सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the 21 chapter to the 25 chapter of the entire Mahabharata (udyog Parva))

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्म के द्वारा द्रुपद के पुरोहित की बात का समर्थन करते हुए अर्जुन की प्रशंसा करना, इसके विरुद्ध कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन तथा धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म की बात का समर्थन करते हूए दूत को सम्मानित करके विदा करना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पुरोहित की यह बात सुनकर बुद्धि में बड़े-बड़े महातेजस्वी भीष्म ने समय के अनुरूप जन की पूजा करके इस प्रकार कहा,

   भीष्म बोले ;- 'ब्राह्मण! सब पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ सकुशल हैं, यह सौभाग्य की बात है।' उनके बहुत से सहायक हैं और वे धर्म में भी तत्पर हैं, यह और भी सौभाग्य तथा हर्ष का विषय है।' ‘कुरुकुल को आनन्दित करने वाले पांचों भाई पाण्डव सन्धि की इच्छा रखते हैं, यह सौभाग्य का विषय है। वे अपने बन्धु-बान्धवों के साथ युद्ध में मन नही लगा रहे हैं, यह भी सौभाग्य की बात है।' 'आपने जितनी बातें कही हैं, वे सब सत्य हैं, इसमें संशय नही है। परंतु आपकी बातें बड़ी तीखी हैं। यह तीक्ष्णता ब्राह्मण-स्वाभाव के कारण ही है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है।' 'नि:संदेह पाण्डवों को वन में और यहाँ भी कष्ट उठाना पड़ा है। उन्हें धर्मतः अपनी सारी पैतृक सम्पत्ति पाने का अधिकार प्राप्त हो चुका है। इसमें भी कोई संशय नहीं है।'

    'कुन्तीपुत्र किरीटधारी महारथी अर्जुन बलवान तथा अस्त्र विद्या में निपुण है। कौन ऐसा वीर है, जो युद्ध में पाण्डु पुत्र अर्जुन का वेग सह सके?' 'साक्षात वज्रधारी इन्द्र भी युद्ध में उनका सामना नहीं कर सकते; फिर दूसरे धनुर्धरों की बात ही क्या है? मेरा तो ऐसा विश्वास है कि अर्जुन तीनों लोंको का सामना करने में समर्थ है।' भीष्म जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि कर्ण ने दुर्योधन की ओर देखकर क्रोध से धृष्टतापूर्वक आक्षेप करते हुए (भीष्म जी के कथन की अवहेलना करके) यह बात कही। 'ब्रह्मन्! इस लोक में जो घटना बीत चुकी है,


वह किसी को अज्ञात नहीं है, उसको दोहराने से या बारंबार उस पर भाषण देने से क्या लाभ है?' 'पहले की बात है, शकुनि ने दुर्योधन के लिये पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को द्यूत-क्रिडा में परास्त किया था और वे उस जूए की शर्त के अनुसार वन में गये थे। 'युधिष्ठिर उस शर्त का पालन करके अपना पैतृक राज्य चाहते हों, ऐसी बात नहीं है। वे तो मूर्खों की भाँति मत्स्य और पाञ्चाल देश की सेना के भरोसे राज्य लेना चाहते हैं।' 'विद्वन! दुर्योधन किसी के भय से अपने राज्य का आधा कौन कहे चैथाई भाग नहीं देेंगे; परंतु धर्मानुसार तो वे शत्रु को भी समूची पृथ्वी तक दे सकते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकविंश अध्याय के श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)

    'यदि पाण्डव अपने बाप-दादाओं का राज्य लेना चाहते हैं तो पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उतने समय तक पुनः वन में निवास करें।' 'तत्पश्चात वे दुर्योधन के आश्रय में निर्भय हो कर रह सकते हैं। केवल मूर्खतावश वे अपनी बुद्धि को अर्धमपरायण न बनावें।' 'यदि पाण्डव धर्म को त्याग कर युद्ध ही करना चाहते हैं तो इन कुरुश्रेष्ठ वीरों से भिड़ने पर मेरी बात याद करेंगे।' 

     भीष्म जी बोले ;- राधानंदन! तू जो इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनाता है, इससे क्या होगा? तुझे पार्थ का वह पराक्रम याद करना चाहिये, जबकि विराट नगर के युद्ध में उन्होंने अकेले ही सम्पूर्ण सेना सहित छ: अतिरथियों को जीत लिया था। तेरा पराक्रम तो उसी समय देखा गया था,जबकि अनेक बार उनके सामने जाकर तुझे परास्त होना पड़ा। इन ब्राह्मण देवता ने जो कुछ कहा है, यदि हम लोग तदनुसार कार्य नहीं करेंगे तो यह निश्चय है कि युद्ध में पाण्डुनन्दन अर्जुन के हाथ से आहत होकर हमें धूल खानी पड़ेगी।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदनन्तर धृतराष्ट्र ने कर्ण को डांटकर भीष्म जी का सम्मान किया और उन्हें राजी करके इस प्रकार कहा,

