सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
सोलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“बृहस्पति द्वारा अग्नि और इन्द्र का स्तवन तथा बृहस्पति एवं लोकपालों की इन्द्र से बातचीत”
बृहस्पति बोले ;- अग्निदेव! आप सम्पूर्ण देवताओं के मुख हैं। आप ही देवताओं को हविष्य पहुँचाने वाले हैं। आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में साक्षी की भाँति गूढ़भाव से विचरते हैं। विद्वान पुरुष आपको एक बताते हैं। फिर वे ही आप को तीन प्रकार का कहते हैं। हुताशन! आपके त्याग देने पर यह सम्पूर्ण जगत तत्काल नष्ट हो जायेगा। ब्राह्मण लोग आपकी पूजा और वन्दना करके अपनी पत्निीयों तथा पुत्रों के साथ अपने कर्मों द्वारा प्राप्त चिरस्थायी स्वर्गीय सुख लाभ करते हैं। अग्ने! आप ही हविष्य को वहन करने वाले देवता हैं। आप ही उत्कृष्ट हवि हैं। याज्ञिक विद्वान पुरुष बड़े-बड़े यज्ञों में अवान्तर सत्रों और यज्ञों द्वारा आप की ही आराधना करते हैं। हव्य वाहन! आप ही सृष्टि के समय इन तीनों लोकों को उत्पन्न करके प्रलयकाल आने पर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार करते हैं। अग्ने! आप ही सम्पूर्ण विश्व के उत्पत्ति स्थान हैं और आप ही पुनः इसके प्रलय काल में आधार होते हैं। अग्निदेव! मनीषी पुरुष आपको ही मेघ और विद्युत कहते हैं। आप से ही ज्वालाएँ निकलकर सम्पूर्ण भूतों को दग्ध करती हैं। पावक! आप में ही सारा जल संचित है। आप में ही यह सम्पूर्ण जगत प्रतिष्ठित है। तीनों लोकों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो आप को ज्ञात न हो। समस्त पदार्थ अपने-अपने कारण में प्रवेश करते हैं। अतः आप भी निःशंक होकर जल में प्रवेश कीजिये। मैं सनातन वेदमन्त्रों द्वारा आपको बढ़ाऊँगा। इस प्रकार स्तुति की जाने पर हविष्य वहन करने वाले श्रेष्ठ एवं सर्वज्ञ भगवान अग्निदेव प्रसन्न होकर बृहस्पति से यह उत्तम वचन बोले,
अग्नि देव बोले ;- ब्रह्मन! मैं आपको इन्द्र का दर्शन कराऊँगा, यह मैं आप से सत्य कह रहा हूँ।
शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर अग्निदेव ने छोटे गड्ढे से लेकर बड़े से बड़े समुद्र तक के जल में प्रवेश करके पता लगाते हुए क्रमशः उस सरोवर में जा पहुँचे, जहाँ इन्द्र छिपे हुए थे। भरत श्रेष्ठ! उसमें भी कमलों के भीतर खोज करते हुए अग्निदेव ने एक कमल के नाले में बैठे हुए देवेन्द्र को देखा। वहाँ से तुरन्त लौटकर अग्निदेव ने बृहस्पति को बताया कि भगवान इन्द्र सूक्ष्म शरीर धारण करके एक कमलनाल का आश्रय लेकर रहते हैं। तब बृहस्पति जी ने देवर्षियों और गन्धर्वों के साथ वहाँ जाकर बलसूदन इन्द्र के पुरातन कर्मों का वर्णन करते हुए उनकी स्तुति की। 'इन्द्र! आपने अत्यन्त भयंकर नमुचिनामक महान असुर को मार गिराया है। शम्बर और बल दोनों भयंकर पराक्रमी दानव थे; परंतु उन्हें भी आपने मार डाला। 'शतक्रतो! आप अपने तेजस्वी स्वरूप से बढि़ये और समस्त शत्रुओं का संहार कीजिये। इन्द्रदेव! उठिये और यहाँ पधारे हुए देवर्षियों का दर्शन कीजिये। 