सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तर का अपने लिये सारथि ढूंढने का प्रस्ताव, अर्जुन की सम्मति से द्रौपदी का बृहन्नला को सारथि बनाने के लिये सुझाव देना”
उत्तर बोला ;- गोपप्रवर! मेरा धनुष तो बहुत मजबूत है। यदि मेरे पास घोड़े हाँकने की कला में कुशल कोई सारथि होता, तो आज मैं अवश्य ही उन गौओं के पदचिह्नों का अनुसरण करता। इस समय मुझे ऐसे किसी मनुष्य का पता नहीं है, जो मेरा सारथित बन सके। मैं युद्ध के लिये प्रस्थान करूँगा, अतः शीघ्र मेरे लिये किसी योग्य सारथि की तलाश करो। पहले लगातार अट्ठाइस रात तक अथवा अनततः एक मास तक जो युद्ध हुआ था, उसमें मेरा सारथि मारा गया था।
अतः यदि घोड़े हाँकने की कला जानने वाले किसी दूसरे मनुष्य को भी पा जाऊँ, तो अभी बड़े वेग से जाकर ऊँची-ऊँची विशाल ध्वजा से विभूषित एवं हाथी, घोड़े तथा रथों से भरी हुई शत्रुओं की सेना में घुस जाऊँ ओर अपने आयुधों के प्रजाप से कौरवों को निर्वीर्य (पराक्रमशून्य) तथा परास्त करके सम्पूर्ण पशुओं को लौटा लाऊ। जैसे चज्रधारी इन्द्र दानवों को भयभीत कर देते हैं, उसी प्रकार मैं दुयार्कधन, शान्तनुनन्दन भीष्म, सूर्यपुत्र कर्ण, कृपाचार्य तथा पुत्र (अश्वत्थामा) सहित द्रोणाचार्य आदि महान् धनुर्धरों को, जो यहाँ आये हैं, युद्ध में अत्यनत भय पहुँचाकर इसी मुहुर्त में अपने पशुओं को वापस ला सकता हूँ।। गोष्ठ को सूना पाकर कोरव लोग गोधन लिये जा रहे हैं। परंतु अब मैं यहाँ से क्या कर सकता हूँ ? जबकि वहाँ उस समय मैं मौजूद नहीं था। अच्छा, जब कौरव लोग यहाँ आ ही गये हैं, तब आज मेरा पराक्रम देख लें।
फिर तो वे कहेंगे,- ‘क्या यह साक्षात् कुन्तीपुत्र अर्जुन ही हमें पीड़ा दे रहा है ?’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार बालते हुए राजकुमार उत्तर की वह बात सुनकर सब बातों में कुशल अर्जुन बहुत प्रसन्न हुए। उस समय तक उनके अज्ञातवास की अवधि पूरी हो गयी थी। अतः उन्होंने अपनी सती-साध्वी प्यारी पत्नी पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी को, जिसका अग्नि से प्रादुर्भाव हुआ था और जो तन्वंगी, सत्य-सरलता आदि सद्गुणों से विभूषित तथा पति के प्रिय एवं हित में तत्पर रहने वाली थी, एकान्त में बुलाकर कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘कल्याणि! तुम मेरी बात मानकर राजकुमार उत्तर से इस प्रकार कहो- ‘यह बृहननला पाण्डुनन्दन अर्जुन का सारथि रह चका है। उसने बड़े-बड़े युद्धों में सफलता प्राप्त की है। यह तुम्हारा सारथि हो जायगा’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! उत्तर स्त्रियों के बीच में बैठा था और बार-बार अपनी तुलना में अर्जुन का नाम लेकर डींग मार रहा था।। पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी से यह सहन न हो सका। वह तपस्विनी स्त्रियों के बीच से उठकर उत्तर के समीप आयी और लजाती हुई सी धीरे -धीरे इस प्रकार बोली,
द्रौपदी बोली ;- ‘राजकुमार! यह जो विशाल गजराज के समान हृष्ट-पुष्ट, तरुण, सुनदर और देखने में अत्यनत प्रिय ‘बृहन्नला’ नाम से विख्यात नर्तक है, पहले कुन्तीपुत्र अर्जुन का सारथि था। ‘वीर! यह उन्हीं महात्मा का शिष्य है, अतः धनुर्विद्या मे भी उनसे कम नहीं है। पहले पाण्डवों के यहाँ रहते समय मैंने इसे देखा है। ‘
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षट्त्रिंश अध्याय के श्लोक 18-24 का हिन्दी अनुवाद)
‘जिन दिनों अर्जुन की सहायता से अग्निदेव ने दावानल रूप हो महान् खाण्डववन को जलाया था, उस समय इसी ने अर्जुन के श्रेष्ठ घोड़ों की बागडोर सँभाली थी। ‘इसी सारथि के सहयोग से कुनतीपुत्र अर्जुन ने खाण्डववन मे सम्पूर्ण प्राणियों पर विजय पायी थी; अतः इसके समान दूसरा कोई सारथि नहीं है’।
