सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्मजी के द्वारा सेना में शानित और एकता बनाये रखने का प्रयास तथा द्रोणाचार्य के द्वारा दुर्योधन की रक्षा के लिये प्रयत्न”

    दुर्योधन! अश्वत्थामा ठीक विचार कर रहे हैं। कृपाचार्य की दृष्टि भी ठीक है। कर्ण तो केवल क्षत्रिय धर्म की दृष्टि से युद्ध करना चाहता है। विज्ञ पुरुष को अपने आचार्य की निन्दा या तिरस्कार नहीं करना चाहिये। मेरा भी विचार यही है कि देश, काल का विचार करके ही युद्ध करना उचित है। जिसके सूर्य के समान तेजस्वी और प्रहार करने में समर्थ पाँच शत्रु हों और उन शत्रुओं का अभ्युदय हो रहा हो, तो उस दशा में विद्वान् पुरुष को भी कैसे मोह न होगा ?। स्वार्थ के विषय में सोचते समय सभी मनुष्य - धर्मज्ञ पुरुष भी मोह में पड़ जाते हैं; अतः राजन्! यदि तुम्हें जचे तो मैं इस विध्याय में अपनी सलाह भी देता हूँ। कर्ण ने तुमसे जो कुछ कहा है, वह तेज एवं उत्साह को बढ़ाने के लिये ही कहा है। आचार्य पुत्र क्षमा करें। इस समय महान् कार्य उपस्थ्सित है। यह समय आपस के विरोध का नहीं है; विशेषतः ऐसे मौके पर कि कुन्ती नन्दन अर्जुन युद्ध के लिये उपस्थ्सित हैं।

     पूजनीस आचार्य द्रोण जैसे सूर्य प्रभा और चन्द्रमा में लक्ष्मी ( शोभा ) सर्वथा विद्यमान रहती है - कभी कम नहीं होती, उसी प्रकार आप लोगों का अस्त्र विद्या में जो पाण्डित्य है, वह अक्षुण्ण है। इस प्रकार आप लोगों में ब्राह्मणत्व तथा ब्रह्मास्त्र दोनों ही प्रतिष्ठित हैं, यद्यपि प्रायः एक व्यक्ति में चारों वेदों का ज्ञान देखा जाता है, तो दूूसरे में क्षात्रधर्म का। ये दोनों बातें पूर्ण रूप से किसी एक व्यक्ति में हमने नहीं सुनी हैं। केवल भरतवंशियों में आचार्य कृप, द्रोण और उनके पुत्र अश्वत्थामा ही ये दोनों शक्तियाँ ( ब्रह्मबल और क्षात्रबल ) हैं। इनके सिवा और कहीं उक्त दोनों बातों का एकत्र समावेश नहीं है। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। राजन्! वेदान्त, पुराण और प्राचीन इतिहास के ज्ञान में जमदग्नि नन्दन परशुराम के सिवा दूसरा कौर मनुष्य द्रोणाचार्य से बढ़कर हो सकता है ?। ब्रह्मास्त्र और वेद - ये दोनों वस्तुएँ हमारे आचार्यों के सिवा अन्य़ कहीं नहीं देखी जातीं। आचार्य पुत्र क्षमा करें, यह समय आपस में फूट पैदा करने का नहीं है। हम सब लोग मिलकर यहाँ आये हुए अर्जुन से युद्ध करेंगे। मनीषी पुरुषों ने सेना का विनाश करने वाले जितने संकट बताये हैं, उनमें आपस की फूट को सबसे प्रधान कहा है। विद्वानों ने इस फूट को महान् पाप माना है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद)

   अश्वत्थामा ने कहा ;- पुरुषश्रेष्ठ! हमारी न्यायोचित बात की निन्दा नहीं की जानी चाहिये। आचार्य द्रोण ने पाण्डवों पर हुए पहले के अन्यायों का स्मरण करके रोष पूर्वक अर्जुन के गुणों का यहाँ वर्णन किया है ( भेद उत्पन्न करने के लिये नहीं )। शत्रु के गुण ग्रहण करने चाहिये और गुरु के भी दोष बताने में संकोच नहीं करना चाहिये। गुरु को सग प्रकार से पूर्ण प्रयत्न करके पुत्र और शिष्य के लिये जो हितकर हो, वही बात कहनी चाहिये।

    दुर्योधन ने कहा ;- आचार्य! क्षमा करें, अब शान्ति धारण करनी चाहिए । यदि गुरु के मन में भेद न हो, तभी यह समझा जायगा कि पहले जो बातें कही गयी हैं, उनमें रोष ही कारण था।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन ने कर्ण, भीष्म और महात्मा कृपाचार्य के साथ आचार्य द्रोण से क्षमा माँगी। 

    तब द्रोण बोले ;- शान्तनु नन्दन भीष्तजी ने पहले जो बात कही थी, उसी से मैं प्रसन्न हूँ। अब मेरी नीति से काम लेना चाहिये, उसी से मैं प्रसन्न हूँ। अब ऐसी नीति से काम लेना चाहिये, जिससे अर्जुन इस युद्ध में दुर्योधन के पास तक न पहुँच सकें। साहस से अथवा प्रमादवश भी दुर्योधन पर उनका आक्रमण न हो, ऐसी नीति निर्धारित करनी चाहिये। वनवास की अवधि पूर्ण हुए बिना अर्जुन अपने को प्रकट नहीं कर सकते थे। आज यदि वे यहाँ आकर अपना गोधन न पा सके, तो हमको क्षमा नहीं कर सकते।

     ऐसी दशा में जैसे भी सम्भव हो; वे धृतराष्ट्र पुत्रों पर आक्रमण न कर सकें और किसी प्रकार भी कौरव सेनाओं को परास्त न करने पावें, ऐसी कोई नीति बनानी चाहिये। दुर्योधन ने भी ऐसी बात कही थी कि पाण्डवों का अज्ञातवास पूर्ण होने में संदेह है, अतः गंगा नन्दन भीष्म! आप स्वयं स्मरण करके यथार्थ बात क्या है - उनका अज्ञातवास पूर्ण हो गया है या नहीं, इसका निर्णय करें।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय द्रोण वाक्य सम्बन्धी इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत विराट पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“पितामह भीष्म की सम्मति”

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! 

