सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तर के रथ पर अर्जुन को ध्वज की प्रापित, अर्जुन का शंखनाद और द्रोणाचार्य का कौरवों से उत्पात सूचक अपशकुनों का वर्णन”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! उत्तर को सारथि बना शमी वृक्ष की परिक्रमा करके अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्र लेकर पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुन युद्ध के लिये चले। उन महारथी पार्थ ने उस रथ पर से सिंह चिह्न युक्त ध्वजा को हटाकर शमी वृक्ष के नीचे रख दिया और सारथि उत्तर के साथ प्रस्थान किया। उस समय उन्होंने मन ही मन अग्नि देव के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुए अपने सुवर्णमय ध्वज का चिन्तन किया, जिस पर मूर्तिमान वानर उपलक्षित होता है और जिसकी लंबी पूँछ सिंह के समान हैं वह ध्वज क्या था, विश्वकर्मा की बनायी हुई दैवी माया थी, जो रथ में संयुक्त हो जाती थी। अग्निदेव ने अर्जुन का मनोभाव जानकर उस ध्वज पर स्थित रहने के लिये भूतों को आदेश दिया। तत्पश्चात् पताका तथा विचित्र अंग और उपांगों सहित वह अतिशय शक्तिशाली दिव्य रूप मनोरम ध्वज तुरंत ही आकाश से अर्जुन के रथ पर आ गिरा। इस प्रकार उस ध्वज को रथ पर आया हुआ देख यवेत घोड़ों वाले कुन्ती नन्दन अर्जुन ने उस रथ की परिक्रमा की तथा उसके ऊपर बैइकर अपनी अंगुलियों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने धारण किये। फिर कपिश्रेष्ठ हनुमानजी से उपलक्षित ध्वजा को फहराते हुए गाण्डीव धनुष के साथ उत्तर दिशा में प्रस्थान किया। उस समय शत्रुमर्दन महाबली अर्जुन ने घोर शब्द करने वाले अपने महान् शंख को खूब जोर लगाकर बजाया।
जिसकी आवाज सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गये। शत्रुदमन अर्जुन ने जो महान् शंख फूँका था, वह चन्द्रमा के समान परत उज्ज्वल जान पड़ता था। उस शंख का जोर जोर से होन वाला शब्द वर्षा काल के मेघ की गर्जना के समान सुनायी देता था। शंख की ध्वनि, धनुष की टंकार, वानर की गर्जना तथा रथ के पहियों की घर्घराहट से इन्द्रपुत्र अर्जुन ने समसत जंगम प्राणियों के मन में घोर भय का संचार कर दिया।। उस शंख ध्वनि से घबराकर रथ के वेगशाली घोड़ों ने भी धरती पर घुटने टेक दिये और उत्तर भी अत्यन्त भयभीत हो रथ के ऊपरी भाग में जहाँ रथी का स्थान है, आ बैठा। तब कुन्ती नन्दन अर्जुन ने स्वयं रास खींचकर घाड़ों को खड़ा किया और उत्तर को हृदय से लगाकर धीरज बँधाया।
अर्जुन ने कहा ;- शत्रुओं को संताप देने वाले राजकुमार शिरोमणे! डरो मत, तुम क्षत्रिय हो। पुरुषसिंह! शत्रुओं के बीच में आकर घबराते कैसे हो ?।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)
तुमने बहुत बार शंख ध्वनि सुनी होगी। रण भेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार तुम्हारे कानों में पड़े होंगे और व्यूहबद्ध सेनाओं में खड़े हुए चिग्घाड़ने वाले गजराजों के शब्द भी तुमने सुने ही होंगे। फिर यहाँ इस शंखनाद से तुम भयभीत कैसे हो गये ? साधारण मनुष्यों के समान अणिक डर जाने के कारण तुम्हारे शरीर का रंग फीका कैसे पड़ गया ?।
उत्तर ने कहा ;- वीरवर! इसमें संदेह नहीं कि मैंने बहुत बार शंख ध्वनि सुनी है। रण भेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार मेरे कानों में पड़े हैं और व्यूहबद्ध सेनाओं में खडे हुए चिग्घाड़ने वाले गजराजों के शब्द भी मैंने सुने हैं। परंतु आजके पहले कभी ऐसा भयंकर शंखनाद मेरे सुनने में नहीं आया था और ध्वज का भी ऐसा रूप मैंने कभी नहीं देखा था। धनुष की ऐसी टंकार भी पहले कभी मैने नहीं सुनी थी। इस शंख के भयानक शब्द से, धनुष की अनुपम टंकार से, ध्वजा में निवास करने वाले मानवेतर प्राणियों के घोर शब्द से तथा रथ की भारी घर्घराहट से भी डरकर मेरा हृदय बहुत व्याकुल हो उठा है। सम्पूर्ण दिशाओं में घबराहट छा गयी है तथा मेरे हृदय में बड़ी व्यथा हो रही है, इस ध्वज ने तो समस्त दिशाओं को ढँक लिया है। अतः मुझे किसी दिशा की प्रतीति नहीं हो रही है। गरण्डीव धनुष की अंकार से तो मेरे दोनों कान बहरे हो गये हैं। इस प्रकार दो घड़ी तक आगे बढ़ने पर अर्जुन ने विराट कुमार उत्तर से कहा,।