उत्तर ने कहा ;- सैरन्ध्री! वह युवक ऐसे गुणों से विभूषित है कि वह नपुंसक नहीं हो सकता; इन बातों को तुम अचछी तरह जानती हो; (अतः तुम उससे कह दो, तो ठीक है।) शुभे! में स्वयं बृहन्नला से नहीं कह सकता कि तुम मेरे घोड़ों की रास सँभालो।
द्रौपदी न कहा ;- वीर! यह जो सुन्दर कटिप्रदेश वाली तुम्हारी छोटी बहन उत्तरा है। इसकी बात वह अवश्य मान लेगा, इसमे संशय नहीं है। यदि वह सारथि हो जाय, तो निःसंदेह सम्पूर्ण कौरवों को जीतकर और गौओं को भी वापस लकर तुम्हारा इस नगर में आगमन हो सकता हे, यह ध्रुव सत्य है।
सैरन्ध्री के ऐसा कहने पर उत्तर अपनी बहिन से बोला,
उत्तर बोला ;- ‘निर्दोष अंगों वाली उत्तरे! जाओ, उस बृहन्नले को बुला कर ले आओ’। भाई के भेजने पर कुमारी उत्तरा शीघ्र नृत्यशाला में गयी जहाँ पाण्डुनन्दन महाबाहु अर्जुनकपटवेष में छिपकर रहते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में बृहन्नला का सारथ्य कथन सम्बन्धी छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“बृहन्नला को सारथि बनाकर राजकुमार उत्तर का रणभूमि की ओर प्रस्थान”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! कुमारी उत्तरा सेने के माला और मोरपंचा का श्रृंगार धारण किये थी। उसका अंगकान्ति कमलदलकी सी आभा वाली लक्ष्मी को भी लज्जित कर रही थी। उसकी कमर यज्ञ की वेदी के समान सूक्ष्म थी। शरीर से भी वह पतली ही थी। उसके सभी अंग शुभ लक्षणों से युक्त थे। उसने कटिप्रदेश में मणियों की बनी हुई विचित्र करधनी पहन रक्खी थी। मत्स्यराज की वह यशस्विनी कन्या अनुपम शोभा से प्रकाशित हो रही थी।। बड़ों की आज्ञा मानने वाली कुमारी उत्तरा बड़े भाई के भेजने से बड़ी उतावली के साथ नृत्यशाला में गयी; मानो चपला मेघमाला में विलीन हो गयी हो। उसके नेत्रों की टेढ़ी-टेढ़ी बरौनियाँ बड़ी भली मालूम होती थीं।
उसकी परस्पर सटी हुई जाँघें हाथी की सूँड़ के समान सुशोथ्त होती थीं, दाँत चमकीले और मनोहर थे। शरीर का मध्यभाग बड़ा सुहावना था। वह अनिन्द्यसुन्दरी सुन्दर हार धारण किये उन कुन्तीनन्दन अर्जुन के पास पहुँचकर गजराज के समीप गयी हुई हथिनी के समान शोभा पा रही थी। विराटराजकुमारी उत्तरा स्त्रियों में रत्न स्वरूपा और मन को प्रिय लगने वाली थी। वह उस राजभावन में इन्द्र की साम्राज्यलक्ष्मी के समान सम्मानित थी। उसके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह यशस्विनी बाला सामने से देखने ही योग्य थी। वह अर्जुन से प्रेम पूर्वक बोली,
उत्तरा बोली ;- सुवर्ण के समान सुन्दर एवं गौर त्वचा तथा सटी जाँघों वाली कुमारी उत्तरा को देखकर अर्जुन ने पूछा,
अर्जुन बोले ;- ‘सुवर्ण की माला धारण करने वाली मृगलोनि! आज तुम्हारा मुख प्रसन्न क्यों नहीं है ? अंगने! मुझे शीघ्र सब बातें ठीक-ठीक बताओ’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! विशाल नेत्रों वाली अपनी सखी राजकुमारी उत्तरा की ओर देखकर अर्जुन ने हँसते हुए जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब वह राजपुत्री नरश्रेष्ठ अर्जुन के समीप जा अपना प्रेम प्रकट करती हुई सखियों के बीच में इस प्रकार बोली,
उत्तरा बोली ;- ‘बृहन्नले! हमारे राष्ट्र की गौओं को कौरव हाँककर
