सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के प्रथम अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

प्रथम अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“विराटनगर में अज्ञातवास करने के लिये पाण्डवों की गुप्त मन्त्रणा तथा युधिष्ठिर के द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन”

      अन्तर्यामी नारायण भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लालाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके 'जय' (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।

    जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! मेरे पितामह पाण्डवों ने दुर्योधन के भय से कष्ट उठाते हुए विराटनगर में अपने अज्ञातवास का समय किस प्रकार व्यतीत किया तथा दुःख में पड़ी हुई सदा ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करने वाली परम सौभाग्यवती पतिव्रता द्रौपदीI वहाँ अपने को अज्ञात रखकर कैसे निवास कर सकी?

    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! तुम्हारे प्रपितामहों ने विराटनगर में जिस प्रकार अज्ञातवास के दिन पूरे किये थे, वह बताता हूँ; सुनो। यक्षरूपधारी धर्म से इस प्रकार वरदान पाने के अनन्तर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने आश्रम पर जाकर यह सब समाचार ब्राह्मणों को बताया। भारत! ब्राह्मणों से सब कुछ बताकर जब युधिष्ठिर ने अरणी सहित मन्थनकाष्ठ पूर्वोक्त ब्राह्मण देवता को सौंप दिया, तब धर्मपुत्र महामनस्वी उन राजा युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों को एकत्र करके इस प्रकार कहा,

     युधिष्ठिर सम्पूर्ण ;- ‘आज बारह वर्ष बीत गये, हम लोग अपने राज्य से बाहर आकर वन में रहते हैं। अब तेरहवाँ वर्ष आरम्भ हुआ है। इसमें बड़े कष्ट से कठिनाइयों का सामना करते हुए अत्यन्त गुप्त रूप से रहना होगा। कुन्तीनन्दन अर्जुन! तुम अपनी रुचि के अनुसार कोई उत्तम निवासस्थान चुनो, जहाँ यहाँ से चलकर हम एक वर्ष तक इस प्रकार रहें कि शत्रुओं को हमारा पता न चल सके’।

    अर्जुन बोले ;- नरेश्वर! इसमें संदेह नहीं कि उन्हीं भगवान धर्म के दिये हुए वर के प्रभाव से हम लोग इस पृथ्वी पर विचरते रहेंगे और हमें दूसरे मनुष्य पहचान न सकेंगे तथापि मैं आपसे निवास करने योग्य कुछ रमणीय एवं गुप्त राष्ट्रों के नाम बताऊँगा, उनमें से किसी को आप स्वयं ही अपनी रुचि के अनुसार चुन लीजिये। कुरुदेश के चारों ओर बहुत-से सुरम्य जनपद हैं, जहाँ बहुत अन्न होता है। उनके नाम ये हैं- पांचाल, चेदि, मत्स्य, शूरसेन, पटच्चर, दशार्ण, नवराष्ट्र, मल्ल, शाल्व, युगन्धर, विशाल कुन्तिराष्ट्र, सौराष्ट्र तथा अवन्ती। राजन्! इनमें से कौन-सा राष्ट्र आपको निवास करने के लिये पसंद है? जिसमें हम सब लोग एक वर्ष निवास करें।

    युधिष्ठिर ने कहा ;- महाबाहो! तुम्हारी यह बात मैंने ध्यान से सुनी है। सम्पूर्ण भूतों के अधीश्वर और प्रभावशाली भगवान धर्म ने हमारे लिये जैसा आदेश दिया है, वह सब वैसा ही होगा। उसके विपरीत कुछ नहीं होगा। तथापि हम सब लोगों को आपस में सलाह करके अवश्य ही अपने रहने के लिये कोई परम सुन्दर, कल्याणकारी तथा सुखद स्थान चुन लेना चाहिये, जहाँ हम निर्भय होकर रह सकें। (तुम्हारे बताये हुए देशों में से) मत्स्य देश के राजा विराट बहुत बलवान् हैं और पाण्डवों के प्रति उनका अनुराग भी है; साथ ही वे स्वभावतः धर्मात्मा, वृद्ध, उदार तथा हमें सदैव प्रिय हैं। भाई अर्जुन! इसलिये इस वर्ष हम लोग राजा विराट के ही नगर में रहें और उनका कार्य साधन करते हुए उनके यहाँ विचरण करें।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 19- 28 का हिन्दी अनुवाद)

   किंतु कुरुनन्दनो! तुम लोग यह तो बताओ कि हम मत्स्यराज के पास पहुँचकर किन-किन कार्यों का भार सँभाल सकेंगे?

    अर्जुन ने पूछा ;- नरदेव! आप उनके राष्ट्र में किस प्रकार कार्य करेंगे। महात्मन्! विराटनगर में कौन-सा कर्म करने से आपको प्रसन्नता होगी? राजन्! आपका स्वभाव कोमल है। आप उदार, लज्जाशील, धर्मपरायण तथा सम्यपराक्रमी हैं, तथापि विपत्ति में पड़ गये हैं। पाण्डुनन्दन! आप वहाँ क्या करेंगे? राजन्! साधारण मनुष्यों की भाँति आपको किसी प्रकार के दुःख का अनुभव हो, यह उचित नहीं है; अतः इस घोर आपत्ति में पड़कर आप कैसे इसके पार होंगे?

