सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the 11 chapter to the 15 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“देवताओं तथा ऋषियों के अनुरोध से राजा नहुष का इन्द्र के पद पर अभिषिक्त होना एवं काम भोग में आसक्त होना और चिन्ता में पड़ी हुई इन्द्राणी को बृहस्पति का आश्वासन”

   शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार ऋषियों,सम्पूर्ण देवताओं एवं देवेश्वरों ने परस्पर मिलकर कहा,

   देवगण बोले ;- ये जो श्रीमान नहुष हैं, इन्हीं को देवराज के पद पर अभिषिक्त किया जाय; क्योंकि ये तेजस्वी, यशस्वी तथा नित्य निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले हैं ऐसा निश्चय करके वे सब लोग राजा नहुष के, पास जाकर बोले,


     देवगण बोले ;- 'पृथ्वीपते! आप हमारे राजा होइये'- राजन्! तब नहुष ने पितरों सहित उन देवताओं तथा ऋषियों से अपने हित की इच्छा से कहा,

    नहुष बोले ;- 'मैं तो दुर्बल हूँ, मुझमें आप लोगों की रक्षा करने की शक्ति नहीं है। बलवान पुरुष ही राजा होता है। इन्द्र में ही बल की नित्य सत्ता है।' यह सुनकर सम्पूर्ण देवता तथा ऋषि पुनः उनसे बोले,

   देवगण बोले ;- 'राजेन्द्र! आप हमारी तपस्या से संयुक्त हो स्वर्ग के राज्य का पालन कीजिये। हम लोगों में प्रत्येक को एक दूसरे से घोर भय बना रहता है, इसमें संशय नहीं है। अतः आप अपना अभिषेक कराइये, स्वर्ग के राजा होइये। देवता, दानव, यक्ष, ऋषि, राक्षस, पितर, गन्धर्व और भूत-जो भी आपके नेत्रों के सामने आ जायँगें, उन्हें देखते ही आप उनका तेज हर लेगें और बलवान हो जायँगें। अतः सदा धर्म को सामने रखते हुए आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति होइये। आप स्वर्ग में रहकर ब्रह्मर्षियों तथा देवताओं का पालन कीजिये।'

    युधिष्ठिर! तदनन्तर राजा नहुष स्वर्ग में इन्द्र के पद पर अभिषेक हुआ। धर्म को आगे रखकर उस समय राजा नहुष सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हो गये। वे परम दुर्लभ वर पाकर स्वर्ग के राज्य को हस्तगत करके निरन्तर धर्मपरायण रहते हुए भी काम भोग में आसक्त हो गये। देवराज नहुष सम्पूर्ण देवोद्यानों में, नन्दनवन के उपवनों में, कैलाश में, हिमालय के शिखर पर मन्दराचल, श्वेतगिरि, सह्य महेन्द्र तथा मलयपर्वत पर एवं समुद्रों और सरिताओं में, अप्सराओं तथा देव कन्याओं के साथ भाँति-भाँति क्रीडाएँ करते थे, कानों और मन को आकर्षित करने वाली नाना प्रकार की दिव्य कथाएँ सुनते थे तथा सब प्रकार के वाद्यों और मधुर स्वर से गाये जाने वाले गीतों का आनन्द लेते थे।

     विश्वावसु, नारद, गन्धर्वों और अप्सराओं के समुदाय तथा छहों ऋतुएँ शरीर धारण करके देवेन्द्र की सेवा में उपस्थित होती थीं। उनके लिये वायु मनोहर, सुखद, शीतल ओर सुगन्धित होकर बहते थे। इस प्रकार क्रीडा करते हुए दुरात्मा राजा नहुष की दृष्टि एक दिन देवराज इन्द्र की प्यारी महारानी शची पर पड़ी। उन्‍हें देखकर दुष्टात्मा नहुष ने समस्त सभासदों से कहा,

    राजा नहुष बोले ;- 'इन्द्र की महारानी शची मेरी सेवा में क्यों नहीं उपस्थित होती? मैं देवताओं का इन्द्र हूँ और सम्पूर्ण लोकों का अधीश्वर हूँ। अत: शचीदेवी आज मेरे महल में शीघ्र पधारें।' यह सुनकर शचीदेवी मन ही मन बहुत दुखी हुईं और बृहस्पति से बोलीं,