लिये जा रहे हैं। अतः उन्हें जीतने के लिये मेरे भैय्या धनुष धारण करके जाने वाले हैं। ‘थोड़े ही दिन हुए, उनके रथ का सारथि एक युद्ध में मारा गया। इस कारण कोई ऐसा योग्य सूत नहीं है, जो उनके सारथि का काम सँभाल सके। ‘बृहन्नले! वे सारथि ढूँढने का प्रयत्न कर रहे थे, इतने में ही सैरन्ध्री ने पहुँचकर यह बताया कि तुम अश्वविद्या में कुशल हो। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो। तुम्हारी सहायता से उन पाण्डवशिरोमणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है। ‘अतः बृहन्नले! इसके पहले कि कौरव लोग हमारी गौओं को बहुत दूर लेकर जायँ, तुम मेरे भाई के सारथि का कार्य अच्छी तरह कर दो। ‘सखी! मैं बड़े प्रेम से यह बात कह रही हूँ। यदि आज इतना अनुरोध करने पर भी तुम मेरी बात नहीं मानोगी, तो मैं प्राण त्याग दूँगी’।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तत्रिंश अध्याय के श्लोक 14-34 का हिन्दी अनुवाद)
सुन्दर कटिप्रदेया वाली उत्तरा के ऐसा कहने पर शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन अमित पराक्रमी राजकुमार उत्तर के समीप गये। मद टपकाने वाले गजराज की भाँति याीघ्रतापूर्वक आते हुए अर्जुन के पीछे-पीछे विशाल नेत्रों वाली उत्तरा भी आयी; ठीक उसी तरह, जैसे हथिनी हाथी के पीछे-पीछे जाती है। राजकुमार उत्तर ने बृहन्नला को दूर से ही देखकर इस प्रकार कहा,
राजकुमार उत्तर बोले ;- ‘बृहन्नले! तुम अर्जुन की ही भाँति मेरे घोड़ों को भी काबू में रखना, क्योंकि मैं अपना गोधन वापस लाने के लिये कौरवों के साथ युद्ध करने वाला हूँ। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो और तुम्हारी ही सहायता से उन पाण्डवशिरोमणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है’। उसके ऐसा कहने पर बृहन्नला राकुमार से बोली,
बृहन्नला (अर्जुन) बोली ;- ‘भला, मेरी क्या शक्ति है कि मैं युद्ध के मुहाने पर सारथि का काम सँभाल सकूँ ? ‘राजकुमार! आपका कल्याण हो। यदि गाना हो, नृत्य करना हो अथवा विभिन्न प्रकार के बाजे बजाने हों, तो वह कर लूँगी। सारथि काम मुझसे कैसे हो सकता है ?’।
उत्तर बोला ;- बृहन्नले तुम पुनः लौटकर गायक या नर्तक जो चाहो, बन जाना। इस समय तो शीघ्र ही मेरे रथ पर बैठकर श्रेष्ठ घोड़ों को काबू में करो।
वैशम्पायन कहते हैं ;- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले पाण्डुनन्दन ने सब कुछ जानते हुए भी उत्तर के सामने हँसी के लिये बहुत अनभिज्ञतासूचक कार्य किया। बृहन्नला को (कवच धारण के समय) भूल करती देख राजकुमार उत्तर ने स्वयं ही उसे बहुमूल्य कवच धारण कराया। फिर उसने स्वयं भी सूर्य के समान कान्तिमान् सुन्दर कवच धारण किया और रथ पर सिंहध्वज फहराकर बृहन्नला को सारथि के कार्य में नियुक्त कर दिया। तदन्न्तर बहुत से बहुमूल्य धनुष और सुन्दर बाण लेकर वीर उत्तर बुहन्नला सारथि के साथ युद्ध करने के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय उत्तरा और उसकी सखी रूपा दूसरी राजकन्याओं ने कहा,
उत्तरा बोली ;- ‘बृहन्नले! तुम युद्धभूमि में आये हुए भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख कौरव वीरों को जीतकर हमारी गुडि़यों के लिये उनके महीन, कोमल और विचित्र रंग के वस्त्र ले आना’। ऐसा कहती हुई उप सब कन्याओं से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने हँसते हुए मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर वाणी में कहा।
बृहन्नला बोली ;- यदि ये राजकुमार उत्तर रणभूमि में उन महारथियों को परास्त कर देंगे, तो मैं अवश्य उनके दिव्य ओर सुन्दर वस्त्र ले आऊँगी।
वैशम्पायन कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर शूरवीर अर्जुन ने भाँति-भाँति की ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित कौरवों की ओर जाने के लिये घोड़ों को हाँक दिया। बृहन्नला के साथ उत्तम रथ पद बैठे हुए महाबाहु उत्तर को जाते देख स्त्रियों, कन्याओं तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों ने उसकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। तत्पश्चात् स्त्रियाँ और कन्याएँ बोली,