    युधिष्ठिर ने कहा ;- नरश्रेष्ठ कुरुनन्दनो! मैं राजा विराट के यहाँ चलकर जो कार्य करूँगा, वह बताता हूँ; सुनो। मैं पासा खेलने की विद्या जानता हूँ और यह खेल मुझे प्रिय भी है, अतः मैं कंक नामक ब्राह्मण बनकर महामना राजा विराट की राजसभा का एक सदस्य हो जाऊँगा और वैदूर्य मणि के समान हरी, सुवर्ण के समान पीली तथा हाथी दाँत की बनी हुई काली और लाल रंग की मनोहर गोटियों को चमकीले बिन्दुओं से युक्त पासों के अनुसार चलाता रहूँगा। मैं राजा विराट को उनके मन्त्रियों तथा बन्धु-बान्धवों सहित पासों के खेल से प्रसन्न करता रहूँगा। इस रूप में मुझे कोई पहचान न सकेगा और मैं उन मत्स्य नरेश को भलीभाँति संतुष्ट रक्खूंगा। यदि वे राजा मुझसे पूछेंगे कि आप कौन हैं, तो मैं उन्हें बताऊँगा कि मैं पहले महाराज युधिष्ठिर का प्राणों के समान प्रिय सखा था। इस प्रकार मैंने तुम लोगों को बता दिया कि विराटनगर में मैं किस प्रकार रहूँगा।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार अज्ञातवास में अपने द्वारा किये जाने वाले कार्य को बतलाकर युधिष्ठिर भीमसेन से बोले। युधिष्ठिर ने पूछा- भीमसेन! तुम मत्स्य देश में किस प्रकार कोई कार्य कर सकोगे? तुमने गन्धमादन पर्वत पर क्रोध से सदा लाल आँखें किये रहने वाले क्रोधवश नामक यक्षों और महापराक्रमी राक्षसों का वध करके पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को बहुत-से कमल लाकर दिये थे। शत्रुहन्ता भीम! ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिये तुमने भयानक आकृति वाले नरभक्षी राक्षसराज बक को भी मार डाला था और इस प्रकार एकचक्रा नगरी को भयरहित एवं कल्याणयुक्त कनाया था। महाबाहो! तुमने महावीर हिडिम्ब और राक्षस किर्मीर को मारकर वन को निष्कण्टक कनाया था। संकट में पड़ी हुई मनोहर हास्य वाली द्रौपदी को भी तुमने जटासुर का वध करके छुड़ाया था। तात भीमसेन! तुम अत्यन्त बलवान् एव अमर्षशाली हो। राजा विराट के यहाँ कौन-सा कार्य करके तुम प्रसन्नतापूर्वक रह सकोगे-यह बतलाओ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में युधिष्ठिर आदि की परस्पर मन्त्रणा से सम्बन्ध रखने वाला पहला अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

दूसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1- 14 का हिन्दी अनुवाद)

“भीमसेन और अर्जुन द्वारा विराटनगर में किये जाने वाले अपने अनुकूल कार्यों का निर्देश”

    भीमसेन ने कहा ;- भरतवंशशिरोमणि! मैं पौरोगव (पाकशाला का अध्यक्ष) बनकर और बल्लव के नाम से अपना परिचय देकर राजा विराट के दरबार में उपस्थि होऊँगा। मेरा यही विचार है। मैं रसोई बनाने के काम में चतुर हूँ। अपने ऊपर राजा के मन में अत्यंत प्रेम उत्पन्न करने के उद्देश्य से उनके लिये सूप (दाल, कढ़ी एंव साग) तैयार करूँगा और पाकशाला में भलीभाँति शिक्षा पाये हुए चतुर रसोइयों ने राजा के लिये पहले जो-जो व्यंजन बनाये होंगे, उन्हें भी अपने बनाये हुए व्यंजनों से तुच्छ सिद्ध कर दूँगा। इतना ही नहीं, मैं रसोइ के लिये लकड़ियों के बड़े से बड़े गट्ठों को भी उठा लाऊँगा, जिस महान् कर्म को देखकर राजा विराट मुझे अवश्य रसोइये के काम पर नियुक्त कर लेंगे।

     भारत! मैं वहाँ ऐसे-ऐसे अद्भुत कार्य करता रहूँगा, जो साधारण मनुष्यों की शक्ति के बाहर हैं। इससे राजा विराट के दूसरे सेवक राजा विराट की तरह ही मेरा सम्मान करेंगे और मैं भक्ष्य, भोज्य, रस और पेय पदार्थों का इच्छानुसार उपयोग करने में समर्थ होऊँगा। राजन्! बलवान् हाथी अथवा महाबली बैल भी यदि काबू में करने के लिये मुझे सौंपे जाएँगे तो मैं उन्हें भी बाँधकर अपने वश में कर लूँगा तथा जो कोई भी मल्ल युद्ध करने वाले पहलवान जन-समाज में दंगल करना चाहेंगे, राजा का प्रेम बढ़ाने के लिये मैं उनसे भी भिड़ जाऊँगा। परंतु कुश्ती करने वाले इन पहलवानों को मैं किसी प्रकार जान से नहीं मारूँगा; अपितु इस प्राकर नीचे गिराऊँगा, जिससे उनकी मृत्यु न हो। महाराज के पूछने पर मैं यह कहूँगा कि मैं राजा युधिष्ठिर के यहाँ आरालिक (मतवाले हाथियों को भी काबू में करने वाला गजशिक्षक), गोविकर्ता (महाबली वृषभों को भी पछाड़कर उन्हें नाथने वाला), सूपकर्ता (दाल-साग आदि भाँति-भाँति के व्यंजन बनाने वाला) तथा नियोधक (दंगली पहलवान) रहा हूँ। राजन्! अपने-आप अपनी रक्षा करते हुए मैं विराट के नगर में विचरूँगा। मुझे विश्वास है कि इस प्रकार मैं वहाँ सुखपूर्वक रह सकूँगा।

     युधिष्ठिर बोले ;- जो मनुष्यों में श्रेष्ठ महाबली ओर महाबाहु है, पहले भगवान श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए जिस अर्जुन के पास खाण्डववन को जलाने की इच्छा से ब्राह्मण का रूप धारण करके साक्षात् अग्निदेव पधारे थे, जो कुरुकुल को आनन्द देने वाला तथा किसी से भी परास्त न होने वाला है, वह कुन्तीनन्दन धनंजय विराट नगर में कौन-सा कार्य करेगा? जिसने खाण्डवदाह के समय वहाँ पहुँचकर एकमात्र रथ का आश्रय ले इन्द्र को पराजित कर तथा नागों एवं राक्षसों को मारकर अग्निदेव को तृप्त किया और अपने अप्रतिम सौन्दर्य से नागराज वासुकि की बहिन उलूपी का चित्त चुरा लिया एवं जो सचमुच युद्ध करने वाले वीरों में सबसे श्रेष्ठ है, वह अर्जुन वहाँ क्या काम करेगा?