अर्जुन बोले ;- राजकुमार! अब तुम रथ पर अचछी तरह जम कर बैठ जाओ और अपनी टाँगों से बैठने के स्थान को जकड़ लो। साथ ही घोड़ों की रास को दृढ़ता पूर्वक पकड़े रहो। मैं फिर शंख बजाऊँगा।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तब अर्जुन ने इतने जोर से शंख बजाया मानो वे पर्वतों, पर्वतीय गुफाओं, सम्पूर्ण दिशाओं और बड़ी-बड़ी चट्टानों को भी विदीर्ण कर डालेंगे। उत्तर इस बार भी रथ के भीतरी भाग में छिपकर बैठ गया।। उस शंख के शब्द से, रथनेमियों की घर्घराहट से तथा गाण्डीव धनुष की टंकार से धरती काँप उठी। तदनन्तर अर्जुन ने उत्तर को पुनः धीरज बँधाया। ( यह शंख ध्वनि सुनकर कौरव सेना में )
द्रोणाचार्य ने कहा ;- जैसी यह रथ की घर्घराहट सुनायी दे रही है, जिस तरह उससे मेघ गर्जना का सा शब्द हो रहा है और उसी के कारण जिस प्रकार यह पृथ्वी काँपने लगी है, इनसे यह सूचित होता है कि यह आने वाला योद्धा अर्जुन के सिवा दूसरा कोई नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद)
अब हमारे शस्त्र चमक नहीं रहे हैं, घोड़े प्रसन्न नहीं जान पड़ते और
अग्निहोत्र की अग्नियाँ भी प्रज्वलित एवं उद्दीप्त नहीं हो रही हैं। यह सब अशुभ की सूचना है। हमारे सभी पशु सूर्य की ओर दृष्टि करके भयंकर क्रन्दन करते हैं और रथों की ध्वजाओं में कौए छिप रहे हैं। यह भी शुभ सूचक नहीं है। ये पक्षी भी हमारे वाम भाग में उड़कर महान् भय की सूचना दे रहे हैं। और यह गीदड़ बिना किसी आघात के हमारी सेना के बीच से निकलकर रोता हुआ भाग रहा है, यह भी महान् भय का विज्ञापन कर रहा है। कौरवों! मैं देखता हूँ, तुम्हारे रोंगटे खड़े हो गये हैं; अतः निश्चय ही, इस युद्ध के द्वारा क्षत्रियों का विनाश निकट दिखायी देता है। सेर्य आदि का प्रकाश मंद पड़ गया है।
भयंकर मृग और पक्षी सामने आ रहे हैं और क्षत्रियों के संहार की सूचना देने वाले अनेक प्रकार के घोर उत्पात दिखायी देते हैं। राजा दुर्योधन! विशेषतः यहीं हमारे लिये विनाश सूचक अपशकुन हो रहे हैं। तुम्हारी सेना के ऊपर जलती हुई उल्काएँ गिर गिरकर उसे पीड़ा देती हैं। तुम्हारे वाहन ( हाथी - घोड़े ) अप्रसन्न तथा रोते से दीखते हैं। सेना के चारो ओर गीध बैठे हैं, इससे जान पड़ता है, तुम अपनी सेना को अर्जुन के बाणों से पीड़ित होती देख मन में संताप करोगे। तुम्हारी सेना अभी से तिरस्कृत सी हो रही है, कोई भी सैनिक युद्ध करना नहीं चाहता है। समस्त सैनिकों के मुख पर भारी उदासी छा गयी है। सब अचेत - हतोत्साह हो रहे हैं। अतः हम गौओं को हस्तिनापुर की ओर भेजकर सेना की व्यूह रचना करके शत्रु पर प्रहार करने के लिये उद्यत हो जायँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के अवसर पर उत्पात सूचक अपशकुन सम्बन्धी छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
सैतालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन के द्वारा युद्ध का निश्चय तथा कर्ण की उक्ति”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन ने समर भूमि में भीष्म, रथियों में श्रेष्ठ द्रोण और महारथी कृपाचार्य से कहा,