कन्याएँ बोली ;- ‘बृहनले! वृषभ के समान गति वाले अर्जुन को पहले खाण्डव वन दाह के समय जैसा मंगल प्राप्त हुआ था, आज युद्ध में कौरवों के पहुँचने पर राजकुमार उत्तर के साथ तुम्हें वैसा ही मंगल प्राप्त हो’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में राजकुमार उत्तर का युद्ध के लिये प्रस्थान विषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“उत्तर कुमार का भय और अर्जुन का उसे आश्वासन देकर रथ पर चढ़ाना”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजधानी से निकलकर विराट कुमार उत्तर ने सर्वथा निर्भय हो सारथि से कहा,
उत्तर बोले ;- ‘बृहनले! जहाँ कौरव गये हैं, उधर ही रथ ले चलो। ‘मैं
यहाँ विजय की आशा से एकत्र होने वाले समसत कौरवों को परास्त करके उनसे अपनी गौएँ वापस ले शीघ्र अपने नगर में लौट आऊँगा। तब पाण्डु नन्दन अर्जुन ने उत्तर के उत्तम जाति के घोड़ों को हाँका और उनकी बाग ढीली कर दी। नरश्रेष्ठ अर्जुन के हाँकने पर, सोने की माला पहने हुए वे घोड़े हवा के समान वेग से चलने लगे, मानो आकाश में अपनी टाप अड़ाते हुए रथ लिये उड़े जा रहे हों। थोड़ी ही दूर जाने पर शत्रुहनता विराट पुत्र उत्तर और धनंजय ने महाबली कौरवों की विशाल सेना देखी। श्मशान भूमि के समीप जाकर उन्होंने कौरवों को पा लिया। वे दोनों उस शमी वृक्ष के आस पास सब ओर सेना का व्यूह बनाकर खड़े हुए कौरव सैनिकों की ओर देखने लगे। उनकी वह विशाल वाहिनी समुद्र के समान जान पड़ती थी। जब वह चलती, तब ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश में असंख्य वृक्षों से भरा हुआ वन चल रहा हो। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय!
कौरव सेना के चलने से ऊपर उठी हुई धरती की धूल अनतरिक्ष को छूती सी दिखायी देती थी। उसके कारण समसत प्राणियों की दृष्टि का लोप सा हो गया था - किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता था। वह भारी सेना हाथी, घोड़ों एवं रथों से भरी हुई थी। कर्ण, दुर्योधन, कृपाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा और महान् धनुर्धर एवं परम बुद्धिमान् द्रोण उसकी रक्षा कर रहे थे। उसे देखकर विराट पुत्र उत्तर के रोंगटे खड़े हो गये। उसने भय से व्याकुल होकर अर्जुन से कहा।
उत्तर बोला ;- बृहन्नले! मुझमें कौरवों के साथ युद्ध करने का साहस नहीं है; क्योंकि देखो, भय के कारण मेरे रोएँ खड़े हो गये हैं। इस सेना के भीतर बहुतेरे बड़े - बड़े वीर हैं। यह बड़ी भयानक जान पड़ती है। इसे परास्त करना तो देवताओं के लिये भी अत्यनत कठिन है। कौरवों की सेना का कहीं अनत नहीं है। मैं इसका सामना नहीं कर सकता। भयानक धनुष वाली भरत वंशियों की इस विशाल वाहिनी में प्रवेश करना तो दूर रहे, मैं उसके सम्बन्ध में बात भी नहीं कर सकता।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)
रथ, हाथी और घोड़े से यह कौरव दल खचाखच भरा हुआ है। पैदल सिपाहियों और असंख्य ध्वजाओं से व्याप्त है। इसलिये रण भूमि में इन शत्रुओं को देखकर ही मेरा हृदयश् व्यथित सा हो गया है। जहाँ द्रोण, भीष्म, कृप, विविंशति, अयवत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त, बाहलिक तथा रथियों में श्रेष्ठ वीर राजा दुर्योधन हैं। जो सबके सब तेजस्वी, महान् धनुर्धर और युद्ध की कला में प्रवीण है। ये कौरवउ वीर मद से उन्मत्त हुए महान् गजराजों के समान जान पड़ते हैं। ये सबके सब ध्वजा पताकाओं से युक्त, नीति - निपुण, महाधनुर्धर तथा सम्पूर्ण अस्त्र विद्या का सुनिश्चित ज्ञान रखते हैं। इन पर विजय पाना सम्पूर्ण सेनाओं के लिये ही नहीं, इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। इनके हाथियों पर भी पताकाएँ फहरा रही हैं। बड़े - बड़े रथ ध्वजाओं से सुशोभित हो रहे हैं। विचित्र आभूषणों