सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का संजय को इन्द्रप्रस्थ लौटाने से ही शान्ति होना सम्भव बतलाना”

    युधिष्ठिर बोले ;- संजय! तुमने मेरी कौन सी ऐसी बात सुनी है, जिससे मेरी युद्ध की इच्छा व्यक्त हुई है, जिसके कारण तुम युद्ध से भयभीत हो रहे हो? तात! युद्ध करने की अपेक्षा युद्ध न करना ही श्रेष्ठ है। सूत! युद्ध न करने का अवसर पाकर भी कौन मनुष्य कभी युद्ध में प्रवृत होगा? संजय! यदि कर्म न करने पर भी पुरुष का संकल्प सिद्ध हो जाता- वह मन से जिस-जिस वस्तु को चाहता, वह उसे मिल जाती तो कोई भी मनुष्य कर्म नहीं करता, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। युद्ध किये बिना यदि थोड़ा भी लाभ प्राप्त होता तो उसे बहुत समझना चाहिये। मनुष्य कभी भी किस लिये युद्ध का विचार करेगा? किसे देवताओं ने शाप दे रक्खा है, जो जान बूझकर युद्ध का वरण करेगा?

     कुन्ती के पुत्र सुख की इच्छा रखकर वही कर्म करते हैं, जो धर्म के विपरीत न हो तथा जिससे सब लोगों का भला होता हो। हम लोग वही सुख चाहते हैं, जो धर्म की प्राप्ति कराने वाला हो। जो इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले विषय-रस का अनुगामी होता है, वह सुख को पाने और दुःख को नष्ट करने की इच्छा से कर्म करता है; परन्तु वास्तव में उसका सारा कर्म दुःख रूप ही है; क्योंकि वह कष्टदायक उपायों से साध्य है। विषयों का चिन्तन अपने शरीर को पीड़ा देता है। जो विषय चिन्तन से सर्वथा मुक्त है, वह कभी दुःख का अनुभव नहीं करता। जैसे प्रज्वलित अग्नि में ईंधन डालने से उसका बल बहुत अधिक बढ़ जाता है, उसी प्रकार विषय भोग और धन का लाभ होने से मनुष्य की तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है। घी से शान्त न होने वाली प्रज्वलित अग्नि की भाँति मानव कभी विषय भोग और धन से तृप्त नहीं होता है।

    हम लोगों सहित राजा धृतराष्ट्र के पास यह भोगों की विशाल राशि संचित हो गई है परंतु देखो। जो पुण्यात्मा नहीं है, वह संग्रामों में विजयी नहीं होता। जो पुण्यात्मा नहीं है, वह अपना यशोगान नहीं सुनता। जिसने पुण्य नहीं किया है, वह मालाएं और गन्ध नहीं धारण कर सकता। जो पुण्यात्मा नहीं है,वह चन्दन आदि अवलेपन का भी उपयोग नहीं कर सकता। जिसने पुण्य नहीं किया है, वह अच्छे कपड़े धारण नहीं करता। यदि राजा धृतराष्ट्र पुण्यवान नहीं होते तो हम लोगों को कुरुदेश से दूर कैसे कर देते? तथापि भोग तृष्णा अज्ञानी दुर्योधन आदि के ही योग्य है, जो प्रायः शरीर के भीतर अन्तःकरण को पीड़ा देती रहती है। राजा धृतराष्ट्र स्वयं तो विषम बर्ताव में लगे हुए हैं; परंतु दूसरों में समतापूर्ण बर्ताव देखना चाहते हैं, यह अच्छी बात नहीं है। वे जैसा अपना बर्ताव देखते हैं, वैसा ही दूसरों का भी देखें।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय! जैसे कोई मनुष्‍य शिशिर ॠतु बीतने पर ग्रीष्‍म-ॠतु की दोपहरी में बहुत घास-फूस से भरे हुए गहन वन में आग लगा दे और जब हवा चलने से वह आग सब ओर फैलकर अपने निकट आ जाय, तब उसकी ज्‍वाला से अपने आपको बचाने के लिये वह कुशल-क्षेम की इच्‍छा रखकर बार-बार शोक करने लगे, उसी प्रकार आज राजा धृतराष्‍ट्र सारा ऐश्र्वर्य अपने अधिकार में करके खोटी बुद्धिवाले, उद्दण्‍ड, भाग्‍यहीन, मूर्ख और किसी अच्‍छे मन्‍त्री की सलाह के अनुसार न चलने वाले अपने पुत्र दुर्योधन का पक्ष लेकर अब किस लिये विलाप करते हैं?। अपने पुत्र दुर्योधन का प्रिय चाहने वाले राजा धृतराष्‍ट्र अपने सबसे अधिक विश्वासपात्र विदुरजी के वचनों को अविश्वसनीय-से समझकर उनकी अवहेलना करके जान-बूझकर अधर्म के ही पथ का आश्रय ले रहे हैं।

      बुद्धिमान, कौरवों के अभीष्‍ट की सिद्धि चाहने वाले, बहुश्रुत विद्वान, उत्‍तम वक्‍ता तथा शीलवान विदुरजी का भी राजा धृतराष्‍ट्र के कौरवों के हित के लिये पुत्र स्‍नेह की लालसा से आदर नहीं किया। संजय! दूसरों का मान मिटाकर अपना मान चाहने वाले ईर्ष्‍यालु, क्रोधी, अर्थ और धर्म का उल्‍लन्घन करने वाले, कटुवचन बोलने वाले, क्रोध और दीनता के वशवर्ती, कामात्‍मा (भोगासक्‍त), पापियों से प्रशंसित, शिक्षा देने के अयोग्‍य, भाग्‍यहीन, अधिक क्रोधी, मित्र द्रोही तथा पापबुद्धि पुत्र दुर्योधन का प्रिय चाहने वाले राजा धृतराष्‍ट्र ने समझते हुए भी धर्म और काम का परित्‍याग किया है। संजय! जिस समय मैं जूआ खेल रहा था, उसी समय की बात है, विदुरजी शुक्रनीति के अनुसार युक्तियुक्‍त वचन कह रहे थे, तो भी दुर्योधन की ओर से उन्‍हें प्रशंसा नहीं प्राप्‍त हुई। तभी मेरे मन में यह विचार उत्‍पन्‍न हुआ था कि सभ्‍भवत: कौरवों का विनाशकाल समीप आ गया है।

      सूत! जब कौरव विदुरजी की बुद्धि के अनुसार बर्ताव करते और चलते थे, तब तक सदा उनके राष्‍ट्र की वृद्धि ही होती रही। जबसे उन्‍होंने विदुरजी से सलाह लेना छोड़ दिया, तभी से उनपर विपत्ति आ पड़ी है। गवल्‍गणपुत्र संजय! धन के लोभी दुर्योधन के जो-जो मन्‍त्री हैं, उनके नाम आज तुम मुझसे सुन लो। दु:शासन, शकुनि तथा सूतपुत्र कर्ण- ये ही उसके मन्त्री हैं। उसका मोह तो देखो। मैं बहुत सोचने विचारने पर भी कोई ऐसा उपाय नहीं देखता, जिससे कुरु तथा सृंजयवंश दोनों का कल्‍याण हो। धृतराष्‍ट्र हम शत्रुओं से ऐश्र्वर्य छीनकर दूरदर्शी विदुर को देश से निर्वासित करके अपने पुत्रों सहित भूमण्‍डल का निष्‍कण्‍टक साम्राज्‍य प्राप्‍त करने की आशा लगाये बैठे हैं। ऐसे लोभी नरेश के साथ केवल संधि ही बनी रहेगी, यह सम्‍भव नहीं जान पड़ता; क्‍योंकि हम लोगों के वन चले जाने पर वे हमारे सारे धन को अपना ही मानने लगे हैं।

कर्ण जो ऐसा समझता है कि युद्ध में धनुष उठाये हुए अर्जुन को जीत लेना सहज है, वह उसकी भूल है। पहले भी तो बड़े-बडे़ युद्ध हो चुके हैं। उनमें कर्ण इन कौरवों का आश्रयदाता क्‍यों न हो सका? अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है-इस बात को कर्ण जानता है, दुर्योधन जानता है, आचार्य द्रोण और पितामह भीष्‍म जानते हैं तथा अन्‍य जो-जो कौरव वहाँ रहते हैं,वे सब भी जानते हैं। समस्‍त कौरव तथा वहाँ एकत्र हुए अन्‍य भूपाल भी इस बात को जानते हैं कि शत्रुदमन अर्जुन के उपस्थित रहते हुए दुर्योधन ने किस उपाय से पाण्‍डवों का राज्‍य प्राप्‍त किया। राज्‍य आदि पर जो पाण्‍डवों का ममत्‍व है, उसे हर लेना क्‍या दुर्योधन सरल समझता है? इसके लिये उसे उन किरीटधारी अर्जुन के साथ युद्धभूमि में उतरना पड़ेगा, जो चार हाथ लंबा धनुष धारण करते हैं और धनुर्वेद के प्रकाण्‍ड विद्वान हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 25-29 का हिन्दी अनुवाद)