'प्रभो महेन्द्र! आपने कितने ही दानवों का वध करके समस्त लोकों की रक्षा की है। जगदीश्वर देवराज! भगवान विष्णु के तेज से अत्यन्त शक्तिशाली बने हुए समुद्र फेन को लेकर आपने पूर्वकाल में वृत्रासुर का वध किया। आप सम्पूर्ण भूतों में स्तवन करने योग्य और सब के शरणदाता हैं। आपकी समानता करने वाला जगत में दूसरा कोई प्राणी नहीं है। शक्र! आप ही सम्पूर्ण भूतों को धारण करते हैं और आपने ही देवताओं की महिमा बढ़ायी है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 18-22 का हिन्दी अनुवाद)
'महेन्द्र! आप शक्ति प्राप्त कीजिये और सम्पूर्ण लोकों की रक्षा कीजिये।इस प्रकार स्तुति की जाने पर देवराज इन्द्र धीरे-धीरे बढ़ने लगे। अपने पूर्व शरीर को प्राप्त करके वे बल पराक्रम से सम्पन्न हो गये। तत्पश्चात इन्द्र ने वहाँ खडे़ हुए अपने गुरु बृहस्पति से कहा। ब्रह्मन्! त्वष्टा का पुत्र विशालकाय महासुर वृत्र, जो सम्पूर्ण लोकों का विनाश कर रहा था, मेरे द्वारा मारा गया; अब आप लोगों का कौन-सा बचा हुआ कार्य करूँ।
बृहस्पति बोले ;- देवेन्द्र मनुष्य लोक का राजा नहुष देवर्षियों के प्रभाव से देवताओं का राज्य पा गया है, जो सब लोगों को बड़ा कष्ट दे रहा है।
इन्द्र बोले ;- बृहस्पते! नहुष ने देवताओं का दुलर्भ राज्य कैसे प्राप्त किया? वह किस तपस्या से संयुक्त है? अथवा उसमें कितना बल और पराक्रम है? उसे किस प्रकार इन्द्रपद की प्राप्ति हुई है? ये सारी बातें आप लोग मुझे बताइये।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) षोडश अध्याय के श्लोक 23-34 का हिन्दी अनुवाद)
शक्र! आपने जब उस महान इन्द्र-पद का परित्याग कर दिया, तब देवता लोग भयभीत होकर दूसरे किसी इन्द्र की कामना करने लगे। तब देवता, पितर, ऋषि तथा मुख्य गन्धर्व सब मिलकर राजा नहुष के पास गये। शक्र! वहाँ उन्होंने नहुष से इस प्रकार कहा,
देवों ने कहा ;- 'आप हमारे राजा होइये और सम्पूर्ण विश्व की रक्षा कीजिये।' यह सुनकर नहुष ने उनसे कहा,
नहुष बोले ;- 'मुझमें इन्द्र बनने की शक्ति नहीं है, अतः आप लोग अपने तप और तेज से मुझे आप्यायित (पुष्ट) कीजिये। उसके ऐसा कहने पर देवताओं ने उसे तप और तेज से बढ़ाया। फिर भयंकर पराक्रमी राजा नहुष स्वर्ग का राजा बन गया। इस प्रकार त्रिलोकी का राज्य पाकर वह दुरात्मा नहुष महर्षियों को अपना वाहन बनाकर सब लोकों में घूमताहै। वह देखने मात्र से सबका तेज हर लेता है। उसकी दृष्टि में भयंकर विष है। वह अत्यन्त घोर स्वभाव का हो गया है। तुम नहुष की ओर कभी देखना नहीं। सब देवता भी अत्यन्त पीड़ित हो गूूढरूप से विचरते रहते हैं; परंतु नहुष की ओर कभी देखते नही हैं।
शल्य कहते हैं ;- राजन! अंगिरा के पुत्रों में श्रेष्ठ बृहस्पति जब ऐसा कह रहे थे, उसी समय लोकपाल कुबेर, सूर्यपुत्र यम, पुरातन देवता चन्द्रमा तथा वरुण भी वहाँ आ पहुँचे। वे सब देवराज इन्द्र से मिलकर बोले,
