सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तर का अर्जुन के आदेश के अनुसार शमी वृक्ष से पाण्डवों के दिव्य धनुष आदि उतारना”
उत्तर बोला ;- मैंने तो सुन रक्खा है कि इस वृक्ष में कोई लाश बँधी है? ऐसी दशा में मैं राजकुमार होकर अपने हाथ से उसका स्पर्श कैसे कर सकता हूँ ?। एक तो मैं क्षत्रिय, दूसरे महान् राजकुमार तथा तीसरे मन्त्र और यज्ञों का ज्ञाता एवं सत्पुरुष हूँ, अतः मुझे ऐसी अपवित्र वस्तु का स्पर्श करना उचित नहीं है। बृहन्नले! यदि मैं शव का स्पर्श कर लूँ, तो मुर्दा ढोने वालों ही भाँति अपवित्र हो जाऊँगा, फिर तुम मुझे व्यवहार में लाने योग्य शुद्ध कैसे कर सकोगी?।
बृहन्नला ने कहा ;- राजेन्द्र! तुम इन धनुषों को छूकर भी व्यवहार में लाने योग्य और पवित्र ही रहोगे। डरो मत ये केवल धनुष हैं; इनमें कोई शव नहीं है। राजकुमार! तुम मनस्वी पुरुषों के उत्तम कुल में उत्पन्न और मत्स्य नरेश के पुत्र हो। भला, मैं तुमसे कोई निन्दित कर्म कैसे करवा सकती हूँ?।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन के ऐसा कहने पर कुण्डलधारी विराट पुत्र उत्तर विवश हो रथ से कूदकर शमी वृक्ष पर चढ़ गया। तब रथ पर बैठे हुए शत्रुनाशक पृथा पुत्र धनुजय ने शासन के स्वर में कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘इन धनुषों को जल्दी वुक्ष से नीचे उतारो और इन सबका पत्रमय वेष्टन भी शीघ्र हटा दो।
तब उत्तर ने विशाल वक्षःस्थल वाले पाण्डवों के बहुमूल्य धनुषों को वृक्ष से नीचे ले आकर उन पर जो पत्तों के वेष्टन लगे थे, उन्हें खोलकर हटाया। फिर उन धनुषों तथा उनकी डोरियों को सब ओर से खोलकर अर्जुन के पास ले आया। उसमें अन्य चार धनुषों के साथ रक्खे हुए गाण्डीव धनुष को उत्तर ने देखा। वेष्टन खोलने पर उन सूर्य के समान तेजस्वी धनुषों की प्रभा चारों ओर फैल गयी, जैसे उदय होने पर ग्रहों का दिव्य प्रकाश सब ओर छा जाता है। जँभाई लेने के लिये मुँह खोले हुए विशाल सर्पों की भाँति उन धनुषों का रूप देखकर उत्तर के शरीर में रोमांच हो आया और वह क्षण भर में भय से उद्विग्न हो गया। राजन्! तदनन्तर उन प्रभापूर्ण विशाल धनुषों का स्पर्श करके विराट पुत्र उत्तर ने अर्जुन से इस प्रकार कहा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर ग्रोहर के अवसर पर वृक्ष से अस्त्रों के उतारने से सम्बन्ध रखने वाला इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तर का बृहन्नला से पाण्डवों के अस्त्र - शस्त्रों के विषय में प्रश्न करना”
उत्तर ने पूछा ;- बृहन्नले! जिस पर सोने की सौ फूलियाँ जड़ी हैं, जिसके दोनों सिरे बहुत ही मजबूत और चमकीले हैं, यह उत्तम धनुष किस यशस्वी वीर का है ?। जिसकी पीठ पर सोने के प्रकायामान हाथी सुशोभित हो रहे हैं जिसके दोनों किनारे बड़े सुन्दर और मध्यभाग बहुत ही उत्तम है, यह श्रेष्ठ धनुष किसका है ? जिसके पृष्ठभाग में शुद्ध सुवर्ण के बने हुए लाल पीले रंग वाले साठ इन्द्र गोप ( बीर बहूटी ) नामक कीट पृथह - पृथक् शोभा पा रहे हैं, यह उत्तम धनुष किसका है ?। जिसमें परसपर सटे हुए तीन सुवर्णमय सूर्य चिह्न प्रकाशित हो रहे हैं, जो तेज से मानो प्रज्वलित हैं, यह उत्तम धनुष किसका है ?। जिस पर तप्त सुवर्ण भूषित मीने के फतिंगे शोभा पा रहे हैं तथा जो उत्तम वर्ण की मणियों से जटित होने के कारण विचित्र दिखायी देता है, यह उत्तम धनुष किसका है ?।
