सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के प्रथम अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

प्रथम अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा विराट की सभा में भगवान श्रीकृष्ण का भाषण”

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्‍तमम्।

देवीं सरस्वती ब्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

    अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्वती और महर्षि वेदव्‍यास को नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिए। 

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय अभिमन्यु का विवाह करके कुरुवीर पाण्डव तथा उनके अपने पक्ष के लोग अत्यन्त आनन्दित हुए। रात्रि में विश्राम करके वे प्रातःकाल जगे और (नित्य कर्म करके) विराट की सभा में उपस्थित हुए।

    मत्स्य देश के अधिपति विराट की वह सभा अत्यन्त समृद्धि शालिनी थी। उसमें मणियों की खिड़कियाँ और झालरें लगी थीं। उसके फर्श और दीवारों में उत्‍तम-उत्‍तम रत्नों की पच्चीकारी की गयी थी। इन सबके कारण उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। उस सभा भवन में यथा योग्य स्थानों पर आसन लगे हुए थे, जगह-जगह मालाएँ लटक रहीं थीं और सब ओर सुगन्ध फैल रही थी। वे श्रेष्ठ नरपतिगण


उसी सभा में एकत्र हुए। यहाँ सबसे पहले राजा विराट और द्रुपद आसन पर विराजमान हुए; क्योंकि वे दोनों समस्त भूपतियों में वृद्ध और माननीय थे। तत्पश्चात्‌ अपने पिता वसुदेव के साथ बलराम और श्रीकृष्ण ने भी आसन ग्रहण किये। पाञ्चालराज द्रुपद के पास शिनिवंश श्रेष्ठ वीर सात्यकि तथा रोहिणी नन्दन बलराम जी बैठे थे और मत्स्यराज विराट के अत्यन्त निकट श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठिर विराजमान थे।

     राजा द्रुपद के सब पुत्र भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, युद्धवीर प्रद्युम्न और साम्ब, विराट के पुत्रों सहित अभिमन्यु तथा द्रौपदी सभी पुत्र सुवर्ण जटित सुन्दर सिंहासनों पर आसपास ही बैठे थे। द्रौपदी के पाँचों पुत्र पराक्रम सौन्दर्य और बल में अपने पिता पाण्डवों के ही समान थे। सब के सब शूरवीर थे। इस प्रकार चमकीले आभूषणों तथा सुन्दर वस्त्रों से विभूषित उन समस्त महारथियों के बैठ जाने पर राजाओं से भरी हुई उन समृद्धि शालिनी सभा ऐसी शोभा पा रही थी, मानो उज्ज्वल ग्रह-नक्षत्रों से भरा आकाश जगमगा रहा हो। तदनन्तर उन शूरवीर पुरुषों ने समाज में जैसी बातचीत करनी उचित है, वैसी ही विविध प्रकार की विचित्र बातें कीं, फिर वे सब नरेश भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखते हुए दो घड़ी तक कुछ सोचते हुए चुप बैठे रहे। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के कार्य के लिये ही उन श्रेष्ठ राजाओं को संगठित किया था। उन सब लोगों की बात-चीत बंद हो गयी, तब वे सिंह के समान पराक्रमी नरेश एक साथ श्रीकृष्ण के सारगर्भित तथा श्रेष्ठ फल देने वाले वचन सुनने लगे।

    श्रीकृष्ण ने भाषण देना प्रारम्भ किया,- उपस्थित सहुद्रण! आप सब लोगों को यह मालूम ही है कि सुबल पुत्र शकुनि ने द्यूतसभा में किस प्रकार कपट करके धर्मात्मा युधिष्ठिर को परास्त किया और इनका राज्य छीन लिया है उस जूए में यह शर्त रख दी गयी थी कि जो हारे, वह बारह वर्षों तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करे। पाण्डव सदा सत्य पर आरूढ़ रहते हैं। सत्य ही इनका रथ (आश्रय) है। इनमें वेग पूर्वक समस्त भूमण्डल को जीत लेने की शक्ति है तथापि इन वीराग्रगण्य पाण्डुकुमारों ने सत्य का ख्याल करके तेरह वर्षों तक वनवास और अज्ञातवास के उस कठोर व्रत का धैर्यपूर्वक पालन किया है, जिसका स्वरूप बड़ा ही उग्र है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद)

