सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the 11 chapter to the 15 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकादशम अध्‍याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

“अर्जुन का राजा विराट से मिलना और राजा के द्वारा कन्याओं को नृत्य आदि की शिक्षा देने के लिये उनको नियुक्त करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर नगर की चहारदीवारी के पीछे जो मिट्टी का ऊँचा टीला था, उसके समीप रूप-सम्पदा से सुशोभित एक दूसरा पुरुष दिखायी दिया। उसका डील-डौल ऊँचा था। उसने स्त्रियों के लिये उचित आभूषण पहन रक्खे थे तथा कानों में बड़े-बड़े कुण्डल और हाथों में शंख की चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोने के सुन्दर कंगन धारण कर लिये थे। अपने बड़े-बड़े केशों की लटों को खोलकर हाथों तक फैलाये वह महाबाहु पुरुष उस समय हाथी के समान मस्तानी चाल से चलता और पग-पग पर मानो पृथ्वी को कँपाता हुआ राजसभा के समीप राजा विराट के पास आकर खड़ा हुआ। छद्मवेश से अपने स्वरूप को छिपाकर सभाभवन में आया हुआ वह शत्रुविजयी वीर पुरुष अपने उत्कृष्ट तेज से प्रकाशित हो रहा था। गजराज के समान बल-विक्रम वाले उस महेन्द्र पुत्र अर्जुन को देखकर राजा ने समस्त सभासदों से पूछा,

    राजा विराट बोले ;- ‘यह कहाँ से आया है? आज से पहले मैंने कभी इसके विषय में नहीं सुना है।’

     राजा के पूछने पर उन मनुष्यों में से किसी ने उस पुरुष को अपना परिचित नहीं बताया। तब राजा ने आश्चर्ययुक्त होकर यह बात कही,

    राजा बोले ;- ‘तात! तुम शक्ति और धैर्य से सम्पन्न देवोपम पुरुष हो। तुम्हारी अंगकान्ति श्याम है। तुम तरुण हो और हाथियों के यूथ के अधिपति महान् गजराज के समान शोभा पा रहे हो। तुमने हाथों में शंख की चूड़ियाँ पहनकर उनके ऊपर सोने के सुन्दर कंगन डाल लिये हैं, वेणी खोलकर केशों की लटें छितरा रही हैं तथा कानों मे कुण्डल धारण कर गले में गजरा डाल रक्खा है। तुम्हारे केश बहुत ही सुन्दर हैं। तुम नारीजनोचित वेश-भूषा धारण करके भी उसके विपरीत धनुष-बाण और कवच धारण काने वाले वीर के समान शोभा पा रहे हो। तुम रथ आदि वाहनों पर बैठकर इच्छानुसार भ्रमण करो और मेरे पुत्रों के अथवा मेरे ही समान होकर रहो। मैं बूढ़ा हो गया हूँ; अब राजकाज छोड़ना चाहता हूँ; अतः तुम सम्पूर्ण मत्स्य देश का शीघ्र ही पालन करो। तुम्हारे जैसे स्वरूप वाले किसी तरह नपुंसक नहीं हो सकते। मेरे मन को ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।

     अर्जुन बोले ;- मैं वेणी-रचना अच्छी कर सकता हूँ, मनोहर मुण्डल बनाना जानता हूँ, फूलों के हार तथा ओढ़ने की चादरें सुन्दर ढंग से बनाता हूँ, स्नान करा सकता हूँ, दर्पण की सफाई करता हूँ और चन्दन आदि से अनेक प्रकार की रेखाएँ बनाकर श्रृंगार करने की क्रिया में मुझे विशेष कुशलता प्राप्त है। नपुंसकों, बालकों एवं


साधारण लोगों में नाचने तथा संगीत एवं नृत्य की शिक्षा देने में मेरी अच्छी योग्यता है। स्त्रियों की वेणी में फूल गूँथने का कार्य भी में अच्छे ढंग से सम्पन्न करता हूँ। इन सब कार्यों में स्त्रियाँ भी मुझसे अधिक कुशल नहीं हैं।

    निकट आने पर उसका कद बहुत ऊँचा देखकर महायशस्वी राजा विराट अत्यंत विस्मित होकर बोले। 

    विराट ने कहा ;- नरदेवसिंह! ओज और बल से रहित नंपुसक का सा यह वेष तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम क्लीब होने के योग्य नहीं हो। प्रभो! तुम्हारा यह वेष भगवान् भूतनाथ की भाँति अशुभ वेष-भूषा से विभूषित है। जैसे बादलों की घटा से आच्छादित आकाश में भी अंशुमाली सूर्य का मण्डल सुशोभित होता है, उसी प्रकार इस क्लीब-वेष में भी तुम पौरुष से प्रकाशित हो रहे हो। मेरा ऐसा विश्वास है कि तुम्हारी इन मोटी और अत्यन्त विशाल भुजाओं को धनुष ही सुशोभित कर सकता है।

     अर्जुन ने कहा ;- नरदेव! मैं गाता, नाचता और बाजे बजाता हूँ। नृत्य कला में निपुण और संगीत-कला में भी कुशल हूँ। आप उत्तरा को शिक्षा देने के लिये मुझे रख लें। मैं स्वयं राजकुमारी उत्तरा को नृत्य सिखलाऊँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकादशम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

    मेरा ऐसा रूप जिस कारण से हुआ है, उसे आपके सामने कहने से क्या लाभ है? वह अधिक शोक बढ़ाने वाली बात है। राजन्! आप मुझे बृहन्नला समझें और पिता-माता से रहित पुत्र या पुत्री मान लें।

    विराट बोले ;- बृहन्नले! में तुम्हें अभीष्ट वर देता हूँ। तुम मेरी पुत्री को तथा उसके समान अवस्था वाली अन्य राजकुमारियों को नृत्य कला सिखलाओ। परंतु मुझे यह कर्म तुम्हारे योग्य नहीं जान पड़ता। तुम तो समुद्र से घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी के शासक होने योग्य हो।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर मत्स्य नरेश ने बृहन्नला की गीत, नृत्य और बाजे बजाने की कलाओं में परीक्षा करके अपने अनेक मन्त्रियों से यह सलाह ली कि इसे अन्तःपुर में रखना चाहिये या नहीं। फिर तरुणी स्त्रियों द्वारा शीघ्र ही उनके नपुंसक होने की जाँच करायी। जब सब तरह से उनका नपुंसक होना ठीक प्रमाणित हो गया, तब यह सुन-समझकर उन्होंने बृहन्नला को कन्या के अन्तःपुर में जाने की आज्ञा दी।