     शची देवी बोली ;- 'ब्रह्मन! मैं आपकी शरण में आयी हूँ, आप नहुष से मेरी रक्षा कीजिये। विप्रवर! आप मुझसे कहा करते हैं कि तुम


समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, देवराज इन्द्र की प्राणवल्लभा, अत्यन्त सुखभागिनी, सौभाग्यवती, एक पत्नी और पतिव्रता हो। भगवन! आपने पहले जो वैसी बातें कही हैं, अपनी उन वाणियों को सत्य कीजिये। देवगुरो! आपके मुख से पहले कभी कोई व्यर्थ या असत्य वचन नहीं निकला है, अतः द्विजश्रेष्ठ! आपका यह पूर्वोक्त वचन भी सत्य होना चाहिये।'

 यह सुनकर बृहस्पति ने भय से व्याकुल हुई इन्द्राणी से कहा,

    ब्रहस्पति बोले ;- 'देवि! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब अवश्य सत्य होगा। तुम शीघ्र ही देवराज इन्द्र को यहाँ आया हुआ देखोगी। नहुष से तुम्हें डरना नहीं चाहिये। मै सच्ची बात कहता हूँ, थोडे ही दिनों में तुम्हे इन्द्र से मिला दूँगा।' जब राजा नहुष ने सुना कि इन्द्राणी अंगिरा के पुत्र बहस्पति की शरण में गयी है, तब वे बहुत कुपित हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योग पर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“देवता-नहुष-संवाद, बृहस्पति के द्वारा इन्द्राणी रक्षा तथा इन्द्राणी का नहुष के पास कुछ समय की अवधि माँगने के लिये जाना”

     शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! देवराज नहुष को क्रोध में भरे हुए देख देवता लेाग ऋषियों को आगे करके उनके पास गये। उस समय उनकी दृष्टि बड़ी भयंकर प्रतीत होती थी। देवताओं तथा ऋषियों ने कहा। 'देवराज! आप क्रोध छोड़ें। प्रभो! आपके कुपित होने से असुर, गन्धर्व, किन्नर ओर महानागगणों सहित सम्पूर्ण जगत भयभीत हो उठा है।' 'साधो! आप इस क्रोध को त्याग दीजिये। आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष दूसरों पर कोप नहीं करते हैं। अतः प्रसन्न होइये। सुरेश्वर! शची देवी दूसरे इन्द्र की पत्नी हैं। 'परायी स्त्रियों का स्पर्श पापकर्म है। उससे मन को हटा लीजिये। आप देवताओं के राजा हैं। आपका कल्याण हो। आप धर्मपूर्वक प्रजा का पालन कीजिये।' उनके ऐसा कहने पर भी काममोहित नहुष ने उनकी बात नहीं मानी। उस समय देवेश्वर नहुष ने इन्द्र के विषय में देवताओं से इस प्रकार कहा,

   नहुष बोले ;- 'देवताओ! जब इन्द्र ने पूर्वकाल में यशस्विनी ऋषि- पत्नी अहल्या उसके पति गौतम के जीते-जी सतीत्व नष्ट किया था, उस समय आप लोगों ने उन्‍हें क्यों नहीं रोका? 'प्राचीनकाल में इन्द्र ने बहुत से क्रूरतापूर्ण कर्म किये हैं। अनेक अधार्मिक कृत्य तथा छल-कपट उनके द्वारा हुए हैं। उन्हें आप लोगों ने क्योें नहीं रोका था? 'शची देवी मेरी सेवा में उपस्थित हों। इसी में इनका परम हित है तथा देवताओ! ऐसा होने पर ही सदा तुम्हारा कल्याण होगा।'

    देवता बोले ;- स्वर्ग लोक के स्वामी वीर देवेश्वर! आपकी जैसी इच्छा है, उसके अनुसार हम लोग इन्द्राणी को आपकी सेवा में ले आयेंगे। आप यह क्रोध छोड़िये और प्रसन्न होइये।