देवगण बोले ;- 'शक्र! बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर का वध किया। हम लोग आपको शत्रु का वध करने के पश्चात सकुशल और अक्षत देखते हैं, यह भी बड़े आनन्द की बात है।'
उन लोकपालों से यथायोग्य मिलकर महेन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उन सब को सम्बोधित करके राजा नहुष के भीतर बुद्धि भेद उत्पन्न करने के लिये प्रेरणा देते हुए कहा,
इन्द्र देव बोले ;- 'इन देवताओं का राजा नहुष बड़ा भयंकर हो रहा है। उसे स्वर्ग से हटाने के कार्य में आप लोग मेरी सहायता करें।' यह सुनकर उन्होंने उत्तर दिया,
देवगण बोले ;- देवेश्वर! नहुष तो बडा भयंकर रूपवाला है। उसकी दृष्टि में विष है। अतः हम लोग उससे डरते हैं। ‘शक्र! यदि आप हमारी सहायता से राजा नहुष को पराजित करने के लिये उद्यत हैं तो हम भी यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी हों।'
इन्द्र ने कहा ;- ‘वरुणदेव! आप जल- के स्वामी हों, यमराज और कुबेर भी मेरे द्वारा अपने-अपने पद पर अभिषिक्त हों। देवताओं सहित हम लोग भयंकर दृष्टि वाले अपने शत्रु नहुष को परास्त करेेंगे।' तब अग्नि ने भी इन्द्र से कहा,
अग्नि देव बोले ;- ‘प्रभो मुझे भी भाग दीजिये, मैं आप की सहायता करूँगा।' तब इन्द्र ने उन से कहा,
इन्द्र देव बोले ;- 'अग्निदेव! महायज्ञ में इन्द्र और अग्नि का एक सम्मिलित भाग होगा, जिस पर तुम्हारा भी अधिकार रहेगा।' पाकशासन भगवान महेंद्र ने कुबेर को सम्पूर्ण यक्षों तथा धन का अधिपति बना दिया। इसी प्रकार वरदायक इन्द्र ने खूब सोच-समझकर वेव-स्वत यम को पितरों का तथा वरुण को जल का स्वामित्व प्रदान किया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“अगस्त्य जी का इन्द्र से नहुष के पतन का वृतान्त बताना”
शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जिस समय बुद्धिमान देवराज इन्द्र देवताओं तथा लोकपालों के साथ बैठकर नहुष के वध का उपाय सोच रहे थे, उसी समय वहाँ तपस्वी भगवान अगस्त्य दिखायी दिये। उन्होंने देवेन्द्र की पूजा करके कहा,
अगस्त्य जी बोले ;- सौभाग्य की बात है कि आप विश्वरूप के विनाश तथा वृत्रासुर के वध से निरन्तर अभ्युदयशील हो रहे हैं। बलसूदन पुरंदर! यह भी सौभाग्य की ही बात है कि आज नहुष देवताओं के राज्य से भ्रष्ट हो गये। बलसूदन! सोभाग्य से ही मैं आपको शत्रुहीन देख रहा हूँ।
इन्द्र बोले ;- महर्षे! आपका स्वागत है, आपके दर्शन से मुझे बड़ी प्रसन्नता मिली है, आपकी सेवा में यह पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय तथा गौ समर्पित है। आप मेरी दी हुई ये सब वस्तुएं ग्रहण कीजिये।
शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य जब पूजा ग्रहण करके आसन पर विराजमान हुए, उस समय देवेश्वर इन्द्र ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन विप्रशिरोमणि से पूछा,
इन्द्र बोले ;- 'भगवन! द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके शब्दों में यह सुनना चाहता हूँ कि पापपूर्ण विचार रखनेवाला नहुष स्वर्ग से किस प्रकार भृष्ट हुआ है?'