से आभूषित घोड़े चारों ओर फैलकर विजय के लिये उद्योगशील प्रतीत होते हैं। ऐसे शूरवीर कौरवों को युद्ध में जीतने के लिये मैं दुर्बुद्धि बालक कहाँ आ गया ? सेना की व्यूह रचना करके प्रहार के लिये उद्यत खड़े हुए इन कौरवों को देखकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गये हैं। मुझे मूर्च्छा सी आ रही है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! मूर्ख उत्तर एक साधारण कोटि का मनुष्य था और छद्म वेशधारी सव्यसाची अर्जुन असाधारण वीर थे। अतः उनके प्रभाव को न जानने के कारण वह मूर्खतावश उनके पास रहकर भी उन्हीं के देखते - देखते यों विलाप करने लगा-। ‘बृहनले! मेरे पिता सूने नगर में उसकी रक्षा के लिये मुझे अकेला रखकर स्वयं सारी सेना साथ ले त्रिगर्तों से युद्ध करने के लिये गये हैं। मेरे पास यहाँ कोई सैनिक नहीं है। मैं अकेला बालक हूँ और मैंने अस्त्र विद्या में अभी अधिक परिश्रम भी नहीं किया है। ऐसी दशा में अस्त्र शस्त्रों के ज्ञाता और प्रौढ़ अवस्था वाले इल बहुसंख्यक कौरवों का सामना मैं नहीं कर सकूँगा। अतः तुम रथ लेकर लौट चलो’।
बृहन्नला ने कहा ;- राजकुमार! तुम भय के कारण दीन होकर शत्रुओं का हर्ष बढ़ा रहे हो। अभी तो शत्रुओं ने युद्ध के मैदान में कोई पराक्रम भी प्रकट नहीं किया है। तुमने स्वयं ही कहा कि मुझे कौरवों के पास ले चलो; अतः जहाँ ये बहुत सी ध्वजाएँ फहरा रही हैं? वहीं तुम्हें ले चलूँगी। महाबाहो! जैसे गीध मांस पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार जो गौओं को लूटने के लिये यहाँ आये हैं, उन आततायी कौरवों के बीच तुम्हें ले चलती हूँ। यदि ये पृथ्वी के लिये भी युद्ध ठानेंगे तो उसमें भी मैं तुम्हें ले चलूँगी।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद)
तुम स्त्रियों और पुरुषों के बीच कौरवों को हराकर अपने गोधन को वापस लाने की प्रतिज्ञा करके पुरुषार्थ के विषय में अपनी श्लाघा करते हुए युद्ध के लिये निकले थे; फिर अब क्यो युद्ध नहीं करना चाहते ?। यदि उन गौओं को बिना जीते तुम घर लौटोगे, तो वीर पुरुष तुम्हारी हँसी उड़ायेंगे और यत्र-तत्र स्त्रियाँ और पुरुष एकत्र हो तुम्हारा उपहास करेंगे। मैं भी सैरन्ध्री के द्वारा सारथ्य के कार्य में कुशल बतायी गयी हूँ, अतः अब गौओं को जीतकर वापस लिये बिना मैं नगर में नहीं जा सकूँगी। सैरन्ध्री और तुमने भी बड़ी-बड़ी बातें कहकर मेरी बहुत स्तुति प्रशंसा की है, फिर सम्पूर्ण कौरवों के साथ मैं ही क्यों न युद्ध करूँ ? तुम दृढ़ता पूर्वक डट जाओ।
उत्तर बोला ;- बृहन्नले! भारी संख्या में आये हुए कौरव भले ही मत्स्य देश का सारा धन इच्छानुसार हर ले जायँ, स्त्रियाँ अथवा पुरुष जितना चाहें, मेरा उपहास करें तथा मेरी गौएँ भी चली जायँ; किन्तु इस युद्ध में मेरा कोई काम नहीं है। मेरा नगर सूना पड़ा है। (पिताजी उसकी रक्षा का भार मुझे दे गये थे )। मैं पिताजी से डरता हूँ ( इसलिये यहाँ नहीं ठहर सकता )।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर मान ओर अपमान को त्यागकर बाण सहित धनुष को वहीं छोड़कर कुण्डलधारी राजकुमार उत्तर रथ से कूद पड़ा और भयभीत होकर भाग चला।
तब बृहन्नला ने कहा ;- राजकुमार! क्षत्रिय का यु़द्ध से भागना शूरवीरों की दृष्टि में धर्म नहीं है। युद्ध करके मर जाना अच्छा है; किन्तु भयभीत होकर भागना कदापि अचछा नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर कुन्ती नन्दन धनुजय भी उस उत्तम रथ से कूद पड़े और भागते हुए राजकुमार को पकड़ने के लिये अपनी लंबी चोटी हिलाते और लाल रंग की साड़ी एवं दुपट्टे
को फहराते हुए उसके पीछे-पीछे दौड़े। उस समय चोटी हिला हिलाकर दौड़ते हुए अर्जुन को उस रूप में देखकर उन्हें न जानने वाले कुछ सैनिक ठहाका मारकर हँसने लगे। उन्हें शीघ्र गति से दौड़ते देख कौरव आपस में कहने लगे,,