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 15- 32 का हिन्दी अनुवाद)

     जैसे तपने वाले तेजस्वी पदर्थों में सूर्य श्रेष्ठ है, मनुष्यों में ब्राह्मण का स्थान ऊँचा है, जैसे सर्पों में आशीविष जाति वाले सर्प महान् हैं, तेजस्वियों में अग्नि श्रेष्ठ है, अस्त्र-शस्त्रों में वज्र का स्थान ऊँचा है, गौओं में ऊँचे कंधे वाला साँड़ बड़ा माना गया है, जलाशयों में समुद्र सबसे महान् है, वर्षा करने वाले मेघों में पर्जन्य श्रेष्ठ है, नागों में धृतराष्ट्र तथा हाथियों में ऐरावत बड़ा है, जैसे प्रिय सम्बन्धियों में पुत्र सबसे अधिक प्रिय है और अकारण हित चाहने वाले सुहृदों में धर्मपत्नी सबसे बढ़कर है, जैसे पर्वतों में मेरु पर्वत श्रेष्ठ है, देवताओं में मधुसूदन भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, ग्रहों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है और सरोवरों में मानसरोवर श्रेष्ठ है।

     भीमसेन! अपनी-अपनी जाति में जिस प्रकार ये पूर्वोक्त वस्तुएँ विशिष्ट मानी गई हैं, वैसे ही सम्पूर्ण धनुर्धारियों में युवावस्था से सम्पन्न यह गुडाकेश (निद्राविजयी) अर्जुन श्रेष्ठ है। यह देवराज इन्द्र और भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम नहीं है। श्वेत घोड़ों वाले रथ पर चलने वाला यह महातेजस्वी गाण्डीवधारी बीभत्सु (अर्जुन) वहाँ कौन-सा कार्य करेगा? इसने पाँच वर्षों तक देवराज इन्द्र के भवन में रहकर ऐसे दिव्यास्त्र प्राप्त किये हैं, जिनका मनुष्यों में होना एक अद्भुत-सी बात है। अपने देवोपम स्वरूप से प्रकाशित होने वाले अर्जुन ने अनेक दिव्यास्त्र पाये हैं। जिस अर्जुन को मैं बारहवाँ रुद्र और तेरहवाँ आदित्य मानता हूँ, नवम वसु तथा दसवाँ ग्रह स्वीकार करता हूँ। जिसकी दोनों भुजाएँ एक-सी विशाल हैं; प्रत्यंचा के आघात से उनकी त्वचा कठोर हो गयी है। जैसे बैलों के कंधों पर जुआठे की रगड़ से चिह्न बन जाता है, उसी प्रकार जिसकी दाहिनी और बायीं भुजाओं पर प्रत्यंचा की रगड़ से चिह्न बन गये हैं। जैसे पर्वतों में हिमालय, सरिताओं में समुद्र, देवताओं में इन्द्र, वसुओं में हव्यवाहक अग्नि, मृगों में सिंह तथा पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है, उसी प्रकार कवचधारी वीरों में जिसका स्थान सबसे ऊँचा है, वह अर्जुन विराट नगर में जाकर क्या काम करेगा?

     अर्जुन ने कहा ;- महाराज! मैं राजा की सभा में यह दृढ़तापूर्वक कहूँगा कि मैं षण्ढक (नपुंसक) हूँ। राजन्! यद्यपि मेरी दायीं-बायीं भुजाओं में धनुष की डोरी की रगड़ से जो महान् चिह्न बन गये हैं, उन्हें छिपाना बहुत कठिन है तथापि कंगन आदि आभूषणों से मैं इन ज्याघात चिह्नित भुजाओं को ढक लूँगा। मैं दोनों कानों में अग्नि के समान कान्तिमान् कुण्डल पहनकर हाथों मे शंख की चूड़ियाँ धारण कर लूँगा। इस प्रकार तीसरी प्रकृति (नपुंसकभाव) को अपनाकर सिर पर चोटी गूँथ लूँगा और अपने को बृहन्नला नाम से घोषित करूँगा। स्त्रीभाव से अपने स्वरूप को छिपाकर बारंबार पूर्ववर्ती राजाओं का गान करके महाराज विराट तथा अन्तःपुर की अन्यान्य स्त्रियों का मनोरंजन करूँगा। राजन्! मै विराट नगर की स्त्रियों को गीत गाने, विचित्र ढंग से नृत्य करने तथा भाँति-भाँति के बाजे बजाने की शिक्षा दूँगा।

      कुन्तीनन्दन! प्रजाजनों के उत्तम आचार-विचार और उनके किये हुए अनेक प्रकार के सत्कर्मों का वर्णन करता हूआ मैं मायामय नपुसंक वेश से बुद्धि द्वारा अपने यथार्थ रूप को छिपाये रक्खूँगा। पाण्डुनन्दन! यदि राजा विराट ने मेरा परिचय पूछा तो मैं कह दूँगा मैं महाराज युधिष्ठिर के घर में महारानी द्रौपदी की परिचारिका[2] रह चुकी हूँ। राजेनद्र! इस प्रकार कृत्रिम वेशभूषा से राख में छिपी हुई अग्नि के समान अपने आप को छिपाकर में विराट के महल में सुखपूर्वक निवास करूँगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में युधिष्ठिर आदि की मन्त्रणा विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

तीसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“नकुल, सहदेव तथा द्रौपदी द्वारा अपने-अपने भावी कर्तव्यों का दिग्दर्शन”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ तथा पुरुषों में महान् वीर अर्जुन इस प्रकार कहकर चुप हो गये। तब राजा युधिष्ठिर पुनः दूसरे भाई से बोले।

    युधिष्ठिर ने पूछा ;- नकुल! तुम राजा विराट के राज्य में कौन-सा कार्य करते हुए निवास करोगे? वह कार्य बताओ। तात! तुम तो शूरवीर होने के साथ ही अत्यन्त सुकुमार, परम दर्शनीय और सर्वथा सुख भोगने के योग्य हो।