दुर्योधन बोला ;- ‘आचार्यों! मैंने और कर्ण ने यह बात आप लोगों से कई बार कही है और फिर उसी बात को दुहराता हूँ; क्योंकि उसे बार बार कहकर भी मुझे तृपित नहीं होती। ‘जूआ खेलते समय हम लोगों की यही शर्त थी कि हममें से जो हारेंगे, उन्हें बारह वर्षों तक किसी वन में प्रकट रूप से और एक वर्ष तक किसी नगर में अज्ञात भाव से निवास करना पड़ेगा। ‘अभी पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष पूरा नहीं हुआ है, तो भी अज्ञातवास में रहने वाला अर्जुन आज प्रकट रूप से हमारे साथ युद्ध करने आ रहा है। ‘यदि अज्ञातवास पूर्ण होने के पहले ही अर्जुन आ गया है, तो पाण्डव फिर बारह वर्षों तक वन में निवास करेंगे। ‘वे राज्य के लोभ में अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण नहीं रख सके हैं या हम लोगों में ही मोह ( प्रमाद ) आ गया है। इनके तेरहवें वर्ष में अभी कुछ कमी है या अणिक दिन बीत गये हैं; यह भीष्मजी जान सकते हैं। ‘जिन विषयों में दुविधा पड़ जाती है, उनमें सदा संदेह बना रहता है।
किसी विषय को अन्य प्रकार से सोचा जाता है, किन्तु पता लगने पर वह किसी और ही प्रकार का सिद्ध होता है। ‘हम लोग मत्स्य देश के उत्तरगोष्ठ की खोज करते हुए यहाँ आये और मत्स्य देश के सैनिकों के साथ ही युद्ध करना चाहते थे। इस दशा में भी यदि अर्जुन हमसे युद्ध करने आया है, तो हम किसका अपराध कर रहे हैं ?। ‘मत्स्य निवासियों के साथ भी जो हम यहाँ युद्ध के लिये आये हैं, वह अपने स्वार्थ के लिये ही, त्रिगर्तों की सहायता के उद्देश्य से हमारा यहाँ आगमन हुआ है। त्रिगर्तों ने हमारे सामने मत्स्य देशीय सैनिकों के बहुत से अत्याचारों का वर्णन किया था। ‘वे भय से बहुत दबे हुए थे; इसलिये हमने उनकी सहायता के लिये प्रतिज्ञा की थी। हमारी उनकी बात यह हुई थी कि वे लोग सप्तमी तिथि को अपरान्ह काल में मत्स्य देश के ( दक्षिण ) गोष्ठ पर आक्रमण करके वहाँ का महान् गोधन अपने आधीकार में कर लें। ऐसा ही उनहोंने किया भी है। ‘साथ ही यह भी तै हुआ था कि हम लोग अष्टमी को सूर्योदय होते होते उत्तर गोष्ठ की इन गौओं को ग्रहण कर लें; क्योंकि उस समय मत्स्यराज गौओं के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए त्रिगर्तोें के पीछे गये होंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)
‘वे त्रिगर्त सैनिक गौओं को यहाँ ले आयेंगे अथवा यदि परास्त हो गये, तो हम लोगों से मिलकर पुनः मत्स्यराज के साथ युद्ध करेंगे। ‘अथवा यदि मत्स्यराज त्रिगर्तों को भगाकर अपने देश के लोगों एवं अपनी सारीद भयंकर सेना के साथ इस रात में हम लोगों से युद्ध करने के लिये यहाँ आ रहे होंगे। ‘उन्हीं सैनिकों में से यह कोई महापराक्रमी योद्धा अगुआ बनकर हमें जीतने आया है। यह भी संभव है कि ये स्वयं मत्स्यराज ही हों। ‘यदि यह मत्स्यों का राजा विराट हो अथवा अर्जुन ही उसकी ओर से आया हो, तो भी हम सब लोगों को उससे युद्ध करना ही है; यह हमने प्रतिज्ञा कर ली है। ‘फिर ये हमारे श्रेष्ठ रथी महारथी भीष्म, द्रोण्ध, कृप, विकर्ध और अश्वत्थामा आदि इस समय भ्रान्तचित्त हो रथों में चुपचाप बैठे हैं ?
युद्ध के सिवा और किसी बात में कल्याण नहीं है। यह समझकर अपने आपको इस परिस्थिति के अनुकूल बनाना चाहिये। ‘यदि स्वयं वज्रधारी इन्द्र अथवा यमराज ही युद्ध में आकर हमसे गोधन छीन लें, तो भी ऐसा कौन होगा, जो उनका सामना करना छोड़कर हस्तिनापुर को लौट जायेगा ?। ‘यदि कोई गहन वन में भागकर प्राण बचाना चाहे, तो मेरे इन बाणों से वे छिन्न - भिन्न कर दिये जायँगे। इस तरह भागने वाले पैदल सैनिकों में से कौन जीवित रह सकता है ? घुड़सवारों के विषय में संदेह है ( वे भागने पर मारे भी जा सकते हैं और बच भी सकते हैं )’।
दुर्योधन की बात सुनकर राधा नन्दन कर्ण ने कहा ,