    धृतराष्ट्र बोले ;- 'शान्तनुनन्दन भीष्म ने हमारे लिये यह हितकर बात कही है। इसमें पाण्डवों का तथा सम्पूर्ण जगत का भी हित है।' ‘ब्रह्मन्! अब मैं कुछ सोच विचारकर पाण्डवों के पास संजय को भेजुंगा। आप पुनः पाण्डवों के पास ही पधारें, विलम्ब न करें। तदनन्तर राजा धृतराष्ट्र ने उन ब्राह्मण का सत्कार करके उन्हें पाण्डवों के पास वापस भेजा और सभा में संजय को बुलाकर यह बात कही।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक इकीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों के प्रभाव और प्रतिभा का वर्णन करते हुए उसे संदेश देकर पाण्डवों के पास भेजना”

   धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! लोग कहते हैं कि पाण्डव उपप्लव्य नामक स्थान में आ गये हैं। तुम वहाँ जाकर उनका समाचार जानो! अजातशत्रु युधिष्ठिर से आदर पूर्वक मिलकर कहना, सौभाग्य की बात है कि आप सन्नद्ध होकर अपने योग्य स्थान पर आ पहुँचे हैं। संजय! सब पाण्डवों से कहना कि हम लोग सकुशल हैं। पाण्डव लोग मिथ्या से दूर रहने वाले, परोपकारी तथा साधु पुरुष हैं। वे वनवास का कष्ट भोगने योग्य नहीं थे, तो भी उन्होंने वनवास का नियम पूरा कर लिया है। इतने पर भी हमारे ऊपर उनका क्रोध शीध्र ही शान्त हो गया है। संजय! मैंने कभी कहीं पाण्डवों में थोड़ी सी भी मिथ्या वृति नहीं देखी है। पाण्डवों ने अपने पराक्रम से प्राप्त हुई सारी सम्पत्ति मेरे ही अधीन कर दी थी। मैंने सदा ढूंढते रहने पर भी कुन्ती पुत्रों का कोई ऐसा दोष नहीं देखा है, जिससे उनकी निन्दा करूं। वे सदा धर्म अर्थ के लिए ही कर्म करते हैं, कामनावश मानसिक प्रीति और स्त्री-पुत्रादि प्रिय वस्तुओं में नहीं फंसते हैं- काम-भोग में आसक्त होकर धर्म का परित्याग नहीं करते हैं। पाण्डव घाम-शीत, भूख-प्यास, निद्रा-तन्द्रा, क्रोध-हर्ष तथा प्रमाद को धैर्य एवं विवेक पूर्ण बुद्धि के द्वारा जीतकर धर्म और अर्थ के लिये ही प्रयत्नशील बने रहते हैं। वे समय पड़ने पर मित्रों को उनकी सहायता के लिये धन देते हैं। दीर्घकालिक प्रभाव से भी उनकी मैत्री क्षीण नहीं होती है। कुन्ती के पुत्र यथायोग्य सबका सदा सत्कार करने वाले हैं।

      अजमीढवंशी हम कौरवों के पक्ष में पापी, बेईमान तथा मन्द बुद्धि दुर्योधन एवं अत्यन्त क्षुद्र स्वभाव वाले कर्ण को छोड़कर दूसरा कोई भी उनसे द्वेष रखनेवाला नहीं है। संजय! मेरा पुत्र दुर्योधन काल के अधीन हो गया है क्योंकि उसकी बुद्धि राग से दूषित है। वह मूर्ख अत्यन्त तेजस्वी महात्मा पाण्डवों के स्वत्व को दबा लेने की चेष्ठा कर रहा है। केवल दुर्योधन और कर्ण ही सुख और प्रियजनों से बिछुड़े हुए महामना पाण्डवों के मन में क्रोध उत्पन्न करते रहते हैं। दुर्योधन आरम्भ में ही पराक्रम दिखाने वाला है, (अन्त तक उसे निभा नही सकता;) क्योंकि वह सुख में ही पलकर बड़ा हुआ है। वह इतना मूर्ख है कि पाण्डवों के जीते जी उनका भाग हर लेना सरल समझता है। इतना ही नहीं, वह इस कुकर्म को उत्तम कर्म भी मानने लगा है। अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण, भीमसेन, सात्यकि, नकुल, सहदेव और सम्पूर्ण सृञ्जयवंशी वीर जिनके पीछे चलते हैं, उन युधिष्ठिर को युद्ध के पहले ही उनका राज्य भाग दे देने में भलाई है। गाण्डीवधारी सव्यसाची अर्जुन रथ में बैठकर अकेले ही सारी पृथ्वी को जीत सकते हैं। इसी प्रकार विजयशील एवं दुर्धर्ष महात्मा श्रीकृष्ण भी तीनों लोकों को जीतकर उनके अधिपति हो सकते हैं। जो समस्त लोकों में एकमात्र सर्वश्रेष्ठ वीर है, जो मेघ गर्जना के समान गम्भीर शब्द करने वाले तथा टिड्डियों के दल की भाँति तीव्र वेग से चलने वाले बाण समूहों की वर्षा करते हैं, उन वीरवर अर्जुन के सामने कौन मनुष्य ठहर सकता है?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)