ये जो सोने के तरकस में सहस्रों नाराच रक्खे हुए हैं, जिनके सब ओर विशेषतः अग्रभाग में सोने का पानी चढ़ा हुआ है और जो सबके सब पंख वाले हैं, ये किसके उपयोग में आते हैं ? ये मोटे - मोटे विपाठ ( स्थूल दण्ड वाले बाण विशेष ) किसके हैं ? इनमें गीध की पाँखें लगी हुई हैं। इन बाणों को पत्थर पर रगड़कर तेज किया गया है। इनके रंग हलदी के समान हैं और अग्रभाग बहुत ही सुन्दर हैं। कारीगर ने इन पर भी खूब पानी चढ़ाया है। ये सबके सब लोहे के ही बाण हैं ( अर्थात् इनमें नीचे काठ का डंडा नहीं लगा है।) जिस पर पाँच सिंहों के चिह्न हैं? ऐसा यह काले रंग का धनुष किसका है ? यह तो सूअर के कान के समान नोक वाले दस बाणों को एक साथ धारण कर सकता है। ये जो शत्रुओं का रक्त पीने वाले मोटे, विशाल तथा अर्धचन्द्राकार दिखायी देने वाले सात सौ नाराच रक्खे हुए हैं, किसके हैं ?। जिनके पूर्वार्ध भाग तोते की पाँख के समान रंग वाले और उत्तरार्ध भाग सुवर्णमय पंख से युक्त एवं पीले हैं, जो पत्थर पर घिसकर तेज किये हुए और लोहे के बने हैं, ऐसे ये सुन्दर पाँख वाले बाण किसके हैं ?। जिसके पृष्ठ भाग में मेंढ़की का चित्र है और जिसका मुख भाग भी मेंढ़की के मुख सा बना हुआ है, ऐसा यह भारी भार सहन करने में समर्थ, दिव्य और शत्रु मण्डल के लिये भयंकर विशाल खड्ग किसका है ?।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्विचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद)
जो बाघ के चमड़े की बनी हुई म्यान के भीतर रक्खा गया है, जो सुवर्ण चित्रित और शत्रुओं के लिये असह्य है, जिसका अग्र भाग भी बहुत ही सुन्दर है, जिसकी म्यान पर चित्रकारी की हुई है, जो घुँघरूदार और विशाल है, वह सोने की मूठ वाला दिव्य एवं अत्यन्त निर्मल खड्ग किसका है?। जिसे गोचर्म की म्यान में रक्खा गया है, जो निषध देश का बना हुआ है, जिसे कोई तोड़ नहीं सकता, जो भारी भार सह सकता है, वह सोने की मूठ वाला विमल खड्ग किसका है ?। जिसे बकरे की बनी हुई म्यान में रक्खा गया है, जो सोने की मूठ से युक्त और सुवर्ण भूषित स्वरून वाली है, वह उचित लंबाई -चैड़ाई एवं आकृति वाली, आकाश के समान नीलोज्जवल एवं पानी दार तलवार किसकी है ?।
जो अग्नि के समान वपंकाशमान एवं अबाग में तपाये शुद्ध सुवर्ण की बनी हुई म्यान में सुरक्षित, भारी, पानीदार तथा तीस अंगुल से बड़ा है, जो स्वर्णबिन्दुओं से विभूषित तथा काले रंग का है, जिसे शत्रु काट नहीं सकते, जिसका स्पर्श सर्प के समान है, जो शत्रु के शरीर को चीर डालने वाला, भारी भार सहन करने में समर्थ, दिव्प्य एवं शत्रुओं के लिये भयदायक है, वह खड्ग किसका है ?। बृहन्नले! मैंने जो पूछा है, उसे ठीक - ठीक बताओ। ये सब महान् अस्त्र - शस्त्र देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर वाक्य विषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
तिरयालिसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“बृहन्नला द्वारा उत्तर को पाण्डवों के आयुधों का परिचय कराना”
