सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के छठवें अध्याय से दशवें अध्याय तक (From the six chapter to the tenth chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

छठा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति और देवी का प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें वर देना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! विराट के रमणीय नगर में प्रवेश करते समय महाराज युधिष्ठिर ने मन-ही-मन त्रिभुवन की अधीश्वरी दुर्गा देवी का इस प्रकार स्तवन किया,

      युधिष्ठिर बोले ;- ‘जो यशोदा के गर्भ से प्रकट हुई है, जो भगवान नारायण को अत्यन्त प्रिय है, नन्दगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है, जो सबका मंगल करने वाली तथा कुल को बढ़ाने वाली है, जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली है, कंस के द्वारा पत्थर की शिला पर पटकी जाने पर जो आकाश में उड़ गयी थी, जिसके अंग दिव्य गन्धमाला एवं आभूषणों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खा है, जो हाथों में ढाल और तलवार धारण करती है, वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की भगिनी उस दुर्गा देवी का मैं चिन्तन करता हूँ। पृथ्वी का भार उतारने वाली पुण्यमयी देवी! तुम सदा सबका कल्याण करने वाली हो। जो लोग तुम्हारा स्मरण करते हैं, निश्चय कर तुम उन्हें पाप और उसके फलस्वरूप होने वाले दुःख से उबार लेती हो; ठीक उसी तरह, जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँसी हुई गाय का उद्धार कर देता है’।

     तत्पश्चात् भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर ने देवी के दर्शन की अभिलाषा रखकर नाना प्रकार के स्तुतिपरक नामों द्वारा उन्हें सम्बोधित करके पुनः उनकी स्तुति प्रारम्भ की,

     युधिष्ठिर ने स्तुति की ;- ‘इच्छानुसार उत्तम वर देने वाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। सच्चिदानन्दमयी कृष्णे! तुम कुमारी और ब्रह्मचारिणी हो। तुम्हारी अंगकान्ति प्रभातकालीन सूर्य के सदृश लाल है। तुम्हारा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति आल्हाद प्रदान करने वाला है। तुम चार भुजाओं से सुशोभित विष्णुरूपा और चार मुखों से अलंकृत हो। तुम्हारे नितम्ब और उरोज पीन हैं। तुमने मोर पंख का कंगन धारण किया है तथा केयूर और अंगद पहन रक्खे हैं। देवि! भगवान नारायण की धर्मपत्नी लक्ष्मी के समान तुम्हारी शोभा हो रही है। आकाश में विचरने वाली देवि! तुम्हारा स्वरूप और ब्रह्मचर्य परम उज्ज्वल है। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की छवि के समान तुम्हारी श्याम कान्ति है, इसीलिये तुम कृष्णा कहलाती हो। तुम्हारा मुख संकर्षण के समान है। तुम (वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली) ऊपर उठी हुई दो विशाल भुजाओं को इन्द्र की ध्वजा के समान धारण करती हो।

     तुम्हारे तीसरे हाथ में पात्र, चौथे में कमल आर पाँचवें में घण्टा सुशोभित है। छठे हाथ में पाश, सातवें में धनुष तथा आठवें में महान् चक्र शोभा पाता है। ये ही तुम्हारे नाना प्रकार के आयुध हैं। इस पृथ्वी पर स्त्री का जो विशुद्ध स्वरूप है, वह तुम्हीं हो। कुण्डलमण्डित कर्णयुगल तुम्हारे मुखमण्डल की शोभा बढ़ाते हैं। देवि! तुम चन्द्रमा से होड़ लेने वाले मुख से सुशोभित होती हो। तुम्हारे मस्तक पर विचित्र मुकुट है। बँधे हुए केशों की वेणी साँप की आकृति के समान कुछ और ही शोभा दे रही है। यहाँ कमर में बँधी हुई सुन्दर करधनी के द्वारा तुम्हारी ऐसी शोभा हो रही है, मानो नाग से लपेटा हुआ मगरमच्छ हो। तुम्हारी मयूरपिच्छ से चिह्नित ध्वजा आकाश में ऊँची फहरा रही है। उससे तुम्हारी शोभा और भी बढ़ गयी है। तुमने ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके तीनों लोकों को पवित्र कर दिया है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षष्ठ अध्याय के श्लोक 15-35 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘देवि! इसीलिये सम्पूर्ण देवता तुम्हारी स्तुति और पूजा भी करते हैं। तीनों लोकों की रक्षा के लिये महिषासुर का नाश करने वाली देवेश्वरी! मुझ पर प्रसन्न होकर दया करो। मेरे लिये कल्याणमयी हो जाओ। तुम जया और विजया हो, अतः मुझे भी विजय दो। इा समय तुम मेरे लिये वरदायिनी हो जाओ। पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचल पर तुम्हारा सनातन निवास स्थान है। काली! काली! महाकाली! तुम खड्ग और खट्वांग धारण करने वाली हो। जो प्राणी तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उन्हें तुम मनोवान्छित वर देती हो। इच्छानुसार विचरने वाली देवि! जो मनुष्य अपने ऊपर आये हुए संकट का भार उतारने के लिये तुम्हारा स्मरण करते हैं तथा मानव प्रतिदिन प्रातःकाल तुम्हें प्रणाम करते हैं, उनके लिये इस पृथ्वी पर पुत्र अथवा धन-धान्य आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। दुर्गे! तुम दुःसह दुःख से उद्धार करती हो, इसीलिये लोगों के द्वारा दुर्गा कही जाती हो। जो दुर्गम वन में कष्ट पा रहे हों, महासागर में डूब रहे हों अथवा लुटेरों के वश में पड़ गये हों, उन सब मनुष्यों के लिये तुम्हीं परम गति हो- तुम्हीं उन्हें संकट से मुक्त कर सकती हो।