     शक्तिशाली अर्जुन विराटकन्या उत्तरा, उसकी सखियों तथा सेविकाओं को भी गीत, वाद्य एवं नृत्य कला की शिक्षा देने लगे। इससे वे उन सबके प्रिय हो गये। छद्मवेश में कन्याओं के साथ रहते हुए भी अर्जुन अपने मन को सदा पूर्णरूप से वश में रखते और उन सबको प्रिय लगने वाले कार्य करते थे। इस रूप में वहाँ रहते हुए अर्जुन को बाहर अथवा अन्तःपुर के कोई भी मनुष्य पहचान न सके।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में अर्जुन प्रवेश नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वादशम अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना”

       वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर अन्य पाण्डुपुत्र शक्तिशाली नकुल बड़े वेग से चलते हुए राजा विराट के यहाँ आये। उन्हें आते समय साधारण लोगों ने देखा; उस समय वे मेघमाला की


ओट से निकले हुए सूर्यमण्डल के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। आते ही उन्होंने इधर-उधर घूमकर घोड़ों को देखना प्रारम्भ किया। इस प्रकार उन अश्वों का निरीक्षण करते समय उन्हें मत्स्यराज विराट ने देखा। 

    तब नरेश वहाँ बैठे हुए अनुचरों से बोले ;- ‘पता तो लगाओ, यह देवोपम पुरुष कहाँ से आ रहा है? यब बिना कहे-सुने स्वयं मेरे घोड़ों को बहुत ध्यान से देख रहा है; अतः यह अवश्य घोड़ों को पहचानने वाला और अश्वविद्या का विद्वान् होगा। इसलिये इसे शेघ्र मेरे समीप ले आओ। यह वीर देवताओं की भाँति सुशोभित हो सहा है’।

   तत्पश्चात् राजसेवकों के साथ राजा के समीप आकर शत्रुहन्ता नकुल ने कहा,

    नकुल बोले ;- ‘राजन्! आपकी जय हो। आपका कल्याण हो। मैं घोड़ों को शिक्षा देने में निपुण हुँ और अनेक राजाओं से सम्मानित हूँ। मैं सदा आपके घोड़ों का चतुर सारथि हो सकता हूँ।'

   विराट ने कहा ;- भद्र पुरुष! मैं तुम्हें सवारी, धन और रहने के लिये घर देता हूँ। तुम मेरे घोड़ों को शिक्षा देने वाले सारथि हो सकते हो, किन्तु मैं पहले यह जानना चाहता हूँ कि तुम कहाँ से आये हो? किसके पुत्र हो और किसलिये तुम्हारा यहाँ आगमन हुआ है? तुम में जो कला-कौशल हो, उसे भी बताओ।

     नकुल बोले ;- शत्रुदमन! सुनिये, पाँचों पाँडवों में जो बड़े भ्राता युधिष्ठिर हैं, उन्होंने पहले मुझे घोड़ों की देखभात के काम पर लगा रक्खा था। मैं घोड़ों की जाति पहचानता हूँ एवं उन्हें सब प्रकार की शिक्षा देने की कला भी जानता हूँ। दुष्ट घोड़ों की दुष्टता-निवारण का ढंग भी मुझे मालूम है तथा घोड़ों की चिकित्सा भी मैं पूर्णरूप से जानता हूँ। मेरा सिखाया हुआ घोड़ा कभी कायर नहीं हो सकता। मेरी सिखायी हुई घोड़ी में भी कोई ऐब नहीं आता, फिर घोड़े तो बिगड़ ही कैसे सकते हैं? मुझे साधारण लोग तथा पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर भी 'ग्रन्थिक’ नाम से ही पुकारा करते थे। जैसे देवराज इन्द्र के सारथि मातलि हैं, जैसे राजा दशरथ के रथचालक सुमन्त्र हैं और जैसे जमदग्निनन्दन परशुराम के सूत सुमह हैं, उसी प्रकार मैं आपका सारथि होकर आपके घोड़ों को शिक्षा दूँगा। राजेन्द्र! मैं महाराज युधिष्ठिर के आदेश से उनके यहाँ लक्षकोटि के अश्वों का संरक्षक रहा हूँ।

    विराट ने कहा ;- ग्रन्थिक! मेरे पास जो भी घोड़े और अन्य वाहन हैं, वे सब आज से ही तुम्हारे अधीन हो जायें। इसके सिवा जो भी मेरे घोड़ों को जोतने वाले सारथि हैं, वे सब तुम्हारे अधिकार में रहें। देवोपम पुरुष! यदि यही कार्य तुम्हें प्रिय है, तो बताओ, इसके लिये वेतनरूप से कितना धन लेने का तुमने विचार किया है? यह घोड़ों की शिक्षा का कार्य तुम्हारे अनुरूप नहीं है। तुम तो राजा की भाँति शोभा पा रहे हो और मुझे भी अत्यन्त प्रिय लगते हो। आज मुझे तुम्हारा जो यहाँ दर्शन हुआ है, यह राजा युधिष्ठिर के दर्शन के समान मुझे अत्यन्त प्रिय है। अहो! सर्वथा प्रशंसा के योग्य पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर सेवकों के बिना वन में कैसे रहते होंगे और कैसे उनका मन वहाँ लगता होगा?

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार प्रसन्न हुए राजा विराट के द्वारा सम्मानित हो श्रेष्ठ गन्धर्व के सदृश शोभा पाने वाले युवावस्था सम्पन्न नकुल वहाँ रहने लगे। उनका स्वरूप बड़ा ही प्रिय और नयनाभिराम था। वे नगर के भीतर विचरते रहते थे, तो भी उन्हें राजा तथा अन्य मनुष्य किसी प्रकार पहचान न सके। जिनका दर्शन अमोघ है, वे पाण्डवगण इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार म्त्स्यदेश में रहने और एकाग्रतापूर्वक अज्ञातवास का समय व्यतीत करने लगे। वे सागर से घिरी हुई पृथ्वी के अधिपति होकर भी अत्यन्त कष्ट उठा रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में नकुल प्रवेश विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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विराट पर्व (समयपालन पर्व)

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयोदशम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन के द्वारा जीमूत नामक विश्वविख्यात मल्ल का वध”

    जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्त रूप से निवास करने वाले महापराक्रमी पाण्डुपुत्रों ने इसके बाद क्या किया?