      नकुल बोले ;- राजन्! मैं राजा विराट के यहाँ अश्वबन्ध (घोड़ों को वश में करने वाला सवार) होकर रहूँगा। मैं अश्व-विज्ञान से सम्पन्न और धोड़ों की रक्षा के कार्य में कुशल हूँ। मैं राजसभा में ग्रन्थिक नाम से अपना परिचय दूँगा। घोड़ों की देखभाल का काम मुझे अत्यन्त प्रिय है। उन्हें भाँति-भाँति की चालें सिखाने और उनकी चिकित्सा करने में भी मैं निपुण हूँ। कुरुराज! आपकी ही भाँति मुझे भी घोड़े सदैव प्रिय रहे हैं। विराट नगर में जो लोग मुझसे पूछेंगे, उन्हें मैं इस प्रकार उत्तर दूँगा, - ‘ताता! पहले पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने मुझे अश्वों का अध्यक्ष बनाकर रक्खा था।’ महीपते! मैं जिस प्रकार वहाँ विहार करूँगा, वह सब मेंने आपको बता दिया। राजा विराट के नगर में अपने को छिपाये रखकर ही मैं सर्वत्र विचरूँगा।

      युधिष्ठिर ने सहदेव से पूछा ;- भैया सहदेव! तुम राजा विराट के समीप कैसे जाओगे? उनके यहाँ क्या काम करते हुए गुप्त रूप से निवास करोगे?

    सहदेव ने कहा ;- महाराज! मैं राजा विराट के यहाँ गौओं की गिनती, जाँच-पड़ताल करने वाला गोशालाध्यक्ष होकर रहूँगा। मैं गौओं को नियन्त्रण में रखने और दुहने का काम अच्छी तरह जानता हूँ। उन्हें गिनने और उनकी परख, पहचान के काम में भी कुशल हूँ। मैं वहाँ तन्तिपाल नाम से प्रसिद्ध होऊँगा। इसी नाम से मुझे सब लोग जानेगे। मैं बड़ी चतुराई से अपने को छिपाये रखकर वहाँ सब ओर विचरूँगा; अतः मेरे विषय में आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। राजन्! मेरे द्वारा रक्षित होकर राजा विराट के पशु तथा गौएँ नीरोग, संख्या में अधिक, हृष्ट-पुष्ट, अधिक दूध देने वाली, बहुत संतानों वाली, सत्त्वयुक्त, अच्छी तरह सम्हाल होने से रोगरूप-पाप से रहित, चोरों के भय से मुक्त तथा सदा व्याधि एवं बाघ आदि के भय से रहित होंगे ही।

     भूपाल! पहले आपने मुझे सदा गौओं की देखभाल में नियुक्त किया है। इस कार्य में मैं कितना दक्ष हूँ, यह सब आपको विदित ही है। महीपते! गौओं के जो लक्षण ओर चरित्र मंगलकारक होते हैं, वे सब मुझे भलीभाँति मालूम हैं। उनके विषय में और भी बहुत-सी बातें में जानता हूँ। राजन्! इनके सिवा मैं ऐसे प्रशंसनीय लक्षणों वाले साँड़ों को भी जानता हूँ, जिनके मूत्र को सूंघ लेने मात्र से वन्ध्या स्त्री भी गर्भवती हो जाती है। इस प्रकार में गौओं की सेवा करूँगा। इस कार्य में मुझे सदा से प्रेम रहा है। वहाँ मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा। मैं अपने कार्य से राजा विराट को संतुष्ट कर लूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

     युधिष्ठिर बोले ;- यह द्रुपदकुमारी कृष्णा हम लोगों की प्यारी भार्या है। इसका गौरव हमारे लिये प्राणों से भी बढ़कर है। यह माता (पृथ्वी) की भाँति पालन करने योग्य तथा बड़ी बहन (धेनु) के समान आदरणीय है। यह तो दूसरी स्त्रियों की भाँति कोई काम-काज भी नहीं जानती; फिर वहाँ किस कर्म का आश्रय लेकर निवास करेगी? इसका शरीर अत्यन्त सुकुमार है। इसकी अवस्था नयी है। यह यशस्विनी राजकुमारी परम सौभाग्यवती तथा पतिव्रता है। भला, यह विराट नगर में किस प्रकार रहेगी? इस भामिनी ने जब से जन्म लिया है, तब से अब तक माला, सुगनिधत पदार्थ, भाँति-भाँति के गहने तथा अनेक प्रकार के वस्त्रों को ही जाना है। इसने कभी कष्ट का अनुभव नहीं किया है।

    द्रौपदी ने कहा ;- भारत! इस जगत् में बहुत-सी ऐसी स्त्रियाँ हैं? जिनका दूसरों के घरों में पालन होता है और जो शिल्पकर्मों द्वारा जीवन निर्वाह करती हैं। वे अपने सदाचार से स्वतः सुरक्षित होती हैं। ऐसी स्त्रियों को सैंरन्ध्री कहते हैं। लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि सैरन्ध्री की भाँति दूसरी स्त्रियाँ बाहर की यात्रा नहीं करती, (अतः सैरन्ध्री के वेश में मुझे कोई पहचान नहीं सकेगा।) इसलिये में सैरन्ध्री कहकर अपना परिचय दूँगी। बालों को सँवारने और वेणी-रचना आदि के कार्य में मैं बहुत निपुण हूँ। यदि राजा मुझसे पूछेंगे, तो कह दूँगी कि 'मैं महाराज युधिष्ठिर के महल में महारानी द्रौपदी की परिचारिका बन कर रही हूँ’। मैं अपनी रक्षा स्वयं करूँगी। आप जो मुझसे पूछते हैं कि वहाँ क्या करोगी? कैसे रहोगी? उसके उत्तर में निवेदन है कि मैं यशस्विनी राजपत्नी सुदेष्णा के पास जाऊँगी। मुझे अपने पास आयी हुई जानकर वे रख लेंगी और सब प्रकार से मेरी रक्षा करेंगी। अतः आपके मन में इस बात का दुःख नहीं होना चाहिये कि द्रौपदी कैसे सुरक्षित रह सकेगी।