     महादेवि! पानी में तैरते समय, दुर्गम मार्ग में चलते समय और जंगलों में भटक जाने पर जो तुम्हारा स्मरण करते हैं, वे मनुष्य क्लेश नहीं पाते। तुम्हीं कीर्ति, श्री, धृति, सिद्धि, लज्जा, विद्या, संतति, मति, संध्या, रात्रि, प्रभा, निद्रा, ज्योत्स्ना, कान्ति, क्षमा और दया हो। तुम पूजित होने पर मनुष्यों के बन्धन, मोह, पुत्रनाश और धननाश का संकट, व्याधि, मृत्यु और सम्पूर्ण भय को नष्ट कर देती हो। मैं भी राज्य से भ्रष्ट हूँ, इसलिये तुम्हारी शरण में आया हूँ। कमलदल के समान विशाल नेत्रों पाली देवि! देवेश्वरी! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ। मेरी रक्षा करो। सत्ये! हमारे लिये वस्तुतः सत्यस्वरूपा बनो,- अपनी महिमा को सत्य कर दिखाओ। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले दुर्गे! मुझे शरण दो।’ इस प्रकार स्तुति करने पर देवी दुर्गा ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को प्रत्यक्ष दर्शन दिया तथा राजा के पास आकर यह बात कही।

    देवी बोली ;- महाबाहु राजा युधिष्ठिर! मेरी बात सुनो। समर्थ राजन्! शीघ्र ही तुम्हें संग्राम में विजय प्राप्त होगी। मेरे प्रसाद से कौरव सेना को जीतकर उसका संहार करके तुम निष्कण्टक राज्य करोगे और पुनः इस पृथ्वी का सुख भोगोगे। राजन्! तुम्हें भाइयों सहित पूर्ण


प्रसन्नता प्राप्त होगी। मेरी कृपा से तुम्हें सुख और आरोग्य सुलभ होगा। लोक में जो मनुष्य मेरा कीर्तन और स्तवन करेंगे, वे पाप-रहित होंगे और मैं संतुष्ट होकर उन्हें राज्य, बड़ी आयु, नीरोग शरीर और पुत्र प्रदान करूँगी। राजन्! जैसे तुमने मेरा स्मरण किया है, इसी प्रकार जो लोग परदेश में रहते समय, नगर में, युद्ध में, शत्रुओं द्वारा संकट प्राप्त होने पर, घने जगलों में, दुर्गम मार्ग में, समुद्र में तथा गहन पर्वत पर भी मेरा स्मरण करेंगे, उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। पाण्डवो! जो इस उत्तम स्तोत्र को भक्तिभाव से सुनेगा या पढ़ेगा, उसके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायेंगे। मेरे कृपाप्रसाद से विराट नगर में रहते समय तुम सब लोगों को कौरवगण अथवा उस नगर के निवासी मनुष्य नहीं पहचान सकेंगे।' शत्रुओं का दमन करने वाले राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा पाण्डवों की रक्षा का भार ले वहीं अनतर्धान हो गयीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में दुर्गास्तोत्र विषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-5 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिर का राजसभा में जाकर विराट से मिलना और वहाँ आदरपूर्वक निवास पाना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर पाण्डवों ने परम पवित्र, कल्याणमयी, मंगलस्वरूपा, त्रिभुवनकमनीया गंगा में, जिसके जल का महर्षि और गन्धर्वगण सदा सेवन करते हैं, उतर कर देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण किया।। तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर अग्निहोत्र, जप और मंगलपाठ करके धर्मराज के दिये हुए वरदान का चिन्तन करते हुए पूर्व दिशा की ओर चले और हाथ जोड़कर धीरे-धीरे धर्मराज का स्मरण करने लगे।

    युधिष्ठिर बोले ;- मेरे पिता प्रजापति धर्म वरदायक देवता हैं। उन्होंने प्रसन्नचित होकर मुझे वर दिया है। मैंने प्यास से पीड़ित हो जल की इच्छा से अपने भाइयों को भेजा था। मेरी प्रेरणा से ही वे एक सरोवर में उतरे। परंतु उस वन में श्रेष्ठ यक्ष के रूप में आये हुए उन धर्मराज ने मेरे भाइयों को उसी प्रकार धराशायी कर दिया, जैसे वज्रधारी इन्द्र महान् संग्राम में दानवों को मार गिराते हैं। तब मैंने वहाँ जाकर उनके प्रश्नों का उत्तर दे उन वरदायक गुरुरूप पिता को संतुष्ट किया। उस समय प्रसन्न हो भगवान् धर्म ने बड़े स्नेह से मुझे हृदय से लगाया और वर देने के लिये उद्यत हो मुझसे कहा,,