कर्ण बोला ;- ‘राजन्! आप आचार्य द्रोण को पीछे रखकर ऐसी नीति बनाइये कि विजय प्राप्त हो। ‘ये पाण्डवो का मत जानते हैं, इसीलिये यहाँ हमें डरा रहे हैं। और अर्जुन के प्रति इनका प्रेम अधिक मैं देखता हूँ। ‘तभी तो अर्जुन को आते देख ये उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। ( इनकी बातों से हतोत्साह होकर ) सेना मे भगदड़ न मच जाय, इसका खयाल रखते हुए तद्नुकूल नीति निर्धारित कीजिये। ‘( आगे रहने पर ) ये अर्जुन के घोड़ों की हिनहिनाहट सुनते ही घबरा उठेंगे। फिर तो सारी सेना विचलित हो जायगी। इस समय हम विदेश में हैं, बड़े भारी जंगल में पड़े हुए हैं, गर्मी की ऋतु हैं और हम शत्रु के वश में आ गये हैं; अतः ऐसी नीति से काम लें कि इनकी बातें सुनकर सैनिकों के मन में भ्रम न फैले। ‘आचार्य को सदा से ही पाण्डव अधिक प्रिय रहे हैं। उन स्वार्थियों ने अपना काम बनाने के लिये ही द्रोणाचार्य को आपके पास रख छोड़ा है। ये स्वयं भी ऐसी बातें कहते हैं, जिससे हमारे कथन की पुष्टि होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 25-34 का हिन्दी अनुवाद)
भला, घोड़ों की हिनहिनाहट सुनकर कौन किसी की प्रशंसा करने लग जाता है ? घोड़े अपने स्थान पर हों या यात्रा करते हों, वे सदा ही हींसते रहते हैं ( इससे किसी की वीरता का क्या संबंध है,)। ‘हवा सदा चला करती है। इन्द्र हमेशा वर्षा करते हैं। मेघों की गर्जना बहुत बार सुनने को मिलती है। ( इससे डरने या अपशकुन मानने की क्या बात है ?) इसमें अर्जुन का क्या काम है (कौन सा चमत्कार है ?) इस बात को लेकर क्यों उसकी प्रशंसा की जाती है ? इसका कारण इस बात के सिवा और क्या हो सकता है कि आचार्य के मन में अर्जुन का भला करने की इच्छा हो एवं हमारे प्रति इनके हृदय में केवल द्वेष तथा रोष का भाव ही संचित हो ?। ‘आचार्य लोग बड़े दयालु, बुद्धिमान् और पाप तथा हिंसा के विरुद्ध विचार रखने वाले होते हैं। जब कोई महान् भय का अवसर प्राप्त हो, उस समय इनसे कोई किसी प्रकार की सलाह नहीं पूछनी चाहिये। ‘पण्डित लोग सुन्दर महलों और मन्दिरों में, सभाओं में और बगीचों में बैइकर जब विचित्र कथा वार्ता सुना रहे हों, तब वहीं उनकी शोभा होती है।
जनसमुदाय में बहुत से आश्चर्यजनक विनोदपूर्ण कार्य करने तथा यज्ञ - सम्बन्धी आयुधों ( पात्रों ) को यथास्थान रखने एवं प्रोक्षण आदि करने में ही पण्डितों की शोभा है। ‘दूसरों के छिद्र को जानने या देचाने में, मनुष्यों की दिनचर्या बताने में, घोड़े तथा रथ यात्रा करने का मुहुर्त आदि से निकालने में, गदहों, ऊँटों, बकरों और भेड़ों की गुण दोष समीक्षा तथा घर के श्रेष्ठ दरवाजों पर किये जाने वाले मांगलिक कृत्य में, नवीन अन्न का इष्टि द्वारा संस्कार कराने तथा अन्न में केश कीट आदि गिर जाने से जो दोष आता है, उन पर विचार करने में भी पण्डितों की राय लेनी चाहिये। ऐसे ही कार्यों में उनकी शोभा है। ‘शत्रुओं के गुणों का बखान करने वाले पण्डितों को पीछे करके ऐसी नीति काम मे लें, जिससे शत्रु का वध हो सके।। ‘गौओं को बीच में खड़ी करके उनके चारों ओर सेना का व्यूह बना लिया जाय तथा सब ओर से रक्षा की ऐसी व्यवसािा कर ली जाय, जिससे हम शत्रुओं के साथ युद्ध कर सकें’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह में दुर्योधन वाक्य सम्बन्धी सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कर्ण की आत्मप्रशंसापूर्ण अहंकारोक्ति”
कर्ण बोला ;- मैं आप सब आयुष्मानों को भयभीत एवं त्रस्त सा देखता हूँ। आपमें से किसी का मन युद्ध में नहीं लग रहा है एवं सभी चन्चल दिखायी देते हैं। यदि यह मत्स्य देश का राजा हो अथवा यदि स्वयं अर्जुन आया हो, तो भी जैसे वेला समुद्र को रोक देती है, उसी प्रकार मैं भी इसे आगे बढ़ने से रोक दूँगा। मेरे धनुष से छूटकर सर्पों की भाँति आगे बढ़ने वाले और झुकी हुई गाँठ वाले बाण कभी अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते। सुनहरी पाँख और तीखी नोक वाले बाण मेरे हाथों से छूटकर अर्जुन को ठीक उसी तरह, ढँक लेंगे; जैसे टिड्डियाँ पेड़ को आच्छादित कर देती हैं।