बृहन्नला बोली ;- राजकुमार! तुमने पहले जिसके विषय में मुझसे प्रश्न किया है, वही यह अर्जुन का विश्व विख्यात गाण्डीव धनुष है, जो शत्रुओं की सेना के लिये काल रूप है। यह सब आयुधों में विशाल है। इसमें सब ओर सोना मढ़ा है। यही उत्तम आयुध गाण्डीव अर्जुन के पास रहा करता था। यह अकेला ही एक लाख धनुषों की बराबरी करने वाला तथा अपने राष्ट्र को बढ़ाने वाला है। पृथा पुत्र अर्जुन इसी के द्वारा युद्ध में मनुष्यों तथा देवताओं पर विजय पाते आ रहे हैं। हलके - गहरे अनेक प्रकार के रंगों से इसकी विचित्र शोभा होती है। यह चिकना, चमकदार औश्र विस्तृत है। इसमें कहीं कोई चोट का चिह्न नहीं आया है। देवताओं, दानवों मथा गन्धर्वों ने इसका बहुत वर्षों तक पूजन किया है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इसे एक हजार वर्षों तक धारण किया था। तदनन्तर प्रजापति ने पाँच सौ तीन वर्षों तक रक्खा। इन्द्र के बाद सोन ने तथा राजा वरुण ने सौ वर्षों तक इसे धारण किया। तत्पश्चात् श्वेतवाहन अर्जुन पैंसठ वर्षों से इसे धारण करते चले आ रहे हैं। यह सर्वोत्तम धनुष देखने में बड़ा ही मनोहर है। इसके द्वारा महान् पराक्रम प्रकट होता है। अर्जुन को यह महादिव्य धनुष साक्षात् वरुण देव से प्राप्त हुआ था।
तथा दूसरा देवताओं और मनुष्यों में पूजित उत्कृष्ट रूप धारण करने वाला धनुष भीमसेन का है, जिसके दोनों किनारे बड़े सुन्दर हैं और मध्य भाग में सोना मढ़ा हुआ है। यह वही धनुष है, जिससे शत्रुओं को संताप देने वाले कुन्ती कुमार भीमसेन ने सम्पूर्ण प्राची दिशा पर पिजय पायी थी। उत्तर! जिसके ऊपर इन्द्रगोप ( बीर बहूटी ) नामक कीटों का चित्र है और जो देखने में मनोहर है, वही यह उत्तम धनुष राजा युधिष्ठिर का है। जिसमें सुवर्ण के बने हुए प्रकाश पूर्ण सूर्य प्रकाशित हो रहे हैं और जो तेज से जाज्वल्यमान जान पड़ते हैं, वही यह नकुल का आयुध है। जिसके ऊपर सुवर्ण जटित मीने के फतिंगे सुशोभित हैं, वही यह माद्री नन्दन सहदेव का धनुष है। विराट पुत्र! ये जो छुरे के समान मजबूत और चमकीले बाण हैं, जिनमें पंख लगे हुण् हैं और जो साँपों के विष के समान प्रभाव रखते हैं, ये सब अर्जुन के ही हैं। ये युद्ध में तेज से प्रकाशित होकर बड़ी तेजी से शत्रु पर आघात करते हैं। रण में शत्रुओं पर बाण वर्षा करने वाले वीर के लिये इन बाणों का काटना असम्भव है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)
ये जो मोटे, विशाल और अर्धचन्द्राकार दिखायी देते हैं; वे भीमसेन के तीखे बाण हैें, जो शत्रुओं का संहार कर डालते हैं। ये हल्दी के समान रंग वाले और सुनहरी पाँखों से सुशोभित हैं। इन्हें पत्थर पर रगड़कर तेज किया गया है। जिस पर पाँच सिंहों के चिह्न हैं, वही यह नकुल का ‘कलप’ ( तरकस ) है, जिससे उन्होंने युद्ध में सम्पूर्ण पश्चिम दिशा पर विजय पायी थी। उस समय बुद्धिमान् माद्री पुत्र नकुल के पास यही कलप था। और ये जो सूर्य के समान आकृति वाले चमकीले बाण हैं, उनके द्वारा सम्पूर्ण शत्रु समूहों का विनाश होता है। विचित्र क्रिया याक्ति से सम्पन्न ये सभी बाण बुद्धिमान् सहदेव के हैं। ये जो तीखे, पानीदार, मोटे और बड़ी - बड़ी पाँखों वाले तीन पर्वों के बाण हैं और जिनकी पाँखें सोने की बनी हुई हैं; ये राजा युधिष्ठिर के महान् शर हैं।