    शल्य ने कहा ;- युधिष्ठिर! नहुष से ऐसा कहकर उस समय सब देवता ऋषियो के साथ इन्द्राणी से यह व अशुभ वचन कहने के लिये बृहस्पतिजी के पास गये। उन्होंने कहा,

    देवता बोले ;- 'देवर्षिप्रवर! विप्रेन्द्र! हमें पता लगा है कि इन्द्राणी आपकी शरण में आयी हैं और आपके ही भवन में रही हैं। आपने उन्हें अभय-दान दे रक्खा है। 'महाद्युते! अब ये देवता, गन्धर्व तथा ऋषि आपको इस बात के लिये प्रसन्न करा रहे हैं कि आप इन्द्राणी को राजा नहुष की सेवा में अर्पण कर दीजिये। 'इस समय महातेजस्वी नहुष देवताओं के राजा हैं। अतः इन्द्र से बढ़कर हैं। सुन्दर रूप रंग वाली शची इन्‍हें अपना पति स्वीकार कर लें।' 'देवताओं के यह बात कहने पर शची देवी आँसू बहाती हुई फूट-फूटकर रोने लगीं और दीनभाव से बृहस्पतिजी को सम्बोधित करके इस प्रकार बोलीं,

   शची बोली ;- 'देवर्षियों में श्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! मैं नहुष को अपना पति बनाना नहीं चाहती; इसीलिए आपकी शरण में आयी हूँ। आप इस महान भय से मेरी रक्षा कीजिये।'

    बृहस्पति ने कहा ;- इन्द्राणी! मैं शरणागत का त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा दृढ़ निश्चय है। अनिन्दिते! तुम धर्मज्ञ और सत्यशील हो; अतः मैं तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा। विशेषतः ब्राह्मण होकर मैं यह न करने योग्य कार्य नहीं कर सकता। मैंने धर्म की बातें सुनी हैं और त्याग को अपने स्वभाव में उतार लिया है। शास्त्रों में जो धर्म का उपदेश किया है, उसे भी जानता हूँ; अतः मैं यह पापकर्म नहीं करूँगा। सुरश्रेष्ठगण! आप लोग लौट जायँ। इस विषय में ब्रह्मजी ने पूर्वकाल में जो गीत गाया था, वह इस पर प्रकार है, सुनिये। जो भयभीत होकर शरण में आये हुए प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसका बोया हुआ बीज समय पर नहीं जमता है। उसके यहाँ ठीक समय पर वर्षा नहीं होती और वह जब कभी अपनी रक्षा चाहता है, तो उसे कोई रक्षक नहीं मिलता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

     जो भयभीत शरणागत को शत्रु के हाथ में सौंप देता है, वह दुर्बलचित्त मानव जो अन्न ग्रहण करता है, वह व्यर्थ हो जाता है। उसके सारे उद्यम नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग लोक से नीचे गिर जाता है। इतना ही नहीं देवता लोग उसके दिये हुये हविष्य को स्वीकार नहीं करते हैं। उसकी संतान अकाल में ही मर जाती है। उसके पितर सदा नरक में निवास करते हैं। जो भयभीत शरणागत को शत्रु के हाथ में दे देता है, उस पर इन्द्र आदि देवता वज्र का प्रहार करते हैं। इस प्रकार ब्रह्मजी के उपदेश के अनुसार शरणागत के त्याग से होने वाले अधर्म को मैं निश्चित रूप से जानता हूँ; अतः जो सम्पूर्ण विश्व में इन्द्र की पत्नी तथा देवराज की प्यारी पटरानी के रूप में विख्यात हैं, उन्‍हीं इन शची देवी को मैं नहुष के हाथ में नहीं दूँगा। श्रेष्ठ देवताओ! जो इनके लिये हितकर हो, जिससे मेरा भी हित हो, वह कार्य आप लोग करें। मैं शची को कदापि नहीं दूँगा।

   शल्य कहते हैं ;- राजन! तब देवताओं तथा गन्धर्वों ने गुरु से इस प्रकार कहा,

     देवगण बोले ;- बृहस्पते! आप ही सलाह दीजिये कि किस उपाय का अवलम्बन करने से शुभ परिणाम होगा?