    धृतराष्‍ट्र के पुत्र तभी तक जीवित हैं, जब तक कि वे युद्ध में गाण्‍डीव धनुष का टंकारघोष नहीं सुन रहे हैं। दुर्योधन जब तक क्रोध में भरे हुए भीमसेन को नहीं देख रहा है, तभी-तक अपने राज्‍य प्राप्ति संबंधी मनोरथ को सिद्ध हुआ समझे। तात संजय! जब तक भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहनशील वीर सहदेव जीवित हैं, तब तक इन्‍द्र भी हमारे ऐश्र्वर्य का अपहरण नहीं कर सकता।

    सूत! यदि राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के साथ यह अच्‍छी तरह समझ लेंगे कि पाण्‍डवों को राज्‍य न देने में कुशल नहीं हैं तो धृतराष्ट्र के सभी पुत्र समराग्नण में पाण्‍डवों की क्रोधाग्रि से दग्‍ध होकर नष्‍ट होने से बच जायंगे। संजय! हम लोगों को कौरवों के कारण पहले कितना क्‍लेश उठाना पड़ा है, यह तुम भली-भाँति जानते हो तथापि मैं तुम्‍हारा आदर करते हुए उनके सब अपराधों को क्षमा कर सकता हूँ।

   दुर्योधन आदि कौरवों ने पहले हमारे साथ कैसा बर्ताव किया है और उस समय हम लोगों का उनके साथ कैसा बर्ताव रहा है, यह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब भी वह सब कुछ पहले के ही समान हो सकता है। जैसा तुम कह रहे हो, उसके अनुसार मैं शांति धारण कर लूंगा। परंतु इंद्रप्रस्‍थ में पूर्ववत मेरा ही राज्‍य रहे और भरतवंशशिरोमणि सुयोधन मेरा वह राज्‍य मुझे लौटा दे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्‍तर्गत संजययानपर्व में युधिष्ठिरविषयक छब्‍बीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

सत्ताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की सम्‍भावना बतलाकर उन्‍हें युद्ध से उपरत करने का प्रयत्‍न करना”

   संजय बोला ;- पाण्‍डुनन्दन! आपकी प्रत्येक चेष्‍टा सदा धर्म के अनुसार ही होती है। कुन्तीकुमार! आपकी वह धर्मयुक्त चेष्‍टा लोक में तो विख्‍यात है ही, देखने में भी आ रही है। यद्यपि यह जीवन अनित्य है तथापि इससे महान सुयश की प्राप्ति हो सकती है। पाण्‍डव! आप जीवन की उस अनित्यता पर दृष्टिपात करें और अपनी कीर्ति को नष्‍ट न होने दें। अजातशत्रो! यदि कौरव युद्ध किये बिना आपको राज्य का भाग न दें, तो भी अन्धक और वृष्णिवंशी क्षत्रियों के राज्य में भीख मांगकर जीवन-निर्वाह कर लेना मैं आपके लिये श्रेष्‍ठ समझता हूं; परंतु युद्ध करके राज्य लेना अच्छा नहीं समझता। मनुष्‍य का जो यह जीवन है, वह बहुत थोडे़ समय तक रहने वाला है। इसको क्षीण करने वाले महान दोष इसे प्राप्त होते रहते हैं। यह सदा दु:खमय और चञ्चल है। अत: पाण्‍डुनन्दन! आप युद्धरूपी पाप न कीजिये। वह आपके सुयश-के अनुरूप नहीं है। नरेन्द्र! जो धर्माचरण में विघ्‍न डालने की मूल कारण हैं, वे कामनाएं प्रत्येक मनुष्‍य को अपनी ओर खींचती हैं। अत: बुद्धिमान मनुष्‍य पहले उन कामनाओं को नष्‍ट करता है, तदनन्तर जगत में निर्मल प्रशंसा का भागी होता है। कुन्तीनन्दन! इस संसार में धन की तृष्‍णा ही बन्धन में डालने वाली है। जो धन की तृष्‍णा में फंसता है, उसका धर्म भी नष्‍ट हो जाता है। जो धर्म का वरण करता है, वही ज्ञानी है।

    भोगों की इच्छा करने वाला मनुष्‍य तो धन में आसक्त होने के कारण धर्म से भ्रष्‍ट हो जाता है। तात! धर्म, अर्थ और काम तीनों में धर्म को प्रधान मानकर तदनुसार चलने वाला पुरुष महाप्रतापी होकर सूर्य की भाँति चमक उठता है; परंतु जो धर्म से हीन है और जिसकी बुद्धि पाप में ही लगी हुई है, वह मनुष्‍य इस सारी पृथ्‍वी को पाकर भी कष्‍ट ही भोगता रहता है। आपने परलोक पर विश्‍वास करके वेदों का अध्‍ययन, ब्र‍ह्मचर्य का पालन एवं यज्ञों का अनुष्‍ठान किया है तथा ब्राह्मणों को दान दिया है और अनन्त वर्षों तक वहाँ के सुख भोगने के लिये अपने-आपको भी समर्पित कर दिया है। जो मनुष्‍य भोग तथा प्रिय (पुत्रादि) का निरन्तर सेवन करते हुए योगाभ्‍यासोपयोगी कर्म का सेवन नहीं करता, वह धन का क्षय हो जाने पर सुख से वञ्चित हो काम वेग से अत्यन्त विक्षुब्ध होकर सदा दु:ख शय्यापर शयन करता रहता है।

     जो ब्रह्मचर्य पालन में प्रवृत्त न हो धर्म का त्याग करके अधर्म का आचरण करता है तथा जो मूढ़ परलोक पर विश्‍वास नहीं रखता है, वह मन्दभाग्य मानव शरीर त्यागने के पश्‍चात परलोक में बड़ा कष्‍ट पाता है। पुण्‍य अथवा पाप किन्हीं भी कर्मों का परलोक में नाथ नहीं होता है। पहले कर्ता के पुण्‍य और पाप परलोक में जाते हैं, फिर उन्हीं के पीछे-पीछे कर्ता जाता है। लोक में आपके कर्म इस रूप में विख्‍यात हैं कि आपने उत्तम दक्षिणायुक्त वृद्धिश्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों को न्यायोपार्जित प्रचुर धन एवं श्रद्धासहित उत्तम गन्धयु‍क्त, सुस्वादु एवं पवित्र अन्न का दान किया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद)

    कुन्तीनन्दन! इस शरीर के रहते हुए ही कोई भी सत्कर्म किया जा सकता है। मरने के बाद कोई कार्य नहीं किया जा सकता। आपने तो परलोक में सुख देने वाला महान पुण्‍यकर्म किया है, जिसकी साधु पुरुषों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। (पुण्‍यात्मा) मनुष्‍य मृत्यु, बुढा़पा तथा भय त्याग देता है। वहाँ उसे मन के प्रतिकुल भूख-प्यास का कष्‍ट भी नहीं सहन करना पड़ता है। परलोक में इन्द्रियों को सुख पहुँचाने के सिवा दूसरा कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है। नरेन्द्र! इस प्रकार हृदय को प्रिय लगने वाले विषय से कर्मफल की प्रार्थना नहीं करनी चाहिये।

     पाण्‍डुनन्दन! आप क्रोधजनित नरक और हर्षजनित स्वर्ग- इन दोनों लोकों में कभी न जायं। इस तरह (ज्ञानाग्नि द्वारा) कर्मों को दग्ध करके सत्य, दम, आर्जव (सरलता) तथा अनृशंसता (दया) इन सदगुणों का कभी त्याग न करें। अश्वमेध, राजसूय और अन्य यज्ञों को भी न छोडे़ं, परंतु युद्ध-जैसे पापकर्म के निकट फिर कभी न जायं। कुन्तीकुमारो! यदि आप लोगों को राज्य के लिये चिरस्थायी विद्वेष के रूप में युद्ध रूप पापकर्म ही करना है, तब तो मैं यही कहूंगा कि आप बहुत वर्षों त‍क दु:खमय वनवास का ही कष्‍ट भोगते रहें।