    गाण्डीव धनुष धारण करके एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो सव्यसाची अर्जुन ने केवल उत्तर दिशा पर विजय पायी थी, अपितु उत्तर कुरुदेश को भी जीत लिया था और उन सबकी धन- सम्पाति जीतकर ले आये थे। उन्होंने द्रविडों को भी जीतकर अपनी सेना का अनुगामी बनाया था। गाण्डीव धनुष धारण करने वाले पाण्डु पुत्र सव्यसाची अर्जुन वे ही हैं, जिन्होंने खाण्डव वन में इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं पर विजय पायी थी और पाण्डवों के यश तथा सम्मान की वृृृद्धि करते हुए अग्निदेव को वह वन उपहार के रूप में अर्पित किया था। गदाधारियों में इस भूतल पर भीमसेन के समान दूसरा कोई नहीं है और न उनके जैसा कोई हाथी पर सवार ही है। रथ में बैठकर युद्ध करने की कला में भी वे अर्जुन से कम नहीं बताये जाते हैं और बाहुबल में तो वे दस हजार हाथियों के समान शक्ति शाली हैं। अस्त्र-विद्या में उन्हें अच्छी शिक्षा मिली है। वे बड़े वेगशाली वीर हैं। उनके साथ मेरे पुत्रों ने वैर ठान रक्खा है और वे सदा अत्यन्त अमर्ष में भरे रहते हैं; अतः युद्ध हुआ तो भीमसेन मेरे क्षुद्र स्वभाववाले पुत्रों को वेग पूर्वक जलाकर भस्म कर देंगे। साक्षात इन्द्र भी उन्हें युद्ध में बलपूर्वक परास्त नहीं कर सकते। माद्रीनन्दन नकुल और सहदेव भी शुद्धचित्त और बलवान है। अस्त्र संचालन में उनके हाथों की फुर्ती देखने ही योग्य है। स्वयं अर्जुन ने अपने उन दोनों भाइयों को युद्ध की अच्छी शिक्षा दी है। जैसे दो बाज पक्षियों के समुदाय को (सर्वथा) नष्ट कर देते हैं। उसी प्रकार वे दोनों भाई शत्रुओं से भिड़कर उन्हें जीवित नहीं छोड़ सकते। यह ठीक है कि हमारी सेना सब प्रकार से परिपूर्ण है तथापि मेरा यह विश्वास है कि वह पाण्डवों का सामना पड़ने पर नहीं के बाराबर है। पाण्डवों के पक्ष में धृष्टद्युम्न नाम से प्रसिद्ध एक बलवान योद्धा है, जो सोमकवंश का श्रेष्ठ राजकुमार है। मैंने सुना है उसने पाण्डवों के लिये मन्त्रियों सहित अपने शरीर को निछावर कर दिया है। जिन अजातशुत्रु युधिष्ठिर के अगुवा नेता अथवा वृष्णिवंश के सिंह भगवान श्रीकृष्ण हैं, उनका वेग दूसरा कौन सह सकता है? मस्तस्य देश के राजा विराट भी अपने पुत्रों के साथ पाण्डवों की सहायता के लिए सदा उद्यत रहते हैं। मैंने सुना है कि वे युधिष्ठिर के बड़े भक्त हैं। कारण यह है कि अज्ञातवास के समय युधिष्ठिर के साथ एक वर्ष रहे हैं और युधिष्ठिर के द्वारा उनके गोधन की रक्षा हुई है। अवस्था में वृद्ध होने पर भी वे युद्ध में नौजवान से जान पड़ते हैं। केकय देश से निकाले हुए पांच भाई केकय राजकुमार महान धनुर्धर एवं रथी वीर हैं। वे पाण्डवों के सहयोग से केकय देश के राजाओं से पुनः अपना राज्य लेना चाहते हैं, इसलिये उनकी ओर से युद्ध करने की इच्छा रखकर उन्हीं के साथ रह रहे हैं। मैं यह भी सुनता हूँ कि राजाओं में जितने वीर हैं, वे सब पाण्डवों की सहायता के लिये आकर उनकी छावनी में रहते हैं। वे सब के सब शौर्यसम्पन्न, यधिष्ठिर के प्रति भक्ति रखनेवाले, प्रसन्नचित्त एवं धर्मराज के आश्रित हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 22-32 का हिन्दी अनुवाद)

    पर्वतों पर रहने वाले, दुर्गम भूमि में निवास करने वाले एवं समतल भूमि के निवासी योद्धा, जो कुल और जाति की दृष्टि से बहुत शुद्ध हैं, वे तथा म्लेच्छ भी नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र एवं बल-पराक्रम से सम्पन्न हो पाण्डवों की सहायता के लिये आये हैं और उनके शिविर में निवास करते हैं। पाण्डय देश के महामना राजा, जो संसार के सुविख्यात वीर, अनुपम पराक्रम और तेज से समपन्न तथा युद्ध में देवराज इन्द्र के समान हैं, पाण्डवों की सहायता के लिये बहुत से प्रमुख योद्धाओं के साथ पधारे हैं। जिसने द्रोणाचार्य, अर्जुन, श्रीकृष्ण, कृपाचार्य तथा भीष्म से भी अस्त्र विद्या सीखी है तथा जिस एकमात्र वीर को श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न के समान पराक्रमी बताया जाता है, वह सात्यकि भी, सुनता हूँ, पाण्डवों की सहायता के लिये आकर टिका हुआ है।