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्त रूप से निवास करने वाले पाण्डवों ने राजा विराट की सेवा करते हुए जो-जो कार्य किया, वह सुनो।

     राजर्षि तृणबिन्दु और महात्मा धर्म के प्रसाद से पाण्डव लोग इस प्रकार विराट के नगर में अज्ञातवास के दिन पूरे करने लगे। महाराज युधिष्ठिर राजसभा के प्रमुख सदस्य और मत्स्यदेश की प्रजा के अत्यन्त प्रिय थे। राजन्! इसी प्रकार पुत्र सहित राजा विराट का भी उन पर विशेष प्रेम था। वे पासों का मर्म जानते थे। जैसे कोई सूत में बाँधे हुए पक्षियों को इच्छानुसार उड़ावे, उसी प्रकार वे द्यूतशाला में पासों को अपने इच्छानुसार फेंकते हुए राजा आदि को जूआ खेलाया करते थे। पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर जूए में धन जीतकर अपने भाइयों को यथावत बाँट देते थे। इसका राजा विराट को भी पता नहीं लगता था। भीमसेन भी नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, जो मत्स्यनरेश द्वारा उन्हें पुरस्कार रूप में प्राप्त होते, बेच देते और उससे मिला हुआ धन युधिष्ठिर की सेवा में अर्पित करते थे।

     अर्जुन को अन्तःपुर में जो पुराने उतारे हुए बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होते, उन्हें वे बेचते और बेचने से मिला हुआ मूल्य सब पाण्डवों को देते थे। पाण्डुनन्दन सहदेव भी ग्वालों का वेश धारणकर पाण्डवों को दही, दूध और घी दिया करते थे। नकुल भी घोड़ों के शिक्षा का कार्य करके महाराज विराट के संतुष्ट होने पर उनसे पुरस्कार स्वरूप जो धन पाते, उसे सब पाण्डवों को बाँट दिया करते थे। तपस्विनी एवं सुन्दरी द्रौपदी भी उन सब पतियों की देखभाल करती हुई ऐसा बर्ताव करती, जिससे फिर कोई उसे पहचान न सके। इस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग करते हुए वे महारथी पाण्डव विराट नगर में बहुत छिपकर रहते थे; मानो पुनः माता के गर्भ में निवास कर रहे हों। राजन्! दुर्योधन द्वारा पहचान लिये जाने के भय से पाण्डव सदा सशंक रहते थे; अतः वे उस समय द्रौपदी की देखभाल करते हुए भी छिपकर ही वहाँ निवास करते थे। तदनन्तर चौथा महीना प्रारम्भ होने पर मत्स्यदेश में ब्रह्माजी की पूजा का महान् उत्सव मनाया जाने लगा। इसमें बड़ा समारोह होता था। मत्स्यदेश के लोगों को यह बहुत प्रिय था।

     जनमेजय! उस समय विराट नगर में चारों दिशाओं से हजारों कुश्ती लड़ने वाले मल्ल जुटने लगे। इसी अवसर पर ब्रह्माजी और भगवान शंकर की सभा के समान उस राजधानी में लोगों का जमाव होता था। वहाँ आये हुए विशालकाय और महान् बलशाली मल्ल कालखंज नामक असुरों के समान जान पड़ते थे। वे सब अपनी शक्ति और पराक्रम के मद से उन्मत्त थे एवं बल में बहुत बढ़े-चढ़े थे। राजा विराट ने उन सबका खूब स्वागत सत्कार किया। उनके कंधे, कमर और कण्ठ सिंह के समान थे। वे निर्मल यश से सुशोभित और मनस्वी थे। उन्होंने अनेक बार राजा के समीप रंगभूमि (अखाड़े) में विजय पायी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयोदशमोऽध्याय के श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद)

     उन सब में एक बहुत बड़ा पहलवान था, जो दूसरे सब पहलवानों को अपने साथ लड़ने के लिये ललकारता था। जब वह अखाड़े में उतरकर उछलने लगा, उस समय कोई भी उसके समीप खड़ा न हो सका। जब वे सभी मल्ल उदासीन हो हिम्मत हार बैठे, तब मत्स्यनरेश ने रसोइये से उस पहलवान को लड़ाने का निश्चय किया। उस समय राजा से प्रेरित होने पर भीमसेन ने (पहचाने जाने के भय से) दु:खी होकर ही उससे लड़ने का विचार किया। वे राजा की बात को प्रकट रूप में टाल नहीं सकते थे।

    तदनन्तर पुरुषसिंह भीम ने सिंह के समान धीमी चाल से चलते हुए राजा विराट का मान रखने के लिये उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। फिर लोगों में हर्ष का संचार करते हुए उन्होंने लँगोट बाँधा और उस प्रसिद्ध पराक्रमी जीमूत नामक मल्ल को, जो वृत्रासुर के समान दिखायी देता था, युद्ध के लिये ललकारा। वे दोनों बड़े उत्साह में भरे थे। दोनों ही प्रचण्ड पराक्रमी थे, ऐसा लगता था मानो साठ वर्ष के दो मतवाले एवं विशालकाय गजराज एक-दूसरे से भिड़ने को उद्यत हों। अत्यन्त हर्ष में भरकर एक-दूसरे को जीत लेने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर बाहुयुद्ध करने लगे। उस समय उन दोनों में बड़ी भयंकर भिड़न्त हुई। उनके परस्पर के आघात से इस प्रकार चटचट शब्द होने लगा, मानो वज्र और पर्वत एक-दूसरे से टकरा गये हों। दोनों अत्यन्त प्रसन्न थे। बल की दृष्टि से दोनों ही अत्यन्त बलशाली थे और एक-दूसरे पर चोट करने का अवसर देखते हुए विजय के अभिलाषी हो रहे थे। दोनों में भरपूर हर्ष और उत्साह भरा था। दोनों ही मतवाले गजराजों की भाँति एक-दूसरे से भिड़े हुए थे। जब एक दूसरे का कोई अंग जोर से दबाता, तब दूसरा फौरन उसका प्रतिकार करता। उस अंग को उसकी पकड़ से छुड़ा लेता था। दोनों एक-दूसरे के हाथों को मुट्ठी से पकड़कर विवश कर देते और विचित्र ढंग से परस्पर प्रहार करते थे। दोनों आपस में गुँथ जाते और फिर धक्के देकर एक-दूसरे को दूर हटा देते।