    पाण्‍डवो! वह वनवास ही आपके लिये धर्मरूप होगा। पहले हम लोग बलपूर्वक इन्हें अपने वश में रखकर वन में गये बिना ही यहाँ रह सकते थे; क्योंकि आज जो सेना एकत्र हुई है, यह पहले भी अपने ही लोगों के अधीन थी और ये भगवान श्रीकृष्‍ण तथा वीरवर सात्यकि सदा से ही आप लोगों के वशीभूत एवं आपके सहायक रहे हैं। प्रहार करने में कुशल वीर सैनिकों तथा पुत्रों के साथ सुवर्णमय रथ से सुशोभित मत्स्य देश के राजा विराट तथा दूसरे भी बहुत से नरेश, जिन्हें पहले आप लोगों ने युद्ध में जीता था, वे सबके सब संग्राम में आपका ही पक्ष लेते। उस समय आप महान सहायकों से सम्पन्न और बलशाली थे, आप श्रीकृष्‍ण तथा अर्जुन के आगे-आगे चलकर शत्रुओं पर आक्रमण कर सकते थे। समरांगण में अपने महान शत्रुओं का संहार करते हुए आप दुर्योधन के घमंड को चूर-चूर कर सकते थे। पाण्‍डुनन्दन! फिर क्या कारण है कि आपने शत्रु की शक्ति को बढ़ने का अवसर दिया? किसलिये अपने सहायकों को दुर्बल बनाया और क्यों बारह वर्षों तक वन में निवास किया?

    फिर आज जब वह अनुकूल अवसर बीत चुका है, आपको युद्ध करने की इच्छा क्यों हुई है? पाण्‍डुनन्दन! अज्ञानी अथवा पापी मनुष्‍य भी युद्ध करके सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है और बुद्धिमान अथवा धर्मज्ञ पुरुष भी दैवी बाधा के कारण पराजित होकर ऐश्‍वर्य से हाथ धो बैठता है। कुन्तीनन्दन! आपकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती तथा आपने क्रोध में आकर भी कभी पाप कर्म नहीं किया है, तो बताइये, कौन-सा ऐसा (प्रबल) कारण है, जिसके लिये अब आप अपनी बुद्धि के विरुद्ध यह युद्ध-जैसा पापकर्म करना चाहते हैं?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 23-27 का हिन्दी अनुवाद)

   महाराज! जो‍ बिना व्याधि के ही उत्पन्न होता है, स्वाद में कड़ुआ है, जिसके कारण सिर में दर्द होने लगता है, जो यश का नाशक और पापरूप फल को प्रकट करने वाला है, जो सज्जन पुरुषों के ही पीने योग्य है, जिसे असाधु पुरुष नहीं पीते हैं, उस क्रोध को आप पी लीजिये और शान्त हो जाइये जो पाप की जड़ है, उस क्रोध की इच्छा कौन करेगा? आपकी दृष्टि में तो क्षमा ही सबसे श्रेष्‍ठ वस्तु है, वे भोग नहीं, जिनके लिये शान्तनुनन्दन भीष्‍म तथा पुत्र सहित आचार्य द्रोण की हत्या की जाय।

    कुन्तीनन्दन! ऐसा कौन-सा सुख हो सकता है, जिसे आप कृपाचार्य, शल्य, भूरिश्रवा, विकर्ण, विविंशति, कर्ण तथा दुर्योधन- इन सबका वध करके पाना चाहते हैं, कृपया बताइये। राजन्! समुद्रपर्यन्त इस सारी पृथ्‍वी को पाकर भी आप जरा-मृत्यु, प्रिय-अप्रिय तथा सुख-दु:ख से पिण्‍ड नहीं छुड़ा सकते। आप इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं; अत: मेरी प्रार्थना है कि आप युद्ध न करें। यदि आप अपने मन्त्रियों की इच्छा से ही ऐसा पापमय युद्ध करना चाहते हैं तो अपना सर्वस्व उन मन्त्रियों को ही देकर वानप्रस्थ ग्रहण कर लीजिये; परंतु अपने कुटुम्ब का वध करके देवयान मार्ग से भ्रष्‍ट न होइये।

(इस प्रकारश्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत संजययानपर्व में संजयवाक्यविषयक सत्ताईसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

अठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टाविंश अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय को युधिष्ठिर का उत्‍तर”

   युधिष्ठिर बोले ;- संजय! सब प्रकार के कर्मो में धर्म ही श्रेष्‍ठ है। यह जो तुमने कहा है, वह बिलकुल ठीक है। इसमें रत्‍तीभर भी संदेह नहीं है; परंतु मैं धर्म कर रहा हूँ या अधर्म, इस बात को पहले अच्‍छी तरह जान लो; फिर मेरी निंदा करना। कहीं तो अधर्म ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कहीं पूर्णतया धर्म ही अधर्म दिखायी देता है तथा कहीं धर्म अपने वास्‍तविक स्‍वरूप को ही धारण किये रहता है। विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख और समझ लेते हैं। इस प्रकार जो यह विभिन्‍न वर्णों का अपना-अपना लक्षण (लिंग) है, वह ठीक उसी प्रकार उस-उस वर्ण के लिये धर्मरूप है और वही दूसरे वर्ण के लिये अधर्मरूप है। इस प्रकार य‍द्यपि धर्म और अधर्म सदा सुनिश्चितिरूप से रहते हैं तथापि आपत्तिकाल में वे दूसरे वर्ण के लक्षण को भी अपना लेते हैं। प्रथम वर्ण ब्राह्मण का जो विशेष लक्षण है, वह उसी के लिये प्रमाणभूत है।

    संजय! आपद्धर्मका क्‍या स्‍वरूप है, उसे तुम जानो। प्रकृति का सर्वथा लोप हो जानेपर जिस वृत्ति का आश्रय लेने से (जीवन की रक्षा एवं) सत्‍कर्मों का अनुष्‍ठान हो सके, जीविकाहीन पुरुष उसे अवश्‍य अपनाने की इच्‍छा करें। संजय! जो प्रकृतिस्‍थ होकर भी आपद्धर्मका आश्रय लेता है, वह निंदनीय होता है तथा जो आपत्तिग्रस्‍त होने पर भी जीविका नहीं चलाता है, वह गर्हणीय होता है। इस प्रकार ये दोनों तरह के लोग निंदा के पात्र होते हैं। सूत! ब्राह्मणों का नाश न हो जाय, ऐसी इच्‍छा रखने वाले विधाता ने जो प्रायश्चित करने का विधान किया है, उस पर दृष्टिपात करो। फिर यदि हम आपत्तिकाल में भी (स्‍वाभाविक) कर्मों में ही लगे हों और आपत्तिकाल न होने पर भी अपने वर्ण के विपरीत कर्मों में स्थित हो रहे हों तो उस दशा में हमें देखकर तुम (अवश्‍य) हमारी निंदा करो।

    मनीषी पुरुषों को सत्‍व आदि के बंधन से मुक्‍त होने के लिये सदा ही सत्‍पुरुषों का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये, यह उनके लिये शास्‍त्रीय विधान है। पंरतु जो ब्राह्मण नहीं है तथा जिनकी ब्रह्मविद्या में निष्‍ठा नहीं है, उन सबके लिये सबके समीप अपने धर्म के अनुसार ही जीविका चलानी चाहिये। यज्ञ की इच्‍छा रखने वाले मेरे पूर्व पिता-पितामह आदि तथा उनके भी पूर्वज उसी मार्गपर चलते रहे  तथा जो कर्म करते हैं, वे भी उसी मार्ग से चलते आये हैं। मैं भी नास्तिक नहीं हूं, इसलिये उसी मार्ग पर चलता हूं; उसके सिवा दूसरे मार्ग पर विश्वास नहीं रखता हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टाविंश अध्याय के श्लोक 8-14 का हिन्दी अनुवाद)

    संजय! इस धरातल पर जो कुछ भी धन-वैभव विद्यमान है, नित्‍य यौवन से युक्‍त रहने वाले देवताओं के यहाँ जो धनराशि है, उससे भी उत्‍कृष्‍ट जो प्रजापति का धन है तथा जो स्‍वर्गलोक एवं ब्रह्मलोक का सम्‍पूर्ण वैभव है, यह सब मिल रहा है, तो भी मैं उसे अधर्म से लेना नहीं चाहूंगा।