अगस्त्य जी ने कहा ;- इन्द्र बल के घमन्ड में भरा हुआ दुराचारी और दुरात्मा राजा नहुष जिस प्रकार स्वर्ग से भ्रष्ट हुआ है, वह प्रिय समाचार सुनो। महाभाग देवर्षि तथा निर्मल अन्त:करण वाले बृह्मर्षि पापाचारी नहुष का बोझ ढोते-ढोते परिश्रम से पीड़ित हो गये थे। विजयी वीरों में श्रेष्ठ इंद्र! उस समय उन महर्षियों ने नहुष से एक संदेह पूछा,
ऋषिगण बोले ;- 'देवेन्द्र! गौओं के प्रोक्षण के विषय में जो ये मन्त्र वेद में बताये गये हैं, इन्हें आप प्रामाणिक मानते हैं या नहीं।' नहुष की बुद्धि तमोमय अज्ञान के कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी। उसने महर्षियों को उत्तर देते हुए कहा,
नहुष बोले ;- 'मैं इन वेद मन्त्रों को प्रमाण नहीं मानता।'
ऋषिगण बोले ;- तुम अर्धम में प्रवृत्त हो रहे हो, इस लिये धर्म का तत्त्व नहीं समझते हो। पूर्व काल में महर्षियों ने इन सब मन्त्रों को हमारे लिये प्रमाण भूत बताया है।
अगस्त्यजी कहते हैं ;- इन्द्र! तब नहुष मुनियों के साथ विवाद करने लगा और अर्धम से पीड़ित होकर उस पापी ने मेरे मस्तक पर पैर से प्रहार किया। इससे उसका सारा तेज नष्ट हो गया। वह राजा श्रीहीन हो गया। तब तमोगुण में डूबकर अत्यन्त पीड़ित हुए नहुष से मैंने इस प्रकार कहा,
अगस्त्य जी बोले ;- 'राजन! पूर्वकाल में ब्रहर्षियों ने जिस का अनुष्ठान किया है- जिसे प्रमाणभूत माना है, उस निर्दोष वेद मन्त्र को जो तुम सदोष बताते हो- उसे अप्रामाणिक मानते हो, इसके सिवा तुमने जो सिर पर लात मारी है तथा पापात्मा मूढ़! जो तुम ब्रह्मजी के समान दुधर्ष तेजस्वी ऋषियों को वाहन बनाकर उनसे अपनी पालकी
ढुलवा रहे हो, इससे तेजोहीन हो गये हो। तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया है। अतः स्वर्ग से भ्रष्ट होकर तुम पृथ्वी पर गिरो।
‘वहाँ दस हजार वर्षों तक तुम महान सर्प का रूप धारण करके विचरोगे और उतने वर्ष पूर्ण हो जाने पर पुनः स्वर्ग लोक प्राप्त कर लोगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) सप्तदश अध्याय के श्लोक 18-19 का हिन्दी अनुवाद)
शत्रुदमन शक्र! इस प्रकार दुरात्मा नहुष देवताओं के राज्य से भृष्ट हो गया। ब्राह्मणों का कण्टक मारा गया। सौभाग्य की बात है कि अब हम लोगों की बृद्धि हो रही है। शचीपते! अब आप अपनी इन्द्रियों और शत्रुओं पर विजय पा गये हैं। महर्षिगण आपकी स्तुति करते हैं, अतः आप स्वर्ग लोक में चलें और तीनों लोकों की रक्षा करें। शल्य कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर महर्षियों से घिरे हुए देवता, यक्ष, नाग, राक्षस, गन्धर्व, देवकन्याएँ तथा समस्त अप्सराएँ बहुत प्रसन्न हुईं। सरिताएँ,सरोवर,शैल और समुद्र भी बहुत संतुष्ट हुए।
वे सब लोग इन्द्र के पास आकर बोले ;- ‘शत्रुघन! आपका अभ्युदय हो रहा है, यह सौभाग्य की बात है। बुद्धिमान अगस्त्य जी ने पापी नहुष को मार डाला और उस पापाचारी को पृथ्वी पर सर्प बना दिया, यह भी हमारे लिये बड़े हर्ष तथा सौभाग्य की बात है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
अठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र का स्वर्ग में जाकर अपने राज्य का पालन करना, शल्य का युधिष्ठिर को आश्वासन देना और उनसे विदा लेकर दुर्योधन के यहाँ जाना”