      युधिष्ठिर बोले ;- कृष्णे! तुमने भली बात कही, इसमें कल्याण ही भरा है। क्यों न हो, तुम ऊँचे कुल में उत्पन्न जो हुई हो। भामिनी! तुम्हें पाप का रंचमात्र भी ज्ञान नहीं है। तुम साध्वी हो और उत्तम व्रत के पालन में तत्पर रहती हो। कल्याणि! वहाँ ऐसा बर्ताव करना, जिससे वे पापी शत्रु फिर सुखी होने का अवसर न पा सकें; वे तुम्हें किसी तरह पहचान न सकें।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में युधिष्ठिर आदि की परस्पर मन्त्रणा विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

चौथा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“धौम्य का पाण्डवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना और सबका अपने-अपने अभीष्ट स्थानों को जाना”

    युधिष्ठिर बोले ;- विराट के यहाँ रहकर तुम्हें जो-जो कार्य करने हैं, वे सब तुमने बताये। मुझे भी अपनी बुद्धि के अनुसार जो कार्य उचित प्रतीत हुआ, वह कह चुका। जान पड़ता है कि विधाता का यही निश्चय है। अब मेरी सलाह यह है कि ये पुरोहित धौम्य जी रसोइयों तथा पाकशालाध्यक्ष के साथ राजा द्रुपद के घर जाकर रहें और वहाँ हमारे अग्निहोत्र की अग्नियों की रक्षा करें तथा ये इन्द्रसेन आदि सेवकगण केवल रथों को लेकर शीघ्र यहाँ से द्वारका चले जायें और ये जो द्रौपदी की सेवा करने वाली स्त्रियाँ हैं, वे सब रसोइयों और पाकशालाध्यक्ष के साथ पांचाल देश को ही चली जायें।

    वहाँ सब लोग यही कहें,- ‘हमें पाण्डवों का कुछ भी पता नहीं है। वे सब द्वैतवन से ही हमें छोड़कर न जाने कहाँ चले गये’।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार आपस में ए- दूसरे की सलाह लेकर और अपने पृथक्-पृथक् कर्म बतलाकर पाण्डवों ने पुरोहित धौम्य की भी सम्मति ली। तब पुरोहित धौम्य ने उन्हें इस प्रकार सलाह दी। 

     धौम्य जी बोले ;- पाण्डवो! ब्राह्मणों, सुहृदों, सवारी या युद्ध-यात्रा, आयुध या युद्ध तथा अग्नियों के प्रति जो शास्त्रविहित कर्तव्य हैं, उन्हें तुम अच्छी तरह जानते हो और तद्नुकूल तुमने जो व्यवस्था की है, वह सब ठीक है। भारत! अब मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम और अर्जुन सावधान रहकर सदा द्रौपदी की रक्षा करना। लोकव्यवहार की सभी बातें अथवा साधारण लोगों के व्यवहार तुम सब लोगों को विदित हैं। विदित होने पर हितैषी सुहृदों का कर्तव्य है कि वे स्नेहवश हित की बात बतावें। यही सनातन धर्म है और इसी से काम एवं अर्थ की प्राप्ति होती है। इसलिये मैं भी जो युक्तियुक्त बातें बताऊँगा, उन्हें यहाँ ध्यान देकर सुनो।

     राजपुत्रो! मैं यह बता रहा हूँ कि राजा के घर में रहकर कैसा बर्ताव करना चाहिये? उसके अनुसार राजकुल में रहते हुए भी तुम लोग वहाँ के सब दोषों से पार हो जाओगे। कुरुनन्दन! विवेकी पुरुष के लिये भी राजमहल में निवास करना अत्यन्त कठिन है। वहाँ तुम्हारा अपमान हो या सम्मान, सब कुछ सहकर एक वर्ष तक अज्ञातभाव से रहना चाहिये। तदनन्तर चौदहवें वर्ष में तुम लोग अपनी इच्छा के अनुसार

   सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे। राजा से मिलना हो, तो पहले द्वारपाल से मिलकर राजा को सूचना देनी चाहिये और मिलने के लिये उनकी आज्ञा मँगा लेनी चाहिये। इन राजाओं पर पूर्ण विश्वास कभी न करें। अपने लिये वही आसन पसंद करें, जिस पर दूसरा कोई बैठने वाला न हो। जो ‘मैं राजा का प्रिय व्यक्ति हूँ, यों मानकर कभी राजा की सवारी, पलंग, पादुका, हाथी एवं रथ आदि पर नहीं चढ़ता है, वही राजा के घर में कुशलपूर्वक रह सकता है। जिन-जिन स्थानों पर बैठने से दुराचारी मनुष्य संदेह करते हों, वहाँ-वहाँ जो कभी नहीं बैठता, वह राजभवन में रह सकता है। बिना पूछे राजा को कभी कर्तव्य का उपदेश न दें। मौन भाव से ही उसकी सेवा करें और उपयुक्त अवसर पर राजा की प्रशंसा भी करें।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

       झूठ बोलने वाले मनुष्यों के प्रति राजा लोग दोष दृष्टि कर लेते हैं। इसी प्रकार वे मिथ्यावादी मन्त्री का भी अपमान करते हैं। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह राजाओं की रानियों से मेल-जोल न करे और जो रनिवास में आते-जाते हों, राजा जिनसे द्वेष रखते हों तथा जो लोग राजा का अहित चाहने वाले हों, उनसे भी मैत्री स्थापित न करे। छोटे-से-छोटे कार्य भी राजा को जनाकर ही करे। राज दरबार में ऐसा आचरण करने वाले मनुष्यों को कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। बैठने के लिये अपने को ऊँचा आसन प्राप्त होता हो, तो भी जब तक राजा न पूछें- बैठने का आदेश न दें, तब तक राज दरबार की मर्यादा का खयाल करके अपने को जन्मान्ध सा माने, मानो उस आसन को वह देखता ही न हो। इस भाव से खड़ा रहकर राजाज्ञा की प्रतिक्षा करता रहे। क्योकि शत्रुविजयी राजा लोग मर्यादा का उल्लंघन करने वाले अपने पुत्र, नाती-पोते और भाई का भी आदर नहीं करते। इस जगत् में राजा को अग्नि के समान दाहक मानकर उसके अत्यन्त निकट न रहे और देवता के समान निग्रह तथा अनुग्रह में समर्थ जानकर उसकी कभी अवहेलना न करे। इस प्रकार यत्नपूर्वक उसकी परिचर्या में संलग्न रहें।