जिसके पृष्ठ भाग में मेढकी का चित्र है और जिसका मुख भाग भी मेढकी के मुख के समान ही बना हुआ है, यह विशाल खड्ग अर्जुन का है। यह युद्ध भूमि में भारी आघात को सह सकने में समथ और मजबूत है। जिसकी म्यान व्याघ्र की बनी हुई है, वह महान् खड्ग भीमसेन का है। यह भी गुरुतर भार वहन करने वाला, दिव्य एवं शत्रुओं के लिये भयंकर है। जिसकी धार सुन्दर एवं पतली है, जिसकी म्यान विचित्र और मूठ सोने की है, वह तीस अंगुल से बड़ा सर्वोत्तम खड्ग परम बुद्धिमान् कुरु नन्दन धर्मराज का है। जो बकरे के चमड़े की बनी हुई म्यानें हैं तथा न्पना प्रकार के युद्ध में शस्त्रों का भारी आघात सहन करने में समर्थ और मजबूत हैं, वही यह नकुल का खड्ग है। और यह जो गोचर्म की म्यान में रक्खा गया है, यह सहदेव का विशाल खड्ग है। इसे सब प्रकार के आघात - प्रत्याघात सहने में समर्थ और सुदृढ़ जानो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के अवसर पर आयुध वर्णन विषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का उत्तर कुमार से अपना और अपने भाइयों का यथार्थ परिचय देना”
उत्तर ने पूछा ;- बृहन्नले! रण में फुर्ती दिखाने वाले जिन महात्मा कुन्ती पुत्रों के ये सुवर्ण भूषित सुन्दर आयुध इतने प्रकाशित हो रहे हैं, वे पृथा पुत्र अर्जुन, कुनन्दन युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और पाण्डु पुत्र भीमसेन अब कहाँ हैं ?। सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाले वे सभी महात्मा जूए द्वारा अपना राज्य हारकर कहाँ गये ? जिससे कहीं किसी प्रकार भी उनके विषय में कुछ सुनने में नहीं आता?। पाञ्चाल देश की राजकुमारी द्रौपदी स्त्री रत्न के रूप में विख्यात हैं। वह कहाँ है ? सुना है, जब पाण्डव जूए में हार गये, तब द्रुपद कुमारी कृष्णा भी उन्हीें के साथ वन में चली गयी थी।
अर्जुन ने कहा ;- राजकुमार! मैं ही पृथा पुत्र अर्जुन हूँ। राजा की सभा में माननीय सदस्य कंक ही युधिष्ठिर हैं। बल्लव भीमसेन हैं, जो तुम्हारे पिता के भोजनालय में रसोइये का काम करते हैं। अश्वों की देखभाल करने वाले ग्रनिथक नकुल हैं और गोशाला के अध्यक्ष तनितपाल सहदेव। सैरन्ध्री को ही द्रौपदी समझो, जिसके कारण सभी कीचक मारे गये।
उत्तर बोला ;- मैंने पहले से जो अर्जुन के दस नाम सुन रक्खे हैं, उन्हें यदि तुम बता दो तो मैं तुम्हारी सारी बातों पर विश्वास कर सकता हूँ।
अर्जुन ने कहा ;- विराट पुत्र! मेरे जो दस नाम हैं और जिन्हें तुमने पहले से ही सुन रक्खा है, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो।एकाग्रचित्त हो सावधानी के साथ सबको सुनना। ( वे नाम ये हैं - )अर्जुन, फाल्गुन, जिष्णु, किरीटी, श्वेतवाहन, बीभत्सु, विजय, कृष्ण, सव्यसाची और धनंजय।
उत्तर ने पूछा ;- किस कारण आपका नाम विजय हुआ और किसलिये आप श्वेतवाहन कहलाते हैं। आपके किरीटी नाम धारण करने का क्या कारण है ? और आप सव्यसाची नाम से कैसे प्रसिद्ध हुए ?।