शल्य कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तत्पश्चात वृत्रासुर को मारने वाले भगवान इन्द्र गन्धर्वों और अप्सराओं के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए लक्षणों से युक्त गजराज ऐरावत पर आरूढ़ हो महान तेजस्वी अग्नि देव, महर्षि बृहस्पति, यम, वरुण, धनाध्यक्ष कुबेर, सम्पूर्ण देवता, गन्धर्वगण तथा अप्सराओं से घिर कर स्वर्ग लोक को चले। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र अपनी महारानी शची से मिलकर अत्यन्त आनन्दित हो स्वर्ग का पालन करने लगे। तदनन्तर वहाँ भगवान अंगिरा ने दर्शन दिया और अर्थवेद के मन्त्रों से देवेन्द्र का पूजन किया। इससे भगवान इन्द्र उन पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उस समय अथर्वागिंरस को यह वर दिया,
इंद्रदेव बोले ;- 'ब्रह्मन! आप इस अथर्ववेद में अथर्वागिंरस नाम से विख्यात होेंगे और आपको यज्ञभाग भी प्राप्त होगा। इस विषय में मेरा यह वचन उदाहरण ( प्रमाण ) होगा।' महाराज युधिष्ठिर! इस प्रकार देवराज भगवान इन्द्र ने उस समय अथर्वागिंरस की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया। राजन! इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं तथा तपोधन महर्षियों की पूजा करके देवराज इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। युधिष्ठिर! इस प्रकार पत्नी सहित इन्द्र ने बारबार दुःख उठाया और शत्रुओं के वध की इच्छा से अज्ञातवास भी किया। राजेन्द्र! तुमने अपने महामना भाइयों तथा द्रौपदी के साथ महान वन में रहकर जो क्लेश सहन किया है, उसके लिये तुम्हें अनुताप नही करना चाहिये। भरतवंशी कुरुकुल नन्दन महाराज! जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को मारकर अपना राज्य प्राप्त किया था, इसी प्रकार तुम भी अपना राज्य प्राप्त करोगे। शत्रुसूदन! दुराचाारी, ब्राह्मण द्रोही और पापात्मा नहुष जिस प्रकार अगस्त्य के शाप से ग्रस्त होकर अनन्त वर्षों के लिये नष्ट हो गया, इसी प्रकार तुम्हारे दुरात्मा शत्रु कर्ण और दुर्योधन आदि शीघ्र ही विनाश के मुख में चले जायँगे। वीर! तत्पश्चात तुम अपने भाइयों तथा इस द्रौपदी के साथ समुद्रों से घिरे हुए इस समस्त भूमण्डल का राज्य भोगोगे। शत्रुओं की सेना जब मोर्चा बांधकर खड़ी हो, उस समय विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा को यह ‘इन्द्रविजय‘ नामक वेदतुल्य उपाख्यान अवश्य सुनना चाहिये। अतः विजयी वीरों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! मैंने तुम्हें यह 'इन्द्र विजय‘ नमक उपाख्यान सुनाया है; क्योंकि जब महात्मा देवताओं की स्तुति प्रशंसा की जाती है, तब वे मानव की उन्नति करते हैं। युधिष्ठिर! दुर्योधन के अपराध से तथा भीमसेन और अर्जुन के बल से यह महामना क्षत्रियों के संहार का अवसर उपस्थित हो गया है। जो पुरुष नियमपरायण हो इस इन्द्रविजय नामक उपाख्यान का पाठ करता है, वह पापरहित हो स्वर्ग पर विजय पाता तथा इहलोक और परलोक में भी सुखी होता है। वह मनुष्य कभी संतानहीन नहीं होता, उसे शत्रुजनित भय नहीं सताता, उस पर कोई आपत्ति नहीं आती, वह दीर्घायु होता है, उसे सर्वत्र विजय प्राप्त होती है तथा कभी उसकी पराजय नहीं होती है।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) अष्टादश अध्याय के श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भरत श्रेष्ठ जनमेजय! शल्य के इस प्रकार आश्वासन देने पर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया। शल्य की बात सुनकर कुन्ती पुत्र महाबाहु युधिष्ठिर मद्रराज से यह वचन बोले,