पाँख वाले बाणों को धनुष की प्रत्यन्चा पर चढ़ाकर भली-भाँति खींचने के पश्चात् मेरी दोनों हथेलियों का ऐसा शब्द होता है, जैसे दो नगाड़े पीअे गये हों। आज वह शब्द आप लोग सुनें। अर्जुन तेरह वर्षों तक वन में समाधि लगाता रहा है, किंतु उसका इस युद्ध में स्नेह है; अतः मुझ पर वह बाणों का प्रहार करेगा। कुन्ती नन्दन धनुजय गुणवान् ब्राह्मण की भाँति मेरे लिये एक सुपात्र व्यक्ति है। अतः आज वह मेरे छोड़े हुए सहस्रों बाण समुदायों का दान स्वीकार करे। यह तीनों लोकों मे महान् धनुर्धर के रूप में विख्यात है और मैं भी नरश्रेष्ठ अर्जुन से किसी बात में कम नहीं हूँ। इधर उधर दोनों ओर से छूटे हुए गीध की पाँखों से युक्त सुवर्णमय बाणों द्वारा आच्छादित हो आज आकाश जुगनुओं से भरा हुआ सा दिखायी देगा।
मैं आज युद्ध में अर्जुन को मारकर पहले की हुई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दुर्योधन का अक्षय ऋण चुका दूँगा। आज बीच से कअकर इधर उधर बिखर जाने वाले पंख युक्त बाणों का आकाश में फतिंगों की भाँति उड़ना और गिरना देखो। यद्यपि अर्जुन महेन्द्र के समान तेजस्वी है, तो भी आज उसे उल्काओं ( मशालो ) द्वारा गजराज की भाँति इन्द्र के वज्र की तरह कठोर स्पर्श वाले अपने बाणों ये पीड़ित कर दूँगा। जो रथियों से भी बढ़कर अतिरथी, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ औश्र शूरवीर है, उस कुन्ती पुत्र को आज मैं युद्ध में विवश करके उसी प्रकार दबोच लूँगा, जैसे गरुड़ा साँप को पकड़ लेता है। जो अग्नि की भाँति दुर्धर्ष है, खड्ग, शक्ति और बाण रूपी ईंधन से प्रज्वलित है और अपने शत्रु को भस्म कर रही है, उस अर्जुन रूपी जलती हुई आग को आज मैं महामेघ बनकर बुझा दूँगा। मेरे अश्वों का वेग ही पुरवैया हवा का काम करेगा। रथ समूह की घर्घराहट ही बादलों की गम्भीर गर्जना होगी और बाणों की धारा ही जलधारा का काम करेगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 16-23 का हिन्दी अनुवाद)
आत मेरे धनुष से छूटे हुए सर्पों के समान विषैले बाण अर्जुन के शरीर में उसी प्रकार प्रवेश करेंगे, जैसे साँप बाँबी में घुसते हैं। कनेर के फूलों से व्याप्त पर्वत की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार मेरे तेज, सुनहरे पंख वाले, उज्ज्वल और झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कुन्ती पुत्र अर्जुन को आच्छादित हुआ देखो। मुलिश्रेष्ठ परशुरामजी से मैंने जो अस्त्र प्राप्त किये हैं, उन अस्त्रों और अपने पराक्रम का आश्रय लेकर मैं इन्द्र से भी युद्ध कर सकता हूँ। अर्जुन कीध्वजा के अग्र भाग पर स्थित होने वाला वानर भयंकर गर्जना किया करता है, वह आज ही मेरे बाणों से मारा जाकर पृथ्वी पर गिर जाय।
शत्रु की ध्वजा में निवास करने वाले भूतगण भी मुझसे मारे जाकर जब चारों दिशाओं में भागने लगेंगे, उस समय उनके हाहाकार का शब्द स्वर्गलोक तक पहुँच जायगा। अर्जुन को रथ से गिराकर आज मैं दुर्योधन के हृदय में चिरकाल से चुभे हुए काँटे को जड़ सहित निकाल फेंकूँगा।। पुरुषार्थ साधन में लगे हुए अर्जुन के घोड़े मार दिये जायँगे और वह रथहीन होकर केवल साँप की भाँति फुफकार मारता फिरेगा। कौरव लोग आज उसकी वह अवस्था भी देखें। कौरवों की इच्छा हो तो वे केवल गोधन लेकर यहाँ से चले जायँ अथवा अपने रथों पर बैठे रहकर अर्जुन के साथ मेरा युद्ध देखें।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय कर्ण के आत्मप्रशंसापूर्ण वचन सम्बन्धी अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
उनचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
“कृपाचार्य का कर्ण को फटकारते हुए युद्ध के विषय में अपना विचार बताना”