    कभी एक-दूसरे को पटककर जमीन पर रगड़ता, तो दूसरा नीचे से ही कुलाँचकर ऊपर वाले को दूर फेंक देता था। उसे लिये-दिये खड़ा हो अपने शरीर को दबाकर उसके अंगों को भी मथ डालता था। कभी दोनों दोनों को बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कों से एक-दूसरे की छाती पर चोट करते थे। कभी एक को दूसरा अपने कंधे पर उठा लेता और उसका मुँह नीचे करके घुमाकर पटक देता था, जिससे ऐसा शब्द होता; मानो किसी शूकर ने चोट की हो। कभी परस्पर तर्जनी और अंगूठे के मध्य भाग को फैलाकर चाँटों की मार होती और कभी हाथ की अंगुलियों को फैलाकर वे एक-दूसरे को थप्पड़ मारते थे। कभी वे रोषपूर्वक अंगुलियों के नखों से एक-दूसरे को बकोटते। कभी पैरों से उलझाकर दोनों दोनो को गिरा देते। कभी घुटने और सिर से टक्कर मारते; जिससे पत्थर टकराने के समान भयंकर शब्द होता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयोदशमोऽध्याय के श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद)

    कभी वे प्रतिपक्षी को गोद में घसीट लाते, कभी खेल में ही उसे सामने खींच लेते, कभी आगे-पीछे, कभी दायें-बायें पैंतरे बदलते और कभी सहसा पीछे ढकेलकर पटक देते थे। इस तरह दोनों दोनों को अपनी ओर खींचते और घुटनों से एक-दूसरे पर प्रहार करते थे। उस सामूहिक उत्सव में पहलवानों और जनसमुदाय के निकट उन दोनों में केवल बाहुबल, शारीरिक बल तथा प्राणबल से किसी अस्त्र-शस्त्र के बिना बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।

    राजन्! इन्द्र और वृत्रासुर के समान भीम और जीमूत के उस मल्लयुद्ध में सब लोगों को बड़ा मनोरंजन हुआ। सभी दर्शक जीतने वाले का उत्साह बढ़ाने के लिये जोर-जोर से हर्षनाद कर उठते थे। तदनन्तर चौड़ी छाती और लंबी भुजा वाले, कुश्ती के दाँव-पेंच में कुशल वे दोनों वीर गम्भीर गर्जना के साथ एक-दूसरे को डाँट बताते हुए लोहे के परिघ (माटे डंडे) जैसी बाँहें मिलाकर परस्पर भिड़ गये। फिर विपुलपराक्रमी शत्रुहन्ता महाबाहु भीमसेन ने गर्जना करते हुए, जैसे सिंह हाथी पर झपटे, उसी प्रकार झपटकर जीमूत को दोनों हाथों


से पकड़कर खींचा और ऊपर उठाकर उसे घुमाना आरम्भ किया। यह देख वहाँ आये हुए पहलवानों तथा मत्स्यदेश की प्रजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। सौ बार घुमाने पर जब वह धैर्य, साहस और चेतना से भी हाथ धो बैठा, तब बड़ी-बड़ी बाहुओं वाले वृकोदर ने उसे पृथ्वी पर गिराकर मसल डाला। इस प्रकार उस लोकविख्यात वीर जीमूत के मारे जाने पर राजा विराट को अपने बन्धु-बान्धवों के साथ बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय कुबेर के समान महामनस्वी राजा विराट ने अत्यन्त हर्ष में भरकर बल्लव को उस विशाल रंगभूमि में ही बहुत धन दिया।

    इसी तरह बहुत-से पहलवानों और महाबली पुरुषों को मारकर भीमसेन ने मत्स्यनरेश विराट का उत्तम प्रेम प्राप्त किया। जब वहाँ उनकी जोड़ का कोई पहलवान नहीं रह गया, तब विराट उन्हें व्याघ्रों, सिंहों और हाथियों से लड़ाने लगे। कभी-कभी विराट की प्रेरणा से स्त्रियों के अन्तःपुर में जाकर भीमसेन उन्हें दिखाने के लिये महान् बलवान् और मतवाले सिंहों से लड़ा करते थे। पाण्डुनन्दन अर्जुन ने भी अपने गीत और नृत्य से राजा विराट तथा अन्तःपुर की सम्पूर्ण स्त्रियों को संतुष्ट कर लिया था।

     इसी प्रकार नकुल ने जहाँ-तहाँ आये हुए वेगवान् घोड़ों को सुशिक्षित करके नृपश्रेष्ठ विराट को प्रसन्न किया था। प्रसन्न होकर राजा ने पुरस्कार के रूप में बहुत-सा धन दिया था। इसी तरह सहदेव के द्वारा शिक्षित एवं विनीत किये हुए बैलों को देखकर नरश्रेष्ठ विराट ने उन्हें भी इनाम में बहुत धन दिया। राजन्! अपने सम्पूर्ण महारथी पतियों को इस प्रकार क्लेश उठाते देख द्रौपदी के मन में खेद होता था और वह लंबी साँसें भरती रहती थी। इस प्रकार वे पुरुषशिरोमणि पाण्डव उस समय राजा विराट के भिन्न-भिन्न कार्य संभालते हुए वहाँ छिपकर रहते थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत समयपालनपर्व में जीमूतवध सम्बन्धी तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (किचकवध पर्व)

चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्दशम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“कीचक का द्रौपदी पर आसक्त हो उससे प्रणय याचना करना और द्रौपदी का उसे फटकारना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय कुन्ती के उन महारथी पुत्रों को मत्स्यराज के नगर में छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन्! यज्ञसेनकुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा योग्य थी, रानी सुदेष्णा की शुश्रूषा करती हुई बड़े कष्ट से वहाँ रहती थी। सुदेष्णा के महल में पूर्वोक्तरूप से सेवा करती हुई पांचाली ने महारानी तथा अनतःपुर की अन्य स्त्रियों को पूर्ण प्रसन्न कर लिया। जब वह वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तब की बात है; एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा।

    राजमहल में देवांगना की भाँति विचरती हुई देवकन्या के समान कान्ति वाली द्रौपदी को देखकर कीचक कामबाण से अत्यन्त पीड़ित हो उसे चाहने लगा। कामवासना की आग में जलता हुआ सेनापति कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णा के पास गया और हँसता हुआ सा उससे इस प्रकार बोला,

    कीचक बोला ;- ‘सुदेष्णे! यह सुन्दरी जो अपने रूप से मुझे अत्यन्त उन्मत्त-सा किये देती है, पहले कभी राजा विराट के इस महल में मेरे द्वारा नहीं देखी गयी थी। यह भामिनी अपनी दिव्य गंध से मेरे लिये मदिरा सी मादक हो रही है। शुभे! यह कौन है, इसका रूप देवांगना के समान है। यह मेरे हृदय में समा गयी है। शोभने! मुझे बताओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँ से आयी है? यह मेरे मन को मथकर मुझे वश में किये लेती है। मेरे इस रोग की औषधि इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई नहीं जान पड़ती। अहो! बड़े आश्चर्य की बात है कि यह सुन्दरी तुम्हारे यहाँ दासी का काम कर रही है। मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुम्हारे यहाँ जो काम यह करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गुहस्वामिनी होकर मुझ पर और मेरे पास जो कुछ है, उस पर भी एकछत्र शासन करे। मेरे घर में बहुत-से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत-से सेवा करने वाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेय की उसमें अधिकता है। देखने में भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवन में चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’।