    यहाँ धर्म के स्‍वामी, कुशल नीतिज्ञ, ब्राह्मण भक्‍त और मनीषी भगवान श्रीकृष्‍ण बैठे हैं, जो नाना प्रकार के महान बलशाली क्षत्रियों तथा भोजवंशियों का शासन करते हैं। यदि मैं सामनीति अथवा संधि का परित्‍याग करके निंदा का पात्र होता होऊं या युद्ध के लिये उद्यत होकर अपने धर्म का उल्‍लंघन करता होऊं तो ये महायश्‍स्‍वी वसुदेवनंदन भगवान श्रीकृष्‍ण अपने विचार प्रकट करें; क्‍योंकि ये दोनों पक्षों का हित चाहने वाले हैं। ये सात्‍यकि, ये चेदिदेश के लोग, ये अंधक, वृष्णि, भोज, कुकुर तथा सृंजयवंश के क्षत्रिय इन्‍हीं भगवान वासुदेव की सलाह से चलकर अपने शत्रुओं को बंदी बनाते और सुहृदों-को आनन्दित करते हैं।

   श्रीकृष्‍ण की बतायी हुई नीति के अनुसार बर्ताव करने से वृष्णि और अंधकवंश के सभी उग्रसेन आदि क्षत्रिय इन्‍द्र के समान शक्तिशाली हो गये हैं तथा सभी यादव मनस्‍वी, सत्‍यपरायण, महान बलशाली और भोग सामग्री से समपन्‍न हुए हैं। काशीनरेश बभ्रु श्रीकृष्‍ण को ही शासक बन्‍धु के रूप में पाकर उत्‍तम राज्‍य-लक्ष्‍मी के अधिकारी हुए हैं। भगवान श्रीकृष्‍ण बभ्रु के लिये समस्‍त मनोवांञ्छित भोगों की वर्षा उसी प्रकार करते हैं, जैसे वर्षाकाल में मेघ प्रजाओं के लिये जल की वृष्टि करता है। तात संजय! तुम्‍हें मालूम होना चाहिये कि भगवान श्रीकृष्‍ण ऐसे प्रभावशाली और विद्वान हैं। ये प्रत्‍येक कर्म-का अंतिम परिणाम जानते हैं। ये हमारे सबसे बढ़कर प्रिय तथा श्रेष्‍ठतम पुरुष हैं। मैं इनकी आज्ञा का उल्‍लंघन नहीं कर सकता।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंनर्गत संजययानपर्व में युघिष्ठिर वचन संबंधों अट्ठाईसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

उन्नतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय की बातों का प्रत्‍युत्‍तर देते हुए श्रीकृष्‍ण का उसे धृतराष्‍ट्र के लिये चेतावनी देना”

    भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा ;- सूत संजय! मैं जिस प्रकार पाण्‍डवों को विनाश से बचाना, उनको ऐश्र्वर्य दिलाना तथा उनका प्रिय करना


 


चाहता हूँ, उसी प्रकार अनेक पुत्रों से युक्‍त राजा धृतराष्ट्र का भी अभ्‍युदय चाहता हूँ। सूत! मेरी भी सदा यही अभिलाषा है कि दोनों पक्षो-में शांति बनी रहे। ‘कुन्‍तीकुमारो! कौरवों से संधि करो, उनके प्रति शांत बने रहो', इसके सिवा दूसरी कोई बात मैं पाण्‍डवों के सामने नहीं कहता हूँ। राजा युधिष्ठिर के मुँह से भी ऐसा ही प्रिय वचन सुनता हूँ और स्‍वयं भी इसी को ठीक मानता हूँ।

    संजय! जैसा कि पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर ने प्रकट किया है, राज्‍य के प्रश्‍नों को लेकर दोनों पक्षों में शांति बनी रहे, यह अत्‍यंत दुष्‍कर जान पड़ता है। पुत्रों सहित धृतराष्ट्र (इनके स्‍वरुप) जिस राज्‍य में आसक्‍त होकर उसे लेने-की इच्‍छा करते हैं, उसके लिये इन कौरव-पाण्‍डवों में कलह कैसे नहीं बढ़ेगा? संजय! तुम यह अच्‍छी तरह जानते हो कि मुझसे और युधिष्ठिर से धर्म का लोप नहीं हो सकता, तो भी जो उत्‍साहपूर्वक स्‍वधर्म का पालन करते हैं तथा शास्‍त्रों में जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही कुटुम्‍ब (गृहस्‍थाश्रम) में रहते हैं, उन्‍हीं पाण्‍डुकुमार युधिष्ठिर के धर्मलोप की चर्चा या आशंका तुमने पहले किस आधार पर की है? गृहस्थ आश्रम में रहने की जो शास्त्रोक्त विधि है, उसके होते हुए भी इसके ग्रहण अथवा त्याग के विषय में विदेज्ञ ब्राह्मणों के भिन्न-भिन्न विचार हैं।

   कोई तो कर्मयोग के द्वारा ही परलोक में सिद्धि-लाभ होने की बात बताते हैं, दूसरे लोग कर्म को त्यागकर ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि (मोक्ष) का प्रतिपादन करते हैं। विद्वान पुरुष भी इस जगत में भक्ष्‍य-भोज्य पदार्थों को भोजन किये बिना तृप्त नहीं हो सकता, अतएव विद्वान ब्राह्मण के लिये भी क्षुधानिवृत्ति के लिये भोजन करने का विधान है। जो विद्याएं कर्म का सम्पादन करती हैं, उन्हीं का फल दृष्टि-गोचर होता है, दूसरी विद्याओं का नहीं। विद्या तथा कर्म में भी कर्म का ही फल यहाँ प्रत्यक्ष दिखायी देता है। प्यास से पीड़ित मनुष्‍य जल पीकर ही शान्त होता है।

   संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म का साथ लेकर ही है; अत: ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। जो कर्म से भिन्न कर्मों के त्याग को श्रेष्‍ठ मानता है, वह दुर्बल है, उसका कथन व्यर्थ ही है। ये देवता कर्म से ही स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। वायुदेव कर्म को अपनाकर ही सम्पूर्ण जगत में विचरण करते हैं तथा सूर्यदेव आलस्य छोड़कर कर्म द्वारा ही दिन-रात-का विभाग करते हुए प्रतिदिन उदित होते हैं। चन्द्रमा भी आलस्य त्यागकर मास, पक्ष तथा नक्षत्रों का योग प्राप्त करते हैं; इसी प्रकार जात-वेदा (अग्निदेव) भी आलस्य रहित होकर प्रजा के लिये कर्म करते हुए ही प्रज्वलित होकर दाह-क्रिया सम्पन्न करते हैं। पृथ्‍वीदेवी भी आलस्य शून्य हो बलपूर्वक विश्‍व के इस महान भार को ढोती हैं। ये नदियां भी आलस्य छोड़कर सम्पूर्ण प्राणियों को तृप्त करती हुई शीघ्रतापूर्वक जल बहाया करती हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

    जिन्होंने देवताओं में श्रेष्‍ठ स्थान पाने की इच्छा से तन्द्रारहित होकर ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया था, वे महातेजस्वी बल-सूदन इन्द्र भी आलस्य छोड़कर मेघगर्जना द्वारा आकाश तथा दिशाओं को गुंजाते हुए समय-समय पर वर्षा करते हैं। इन्द्र ने सुख तथा मन को प्रिय लगने वाली वस्तुओं का त्याग करके सत्कर्म के बल से ही देवताओं में ऊंची स्थिति प्राप्त की। उन्होंने सावधान होकर सत्य, धर्म, इन्द्रिय-संयम, सहिष्‍णुता, समदर्शिता तथा सबको प्रिय लगने वाले उत्तम बर्ताव का पालन किया था। इन समस्त सद्गुणों का सेवन करने के कारण ही इन्द्र को देवसम्राट का श्रेष्‍ठ पद प्राप्त हुआ है।

    इसी प्रकार बृहस्पतिजी ने भी नियमपूर्वक समाहित एवं संयतचित्त होकर सुख का परित्याग करके समस्त इन्द्रियों को अपने वश में रखते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था। इसी सत्कर्म के प्रभाव से उन्होंने देवगुरु का सम्मानित पद प्राप्त किया है। आकाश के सारे नक्षत्र सत्कर्म के ही प्रभाव से परलोक में प्रकाशित हो रहे हैं। रुद्र, आदित्य, बसु तथा विश्‍वदेवगण भी कर्मबल से ही महत्त्व को प्राप्त हुए हैं। सूत! यमराज, विश्रवा के पुत्र कुबेर, गन्धर्व, यक्ष तथा अप्सराएं भी अपने-अपने कर्मों के प्रभाव से ही स्वर्ग में विराजमान हैं। ब्रह्मज्ञान तथा ब्रह्मचर्य कर्म का सेवन करने वाले म‍हर्षि भी कर्मबल से ही परलोक में प्रकाशमान हो रहे हैं।