तदनन्तर कृपपाचार्य ने कहा ;- राधा नन्दन! युद्ध के विषय में तुम्हारा विचार सदा ही क्रूरतापूर्ण रहता है। तुम न जो कार्यों के स्वरूप को ही जानते हो और न उसके परिणाम का ही विचार करते हो। मैंने शास्त्र का आश्रय लेकर बहुत सी मायाओं का चिनतन किया है; किंतु उन सबमें युद्ध ही सर्वाधिक पापपूर्ध कर्म है - ऐसा प्राचीन विद्वान् बताते हैं। देश और काल के अनुसार जो युद्ध किया जाता है, वह विजय देने वाला होता है; किंतु जो अनुपयुक्त काल में किया जाता है, वह युद्ध सफल नहीं होता। देश ओर काल के अनुसार किया हुआ पराक्रम ही कल्याणकारी होता है। देश और काल की अनुकूलता होने से ही कार्यों का फल सिद्ध होता है। विद्वान् पुरुष रथ बनाने वाले ( सूत ) की बात पर ही सारा भार डालकर स्वयं देश काल का विचार किये बिना युद्ध आदि का निश्चय नहीं करते। विचार करने पर तो यही समझ में आता है कि अर्जुन के साथ युद्ध करना हमारे लिये कदापि उचित नहीं है; ( क्योंकि वे अकेले भी हमें परास्त कर सकते हैं )। अर्जुन ने अकेले ही उत्तर कुरुदेश पर चढ़ाई की और उसे जीत लिया। अकेले ही खाण्डव वन देकर अग्नि को तृप्त किया। उन्होंने अकेले ही पाँच वर्ष तक कठोर तप करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। अकेले ही सुभद्रा को रथ पर बिठाकर उसका अपहरण किया औश्र इन्द्र युद्ध के लिये श्रीकृष्ण को भी ललकारा।
अर्जुन ने अकेले ही किरात रूप में सामने आये हुए भगवान् शंकर से युद्ध किया। इसी वनवास की घटना है, जब जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया था, उस समय भी अर्जुन ने अकेले ही उसे हराकर द्रौपदी को उसके हाथ से छुड़ाया था। उन्होंने अकेले ही पाँच वर्ष तक स्वर्ग में रहकर साक्षात् इन्द्र से अस्त्र शस्त्र सीखे हैं और अकेले ही सब शत्रुओं को जीतकर कुरुवंश का यश बढ़ाया है। शत्रुओं का दमन करने वाले महावीर अर्जुन ने कौरवों की घोष यात्रा के समय युद्ध में गन्धर्वों की दुर्जय सेना का वेग पूर्वक सामना करते हुए अकेले ही गन्धर्वराज चित्रसेन पर विजय पायी थी। निवातकवच और कालखन्ज आदि दानवगण तो देवताओं के लिये भी अवध्य थे, किंतु अर्जुन ने अकेले ही उन सबकों युद्ध में मार गिराया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 11-23 का हिन्दी अनुवाद)
किंतु कर्ण! तुम तो बताओ, तुमने पहले कभी अकेले रहकर इस जगत् में कौन सा पुरुषार्थ किया है ? पाण्डवों में से तो एक एक ने विभिन्न दिशाओं में जाकर वहाँ के भूपालों को अपने वश में कर लिया था ( क्या तुमने भ्ज्ञी ऐसा कोई कार्य किया है ? )। अर्जुन के साथ तो इन्द्र भी रण भूमि में खड़े होकर युद्ध नहीं कर सकते। फिर जो उनसे अकेले भिड़ने की बात करता है, ( वह पागल है। ) उसकी दया करानी चाहिये। सूत पुत्र! ( अर्जुन के साथ अकेले भिड़ने का साहस करके ) तुम मानो क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के मुख में से उसके दाँत उखाड़ लेना चाहते हो। अथवा वन में अकेले घूमते हुए तुम बिना अंकुश के ही मतवाले हाथी की पीठ पर बैठकर नगर में जाना चाहते हो। अथवा अपने शरीर में घी पोतकर चिथड़े या वल्कल पहने हुए तुम घी, मेदा और चर्बी आदि की आहुतियों से प्रज्वलित आग के भीतर से होकर निकलना चाहते हो।
अपने आपको बन्धन में जकड़कर और गले में बड़ी भारी शिला बाँधकर कौन दोनों हाथों से तैरता हुआ समुद्र को पार कर सकता है ? उसमें क्या यह पुरुषार्थ है! अर्थात् मूर्खता है। कर्ण! जिसने अस्त्र शस्त्रों की पूर्ण शिक्षा न पायी हो, वह अत्यनत दुर्बल पुरुष यदि अस्त्र शस्त्रों की कला में प्रवीण कुन्ती पुत्र अर्जुन जैसे बलवान् वीर से युद्ध करना चाहे, तो समझना चाहिये कि उसकी बुद्धि मारी गयी है। हम लोगों ने तेरह वर्षों तक इन्हें वन में रखकर इनके साथ कपटपूर्ण बर्ताव किया है। ( अब ये प्रतिज्ञा के बन्धन से मुक्त हो गये हैं; ) अतः बन्धन से छूटे हुए सिंह की भाँति क्या वे हमारा विनाश न कर डालेंगे ? कुएँ में छिपी हुई अग्नि के समान यहाँ एकान्त में स्थित कुनती पुत्र अर्जुन के पास मि अज्ञानवश आ पहुँचे हैं और भारी संकट में पड़ गये हैं। इसलिये हमारा विचार है हम लोग एक साथ संगठित होकर यहाँ आये हुए रणोन्मत्त अर्जुन के साथ युद्ध करें। हमारे सैनिक कवच बाँधकर खड़े रहें, सेना का व्यूह बना लिया जाय और सब लोग प्रहार करने के लिये उद्यत हो जायँ।