    इस तेरहवें वर्ष को पार करना बहुत ही कठिन था, परंतु इन महात्माओं ने आपके पास ही अज्ञात रूप से रहकर भाँति-भाँति के असह्य क्लेश सहते हुए यह वर्ष बिताया है, इसके अतिरिक्त बारह वर्षों तक ये वन में भी रह चुके हैं। अपनी कुल परम्परा से प्राप्त हुए राज्य की अभिलाषा से ही इन वीरों ने अब तक अज्ञातावस्था में दूसरों की सेवा में संलग्न रहकर तेरहवाँ वर्ष पूरा किया है। ऐसी परिस्थिति में जिस उपाय से धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा राजा दुर्योधन का भी हित हो, उसका आप लोग विचार करें। आप कोई ऐसा मार्ग ढूँढ़ निकालें, जो इन कुरुक्षेत्र वीरों के लिए धर्मानुकूल, न्यायोचित तथा यश की वृद्धि करने वाला हो धर्मराज युधिष्ठिर यदि धर्म के विरुद्ध देवताओं का भी राज्य प्राप्त होता हो, तो उसे लेना नहीं चाहेंगे। किसी छोटे से गाँव का राज्य भी यदि धर्म और अर्थ के अनुकूल प्राप्त होता हो, तो ये उसे लेने की इच्छा कर सकते हैं।

    आप सभी नरेशों को विदित ही है कि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों के पैतृक राज्य का किस प्रकार अपहरण किया है। कौरवों के इस मिथ्या व्यवहार तथा छल-कपट के कारण पाण्डवों को कितना महान असह्य कष्ट भोगना पड़ा है, यह भी आप लोगों से छिपा नहीं है। धृतराष्ट्र के उन पुत्रों ने अपने बल और पराक्रम से कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर को किसी युद्ध में पराजित नहीं किया था तथापि सुहृदों सहित राजा युधिष्ठिर उनकी भलाई ही चाहते हैं। पाण्डवों ने दूसरे-दूसरे राजाओं को युद्ध में जीतकर उन्हें पीड़ित करके जो धन स्वयं प्राप्त किया था, उसी को कुन्ती और माद्री के ये वीर पुत्र माँग रहे हैं। जब पाण्डव बालक थे-अपना-हित-अहित कुछ नहीं समझते थे, तभी इनके राज्य को हर लेने की इच्छा से उन उग्र प्रकृति के दुष्ट शत्रुओं ने संघबद्ध होकर भाँति-भाँति के षड्यंत्रों द्वारा इन्हें मार डालने की पूरी चेष्ठा की थी; ये सब बातें आप लोग अच्छी तरह जानते होंगे।

     अतः सभी सभासद कौरवों के बढे़ हुए लोभ को, युधिष्ठिर की धर्मज्ञता को तथा इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध को देखते हुए अलग-अलग तथा एक राय से भी कुछ निश्चय करें। ये पाण्डवगण सदा ही सत्यपरायण होने के कारण पहले की हुई प्रतिज्ञा का यथावत पालन करके हमारे सामने उपस्थित हैं। यदि अब भी धृतराष्ट्र पुत्र इनके साथ विपरीत व्यवहार ही करते रहेंगे-इनका राज्य नहीं लौटायेंगे, तो पाण्डव उन सबको मार डालेंगे। कौरव लोग पाण्डवों के कार्य में विघ्न डाल रहे हैं और उनकी बुराई पर ही तुले हुए हैं; यह बात निश्चित रूप से जान लेने पर सुहृदों और सबन्धियों को उचित है कि वे उन दुष्ट कौरवों को(इस प्रकार अयात्चार करने से) रोकें। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र इस प्रकार युद्ध छेडकर इन पाण्डवों को सतायेंगे, तो उनके बाध्य करने पर ये भी डटकर युद्ध में उनका सामना करेंगे और उन्हें मार गिरायेंगे। सम्भव है, आप लोग यह सोचते हों कि ये पाण्डव अल्पसंख्यक होने कारण उन पर विजय पाने में समर्थ नहीं हैं।