       चेदि और करूष देश के भूपाल सब प्रकार की तैयारी से संगठित होकर आये थे। उन सब के बीच में चेदिराज शिशुपाल अपनी दिव्य शोभा से तपते हुए सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। युद्ध में उसके वेग को रोकना असम्भव था। धनुष की प्रत्यञ्चा खींचने वाले भूमण्डल के सभी योद्धाओं में शिशुपाल एक श्रेष्ठतम वीर था। यह सब समझकर भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ चेदि देशीय क्षत्रियों के सम्पूर्ण उत्साह को नष्ट करके हठपूर्वक बड़े वेग से शिशुपाल को मार डाला। करूषराज आदि सब नरेश जिसका सम्मान बढ़ाते थे, उस शिशुपाल की ओर दृष्टिपात करके पाण्डवों के यश और मान की बृद्धि के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने उसे पहले ही मार डाला। सुग्रीव आदि घोड़ों से जुते हुए रथ पर आरूढ़ होने वाले श्रीकृष्ण को असह्य मानकर चेदिराज शिशुपाल के सिवा दूसरे भूपाल उसी प्रकार पलायन कर गये, जैसे सिंह को देखते ही जंगल के क्षुद्र पशु भाग जाते हैं। जिसने द्धैरथ-युद्ध में विजय की आशा रखकर भगवान श्रीकृष्ण का विरोधी हो बड़े वेग से उन पर धावा किया, वह शिशुपाल श्रीकृष्ण के हाथ से मारा जाकर प्राण शून्य हो सदा के लिये इस प्रकार धरती पर सो गया, मानो कनेर का वृक्ष हवा के वेग से उखडकर धराशायी हो गया हो।

      संजय! पाण्डवों के लिए किये हुए श्रीकृष्ण के उस पराक्रम का वृतान्त मेरे गुप्तचरों ने मुझे बताया था। गावल्गणे! श्रीहरि के उन वीरोचित कर्मों को बारंबार याद करके मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। जिनके अग्रगामी वृष्णिसिंह भगवान वासुदेव हैं, उन पाण्डवों का आक्रमण कभी भी दूसरा कोई शत्रु नहीं सह सकता। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों एक रथ पर एकत्र हो गये हैं, यह सुनकर तो मेरा हृृदय भय से काँप उठता है। संजय! यदि मेरा मन्दबुद्धि पुत्र उन दोनों से युद्ध करने के लिये न जाय, तभी वह कल्याण का भागी हो सकता है! अन्यथा ये दोनों वीर कौरवों को उसी प्रकार भस्म कर देंगे जैसे इन्द्र और विष्णु दैत्य-सेना का संहार कर डालते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) द्वाविंश अध्याय के श्लोक 33-40 का हिन्दी अनुवाद)

    मुझे तो अर्जुन इन्द्र के समान प्रतीत होते हैं और वृष्णवीर श्रीकृष्ण सनातन विष्णु जान पड़ते हैं। कुन्तीनन्दन पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर धर्माचरण में ही सुख मानते हैं। वे लज्जाशील और बलशाली हैं। उनके मन में किसी के प्रति कभी शत्रुभाव पैदा नहीं हुआ है। नहीं तो वे मनस्वी युधिष्ठिर दुर्योधन के द्वारा छल कपट के शिकार होने पर क्रोध करके मेरे सभी पुत्रों को जलाकर भस्म कर देते। संजय! मैं अर्जुन, भगवान श्रीकृष्ण, भीमसेन तथा नकुल, सहदेव से उतना नहीं डरता, जितना कि क्रोध से तमतमाये हुए राजा युधिष्ठिर के कोप से उनके रोष से मैं सदा ही अत्यन्त भयभीत रहता हूँ; क्योंकि वे महान तपस्वी और ब्रह्मचर्य से सम्पन्न हैं, इसलिये उनके मन में जो संकल्प होगा, वह सिद्ध होकर ही रहेगा। संजय! मैं उनके क्रोध को देखकर और उसे उचित जानकर आज बहुत डरा हुआ हूँ।