कौरव कहने लगे ;- ‘यह कौन है जो राख में छिपी हुई अग्नि की भाँति नारी के वेश में छिपा है ? इसकी कुछ बातें तो पुरुषों जैसी हैं और कुछ स्त्रियों जैसी। ‘इसका स्वरूप तो अर्जुन से मिलता - जुलता है; किंतु वेश भूषा इसने नपुंसकों जैसी बना रक्खी है। देखो न, वही अर्जुन जैसा सिर है, वैसी ही ग्रीवा है, वे ही परिघ जैसी मोटी भुजाएँ हैं और उन्हीं के समान इसकी चाल - ढाल है; अतः यह अर्जुन के सिवा दूसरा कोई नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)
‘मनुष्यों में धनुजय का वही स्थान है, जो देवताओं में इन्द्र का है। संसार में अर्जुन के सिवा दूसरा कौन वीर है, जो अकेला हम लोगों का सामना करने के लिये चला आये ?। ‘विराट के सूने नगर में उनका एक ही पुत्र देख-रेख के लिये रह गया था; सो यह बचपन (मूर्खता) के ही कारण हमारा सामना करने के लिये चला आया, अपने पुरुषार्थ से प्रेरित होकर नहीं। निश्चय ही कपट वेश में छिपे हुए कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपना सारथि बनाकर उत्तर नगर से बाहर निकला था।। ‘मालूम होता है, हम लोगों को देखकर यह बहुत डर गया है; इसीलिये भागा जाता है और ये अर्जुन अवश्य ही उस भागते हुए राजकुमार को पकड़ लाना चाहते हैं’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! इस प्रकार सभी कौरव अलग - अलग विचार विमर्श करते थे, किंतु छद्म वेश में छिपे हुए पाण्डु नन्दन अर्जुन तथा उत्तर को देखकर भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाते थे। उस समय दुर्योधन ने रथियों में श्रेष्ठ समस्त सैनिकों से इस प्रकार कहा,
दुर्योधन बोला ;- ‘अर्जुन, श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न भी संग्राम भूमि में हम लोगों का सामना नहीं कर सकते। यदि कोई दूसरा मनुष्य ही हीजड़े का रूप धारण करके इन गौओं के स्थान पर आयेगा, तो मैं उसे अपने तीखे बाणों से घायल करके धरती पर सुजा दूँगा। यह सपर्याुक्त वीरों में से ही कोई एक हो, तो भी अकेला समस्त कौरवों के साथ कैसे युद्ध कर सकता है ?’
उधर ‘यह अर्जुन ही तो नहीं हैं ?’ नहीं, वे नहीं जान पड़ते।’ इस प्रकार आपस में मन्त्रणा करते हुए समस्त कौरव महारथी अर्जुन के विषय में कोई निश्चय नहीं कर पाते थे। कई एक कहने लगे कि ‘अर्जुन की शक्ति महान् है। उनका पराक्रम इन्द्र के समान है। वे दृढ़ता पूर्वक शत्रुओं का बेधन करने वाले हैं। यदि वे ही आज युद्ध करने के लिये आ रहे हैं, तब तो समस्त सैनिकों का जीवन संशय में पड़ गया है।’ वे इस मनुष्य को वहाँ अर्जुन से भिन्न भी नहीं निश्चित कर पाते थे।। उधर अर्जुन ने भागते हुए उत्तर का पीछा करके सौ कदम दूर जाते जाते उसके केश पकड़ लिये। अर्जुन के द्वारा पकड़ लिये जाने पर विराट पुत्र उत्तर बड़ी दीनता के साथ आर्त की भाँति विलाप करने लगा।
उत्तर बोला ;- सुन्दर कटि वाली कल्याणमयी बृहन्नले! तुम मेरी बात सुनो। मेरे रथ को शीघ्र लौटाओ; क्योंकि मनुष्य जीवित रहे, तो वह अनेक बार मंगल देखता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टात्रिंश अध्याय के श्लोक 43-51 का हिन्दी अनुवाद)