      इसमें संदेह नहीं कि जो मिथ्या एवं कपटपूर्ण उपचार के द्वारा राजा की सेवा करता है, वह एक दिन अवश्य उसके हाथ से मारा जाता है। राजा जिस-जिस कार्य के लिये आज्ञा दे, उसी का पालन करे। लापरवाही ,घमंड और क्रोध को सर्वथा त्याग दे। कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के सभी अवसरों पर हितकारक और प्रिय वचन कहे। यदि दोनों सम्भव न हों, तो प्रिय वचन का त्याग करके भी जो हितकारक हो, वही बात कहे (हितविरोधी प्रिय वचन कदापि न कहे)। सभी विषयों तथा सब बातों में राजा के अनुकूल रहे। कथा वार्ता में भी राजा के सामने ऐसी बातों की बार-बार चर्चा न करे, जो उसे अप्रिय एवं अहितकर प्रतीत होती हों। विद्वान् पुरुष ‘मैं राजा का प्रिय व्यक्ति नहीं हूँ’, ऐसा मानता हुआ सदा सावधान रहकर उसकी सेवा करे। राजा के लिये जो हितकर और प्रिय हो, वही कार्य करे। जो चीज राजा को पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे। उसके शत्रुओं से बातचीत न करे और अपने स्थान से कभी विचलित न हो। ऐसा बर्ताव करने वाला मनुष्य ही राजा के यहाँ सकुशल रह सकता है।

     विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह राजा के दाहिने या बायें भाग में बैठे; क्योंकि राजा के पीछे अस्त्र-शस्त्रधारी अंगरक्षकों का स्थान होता है। राजा के सामने किसी के लिये भी ऊँचा आसन लगाना सर्वथा निषिद्ध है। उसकी आँखों के सामने यदि कोई पुरस्कार-वितरण या वेतनदान आदि का कार्य हो रहा हो, तो उसमें बिना बुलाये स्वयं पहले लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि ऐसी ढिठाई तो दरिद्रों को भी बहुत अप्रिय जान पड़ती है; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है? राजाओं की किसी झूठी बात को दूसरे मनुष्य के सामने प्रकाशित न करे। क्योंकि झूठ बोलने वाले मनुष्यों से राजा लोग द्वेष मान लेते हैं। इसी तरह जो लोग अपने को पण्डित मानते हैं, उनका भी राजा तिरस्कार करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘मैं शूरवीर हूँ अथवा बड़ा बुद्धिमान हूँ’, ऐसा घमंड न करे। जो सदा राजा को प्रिय लगने वाले कार्य को करता है, वही उसका प्रेमपात्र तथा ऐश्वर्यभोग से प्रसन्न रहता है। राजा से दुर्लभ ऐश्वर्य तथा प्रिय भोग प्राप्त होने पर मनुष्य सदा सावधान होकर उसके प्रिय एवं हितकर कार्यों में संलग्न रहे। जिसका क्रोध बड़ा भारी संकट उपस्थित कर देता है और जिसकी प्रसन्नता महान् फल-ऐश्वर्य-भोग देने वाली है, उस राजा का कौन बुद्धिमान पुरुष मन से भी अनिष्ट साधन करना चाहेगा? राजा के समक्ष अपने दोनों हाथ, ओठ और घुटनों को व्यर्थ न हिलावें; बकवाद न करें। सदा शनैः शनैः बोलें। धीरे से थूकें और दूसरों को पता न चले, इस प्रकार अधोवायु छोड़ें। किसी दूसरे व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई हास्यजनक वस्तु दिखायी दे, तो अधिक हर्ष न प्रकट करे एवं पागलों की तरह अट्टहास न करे तथा अत्यन्त धैर्य के कारण जड़वत् निष्चेष्ट हाकर भी न रहे। इससे वह गौरव (सम्मान) को प्राप्त होता है।

     मन में प्रसन्नता होने पर मुख से मृदुल (मन्द) मुस्कान का ही प्रदर्शन करे। जो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर (अधिक) हर्षित नहीं होता अथवा अपमानित होने पर अधिक व्यथा का अनुभव नहीं करता और सदा मोहशून्य होकर विवेक से काम लेता है, वही राजा के यहाँ सुखपूर्वक रह सकता है। जो बुद्धिमान सचिव सदा राजा अथवा राजकुमार की प्रशंसा करता रहता है, वही राजा के यहाँ उसका प्रीतिपात्र होकर टिक सकता है। यदि कोई मन्त्री पहले राजा का कृपा पात्र रहा हो और पीछे से अकारण उसे दण्ड भोगना पड़ा हो, उस दशा में भी जो राजा की निन्दा नहीं करता, वह पुनः अपने पूर्व वैभव को प्राप्त कर लेता है। जो बुद्धिमान राजा के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह अथवा उसके राज्य में निवास करता है, उसे राजा के सामने अथवा पीठ पीछे भी उसके गुणों की ही चर्चा करनी चाहिये। जो मन्त्री राजा को बलपूर्वक अपने अधीन करना चाहता है, वह अधिक समय तक अपने पद पर नहीं टिक सकता। इतना ही नही, उसके प्राणों पर भी संकट आ जाता है।

