बोले ;- दुर्जय वीर! तुम्हारे तेज से यह सारा जगत व्याप्त हो रहा है। बलवानों में श्रेष्ठ वृत्र! इतने पर भी तुम इन्द्र को जीत नहीं सकते। तुम दोनों को युद्ध करते बहुत समय बीत गया है। देवता ,असुर तथा मनुष्यों सहित सारी प्रजा इस युद्ध से पीड़ित हो रही है। अतः वृत्रासुर! हम चाहते हैं कि इन्द्र के साथ तुम्हारी सदा के लिये मैत्री हो जाय।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

    इससे तुम्हें सुख मिलेगा और इन्द्र के सनातन लोकों पर भी तुम्हारा अधिकार रहेगा। ऋषियों की यह बात सुनकर महाबली वृत्रासुर ने उन सब को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा,

    वृत्रासुर बोला ;- 'महाभाग देवताओ! महर्षियो तथा गन्धर्वो! आप सब लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सब मैने सुन लिया। निष्पाप देवगण! अब मेरी भी बात आप लोग सुनें। मुझमें और इन्द्र में संधि कैसे होगी? दो तेजस्वी पुरुषों में मैत्री का सम्बन्ध किस प्रकार स्थापित होगा?

    ऋषि बोंले ;- एक बार साधु पुरुषों की संगति की अभिलाषा अवश्य रखनी चाहिये। साधु पुरुषों का संग प्राप्त होने पर उससे परम कल्याण ही होगा। साधु पुरुषों के संग की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। अतः संतों का संग मिलने की अवश्य इच्छा करें। सज्जनों का संग सुदृढ़ एवं चिरस्थायी होता है। धीर संत महात्मा संकट के समय हितकर कर्तव्य का ही उपदेश देते हैं। साधु पुरुषों का संग महान अभीष्ट वस्तुओं का साधक होता है। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह सज्जनों को नष्ट करने की इच्छा न करें। इन्द्र सत्य पुरुषों के सम्माननीय हैं। महात्मा पुरुषों के आश्रय है, वे सत्यवादी, अनिन्दनीय, धर्मज्ञ तथा सूक्ष्म बुद्धिवाले हैं। ऐसे इन्द्र के साथ तुम्हारी सदा के लिये संधि हो जाय इस प्रकार तुम उनका विश्वास प्राप्त करो। तुम्हें इसके विपरीत कोई विचार नहीं करना चाहिये।

    शल्य कहते हैं ;- राजन! महर्षियों की यह बात सुनकर महातेजस्वी वृत्र ने उनसे कहा भगवन! आप जैसे तपस्वी महात्मा अवश्य ही मेरे लिये सम्मानीय हैं। देवताओ! मैं अभी जो कुछ कह रहा हूँ, वह सब यदि आप लोग स्वीकार कर लें, तो इन श्रेष्ठ महर्षियों ने मुझे जो आदेश दिये हैं, उन सब का मैं अवश्य पालन करूँगा। 'विप्रवरो! मैं देवताओं सहित इन्द्र द्वारा न सूखी वस्तु से; न गीली वस्तु से; न पत्थर से; न लकड़ी से; न शस्त्र से, न अस्त्र से; न दिन में और न रात में ही मारा जाऊँ। इस शर्त पर देवेन्द्र के साथ सदा के लिये मेरी संधि हो, तो मैं उसे पसंद करता हूँ'। भरतश्रेष्ठ! तब ऋषियों ने उससे 'बहुत अच्छा' कहा इस प्रकार संधि हो जाने पर वृत्रासुर को बड़ी प्रसन्नता हुई। इन्द्र भी हर्ष से भरकर सदा उससे मिलने लगे, परंतु वे वृत्र के वध सम्बन्धी उपायों को ही सोचते रहते थे। वृत्रासुर के छिद्र की (उसे मारने के अवसर की) खोज करते हुए देवराज इन्द्र सदा उद्विग्न रहते थे। एक दिन उन्होंने समुद्र के तट पर उस महान असुर को देखा। उस समय अत्यन्त दारुण संध्याकाल मुहुर्त उपस्थित था। भगवान इन्द्र ने परमात्मा श्री विष्णु के वरदान का विचार करके सोचा,- 'यह भयंकर संध्या उपस्थित है, इस समय न रात है, न दिन है, अतः अभी इस वृतासुर का अवश्य वध कर देना चाहिये; क्योंकि यह मेरा सर्वस्व हर लेने वाला शत्रु है। यदि इस महाबली, महाकाय और महान असुर वृत्र को धोखा देकर मैं अभी नहीं मार डालता हूँ, तो मेरा भला न होगा,। इस प्रकार सोचते हुए ही इन्द्र भगवान विष्णु का बार-बार स्मरण करने लगे। इसी समय उनकी समुद्र में उठते हुए पर्वताकार फेन पर पड़ी। उसे देखकर इन्द्र ने मन ही मन यह विचार किया कि यह न सूखा है न आर्द्र, न अस्त्र है न शस्त्र, अतः इसी को वृत्रासुर पर छोडूँगा, जिससे वह क्षणभर में नष्ट हो जायेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 39-50 का हिन्दी अनुवाद)