    बृहस्पति जी ने कहा ;- देवगण! शुभलक्षणा शची देवी नहुष से कुछ समय की अवधि माँगे। इसी से इनका और हमारा भी हित होगा। देवताओ! समय अनेक प्रकार के विध्नों से भरा होता है। इस समय नहुष आप लोगों के वरदान के प्रभाव से बलवान और गर्बीला हो गया है। काल ही उसे काल के गाल में पहुँचा देगा।

    शल्य कहते हैं ;- राजन! उनके इस प्रकार सलाह देने पर देवता बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले,

   देवगण बोले ;- 'ब्रह्मन! आपने बहुत अच्छी बात कही है। इसी में सम्पूर्ण देवताओं का हित है।' 'द्विजश्रेष्ठ! इसी बात के लिये शची देवी को राजी कीजिये।' तदनन्तर अग्नि आदि सब देवता इन्द्राणी के पास जा समस्त लोेकों के हित के लिये शान्तभाव से इस प्रकार बोले।

     देवता बोले ;- देवि! यह समस्त चराचर जगत तुमने ही धारण कर रक्खा है, कयोंकि तुम पतिव्रता और सत्यपरायणा हो। अतः तुम नहुष के पास चलो। देवेश्वरि! तुम्हारी कामना करने के कारण पापी नहुष शीघ्र नष्ठ हो जायेगा ओर इन्द्र पुनः अपने देवसाम्राज्य को प्राप्त कर लेंगे। अपनी कार्य सिद्धि के लिये ऐसा निश्चय करके इन्द्राणी भयंकर दृष्टि वाले नहुष के पास बड़े संकोच के साथ गयी। नयी अवस्था और सुन्दर रूप से सुशोभित इन्द्राणी को देखकर दुष्टात्मा नहुष बहुत प्रसन्न हुआ। काम भावना से उसकी बुद्धि मारी गयी थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत सेनोद्योग पर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“नहुष का इन्द्राणी को कुछ काल की अवधि देना, इन्द्र का ब्रह्महत्या से उद्धार तथा शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना”

     शल्य कहते हैं ;- उस समय देवराज नहुष ने इन्द्राणी को देखकर कहा,

नहुष बोले ;- 'शुचिस्मिते! मैं तीनों लोकों का स्वामी इन्द्र हूँ। उत्‍तम रूप-रंगवाली सुन्दरी! तुम मुझे अपना पति बना लो।' नहुष के ऐसा कहने पर पतिव्रता देवी शची भय से उद्विग्न हो तेज हवा में हिलने वाले केले के वृक्ष की भाँति काँपने लगीं। उन्होंने मस्तक झुकाकर ब्रह्माजी को प्रणाम किया और भयंकर दृष्टिवाले देवराज नहुष से हाथ जोड़कर कहा,

      देवी शची बोली ;- 'देवेश्वर! मैं आप से कुछ समय की अवधि लेना चाहती हूँ।' 'अभी यह पता नहीं है कि देवेन्द्र किस अवस्था में पड़े हैं? अथवा कहाँ चले गये हैं?' प्रभो! इसका ठीक-ठीक पता लगाने पर यदि कोई बात मालूम नहीं हो सकी, तो मैं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगी। यह मैं आप से सत्य कहती हूँ। इन्द्राणी के ऐसा कहने पर नहुष को बड़ी प्रसन्नता हुई।

      नहुष बोले ;- सुन्दरी! तुम मुझसे यहाँ जैसा कह रही हो ऐसा ही हो। इसके अनुसार पता लगाकर तुम्हें मेरे पास आ जाना चाहिये; इस सत्य को सदा याद रखना। नहुष से विदा लेकर शुभलक्षणा यशस्विनी शची उस स्थान से निकली और पुनः बृहस्पति जी के भवन में चली गयी। 

   नृष श्रेष्ठ! इन्द्राणी की बात सुनकर अग्नि आदि सब देवता एकाग्रचित्त होकर इन्द्र की खोज करने के लिये आपस में विचार करने


लगे। फिर बातचीत में कुशल देवगण सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति के कारण भूत देवाधिदेव भगवान विष्णु से मिले और भय से उद्विग्न हो उनसे इस प्रकार बोले,