    संजय! तुम श्रेष्‍ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍व तथा सम्पूर्ण लोकों के इस सुप्रसिद्ध धर्म को जानते हो। तुम ज्ञानियों में भी श्रेष्‍ठ ज्ञानी हो, तो भी तुम कौरवों की स्वार्थ सिद्धि के लिये क्यों बाग्जाल फैला रहे हो? राजा युधिष्ठिर का वेद-शास्त्रों के साथ स्वाध्‍याय के रूप में सदा सम्बन्ध बना रहता है। इसी प्रकार अश्‍वमेध तथा राजसूय आदि यज्ञों से भी इनका सदा लगाव है। ये धनुष और कवच से भी संयुक्त हैं। हाथी-घोडे़ आदि वाहनों, रथों और अस्त्र-शस्त्रों की भी इनके पास कमी नहीं है। ये कुन्तीपुत्र यदि कौरवों का वध किये बिना ही अपने राज्य की प्राप्ति का कोई दूसरा उपाय जान लेंगे, तो भीमसेन के आग्रहपूर्वक आर्य पुरुषों के द्वारा आचरित सद्व्यहार में लगाकर धर्म रक्षारूप पुण्‍य का ही सम्पादन करेंगे, तुम ऐसा (भली-भाँति) समझ लो। पाण्‍डव अपने बाप-दादों के कर्म-क्षात्रधर्म (युद्ध आदि) में प्रवृत्त हो यथाशक्ति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए यदि दैववश मृत्यु को भी प्राप्त हो जायं तो इनकी वह मृत्यु उत्तम ही मानी जायगी। यदि तुम शान्ति धारण करना ही ठीक समझते हो तो बताओ, युद्ध में प्रवृत्त होन से राजाओं के धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है या युद्ध छोड़कर भाग जाने से?

   क्षत्रिय-धर्म का विचार करते हुए तुम जो कुछ भी कहोगे, मैं तुम्हारी वही बात सुनने को उद्यत हूँ। संजय! तुम पहले ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के विभाग तथा उनमें से प्रत्येक वर्ण के अपने-अपने कर्म का देख लो। फिर पाण्‍डवों के वर्तमान कर्म पर दृष्टिपात करो; तत्पश्‍चात जैसा तुम्हारा विचार हो, उसके अनुसार इनकी प्रशंसा अथवा निन्दा करना। ब्राह्मण अध्‍ययन, यज्ञ एवं दान करे तथा प्रधान-प्रधान तीथों की यात्रा करे, शिष्‍यों को पढा़वे और यजमानों को यज्ञ करावे अथवा शास्त्रविहित प्रतिग्रह (दान) स्वीकार करे।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्‍टाविंश अध्याय के श्लोक 24-34 का हिन्दी अनुवाद)

   इसी प्रकार क्षत्रिय स्वाध्‍याय, यज्ञ और दान करे। किसी से किसी भी वस्तु की याचना न करे। वह न तो दूसरों का यज्ञ करावे और न अध्‍यापन का ही कार्य करे; यही धर्मशास्त्रों में क्षत्रियों का प्राचीन धर्म बताया गया है। इसके सिवा क्षत्रिय धर्म के अनुसार सावधान रहकर प्रजाजनों की रक्षा करे, दान दे, यज्ञ करे, सम्पूर्ण वेदों का अध्‍ययन करके विवाह करे और पुण्‍य कर्मों का अनुष्‍ठान करता हुआ गृहस्थाश्रम में रहे। इस प्रकार वह धर्मात्मा क्षत्रिय धर्म एवं पुण्‍य का सम्पादन करके अपनी इच्छा अनुसार ब्रह्मलोक को जाता है। वैश्‍व अध्‍ययन करके कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार द्वारा धनोपार्जन करते हुए सावधानी के साथ उसकी रक्षा करे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रिय करते हुए धर्मशील एवं पुण्‍यात्मा होकर वह गृहस्थाश्रम में निवास करे।

    शूद्र ब्राह्मणों की सेवा तथा वन्दना करे, वेदों का स्वाध्‍याय न करे। उसके लिये यज्ञ का भी निषेध है। वह सदा उपयोगी और आलस्यरहित होकर अपने कल्याण के लिये चेष्‍ठा करे। इस प्रकार शूद्रों का प्राचीन धर्म बताया गया है। राजा सावधानी के साथ इन सब वर्णों का पालन करते हुए ही इन्हें अपने-अपने धर्म में लगावे। वह कामभोग में आसक्त न होकर समस्त प्रजाओं के साथ समानभाव से बर्ताव करे और पापपूर्ण इच्छाओं का कदापि अनुसरण न करे।

    यदि राजा को य‍ह ज्ञात हो जाय कि उसके राज्य में कोई सर्वधर्मसम्पन्न श्रेष्‍ठ पुरुष निवास करता है तो वह उसी को प्रजा के गुण-दोष का निरिक्षण करने के लिये नियु्क्त करे तथा उसके द्वारा पता लगावे कि मेरे राज्य में कोई पापकर्म करने वाला तो नहीं है। जब कोई क्रूर मनुष्‍य दूसरे की धन-सम्पत्ति में लालच रखकर उसे ले लेने की इच्छा करता है और विधाता के कोप से (परपीडन के लिये) सेना-संग्रह करने लगता है, उस समय राजाओं में युद्ध का अवसर उपस्थित होता है। इस युद्ध के लिये ही कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का आविष्‍कार हुआ है। स्वयं देवराज इन्द्र ने ऐसे लुटेरों का वध करने के लिये कवच, अस्त्र-शस्त्र और धनुष का आविष्‍कार किया है। (राजाओं को) लुटेरों का वध करने से पुण्‍य की प्राप्ति होती है। संजय! कौरवों में यह लुटेरेपन का दोष तीव्ररूप से प्रकट हो गया है, जो अच्छा नहीं है। वे अधर्म के तो पूरे पण्डित हैं; परंतु धर्म की बात बिल्कुल नहीं जानते।

    राजा धृतराष्‍ट्र अपने पुत्रों के साथ मिलकर सहसा पाण्‍डवों के धर्मत: प्राप्त उनक पैतृक राज्य का अपहरण करने को उतारू हो गये हैं। अन्य समस्त कौरव भी उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं। वे प्राचीन राजधर्म की ओर नहीं देखते हैं। चोर छिपा रहकर धन चुरा ले जाय अथवा सामने आकर डाका डाले, दोनों ही दशाओं में वे चोर-डाकू निन्दा के ही पात्र होते हैं। संजय! तुम्हीं कहो, धृतराष्‍ट्र-पुत्र दुर्योधन और उन चोर-डाकुओं में क्या अंतर है? दुर्योधन क्रोध के वशीभूत हो उसके अनुसार चलने वाला है और वह लोभ से राज्य को ले लेना चाहता है। इसे वह धर्म मान रहा है; परंतु वह तो पाण्‍डवों का भाग है, जो कौरवों के यहाँ धरोहर के रूप में रक्खा गया है। संजय! हमारे उस भाग को हमसे शत्रुता रखने वाले कौरव कैसे ले सकते हैं?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 35-46 का हिन्दी अनुवाद)