    भीष्म जी ने कहा ;- कला, काष्ठ, मुहूर्त, दिन, मास, पक्ष, नक्षत्र, ग्रह, ऋतु और संवत्सर - ये सब ऐ दूसरे से जुड़ते हैं। इस तरह काल के इन छोटे छोटे विभागों द्वारा यह सम्पूर्ण कालचक्र चल रहा है। इन पक्ष-मास आदि के समय के बढ़ने घटने से और ग्रह नक्षत्रों की गति के व्यतिक्रम से हर पाँचवें वर्ष में दो महीने अधिमास के बढ़ जाते हैं। इस प्रकार इन तरह वर्षों के पूर्ण होने के पश्चात भी पाण्डवों के पाँच महीने बारह दिन और अधिक बीत चुके हैं। ऐसा मेरा विचार है इन पाण्डवों ने जो जो प्रतिज्ञाएँ की थीं, उन सबका यथावत् पालन किया है; अतएव इस बात को अच्छी तरह जानकर ही अर्जुन यहाँ आये हैं। सभी पाण्डव महात्मा हैं और सभी धर्म तथा अर्थ के ज्ञाता हैं। जिनके नेता राजा युधिष्ठिर हैं, वे धर्म के विषय में कैसे कोई अपराध कर सकते हैं ? कुन्ती के पुत्र लोभी नहीं हैं। उन्होंने तपस्या आदि कठिन कर्म किये हैं। वे अधर्म या अनुचित उपाय से ( धर्म को गँवाकर ) केवल राज्य लेने के इच्छुक नहीं हैं ? कुरुकुल को आनन्द देने वाले पाण्डव उसी समय पराक्रम करने में समर्थ थे, किंतु वे धर्म के बन्णन में बँधे थे; इसलिये क्षत्रिय व्रत से विचलित नहीं हुए। यदि कोई अर्जुन को असत्यवादी कहेगा तो वह पराजय को प्राप्त होगा। कुन्ती के पुत्र मौत को गले लगा सकते हैं, किंतु किसी प्रकार असत्य का आश्रय नहीं ले सकते। नरश्रेष्ठ पाण्डव समय आने पर अपने पाने योग्य भाग या हक को भी नहीं छोड़ सकते, भले ही वज्रधारी इन्द्र उस वस्तु की रक्षा करते हों। पाण्डवों को ऐसा ही पराक्रम है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

     इस समय रण भूमि में समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन के साथ हमें युद्ध करना है। इसलिये जगत में साधु पुरुषों द्वारा आचरित जो कल्याणकारी उपाय है, उसे शीघ्र करना चाहिये, जिससे तुम्हारा यह गोधन शत्रु के हाथ में न जाये। कुरुनन्दन! राजेन्द्र! मैं युद्ध में कभी एकसा नहीं देखता कि किसी एक पक्ष की ही सफलता अनिवार्य हो। लो, अर्जुन आ पहुँचे हैं। संग्राम छिड़ जाने पर किसी न किसी पक्ष को लाभ या हानि, जय अथवा पराजय अवश्य प्राप्त होते हैं, यह सदा देखा गया है। इसमें संशय की कोई बात नहीं है। अतः राजेन्द्र! तुम युद्धोचित कर्तव्य का पालन करो अथवा धर्म के अनुसार कार्य करो- बिना युद्ध के ही राज्य देकर संधि कर लो। जो कुछ करना हो जल्दी करो। अर्जुन अब सिर पर आ पहुँचे हैं। कुन्ती पुत्र अर्जुन अकेला ही समर भूमि में समूची पृथ्वी को भी दग्ध कर सकता है, फिर वह अपने सम्पूर्ण वीर बन्धुओं के साथ मिलकर केवल कौरवों को रण भूमि में नष्ट कर दे, यह कौन बड़ी बात है? अतः कुरुश्रेष्ठ! यदि आप ठीक समझें, तो पाण्डवों के साथ सन्धि कर लें।

    दुर्योधन ने कहा ;- किन्तु पितामह! मैं पाण्डवों को राज्य तो दूँगा ही नहीं, युद्ध में उपयोगी जो भी कार्य हो, उसे ही शीघ्र पूरा किया जाय।

   भीष्म ने कहा ;- कुरुनन्दन! यदि तुम्हें जचे, तो इस विषय में मेरी जो सलाह है, उसे सुनो। मैं सर्वथा कल्याण की ही बात कहूँगा। तुम सेना का एक चौथाई भाग लेकर शीघ्र ही हस्तिनापुर की ओर चल दो तथा दूसरी एक चौथाई टुकड़ी गौओं को साथ लेकर जाय। हम लोग आधी सेना साथ लेकर पाण्डु नन्दन अर्जुन का सामना करेंगे। मैं, द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य युद्ध का निश्चय करके आये हुए अर्जुन के साथ लड़ेंगे। फिर तो चाहे मत्स्य नरेश आ जायँ या साक्षात इन्द्र, जैसे वेला समुद्र को रोक देती है, उसी प्रकार मैं उन्हें आगे बढ़ने से राके रक्खूंगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-23 का हिन्दी अनुवाद)

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महात्मा भीष्म की कही हुई बात सबको पसंद आ गयी। फिर कौरवों के राजा दुर्योधन ने वैसा ही किया। पहले राजा दुर्योधन को और उसके बाद गोधन को भेजकर सेनापतियों को व्यवस्थित करके भीष्म जी ने सेना का व्यूह बनाने की तैयारी की।

    भीष्म जी बोले ;- आचार्य! आप बीच में खड़े हों, अश्वत्थामा वाम भाग की रक्षा करें और शरद्वान पुत्र बुद्धिमान कृपाचार्य सेना के दक्षिण भाग की रक्षा करें। सूत पुत्र कर्ण कवच धारण करके सेना के आगे रहे और मैं पृष्ठभाग की रक्षा करता हुआ सम्पूर्ण सेना के पीछे स्थ्ति रहूँगा। सभी महारथी महाधनुर्धर और महाबली शूरवीर योद्धा यहाँ आये हुए पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन के साथ रण भूमि में यत्न पूर्वक युद्ध करें।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर कुरुश्रेष्ठ भीष्म ने समस्त सेनाओं का दुर्मेद्य व्यूह रचकर उसे वज्रगर्भ, ब्रीहिमुख तथा अर्धचक्रान्त मण्डल आदि के रूप में खड़ा किया और उसके पिछले भाग में भीष्म जी भी सुवर्णमय तालध्वज फहराकर हाथ में हथियार लिये खड़े हो गये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में भीष्मजी के द्वारा सेना की व्यूह रचना विषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (गोहरण पर्व)

तिरपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का दुर्योधन की सेना पर आक्रमण करके गौओं का लौटा लेना”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार कौरव सेना की व्यूह रचना हो जाने पर अर्जुन अपने रथ की घर्घराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को गुँजाते हुए शीघ्र ही निक आ पहुँचे। सैनिकों ने उनकी ध्वजा के अग्र भाग को देखा, उनके रथ से आती हुई भयंकर आवाज सुनी और खींचे जाते हुए गाण्डीव की ओर जोर से होने वाली टंकार ध्वनि भी कानों में पड़ी। तब सब कुछ देखकर गाण्डीव धनुष धारएा करने वाले महारथी अर्जुन को निकट आता जानकर आचार्य द्रोण यह वचन बोले।

    द्रोण ने कहा ;- यह अर्जुन की ध्वजा का ऊपरी भाग दूर से ही प्रकाशित हो रहा है। यह उन्हीं के रथ की घर्घराहट का शब्द है। साथ ही ध्वजा पर बैइा वानर भी उच्च स्वर से अर्जना कर रहा है। यह देखो, उस श्रेष्ठ रथ में बैइे हुए रथियों में प्रधान वीर अर्जुन धनुषों में सर्वोत्तम गाण्डीव की डोरी खिच रहे हैं और उससे वज्र की गड़गड़ाहट के समान शब्द हो रहा है।

    ये दो बाण एक साथ आकर मेरे पैरों के आगे गिरे हैं और दूसरे दो बाण मेरे दोनों कंधों को छूकर निकल गये हैं। कुन्ती नन्दन अर्जुन वन में रहकर वहाँ तपस्या तथा शौर्य द्वारा अतिमानुष ( मानवी शरीर के बाहर का ) पराक्रम करके आज प्रकट हुए हैं। ये प्रथम दो बाणों द्वारा मुझे प्रणाम कर रहे हैं और दूसरे दो बाणों द्वारा कानों में युद्ध के लिये आज्ञा माँग रहे हैं। बन्धु बान्धवों को प्रिय लगने वाले परम बुधिमान् अर्जुन को आज हमने दीर्घकाल के बाद देखा है। अहा! पाण्डु पुत्र धनुजय अपनी दिव्य लक्ष्मी ( शोभा ) से अत्यन्त प्रकाशित हो रहे हैं। रथ पर बैइे हुए धनुजय ने बाण, सुन्दर दस्ताने, तरकस, शंख, कवच, किरीट, खड्ग और धनुष धारण कर रक्खे हैं। इनके रथ पर पताका फहरा रही है। इन सामग्रियों से सम्पन्न होकर आज ये तेजस्वी पार्थ स्त्रुवा आदि यज्ञ साधनों घिरे और घी की आहुति पाकर प्रज्वलित हुई अग्नि के समान शोभा पा रहे हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तपते हुए सूर्य की भाँति देदीप्यमान पाण्डूनन्दन अर्जुन को समीप आते देख शत्रु उनकी ओर दृष्टिपात न कर सके। रथियों की सेना को सामने देखकर कुन्ती कुमार अर्जुन ने सारथि से कहा।

    अर्जुन ने कहा ;- सारथे! धनुष से बाण चलाने पर वह जितनी दूरी पर जाकर गिरता है, कौरव सेना से उतना ही अन्तर रह जाय, तो घोड़ों का रोक लेना; जिससे मैं यह देख लूँ कि इस सेना में वह कुरुकुलाधम दुर्योधन कहाँ है। उस अत्यन्त अभिमानी दुर्योधन को देख लेने पर मैं इन सब योद्धाओं को छोड़कर उसी के सिर पर पडूँगा। उसके पराजित होने से ये सब परास्त हो जायँगे। ये आचार्य द्रोण खड़े हैं। उनके बाद उनके पुत्र अश्वत्थामा हैं। उधर पितामह भीष्म दिखाई देते हैं। इधर कृपाचार्य हैं और वह कर्ण है। ये सब महान् धनुर्धर यहाँ युद्ध के लिये आये हैं। परंतु इनमें मैं राजा दुर्योधन को नहीं देखता हूँ। मुझे संदेह है कि वह दक्षिण दिशा का मार्ग पकड़कर गौओं को साथ ले अपनी जान बचाये भागा जा रहा है। अतः विराट नन्दन! इस रथियों की सेना को छोड़ो और जहाँ दुर्योधन है, वहीं चलो। मैं वहीं युद्ध करूँगा। यहाँ व्यर्थ युद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। उसे जीतकर गौओं को अपने साथ ले मैं पुनः लौट जाऊँगा।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- अर्जुन के इस प्रकार आज्ञा देने पर विराट कुमार उत्तर ने घोड़ों की रास खींचकर जहाँ बड़े - बड़े कौरव महारथी खड़े थे, उधर जाने से उन्हें रोका। फिर उसने काबू में रखते हुए उन घोड़ों को उसी ओर बढ़ाया, जिधर राजा दुर्योधन गया था। रथियों की सेना छोड़कर श्वेतवाहन अर्जुन जब दूसरी ओ चल दिये, तब उनका अभिप्राय समझकर कृपाचार्य बोले,

     कृपाचार्य बोले ;- ‘ये अर्जुन राजा दुर्योधन के बिना ठहरना नहीं चाहते, इसलिये उधर ही बड़े वेग से जा रहे हैं। अतः हम लोग भी चलकर इनका पीछा करें। ‘इस समय ये बड़े क्रोध में भरे हैं; अतः साक्षात् इन्द्र या देवकी नन्दन श्रीकृष्ण अथवा पुत्र सहित महारथी आचार्य द्रोण के सिवा दूसरा कोई इनके साथ अकेला युद्ध नहीं कर सकता। ‘ ये गौएँ अथवा प्रचुर धन हमें क्या लाभ पहुँचायेंगे? राजा दुर्योधन पाथ रूपी जल में पुरानी नाव की भाँति डूबना चाहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-25 का हिन्दी अनुवाद)