  देवता बोले ;- 'देवेश्वर! देवसमुदाय के स्वामी इन्द्र ब्रह्महत्या से अभिभूत होकर कहीं छिप गये हैं। भगवन! आप ही हमारे आश्रय और सम्पूर्ण जगत के पूर्वज तथा प्रभु हैं। 'आपने समस्त प्राणियों की रक्षा के लिये विष्णु रूप धारण किया है। यद्यपि वृत्रासुर आपकी ही शक्ति से मारा गया है तथापि इन्द्र को ब्रह्महत्या ने आक्रान्त कर लिया है। सुरगण श्रेष्ठ! अब आप ही उनके उद्धार का उपाय बताइये।' देवताओं की यह बात सुनकर,

    भगवान विष्णु बोले ;- 'इन्द्र यज्ञों द्वारा केवल मेरी ही अराधना करें, इससे मैं वज्रधारी इन्द्र को पवित्र कर दूँगा। पाकशासन इन्द्र पवित्र अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा मेरी आराधना करके पुनः निर्भय हो देवेन्द्र-पद को प्राप्त कर लेंगे और खोटी बुद्धिवाला नहुष अपने कर्मों से ही नष्ट हो जायेगा। देवताओ! तुम आलस्य छोड़कर कुछ काल तक और यह कष्ट सहन करो।' भगवान विष्णु की यह शुभ, सत्य तथा अमृत के समान मधुर वाणी सुनकर गुरु तथा महर्षियों सहित सब देवता उस स्थान पर गये, जहाँ भय से व्याकुल हुए इन्द्र छिपकर रहते थे। नरेश्वर! वहाँ महात्मा महेन्द्र की शुद्धि के लिये एक महान अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान हुआ, जो ब्रह्महत्या को दूर करने वाला था। युधिष्ठिर! इन्द्र ने वृक्ष, नदी, पर्वत, पृथ्वी और स्त्री समुदाय में ब्रह्महत्या को बाँट दिया। इस प्रकार समस्त भूतों में ब्रह्महत्या का विभाजन करके देवेश्वर इन्द्र ने उसे त्याग दिया और स्वयं मन को वश में करके निष्पाप तथ निश्चिन्त हो गये। परन्तु बल नामक दानव का नाश करने वाले इन्द्र जब अपना स्थान ग्रहण करने के लिये स्वर्गलोक में आये, तब उन्होंने देखा- नहुष देवताओं के वरदान से अपनी दृष्टि मात्र से समस्त प्राणियों के तेज को नष्ट करने में समर्थ और दुःसह हो गया है। यह देखकर वे काँप उठे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 22-27 का हिन्दी अनुवाद)

     तदनन्तर शचीपति इन्द्रदेव पुनः सबकी आँखों से ओझल हो गये तथा अनुकूल समय की प्रतीक्षा करते हुए समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर विचरने लगे। इन्द्र के पुनः अदृश्य हो जाने पर शची देवी शोक में डूब गयीं और अत्यन्त दुखी हो 'हा इन्द्र! हा इन्द्र!' कहती हुई विलाप करने लगीं। तत्पश्चात वे इस प्रकार बोलीं,

     देवी शची बोली ;- 'यदि मैंने दान दिया हो, होम किया हो, गुरुजनों को संतुष्ट रखा हो तथा मुझमें सत्य विद्यमान हो, तो मेरा पातिव्रत्य सुरक्षित रहे। 'उत्‍तरायण के दिन जो यह पुण्य एवं दिव्य रात्रि आ रही है, उसकी अधिष्ठात्री देवी रात्रि को मैं नमस्कार करती हूँ, मेरा मनोरथ सफल हो।' ऐसा कहकर शची ने मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर रात्रि देवी की उपासना की। पतिव्रता तथा सत्यपरायणा होने के कारण उन्होंने उपश्रुति नामावली रात्रिदेवी का आवाहन किया और उनसे कहा,

    शची बोली ;- 'देवि! जहाँ देवराज इन्द्र हों, वह स्थान मुझे दिखाइये। सत्य का सत्य से ही दर्शन होता है।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्दश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“उपश्रुति देवी की सहायता से इन्द्राणी की इन्द्र से भेंट”

    शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर उपश्रुति देवी मूर्तिमती होकर साध्वी शचीदेवी के पास आयीं। नूतन बय तथा मनोहर रूप से सुशोभित उपश्रुति देवी को उपस्थित हुई देख इन्द्राणी का मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने उनका पूजन करके कहा,
    देवी शची बोली ;- सुमुखि! मैं आपको जानना चाहती हूँ, बताइये आप कौन हैं?
      उपश्रुति बोली ;- देवि! मैं उपश्रुति हूँ और तुम्हारे पास आयी हूँ। भामिनि! तुम्हारे सत्य से प्रभावित होकर मैंने तुम्हें दर्शन दिया है। तुम पतिव्रता होने के साथ ही यम और नियम से संयुक्त हो, अतः मैं तुम्हें वृत्रासुर निषूदन इन्द्रदेव का दर्शन कराऊँगी। तुम्हारा कल्याण हो! तुम शीघ्र मेरे पीछे-पीछे चली आओ। तुम्हें सुरश्रेष्ठ देवराज के दर्शन होंगे। ऐसा कहकर उपश्रुति देवी वहाँ से चल दी; फिर इन्द्राणी भी उनके पीछे हो लीं। देवताओं के अनेकानेक वन, बहुत से पर्वत तथा हिमालय को लाँघकर उपश्रुति देवी उसके उत्‍तर भाग में जा पहुँची। तदनन्तर अनेक योजनों तक फैले हए समुद्र के पास पहुचकर उन्होंने एक महाद्वीप में प्रवेश किया, जो नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से सुशोभित था। वहाँ एक दिव्य सरोवर दिखायी दिया, जिसमें अनेक प्रकार के जल-पक्षी निवास करते थे। वह सुन्दर सरोवर सौ योजन लंबा औैर उतना ही चौड़ा था। भारत! उसके भीतर सहस्रों कमल खिले हुए थे, जो पाँच रंग के दिखायी देते थे। उन पर मँडराते हुए भौंरे गुनगुना रहे थे। उक्त सरोवर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ी सुन्दर कमलिनी थी, जिसे एक ऊँची नाल वाले गौर वर्ण के विशाल कमल ने घेर रखा था। उपश्रुति देवी ने उस कमलनाल को चीरकर इन्द्राणी सहित उस कमल के भीतर प्रवेश किया और वहीं एक तन्तु में घुसकर छिपे हुए शतक्रतु इन्द्र को देखा। अत्यन्त सूक्ष्म रूप से अवस्थित भगवान इन्द्र को वहाँ देखकर देवी उपश्रुति तथा इन्द्राणी ने भी सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। इन्द्राणी ने पहले के विख्यात कर्मों का बखान करके इन्द्रदेव का स्तवन किया। अपनी स्तुती सुनकर इन्द्रदेव ने शची से कहा,
     इन्द्र देव बोले ;- 'देवी! तुम किसलिये यहाँ आयी हो और तुम्हें

कैसे मेरा पता लगा है?' तब इन्द्राणी ने नहुष की कुचेष्टा का वर्णन किया। 'शतक्रतो! तीनों लोकों के इन्द्र का पद पाकर नहुष बल पराक्रम से सम्पन्न हो घमंड में भर गया है। उस दुष्टात्मा ने मुझसे भी कहा है कि तू मेरी सेवा में उपस्थित हो। उस क्रूर नरेश ने मेरे लिये कुछ समय की अवधि दी है। प्रभो! यदि आप मेरी रक्षा नहीं करेंगे तो वह पापी मुझे अपने वश में कर लेगा। महाबाहु इन्द्र! इसी कारण मैं शीघ्रतापूर्वक आपके निकट आयी हूँ। पापपूर्ण विचार रखने वाले उस भयानक नहुष को आप मार डालिये। 'देत्यदानवसूदन प्रभो! अब आप अपने आपको प्रकाश में लाइये, तेज प्राप्त कीजिये और देवताओं के राज्य का शासन अपने हाथ में लीजिये।'