   सूत! इस राज्य भाग की प्राप्ति के लिये युद्ध करते हुए हम लोगों का वध हो जाय तो वह भी हमारे लिये स्पृहणीय ही है। बाप-दादों का राज्य पराये राज्य की अपेक्षा श्रेष्‍ठ है। संजय! तुम राजाओं की मण्‍डली में राजाओं के इन प्राचीन धर्मों का कौरवों के समक्ष वर्णन करना। दुर्योधन ने जिन्हें युद्ध के लिये बुलवाया है, वे मूर्ख राजा बल के मद से मोहित होकर मौत के फंदे में फंस गये हैं। संजय! भरी सभा में कौरवों ने जो यह अत्यन्त पापपूर्ण कर्म किया था, उनके इस दुराचार पर दृष्टि डालो। पाण्‍डवों की प्‍यारी पत्‍नी यशस्विनी द्रौपदी जो शील और सदाचार से सम्‍पन्‍न है, रजस्‍वला-अवस्‍था में सभा के भीतर लायी जा रही थी, परंतु भीष्‍म आदि प्रधान कौरवों ने भी उसकी ओर से उपेक्षा दिखायी। यदि बालक से लेकर बूढ़े तक सभी कौरव उस समय दु:शासन को रोक देते तो राजा धृतराष्‍ट्र मेरा अत्‍यंत प्रिय कार्य करते तथा उनके पुत्रों का भी प्रिय मनोरथ सिद्ध हो जाता। दु:शासन मर्यादा के विपरीत द्रौपदी को सभा के भीतर श्र्वशुरजनों के समक्ष घसीट ले गया। द्रौपदी ने वहाँ जाकर कातर-भाव से चारों ओर करूणदृष्टि डाली, परंतु उसने वहाँ विदुरजी के सिवा और किसी को अपना रक्षक नहीं पाया।

      उस समय सभा में बहुत-से भूपाल एकत्रित थे, परंतु अपनी कायरता के कारण वे उस अन्‍याय का प्रतिवाद न कर सके। एकमात्र विदुरजीने अपना धर्म समझकर मन्‍दबुद्धि दुर्योधन से धर्मानुकूल वचन कहकर उसके अन्‍याय का विरोध किया। संजय! द्यूतसभा में जो अन्‍याय हुआ था, उसे भुलाकर तुम पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर को धर्म का उपदेश देना चाहते हो। द्रौपदी ने उस दिन सभा में जाकर अत्‍यंत दुष्‍कर और पवित्र कार्य किया कि उसने पाण्‍डवों तथा अपने को महान संकट से बचा लिया; ठीक उसी तरह,जैसे नौका समुद्र की अगाध जलराशि में डूबने से बचा लेती है। उस सभा में कृष्‍णा श्र्वशुरजनों के समीप खड़ी थी, तो भी सूतपुत्र कर्ण ने उसे अपमानित करते हुए कहा,

   कर्ण बोला ;-‘याज्ञर्सोन! अब तेरे लिये दूसरी गति नहीं है, तू दासी बनकर दूर्योधन के महल में चली जा। पाण्‍डव जूए में अपने को हार चूके हैं, अत: अब वे तेरे पति नहीं रहे। भाविनि! अब तू किसी दूसरे को अपना पति वरण कर ले’।

     कर्ण के मुख से निकला हुआ वह अत्‍यंत घोर कटुवचन-रूपी बाण मर्म पर चोट पहुँचाने वाला था। वह कान के रास्‍ते से भीतर जाकर हड्डियों को छेदता हुआ अर्जुन के हृदय में धंस गया। तीखी कसक पैदा करने वाला वह वाग्‍बाण आज भी अर्जुन के हृदय में गड़ा है। जिस समय पाण्‍डव वन में जाने के लिये कृष्‍णमृगचर्म धारण करना चाहते थे, उस समय दु:शासन ने उनके प्रति कितनी कड़वी बातें कहीं,

   दुःशासन बोला ;- ‘ये सब-के-सब हीजड़े अब नष्‍ट हो गये, चिरकाल के लिये नरक के गर्त में गिर गये’। गान्‍धारराज शकुनि ने द्यूतक्रीड़ा के समय कुंतीनंदन युधिष्ठिर से शठतापूर्वक यह बात कही थी कि अब तो तुम अपने छोटे भाई को भी हार गये, अब तुम्‍हारे पास क्‍या है? इसलिये इस समय तुम द्रुपदनन्दिनी कृष्‍णा को दांव पर रखकर जूआ खेलो।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के श्लोक 47-58 का हिन्दी अनुवाद)

   संजय! जूए के समय जितने और जैसे निन्‍दनीय वचन कहे गये थे, वे सब तुम्‍हें ज्ञात हैं, तथापि इस बिगड़े हुए कार्य को बनाने के लिये मैं स्‍वयं हस्तिनापुर चलना चाहता हूँ। यदि पाण्‍डवों का स्‍वार्थ नष्‍ट किये बिना ही मैं कौरवों के साथ इनकी संधि कराने में सफल हो सका तो मेरे द्वारा यह परम पवित्र और महान अभ्‍युदय का कार्य सम्‍पन्‍न हो जायगा तथा कौरव भी मौत के फंदे से छूट जायंगे। मैं वहाँ जाकर शुक्रनीति के अनुसार धर्म और अर्थ से युक्‍त ऐसी बातें कहूंगा, जो हिंसावृत्ति को दबाने वाली होंगी। क्‍या धृतराष्‍ट्र के पुत्र मेरी उन बातों पर विचार करेंगे? क्‍या कौरवगण अपने सामने उपस्थित होने पर मेरा सम्‍मान करेंगे?

    संजय! यदि ऐसा नहीं हुआ-कौरवों ने इसके विपरीत भाव दिखाया तो समझ लो कि रथपर बैठे हुए अर्जुन और युद्ध के लिये कवच धारण करके तैयार हुए भीमसेन के द्वारा पराजित होकर धृतराष्‍ट्र के वे सभी पापात्‍मा पुत्र अपने ही कर्मदोष से दग्‍ध हो जायंगे। द्यूत के समय जब पाण्‍डव हार गये थे, तब दुर्योधन ने उनके प्रति बड़ी भयानक और कड़वी बातें कही थीं; अत: सदा सावधान रहनेवाले भीमसेन युद्ध के समय गदा हाथ में लेकर दुर्योधन को उन बातें की याद दिलायेंगे। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है, कर्ण उस वृक्ष का स्‍कन्‍ध, शकुनि शाखा और दु:शासन समृद्ध फल-पुष्‍प हैं। अज्ञानी राजा धृतराष्‍ट्र ही इसके मूल (जड़) हैं। युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन (उस वृक्ष के) स्‍कन्‍ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनंदन नकुल-सहदेव इसके समृद्ध फल-पुष्‍प हैं। मैं, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं। संजय! पुत्रों सहित राजा धृतराष्‍ट्र एक वन हैं और पाण्‍डव उस वन में निवास करने वाले व्‍याघ्र हैं। सिंहों से रक्षित वन नष्‍ट नहीं होता एवं वन में रहकर सुरक्षित सिंह नष्‍ट नहीं होता उस वन का उच्‍छेद न करो। क्‍योंकि वन से बाहर निकला हुआ व्‍याघ्र मारा जाता है और बिना व्‍याघ्र के वन को सब लोग आसानी से काट लेते हैं। अत: व्‍याघ्र वन की रक्षा करे और वन व्‍याघ्र की।

    संजय! धृतराष्‍ट्र के पुत्र लताओं के समान हैं और पाण्‍डव शाल-वृक्षों के समान। कोई भी लता किसी महान वृक्ष का आश्रय लिये बिना कभी नहीं बढ़ती है शत्रुओं का दमन करने वाले कुंतीपुत्र धृतराष्‍ट्र की सेवा करने के लिये भी उद्यत हैं और युद्ध के लिये भी। अब राजा धृतराष्‍ट्र का जो कर्तव्‍य हो, उसका पालन करें। विद्वान संजय! धर्म का आचरण करने वाले महात्‍मा पाण्‍डव शांति के लिये भी तैयार हैं और युद्ध करने में भी समर्थ हैं। इन दोनों अवस्‍थाओं को समझकर तुम राजा धृतराष्‍ट्र से यथार्थ बातें कहना।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत संजययानपर्व में श्रीकृष्‍णवाक्‍यसंबंधी उनतीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (संजययान पर्व)

तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय की विदाई तथा युधिष्ठिर का संदेश”

   संजय ने कहा ;- नरदेवदेव पाण्‍डुनंदन! आपका कल्‍याण हो। अब मैं आपसे विदा लेता और हस्तिनापुर को जाता हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मैंने मानसिक आवेग के कारण वाणी द्वारा कोई ऐसी बात कह दी हो, जिससे आपको कष्‍ट हुआ हो? भगवान श्रीकृष्‍ण, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, सात्यकि तथा चेकितान से भी आज्ञा लेकर मैं जा रहा हूँ। आप लोगों को सुख और कल्याण की प्राप्ति हो। राजाओ! आप मेरी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखें।