      तथापि ये सब लोग अपने हितेषी सुहृदों के साथ मिलकर शत्रुओं के विनाश के लिए प्रयत्न तो करेंगे ही। युद्ध का भी निश्चय कैसे किया जाय; क्योंकि, दुर्योधन के भी मत का अभी ठीक-ठीक पता नही है कि वह क्या करेगा? शत्रु पक्ष का विचार जाने बिना आप लोग कोई ऐसा निश्चय कैसे कर सकते हैं? जिसे अवश्य ही कार्यरूप में परिणत किया जा सके। अतः यह मेरा विचार है कि यहाँ से कोई धर्मशील, पवित्रात्मा कुलीन और सावधान पुरुष दूत बनकर वहाँ जाय। वह दूत ऐसा होना चाहिए, जो उनके जोश तथा रोष को शान्त करने में समर्थ हो और उन्हें युधिष्ठिर को इनका आधा राज्य दे देने के लिये विवश कर सके। राजन! भगवान श्रीकृष्ण धर्म और अर्थ से युक्त, मधुर एवं उभयपक्ष के लिये समानरूप से हितकर वचन सुनकर उनके बड़े भाई बलरामजी ने उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर के अपना वक्तव्य आरम्भ किया।

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उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

द्वितीय अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

 “बलराम जी का भाषण”

     बलदेवजी बोले ;- सज्जनो! गदाग्रज श्रीकृष्ण ने जो कुछ धर्मानुकूल तथा अर्थशास्त्रसम्मत सम्भाषण किया है, उसे आप सब लोगों ने सुना है। इसी में अजातशत्रु युधिष्ठिर का भी हित है तथा ऐसा करने से ही राजा दुर्योधन की भलाई है। वीर कुन्तीकुमार आधा राज्य छोड़कर केवल आधे के लिये ही प्रयत्नशील हैं। दुर्योधन भी पाण्डवों को आधा राज्य देकर हमारे साथ स्वयं भी सुखी और प्रसन्न होगा। पुरुषों में श्रेष्ठ वीर पाण्डव आधा राज्य पाकर दूसरे पक्ष की ओर से अच्छा बर्ताव होने पर अवश्य ही शान्त रहकर कहीं सुख पूर्वक निवास करेंगे। इससे कौरवों को शान्ति मिलेगी और प्रजावर्ग का भी हित होगा। यदि दुर्योधन का भी विचार जानने के लिये, युधिष्ठिर के संदेश को उसके कानों तक पहुँचाने के लिए तथा कौरवों-पाण्डवों में शान्ति स्थापित करने के लिये कोई दूत जाय, तो यह मेरे लिये बड़ी प्रसन्नता की बात होगी।

     वह दूत वहाँ जाकर कुरुवंश के श्रेष्ठ वीर भीष्म, महानुभाव धृतराष्ट्र, द्रोण, अश्वत्थामा, विदुर, कृपाचार्य, शकुनि, तथा कर्ण दूसरे सब धृतराष्ट्र पुत्र, जो शक्तिशाली, वेदज्ञ, स्वधर्मनिष्ठ, लोकप्रसिद्ध वीर, विद्यावृद्ध और वयोवृद्ध हैं, उन सबको आमन्त्रित करे और इन सबके आ जाने एवं नागरिकों तथा बड़े बूढ़ों के सम्मिलित होने पर वह दूत विनयपूर्वक प्रणाम करके ऐसी बात कहे, जिससे युधिष्ठिर के प्रयोजन की सिद्धि हो। किसी भी दशा में कौरवों को उत्‍तेजित या कुपित नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनहोंने बलवान होकर ही पाण्डवों के राज्य पर अधिकार जमाया है। ये जूए को प्रिय मानकर उसमें आसक्त हो गये थे। तभी इनके राज्य का अपहरण हुआ है। अजमीढवंशी कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर जूए का खेल नहीं जानते थे। इसीलिये समस्त सुहृदों ने इन्‍हें मना किया था,[3] दूसरी ओर गान्धारराज का पुत्र शकुनि जूए के खेल में निपुण था। यह जानते हुए भी ये उसी के साथ बारंबार खेलते रहे।