    तदनन्तर रानी सुदेष्णा की सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वन में कोई सियार किसी सिंह की कन्या को फुसला रहा हो। (उसने द्रौपदी से पूछा) 

     कीचक बोला ;- कल्याणि! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो? अथवा सुमुखि! तुम कहाँ से इस विराट नगर में आयी हो? शोभने! ये सब बातें मुझे सच-सच बताओ। तुम्हारा यह श्रेष्ठ और सुन्दर रूप, यह दिव्य कान्ति और यह सुकुमारता संसार में सबसे उत्तम है और तुम्हारा निर्मल मुख तो अपनी छवि से निष्कलंक चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहा है। सुन्दर भौहों वाली सर्वांगसुन्दरी! तुम्हारे ये उत्तम और विशाल नेत्र कमलदल के समान सुशोभित हैं। तुम्हारी वाणी क्या है; कोकिल की कूक है। सुश्रोणि! अनिन्दिते! जैसी तुम हो, ऐसे मनोहर रूप वाली कोई दूसरी स्त्री इस पृथ्वी पर मैंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्दशम अध्याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘सुमध्यमे! तुम कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी हो अथवा साकार विभूति? सुमुखि! लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति-इन देवियों में से तुम कौन हो? क्या तुम कामदेव के अंगों से क्रीड़ा करने वाली अतिशय रूपवती रति हो? सुभ्रु! तुम चन्द्रमा की परम उत्तम प्रभा के समान अत्यन्त उद्भासित हो रही हो। तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मी से अलंकृत है, तुम्हारे नेत्रों की अधखुली पलकें चाँदनी के समान मन को आह्लादित करने वाली हैं। दिव्य रश्मियों से आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छवि के द्वारा मन को रमा लेने वाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत् में कौन ऐसा पुरुष है, जो काम के अधीन न हो जाये? तुम्हारे दोनों स्तन हार आदि आभूषणों के योग्य और परम सुन्दर हैं। वे ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं। सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुस्कान वाली सुन्दरी! कमलकोश के समान आकार वाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेव के चाबुक की भाँति मुझे पीड़ा दे रहे हैं।

    तनुमध्यमे! तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथों के अग्रभाग से (अंगूठे से लेकर तर्जनी तक के बित्ते से) माप ली जा सकती है। वह त्रिवली की तीन रेखाओं से परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनों के भार ने उसे कुछ झुका दिया है। भामिनी! नदी के दो किनारों के समान तुम्हारे मनोहर जघन को देख लेने से ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ जैसे वीर पर भी आक्रमण कर रहा है। निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानल की भाँति मेरे हृदयरूपी वन में जल उठा है। तुम्हारे समागम का संकल्प इसमें घी का काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है। वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघ से आत्मसमर्पणरूपी वर्षा द्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्नि को बुझा दो। चन्द्रमुखी! मेरे मन को उन्मत्त बना देने वाले कामदेव के बाण-समूह तुम्हारे समागम आशारूपी शान पर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं। कजरारे नयन प्रान्तों वाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए काम के वे प्रचण्ड एवं भयंकर बाण दयाशून्य हो वेग से आकर मेरे इस हृदय को विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपातजनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं।

     वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हैं। अब तुम्हीं आत्मदानजनित सम्भोगरूप औषध के द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो। विलासिते! विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणों से विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोग का सेवन करो। यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र हैं। अतः तुम ऐसे स्थान में निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगने के योग्य हो, किंतु यहाँ सुख से वंचित हो। मस्ती भरी चाल से चलने वाली सैरन्ध्री! तुम मुझसे सर्वोत्तम सुखभोग प्राप्त करो। अमृत के समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँति के पेय रसों का पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो। महाभागे! नाना प्रकार की भोग-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगों के साथ पीने योग्य रसों का आस्वादन करो। अनघे! तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप सौन्दर्य आज की परिस्थितियों में केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनी! जैसे उत्तम हार को यदि किसी ने गले में धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरी! तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसी के गले का हार न बन सकने के कारण सुशोभित नहीं होती हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्दशम अध्याय के श्लोक 33-40 का हिन्दी अनुवाद)

    चारुहासिनी! यदि तुम चाहो तो मैं पहली स्त्रियों को त्याग दूँगा अथवा वे सब तुम्हारी दासी बनकर रहेंगी। सुन्दरि! सुमुखि! मैं स्वयं भी दासी की भाँति सदा तुम्हारे अधीन रहूँगा’।

   द्रौपदी ने कहा ;- सूतपुत्र! तुम मुझे चाहते हो। छिः छिः; मुझसे इस तरह की याचना करना तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है। एक तो मेरी जाति छोटी है, दूसरे मैं सैरन्ध्री (दासी) हूँ, वीभत्स वेष वाली स्त्री हूँ तथा केश सँवारने का काम करने वाली एक तुच्छ सेविका हूँ। बुद्धिमान पुरुष अपनी पत्नी को ही अनुकूल बनाये रखने के लिये उत्तम यत्न करता है। अपनी स्त्री में अनुराग रखने वाला मनुष्य शीघ्र ही कल्याण का भागी होता है। मनुष्य को चाहिये कि वह पाप में लिप्त न हो, अपयश का पात्र न बने, अपनी ही पत्नी के प्रति अनुराग रखना परम धर्म है। वह मृत पुरुष के लिये भी कल्याणकारी होता है, इसमें संशय नहीं है। अपनी जाति की स्त्रियाँ मनुष्य के लिये इहलोक और परलोक में भी हितकारिणी होती हैं। वे प्रेतकार्य (अन्त्येष्टि-संस्कार) करती और जलांजलि देकर मृतात्मा को तृप्त करती हैं। उनके इस कार्य को मनीषी पुरुषों ने अक्षय, धर्मसंगत एवं स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला बताया है।