     धर्मराज बोले ;- ‘पाण्डुनन्दन! तुम जो कुछ चाहते हो, वह मुझसे माँग लो। मैं तुम्हें वर देने के लिये आकाश में खड़ा हूँ। मेरी ओर देखो।’ तब मैंने अपने वरदायक पिता भगवान् धर्मराज से कहा,,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘प्रभो! मेरी बुद्धि सदा धर्म में ही लगी रहे तथा ये मेरे छोटे भाई जीवित हो जायें और पहले जैसा रूप, युवावस्था एवं बल प्राप्त कर लें। हम लोगों में इच्छानुसार क्षमा और कीर्ति हो और हम अपने सत्यव्रत को पूर्ण कर लें; यही वर हमें प्राप्त होना चाहिये।’ जैसा कि मैंने बताया, वैसा ही वर उन्होंने दिया। देवेश्वर धर्म ने जैसा कहा है, वह कभी मिथ्या नहीं हो सकता।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर धर्मात्मा युधिष्ठिर उस समय धर्म का ही बार-बार चिन्तन करने लगे। तब धर्मदेव के प्रसाद से उन्होंने तत्काल अपने अभीष्ट स्वरूप को प्राप्त कर लिया। वे कमण्डलु और पगड़ी धारण किये त्रिदण्डधारी तरुण ब्राह्मण बन गये। उनके शरीर पर मँजीठे के रंग के सुन्दर लाल वस्त्र शोभा पाने लगे तथा मस्तक पर शिखा दिखायी देने लगी। वे हाथ में कुश लिये अद्भुत रूप में दृष्टिगोचर होने लगे। राजन्! इसी प्रकार उत्तम धर्म के श्रेष्ठ फल की अभिलाषा रखने वाले उन सभी धर्मचारी महात्मा पाण्डवों को क्षणभर में उनके अभीष्ट वेश के अनुरूप वस्त्र, आभूषण और माला आदि वस्तुएँ प्राप्त हो गयी। तदनन्तर वैदूर्य के समान हरी, सुवर्ण के समान पीली (तथा लाल और काली) चौसर की गोटियों सहित पासों को कपड़े में बाँधकर बगल में दबाये हुए राजा युधिष्ठिर सबसे पहले राजा के दरबार में गये। उस समय राजा विराट सभा में बैठे थे। वे बड़े यशस्वी और मत्स्य राष्ट्रके अधिपति थे। राजा युधिष्ठिर भी महान् यशस्वी, कौरव वंश की मर्यादा को बढ़ाने वाले तथा महानुभाव (अत्यन्त प्रभावशाली) थे।

     सब राजे-महाराजे उनका सत्कार करते थे। तीखे विष वाले सर्प की भाँति वे दुर्धर्ष थे। अपने अपूर्व रूप के कारण वे देवता के समान जान पड़ते थे। महामेघमालाओं से आवृत्त सूर्य तथा राख में छिपी हुई अग्नि के समान उनका तेजस्वी रूप वेषभूषा से आच्छादित था। वे बड़े पराक्रमी थे। उनका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहा था। बादलों से ढके हुए चन्द्रमा की भाँति शोभायमान महानुभाव पाण्डुनन्दन को आते देख राजा विराट की दृष्टि सहसा उनकी ओर आकृष्ट हो गयी। निकट आने पर शीघ्र ही उन्होंने बड़े गौर से उनकी ओर देखा। मन्त्री, ब्राह्मण, सूत- मागध आदि, वैश्यगण तथा अन्य जो कोई भी सभासद् उनके दायें-बायें सब ओर बैठे थे, उन सबसे राजा ने पूछा- ‘ये कौन है? जो पहले-पहल यहाँ पधारे हैं, ये तो किसी राजा की भाँति मेरी सभा को निहार रहे हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 6-15 का हिन्दी अनुवाद)

   'इनका वेश तो ब्राह्मण का सा है, किंतु ये ब्राह्मण नहीं हो सकते। ये नरश्रेष्ठ तो कहीं के भूपति ही होंगे; ऐसा विचार मेरे मन में उठ रहा है। परंतु इनके साथ दास, रथ और हाथी-घोड़े आदि कुछ भी नहीं है। फिर भी ये निकट से इन्द्र के समान सुशोभित हो रहे हैं। इनके शरीर में जो लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उनसे यह सूचित होता है कि ये मूर्द्धाभिषिक्त सम्राट हैं। मेरे मन में तो यही बात आती है। जैसे मतवाला हाथी बेखटके किसी कमलिनी के पास जाता हो, उसी प्रकार ये बिना किसी संकोच के-व्यथारहित होकर मेरी सभा में आ रहे हैं’।

    इस प्रकार तर्क-वितर्क में पड़े हुए राजा विराट के पास आकर नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘महाराज! आपको विदित हो; मैं एक ब्राह्मण हूँ, मेरा सर्वस्व नष्ट हो गया है; अतः मैं आपके यहाँ जीवन निर्वाह के लिये