     इन्‍होंने कर्ण और दुर्योधन को छोड़कर शकुनि को ही अपने साथ जूआ खेलने के लिये ललकारा था। उस सभा में दूसरे भी हजारों जुआरी मौजूद थे, जिन्हें युधिष्ठिर जीत सकते थे। परंतु उन सब को छोड़कर इन्‍होंने सुबल पुत्र को ही बुलाया। इसीलिये उस जूए में इनकी हार हुई। जब ये खेलने लगे और प्रतिपक्षी की ओर से फेंके हुए पासे जब बराबर इनके प्रतिकूल पड़ने लगे, तब ये और भी रोषावेश में आकर खेलने लगे। इन्होंने हठपूर्वक खेल जारी रखा और अपने को हराया, इसमें शकुनि का कोई अपराध नहीं है। इसलिये जो दूत यहाँ से भेजा जाये, वह धृतराष्ट्र को प्रणाम करके अत्यन्त विनय के साथ सामनीतियुक्‍त वचन कहे। ऐसा करने से ही धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को वह पुरुष अपने प्रयोजन की सिद्धि में लगा सकता है। कौरव पाण्डवों में परस्पर युद्ध हो,ऐसी आकान्क्षा न करो‌‌- ऐसा कोई कदम न उठाओ। संधि या समझौते की भावना से ही दुर्योधन को आमन्त्रित करो। मेल-मिलाप से समझा-बुझाकर जो प्रयोजन सिद्ध किया जाता है, वही परिणाम में हितकारी होता है।

     युद्ध में तो दोनों पक्ष की ओर से अन्याय अर्थात् अनीति का ही बर्ताव किया जाता है और अन्याय से इस जगत में किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती।

    वैशम्पायनजी कहते हैं‌ ;- जनमेजय! मधुवंश के प्रमुख वीर बलदेव जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि शिनि-वंश के श्रेष्ठ शूरमा सात्यकि सहसा उछलकर खड़े हो गये। उन्होंने कुपित होकर बलभद्र जी के भाषण की कड़ी आलोचना करते हुए इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत सेनोद्योग पर्व बलदेव वाक्य विषय दूसरा अध्याय पूरा हूआ)

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उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

तृतीय अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

 “सात्यकि के वीरोचित उद्धार”

  सात्यकि ने कहा ;- बलरामजी! मनुष्य का जैसा हृदय होता है, वैसी ही बात उसके मुख से निकलती है। आपका भी जैसा अंत:करण है, वैसा ही आप भाषण दे रहे हैं। संसार में शूर-वीर पुरुष भी हैं और कापुरुष (कायर) भी। पुरुषों में ये दोनों पक्ष निश्चित रूप से देखे जाते हैं। जैसे एक ही वृक्ष में कोई शाखा फलवती होती है ओर कोई फलहीन। इसी प्रकार एक ही कुल में दो प्रकार की संतान उतपन्न होती है, एक नपुंसक ओर दूसरी महान बलशाली। अपनी ध्वजा में


हल चिह्न धारण करने वाले मधुकुल-रत्न! आप जो कुछ कह रहे हैं उसमें दोष नहीं निकाल रहा हूँ, जो लोग आपकी बातें चुप-चाप सुन रहे हैं, उन्‍हीं को मैं दोषी मानता हूँ।

     भला कोई भी मनुष्य भरी सभा में निर्भय होकर धर्म-राज युधिष्ठिर पर थोड़ा-सा भी दोषारोपण करे, तो वह कैसे बोलने का अवसर पा सकता है। महात्मा युधिष्ठिर जूआ खेलना नहीं चाहते थे, तो भी जूए के खेल में निपुण धूर्तों ने उन्हें अपने घर बुलाकर अपने विश्वास के अनुसार हराया अथवा जीता है। यह इनकी धर्मपूर्वक विजय कैसे कही जा सकती है? यदि भाईयों सहित कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने घर पर जूआ खेलते होते और ये कौरव वहाँ जाकर उन्हें हरा देते, तो वह उनकी धर्मपूर्वक विजय कही जा सकती थी। परन्तु उन्होंने सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर को बुलाकर छल और कपट से उन्हें पराजित किया है। क्या यही उनका परम कल्याणमय कर्म कहा जा सकता है? ये राजा युधिष्ठिर अपनी वनवासविषयक प्रतिज्ञा तो पूर्ण ही कर चुके हैं, अब किस लिये उनके आगे मस्तक झुकायें-क्यों प्रणाम अथवा विनय करें।