मैं तुम्हें सुवर्ण की मोहरें देता हूँ, साथ ही अत्यन्त प्रकायामान स्वर्ण जटित आठ वैदूर्य मणियाँ भेंट करता हूँ। इतना ही नहीं, उत्तम घोड़ों से जुते हुए तथा सुवर्णमय दण्ड से युक्त एक रथ और दस मतवाले हाथी भी दे रहा हूँ। बृहन्नले! यह सब ले लो, किंतु तुम मुझे छोड़ दो।।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उत्तर इसी तरह की बाते कहता और विलाप करता हुआ अचेत हो रहा था। पुरुषसिंह अर्जुन उसकी बातों पर हँसते हुए उसे रथ के समीप ले आये। जब वह भय से आतुर होकर अपनी सुध बुध खोने लगा तब अर्जुन ने उससे कहा - ‘शत्रुनायान! यदि तुम्हें शत्रुओं के साथ युद्ध करने का उत्साह नहीं है तो चलो; मैं उनसे युद्ध करूँगा। तुम मेरे घोड़ों की बागडोर सँभालो। ‘तुम मेरे बाहुबल से सुरक्षित हो इस रथ को सेना की ओर चलो, जो महारथी वीरों से सुरक्षित, घोर एवं अत्यनत दुर्धर्ष है। ‘राजपुत्र शिरोमणे! भयभीत न होओ। शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! तुम क्षत्रिय हो, पुरुषसिंह! तुम शत्रुओं के बीच में आकर विषाद कैसे कर रहे हो ?। ‘देखो, मैं इस अतीव दुर्धर्ष तथा दुर्गम रथ सेना में घुसकर कौरवों से युद्ध करूँगा और तुम्हारे पशुओं को जीत लाऊँगा। ‘नरश्रेष्ठ! तुम केवल मेरे सारथि बन कर बैठे रहो। इन कौरवों के साथ युद्ध जो मैं करूँगा’। भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ और कभी परास्त न होने वाले कुन्ती पुत्र अर्जुन ने उपयुक्त बातें कहकर विराट कुमार उत्तर को दो घड़ी तक भली-भाँति समझाया बुझाया। तत्पश्चात् युद्ध की कामना से रहित, भय से व्याकुल और भागने के लिये छटपटाते हुए उत्तर को उन्होंने रथ पर चढ़ाया। अर्जुन अपने गाण्डीव धनुष को लाने के लिये पुनः उस शमीवृक्ष की ओर गये। उन्होंने उत्तर को समझा बुझाकर सारथि बनने के लिये राजी कर लिया था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में राजकुमार उत्तर के आश्वासन से सम्बन्ध रखने वाला अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
उनतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रोणाचार्य का अर्जुन के अलौकिक पराक्रम की प्रशंसा”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! नपुंसक वेष में रथ पर बैैठे हुए नरश्रेष्ठ अर्जुन को, जो उत्तर को रथ पर बिठाकर शमी वृक्ष की ओर जा रहे थे, भीष्म - द्रोण आदि कौरव महारथियों ने देखा। यह देखकर अर्जुन की आशंका होने से वे सबके सब मन ही मन भयभीत हो उठे। उन सब महारथियों को हतात्साह देख तथा अद्भुत उत्पातों को भी देखकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भरद्वाज नन्दन द्रोण बोले,
द्रोण बोले ;- ‘इस समय कंकड़ बरसाने वाली प्रचण्ड एवं रूखी हवा चल रही है। राख के समान रंग वाले अन्धकार से आकाश आच्छादित हो रहा है। ‘रूक्ष वर्ण वाले अद्भुत बादल भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं’ म्यानों से अनेक प्रकार के शस्त्र निकल रहे हैं। ‘दिशाओं में आग सी लग रही है और उनमें से भयंकर गीदडि़याँ चीत्कार करती हैं। घोड़े आँसू बहाते हैं और रथों की ध्वजाएँ बिना हिलाये ही हिल रही हैं। ‘यहाँ जैसे जैसे बहुत से रूप ( लक्षण ) दिखायी दे रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि कोई महान् भय उपस्थित होने वाला है; अतः आप सब लोग सावधान हो जायँ। ‘आप लोग अपने आपकी रक्षा तो करें ही, सेना का भी व्यूह बना लें। युद्ध में बहुत बड़ा नरसंहार होने वाला है।
उसकी प्रतीक्षा करें। और इस गोधन की भी रखवाली करते रहें। ‘नपुसक वेश में ये समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महान् धनुर्धर अर्जुन ही आ गये हैं, इसमें संदेह नहीं है। ‘गंगा नन्दन! जिनकी ध्वजा पर हनुमान्जी विराजमान होते हैं, एक वृक्ष का नाम ( अर्जुन ) ही जिनका नाम है और जो इन्द्र के पुत्र हैं, वे किरीटधारी धनंजय ही नारी वेश धारण किये यहाँ आ रहे हैं। ये जिसको जीतकर आज हमारी इन गौओं को लौटा ले जायेंगे, उस दुर्योधन की रक्षा कीजिये। ‘ये वे ही शत्रुओं को संताप देने वाले महापराक्रमी सव्यसाची अर्जुन हैं, जो ( सामना होने पर ) सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरों के साथ भी बिना युद्ध किये पीछे नहीं लौट सकते।