आया हूँ। अनघ! मैं यहाँ आपके समीप रहना चाहता हूँ। प्रभो! जैसी आपकी इच्छा होगी, उसी प्रकार सब कार्य करते हुए मैं यहाँ रहूँगा।’ युधिष्ठिर की बात सुनकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए और बोले,

  


   राजा विराट बोले ;- ‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है।’ तदनन्तर उन्होंने राजाओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर को सादर ग्रहण किया। ग्रहण करके राजा विराट ने प्रसन्न मन से उनसे इस प्रकार कहा,

   राजा बोले ;- ‘तात! मैं प्रेमपूर्वक आपसे पूछता हूँ, आप इस समय किस राजा के राज्य से यहाँ आये हैं? अपने गोत्र और नाम भी ठीक-ठीक बताइये। साथ ही यह भी कहें कि आपने किस विद्या या कला में कुशलता प्राप्त की है’।

    युघिष्ठिर ने कहा ;- महाराज विराट! मैं वैयाघ्रपद गोत्र में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण हूँ। लोगों में ‘कंक’ नाम से मेरी प्रसिद्धि है। मैं पहले राजा युधिष्ठिर के साथ रहता था। वे मुझे अपना सखा मानते थे। मैं चौसर खेलने वालों के बीच पासे फेंकने की कला में कुशल हूँ।

    विराट बोले ;- ब्रह्मन्! मैं आपको वर देता हूँ; आप जो चाहें, माँग लें। समूचे मत्स्य देश पर शासन करें। मैं आपके वश में हूँ; क्योकि द्यूतक्रीड़ा में निपुण, चतुर, चालाक मनुष्य मुझे सदा प्रिय है। देवोपम ब्राह्मण! आप तो राज्य पाने के योग्य हैं।

   युधिष्ठिर ने कहा ;- मत्स्यराज! नरनाथ। मुझे किसी हीन वर्ण के मनुष्य से विवाद न करना पड़े, यह मैं पहला वर माँगता हूँ तथा मुझसे पराजित होने वाला कोई भी मनुष्य हारे हुए धन को अपने पास न रखे (मुझे दे दे)। आपकी कृपा से यह दूसरा वर मुझे प्राप्त हो जाये, तो मैं रह सकता हूँ।

   विराट बोले ;- ब्रह्मन्! यदि कोई ब्राह्मणेतर मनुष्य आपका अप्रिय करेगा तो उसे मैं निश्चय ही प्राण दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मणों ने आपका अपराध किया तो उन्हें देश से निकाल दूँगा। (युधिष्ठिर से ऐसा कहकर राजा विराट अन्य सभासदों से बोले) मेरे राज्य में निवास करने वाले और इस सभा में आये हुए लोगों! मेरी बात सुनो, जैसे मैं इस मत्स्य देश का स्वामी हूँ, वैसे ही ये कंक भी है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 16-18 का हिन्दी अनुवाद)

    राजा विराट फिर युधिष्ठिर से बोले ;-  कंक! आज से आप मेरे सखा हैं। जैसी सवारी में मैं चलता हूँ, वैसी ही आपको भी मिलेगी। पहनने के लिये वस्त्र और भोजन-पान आदि का प्रबन्ध भी आपके लिये पर्याप्त मात्रा में रहेगा। बाहर के राज्य-कोश, उद्यान और सेना आदि तथा भीतर के धन-दारा आदि की भी देख-भाल आप ही करें। मेरे आदेश से आपके लिये राजमहल का द्वार सदा खुला रहेगा। आपसे कोई परदा नहीं रक्खा जायेगा। जो लोग जीविका के अभाव में कष्ट पा रहे हों और अनुवाद के लिये अर्थात् पहले के स्थायी तौर पर दिये हुए खेत और बगीचे आदि पुनः उपयोग में लाने के निमित्त नूतन राजाज्ञा प्राप्त करने के लिये आपके पास आवें, उनके अनुरोध-पूर्ण वचन से आप सदा उनकी प्रार्थना मुझे सुना सकते हैं। विश्वास रखिये, आपके कथनानुसार उन याचकों को मैं सब कुछ दूँगा; इसमें संशय नहीं है। आपको मेरे पास आने या कुछ कहने में भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार वहाँ राजा युधिष्ठिर तथा मत्स्य नरेश की प्रथम भेंट हुई। जैसे भगवान् विष्णु का वज्रधारी इन्द्र से मिलन हुआ हो, उसी प्रकार विराट नरेश का राजा युधिष्ठिर के साथ समागम हुआ।