    वनवास के बन्धन से मुक्त होकर अब ये अपने बाप-दादों के राज्य को पाने के न्यायतः अधिकारी हो गये हैं। यदि युधिष्ठिर अन्याय से भी अपना धन, अपना राज्य लेने की इच्‍छा करें, तो भी अत्यन्त दीन बनकर शत्रुओं के सामने हाथ फैलाने या भीख माँगने योग्य नहीं हैं। कुन्ती के पुत्र वनवास की अवधि पूरी करके जब लौटे हैं, तब कौरव यह कहने लगे हैं कि हमने तो इन्हें समय पूर्ण होने से पहले ही पहचान लिया है। ऐसी दशा में यह कैसे कहा जाय कि कौरव धर्म में तत्पर हैं और पाण्डवों के राज्य का अपहरण नहीं करना चाहते हैं। वे भीष्म, द्रोण और विदुर के बहुत अनुनय-विनय करने पर भी पाण्‍डवों को उनका पैतृक धन वापस देने का निश्चय अथवा प्रयास नहीं कर रहे हैं। मैं तो रणभूमि में पैने बाणों से उन्‍हें बलपूर्वक मनाकर महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के चरणों में गिरा दूँगा। यदि वे परम बुद्धिमान युधिष्ठिर के चरणों में गिरने का निश्चय नहीं करेंगे, तो अपने मन्त्रियों सहित उन्‍हें यमलोक की यात्रा करनी पड़ेगी। जैसे बड़े बडे़ पर्वत भी वज्र का वेग सहन करने में समर्थ नहीं हैं, उसी प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले और क्रोध में भरे हुए मुझ सात्यकि के प्रहार-वेग को सहन करने की सामर्थ्‍य उनमें से किसी में भी नहीं है।

     कौरव दल में ऐसा कौंन है, जो जीवन की इच्‍छा रखते हुए भी युद्ध भूमि में गाण्डीवधन्वा अर्जुन, चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, क्रोध में भरे हुए मुझ सात्यकि, दुर्धर्ष वीर भीमसेन, यम और काल के समान तेजस्वी दृढ़ धनुर्धर नकुल-सहदेव, यम और काल को भी अपने तेज से तिरस्कृत करने वाले वीरवर विराट और द्रुपद का द्रुपद कुमार धृष्टद्युम्न का भी सामना कर सकता है? द्रौपदी की कीर्ति को बढ़ाने वाले ये पाँचों पाण्डव कुमार अपने पिता के समान ही डील-डौल वाले, वैसे ही पराक्रमी तथा उन्हीं के समान रणोन्मत्‍त शूरवीर हैं। महान धर्नुधर सुभद्रा कुमार अभिमन्यु का वेग तो देवताओं के लिए भी दुःसह है, गद, प्रद्युम्न और साम्ब- ये काल, सूर्य और अग्नि के समान अजेय हैं- इन सबका सामना कौन कर सकता है?

      हम लोग शकुनि सहित धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को तथा कर्ण को भी युद्ध में मारकर पाण्डुनन्दन यूधिष्ठिर का राज्याभिषेक करेंगे। आततायी शत्रुओं का वध करने में कोई पाप नहीं है शत्रुओं के सामने याचना करना ही अर्धम और अपयश की बात है। अतः पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर के मन में जो अभिलाषा है, उसी की आप लोग आलस्य छोड़कर सिद्धि करें। धृतराष्ट्र राज्य लौटा दें और पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर उसे ग्रहण करें। अब पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को राज्य मिल जाना चाहिये, अन्यथा समस्त कौरव युद्ध में मारे जाकर रणभूमि में सदा के लिये सो जायँगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व कें अन्तर्गत में सात्यकिका क्रोधपूर्ण वचन सम्बन्धी तीसरा अध्याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

चतुर्थ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1- 26 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा द्रुपद की सम्मति”

(सात्यकि की बात सुनकर) द्रुपद ने कहा ;- महावाहो! तुम्हारा कहना ठीक है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा ही होगा; क्योंकि दुर्योधन मधुर व्यवहार से राज्य नहीं देगा। अपने उस पुत्र के प्रति आसक्त रहने वाले धृतराष्ट्र भी उसी का अनुसरण करेंगे। भीष्म और द्रोणाचार्य दीनतावश तथा कर्ण और शकुनि मूर्खतावश दुर्योधन का साथ देंगे। बलदेव जी का कथन मेरी समझ में ठीक नहीं जान पड़ता। मैं जो कुछ कहने जा रहा हूँ, वही सुनीति की इच्छा रखने वाले पुरुष को सबसे पहले करना चाहिए। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से मधुर अथवा नम्रतापूर्ण वचन कहना किसी प्रकार उचित नहीं है। मेरा ऐसा मत है कि वह पापपूर्ण विचार रखनेवाला है, अतः मृदु व्यवहार से वश में आने वाला नहीं है।