     अपनी जाति की स्त्री से उत्पन्न हुए पुरुष कुल में सम्मानित होते हैं। सभी प्राणियों को अपनी ही पत्नी प्यारी होती है। इसलिये तुम भी ऐसा करके धर्म के भागी बनो। परस्त्री लम्पट पुरुष कभी कल्याण नहीं देखता। सबसे बड़ी बात यह है कि मैं दूसरे की पत्नी हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। इस समय मुझसे इस तरह की बातें करना तुम्हारे लिये किसी तरह उचित नहीं है। जगत् के सब प्राणियों के लिये अपनी ही स्त्री प्रिय होती है। तुम धर्म का विचार करो। परायी स्त्री में तुम्हें कभी किसी तरह भी मन नहीं लगाना चाहिये। न करने योग्य अनुचित कर्मों को सर्वथा त्याग दिया जाये, यही श्रेष्ठ पुरुषों का व्रत है। झूठे विषयों में आसक्त होने वाला पापात्मा मनुष्य मोह में पड़कर भयंकर अपयश पाता है अथवा उसे बड़े भारी भय (मृत्यु) का सामना करना पड़ता है।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सैरन्ध्री के इस प्रकार समझाने पर भी कीचक को होश न हुआ। वह काम से मोहित हो रहा था। यद्यपि उस दुर्बुद्धि को यह मालूम था कि परायी स्त्री के स्पर्श से बहुत-से ऐसे दोष प्रकट हो जाते हैं, जिसकी सब लोग निन्दा करते हैं तथा जिनके कारण प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता है; तो भी उस अजितेन्द्रिय तथा अत्यन्त दुर्बुद्धि ने द्रौपदी से इस प्रकार कहा,

    कीचक बोला ;- ‘वरारोहे! सुमुखि! तुम्हें इस प्रकार मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरानी चाहिये। चारुहासिनी! मैं तुम्हारे लिये कामवेदना से पीड़ित हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्दशम अध्याय के श्लोक 41-49 का हिन्दी अनुवाद)

   भीरु! मैं तुम्हारे वश में हूँ और प्रिय वचन बोलता हूँ। कजरारे नयनों वाली सैरन्ध्री! मुझे ठुकराकर तुम निश्चय ही पश्चाताप करोगी। सुभ्रू! सुमध्यमे! मैं इस सम्पूर्ण राज्य का स्वामी और इसे बसाने वाला हूँ। बल और पराक्रम में इस पृथ्वी पर मेरी समानता करने वाला कोई नहीं है। रूप, यौवन, सौभाग्य और सर्वोत्तम शुभ भोगों की दृष्टि से इस भूतल पर मेरी समानता करने वाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है।

     ‘कल्याणि! जब सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न अनुपम भोग यहाँ भोगने के लिये तुम्हें सुलभ हो रहे हैं, तब तुम दासीपन में क्यों आसक्त हो? शुभानने! मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हें अर्पित कर दिया। अब तुम्हीं इसकी स्वामिनी हो। वरारोहे! मुझे अपना लो और मेरे साथ उत्तमोत्तम भोगों का भोग करो’।

    कीचक के इस प्रकार अशुभ (पापपूर्ण) वचन कहने पर सती-साध्वी द्रौपदी ने उसकी उन ओछी बातों की निन्दा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया।

    सैरन्ध्री बोली ;- सुतपुत्र! तू आज इस प्रकार मोह के फंदे में न


पड़। अपनी जान न गँवा। तुझे मालूम होना चाहिये कि पाँच भयंकर गंधर्व मेरी नित्य रक्षा करते हैं। वे गन्धर्व ही मेरे पति हैं। तू कदापि मुझे पा नहीं सकता। मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे; अतः सँभल जा। इस पापबुद्धि का त्याग कर दे। अपना सर्वनाश न करा।

    अरे! तू उस राह पर जाना चाहता है, जहाँ दूसरे पुरुष नहीं जा सकते। जैसे नदी के एक किनारे पर बैठा हुआ कोई मन्दबुद्धि अचेत बालक दूसरे किनारे पर तैरकर जाना चाहता हो, वैसा ही विनाशकारी कार्य तू भी करना चाहता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्दशम अध्याय के श्लोक 50-52 का हिन्दी अनुवाद)

      सूतपुत्र! मुझ पर कुदृष्टि डालकर पृथ्वी के भीतर (पाताल में) घुस जा, आकाश में उड़ जा अथवा समुद्र के उस पार भाग जा, तथापि मेरे पतियों के हाथ से तू छूट नहीं सकता; क्योंकि मेरे पति देवताओं के पुत्र तथा आकाश में विचरने वाले हैं। वे अपने शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते हैं।

     सूतपुत्र! तू मेरा अपमान कर रहा है; अतः पुत्रों मथा बंधु-बान्धवों सहित तू आज ही शीघ्र नष्ट हो जायेगा। तेरे विनाश में अब विलम्ब नहीं है। मैं वीर गन्धर्वों द्वारा सुरक्षित होने के कारण तेरे लिये सर्वथा दुर्लभ हूँ। मेरा अपमान करने से शीघ्र ही विवशतापूर्वक तेरा उसी प्रकार पतन होगा, जैसे ताड़ का फल अपने मूल स्थान से नीचे गिरता है। तू मुझे नहीं जानता, इसीलिये कामातुर होकर बहकी-बहकी बातें कर रहा है। परंतु कोई असमर्थ पुरुष कितना ही प्रयत्न करे, वह पर्वत को नहीं लाँघ सकता। चाहे कोई सम्पूर्ण दिशाओं की शरण लेता फिरे, पर्वत की बड़ी-बड़ी कन्दराओं अथवा दुर्गम गुफाओं में छिप जाये या पृथ्वी के अंदर ही रहने लगे, होम और जप में संलग्न रहे, पर्वत के शिखर से कूद पड़े, जलती आग अथवा सूर्य की प्रचण्ड रश्मियों की शरण ले तो भी महात्मा गन्धर्वों की पत्नी का अपमान करने वाला पुरुष कभी किसी तरह भी उनके हाथ से जीवित नहीं बच सकता।

    तेरी ये बातें व्यर्थ होंगी। तेरे लिये मुझे पाना किसी महान् पर्वत को तराजू पर तौलने के समान महान् असम्भव है। गर्मी की दोपहरी में जब किसी महान् वन के भीतर प्रचण्ड दावानल धधक चुका हो, उस समय उसमें स्वयं ही घुसने वाले किसी आतुर पुरुष की भाँति तू भी अपने और समस्त कुल के विनाश के लिये ही वहाँ प्रवेश करना चाहता है। मैं यहाँ अपने स्वरूप को छिपाकर रहती हूँ। फिर भी तू मन से समझ-बूझकर मेरा अपमान करना चाहता है। किंतु याद रख, तू ऐसा करके यदि अपना जीवन बचाने के लिये देवताओं, गन्धर्वों और महर्षियों के निकट चला जाये अथवा नागलोक, असुरलोक तथा राक्षसों के निवास स्थान भी पहुँच जाये, तो भी तू वहाँ शरण नहीं पा सकेगा।