    युधिष्ठिर के स्वरूप का दर्शन विराटराज को बहुत प्रिय लगा। जब वे आसन पर बैठ गये, तब राजा विराट उन्हें एकटक निहारने लगे। उनके दर्शन से वे तृप्त ही नहीं होते थे। जैसे इन्द्र अपनी कान्ति से स्वर्ग की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर उस सभा को प्रकाशित कर रहे थे। धीर स्वभाव वाले नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर उस समय राजा विराट के साथ इस प्रकार अच्छे ढंग से मिलकर और उनके द्वारा परम आदर-सत्कार पाकर वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका वह चरित्र किसी को भी मालूम नहीं हुआ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में युधिष्ठिर प्रवेश विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टम अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन का राजा विराट की सभा में प्रवेश और राजा के द्वारा आश्वासन पाना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर द्वितीय पाण्डव भयंकर बलशाली भीमसेन सिंह की सी मस्त चाल से चलते हुए राजा के दरबार में आये। वे अपने सहज तेज से प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने हाथ में मथानी, करछी और शाक काटने के लिए एक काले रंग का तीखी खार वाला छुरा ले रक्खा था। उनका वह छुरा टूटा-फूटा न था और न उसके ऊपर कोई आवरण था। वे यद्यपि रसोइये के वेश में थे, तो भी अपने उत्कृष्ट तेज से इस लोक को प्रकाशित करने वाले सूर्यदेव की भाँति सुशोभित हो रहे थे। उनके वस्त्र काले थे और उनका शरीर पर्वतराज मेरु के समान सुदृढ़ था। वे मत्स्यराज विराट के समीप आकर खड़े हो गये।

     अपने पास आये हुए भीमसेन को देखकर उन्हें प्रसन्न करते हुए राजा विराट मत्स्य जनपद के निवासी समागत सभासदों से बोले,

      राजा विराट बोले ;- 'सिंह के समान ऊँचे कंधों वाला और मनुष्यों में श्रेष्ठ यह जो अत्यन्त रूपवान् युवक दिखायी दे रहा है, कौन है? आज से पहले कभी इसका दर्शन नहीं हुआ है। यह वीर पुरुष सूर्य के समान तेजस्वी है। मैं बहुत सोच-विचारकर भी इसके विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता। यहाँ आने में इस श्रेष्ठ पुरुष का आन्तरिक अभिप्राय क्या है? इस पर भी मैंने बहुत तर्क-वितर्क किया है; परंतु किसी वास्तविक परिणाम तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। इसे देखकर ही मैं सोचने लगा हूँ कि यह गन्धर्वराज है या देवराज इन्द्र, मेरी दृष्टि के सामने खड़ा हुआ यह युवक कौन है, इसका पता लगाओ और यह जो कुछ पाना चाहता है, वह सब इसे मिल जाना चाहिये; इसमें विलमब नहीं होना चाहिये’। राजा विराट के पूर्वाेक्त आदेश से प्रेरित हो दरबारी लोग शीघ्रतापूर्वक धर्मराज युधिष्ठिर के छोटे भाई कुन्तीपुत्र भीमसेन के समीप गये तथा राजा ने जैसे कहा था, उसी प्रकार उनका परिचय पूछा। तब महामना पाण्डुनन्दन भीम विराट के अत्यन्त निकट जाकर दीनतारहित वाणी में बोले,

    भीमसेन बोले ;- 'नरेन्द्र! मैं रसोइया हूँ। मेरा नाम बल्लव है। मैं बहुत उत्तम व्यंजन बनाता हूँ। आप मुझे अपने यहाँ इस कार्य के लिये रख लीजिये’।

    विराट बोले ;- 'बल्लव! तुम रसोइये हो, इस बात पर मुझे विश्वास


नहीं होता। तुम तो इन्द्र के समान तेजस्वी दिखायी देते हो। अपने अद्भुत रूप, दिव्य शोभा और महान् पराक्रम से तुम मनुष्यों में कोई श्रेष्ठ पुरुष अथवा राजा प्रतीत होते हो।'

   भीमसेन ने कहा ;- महाराज! मैं रसोई बनाने वाला आपका सेवक हूँ। मैं भाँति-भाँति के व्यंजन बनाना जानता हूँ, जिनका बनाना केवल मुझे ही ज्ञात है। मेरे बनाये हुए व्यंजन उत्तम श्रेणी के होते हैं। राजन्! पहले महाराज युधिष्ठिर ने भी उन सब प्रकार के व्यंजनों का आस्वादन किया है। इसके सिवा शारीरिक बल में मेरी समता करने वाला दूसरा कोई नहीं है। भूपाल! मैं सदा कुश्ती लड़ने वाला पहलवान हूँ; हाथियों और सिंहों से भी भिड़ जाता हूँ। अनघ! मैं सदा आपको प्रिय लगने वाला कार्य करूँगा।' 

   विराट बोले ;- 'बल्लव! मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम अपने को भोजन बनाने के काम में कुशल बताते हो, तो मेरी पाकशाला में रहकर वही करो। किंतु मैं यह कार्य तुम्हारे योग्य नहीं समझता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई समूची पृथ्वी का शासन करने के योग्य हो। तथापि जैसी तुम्हारी रुचि है है, मैंने वैसा किया है। तुम मेरी पाकशाला में अग्रणी होकर रहो। जो लोग वहाँ पहले से नियुक्त हैं, मैंने तुम्हें उन सबका स्वामी बनाया।'