इसी प्रकार आपके अर्जुन, फाल्गुन, बीभत्सु और धनंजय नाम पड़ने का क्या कारण है ? यह सब मुझे ठीक - ठीक बताइये। वीर अर्जुन के विभिन्न नाम पड़ने के जो प्रधान हेतु हैं, वे सब मैंने सुन रक्खे हैं। उन सबको यदि आपउ बता देंगे तो आपकी सब बातों पर मेरा विश्वास हो जायगा।
अर्जुन ने कहा ;- मैं सम्पूर्ण देशों को जीतकर और उनसे ( कर रूप में ) केवल धन लेकर धन के ही बीच में सिथत था, इसलिये लोग मुझे ‘धनंजय’ कहते हैं। जब मैं संग्राम भूमि में रणोन्मत्त योद्धाओं का सामना करने के लिये जाता हूँ, तब उन्हें परास्त किये बिना कभी नहीं लौटता, इसीलिये वीर पुरुष मुझे ‘विजय’ के नाम से जानते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुश्चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)
संग्राम में युद्ध करते समय मेरे रथ में सोने के बख्तर से सजे हुए श्वेत रंग के घोड़े जोते जाते हैं, इसलिये मेरा नाम ‘श्वेतवाहन’ हुआ है तथा हिमालय के शिखर पर उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में दिन के समय मेरा जन्म हुआ था; इसलिये मुझे ‘फाल्गुन’ कहते हैं। युद्ध करते समय मैं किसी प्रकार भी बीभत्स ( घृणित ) कर्म नहीं करता; इसलिये देवताओं और मनुष्यों में मेरी ‘बीभत्सु’ नाम से प्रसिद्धि हुई है। मेरा बाँया और दाहिना दोनों हाथ गाण्डीव धनुष की डोरी खींचने में समर्थ हैं, इसलिये देवताओं और मनुष्यों में लोग मुझे ‘सव्यसाची’ समझते हैं। ( अर्जुन शब्द के तीन अर्थ हैं - वर्ण या दीप्ति, ऋतुजा सा समता, धवल या शुद्ध। ) चारों ओर समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर मेरे जैसी दीप्ति दुर्लभ है। मैं सबके प्रति समभाव रखता हूँ और शुद्ध कर्म करता हूँ। इसी कारण विज्ञ पुरुष मुझे ‘अर्जुन’ के नाम से जानते हैं। मुझे पकड़ना या तिरस्कृत करना बहुत कठिन है। मैं इन्द्र का पुत्र एवं शत्रुदमन विजयी वीर हूँ, इसलिये देवताओं और मनुष्यों में ‘जिष्णु’ नाम से मेरी ख्याति हुई है। ( कृष्ण शब्द का अर्थ है - श्यामवर्ण तथा मन को आकर्षित करने वाला ) मेरे शरीर का रंग कृष्ण्र-गौर है तथा बाल्यावस्था में चित्ताकर्षक होने के कारण मैं पिताजी को बहुत प्रिय था। अतः मेरे पिता ने ही मेरा दसवाँ नाम ‘कृष्ण) रक्खा था।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर विराट पुत्र उत्तर ने निकट जाकर अर्जुन के चरणों में प्रणाम किया और बोला,
उत्तर बोला ;- ‘मेरा नाम भूमिंजय तथा उत्तर भी है। ‘कुन्ती नन्दन! मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका दर्शन मिला। धनुजय! आपका स्वागत है। महाबाहो! आपके नेत्र लाल हैं और बाहुबल गजराज के शुण्ड को लज्जित कर रहे हैं। ‘मैंने अज्ञानवश आपसे जो अनुचित बात कह दी हो, उसे आप क्षमा करेंगे। पूर्व काल में आपने अत्यन्त दुष्कर और अद्भुत कर्म किये हैं, इसलिये आपका संरक्षण पाकर मेरा भय दूर हो गया है और आपके प्रति मेरा प्रेम बहुत बढ़ गया है। ‘पार्थ! मैं आपका दास होऊँगा। आप मेरी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखें। मैंने आपके सारथि का कार्य करने के लिये पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिये अब मेरा मन स्वस्थ हो गया है। मेरा महान् सौभाग्य प्रकट हुआ है ( जिससे मुझे आपकी सेवा का यह शुभ अवसर प्राप्त हो रहा है )’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के अवसर पर अर्जुन परिचय सम्बन्धी चैवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन द्वारा युद्ध की तैयारी, अस्त्र - शस्त्रों का स्मरण, उनसे वार्तालाप तथा उत्तर के भय का निवारण”