    युधिष्ठिर बोले ;- संजय! मैं तुम्हें जाने की अनुमति देता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। विद्वन! तुम कभी हम लोगों का अनिष्‍ट-चिन्तन नहीं करते हो। इसलिये कौरव तथा हम लोग सभी तुम्हें शुद्धचित्त एवं मध्‍यस्थ सदस्य समझते हैं। संजय! तुम विश्‍वसनीय दूत और हमारे अत्यन्त प्रिय हो। तुम्हारी बातें कल्याणकारिणी होती हैं। तुम शीलवान और संतोषी हो। तुम्हारी बुद्धि कभी मोहित नहीं होती और कटु वचन सुनकर भी तुम कभी क्रोध नहीं करते हो। सूत! तुम्हारे मुख से कभी कोई ऐसी बात नहीं निकलती, जो कड़वी होने के साथ ही मर्म पर आघात करने वाली हो। तुम नीरस और अप्रासङिगक बात भी नहीं बोलते। हम अच्छी तरह जानते हैं कि तुम्हारा यह कथन धर्मानुकूल होने के कारण मनोहर, अर्थयुक्त तथा हिंसा की भावना से रहित है। संजय! तुम्हीं हमारे अत्यन्त प्रिय हो। जान पड़ता है कि दूसरे विदुरजी ही यहाँ आ गये हैं। पहले भी तुम हमसे बारंबार मिलते रहे हो और धनंजय के तो तुम अपने आत्मा के समान प्रिय सखा हो। संजय! यहाँ से जाकर तुम शीघ्र ही जो आदर और सम्मान के योग्य हैं, उन विशुद्ध शक्तिशाली, ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक वेदों के स्वाध्‍याय में संलग्न, कुलीन तथा सर्वधर्म सम्पन्न ब्राह्मणों को हमारी ओर से प्रणाम कहना। स्वाध्‍यायशील ब्राह्मणों, संन्यासियों तथा सदा वन में निवास करने वाले तपस्वी मुनियों एवं बडे़-बूढे़ लोगों से हमारी ओर से प्रणाम कहना और दूसरे लोगों से भी कुशल-समाचार पूछना।

    तात संजय! राजा धृतराष्‍ट्र के पुरोहित, आचार्य तथा उनके ॠत्विजों से भी तुम कुशल-मंगल का समाचार पूछते हुए ही मिलना। तदनन्तर शान्तभाव से उन्हीं की ओर मन की वृत्तियों को एकाग्र करके हाथ जोड़कर मेरे कहने से उन सबको प्रणाम निवेदन करना। तात! जो अश्रोत्रिय (शुद्र) वृद्ध पुरुष मनस्वी तथा शील और बल से सम्पन्न हैं एवं हस्तिनापुर में निवास करते हैं, जो यथाशक्ति कुछ धर्म का आचरण करते हुए हम लोगों के प्रति शुभ कामना रखते हैं और बारंबार हमें याद करते हैं, उन सबसे हम लोगों का कुशल-समाचार निवेदन करना। तत्पश्‍चात उनके स्वास्थ्‍य का समाचार पूछना। जो कौरव-राज्य में व्यापार से जीविका चलाते हैं, पशुओं का पालन करते हुए निवास करते हैं तथा जो खेती करके सब लोगों का भरण-पोषण करते हैं, उन सब वैश्‍यों का भी कुशल-समाचार पूछना।

    जिन्होंने वेदों की शिक्षा प्राप्त करने के लिये पहले ब्रह्मचर्य का पालन किया। तत्पश्‍चात मन्त्र, उपचार, प्रयोग तथा सं‍हार इन चार पादों से युक्त अस्त्रविद्या की शिक्षा प्राप्त की, वे सबके प्रिय, नीतिज्ञ, विनयी तथा सदा प्रसन्नचित्त रहने-वाले आचार्य द्रोण भी हमारे अभिवादन के योग्य हैं, तुम उनसे भी मेरा प्रणाम कहना।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 13-29 का हिन्दी अनुवाद)

    जो वेदाध्‍ययन सम्पन्न तथा सदाचारयुक्त हैं, जिन्होंने चारों पादों से युक्त अस्त्रविद्या की शिक्षा पायी हैं, जो गन्धर्वकुमार के समान वेगशाली वीर हैं, उन आचार्यपुत्र अश्‍वत्थामा का भी कुशल-समाचार पूछना। संजय! तदनन्तर आत्मावेत्ताओं में श्रेष्‍ठ महारथी कृपाचार्य के घर जाकर बारंबार मेरा नाम लेते हुए अपने हाथ से उनके दोनों चरणों का स्पर्श करना। जिनमें वीरत्व, दया, तपस्या, बुद्धि, शील, शास्त्रज्ञान, सत्त्व और धैर्य आदि सद्गुण विद्यमान हैं, उन कुरुश्रेष्‍ठ पितामह भीष्‍म के दोनों चरण पकड़कर मेरा प्रणाम निवेदन करना। संजय! जो कौरवगणों के नेता, अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, बड़े-बूढो़ के सेवक और बुद्धिमान हैं, उन वृद्ध नरेश प्रज्ञाचक्षु धृतराष्‍ट्र को मेरा प्रणाम निवेदन करके यह बताना कि युधिष्ठिर नीरोग और सकुशल है।

    तात संजय! जो धृतराष्‍ट्र का ज्येष्‍ठ पुत्र, मन्दबुद्धि, मूर्ख, शठ और पापाचारी है तथा जिसकी निन्दा सारी पृथ्‍वी में फैल रही हैं, उस सुयोधन से भी मेरी ओर से कुशल-मड़्गल पूछना। तात संजय! जो दुर्योधन का छोटा भाई है तथा उसी के समान मूर्ख और सदा पाप में संलग्न रहने वाला हैं, कुरुकुल के उस महाधनुर्धर एवं विख्‍यात वीर दु:शासन से भी कुशल पूछकर मेरा कुशल-समाचार कहना। संजय! भरतवंशियों में परस्पर शान्ति बनी रहे, इसके सिवा दूसरी कोई कामना जिनके हृदय में कभी नहीं होती है, जो बाह्लीकवंश के श्रेष्‍ठ पुरुष हैं, उन साधु स्वभाव वाले बुद्धिमान बाह्लीक को भी तुम मेरा प्रणाम निवेदन करना।

     जो अनेक श्रेष्‍ठ गुणों से विभूषित और ज्ञानवान हैं, जिनमें निष्‍ठुरता का लेशमात्र भी नहीं है, जो स्नेहवश सदा ही हम लोगों का क्रोध सहन करते रहते हैं, वे सोमदत्त भी मेरे लिये पूजनीय हैं। संजय! सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा कुरुकुल में पूज्यतम पुरुष माने गये हैं। वे हम लोगों के निकट सम्बन्धी और मेरे प्रिय सखा हैं। रथी वीरों में उनका बहुत ऊंचा स्थान है। वे महान धनुर्धर तथा आदरणीय वीर हैं। तुम मेरी ओर से मन्त्रियों सहित उनका कुशल-समाचार पूछना। संजय! इनके सिवा और भी जो कुरुकुल के प्रधान नवयुवक हैं, जो हमारे पुत्र, पौत्र और भाई लगते हैं, इनमें से जिस-जिसको तुम जिस व्यवहार के योग्य समझो, उससे वैसी ही बात कहकर उन सबसे बताना कि पाण्‍डव लोग स्वस्थ और सानन्द हैं।

     दुर्योधन ने हम पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने के लिये जिन-जिन राजाओं को बुलाया है। वे वशाति, शाल्व, केकय, अम्बष्ठ तथा त्रिगर्तदेश के प्रधान वीर, पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशा के शौर्य सम्पन्न योद्धा तथा समस्त पर्वतीय नरेश वहाँ उपस्थित हैं। वे लोग दयालु तथा शील और सदाचार से सम्पन्न हैं। संजय! तुम मेरी ओर से उन सबका कुशल-मड़्गल पूछना। जो हाथीसवार, रथी, घुड़सवार, पैदल तथा बड़े-बड़े़ सज्जनों के समुदाय वहाँ उपस्थित हैं, उन सबसे मुझे सकुशल बताकर उनका भी आरोग्य-समाचार पूछना। जो राजा के हितकर कार्यों में लगे हुए मन्त्री, द्वारपाल, सेनानायक, आय-व्यय निरीक्ष‍क तथा निरन्तर बड़े-बड़े़ कार्यों एवं प्रश्‍नों पर विचार करने वाले हैं, उनसे भी कुशल-समाचार पूछना।