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार भीेमसेन पाकशाला में नियुक्त हो राजा विराट के अत्यन्त प्रिय व्यक्ति होकर रहने लगे। उस राज्य के किसी भी मनुष्य ने उनका रहस्य नहीं जाना और न उस पाकशाला के कोई सेवक ही उन्हें पहचान सके।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में भीमप्रवेश विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) नवम् अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रनिवास में जाकर रानी सुदेष्णा से वार्तालाप करना और वहाँ निवास करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पवित्र मन्द मुस्कान और कजरारे नेत्रों वाली द्रौपदी ने अपने सुन्दर, महीन, कोमल और बड़े-बड़े, काले एवं घुंघराले केशों की चोटी गूँथकर उन मृदुल अलकों को दाहिेने भाग में छिपा दिया और एक अत्यन्त मलिन वस्त्र धारण करके सैरन्ध्री का वेश बनाये वह दीन-दु:खियों की भाँति नगर में विचरने लगी। उसे इधर-उधर भटकती देख बहुत-सी स्त्रियाँ और पुरुष उसके पास दौड़े आये और पूछने लगे,

    लोगों ने पूछा ;- ‘तुम कौन हो? और क्या करना चाहती हो?

राजेन्द्र! उनके इस प्रकार पूछने पर द्रौपदी ने उनसे कहा,

    द्रोपदी बोली ;- ‘मैं सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसी के यहाँ में सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ।’ उसके रूप, वेष और मधुर वाणी से किसी को यह विश्वास नहीं हुआ कि यह दासी है और अन्न-वस्त्र के लिये यहाँ उपस्थित हुई है। इतने में ही राजा विराट की अत्यन्त प्यारी भार्या केकय राजकुमारी सुदेष्णा ने, जो अपने महल पर खड़ी हुई नगर की शोभा निहार रही थी, वहीं से द्रुपदकुमारी को देखा। वह एक वस्त्र धारण किये थी एवं अनाथ-सी जान पड़ती थी। ऐसे दिव्य रूप वाली तरुणी को उस अवस्था में देखकर रानी ने उसे अपने पास बुलाया और पूछा,

  रानी बोली ;- ‘भद्रे! तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो?’ राजेन्द्र! तब द्रौपदी ने रानी सुदेष्णा से कहा,

  द्रोपदी बोली ;- ‘में सैरन्ध्री हूँ। जो मुझे अपने यहाँ नियुक्त करना चाहे, उसके यहाँ रहकर मैं सैरन्ध्री का कार्य करना चाहती हूँ और इसीलिये यहाँ आयी हूँ’।

    सुदेष्णा ने कहा ;- भामिनि! तुम जैसा कह रही हो, उस पर विश्वास नहीं होता, क्योंकि तुम्हारी जैसी रूपवती स्त्रियाँ सैरन्ध्री (दासी) नहीं हुआ करतीं। तुम तो बहुत-सी दासियों और नाना प्रकार के बहुतेरे दासों को आज्ञा देने वाली रानी जैसी जान पड़ती हो। तुम्हारे गुल्फ ऊँचे नहीं हैं, दोनों जाँघें सटी हुई हैं। तुम्हारी नाभि, वाणी और बुद्धि तीनों में गम्भीरता है। नाक, कान, आँख, नख और घाँटी इन छहों अंगों में ऊँचाई है। हाथों और पैरों के तलवे, आँख के कोने, ओठ, जिह्वा ओर नख- इन पाँचों अंगों में स्वाभाविक लालिमा है। हंसों की भाँति मधुर और गद्गद वाणी है। तुम्हारे केश काले और चिकने हैं। स्तन बहुत सुन्दर हैं। अंगकान्ति श्याम है। नितम्ब और उरोज पीन हैं। ऊपर कही हुई प्रत्येक विशेषता से तुम सम्पन्न हो। काश्मीर देश की घोड़ी के समान तुम में अनेक शुभ लक्षण हैं। तुम्हारे नेत्रों की पलकें काली और तिरछी हैं। ओष्ठ पके हुए बिम्बफल के


समान लाल हैं। कमर पतली है। गर्दन शंख की शोभा को छीने लेती है। नसें मांस से ढंकी हुई हैं तथा मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा है। तुम रूप में उन्हीं लक्ष्मी के समान हो, जिनके नेत्र शरद् ऋतु के विकसित कमलदल के समान विशाल हैं, जिनके अंगों से शरत्कालीन कमल की सी सुगन्ध फैलती रहती है तथा जो शरद्ऋतु के कमलों का सेवन करती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) नवम अध्‍याय के श्लोक 14-31 का हिन्दी अनुवाद)

     कल्याणी! बताओ, तुम वास्तव में कौन हो? दासी तो तुम किसी प्रकार भी नहीं हो सकतीं। तुम यक्षी हो या देवी? गन्धर्व कन्या हो या अप्सरा? देवकन्या हो या नागकन्या? अथवा इस नगरी की अधिष्ठात्री देवी तो नहीं हो? विद्याधरी, किन्नरी या चन्द्रदेव की पत्नी रोहिणी तो नहीं हो? तुम अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका अथवा मालिनी नाम की अप्सरा तो नहीं हो? क्या तुम इन्द्राणी, वारुणी देवी, विश्वकर्मा की पत्नी अथवा प्रजापति ब्रह्मा की शक्ति सावित्री हो? शुभे! देवताओं के यहाँ जो प्रसिद्ध देवियाँ हैं, उनमें से तुम कौन हो?