युधिष्ठिर बोले ;- मामाजी! जब कर्ण के साथ अर्जुन का युद्ध होगा, उस समय आप कर्ण का सारथ्य करेंगे, इसमें संशय नही है। उस समय आप अर्जुन की प्रशंसा करके कर्ण के तेज और उत्साह का नाश करें (यहीं मेरा अनुरोध है)।
शल्य बोले ;- राजन! तुम जैसा कह रहे हो, ऐसा ही करूँगा और भी ( तुम्हारे हित के लिये ) जो कुछ मुझसे हो सकेगा, वह सब तुम्हारे लिये करूँगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- शत्रुदमन जनमेजय! तदनन्तर समस्त कुन्तीकुमारों से विदा लेकर श्रीमान मद्रराज शल्य अपनी सेना के साथ दुर्योधन के यहाँ चले गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर और दुर्योधन के यहाँ सहायता के लिये आयी हुई सेनाओं का संक्षिप्त विवरण”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेंजय! तदनन्तर सात्वतवंश के महारथी वीर युयुधान (सात्यकि) विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर युधिष्ठिर के पास आये। उनके सैनिक बड़े पराक्रमी वीर थे। विभिन्न देशों से उनका आगमन हुआ था। वे भाँति-भाँति के अस्त्र शस्त्र लिये उस सेना की शोभा बढ़ा रहे थे। फरसे, भिन्दिपाल, शूल, तोमर, मुदूर, परिध, यष्टि, पाश, निर्मल, तलवार, खडग, धनुष समुह, तथा भाँति-भाँति के बाण आदि अस्त्र शस्त्र तेल में धुले होने के कारण
चमचमा रहे थे, जिनसे यह सेना सुशोभित हो रही थी। सात्यकि की वह सेना मेघों के समान काली दिखाई देती थी। सैनिकों के सुनहरे आभूषणों से सुशोभित हो वह ऐसी जान पड़ती थी, मानो बिजलियों सहित मेघों की घटा छा रही हो। राजन! वह एक अक्षौहिणी सेना युधिष्ठिर की विशाल वाहिनी में समाकर उसी प्रकार विलीन हो गयी, जैसे कोई छोटी नदी समुद्र में मिल गयी हो।
इसी प्रकार महाबली चेदिराज धृष्टकेतु अपनी एक अक्षौहिणी सेना साथ लेकर अमित तेजस्वी पाण्डवों के पास आये। मागध वीर जयत्सेन और जरासंध का महाबली पुत्र सहदेव- ये दोनों एक अक्षौहिणी सेना के साथ धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये थे। राजेन्द्र! इसी प्रकार समुद्रतटवर्ती जलप्राय देश के निवासी अनेक प्रकार के सैनिकों से घिरे हुए पाण्डयनरेश युधिष्ठिर के पक्ष में पधारे थे। राजन! उस सेन्य-समागम के समय युधिष्ठिर की सुन्दर वेष-भूषा से विभूषित तथा प्रबल सेना, जिसकी संख्या बहुत अधिक थी, देखने योग्य जान पड़ती थी। द्रुपद की सेना तो वहाँ पहले से ही उपस्थित थी, जो विभिन्न देशों से आये हुए शूरवीर पुरुषों तथा द्रुपद के महारथी पुत्रों से सुशोभित थी। इसी प्रकार मत्स्य नरेश सेनापति विराट भी पर्वतीय राजाओं के साथ पाण्डवों की सहायता के लिये प्रस्तुत थे। महात्मा पाण्डवों के पास इधर-उधर से सात अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं, जो नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त दिखायी देती थीं। ये सब सेनाएँ कौरवों से युद्ध करने की इच्छा रखकर पाण्डवों का हर्ष बढ़ाती थीं।