    कीचक! जैसे कोई रोगी कालरात्रि का आवाहन करे, उसी प्रकार मुझे प्राप्त करने के लिये तू क्यों आज दुराग्रहपूर्ण प्रार्थना कर रहा है? अरे! जैसे माता की गोद में सोया हुआ शिशु चन्द्रमा को ग्रहण करना चाहे, क्या तू उसी प्रकार मुझे पाना चाहता है? कीचक! उन गन्धर्वों की प्रियतमा से ऐसी समुचित प्रार्थना करके पृथ्वी अथवा आकाश में भाग जाने पर भी तुझे कोई शरण देने वाला नहीं मिलेगा। (तू इतना कामान्ध हो गया है कि) तुझे वह शुभ दृष्टि-वह बुद्धि नहीं प्राप्त होगी, जो तेरी मंगलकामना करे-जिससे तेरा जीवन सुरक्षित रह सके।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में कीचक-द्रौपदी संवाद विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

पंद्रहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चदशम अध्याय के श्लोक 1-4 का हिन्दी अनुवाद)

“रानी सुदेष्णा का द्रौपदी को कीचक के घर भेजना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजकुमारी द्रौपदी के द्वारा इस प्रकार ठुकरा दिये जाने पर कीचक असीम एवं भयंकर काम से विवश होकर अपनी बहिन सुदेष्णा से बोला,
    कीचक बोला ;- ‘केकयराजनन्दिनी! जिस उपाय से भी वह गजगामिनी सैरन्ध्री मेरे पास आवे और मुझे अंगीकार कर ले, वह करो। सुदेष्णे! तुम स्वयं ही ऊहापोह करके युक्ति से वह उचित उपाय ढूंढ निकालो, जिससे मुझे (मोह के वश हो) प्राणों का त्याग न करना पड़े’।
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार बारंबार विलाप करते हुए कीचक की बात सुनकर उस समय राजा विराट की मनस्विनी महारानी सुदेष्णा के मन में उसके प्रति दयाभाव प्रकट हो गया। 
    सुदेष्णा बोली ;- भाई! यह सुन्दरी सैरन्ध्री मेरी शरण में आयी है। इसे मैंने अभय दे रक्खा है। तुम्हारा कल्याण हो। यह बड़ी सदाचारिणी है। मैं इससे तुम्हारी मनोगत बात नहीं कह सकती। इसे कोई भी दूसरा पुरुष मन से दूषित भाव लेकर नहीं छू सकता। सुनती हूँ, पाँच गन्धर्व इसकी रक्षा करते हैं और इसे सुख पहुँचाते हैं। इसने यह बात मुझसे उसी समय जबकि मेरी इससे पहले पहल भेंट हुई थी, बता दी थी। इसी प्रकार हाथी की सूँड़ के समान जाँघों वाली इस सुन्दरी ने मेरे निकट यह सत्य ही कहा है कि यदि किसी ने मेरा अपमान किया, तो मेरे महात्मा पति कुपित होकर उसके जीवन को ही नष्ट कर देंगे। राजा भी इसे यहाँ देखकर मोहित हो गये थे, तब मैंने इसकी कही हुई सच्ची बातें बताकर उन्हें किसी प्रकार समझा बुझाकर शान्त किया। तबसे वे भी सदा इसे देखकर मन-ही-मन इसका अभिनन्दन करते हैं। जीवन का विनाश करने वाले उन श्रेष्ठ गन्धर्वों के भय से महाराज कभी मन से भी इसका चिन्तन नहीं करते हैं। वे महात्मा गन्धर्व गरुड़ और वायु के समान तेजस्वी हैं। वे कुपित होने पर प्रलयकाल के सूर्यों की भाँति तीनों लोकों को दग्ध कर सकते हैं। सैरन्ध्री ने स्वयं ही मुझसे उनके महान् बल का परिचय दिया है। भ्रातृस्नेह के कारण मैंने तुमसे यह गोपनीय बात भी बता दी है। इसे ध्यान में रखने से तुम अत्यन्त दुःखदायिनी संकटपूर्ण स्थिति में नहीं पड़ोगे। गन्धर्व लोग बलवान् हैं। वे तुम्हारे कुल और सम्पत्ति का भी नाश कर सकते हैं। इसलिये यदि तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं और यदि तुम मेरा भी प्रिय चाहते हो, तो इस सैरन्ध्री में मन न लगाओ। उसका चिन्तन छोड़ दो और उसके पास भी न जाओ।
    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! सुदेष्णा के ऐसा कहने पर दुष्टात्मा कीचक अपनी बहिन से बोला। 
    कीचक ने कहा ;- बहिन! मैं सैकड़ों, सहस्रों तथा अयुत गन्धर्वों को अकेला ही मार गिराऊँगा, फिर पाँच की तो बात ही क्या है?
     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कीचक के ऐसा कहने पर सुदेष्णा शोक से अत्यन्त व्यथित हो उठी और मन-ही-मन कहने लगी- ‘अहो! यह महान् दुःख, महान् संकट और महान् पाप की बात हो रही है।' इस कर्म के भावी परिणाम पर दृष्टिपात करके वह अत्यन्त दुःख से आतुर हो रोने लगी और मन-ही-मन बोली,
    सुदेष्णा बोली (मन ही मन) ;- ‘मेरा यह भाई तो ऊटपटाँग बातें बोलकर स्वयं ही पाताल अथवा बड़वानल के मुख में गिर रहा है’। (तत्पश्चात् वह कीचक को सुनाकर कहने लगी-) 
   सुदेष्णा बोली ;- ‘मैं देखती हूँ; मेरे कारण मेरे सभी भाई और सुहृद नष्ट हो जायेंगे। तू ऐसी अनुचित इच्छा को अपने मन में स्थान दे रहा है; मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ? अपनी भलाई किस बात में है, यह तू नहीं समझता है और केवल काम का ही गुलाम हो रहा है। पापी! निश्चय ही तेरी आयु समाप्त हो गयी है, तभी तू इस प्रकार काम से मोहित हो रहा है। नराधम! तू मुझे ऐसे पापपूर्ण कार्य में लगा रहा है, जो कदापि करने योग्य नहीं है। प्राचीन काल के श्रेष्ठ एवं कुशल मनुष्यों ने यह ठीक ही कहा है कि कुल में एक मनुष्य पाप करता है और उसके कारण सभी जाति-भाई मारे जाते हैं। तू यमराज के लोक में गया हुआ ही है, इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं रह गया है। तू अपने साथ इस समस्त निरपराध स्वजनों को भी मरवा डालेगा। मेरे लिये सबसे महान् दुःख की बात यह है कि में सारे परिणामों को समझ बूझकर भी भ्रातृस्नेह के कारण तेरी आज्ञा का पालन करूँगी। तू अपने कुल का संहार करके संतुष्ट हो ले’।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चदशम अध्याय के श्लोक 5-16 का हिन्दी अनुवाद)