‘कौरवों! साक्षात् इन्द्र ने भी इन्हें अस्त्र विद्या की शिक्षा दी है। युद्ध में कुपित होने पर ये साक्षात् इन्द्र के समान पराक्रम दिखाते हैं। तुम लोगों ने इन शूरवीर को वन में ( अनुचित ) क्लेश पहुँचाया है। मुझे इनका सामना करने वाला कोई योद्धा नहीं दिखायी देता। ‘सुना जाता है, हिमालय पर्वत पर किरात वेश में छिपे हुए साक्षात् भगवान् शंकर को भी अर्जुन ने युद्ध में संतुष्ट किया था’।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनचत्वारिंश अध्याय के श्लोक 14-17 का हिन्दी अनुवाद)
कर्ण ने कहा ;- आचार्य! आप सदा हमारे सामने अर्जुन के गुणों की श्लाघा करते रहते हैं, परुतु अर्जुन मेरी और दुर्योधन की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है।
दुर्योधन ने कहा ;- राधा नन्दन! यदि यह अर्जुन है; तब तो मेरा काम ही बन गया। अंगराज! अब ये पाण्डव पहचान लिये जाने के कारण फिर बारह वर्षों तक वन में भटकेंगे। और यदि यह नपुंसक वेश में कोई दूसरा ही मनुष्य है, तो इसे अत्यनत तीखे बाणों द्वारा अभी इस भूतल पर मार गिराऊँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- परंतप! धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के ऐसा कहने पर भीष्म, द्रोण, कृप और अश्वत्थामा ने उसके इस पराक्रम की बड़ी प्रशंसा की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में अर्जुन की प्रशंसा विषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चत्वारिंश अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)
“अर्जुन का उत्तर को शमी वृक्ष से अस्त्र उतारने के लिये आदेश”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस शमी वृक्ष के समीप पहुँचकर अर्जुन ने विराट कुमार उत्तर को सुकुमार तथा युद्ध की कला में पूर्णतश कुशल न जानकर उससे कहा,
अर्जुन बोले ;- ‘उत्तर! मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र इस वृक्ष पर चढ़कर वहाँ रक्खे हुए धनुष उतारो, क्योंकि तुम्हारे ये धनुष मेरे बाहुबल को नहीं सह सकेंगे, कोई भारी कार्य भार नहीं उठा सकेंगे अथवा बड़े बड़े गजराजों का नाश करने में भी ये काम न दे सकेंगे। इतना ही नहीं, यहाँ शत्रुओं पर विजय पाने के लिये युद्ध करते समय ये मेरे बाहु विक्षेप को भी नहीं सँभाल सकेंगे। ‘शत्रुओं को संताप देने वाले महाबाहु उत्तर! तुम्हारे ये सभी अस्त्र शस्त्र अत्यन्त सूक्ष्म, छोटे और कोमल हैं। इनके द्वारा यहाँ विजय दिलाने वाला पराक्रम नहीं किया जा सकता। इसलिये भूमिंजय!
पत्तों से सुशोभित इस शमी वृक्ष पर शीघ्र चढ़ जाओ। ‘राजा युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और नकुल - सहदेव - इन सब पाण्डवों के धनुष रक्खे हुए हैं। ‘उन शूरवीरों के ध्वज, बाण और दिव्य कवच भी यही हैं। यहीं अर्जुन का महान् शक्तिशाली गाण्डीव धनुष भी है, जो अकेला ही एक लाख धनुषों के समान है। यह राष्ट्र की वृद्धि करने वाला, परिश्रम को सहने में समर्थ और ताड़के समान अत्यन्त विशाल है। ‘सम्पूर्ण आयुधों में यह सबसे बड़ा है और शत्रुओं को विशेष पीड़ा देने वाला है। यह सोने को गलाकर बनाया हुआ, दिव्य, सुन्दर, विस्तृत तथा व्रण रहित ( नित्य नूतन ) है। यह भारी से भारी भार वहन करने में समर्थ, भयंकर और देखने में मनोहर है। ऐसे ही युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल -सहदेव के भी सब धनुष प्रबल और सुदृढ़ हैं।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराट पर्व के अन्तर्गत गौहरण पर्व में उत्तर दिशा की ओर से गौओं के अपहरण के प्रसंग में अर्जुन के अस्त्र- शस्त्र वर्णन विषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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