      उधर अर्जुन उसी प्रकार रथ से दुर्योधन के पास पहुँच गये और उच्च स्वर से अपना नाम सुनाकर बड़ी शीघ्रता से कौरव सेना पर टिड्डी दलों की भाँति असंख्य बाणों की वर्षा करने लगे। अर्जुन के छोड़े हुए बाण समूहों से आच्छादित होकर वे समस्त सैनिक कुछ देख नहीं पाते थे। पृथ्वी और आकाश भी बाणों से ढँक गये थे। युद्ध में बाणों की मार खाकर कौरव सैनिक धराशायी होते जा रहे थे, तो भी उनका मन वहाँ से भागने को नहीं होता था। वे मन ही मन अर्जुन की फुर्ती की सराहना करते थे। तदनन्तर पार्थ ने अपना शंख बजाया, जो शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देने वाला था। फिर उन्होंने अपने श्रेष्ठ धनूष की टंकार करके ध्वज पर बैठे हुए भूतों को सिंहनाद करने की प्रेरणा दी। अर्जुन के शंखनाद, रथ के पहियों की घर्घराहट गाण्डीव धनुष की टंकार तथा ध्वज में निवास करने वाले मानवेत्तर भूतों के कोलाहल से पृथ्वी काँप उठी तथा गौएँ ऊपर को पूँछ उठाकर हिलाती और रम्भाती हुई सब ओर से लौट पड़ीं और दक्षिण दिशा की ओर भाग चलीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय गौओं के लौटने से सम्बन्ध रखने वाला तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का कर्ण पर आक्रमण, विकर्ण की पराजय, शत्रंतप और संग्रामजित् का वध, कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण का पलायन”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! धनुषधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने शत्रुओं को बड़े वेग से दबाकर उन गौओं को जीत लिया और वे युद्ध की इच्छा से फिर दुर्योधन की ओर चले। जब गौएँ तीव्र गति से मत्स्य देशर की राजधानी की ओर भाग गयीं और अर्जुन अपने कार्य में सफल होकर दुर्योधन की ओर बढ़ चले, तब यह सब जानकर कौरव वीर सहसा वहाँ आ पहुँचे। उनकी अनेक सेनाएँ थीं और उन सबकी अछि तरह व्यूह रचना की गयी थी। उन सेनाओं में बहुत सी ध्वजा पताकाएँ फहरा रही थीं। शत्रुओं का नाश करने वाले अर्जुन ने उन सबको देखकर विराट पुत्र उत्तर को सम्बोधित करके कहा,

    अर्जुन बोले ;- राजकुमार! सुनहरी रस्सियों से जुते हुए मेरे इन सफेद घोड़ों को तुम शीघ्र ही इस मार्ग से ले चलो और सम्पूर्ण वेग से ऐसा प्रयत्न करो कि मैं कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन की सेना के पास पहुँच जाऊँ। यह देखो, जैसे हाथी हाथी के साथ भिड़ना चाहता हो, उसी प्रकार यह दुरात्मा सूत पुत्र कर्ण मेरे साथ युद्ध करना चाहता है। पहले इसी के पास मुझे ले चलो। यह दुर्योधन का सहारा पाकर बड़ा घमंडी हो गया है।

    अर्जुन के विशाल घोड़े वायु के समान वेगशाली थे। उनकी जीन के नीचे लगे हुए कपड़े के पिछले दोनों छोर सुनहरे थे। विराट पुत्र उत्तर ने तेजी से हाँककर उन घोड़ों के द्वारा कौरव रथियों की सेना को कुचलते हुए पाण्डु नन्दन अर्जुन को सेना के मध्य भाग में पहुँचा दिया। इतने में ही चित्रसेनख् संग्रामजित्, शत्रुसह तथा जय आदि महारथी विपाठ नामक बाणों की वर्षा करते हुए कर्ण की रक्षा करने के उद्देश्य से वहाँ आक्रमण करने वाले अर्जुन के सामने आ डटे। तब कुरुश्रेष्ठ वीरवर अर्जुन क्रोध से युक्त हो आग बबूले हो गये। धनुष मानो उस आग की ज्वाला थी और बाणों का वेग ही आँच बन गया था। जैसे आग वन को जला डालती है, उसी प्रकार वे उन कुरुश्रेष्ठ महारथियों के रथ समूहों को भस्म करने लगे। इस प्रकार घोर युद्ध छिड़ जाने पर कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर विकर्ण ने रथ पर सवार हो विपाठ नामक बाणों की भयंकर वर्षा करते हुए भीम के छोटे भाई अतिरथी वीर अर्जुन पर आक्रमण किया। तब अर्जुन ने अपने बाणों से जाम्बूनद नामक उत्तम सुवर्ण मढ़े हुए सुदृढ़ प्रत्यन्चा वाले विकर्ण के धनुष को काटकर ध्वज के भी टुकड़े टुकड़े करके गिरा दिया। रथ की ध्वजा कट जाने पर विकर्ण बड़े वेग से भाग निकला।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

      शत्रुदल के वीरों का वध करने वाले कुन्ती नन्दन अर्जुन को इस प्रकार अमानुषिक पराक्रम करते देख शत्रुंतप नामक वीर उनके सामने आया। वह अर्जुन का पराक्रम न सह अपनी बाण वर्षा से पार्थ को पीड़ा देने लगा। कौरव सेना में विचरने वाले अर्जुन ने अतिरथी राजा शत्रुंतप के बाणों से घायल होकर उसे भी तुरंत पाँच बाणों से बींध डाला। फिर उसके सारथि को दस बाण मारकर यमलोक पहुँचा दिया। भरतश्रेष्ठ अर्जुन के बाण कवच छेदकर शरीर के भीतर घुस जाते थे। उनके द्वारा घायन होकर राजा शत्रुंतप के प्राण पखेरू उड़ गये और जैसे आँधी से उखड़ा हुआ वृक्ष पर्वत शिखर से गिरे, उसी प्रकार वह रथ से रण भूमि में गिर पड़ा। नरश्रेष्ठ वीरवर धनुजय के बाणों की मार खाकर कौरव सेना के कितने ही रेष्ठ वीर घायल हो इस प्रकार काँपने लगे, जैसे समयानुसार प्रचण्ड आँधी के वेग से बड़े से बड़े जंगलों के वृक्ष हिलने लगते हैं।