कर्ण! तुम अकेले अर्जुन से भिड़ने का दुःसाहस न करो। आचार्य द्रोण, दुर्योधन, भीष्म, तुम, अश्वत्थामा और हम सब मिलकर अर्जुन से युद्ध करेंगे। यदि हम छहों महारथी संगठित होकर सामना करें, तभी इन्द्र के सदृश दुर्धर्ष एवं दृढ़ निश्चयी कुन्ती पुत्र अर्जुन के साथ युद्ध कर सकते हैं। सेनाओं की व्यूह रचना हो जाय और हम सभी श्रेष्ठ धनुर्धर सावधान रहें, तो जैसे दानव इन्द्र से भिड़ते हैं, उसी प्रकार हम युद्ध में अर्जुन का सामना कर सकते हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय कृपाचार्य वाक्य विषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामा के उद्गार”
अश्वत्थामा ने कहा ;- कर्ण! अभी तो हमने न गौओं को जीता है, न मत्स्य देश की सीमा के बाहर जा सके हैं और न हस्तिनापुर में ही पहुँच गये हैं। फिर तुम इतनी व्यर्थ बकवाद क्यों कर रहे हो ?। विद्वान् पुरुष बहुत सी लड़ाइयाँ जीतकर, असंख्य धनराशि पाकर तथा शत्रुओं की सेना को परास्त करके भी इस तरह व्यर्थ वकबाद नहीं करते। आग बिना कुछ कहे सुन ही सबको जलाकर भस्म कर देती है, सेर्यदेव मौन रहकर ही प्रकाशित होते हैं, पृथ्वी चुप रहकर ही सम्पूर्ण चराचर लोकों को धारण करती है ( इनमें से कोई अपने पराक्रम की प्रशंसा नहीं करता )। ब्रह्माजी ने चारों वर्णों के कर्म नियत कर दिये हैं, जिनसे धन भी मिल सकता है और जिनका अनुष्ठान करने से कर्ता दोष का भागी नहीं होता। ब्राह्मण वेदों को पढ़कर यज्ञ करावे अथवा करे।
क्षत्रिय धनुष का आश्रय लेकर धन कमाये और यज्ञ करे; परंतु वह दूसरों का यज्ञ न करावे ( क्योंकि यह काम ब्राह्मणों का है )। वैश्य कृषि और व्यापार आदि के द्वारा धनोपार्जन करके ब्राह्मणों के द्वारा वेदोक्त कर्म करावें और शूद्र वैतसी वृत्ति ( बेंत के वृक्ष की भाँति नम्रता ) का आश्रय ले प्रणाम और आज्ञा पालन आदि के द्वारा सदा तीनों वर्णों के पास रहकर उनकी सेवा करे। महान् सौभाग्यशाली श्रेष्ठ पुरुष शास्त्र की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करते हुए न्याय से इस पृथ्वी को प्राप्त करके भी अत्यन्त गुणहीन गुरुजनों का भी सत्कार करते हैं ( और यहाँ अन्याय से राज्य लेकर गुणवान् गुरुजनों का भी तिरस्कार हो रहा है )।
भला जूए से राज्य पाकर कौन क्षत्रिय संतुष्ट हो सकता है ? परंतु इस धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को इसी में संतोष है; क्योंकि यह क्रूर और निर्दयी है। जैसे व्याघ्र शठता और छल कपट से भरे हुए उपायों द्वारा जीवन निर्वाह करता है, उस प्रकार कपटपूर्ण वृत्ति से धन पाकर कौन बुद्धिमान् पुरुष अपने ही मुँह से अपनी बड़ाई करेगा ?।
राजा दुर्योधन! तुमने जिन पाण्डवों का धन कपटद्वद्यूत के द्वारा हर लिया है, उनमें से धनंजय, नकुल या सहदेव किसको कब युद्ध में हराया है ? वह कौन सा द्वन्द्व युद्ध हुआ था, जिसमें तुमने अर्जुन आदि में से किसी को जीता हो ? धर्मराज युधिष्ठिर अथवा बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन तुम्हारे द्वारा किस युद्ध में परास्त किये गये हैं ? आज जिस इन्द्रप्रस्थ पर तुम्हारा अधिकार है, उसे पहले तुमने किस युद्ध में जीता था?।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)