      जो पापात्मा दुर्योधन के प्रति मृदु वचन बोलेगा, वह मानो गदहे के प्रति कोमलतापूर्ण व्यवहार करेगा और गायों के प्रति कठोर बर्ताव। पापी एवं मूर्ख मनुष्य मृदु बचन बोलने वाले को शक्तिहीन समझता है और कोमलता का बर्ताव करने पर यह मानने लगता है कि मैंने इसके धन पर विजय पा ली। ( हम आपके सामने जो प्रस्ताव ला रहे है; ) इसी को सम्पन्न करेंगे और इसी के लिये यहाँ प्रयत्न किया जाना चाहिये। हमें अपने मित्रों के पास यह संदेश भेजना चाहिये कि वे हमारे लिये सैन्य संग्रह का उद्योग करें। भगवान! हमारे शीघ्रगामी दूत शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन और समस्त केकय राजकुमारों के पास जायँ। निश्चय हृी दुर्योधन भी सबके यहाँ संदेश भेजेगा। श्रेष्ठ राजा जब किसी के द्वारा पहले सहयता कि लिये निमन्त्रित हो जाते है; तब प्रथम निमन्त्रण देने वाले की ही सहायता करते हैं।अतः सभी राजाओं के पास पहले ही अपना निमन्त्रण पहुँच जाय; इसके लिए शीघ्रता करो। मैं समझता हूँ, हम सब लोगों को महान कार्य का भार वहन करना है।

     राजा शल्य तथा उसके अनुगामी नेरेशों के पास शीघ्र दूत भेजे जायँ। पूर्व समुद्र के तटवर्ती राजा भगदत्त के पास भी दूत भेजना चाहिये। भगवन! इसी प्रकार अमितौजा, उग्र, हार्दिक्य (कृतवर्मा), अन्धक, दीर्घप्रज्ञ तथा शूरवीर रोचमान के पास भी दूतों को भेजना आवश्यक है। बृहन्त को भी बुलाया जाय। राजा सेनाबिन्दु , सेनजित, प्रतिविन्ध्य, चित्रवर्मा, सुवास्तुक, बाह्रीक, मुञ्ज्केश, चैद्यराज, सुपार्श्व, सुबाहु, महारथी पौरव, शकनरेश, पह्रवराज तथा दूरददेश के नरेश भी निमन्त्रित किये जाने चाहिये। सुरारि, नदीज, भूपाल कर्णवेष्ट, नील, वीरधर्मा , पराक्रमी भूमिपाल, दुर्जय दन्तवक्त्र, रुक्मी, जनमेजय, आषाढ, वायुवेग, राजा पूर्वपाली, भूरितेजा, देवक, पुत्रों सहित एकलव्य, करूष-देश के बहुत से नरेश, पराक्रमी क्षेमधूर्ति काम्बोजनरेश, ऋषिकदेश के राजा, पश्चिम द्वीपवासी नरेश, जयत्सेन, काश्य, पञ्चनद प्रदेश के राजा, दुर्धर्ष क्राथपुत्र, पर्वतीय नरेश, राजा जनक के पुत्र, सुशर्मा, मणिमान, योतिमत्सक, पाशुराज्य के अधिपति, पराक्रमी धृष्टकेतु, तुण्ड, दण्डधार, वीर्यशाली बृहत्सेन, अपराजित, निषादराज, श्रेणिमान, वासुमान, बृहद्वल, महौजा, शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले बाहु, पुत्रसहित पराक्रमी राजा समुद्रसेन, उद्भव, क्षेमक, राजा वाटधान, श्रुतायु, दृढ़ायु, पराक्रमी शाल्वपुत्र, कुमार तथा युद्धदुर्मद कलिंगराज- इन सब के पास शीघ्र ही रण-निमन्त्रण भेजा जाय; मुझे यही ठीक जान पड़ता है। मत्स्यराज! ये मेरे पुरोहित विद्वान् ब्राह्मण हैं, इन्हें धृतराष्ट्र के पास भेजिये और वहाँ के लिए उचित संदेश दीजिये। दुर्योधन से क्या कहना है? शान्तनुनन्दन भीष्म जी से किस प्रकार बातचीत करनी है? धृतराष्ट्र को क्या संदेश देना है? तथा रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य से किस प्रकार वार्तालाप करना है? यह सब उन्हें समझा दिजिये।

(इस प्रकार श्री महाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योग पर्व द्रुपदवाकयविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)