(इसप्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

पन्द्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्रकी आज्ञा से इन्द्राणीके अनुरोधपर नहुषका ऋषियों को अपना वाहन बनाना तथा बृहस्पति और अग्निका संवाद”

   शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! शचीदेवी के ऐसा कहने पर भगवान इन्द्र ने पुनः उनसे कहा,
    इन्द्र बोले ;- देवि! यह पराक्रम करने का समय नहीं है। आजकल नहुष बहुत बलवान हो गया है। भामिनि! ऋषियों ने हव्य और कव्य देकर उसकी शक्ति को बहुत बढ़ा दिया है। अतः मैं यहाँ नीति से काम लूँगा। देवि! तुम उसी नीति का पालन करो। 'शुभे! तुम्हें गुप्तरूप से यह कार्य करना है। कहीं (भी इसे) प्रकट न करना। सुमध्यमे! तुम एकान्त में नहुष के पास जाकर कहो, जगतपत्ये! आप दिव्य ऋषियानपर बैठकर मेरे पास आइये। ऐसा होने पर मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके वश में हो जाऊँगी।' देवराज के इस प्रकार आदेश देने पर कमल नयनी पत्नी शची 'एवमस्तु' कहकर नहुष के पास गयी। उन्हें देखकर नहुष मुसकराया और इस प्रकार बोला,
     नहुष बोले ;- 'वरारोहे! तुम्हारा स्वागत है। शुचिस्म्तिे! कहो,तुम्हारी क्या सेवा करूँ? कल्याणि! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मुझे स्वीकार करो। मनस्विनि! तुम क्या चाहती हो? सुमध्यमे! तुम्हारा जो भी कार्य होगा, उसे मैं सिद्ध करूँगा। सुश्रोणि! तुम्हें मुझसे लज्जा नहीं करनी चाहिये। मुझ पर विश्वास करो। देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूँगा।
     इन्द्राणी बोली ;- जगत्पते! आपके साथ जो मेरी शर्त हो चुकी है, उसे मैं पूर्ण करना चाहती हूँ। सूरेश्वर! फिर तो आप ही मेरे पति होंगे। देवराज! मेरे हृदय में एक कार्य की अभिलाषा है, उसे बताती हूँ, सुनिये। राजन! यदि आप मेरे इस प्रिय कार्य को पूर्ण कर देंगे, प्रेमपूर्वक कही हुई मेरी यह बात मान लेंगे तो मैं आपके अधीन हो जाऊँगी। सुरेश्वर! पहले जो इन्द्र थे, उनके वाहन हाथी, घोडे़ तथा रथ आदि रहे हैं, परंतु आपका वाहन उनसे सर्वथा विलक्षण-अपूर्व हो, ऐसी मेरी इच्छा है। वह वाहन ऐसा होना चाहिये, जो भगवान विष्णु, रुद्र, असुर तथा राक्षसों के भी उपयोग में न आया हो। प्रभो! महाभाग सप्तर्षि एकत्र होकर शिबिका द्वारा आपका वहन करें। राजन! यही मुझे अच्छा लगता है। आप अपने पराक्रम से तथा दृष्टिपात करने मात्र से सबका तेज हर लेते हैं। देवताओं तथा असुरो में कोई भी आपकी समानता करने वाला नहीं है। कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, आपके सामने ठहर नहीं सकता है।
     शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इन्द्राणी के ऐसा कहने पर देवराज नहुष बड़े प्रसन्न हुए और उस सती-साध्वी देवी से इस प्रकार बोले।
     नहुष ने कहा ;- सुन्दरि! तुमने तो यह अपूर्व वाहन बताया। देवि! मुझे भी वही सवारी अधिक पसंद है। सुमुखि! मैं तुम्हारे वश में हूँ। जो ऋषियों को भी अपना वाहन बना सके उस पुरुष में थोड़ी शक्ति नहीं होती है। मैं तपस्वी, बलवान तथा भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का स्वामी हूँ। मेरे कुपित होने पर यह संसार मिट जायेगा। मुझ पर ही सब कुछ टिका हुआ है। शुचिस्मिते! यदि मैं क्रोध में भर जाऊँ तो यह देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस और सम्पूर्ण लोक मेरा सामना नहीं कर सकते है। मैं अपनी आँख से जिसको देख लेता हूँ, उसका तेज हर लेता हूँ। अतः देवि! मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगा, इसमें संशय नहीं है। सम्पूर्ण सप्तर्षि और ब्रह्मर्षि मेरी पालकी ढोयेंगे। वरवर्णिनि! मेरे माहात्मय तथा समृद्धि को तुम प्रत्यक्ष देख लो।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचदश अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)