उत्तर बोला ;- वीरवर! आप सुन्दर रथ पर आरूढ़ हो मुझ सारथि के साथ किस सेना की ओर चलेंगे ? आप जहाँ चलने के लिये आज्ञा देंगे, वहीं मैं आपके साथ चलूँगा।
अर्जुन ने कहा ;- पुरुषसिंह! अब तुम्हें कोई भय नहीं रहा, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। रण कर्म में कुशल वीर! मैं तुम्हारे सब शत्रुओं को अभी मार भगाता हूँ। महाबाहो! तुम स्वस्थ चित्त ( निश्चिन्त ) हो जाओ और इस संग्राम में मुझे शत्रुओं के साथ युद्ध तथा अत्यनत भयंकर पराक्रम करते देखो। मेरे इन सब तरकसों की शीघ्र रथ में बाँध दो और एक सुवर्ण भूषित खड्ग भी ले आवो।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! अर्जुन का यह कथन सुनकर उत्तर उतावला हो अर्जुन के सब आयुधों को लेकर शीघ्रता पूर्वक वृक्ष से उतर आया।
अर्जुन बोले ;- मैं कौरवों से युद्ध करूँगा औश्र तुम्हारे पशुओं को जीत लूँगा। मुझसे सुरक्षित होकर रथ का यह ऊपरी भाग ही तुम्हारे लिये नगर हो जायगा। इस रथ के जो धुरी पहिये आदि अंग हैं, उनकी सुदृढ़ कल्पना ही नगर की गलियों के दोनों भागों में बने हुए गृहों का विस्तार है। मेरी दोनों भुजाएँ ही चाहरदीवारी और नगर द्वार हैं। इस रथ में जो त्रिदण्ड ( हरिस और उसके अगल - बगल की लगडि़याँ ) तथा तूणीर आदि हैं, वे किसी को यहाँ तक फटकने नहीं देंगे। जैसे नगर में हाथी सवार, घुड़सवार तथा रथी इन त्रिविध सेनाओं मथा आयुधों के कारण उसके भीतर दूसरों का प्रवेश करना असम्भव होता है।
नगर में जैसे बहुत सी ध्वजा पताकाएँ फहराती हैं, उसी प्रकार इस रथ में भी फहरा रही हैं। धनुष की प्रत्यन्चा ही नगर में लगी हुई तोप की नली है, जिसका क्रोध पूर्वक उपयोग होता है और रथ के पहियों की घर्घराहट को ही नगर में बजने वाले नगाड़ों की आवाज समझो। जब मैं युद्ध भूमि में गाण्डीव धनुष लेकर रथ पर सवार होऊँगा, उस समय शत्रुओं की सेनाएँ मुझे जीत नहीं सकेंगी; अतः विराट नन्दन! तुम्हारा भय अब दूर हो जाना चाहिये।
उत्तर ने कहा ;- अब मैं उनसे नहीं डरता; क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आप संग्राम भूमि में भगवान श्रीकृष्ण और साक्षात् इन्द्र के समान स्थिर रहने वाले हैं। केवल इसी एक बात को सोचकर मैं ऐसे मोह में पड़ जाता हूँ कि बुद्धि अच्छी न होने के कारण किसी तरह भी किसी निश्चय तक नहीं पहुँच पाता।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद)
वह चिन्ता इस प्रकार है,,- आपका एक-एक अवयव तथा रूप सब प्रकार से उपयुक्त है। आप लक्षणों द्वारा भी अलौकिक सूचित हो रहे हैं। ऐसी दशा में भी किस कर्म के परिणाम से आपको यह नपुंसकता प्राप्त हुई है ?। मैं तो नपुंसक वेश में विचरने वाले आपको शूलपाणि भगवान् शंकर का स्वरूप मानता हूँ अथवा गन्धर्वराज के समान या साक्षात् देवराज इन्द्र समझता हूँ।