इसी प्रकार राजा भगदत्त ने दुर्योधन का हर्ष बढ़ाते हुए उसे एक अक्षौहिणी सेना प्रदान की। सुनहरे शरीरवाले चीन और किरात देश के योद्धाओं से भरी हुई भगदत्त की दुर्धर्ष सेना (खिले हुए) कनेर के जंगल सी जान पड़ती थी। कुरुनन्दन! इसी प्रकार शूरवीर भूरिश्रवा तथा राजा शल्य पृथक-पृथक एक-एक अक्षौहिणी सेना साथ लेकर दुर्योधन के पास आये। हृदिक पुत्र कृतवर्मा भी भोज, अन्धक तथा कुकरवंशी वीरों के साथ अक्षौहिणी सेना लेकर दुर्योधन के पास आया। उन वनमालाधारी पुरुष सिहों से कृतवर्मा की सेना उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे क्रीडापरायण मतवाले हाथियों से कोई विशाल वन शोभा पा रहा हो। जयद्रथ आदि अन्य राजा, जो सिन्धु और सौवीर देश के निवासी थे, पर्वतों को कँपाते हुए से दुर्योधन के पास आये। उनकी वह एक अक्षौहिणी विशाल सेना उस समय हवा से उड़ाये जाते हुए अनेक रूप वाले मेघ के समान प्रतीत होती थी।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) एकोनविंश अध्याय के श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद)
राजन! कम्बोज नरेश सुदक्षिण भी यवनों और शकों के साथ एक अक्षौहिणी सेना लिये दुर्योधन के पास आया। उसका सैन्य समूह टिड्डियों के दल सा जान पड़ता था। वह सारा सैन्य समुदाय कौरव सेना में आकर विलीन हो गया। इसी प्रकार माहिष्मती पुरी के निवासी राजा नील भी दक्षिण देश के रहने वाले श्यामवर्ण के शस्त्रधारी महापराक्रमी सैनिकों के साथ दुर्योधन के पक्ष में आये। अवन्ती देश के दोनों राजा विन्द और अनुविन्द भी पृथक-पृथक एक अक्षौहिणी सेना से घिरे हुए दुर्योधन के पास आये। केकय देश के पुरुषसिंह पाँच नरेश, जो परस्पर सगे भाई थे, दुर्योधन का हर्ष बढातें हुए एक अक्षौहिणी सेना के साथ आ पहुँचे। भरत श्रेष्ठ! तदनन्तर इधर-उधर से समस्त महामना नरेशों की तीन अक्षौहिणी सेनाएँ और आ पहुँची। इस प्रकार दुर्योधन के पास सब मिलाकर ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयीं, जो भाँति-भाँति की ध्वजा पताकाओं से सुशोभित थीं और कुन्ती कुमारों से युद्ध करने का उत्साह रखती थीं। राजन! दुर्योधन के अपनी सेना के जो प्रधान-प्रधान राजा थे, उनके भी ठहरने के लिए हस्तिनापुर में स्थान नही रह गया था। इसलिये भारत! पंचनद प्रदेश, सम्पूर्ण कुरुजागंल देश, रोहितकवन ( रोहतक ), समस्त मरूभूमि, अहिच्छत्र, कालकूट, गंगाकूट, गंगातट, वारण, वाटधान तथा यामुन पर्वत-प्रचुर धन धान्य से सम्पन्न सुविस्तृत प्रदेश कौरवों की सेना से भलि भाँति घिर गया। पांचालराज द्रुपद ने अपने जिन पुरोहित ब्राह्मण को कौरवों के पास भेजा था, उन्होंने वहाँ पहुँचकर उस विशाल सेना के जमाव को देखा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक उन्नीसावाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण”
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर द्रुपद के पुरोहित कौरव नरेश के पास पहुँचकर राजा धृतराष्ट्र, भीष्म तथा विदुर जी द्वारा सम्मानित हुए। उन्होंने सारा कुशल समाचार बताकर धृतराष्ट्र, आदि के स्वास्थ्य का समाचार पूछा, फिर सम्पूर्ण सेनानायकों के समक्ष इस प्रकार कहा। 'आप सब लोग सनातन राजधर्म को अच्छी तरह जानते हैं। जानने पर भी स्वयं इसलिये कुछ कह रहा हूँ कि अन्त में कुछ आप लोगों के मुख से भी सुनने का अवसर मिले। राजा धृतराष्ट्र तथा पाण्डु दोनों एक ही पिता के सुविख्यात पुत्र हैं। पैतृक सम्पत्ति में दोनों का समान अधिकार है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। धृतराष्ट्र के जो पुत्र हैं, उन्होंने तो पैतृक धन प्राप्त कर लिया, परंतु पाण्डवों को वह पैतृक सम्पत्ति क्यों न प्राप्त हो। 