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उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान श्रीकृष्ण का द्वारका गमन, विराट और द्रुपद के संदेश से राजाओं का पाण्डव पक्ष की ओर से युद्ध के लिये आगमन”

      (तत्पश्चात भगवान) श्रीकृष्ण ने कहा ;- सभासदो! सोमकवंश के धुरंधर वीर महाराज द्रुपद ने जो बात कही है, वह उन्हीं के योग्य है। इसी से अमित तेजस्वी पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर के अभीष्ट कार्य की सिद्धि हो सकती है। हम लोग सुनीति की इच्छा रखने वाले हैं; अतः हमें सबसे पहले यही कार्य करना चाहिये। जो अवसर के विपरीत आचरण करता है, वह मनुष्य अत्यन्त मूर्ख माना जाता है। परंतु हम लोगों का कौरवों और पाण्डवों से एक-सा सम्बन्ध है। पाण्डव और कौरव दोनों ही हमारे साथ यथा-योग्य अनुकूल बर्ताव करते हैं। इस समय हम और आप सब लोग विवाहोत्सव में निमन्त्रित होकर आये हैं। विवाह कार्य सम्पन्न हो गया; अतःअब हम प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घरों को लौट जायँगे। आप समस्त राजाओं में अवस्था तथा शास्त्रज्ञान दोनों ही दृष्टियों से सबकी अपेक्षा बड़े हैं। इसमें संदेह नहीं कि हम सब लोग आपके शिष्य के समान हैं। राजा धृतराष्ट्र भी सदा आपको विशेष आदर देते हैं, आचार्य द्रोण और कृप दोनों के आप सखा हैं। अतः आप ही आज पाण्डवों की कार्य-सिद्धि के अनुकूल संदेश भेजिये। आप जो भी संदेश भेजेंगे, वह हम सब लोगों का निश्चित मत होगा। यदि कुरुश्रेष्‍ठ दुर्योधन न्याय के अनुसार शान्ति स्वीकार करेगा, तो कौरव और पाण्डवों में परस्पर बन्धुजनोचित सौहार्द-वश महान संहार न होगा। यदि धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मोहवश घमंड में आकर हमारा प्रस्ताव न स्वीकार करे, तो आप दूसरे राजाओं को युद्ध का निमंत्रण भेजकर सबके बाद हम लोगों को आमंत्रित कीजियेगा। फिर तो गाण्डीवधन्वा अर्जुन के कुपित होने पर मन्द बुद्धि मूढ़ दुर्योधन अपने मन्त्रियों और बन्धुजनों के साथ सर्वथा नष्ट हो जायेगा।

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा विराट ने सेवकवृन्द तथा वान्धवों सहित वृष्णिकुल नन्दन भगवान श्रीकृष्ण का सत्कार करके उन्हें द्वारका जाने के लिये बिदा किया। श्रीकृष्ण के द्वारका चले जाने पर युधिष्ठिर आदि पाण्डव तथा राजा विराट युद्ध की सारी तैयारियाँ करने लगे। बन्धुओं सहित राजा विराट तथा महाराज द्रुपद ने मिल-कर सब राजाओं के पास का युद्ध का निमन्त्रण भेजा। कुरुकुल के सिंह पाण्डव, मत्स्य नरेश विराट तथा पञ्चालराज द्रुपद के संदेश से (दूर-दूर के ) महाबली नरेश बड़े हर्ष और उत्साह में भरकर वहाँ आने लगे। पाण्डवों के यहाँ विशाल सेना एकत्र हो रही है; यह सुनकर धृतराष्ट्र के पुत्रों ने भी भूमिपालों को बुलाना आरम्भ कर दिया। राजन! इस प्रकार कौरवों तथा पाण्डवों के उद्देश्य से दूर-दूर के नरेश अपनी सेना लेकर प्रस्थान करने लगे। इनकी चतुरगिंणी सेना से सारी पृथ्वी व्याप्त हुई सी जान पड़ने लगी। चारों ओर से उन वीरों के जो सैनिक आ रहे थे, वे पर्वतों और वनों सहित इस सारी पृथ्वी को प्रकम्पित-सी कर रहे थे। तदनन्तर पाञ्चाल नरेश ने युधिष्ठिर की सम्मति अनुसार बुद्धि और अवस्था में भी बढ़े-चढ़े अपने पुरोहित को कौरवों के पास भेजा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत् उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित-प्रस्थानावैषयक पाँचवा अध्याय पूरा हुआ)

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