    मेरे द्वारा भेजे हुए तुम रथ पर बैठकर शीघ्र ही पांचालराज द्रुपद की


छावनी में जाकर वहाँ अत्यन्त प्रेमपूर्वक अजातशत्रु युधिष्ठिर से वार्तालाप करना और बारंबार उनका कुशल मंगल पूछना। तात! तुम बलवानों में श्रेष्ठ महाभाग भगवान श्रीकृष्ण से भी मिलकर मेरी ओर से उनका कुशल समाचार पूछना और यह बताना कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ शान्ति पूर्वक बर्ताब चाहते हैं। सूत! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण की कोई बात टाल नहीं सकते। क्योंकि श्रीकृष्ण इनको आत्मा के समान प्रिय हैं। श्रीकृष्ण विद्वान हैं और सदा पाण्डवों के हित के लिये कार्य में लगे रहते हैं। संजय! तुम वहाँ एकत्र हुए पाण्डवों तथा सृञ्ज्यवंशी क्षत्रियों से और श्रीकृष्ण, सात्यकि, राजा विराट एवं द्रौपदी के पांचो पुत्रों से भी मेरी ओर से स्वास्थ्य का समाचार पूछना। इसके सिवा जैसा अवसर हो और जिसमें तुम्हें भरतवंशियों का हित प्रतीत हो, जैसी बातें पाण्डव पक्ष के लोगों से कहना। राजाओं के बीच में ऐसा कोई वचन न कहना, जो उनके क्रोध को बढ़ावे तथा युद्ध का कारण बने।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युधिष्ठिर से मिलकर उनकी कुशल पूछना एवं युधिष्ठिर का संजय से कौरव-पक्ष का कुशल-समाचार पूछते हुए उससे सारगर्भित प्रश्न करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र की बात सुनकर संजय अमित तेजस्वी पाण्डवों से मिलने के लिये उपप्लव्य गया। वहाँ पहले कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर के पास जाकर सूतपूत्र संजय ने उन्हें प्रणाम किया और उनसे बातचीत प्रारम्भ की। गवल्णनन्दन सूतपूत्र संजय ने प्रसन्न होकर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर से कहा,

   संजय बोला ;- राजन! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मैं देवराज इन्द्र के समान आपको अपने सहायकों के साथ स्वस्थ एवं सकुशल देख रहा हूँ। 'वृद्ध एवं बुद्धिमान अम्बिकानन्दन महाराज धृतराष्ट्र ने आपका कुशल समाचार पूछा है। भीमसेन, पाण्डव प्रवर अर्जुन तथा वे दोनों माद्रीकुमार नकुल, सहदेव कुशल से तो हैं न? 'सत्यव्रत का पालन करने वाली वीर पत्नी द्रुपदकुमारी राज पुत्री मनस्विनी कृष्णा अपने पुत्रों सहित कुशलपूर्वक है न? भारत! इनके सिवा आप जिन-जिन के कल्याण की इच्छा रखते हैं तथा जिन अभीष्ट भोगों को बनाये रखना चाहते हैं, वे आत्मीय जन तथा धन-वैभव-वाहन आदि भोगोपकरण सकुशल हैं न?

    युधिष्ठिर बोले ;- गवल्गणकुमार संजय! तुम्हारा स्वागत है। तुम्हें देखकर हमें बडी प्रसन्नता हुई है। विद्वन! मैं अपने भाइयों सहित कुशल से हूँ तथा तुम्हें अपने आरोग्य की सूचना दे रहा हूँ। सूत! कुरुकुल के वृद्ध पुरुष भरतनन्दन महाराज धृतराष्ट्र का यह कुशल समाचार दीर्घकाल के बाद सुनकर और प्रेमपूर्वक तुम्हें भी देखकर मैं यह अनुभव करता हूँ कि आज मुझे साक्षात महाराज धृतराष्ट्र का ही दर्शन हुआ है। तात मनस्वी, परम ज्ञानी तथा समस्त धर्मों के ज्ञान से सम्पन्न हमारे बूढ़े पितामह कुरुवंशी भीष्म जी तो कुशल से हैं न? हम लोगों पर उनका स्नेह भाव तो पूर्ववत बना हुआ है। संजय! क्या अपने पुत्रों सहित विचित्रवीर्यनन्दन महामना राजा धृतराष्ट्र सकुशल हैं? प्रतीप के विद्वान पुत्र महाराज बाह्लीक तो कुशलता पूूर्वक हैं न? तात! सोमदत्त, भूरिश्रवा, सत्यप्रतिज्ञ शल, पुत्र सहित द्रोणाचार्य और विप्रश्रेष्ठ कृपाचार्य- ये महाधनुर्धर वीर स्वस्थ तो हैं न? संजय! क्या पृथ्वी के धनुर्धर, जो परम बुद्धिमान, समस्त शास्त्रों के ज्ञान से उज्ज्वल तथा भूमण्डल के धनुर्धरों में प्रधान हैं, कौरवों से स्नेह-भाव रखते हैं? तात! जिनके राष्ट्र में दर्शनीय, शीलवान तथा महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा निवास करता है, उन कौरवों के बीच क्या पूर्वोंत्तक धनुर्धर विद्वान आदर पाते हैं? क्या ये कौरव भी नीरोग हैं? तात! क्या राजा धृतराष्ट्र की वैश्यजातीय पत्नी के पुत्र महाज्ञानी राजकुमार युयुत्सु सकुशल हैं? संजय! मूढ़ दुर्योधन सदा जिसकी आज्ञाके अधीन रहता है, वह मन्त्री कर्ण भी कुशलपूर्वक है न? सूत! भरतवंशियों की मताएं, बड़ी बूढ़ी स्त्रियां, रसोई बनाने वाली सेविकाएं,दासियां, बहुएं, पुत्र भानजे, बहिनें और पुत्रियों के पुत्र- ये सभी निष्कपट भाव से रहते हैं न? तात! क्या राजा दुर्योधन पहले की भाँति ब्राह्मणों को जीविका देने में यथोचित रिति से तत्पर रहता है? संजय! मैंने बाह्मणों की वृत्ति के रूप में जो गांव आदि दिये थे, उन्हें वह छीनता तो नहीं है?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

     पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र ब्राह्मणों के प्रति किये गये अपराधों की उपेक्षा तो नहीं करते? ब्राह्मणों को जो सदा वृत्ति दी जाती है, वह स्वर्गलोक में पहुँचने का मार्ग है; अतः राजा उस वृत्ति की उपेक्षा या अवहेलना तो नहीं करते हैं? ब्राह्मणों को दी हुई जविका वृत्ति की रक्षा परलोक को प्रकाशित करने वाली उत्तम ज्योति है और इस जीव-जगत में यह उज्ज्वल यश का विस्तार करने वाली है। यह नियम विधाता ने ही प्रजा के हित के लिये बना रखा है। यदि मन्द बुद्धि कौरव लोभ-वश ब्राह्मणों की जीविका वृत्ति के अपहरण रूप दोष को काबू में नही रखेंगे तो कौरव कुल का सर्वथा निवाश हो जायेगा। क्या पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र मन्त्रि वर्ग को भी जीवन निर्वाह के योग्य वृत्ति देने की इच्छा रखते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं होता कि वे भेद से जीविका चलाना चाहते हों वे सुह्र्द के रूप में होते हुए भी एकमत होकर शत्रु तो नहीं बन गये हैं। तात संजय! कहीं सब कौरव मिलकर पाण्डवों के किसी दोष की चर्चा तो नहीं करते हैं? पुत्रसहित द्रोणाचार्य और वीर कृपाचार्य हम लोगों पर किन्हीं दोषों का आरोप तो नहीं करते हैं? क्या कभी सब कौरव एकत्र हो पुत्र सहित धृतराष्ट्र के पास जाकर हमें राज्य देने के विषय में कुछ कहते हैं? क्या राज्य में लुटेरों के दलों को देखकर वे कभी संग्राम विजयी अर्जुन को भी याद करते हैं? संजय! प्रत्यञ्चा को बारंबार हिलाकर और कानों तक खींच कर अंगुलियों के अग्रभाग से जिनका संधान किया जाता है तथा जो गाण्डीव धनुष से छूटकर मेघ की गर्जना के समान सन-सनाते हुए सीधे लक्ष्य तक पहुँच जाते हैं, अर्जुन के उन बाणों को कौरव लोग बराबर याद करते हैं न? मैंने इस पृथ्वी पर अर्जुन से बढ़कर या उनके समान दूसरे किसी योद्धा को नहीं देखा है; क्योंकि जब वे एक बार अपने हाथों से धनुष पर शर-संधान करते हैं, तब उससे सुन्दर पंख और पैनी धार वाले इकसठ तीखे बाण प्रकट होते हैं। जैसे मस्तक से मद की धारा बहाने वाला गजराज सरकंडों से भरे हुए स्थानों में निर्भय विचरता है, उसी प्रकार वेग शाली वीर भीमसेन हाथ में गदा लिये रणभूमि में शत्रु समुदाय को कम्पित करते हुए विचरण करते हैं। क्या कौरव लोग उन्हें भी कभी याद करते हैं? जिसमें दाँत पीसकर अस्त्र-शस्त्र चलाये जाते हैं, उस भयंकर युद्ध में माद्रीनन्दन सहदेव ने दाहिने और बांये हाथ से बाणों की वर्षा करके अपना सामना करने के लिये आये हुए कलिंगदेशीय योद्धाओं को परास्त किया था। क्या इस महाबली वीर को भी कौरव कभी याद करते हैं? संजय! पहले राजसूर्य यज्ञ में तुम्हारे सामने ही शिबि और त्रिगर्त देश के वीरों को जीतने के लिये इस नकुल को भेजा गया था; परन्तु इसने सारी पश्चिम दिशा को जीतकर मेरे अधीन कर दिया। क्या कौरव इस वीर माद्री कुमार का भी स्मरण करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) त्रयोविंश अध्याय के श्लोक 26-28 का हिन्दी अनुवाद)