'धृतराष्ट्र ने सारा धन अपने अधिकार में कर लिया; इसलिये पाण्डु पुत्रों को पैतृक धन नहीं मिला है, यह बात आप लोग पहले से ही जानते हैं। 'उसके बाद दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र-पुत्रों ने प्राणान्तकारी उपायों द्वारा अनेक बार पाण्डवों को नष्ट करने का प्रयत्न किया; परंतु इनकी आयु शेष थी, इसलिये वे इन्हें यमलोक न पहुँचा सके। 'फिर महात्मा पाण्डवों ने अपने बाहुबल से नूतन राज्य की प्रतिष्ठा करके उसे बढ़ा लिया; परंतु शकुनि सहित क्षुद्र-धृतराष्ट्र पुत्रों ने जूए में छल कपट का आश्रय ले उसका हरण कर लिया।
तत्पश्चात धृतराष्ट्र ने भी उस द्यूतकर्म का अनुमोदन किया और उन्होंने जैसा आदेश दिया, उसके अनुसार पाण्डव महान वन में तेरह वर्षों तक निवास करने के लिये विवश हुए। 'पत्नी सहित वीर पाण्डवों को कौरव सभा में भारी क्लेश पहुँचाया गया तथा वन में भी उन्हें नाना प्रकार के भयंकर कष्ट भोगने पड़े। 'इतना ही नही, दूसरी योनि में पड़े हुए पापियों की तरह विराट नगर में भी इन महात्माओं को महान क्लेश सहन करना पड़ा है। ‘पहले के किये हुए इन सब अत्याचारों को भुलाकर वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डव अब भी इन कौरवों के साथ मेल-जोल ही रखना चाहते हैं। ‘पाण्डवों के आचार व्यवहार को तथा दुर्योधन के बर्ताव को जानकर सुहृदों का यह कर्तव्य है कि वे दुर्योधन को समझावें। वीर पाण्डव कौरवों के साथ युद्ध नही कर रहे हैं, वे जनसंहार किये बिना ही अपना राज्य पाना चाहते हैं। दुर्योधन जिस हेतु को सामने रखकर युद्ध के लिये उत्सुक हैं, उसे यथार्थ नहीं मानना चाहिये क्योंकि पाण्डव इन कौरवों से अधिक बलिष्ठ हैं। धर्मपुत्र युधिष्ठिर के पास सात अक्षौहिणी सेनाएँ भी एकत्र हो गयी हैं, जो कौरवों के साथ युद्ध की अभिलाषा रखकर उनके आदेश की प्रतीक्षा कर रही हैं। ‘इसके सिवा सात्यकि, भीमसेन तथा महाबलशाली नकुल-सहदेव आदि जो दूसरे पुरुष सिंह वीर हैं, वे अकेले हजार अक्षौहिणी सेनाओं के समान हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (उद्योग पर्व) विंश अध्याय के श्लोक 18-21 का हिन्दी अनुवाद)
'ये कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं एक ओर से आवें और दूसरी ओर केवल अनेक रूपधारी महाबाहु अर्जुन हों, तो वे अकेले ही इन सबके लिये पर्याप्त हैं।' जैसे किरीटधारी अर्जुन अकेले ही इन सब सेनाओं से बढ़कर हैं। उसी प्रकार महातेजस्वी महाबाहु श्रीकृष्ण भी हैं। युधिष्ठिर की सेनाओं के बाहुल्य, किरीटधारी अर्जुन के पराक्रम तथा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धिमता को जान लेने पर कौन मनुष्य पाण्डवों के साथ युद्ध कर सकता है? अतः आप लोग अपने धर्म और पहले की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार पाण्डवों को उनका आधा राज्य जो उन्हें मिलना ही चाहिये, दे दीजिये। कहीं ऐसा न हो कि यह सुन्दर अवसर आप लोगों के हाथ से निकल जाय।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत के उद्योगपर्व के अन्तर्गत सेनोद्योगपर्व में पुरोहित प्रस्थान विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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