     कुन्ती पुत्र अर्जुन के द्वारा मारे गये बहुतेरे उत्कृष्ट नर वीर जो सुन्दर वेशभूषा से सुशोभित थे, प्राणशुन्य होकर पृथ्वी पर सो गये। जो वीर दूसरों को वसु ( धन ) देने वाले और वासव ( इन्द्र ) के तुल्य पराक्रमी थे, वे भी वासव नन्दन अर्जुन के द्वारा उस युद्ध में पराजित हो गये। उनमें से कुछ तो सोने के कवच पहने थे और कुछ लोगों ने काले लोहे के बख्तर बाँध रक्खे थे। वे उस युद्ध भूमि में पड़े हुए हिमालय प्रदेश के विशालकाय गजराजों के समान जान पड़ते थे। इस प्रकार संग्राम में शत्रुओं का संहार करने वाले गाण्डीवधारी वीर शिरोमणि नररत्न अर्जुन वहाँ सब दिशाओं में इस प्रकार विचरने लगे, मानो ग्रीष्म ऋतु में दावानल सम्पूर्ण वन को दग्ध करता हुआ चारों ओर फैल रहा हो।

    जैसे वसन्त ऋतु में ( तेज चलने वाली ) हवा पतझड़ के बिखरे पत्तों को उड़ाती और बादलों को छिन्न - भिन्न कर देती है, उसी प्रकार उस रण भूमि में रथ पर बैइे हुए अतिरथी वीर किरीटधारी अर्जुन शत्रुओं का संहार करते हुए विचरने लगे। उनके हृदय में दीनता का लेश मात्र भी नहीं था। वे सुन्दर किरीट और मालाओं से अलंकृत थे। उन्होंने लाल घोड़़े वाले रथ पर बैठकर अपने सामने आये हुए कर्ण के भाई संग्रामजित् के घोड़ों को मार डाला और एक बाण से उसके मस्तक को भी धड़ से अलग करदिया। अपने भाई संग्रामजित् के मारे जने पर सुत पुत्र कर्ण ने कुपित हो पराक्रम दिखाने की इच्छा से अर्जुन और उत्तर पर इसउ प्रकार हठपूर्वक धावा किया, मानों कोई गजराज दो पर्वत शिखरों से भिड़ने चला हो अथवा कोई व्याघ्र किसी महाबली साँड़ पर टूट पड़ा हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)

      सूर्य पुत्र कर्ण ने बड़ी शीघ्रता के साथ पाण्डु नन्दन अर्जुन को बारह बाणों से घायल किया, उनके झाोड़ों के शरीर छेदकर छलनी कर दिये और विराट पुत्र उत्तर के हाथ में भी भारी चोट पहुँचायी। कर्ण को सहसा आते देख किरीटधारी अर्जुन भी तीव्र गति से आगे बढ़कर जैसे विचित्र पंख वाले गरुड़ किसी नाग पर जोर से आक्रमण करते हों, उसी प्रकार बड़े वेग से उस पर टूट पड़े। वे दोनों ही सम्पूर्ण धनुर्धर वीरों मे श्रेष्ठ, महान् बलवान् तथा समस्त शत्रुओं का वेग सहन करने वाले थे। कर्ण और अर्जुन का युद्ध सुनकर समस्त कौरव वीर उसे देखने के लिये दर्शकों की भाँति खड़े हो गये। अपने अपराधी कर्ण को सामने दख्ेाकर पाण्डु नन्दन अर्जुन की क्रोधाग्नि भड़क उठी। वे तुरंत ही हर्ष एवं उत्साह से भर गये और भयंकर बाणों की वर्षा करके उन्होंने क्षण भर में घोड़े, रथ और सारथि सहित कर्ण को ढक दिया।

      तदनन्तर कौरव सेना के रथियों और हाथी सवारों सहित सम्पूर्ण योद्धा अत्यन्त घायल हाकर चीखने चिल्लाने लगे। किरीटधारी पार्थ के बाणों से रथ आच्छादित हो जाने के कारण भीष्म आदि सभी महारथी घोड़ों सहित अदृश्य से हो गये। तब महामना वीर कर्ण भी बाण समूहों द्वारा अर्जुन की भुजाओं से छोड़े गये सम्पूर्ण बाणों को शीघ्र ही काटकर अपने धनुष और बाणों के साथ चिनगारियों से युक्त अग्नि की भाँति सुशोभित होने लगा। फिर तो वहाँ कर्ण बारंबार प्रत्यन्चा खींचकर धनुष की टंकर फैलाने लगा और उसकी प्रशंसा करने वाले कौरवों के दल में हथेलियें और तालियों की गड़गड़ाहट होने लगी।

      शंख बज उठे, नगाड़े पीटे जाने लगे और ढोलों का गम्भीर शब्द सब ओर गूँजने लगा। अर्जन के रथ की ध्वजा पर बैठे वानर वीर की पूँछ बहुत बड़ी पताका के समान हिल रही थी और उसके अग्र भा पर भयंकर भूतों का भैरवनाद हो रहा था। इसके साथ ही वज्र की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव धनुष की टंकार फैल रही थी। ऐसे किरीटधारी अर्जुन की ओर देखकर कर्ण बार बार सिंहनाद करने लगा। तब अर्जुन ने भी घोड़े, सारथि एवं रथ सहित कर्ण को बाणों द्वारा पीड़ित करके पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य की ओर देखते हुए कर्ण पर हठ पूर्वक बाणों की वर्षा प्रारम्भ की। यह देख कर्ण ने भी अर्जन पर मेघ की भाँति बहुत से बाणों की झड़ी लगा दी। इसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन ने भी अपने तीखे सायकों से कर्ण को ढँक दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतु:पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 30-36 का हिन्दी अनुवाद)