     शल्य कहते हैं ;- राजन! सुन्दर मुखवाली शची देवी से ऐसा कहकर नहुष ने उन्‍हें विदा कर दिया और यम नियम का पालन करने वाले बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का अपमान करके अपनी पालकी में जोत दिया। वह ब्राह्मण द्रोही नरेश बल पाकर उन्मत्त हो गया था। मद और बल से गर्वित हो स्वेच्छाचारी दुष्टात्मा नहुष ने उन महर्षियों को अपना वाहन बनाया। उधर नहुष से विदा लेकर इन्द्राणी बृहस्पति के यहाँ गयीं और इस प्रकार बोलीं,
     इन्द्राणी बोली ;- देवगुरो! नहुष ने मेरे लिये जो समय निश्चित किया है, उसमें थोड़ा ही शेष रह गया है। 'आप शीघ्र इन्द्र का पता लगाइये। मैं आपकी भक्त हूँ। मुझ पर दया कीजिये।' तब भगवान बृहस्पति ने 'बहुत अच्छ' कहकर उनसे इस प्रकार कहा,
    ब्रहस्पति बोले ;- 'देवि! तुम दुष्टात्मा नहुष से डरो मत। यह नराधम अब अधिक समय तक यहाँ ठहर नहीं सकेगा। इसे गया हुआ ही समझो।' 'शुभे! यह पापी धर्म को नहीं जानता। अतः महर्षियों को अपना वाहन बनाने के कारण शीघ्र नीचे गिरेगा। इसके सिवा मैं भी इस दुर्बुधि नहुष के विनाश के लिये एक यज्ञ करूँगा। साथ ही इन्द्र का भी पता लगाऊँगा। तुम डरो मत तुम्हारा कल्याण होगा।' तदनन्तर महातेजस्वी बृहस्पति ने देवराज की प्राप्ति के लिये विधि पूर्वक अग्नि को प्रज्वलित करके उसमें उत्‍तम हविष्य की आहुति दी। राजन! अग्नि में आहुति देकर उन्होंने अग्निदेव से कहा,
    ब्रहस्पति बोले ;- 'आप इन्द्रदेव का पता लगाइये।' उस हवन

कुण्ड से साक्षात भगवान अग्निदेव प्रकट होकर अद्भुत स्त्रीवेष धारण करके वहीं अन्तर्धान हो गये। मन के समान तीव्र गतिवाले अग्निदेव सम्पूर्ण दिशाओं, विदिशाओं, पर्वतों और वनों तथा भूतल और अकाश में भी इन्द्र की खोज करके पलभर में बृहस्पिति के पास लौट आये।
     अग्निदेव बोले ;- बृहस्पते! मैं देवराज को तो इस संसार में कहीं नहीं देख रहा हूँ, केवल जल शेष रह गया है, जहाँ उनकी खोज नहीं की है। परन्तु मैं कभी भी जल में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकता। ब्रह्मन्! जल में मेरी गति नहीं है। इसके सिवा तुम्हारा दूसरा कौंन कार्य मैं करूँ? 
      तब देवगुरु ने कहा ;- 'महाद्युते! आप जल में भी प्रवेश कीजिये।'
       अग्निदेव बोले ;- मैं जल में नहीं प्रवेश कर सकूँगा; क्योंकि उसमें मेरा विनाश हो जायेगा! महातेजस्वी बृहस्पते! मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। जल से अग्नि,ब्राह्म्ण से क्षत्रिय तथा पत्थर से लोहे की उत्पत्ति हुई है। इनका तेज सर्वत्र काम करता है। परंतु अपने कारण भूत पदार्थों में आकर बुझ जाता है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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