    तदनन्तर सुदेष्णा ने अपने कार्य का विचार करके कीचक के मनोभाव पर ध्यान दिया और फिर उसे द्रौपदी की प्राप्ति कराने के लिये उचित उपाय का निश्चय करके उसने सूत से कहा,
     सुदेष्णा बोली ;- कीचक! तुम किसी पर्व या त्यौहार के दिन अपने घर में मदिरा तथा अन्न-भोजन की सामग्री तैयार कराओ। फिर मैं इस सैरन्ध्री को वहाँ से सुरा ले आने के बहाने तुम्हारे पास भेजूँगी। वहाँ भेजी हुई इस सेविका को एकान्त में, जहाँ कोइ विघ्न-बाघा न हो, अपनी इच्छा के अनुसार समझाना-बुझाना। सम्भव है, तुम्हारी सान्त्वना मिलने पर यह रमण करने के लिये उद्यत हो जाये’।
      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! बहिन के वचन से इस प्रकार आश्वासन मिलने पर कीचक उस समय वहाँ से चला गया और घर जाकर उसने यथासम्भव चतुर रसोइयों के द्वारा राजाओं के उपयोग में आने योग्य उत्तम एवं परिष्कृत मदिरा मँगवायी और भाँति-भाँति के अनेक विशिष्ट और साधारण भक्ष्य पदार्थ एवं परम उत्तम अन्न-पान की तैयारी करायी। उसकी व्यवस्था हो जाने पर कीचक ने सुदेष्णा को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। मूढ़ात्मा कीचक कण्ठ में कालपाश से बँधे हुए पशु की भाँति अपने निकट आयी हुई मृत्यु को नहीं जान पाता था। वह द्रौपदी को पाने के लिये उतावला हो रहा था।
     कीचक बोला ;- सुदेष्णे! मैंने नाना प्रकार की मीठी मदिरा मँगा ली है और विविध प्रकार की रसोई भी तैयार कर ली है। अब तुम सैरन्ध्री से कह दो, जिससे वह मेरे घर में पधारे। किसी काम के बहाने उसे जल्दी मेरे यहाँ भेजो। मेरा प्रिय कार्य सिद्ध करने में शीघ्रता करो। मैं भगवान शंकर की शरण लेकर यह प्रार्थना करता हूँ कि प्रभो! मुझे सैरन्ध्री से मिला दो अथवा मृत्यु प्रदान करो।
      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! 
तब सुदेष्णा लंबी साँस खींचकर बोली ;- ‘तुम अपने घर लौट जाओ। मैं सैरन्ध्री को शीघ्र ही वहाँ से मदिरा ले आने के लिये आज्ञा देती हूँ’। उसके ऐसा कहने पर सैरन्ध्री का चिन्तन करता हुआ पापात्मा कीचक फिर तुरंत ही अपने घर को लौट गयो। तब सुदेष्णा ने सैरन्ध्री को कीचक के घर जाने के लिये कहा। 
     सुदेष्णा ने कहा ;- सैरन्ध्री! उठो और कीचक के घर जाओ। कल्याणी! मुझे प्यास विशेष कष्ट दे रही है; अतः वहाँ से मेरे पीने योग्य रस ले आओ।
     सैरन्ध्री ने कहा ;- राजकुमारी! मैं उसके घर नहीं जा सकती। महारानी! आप तो जानती ही हैं कि वह कैसा निर्लज्ज है। निर्दोष अंगों वाली देवि! मैं आपके महल में अपने पतियों की दृष्टि में व्यभिचारिणी और स्वेच्छाचारिणी होकर नहीं रहूँगी। भामिनी! देवि! पहले आपके इस राजभवन में प्रवेश करते समय मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे भी आप जानती ही हैं। कमनीय केशों वाली सुन्दरी! मूर्ख कीचक तो काममद से उन्मत्त हो रहा है। वह मुझे देखते ही अपमानित कर बैठेगा। इसलिये मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। राजपुत्री! आपके अधीन तो और भी बहुत-सी दासियाँ हैं; उन्हीं में से किसी दूसरी को भेज दीजिये। आपका कल्याण हो। मेरे जाने से कीचक मेरा अपमान करेगा।
    सुदेष्णा बोली ;- शुभे! मैंने तुम्हें यहाँ से भेजा है, अतः वह कभी तुम्हें कष्ट नहीं देगा। यह कहकर सुदेष्णा ने द्रौपदी के हाथ में ढक्कन सहित एक सुवर्णमस पात्र दे दिया।

(महाभारत (विराट पर्व) पन्चदशम अध्याय के श्लोक 17-21 का हिन्दी अनुवाद)

     द्रौपदी मदिरा लाने के लिये उस पात्र को लेकर शंकित हो रोती हुई कीचक के घर की ओर चली और अपने सतीत्व की रक्षा के लिये मन-ही-मन भगवान सूर्य की शरण में गयी।
     सैरन्ध्री ने कहा ;- भगवन्! यदि मैं अपने पतियों के सिवा किसी दूसरे पुरुष को मन में नहीं लाती, तो इस सत्य के प्रभाव से कीचक अपने घर में आयी हुई मुझ अबला को अपने वश में न कर सके।
     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! सब प्रकार के बल से रहित द्रौपदी दो घड़ी तक भगवान सूर्य की उपासना करती रही। तदनन्तर श्रीसूर्यदेव ने पतले कटि भाग वाली द्रुपदकुमारी की सारी परिस्थिति समझ ली और उसकी रक्षा के लिये अदृश्य रूप से एक राक्षस को नियुक्त कर दिया। वह राक्षस किसी भी अवस्था में सती साध्वी द्रौपदी को वहाँ असहाय नहीं छोड़ता था।
      डरी हुई हरिणी की भाँति भयभीत द्रौपदी को समीप आयी देख सूत कीचक आननद में भरकर खड़ा हो गया; मानो नदी के पास जाने वाला पथिक नौका पाकर प्रसन्न हो गया हो।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत कीचकवधपर्व में द्रौपदी के द्वारा मदिरानयन सम्बन्धी पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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