       इस प्रकार जहाँ राशि - राशि बाणों द्वारा भीषण मार काट मची हुई थी, उस रणक्षेत्र में वे दोनों वीर अत्यनत तीक्ष्ण शस्त्र समूहों की बौछार कर रहे थे। लोगों ने देखा, वे रथ पर बैइे हुए बाण समूह के भीतर से इस प्रकार प्रकाशित हो रहे हैं, मानो बादलों के भीतर सूर्य और चन्द्रमा चमक रहे हों। कर्ण को अर्जुन का पराक्रम असह्य हो उठा। उसने अपनी आशुकारिता ( शीघ्र बाण छोड़ने की कला ) का परिचय देते हुए तीखे बाणों से अर्जुन के चारों घोड़ों करे बींध डाला; फिर तीन बाणों से उनके सारथि को घायल कर किया और तुरंत ही तीन बाण मारकर ध्वज को भी छेद डाला। कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुष गाण्डीवधारी अर्जुन समर भूमि में शत्रुओं को रौंद डालने वाले थे। वे सूत पुत्र के बाणों से घायल होकर सोये हुए सिंह के समान जाग उठे और विपक्षियों पर सीधे आघात करने वाले बाणों द्वारा कर्ण का सामना काने के लिये आगे बढ़े।

     कर्ण की बाण वर्षा से आहत हुए महातमा अर्जुन ने अतिमानुष पराक्रम प्रकट किया। जैसे सूर्य अपनी किरणों के समूह से समस्त संसार को आच्छादित कर देते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बाण समुदाय से कर्ण के रथ को ढक दिया। उस समय अर्जुन की दशा उस गजराज की भाँति हो रही थी, जो अपने प्रतिद्वन्द्वी गज का प्रहार सहकर स्वयं भी उस पर चोट करने के लिये उद्यत हो। उन्होंने तरकस से भल्ल लामक तीखे बाण निकाले और धनुष को कान तक खींचकर सूत पुत्र के अंगों को बींध डाला। शत्रुओं का मान - मर्दन करने वाले वीर धनंजय ने गाण्डीव धनुश ये छूटकर वज्र के समान प्रकाशित होने वाले तीखे सायकों द्वारा उस युद्ध में कर्ण की दोनों भुजाओं, जाँघों, मस्तक, ललाट तथा ग्रीवा आदि उत्तम अंगों को छेद डाला। अर्जुन के छोड़े हुए बाणों की चोट खाकर सूर्य पुत्र कर्ण तिलमिला उठा और एक हाथी से पराजित हुए दूसरे वेगशाली हाथी की भाँति वह पाण्डु नन्दन अर्जुन के बाणों से संतप्त हा युद्ध का मुहाना छोड़कर भाग निकला।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय कर्ण का युद्ध से पलायन विषयक चैवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन द्वारा कौरवों का संहार और उत्तर का उनके रथ को कृपाचार्य के पास ले जाना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! राधा नन्दन कर्ण के भाग जाने पर दुर्योधन आदि कौरव योद्धा अपनी अपनी सेना के साथ धीरे - धीरे पाण्डु नन्दन अर्जुन की ओर बढ़ आये। तब जैसे वेला ( तट भूमि ) महासागर के वेग को रोक लेती है, उसी प्रकार अर्जुन ने व्यूहरचना पूर्वक बाण वर्षा के साथ आती हुई अनुक भागों में विभक्त कौरव सेना के बढ़ाव को रोक दिया। तदनन्तर श्वेत घोड़ों वाले श्रेष्ठ रथ परद आरूढ़ कुन्ती नन्दन अर्जुन ने हँसकर दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए उस सेना का सामना किया। जैसे सूर्य देव अपनी अनन्त किरणों द्वारा समूची पृथ्वी को आच्छादित कर लेते हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए असंख्य बाणों द्वारा दसों दिशाओं को ढँक दिया। वहाँ रथों, घोड़ों, हाथियों तािा उनके सवारों के अंगों और कवचों में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो अर्जुन के तीखे बाणों से बिंध न गया हो।

     अर्जुन के दिव्यास्त्रों का प्रयोग, घोड़ों की शिक्षा, रथ संचालन की कला में उत्तर का कौशल तथा पार्थ के अस्त्र चलाने का क्रम - इन सबके कारण तथा उनका पराक्रम और अत्यन्त फुर्ती देखकर शत्रु भी उनकी प्रशंसा करने लगे। अर्जुन समसत प्रजा का संहार करने वाली प्रलय कालीन अग्नि के समान शत्रुओं को भस्म कर रहे थे। वे मानो जलती आग हो रहे थे। शत्रु उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं पाते थे। अर्जुन के बाणों से आच्छादित हुई कौरवों की सेना इसप्रकार सुशोभित हुई, मानो पर्वत के निकट नवीन मेघों की घटा सूर्य की किरणों से व्याप्त हो गयी हो। भारत! उस समय कुन्ती पुत्र अर्जुन के बाणों से घायल हो लहू लुहान हुए कौरव सैनिक बहुतेरे लाल फूलों से आच्छादित अशोक वन के समान शोभा पा रहे थे। अर्जुन के बाणों से छिन्न - भिन्न हो हार से टूटकर बिखरे हुए स्वर्ण चम्पा के सूखे फूल, छत्र और पताकाओं आदि को वायु कुछ देर तक आकाश में ही धारण किये रहती थी ( बाणों के जाल पर रुक जाने से वे जल्दी नीचे नहीं गिरते थे )। अर्जुन ने जिनके जुए काट दिये थे, वे शत्रु दल के घोड़े अपनी सेना की घबराहट से स्वयं भी व्यग्र हो उठे और जुए का एक एक टुकड़ा अपने साथ लिये सब ओर भागने लगे।। अब अर्जुन युद्ध भूमि में।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