    कर्ण की खोटी सलाह के अनुसार घोष-यात्रा में गये हुए धृतराष्ट्र पुत्रों की द्वैतवन में जो पराजय हुई थी, उसमें वे सभी मन्द बुद्धि कौरव शत्रुओं के अधीन हो गये थे। उस समय भीमसेन और अर्जुन ही उन्हें बन्धन से मुक्त किया था। उस यु़द्ध में मैंने पीछे से रहकर यज्ञ के द्वारा अर्जुन की रक्षा की थी और भीमसेन ने नकुल तथा सहदेव का संरक्षण किया था गाण्डीवधारी अर्जुन ने शत्रुओं के समुदाय को मार गिराया था और स्वयं सकुशल लौट आये थे। क्या कौरव कभी उनकी याद करते है? संजय! यदि हम धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को सभी उपायों से नहीं जीत सकते तो केवल एक अच्छे व्यवहार से ही उसे सुखपूर्वक जीतना हमारे लिये निश्चय ही सम्भव नहीं है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक तेइसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) चतुर्विंश अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युधिष्ठिर को उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्हें राजा धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना”

    संजय बोला ;- कुरुश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिल्कुल ठीक है। कौरवों तथा अन्य लोगों के विषय में आप जो कुछ पूछ रहे हैं, वह बताता हूँ, सुनिये। तात! कुन्तीनन्दन! आपने जिन श्रेष्ठ कुरु वंशियो के कुशल समाचार पूछे हैं, वे सभी मनस्वी पुरुष स्वस्थ और सानन्द हैं। पाण्डव! धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के पास जैसे बहुत से पापी रहते हैं,उसी प्रकार उसके यहाँ साधु स्वभाव वाले वृद्ध पुरुष भी रहते ही हैं। आप इस बात को सत्य ही समझें। दुर्योधन तो शत्रुओं को भी धन देता है, फिर वह ब्राह्मणों की जीविका का लोप तो कर ही कैसे सकता है।

      आप लोगों ने दुर्योधन के प्रति कभी द्रोह का भाव नही रक्खा है, तो भी वह आपके प्रति जो क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है- द्रोही पुरुषों के समान ही आचरण करता है, यह उचित नहीं है। आप जैसे साधु-स्वभाव लोगों से द्वेष करने पर तो पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र असाधु और मित्र द्रोही ही समझे जायेंगे। अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को आप से द्वेष करने की आज्ञा नहीं देते; बल्कि आपके प्रति उनके द्रोह की बात सुनकर वे मन ही मन अत्यन्त संतप्त होते तथा शोक किया करते हैं; क्योंकि वे अपने यहाँ पधारे हुए ब्राह्मणों से मिलकर सदा उनसे यही सुना करते हैं कि मित्र द्रोह सब पापों से बढ़ कर है। नरदेव! कौरवगण युद्ध की चर्चा चलने पर आपको तथा वीराग्रणी अर्जुन को भी स्मरण करते हैं। युद्धकाल में जब दुन्दुभि और शंख की ध्वनि गूंज उठती है, उस समय उन्हें गदापाणि भीमसेन की बहुत याद आती है। समरांगण में जिन्हें हराना तो दूर की बात है, विचलित या कम्पित करना भी अत्यन्त कठिन है, जो शत्रु सेना पर निरन्तर बाणों की वर्षा करते हैं और संग्राम में सम्पूर्ण दिशाओं में आक्रमण करते हैं, उन महारथी माद्री कुमार नकुल, सहदेव को भी कौरव सदा याद करते हैं।

      पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर! मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य का भविष्य जब तक वह सामने नहीं आता, किसी को ज्ञात नहीं होता; क्योंकि आप जैसे सर्वधर्मसम्पन्न पुरुष भी अत्यन्त भयंकर क्लेश में पड़ गये। अजातशत्रो! संकट में पड़ने पर भी आप ही अपनी बुद्धि से विचार कर इस झगड़े की शान्ति के लिये पुनः कोई सरल उपाय ढूंढ़ निकालिये। पाण्डु के सभी पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी हैं। वे किसी भी स्वार्थ के लिये कभी भी धर्म का त्याग नहीं करते। अत: अजात शत्रो! आप ही इस समस्या को हल कीजिये, जिससे धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, पाण्डव सृंजवंशी क्षत्रिय तथा अन्य नरेश, जो आकर सेना की छावनी में टिके हुए हैं; कल्याण के भागी हों। महाराज युधिष्ठिर! आपके ताऊ धृतराष्ट्र ने रात के समय मुझसे आप लोगों के लिये जो संदेश कहा था, उसे आप मन्त्रियों और पुत्रों सहित मेरे इन शब्दों में सुनिये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“संजय का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाना एवं अपनी ओर से भी शान्ति के लिये प्रार्थना करना”

    युधिष्ठिर बोले ;- गवल्गणकुमार सूतपुत्र संजय! यहाँ पाण्डव, सृंजय, भगवान श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा राजा विराट- सब एकत्र हुए हैं। राजा धृतराष्ट्र ने तुम्हारे द्वारा जो संदेश भेजा है, उसे कहो। 

  संजय बोला ;- मैं, अजातशत्रु युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण, सात्यकि, चेकितान, विराट, पांचाल देश के बूढ़े नरेश द्रुपद तथा उनके पुत्र वृषतवंशी धृष्टद्युम्न को भी आमन्त्रित करता हूँ। मैं कौरवों की भलाई चाहता हुआ जो कुछ कह रहा हूँ, मेरी