     अपनी भलाई अथवा लाभ देखकर दूसरे को सदा राजा के साथ न मिलावे; न बातचीत करावे। उपयुक्त स्थान और अवसर देखकर सदा राजा की विशेषता प्रकट करे। जो उत्साहसम्पन्न, बुद्धि-बल से युक्त, शूरवीर, सत्यवादी, कोमल स्वभाव और जितेन्द्रिय होकर सदा छाया की भाँति राजा का अनुसरण करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है। जब दूसरे को किसी कार्य के लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं ही उठकर आगे आये और पूछे- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है’, वही राजभवन में निवास कर सकता है। जो राजा के द्वारा आन्तरिक (धन एवं स्त्री आदि की रक्षा) और बाह्य (शत्रुविजय आदि) कार्यों के लिये आदेश मिलने पर कभी शंकित या भयभीत नहीं होता, वही राजा के यहाँ रह सकता है। जो घर-बार छोड़कर परदेश में रहने पर भी प्रियजनों एवं अभीष्ट भोगों का स्मरण नहीं करता और कष्ट सहकर सुख पाने की इच्छा करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 48-58 का हिन्दी अनुवाद)

      राजा के समान वेशभूषा न धारण करे। उसके अत्यन्त निकट न रहे। उसके सामने उच्च आसन पर न बैठे। अपने साथ राजा ने जो गुप्त सलाह की हो, उसे दूसरों पर प्रकट न करे। ऐसा करने से ही मनुष्य राजा का प्रिय हो सकता है। यदि राजा ने किसी काम पर नियुक्त किया हो, तो उसमें घूस के रूप में थोड़ा भी धन न ले; क्योंकि जो इस प्रकार चोरी से धन लेता है, उसे एक दिन बन्धन अथवा वध का दण्ड भोगना पड़ता है। राजा प्रसन्न होकर सवारी, वस्त्र, आभूषण तथा और भी जो कोई वस्तु दे, उसी को सदा धारण करे या उपयोग में लाये। ऐसा करने से वह राजा का अधिक प्रिय होता है।

     तात युधिष्ठिर एवं पाण्डवो! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने मन को वश में रखकर पूर्वोक्त रीति से उत्तम बर्ताव करते हुए इस तेरहवें वर्ष को व्यतीत करो और इसी रूप में रहकर एश्वर्य पाने की इच्छा करो। तदनन्तर अपने राज्य में आकर इच्छानुसार व्यवहार करना।

     युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्मन्! आपका भला हो। आपने हमें बहुत अच्छी शिक्षा दी। हमारी माता कुन्ती तथा महाबुद्धिमान् विदुर जी को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो हमें ऐसी बात बताये। अब हमें इस दुःख सागर से पार होने, यहाँ से प्रस्थान करने और विजय पाने के लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूर्ण करें।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर विप्रवर धौम्य जी ने यात्रा के समय जो आवश्यक शास्त्रविहित कर्तव्य है, वह सब विधिपूर्वक सम्पन्न किया। पाण्डवों की अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि, वृद्धि राज्यलाभ तथा पृथ्वी पर विजय प्राप्ति के लिये वेदमन्त्र पढ़कर होम किया। तत्पश्चात् पाण्डवों ने अग्नि तथा तपस्वी ब्राह्मणों की परिक्रमा करके द्रौपदी को आगे रखकर वहाँ से प्रस्थान किया। कुल छः व्यक्ति ही आसन छोड़कर एक साथ चले गये। उन पाण्डव वीरों के चले जाने पर जपयज्ञ करने वालों में श्रेष्ठ धौम्य जी उस अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को साथ लेकर पांचाल देश में चले गये। इन्द्रसेन आदि सेवक भी पूर्वोक्त आदेश पाकर यदुवंशियों की नगरी द्वारका में जा पहुँचे और वहाँ स्वयं सुरक्षित हो रथ और घोड़ों की रक्षा करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में धौम्योपदेश सम्बन्धी चौथा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)

पाँचवा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“पाण्डवों का विराट नगर के समीप पहुँचकर श्मशान में एक शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर वे वीर पाण्डव तलवार बाँधे, पीठ पर तूणीर कसे, गोह के चमड़े से बने हुए अंगुलित्र (दस्ताने) पहने (पैदल चलते-चलते) यमुना नदी के समीप जा पहुँचे। इसके बाद वे यमुना के दक्षिण किनारे पर पैदल ही चलने लगे। उस समय उनके मन में यह अभिलाषा जाग उठी थी कि अब हम वनवास के कष्ट से मुक्त हो अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे। उन सब ने धनुष ले रखे थे। वे महान् धनुर्धर ओर महापराक्रमी वीर पर्वतों और वनों के दुर्गम प्रदेशों में डेरा डालते और हिंसक पशुओं को मारते हुए यात्रा कर रहे थे। आगे जाकर वे दशार्ण से उत्तर और पांचाल से दक्षिण एवं यकृल्लोम तथा शूरसेन देशों के बीच से होकर यात्रा करने लगे। उन्होंने हाथों में धनुष धारण कर रक्खे थे। उनकी कमर में तलवारें बँधी थीं। उनके शरीर मलिन एवं उदास थे। उन सबकी दाढ़ी-मूछें बढ़ गयीं थी। किसी के पूछने पर वे अपने को मत्स्य देश में निवास करने का इच्छूक बताते थे। इस प्रकार उन्होंने वन से निकलकर मत्स्य राष्ट्र के जनपद में प्रवेश किया। जनपद में आने पर द्रौपदी ने राजा युधिष्ठिर से कहा- ‘महाराज! देखिये, यहाँ अनेक प्रकार के खेत और उनमें पहुँचने के लिये बहुत-सी पगडंडियाँ दिखाई देती हैं। जान पड़ता है, विराट की राजधानी अभी दूर होगी। मुझे बड़ी थकावट हो रही है, अतः हम एक रात और यहीं रहें।

    युधिष्ठिर बोले ;- धनंजय! तुम द्रौपदी को कंधे पर उठाकर ले चलो। भारत! इस वन से निकलकर अब हम लोग राजधानी में ही निवास करेंगे।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तब गजराज के समान पराक्रमी अर्जुन ने तुरंत ही द्रौपदी को उठा लिया और नगर के निकट पहुँचकर उन्हें कंधे से उतारा। राजधानी के समीप पहुँचकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा,