     गजराजों के कान? कक्ष, दाँत, निचले ओठ तथा अन्य मर्म स्थानों में बाण मारकर उन्हें धराशायी करने लगे। एक ही क्षण में प्राण हीन हुए कौरव सेना के आगे चलने वाले गजराजों की लाशों से वहाँ की भूमि पट गयी एवं मेघों की घटा से आचछादित आकाश की भाँति प्रतीत होने लगी। महाराज! जैसे प्रलयकाल में लपलपाती लपटों के साथ आगे बढ़ने वाली संवर्तकाग्नि सम्पूर्ण चराचर जगत् को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार कुन्ती नन्दन अर्जुन उस समर भूमि में शत्रुओं को अपनी बाणाग्नि से दग्ध करने लगे। तदनन्तर शत्रुओं का मान मर्दन करने वाले बलवान् अर्जुन ने अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रों के तेज से, धनुष की टंकार से, ध्वजा में निवास करने वाले मानवेतर भूतों के भयंकर कोलाहल से, अत्यन्त भैरव गर्जना करने वाले वानर से तथा भीषण नाद फैलाने वाले शंख से भी दुर्योधन की उस सेना में भारी भय उत्पन्न कर दिया। शत्रुओं की रथ शक्ति को तो अर्जुन पहले ही धरती पर सुला चुके थे। फिर असमर्थों का वध करना अनुचित साहस मानकर वे एक बार वहाँ से हट गये, परंतु ( उप सैनिकों को युद्ध के लिये उद्यत देख ) फिर उनके पास आ गये।

      अर्जुन के धनुष से छूटे हुए अत्यन्त तीखी धार वाले बाण समूह मानो रक्त पीने वाले आकाश चारी पक्षी थेद्व उनके द्वारा उन्होंने सम्पूर्ण आकाश को ढँक दिया। राजन्! जैसे प्रचण्ड तेज वाले सूर्य देव की किरणें एक पात्र में नहीं अँट सकती, उसी प्रकार उस समय सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए अर्जुन के असंख्य बाण आकाश में समा नीं पाते थे। शत्रु सैनिक अर्जुन का रथ निकट आने पर उसे एक ही बार पहचान पाते थे; दुबारा इसके लिये उन्हें अवसर नहीं मिलता था; क्योंकि पास आते ही अर्जुन उन्हें घोड़ों सहित इस लोक से परलोक भेज देते थे। अर्जुन के वे बाण जिस प्रकार शत्रुओं के शरीर में अटकते नहीं थे, उन्हें छेदकर पार निकल जाते थे, उसी प्रकार उनका रथ भी उस समय शत्रु सेनाओं में रुकता नहीं था; उसको चीरता हुआ आगे बढ़ जाता था। जैसे अनन्त फणों वाले नागराज शेष महासागर में क्रीड़ा करते हुए उसे मथ डालते हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने अनायास ही शत्रु सेना में घूम घूमकर भारी हलचल पैदा कर दी। जब अर्जुन बाण चलाते थे, उस समय समस्त प्राणी सदा उनके गाण्डीव धनुष की बड़े जोर से होने वाली अद्भुत टंकार सुनते थे। वैसी टंकार ध्वनि पहले किसी ने कभी नहीं सुनी थी। उसके सामने दूसरे सभी प्रकार के याब्द दब जाते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद)

     उस युद्ध भूमि में खड़े हुए हाथियों के सम्पूर्ण अंग बहुत थोड़भ् थोड़ी दूर पर बाणों से छिद गये थे। इस कारण वे सूर्य की किरणों से आवृत मेघों की घटा के समान दिखायी देते थे। अर्जुन सब दिशाओं में बार बार घूमते हुए दाँयें - बाँयें बाण चला रहे थे; इसलिये युद्ध में अलात चक्र की भाँति उनका मण्डलाकार धनुष सदा दृष्टिगोचर होता रहता था। जैसे आँखें रूप हीन पदार्थों पर कभी नहीं पड़तीं, उसी प्रकार गाण्डीवधारी अर्जुन के बाण उन व्यक्तियों पर नहीं पड़ते थे, जो उनके बाणों के लक्ष्य नहीं थे ( अर्थात् जिन्हें वे अपने बाणों का निशाना नहीं बनाना चाहते थे )। जैसे वन में एक साथ चलते हुए सहस्रों हाथियों के पद चिह्नों से बहुत साफ और चैड़ा रास्ता बन जाता है, उसी प्रकार किरीटधारी अर्जुन के रथ का मार्ग भी उनकी बाण वर्षा से साफ हो जाता था।

     अर्जुन के बाणों से घायल हुए शत्रु ऐसा समझते थे कि निश्चय ही अर्जुन की विजय की अभिलाषा रखने के कारण साक्षात् इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ आकर हमें मार रहे हैं। उस समर भूमि में असंख्य शत्रुओं काउ संहार करते हुए पार्थ की ओर देखकर लोग यह मानने लगे कि अर्जुन के रूप में साक्षात् काल ही आकर सबका संहार कर रहा है। कौरव योद्धाओं के शरीर कुन्ती नन्दन अर्जुन के बाणों से घायल होकर छिन्न - भिन्न हो गये थे। वे पार्थ के बाणों से मारे हुए की ही भाँति पड़े थे; क्योंकि पार्थ के इस अद्भुत पराक्रम की उन्हीं से उपमा दी जा सकती थी। वे धान की बाल के समान शत्रुओं से सिर क्रमशः काटते जाते थे। अर्जुन के भय से कौरवों की सारी शक्ति नष्ट हो गयी थी।

       अर्जुन के शत्रु रूपी वन अर्जुन रूपी वायु से ही छिन्न - भिन्न हो लाल धाराएँ ( रक्त )बहाकर पृथ्वी को भी लाल करने लगे। वायु द्वारा उड़ायी हुई रक्त से सनी धूल के संसर्ग से आकाश में सूर्य की किरणें भी अधिक लाल हो गयीं। जैसे संध्याकाल में पश्चिम का आकाश लाल हो जाता है, उसी प्रकार उस समय सूर्य सहित आकाश लाल रंग का हो गया था। संध्याकाल में तो सूर्य असताचल पर पहुँचकर पर-संताप-कर्म से निवृत्त हो जाते हैं; परंतु पाण्डु नन्दन अर्जुन शत्रु पीड़न रूपी कर्म से निवृत्त नहीं हुइ। अचिन्त्य मन-बुद्धि वाले शूरवीर अर्जुन ने रण भूमि में पुरुषार्थ दिखाने के लियसे डअे हुए उन सभी धनुषधारियों पर अपने दिव्यास्त्रों द्वारा आक्रमण किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 36-49 का हिन्दी अनुवाद)