अर्जुन बोले ;- महाबाहो! उर्वशी के शाप से मुझे यह नपुंसक भाव प्राप्त हुआ है। पूर्व काल में मैं अपने बड़े भाई की आज्ञा से देवलोक में गया था। वहाँ सुधर्मा नामक सभा में मैंने उस समय उर्वशी अप्सरा को देखा। वह परम सुन्दर रूप धारण करके वज्रधारी इन्द्र के समीप नृत्य कर रही थी। मेरे वंश की मूल हेतु ( जननी ) होने के कारण होने के कारण मैं उसे अपलक नेत्रों से देखने लगा। तब वह रात में सोते समय रमण की इच्छा से मेरे पास आयी, परंतु मैंने उसे ( प्रणाम करके उसकी इच्छा पूर्ति न करके ) उसका माता के समान सत्कार किया।
तब उसने कुपित होकर मुण् शाप दे दिया, - ‘तुम नपुंसक हो जाओ।’
तब इन्द्र ने वह शाप सुनकर मुझसे कहा, - ‘पार्थ! तुम नपुंसक होने से डरो मत। यह तुम्हारे लिये अज्ञातवास के समय उपकारक होगा।’ इस प्रकार देवराज इन्द्र ने मुझ पर अनुग्रह करके यह आश्वासन दिया और स्वर्गलोक से यहाँ भेजा। अलनघ! वही यह व्रत प्राप्त हुआ था, जिसको मैंने पूरा किया है। महाबाहो! मैं बड़े भाई की आज्ञा से इस वर्ष एक व्रत का पालन कर रहा था।
उस व्रत की जो दिनचर्या है, उसके अनुसार मैं नपुंसक बनकर रहा हूँ। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ वास्तव में मैं नपुंसक नहीं हूँ; भाई की आज्ञा के अधीन होकर धर्म के पालन में तत्पर रहा हूँ। राजकुमार! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अब मेरा व्रत समाप्त हो गया है; अतः मैं नपुंसक भाव के कष्ट से भी मुक्त हो चुका हूँ।
उत्तर ने कहा ;- नरश्रेष्ठ! आ मुझ पर आपने बड़ा उनुग्रह किया, जो मुझे सब बात बता दी। ऐसे लक्षणों वाले पुरुष नपुंसक नहीं होते, इस प्रकार जो मेरे मन में तर्क उठ रहा था, वह व्यर्थ नहीं था। अब तो मुझे आपकी सहायता मिल गयी है; अतः युद्ध भूमि में देवताओं का भी सामना कर सकता हूँ। मेरा सारा भय नष्ट हो गया। बताइये, अब मैं क्या करूँ ? पुरुष प्रवर! मैंने गुरु से सारथ्य कर्म की शिक्षा प्राप्त की है; इसलिये आपके घाड़ों को, जो शत्रु के रथ का नाश करने वाले हैं, मैं काबू में रक्खूँगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)
नरनुगव! जैसे भगवान् वासुदेव का सारथि दारुक और इन्द्र का सारथि मातलि है, उसी प्रकार मुझे भी आप सारथि के कार्य में पूर्ण शिक्षित मानिये। जो घोड़ा दाहिनी धुरी में जोता गया है तथा जिसके जाते समय लोग यह नहीं देख पाते कि उसने कब कहाँ पृथ्वी पर पैर रक्खा था या उठाया है, यह ( भगवान् श्रीकृष्ण के चार अश्वों में से ) सुग्रीव नामक घोड़े के समान है। और भार ढोने वालों में श्रेष्ठ जो यह सुन्दर अश्व बाँयीं धुरी का भार वहन करता है, उसे वेग में मेघ पुष्प नामक अश्व के समान मानता हूँ। यह जो सोने के बख्तर से सजा हुआ सुन्दर अश्व बाँयी ओर पिछला जुआ ढो रहा है, इसे वेग में मैं शैव्य नामक अश्व के समान अत्यन्त बलवान् मानता हूँ। और यह जो दाहिने भाग का पिछला जुआ धारण करके खड़ा है, वह वेग में बलाहक ना वाले अश्व से भी अधिक समझा गया है। यह रथ आप जैसे धनुर्धर वीर को ही वहन करने योग्य है और मेरी राय में आ इसी रथ पर बैठकर युद्ध करने योग्य हैं।