    उस वाणी को आप सब लोग सुनें। राजा धृतराष्ट्र शान्ति का आदर करते है उन्होंने बड़ी उतावली के साथ मेरे लिये शीघ्रता पूर्वक रथ तैयार कराया और मुझे यहाँ भेजा। मैं चाहता हूँ कि भाई, पुत्र तथा स्वजनों सहित राजा धृतराष्ट्र का यह शान्ति संदेश पाण्डवों को रुचिकर प्रतीत हो और दोनों पक्षों में सन्धि स्थापित हो जाय।

    कुन्ती के पुत्रो! आप लोग अपने दिव्य शरीर, दयालु एवं कोमल स्वभाव और सरलता आदि गुणों तथा सम्पूर्ण धर्मों से युक्त हैं। आप लोगों का उत्तम कुल में जन्म हुआ है। आप लोगों में क्रूरता का सर्वथा अभाव है। आप लोग उदार, लज्जाशील कर्मों के परिणाम को जानने वाले हैं। भयंकर सैन्य संग्रह करने वाले पाण्डवों! आप लोगो में ऐसा सत्त्वगुण भरा है कि आपके द्वारा कोई नीच कर्म बन ही नहीं सकता। यदि आप लोगों में कोई दोष होता तो वह सफेद वस्त्र में काले दाग की भाँति चमक उठता। जिसमें सब का विनाश दिखायी देता है, जिससे पूर्णतः पाप का उदय होता है, जो नरक का हेतु है, जिसके अन्त में अभाव ही हाथ लगता है जिसमें जय तथा पराजय दोनों समान हैं, उस युद्ध जैसे कठोर कर्म के लिये कौन समझदार मनुष्य कभी उद्योग करेगा?

    जिन्होंने जाति और कुटुम्ब के हितकर कार्यों का साधन किया है, वे धन्य हैं। वे ही पुत्र, मित्र तथा बान्धव कहलाने योग्य हैं। कौरवों को चाहिये कि वे निन्दित जीवन का परित्याग कर दें, कौरव कुल का अभ्युदय अवश्यम्भावी हो। कुन्ती कुमारो! यदि आप लोग समस्त कौरवों को निश्चित रूप से अपना शत्रु मानकर उन्हें दण्ड देंगे, कैद करेंगे अथवा उनका वध कर डालेंगे तो उस दशा में जो आपका जीवन होगा, वह आपके द्वारा कुटुम्बीजनों का वध होने के कारण अच्छा नहीं समझा जायेगा। वह निन्दित जीवन तो मृत्यु के समान ही होगा। भगवान श्रीकृष्ण, चेकितान और सात्यकि आप लोगों के सहायक हैं। आप लोग महाराज द्रुपद के बाहुबल से सुरक्षित हैं। ऐसी दशा में इन्द्र सहित समस्त देवताओं को अपने सहायक रूप में पाकर भी कौन सा ऐसा मनुष्य होगा, जो आप लोगों को जीतने का साहस करेगा? राजन! इसी प्रकार द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा, शल्य, कृपाचार्य आदि वीरों तथा अन्य राजाओं सहित कर्ण के द्वारा सुरक्षित कौरवों को युद्ध में जीतने का साहस कौन कर सकता है?

(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) पंचविंश अध्याय के श्लोक 12-15 का हिन्दी अनुवाद)

     राजा दुर्योधन के पास विशाल वाहिनी एकत्र हो गयी है। कौन ऐसा वीर है, जो स्वयं क्षीण न होकर उस सेना का विनाश कर सके? इस युद्ध में किसी पक्ष की जय हो या पराजय, कोई कल्याण की बात नही देखता हूँ। भला कुन्ती के पुत्र नीच कुल में उत्पन्न हुए दूसरे अधम मनुष्यों के समान ऐसा (निन्दित) कर्म कैसे कर सकते हैं, जिससे न तो धर्म की सिद्धि होने वाली है और न अर्थ की ही। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण हैं तथा वृद्ध पाचांलराज द्रुपद भी उपस्थित हैं। इन सबको प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ, हाथ जोड़कर आप लोगों की शरण में आया हूँ आप स्वयं विचार करें कि कुरु तथा संजय वंश का कल्याण कैसे हो। मुझे विश्वास है कि भगवान श्रीकृष्ण अथवा अर्जुन इस प्रकार प्रार्थना पूर्वक कही हुई मेरी बात को ठुकरा नहीं सकते। इतना ही नहीं मेरे मांगने पर अर्जुन अपने प्राण दे सकते हैं, फिर दूसरी किसी वस्तु के लिये तो कहना ही क्या है, विद्वान राजा युधिष्ठिर! मैं संधि‌-कार्य की सिद्ध के लिये ही यह सब कह रहा हूँ। भीष्म तथा राजा धृतराष्ट्र को भी यही अभिमत है और इसी से आप सब लोगों को उत्तम शान्ति प्राप्त हो सकती है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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