     उनहोंने द्रोणाचार्य को तिहत्तर, दुःसह को दस, अश्वत्थामा को आठ, दुःशासन को बारह, शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य को तीन, शान्तनु नन्दन भीष्म को साठ तथा राजा दुर्योधन को सौ सुरप्र नाम वाले बाणों से घायल किया। तत्पश्चात् शत्रु वीरों का हनन करने वाले अर्जुन ने कर्ण के कान में एक कर्णी नामक बाण मारकर उसे बींध डाला। फिर उसके घोड़े और सारथि को भी यमलोक भेजकर रथहीन कर दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता महा धनुर्धर सुप्रसिद्ध कर्ण के घायल होने तथा उसके घोड़े, सारथि एवं रथ के नष्ट हो जाने पर सारी सेना में भगदड़ मच गयी। ।विराट कुमार उत्तर ने कौरव सेना को भागती और कुनती पुत्र अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये डटा हुआ देखकर उनका अभिप्राय समझकर यों कहा,

   उत्तर बोला ;- ‘जिष्णो! मुझ सारथि के साथ इस सुन्दर रथ पर बैठे हुए आप अब किस सेना की ओर जाना चाहते हैं ? आप जहाँ के लिये आज्ञा दें, वहीं आपके साथ चलूँ।

     अर्जुन बोले ;- उत्तर! जिनके लाल लाल घोड़े हैं, जिन शुभ स्वरूप महापुरुष को तुम बाघम्बर पहने देख रहे हो, जो अपने रथ पर नीले रंग की पताका फहराकर बैठे हुए हैं, वे कृपाचार्य जी हैं और यह उनकी श्रेष्ठ सेना है। मुझे इसी सेना के पास ले चलो। मैं इन दृढ़ धनुष वाले कृपाचार्यजी को शीघ्र अस्त्र चलाने की कला दिखलाऊँगा। जिनकी ध्वजा में सुन्दर सुवर्णमय कमण्डलु सुशोभित है, ये सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण हैं। ये मेरे तथा अन्य सब शस्त्रधारियों के माननीय हैं। तुम इन परम प्रसन्न महावीर आचार्यपाद की रथ द्वारा प्रदक्षिणा करो। तुम इसी समय इन्हें आदर दो और युद्ध के लिये उद्यत हो रथ पर बैठे रहो। यह सनातन धर्म है। यदि आचार्य द्रोण पहले मेरे शरीर पर प्रहार करेंगे, तब मैं इनके ऊपर भी

     बाणों द्वारा आघात करूँगा। ऐसा करने पर इन्हें क्रोध नहीं होगा। इनके पास ही जिनकी ध्वजा के अग्रभाग में धनुष का चिह्न दिखायी देता है, ये आचार्य के ही योग्य पुत्र महारथी अश्वत्थामा हैं। ये भी मेरे तथा सम्पूर्ण शस्त्र धारियों के लिये माननीय हैं, अतः इनके रथ के समीप जाकर भी तुम बार बार लौट आना। यह जो रथियों की सेना में सोने के कवच धारण किये तीसरी कान देने योग्य ( बिना थकी-मांदी ) सेना के साथ विराजमान हैं, जिसकी ध्वजा के अग्र भाग में नाग का चिह्न है औश्र सोने की पताका फहरा रही है, यह धृतराष्ट्र पुत्र श्रीमान् राजा दुर्योधन हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 50-60 का हिन्दी अनुवाद)

      वीर! शत्रुओं के रथ को तोड़ डालने वाले अपने इस रथ को तुम इसी के सम्मुख ले चलो। यह राजा शत्रुओं को मथ डालने वाला तथा युद्ध के लिये उन्मत्त रहने वाला है। यह शीघगता पूर्वक अस्त्र चलाने में आचार्य द्रोण के शिष्यों में प्रथम माना जाता है। इस युद्ध में आज मैं इसे शीघ्र अस्त्र चलाने की विपुल कला का दर्शन कराऊँगा। जिसकी ध्वजा के अग्र भाग पर हाथी या उसकी सांकल के चिह्न से युक्त पताका फहरा रही है, यह विकर्तन पुत्र कर्ण है। इससे तुम पहले ही परिचित हो चुके हो। इस दुरात्मा राधा पुत्र के रथ के निकट जाकर सावधान हो जाना। यह सदा युद्ध मे मेरे साथ स्पर्धा रखता है।

      जो नीले रंग की पाँच के चिह्न से सुशोभित पताका वाले रथ पर बैठे हुए हैं, जिनका धनुष विशाल है, जिन्होंने हाथों में दस्ताने पहन रक्खे हैं, जिनका वह तारों और सूर्य के चिह्नों से विचित्र शोभा धारण करने वाला ध्वज फहरा रहा है, जिनके मस्तक पर श्वेत रंग का उज्ज्वल छत्र सुशोभित है, जो नाना प्रकार की ध्वजा पताकाओं से उपलक्षित रथियों की विशाल सेना के अग्रभाग में बादलों के आगे सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं, जिनके शरीर पर चन्द्रमा और सूर्य के समान चमकीला सोने का कवच और सुवर्णमय शिस्त्राण दिखायी देता है, वे रेष्ठ रथ पर विराजमान महापराक्रमी वीर पुरुष हम सबके पितामह शान्तनु नन्दन भीष्म हैं। ये राज्य लक्ष्मी से सम्पन्न होकर भी दुर्योधन के अधीन हो रहे हैं। इसलिये मेरे मन को संतप्त सा किये देते हैं। इनके पास सबसे पीछे चलना। ये मेरे मार्ग में विघ्नकारक नहीं होंगे। इनके साथ युद्ध करते समय सावधान होकर मेरे घोड़ों को सँभालना। राजन्! अर्जुन की यह बात सुनकर विराट पुत्र उत्तर निर्भय एवं सावणान हो सव्यसाची धनंजय को उस स्थान पर ले गया, जहाँ कृपाचार्य उनसे युद्ध करने के लिये खड़े थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में अर्जुन-कृप-संग्राम विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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