     द्रौपदी बोली ;- रानीजी! मैं न तो देवी हूँ, न गन्धर्वी; न असुरपत्नी हूँ, न राक्षसी। मैं तो सेवा करने वाली सैरन्ध्री हूँ। यह मैं सच-सच कह रही हूँ। मैं केशों का श्रृंगार करना जानती हूँ तथा उबटन या अंगराग बहुत अच्छा पीस लेती हूँ। शुभे! मैं मल्लिका, उत्पल, कमल और चम्पा आदि के फूलों के बहुत सुन्दर एवं विचित्र हार भी गूँथ सकती हूँ। पहले मैं श्रीकृष्ण की प्यारी रानी सत्यभामा तथा कुरुकुल की एकमात्र सुन्दरी पाण्डवों की धर्मपत्नी द्रौपदी की सेवा में रह चुकी हूँ। मैं भिन्न-भिन्न स्थानों में सेवा करके उत्तम भोजन पाती हुई विचरती हूँ। मुझे जितने वस्त्र मिल जाते हैं, उतने में ही मैं प्रसन्न रहती हूँ। स्वयं देवी द्रौपदी ने मेरा नाम ‘मालिनी’ रख दिया था। देवि सुदेष्णे! आज वही मैं सैरन्ध्री आपके महल में आयी हूँ।

     सुदेष्णा ने कहा ;- सुन्दरी! यदि मेरे मन में संदेह न होता, तो मैं तुम्हें अपने सिर माथे रचा लेती। यदि राजा तुम्हें चाहने न लगें- सम्पूर्ण चित्त से तुम पर आसक्त न हो जायें तो तुम्हें रखने में मुझे कोई आपत्ति न होगी। इस राजकुल में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब एकटक तुम्हारी ओर निहार रही हैं; फिर पुरुष कौन ऐसा होगा, जिसे तुम मोहित न कर सको? देखो, मेरे भवन में ये जो वृक्ष खड़े हैं, वे भी तुम्हें देखने के लिये मानो झुके से पड़ते हैं। फिर पुरुष कौन ऐसा होगा, जिसे तुम मोहित न कर लो? सुन्दर नितम्बों वाली सुन्दरी! तुम्हारे सम्पूर्ण अंग सुन्दर हैं। राजा विराट तुम्हारा यह दिव्य रूप देखते ही मुझे छोड़कर सम्पूर्ण चित्त से तुम्हीं में आसक्त हो जायेंगे। निर्दोष अंगों तथा चंचल एवं विशाल नेत्रों वाली सैरन्ध्री! जिस पुरुष की ओर तुम ध्यान से देख लोगी, वही काम के अधीन हो जायेगा। शुभांगि! चारुहासिनी! इसी प्रकार जो पुरुष प्रतिदिन तुम्हें देखेगा, वह भी कामदेव के वशीभूत हो जायेगा। सुभ्रु! जैसे कोई मूर्ख मनूष्य आत्महत्या के लिये (गिरने के उद्देश्य से) वृक्षों पर चढ़े, उसी प्रकार राजमहल में या अपने घर में तुम्हें रखना मेरे लिये अनिष्टकारी हो सकता है। शुचिस्मिते! जैसे केंकड़े की मादा अपनी मृत्यु के लिये ही गर्भ धारण करती है, उसी प्रकार तुम्हें इस घर में ठहराना मैं अपने लिये मरण के तुल्य मानती हूँ।

    द्रौपदी बोली ;- भामिनि! मुझे राजा विराट या दूसरा कोई पुरुष कभी नहीं पा सकता। पाँच तरुण गन्धर्व मेरे पति हैं। वे सब किसी महान् शक्तिशाली गन्धर्वराज के पुत्र हैं। वे ही मेरी रक्षा करते हैं तथा में स्वयं भी दुर्धर्ष हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) नवम अध्‍याय के श्लोक 32-37 का हिन्दी अनुवाद)

    जो मुझे जूँठा अन्न नहीं देता और मुझसे अपने पैर नहीं धुलवाता, उसके व्यवहार से मेरे पति गन्धर्व लोग प्रसन्न रहते हैं। परंतु जो पुरुष मुझे अन्य प्राकृत स्त्रियों के समान समझकर (बलपूर्वक) प्राप्त करना चाहता है, उसका उसी रात में परलोकवास हो जाता है। अतः कल्याणि! मुझे कोई भी सतीत्व से विचलित नहीं कर सकता।

     शुचिस्मिते! यद्यपि मेरे पति गन्धर्वगण इस समय दुःख में पड़े हैं; तथापि वे बड़े बलवान् हैं और गुप्त रूप से मेरी रक्षा करते रहते हैं।

    सुदेष्णा ने कहा ;- आनन्ददायिनी सुन्दरी! यदि (तुम्हारा शील स्वभाव) ऐसा है, तो मैं जैसी तुम्हारी इच्छा है, उसके अनुसार तुम्हें अवश्य अपने घर में ठहराऊँगी। तुम्हें किसी प्रकार पैर या जूँठन नहीं छूने पड़ेंगे।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- विराट की रानी ने जब इस प्रकार आश्वासन दिया, तब पातिव्रत्य धर्म का पालन करने वाली सती द्रौपदी उस नगर में रहने लगी। जनमेजय! वहाँ दूसरा कोई मनुष्य उसका वास्तविक परिचय न पा सका।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में द्रौपदी प्रवेश विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) दशम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“सहदेव का राजा विराट के साथ वार्तालाप और गौओं की देखभाल के लिये उनकी नियुक्ति”

  वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर सहदेव भी ग्वालों का परम उत्तम वेष बनाकर उन्हीं की भाषा में बोलते हुए राजा विराट के यहाँ गये। राजभवन के पास ही गोशाला थी; वहाँ पहुँचकर वे खड़े हो गये। राजा उन्हें दूर से ही देखकर आश्चर्य में पड़ गये और उनके पास कुछ लोगों को भेजा। (अपने सेवकों के बुलाने पर उनके साथ) दिव्य कान्ति से सुशोभित नरश्रेष्ठ सहदेव को राजसभा की ओर आते देख राजा विराट स्वयं उठकर उनके पास चले गये और कुरुकुल को आनन्द देने वाले सहदेव से पूछने लगे,

    राजा विराट बोले ;- ‘पुरुषप्रवर! तुम किसके पुत्र हो, कहाँ से आये हो और क्या करना चाहते हो; अतः अपना ठीक-ठीक परिचय दो’।

      शत्रुओं को संताप देने वाले राजा विराट के निकट पहुँचकर सहदेव मेघों की घनघोर घटा के समान गम्भीर स्वर में बोले,

   सहदेव बोले ;- ‘महाराज! मैं वैश्य हूँ। मेरा नाम अरिष्टनेमि है।


नृपश्रेष्ठ! मैं कुरुवंशशिरोमणि पाण्डवों के यहाँ गौओं की गणना तथा देखभाल करता हूँ। अब आपके यहाँ रहना चाहता हूँ; क्योंकि राजाओं में सिंह के समान पाण्डव कहाँ हैं? यह मैं नहीं जानता। बिना काम किये जीविका चल नहीं सकती और आपके सिवा दूसरा कोई मुझे पसंद नहीं है’।

   विराट ने कहा ;- शत्रुतापन! मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय हो। समुद्र से घिरी हुई समूची पृथ्वी के सम्राट की भाँति तुम्हारा भव्य रूप है; अतः मुझे अपना ठीक-ठीक परिचय दो। यह वैश्य कर्म (गोपालन) तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम किस राजा के राज्य से यहाँ आये हो और तुमने किस कला की शिक्षा प्रापत की है? बोलो, हमारे यहाँ कैसे सदा के लिये रह सकोगे? और यहाँ तुम्हारा वेतन क्या होगा?

    सहदेव बोले ;- राजन्! पाँचों पाण्डवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर हैं। उनके पास एक प्रकार की गौओं के आठ लाल झुंड थे और प्रत्येक झुंड में सौ-सौ गायें थीं। इनके सिवा, दूसरे प्रकार की गौओं के एक लाख झुंड तथा तीसरे प्रकार की गौओं के उनसे दुगुने अर्थात् दो लाख झुंड थे। (प्रत्येक झुंड में सौ-सौ गायें थीं) पाण्डवों की उन गौओं का मैं गणक और निरीक्षक था। वे लोग मुझे ‘तन्तिपाल’ कहा करते थे। चारों ओर दस योजन की दूरी में जितनी गौएँ हों; उनकी भूत, वर्तमान और भविष्य में जितनी संख्या थी, है और होगी, उन सबको में जानता हूँ। गौओं के सम्बन्ध में तीनों काल में होने वाली कोई ऐसी बात नहीं है, जो मुझे ज्ञात न हो। महात्मा राजा युधिष्ठिर को मेरे गुण भलीभाँति विदित थे। वे कुरुराज युधिष्ठिर सदा मेरे ऊपर सुतुष्ट रहते थे। किन-किन उपायों से गौओं की संख्या शीघ्र बढ़ जाती है और उनमें कोई रोग पैदा नहीं होता, यह सब मुझे ज्ञात है। महाराज! ये ही कलाएँ मुझमें विद्यमान हें। इनके सिवा मैं उन उत्तम लक्षणों वाले बैलों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र के सूँघ लेने मात्र से वन्ध्या स्त्री भी गर्भधारण एवं संतान उत्पन्न करने योग्य हो जाती है।

    विराट ने कहा ;- तन्तिपाल! मेरे यहाँ एक लाख पशु संग्रहीत हैं। उनमें से कुछ तो एक ही रंग के हैं और कुछ मिश्रित रंगों के। वे सब विभिन्न गुणों से संयुक्त हैं। मैं उन पशुओं और पशुपालों को आज से तुम्हारे हाथों में सौंपता हूँ। मेरे पशु अब से तुम्हारे ही अधीन रहेंगे।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इस प्रकार प्रजापालक राजा विराट से अपरिचित रहकर नरश्रेष्ठ सहदेव वहीं गोशाला में रहने लगे। दूसरे लोग भी उन्हें किसी तरह पहचान न सके। राजा ने उनके लिये उनकी इच्छा के अनुसार भरण-पोषण की व्यवस्था कर दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में सहदेव प्रवेश विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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