      यह देखकर इन्द्र ने तुरंत ही वृत्रासुर पर वज्रसहित फेन का प्रहार


किया। उस समय भगवान विष्णु ने उस फेन में प्रवेश करके वृत्रासुर को नष्ट कर दिया। वृत्रासुर मारे जाने पर सम्पूर्ण दिशाओं का अन्धकार दूर हो गया, शीतल-सुखद वायु चलने लगी और सम्पूर्ण प्रजा में हर्ष छा गया। तदनन्तर देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, महानाग तथा ऋषि भाँति-भाँति के स्त्रोतों द्वारा महेन्द्र की स्तुति करने लगे। शत्रु को मारकर देवताओं सहित इन्द्र का हृदय हर्ष से भर गया। समस्त प्राणियों ने उन्‍हें नमस्कार किया और उन्होंने उन सबको सान्त्वना दी। तत्पश्चात धर्मज्ञ देवराज ने तीनों लोकों के श्रेष्ठ आराध्य देव भगवान विष्णु का पूजन किया। इस प्रकार देवताओं को भय देने वाले महपराक्रमी वृत्रासुर के मारे जाने पर विश्वासघातरूपी असत्य से अभिभूत होकर इन्द्र मन ही मन बहुत दुखी हो गये त्रिशिरा के वध से उत्पन्न हुई ब्रह्म्हत्या ने तो उन्हें पहले से ही घेर रखा था।

      वे सम्पूर्ण लोकों की अंतिम सीमा पर जाकर बेसुध और अचेत होकर रहने लगे। वहाँ अपने ही पापों से पीड़ित हुए देवेंद्र का किसी को पता न चला। वे जल में विचरने वाले सर्प की भाँति पानी में ही छिपकर रहने लगे। ब्रह्म्हत्या के भय से पीड़ित होकर जब देवराज इन्द्र अदृश्य हो गये, तब यह पृथ्वी नष्ट सी हो गयी। यहाँ के वृक्ष उजड़ गये, जंगल सूख गये, नदियों का स्त्रोत छिन्न‌-भिन्न हो गया और सरोवरों का जल सूख गया। सब जीवों में अनावृष्टि के कारण क्षोभ उत्पन्न हो गया। देवता तथा सम्पूर्ण महर्षि भी अत्यन्त भयभीत हो गये। सम्पूर्ण जगत में अराजकता के कारण भारी उपद्रव होने लगे। स्वर्ग में देवराज इन्द्र के न होने से देवता तथा देवर्षि भी भयभीत होकर सोचने लगे- 'अब हमारा राजा कौन होगा?' देवताओं में से कोई भी स्वर्ग का राजा बनने का विचार नहीं करता था।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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