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पराक्रमी अर्जुन ने हाथों से कड़े और चूडि़याँ उतार दीं और हथेलियों में सोने के बने हुए विचित्र कवच धारण कर लिये। फिर उन्होंने काले - काले घुंघराले केशों को श्वेत वस्त्र से बाँध दिया और पूर्व की ओर मुँह करके पवित्र एवं एकाग्रचित्त हो महाबाहु धनंजय ने उस श्रेष्ठ रथ पर सम्पूर्ण अस्त्रों का ध्यान किया। तब वे सब अस्त्र प्रकट होकर राजकुमार अर्जुन से हाथ जोड़कर बोले,
अस्त्र बोले ;- ‘पाण्डु नन्दन! ये हम लोग तुम्हारे परम उदार किंकर हैं’। तब अर्जुन ने उन्हें प्रणाम करके अपने हाथ से उनका स्पर्श किया और कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘आप सब लोग मेरे मन में निवास करें’। इस प्रकार अपने अस्त्र शस्त्रों को अनुकूल करके अर्जुन का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने बड़े वेग से गाण्डीव धनुष पर प्रत्यन्चा चढ़ाकर उसकी टंकार की। उस धनुष की टंकार के समय बड़े जोर का शब्द हुआ, मानो किसी महान् पर्वत को पर्वत से ही टक्कर लगी हो। वह भयानक शब्द पृथ्वी को विदीर्ण करता सा गूँज उठा। सम्पूर्ण दिशाओं में प्रचण्ड आँधी चलने लगी, महान् उल्कापात होने लगा और दिशाओं में अनधकार छा गया। शत्रु सेना के ध्वज आकाश में अकारण हिलने लगे। बड़े-बड़े वृक्ष भी हिलने लगे। अर्जुन ने अपने दोनों हाथों से रथ पर बैठे-बैठे जो अपने श्रेष्ठ धनुष की टंकार की, उसे सुनकर कौरवों ने समझा कहीं से बिजली टूट पड़ी है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद)
उस समय उत्तर बोला ;- पाण्डवश्रेष्ठ! आप तो अकेले हैं, इन सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रों के परागामी बहुसंख्यक महारथियों को युद्ध में कैसे जीत सकेंगे ?। कुनती नन्दन! आप असहाय हैं और कौरवों के साथ बहुतेरे सहायक हैं। महाबाहो! यह सोचकर मैं आपके सामने भयभीत हो रहा हूँ। यह सुनकर अर्जुन खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले,
अर्जुन बोले ;- ‘वीर! डरो मत! कौरवों की घोष यात्रा के समय जब मैंने महाबली गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय मेरा सखा या सहायक कौन था ? जब देवताओं और दानवों से भरे हुए उस अत्यनत भयंकर खाण्डव वन में मैं युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा साथी कौन था ?। देवराज इन्द्र के लिये महाबली निवात कवच और पौलोम दैत्यों के साथ युद्ध करते समय मेरा कौन सहायक था ?। तात! द्रौपदी के स्वयंवर में जब मुण् अनेक राजाओं के साथ युद्ध करना पड़ा था, उस समय किसने मेरी सहायता की थी ?।
मैं गुरुवर द्रोणाचार्य?, इन्द्र, कुबेर, यमराज, वरुण, अग्निदेव, कृपाचार्य, लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण तथा पिनाकपाणि भगवान् शंकर - इन सबका आश्रय पा चुका हूँ; फिर भला, इन महारथियों से युद्ध क्यो नहीं कर सकूँगा ? शीघ्र मेरा रथ हाँको; तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर गोग्रह के अवसर पर विराट कुमार उत्तर और अर्जुन बातचीत विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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