     तात! जो समस्त कौरवों में श्रेष्‍ठ, महाबुद्धिमान, ज्ञानी तथा सब धर्मों से सम्पन्न है, जिसे कौरव और पाण्‍डवों का युद्ध कभी अच्छा नहीं लगता, उस वैश्‍यापुत्र युयुत्सु का भी मेरी ओर से कुशल-मग्ड़ल पूछना। तात! जो धन के अनहरण और द्यूतक्रीड़ा में अद्वितीय है, छल को छिपाये रखकर अच्छी तरह से जूआ खेलता है, पासे फेंकने की कला में प्रवीण है तथा जो युद्ध में दिव्य रथा-रूढ़ वीर के लिये भी दुर्जय है, उस चित्रसेन से भी कुशल-समाचार पूछना और बताना। तात संजय! जो जूआ खेलकर पराये धन का अपहरण करने की कला में अपना सानी नहीं रखता तथा दुर्योधन का सदा सम्मान करता है, उस मिथ्‍याबुद्धि पर्वत निवासी गान्धारराज शकुनि की भी कुशल पूछना।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 30-42 का हिन्दी अनुवाद)

    जो अद्वितीय वीर एकमात्र रथ की सहायता से अजेय पाण्‍डवों को भी जीतने का उत्साह रखता है तथा जो मोह में पड़े हुए धृतराष्‍ट्र के पुत्रों को और भी मोहित करने वाला है, उस वैकर्तन कर्ण की भी कुशल पूछना। अगाधबुद्धि दूरदर्शी विदुरजी हम लोगों के प्रेमी, गुरु, पालक, पिता-माता और सुहृद हैं, वे ही हमारे मन्त्री भी हैं। संजय! तुम मेरी ओर से उनकी भी कुशल पूछना। संजय! राजघराने में जो सद्गुणवती वृद्धा स्त्रियां हैं, वे सब हमारी माताएं लगती हैं। उन सब वृद्धा स्त्रियों से एक साथ मिलकर तुम उनसे हमारा प्रणाम निवेदन करना। संजय! उन बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों से इस प्रकार कहना,,- 'माताओ! आपके पुत्र आपके साथ उत्तम बर्ताव करते हैं न? उनमें क्रूरता तो नहीं आ गयी है? उन सबके दीर्घायु पुत्र हो गये हैं न?’ इस प्रकार कहकर पीछे यह बताना कि आपका बालक अजातशत्रु युधिष्ठिर पुत्रों सहित सकुशल है। तात संजय! हस्तिनापुर में हमारे भाइयों की जो स्त्रियां हैं, उन सबको तो तुम जानते ही हो। उन सबकी कुशल पूछना और कहना क्या तुम लोग सर्वथा सुरक्षित रहकर निर्दोष जीवन बिता रही हो? तु्म्हें आवश्‍यक सुगन्ध आदि प्रसाधन-सामग्रियां प्राप्त होती हैं न? तुम घर में प्रमाद शून्य होकर रहती हो न? भद्र महिलाओ! क्या तुम अपने श्र्वशुरजनों के प्रति क्रूरता रहित कल्याणकारी बर्ताव करती हो तथा जिस प्रकार तुम्हारे पति अनुकूल बने रहें, वैसे व्यवहार और सभ्‍दाव को अपने हृदय में स्थान देती हो?

    संजय! तुम वहाँ उन स्त्रियों को भी जानते हो, जो हमारी पुत्र-वधुएं लगती हैं, जो उत्तम कुलों से आयी हैं तथा सर्वगुण सम्पन्न और संतानवती हैं। वहाँ जाकर उनसे कहना, बहुओ! युधिष्ठिर प्रसन्न होकर तुम लोगों का कुशल-समाचार पूछते थे’। संजय! राजमहल में जो छोटी-छोटी बालिकाएं हैं, उन्हें हृदय से लगाना और मेरी ओर से उनका आरोग्य-समाचार पूछकर उन्हें कहना- ‘पुत्रियो! तुम्हें कल्याणकारी पति प्राप्त हों और वे तुम्हारे अनुकूल बने रहें। साथ ही तुम भी पतियों के अनुकूल बनी रहो’। तात संजय! जिनका दर्शन मनोहर और बातें मन को प्रिय लगने वाली होती हैं, जो वेश-भूषा से अलङ्कृत, सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित, उत्तम सुगन्ध धारण करने वाली, घृणित व्यवहार से रहित, सुख शालिनी और भोग-सामग्री से सम्पन्न हैं, उन वेश (श्रृगांर) धारण कराने वाली स्त्रियों की भी कुशल पूछना। कौरवों के जो दास-दासियां हों तथा उनके आश्रित जो बहुत से कुबडे़ और लंगडे़ मनुष्‍य रहते हों, उन सबसे मुझे सकुशल बताकर अन्त में मेरी ओर से उनकी भी कुशल पूछना।

     और कहना क्या राजा धृतराष्‍ट्र दयावश जिन अङगहीनों, दीनों और बौने मनुष्‍यों का पालन करते हैं, उन्हें दुर्योधन भरण-पोषण की सामग्री देता है? क्या वह उनकी प्राचीन जीविका-वृत्तिका निर्वाह करता है? हस्तिनापुर में जो बहुत से हाथीवान हैं तथा जो अन्धे और बूढे़ हैं, उन सबको मेरी कुशल-बताकर अन्त में मेरी ओर से उनके भी आरोग्य आदि का समाचार पूछना। साथ ही उन्हें आश्‍वासन देते हुए मेरा यह संदेश सुना देना। तुम्हें जो दु:ख प्राप्त होता है अथवा कुत्सित जीवन बिताना पड़ता है, इसके कारण तुम लोग भयभीत न होना। निश्‍चय ही यह दूसरे जन्मों में किये हुए पाप का फल प्रकट हुआ है। मैं कुछ ही दिनों में अपने शत्रुओं को कैद करके हितैषी सुहृदों पर अनुग्रह करते हुए अन्न और वस्त्र द्वारा तुम लोगों का भरण-पोषण करूंगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 43-49 का हिन्दी अनुवाद)

    राजा दुर्योधन से कहना, मैंने कुछ ब्राह्मणों के लिये वार्षिक जीविका-वृत्तियां नियत कर रक्‍खी थीं, किंतु खेद है कि तुम्‍हारे कर्मचारीगण उन्‍हें ठीक से नहीं चला रहे हैं। मैं उन ब्राह्मणों को पुन: पूर्ववत उन्‍हीं वृत्तियों से युक्‍त देखना चाहता हूँ। तुम किसी दूत के द्वारा मुझे यह समाचार सुना दो कि उन वृत्तियों का अब यथावत रूप से पालन होने लगा है।

    संजय! जो अनाथ, दुर्बल एवं मूर्खजन सदा अपने शरीर का पोषण करने के लिये ही प्रयत्‍न करते हैं, तुम मेरे कहने से उन दीनजनों के पास भी जाकर सब प्रकार से उनका कुशल-समाचार पूछना। सूतपुत्र! इनके सिवा विभिन्‍न दिशाओं से आये हुए दूसरे-दूसरे लोग धृतराष्‍ट्र पुत्रों का आश्रय लेकर रहते हैं। उन सब माननीय पुरुषों से भी मिलकर उनकी कुशल और क्‍या वे जीवित बचे रहेंगे, इस संबंध में भी प्रश्‍न करना। इस प्रकार वहाँ सब दिशाओं से पधारे हुए राजदूतों तथा अन्‍य सब अभ्‍यागतों से कुशल-मंड़्गल पूछकर अंत में उनसे मेरा कुशल-समाचार भी निवेदन करना। यद्यपि दुर्योधन ने जिन योद्धाओं का संग्रह किया है, वैसे वीर इस भूमण्‍डल में दूसरे नहीं हैं, तथापि धर्म ही नित्‍य है और मेरे पास शत्रुओं का नाश करने के लिये धर्म का ही सबसे महान बल है।

संजय! दुर्योधन को तुम मेरी यह बात पुन: सुना देना-'तुम्‍हारे शरीर के भीतर मन में जो यह अभिलाषा उत्‍पन्‍न हुई है कि मैं कौरवों का निष्‍कण्‍टक राज्‍य करूं, वह तुम्‍हारे हृदय को पीड़ा मात्र दे रही है। उसकी सिद्धि का कोई उपाय नहीं है। हम ऐसे पौरूषहीन नहीं हैं कि तुम्‍हारा यह प्रिय कार्य होने दें। भरतवंश के प्रमुख वीर! तुम इंद्रप्रस्‍थपुरी फिर मुझे ही लौटा दो अथवा युद्ध करो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत संजययानपर्व में युधिष्ठिरसदेशविषयक तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ)

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