दुष्ट कर्म करने वाले पापी! बताओ तो, कौन सा ऐसा युद्ध हुआ था, जिसमें तुमने द्रौपदी को जीत लिया हो ? तुम लोग तो अकारण ही एक वस्त्र धारण करने वाली बेचारी द्रौपदी को रजस्वलावस्था में राजसभा के भीतर घसीट लाये थे। सूत पुत्र! जैसे धन की इच्छा रखने वाले मनुष्य चन्दन की लकड़ी काटता है, उसी प्रकार तुमने और दुर्योधन ने कपटद्यूत और द्रौपदी के अपमान द्वारा इन पाण्डवों का मूलोच्छेद किया। जिस समय तुम लोगों ने पाण्डवों को कर्मकार ( दास ) बनाया था, उस दिन वहाँ महात्मा विदुर ने क्या कहा था; ( उन्होंने जूए को कुरुकुल के संहार का कारण बताया था, ) याद है न ?। हम देखते हैं, मनुष्य हों या अन्य जीव जनतु अथवा कीड़े मकोड़े आदि ही क्यों न हों, सबमें अपनी अपनी शक्ति के अनुसार सहनशीलता की एक सीमा होती है। द्रौपदी को जो कष्ट दिये गये हैं, उन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन कभी क्षमा नहीं कर सकते। धृतराष्ट्र के पुत्रों का संहार करने के लिये ही धनन्जय प्रकट हुए हैं और एक तुम हो, जो यहाँ पण्डित बनकर बड़ी बड़ी बातें बनाना चाहते हो। क्या वैर का बदला चुकाने वाले अर्जुन हम लोगों का संहार नहीं कर डालेंगे?।
यह कभी सम्भव नहीं है कि कुन्ती नन्दन अर्जुन भय के कारण देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षसों से भी युद्ध न करें। जैसे गरुड़ जिस जिस वृक्ष पर पैर रखते हैं, अपने वेग से उसे गिराकर चले जाते हैं, उसी प्रकार अर्जुन अत्यन्त क्रोध में भरकर संग्राम भूमि में जिस जिस महारथी पर आक्रमण करेंगे, उसे नष्ट करके ही आगे बढ़ेंगे। कर्ण! अर्जुन पराक्रम में तुमसे बहुत बढ़े - चढ़े हैं, धनुष चलाने में तो वे इन्द्रराज कं तुल्य हैं और युद्ध की कला में साक्षात् वसुदेव नन्दन कृष्ण के समान हैं; ऐसे कुन्ती पुत्र की कौन प्रशंसा नहीं करेगा ?। जो देवताओं के साथ देवोचित्त ढेग से और मनुष्यों के साथ्सा मानवोचित प्रणाली से युद्ध करते हैं और प्रत्येक अस्त्र को उसके विरोधी अस्त्र, द्वारा नष्ट करते हैं, उन कुन्ती नन्दन धनुजय की समानता करने वाला कौन पुरुष है ?। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा मानते हैं कि गुरु को पुत्र के बाद शिष्य ही प्रिय होता है, इस कारण से भी पाण्डु नन्दन अर्जुन आचार्य द्रोण को प्रिय हैं ( अतः वे उनकी प्रशंसा क्यों न करें ?)।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 22-28 का हिन्दी अनुवाद)
दुर्योधन! जैसे तुम लोगों ने जूए का खेल किया, जिस तरह इन्द्रप्रस्थ के राज्य का अपहरण किया और जिस प्रकार भरी सभा में द्रौपदी को घसीट कर ले गये, उसी प्रकसार पाण्डु नन्दन अर्जुन से युद्ध भी करो। ( जब उन अन्यायों के समय तुम्हें हमारे सहयोग की आवश्यकता नहीं जान पड़ी, तब इस युद्ध में भी सहयोग ही आशा न रक्खो )। ये तुम्हारे मामा शकुनि बड़े बुद्धिमान् और क्षत्रिय धर्म के महापण्डित हैं। छल पूर्वक जूआ खेलने वाले वे गान्धार देश के नरेश शकुनि ही यहाँ युद्ध करें। गाण्डीव धनुष सतयुग, द्वापर और त्रेता नामक पासे नहीं फेंकता है, वह तो लगातार तीखे और प्रज्वलित बाणों की वर्षा करता है।
गाण्डीव से छूटे हुए गीध के पंखों वाले तीखे बाण पर्वतों को भी विदीर्ण करने वाले हैं। वे शत्रु की छाती में घुसे बिना नहीं रहते। यमराज, वायु, मृत्यु और बड़वानल - ये चाहे जड़ मूल से नष्ट न करें, कुद बाकी छोड़ दें, परंतु कुपित होने पर कुछ भी नहीं छोड़ेंगे। राजन्! जैसे राजसभा में तुमने मामा के साथ जूए का खेल किया है, उसी प्रकार संग्राम भूमि में भी तुम उन्हीं मामा शकुनि से सुरक्षित होकर युद्ध करो। ( किसी दूसरे से सहयोग की आशा न रक्खो )। अथवा अन्य योद्धाओं की इच्छा हो, तो वे युद्ध कर सकते हैं, किंतु मैं अर्जुन के साथ नहीं लड़ूँगा। हमें तो मत्स्य देश से युद्ध करना है। यदि वे इस गोष्ठ पर आ जायँ, तो मैं उनके साथ युद्ध कर सकता हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के समय अश्वत्थामा वाक्य विषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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