     युधिष्ठिर बोले ;- ‘भैया! हम अपने अस्त्र-शस्त्र कहाँ रखकर नगर में प्रवेश करें? ‘तात! यदि अपने आयुधों के साथ हम इस नगर में प्रवेश करेंगे, तो निःसंदेह यहाँ के निवासियों को उद्वेग (भय) में डाल देंगे। तुम्हारा गाण्डीव धनुष तो बहुत बड़ा और बहुत भारी है। संसार के सब लोगों में उसकी प्रसिद्धि है। ऐसी दशा में यदि हम अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर में चलेंगे, तो वहाँ सब लोग हमें शीघ्र ही पहचान लेंगे। इसमें संशय नहीं है। यदि हममें से एक भी पहचान लिया गया, तो हमें दुबारा बारह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना पड़ेगा; क्योंकि हमने ऐसी ही प्रतिज्ञा कर रक्खी है’।

   अर्जुन ने कहा ;- राजन्! श्मशान भूमि के समीप एक टीले पर यह शमी का बहुत बड़ा सघन वृक्ष है। इसकी शाखाएँ बड़ी भयानक हैं, इससे इस पर चढ़ना कठिन है। पाण्डवो! मेरा विश्वास है कि यहाँ कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो हमें अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रखते समय देख सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चम अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

     यह वृक्ष रास्ते से बहुत दूर जंगल में है। इसके आस-पास हिंसक जीव और सर्प आदि रहते हैं। विशेषतः यह दुर्गम श्मशान भूमि के निकट है; (अतः यहाँ तक किसी के आने या वृक्ष पर चढ़ने की सम्भावना नहीं है;) इसलिये इसी शमी-वृक्ष पर हम अपने अस्त्र-शस्त्र रखकर नगर में चलें। भारत! ऐसा करके हम यहाँ जैसा सुयोग होगा, उसके अनुसार विचरण करेंगे।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर से ऐसा कहकर अर्जुन वहाँ अस्त्र-शस्त्रों को रखने के प्रयत्न में लग गये। कुरुश्रेष्ठ अर्जुन ने जिस धनुष के द्वारा एकमात्र रथ का आश्रय ले सम्पूर्ण देवताओं और मनुष्यों पर विजय पायी थी तथा अन्यान्य अनेक समृद्धशाली जनपदों पर विजय पताका फहरायी थी, जिस धनुष ने दिव्य बल से सम्पन्न असुरों आदि की सेनाओं का भी संहार किया था, जिसकी टंकार ध्वनि बहुत दूर तक फैलती है, उस उदार तथा अत्यन्त भयंकर गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा अर्जुन ने उतार डाली। परंतप वीर युधिष्ठिर ने जिनके द्वारा समूचे कुरुक्षेत्र की रक्षा की थी, उस धनुष की अक्षय डोरी को उन्होंने भी उतार दिया।

     भीमसेन ने जिसके द्वारा पांचाल वीरों पर विजय पायी थी, दिग्विजय के समय उन्होंने अकेले ही जिसकी सहायता से बहुतेरे शत्रुओं का परास्त किया था, वज्र के फटने और पर्वत के विदीर्ण होने के समान जिसका भयंकर टंकार सुनकर कितने ही शत्रु युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए तथा जिसके सहयोग से उन्होंने सिन्धुराज जयद्रथ को परास्त किया था, अपने उसी धनुष की प्रत्यन्चा को भीमसेन ने भी उतार दिया।

    जिनका मुख ताँबे के समान लाल था, जो बहुत कम बोलते थे, उन महाबाहु माद्रीनन्दन नकुल ने दिग्विजय के समय जिस धनुष की सहायता से पश्चिम दिशा पर विजय प्राप्त की थी, समूचे कुरुकुल में जिनके समान दूसरा कोई रूपवान न होने के कारण जिन्हें नकुल कहा जाता था, जो युद्ध में शत्रुओं को रुलाने वाले शूरवीर थे; उन वीरवर नकुल ने भी अपने पूर्वोक्त धनुष की प्रत्यन्चा उतार दी। शास्त्रानुकूल तथा उदार आचार-विचार वाले शक्तिशाली वीर सहदेव ने भी जिसकी सहायता से दक्षिण दिशा को जीता था, उस धनुष की डोरी उतार दी। धनुषों के साथ-साथ पाण्डवों ने बड़े-बड़े एवं चमकीले खड्ग, बहुमूल्य तूणीर, छुरे के समान तीखी धार वाले क्षुरधार और विपाठ नामक बाण भी रख दिये।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने नकुल को आज्ञा दी,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘वीर! तुम इस शमी पर चढ़कर ये धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र रख दो’। तब नकुल ने उस वृक्ष पर चढ़कर उसके खोखलों में वे धनुष आदि आयुध स्वयं अपने हाथ से रक्खे। उसके जो खोखले थे, वे नकुल को दिव्यरूप जान पड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चम अध्याय के श्लोक 30-36 का हिन्दी अनुवाद)

क्योंकि उन्होंने देखा, वहाँ मेघ तिरछी वृष्टि करता है (जिससे खोखले में पानी नहीं भरता)। उन्हीं में उन आयुधोें को रखकर मजबूत रस्स्यिों से उन्हें अच्छी तरह बाँध दिया। इसके बाद पाण्डवों ने एक मृतक का

 शव लाकर उस वृक्ष की शाखा से बाँध दिया। उसे बाँधने का उद्देश्य यह था कि इसकी दुर्गन्ध नाक में पड़ते ही लोग समझ लेंगे कि इसमें सड़ी लाश बँधी है; अतः दूर से ही वे इस शमी वृक्ष को त्याग देंगे।

   परंतप पाण्डव इस प्रकार उस शमी वृक्ष पर शव बाँधकर उस वन में गाय चराने वाले ग्वालों और भेड़ पालने वाले गड़रियों से शव बाँधने का कारण बताते हुए कहते हैं,

    पाण्डव बोले ;- ‘यह एक सौ अस्सी वर्ष की हमारी माता है। हमारे कुल का यह धर्म है, इसलिये ऐसा किया है। हमारे पूर्वज भी ऐसा ही करते आये हैं।'

     इस प्रकार शत्रुओं का संहार करने वाले वे कुन्तीपुत्र नगर के निकट आ पहुँचे। तब युधिष्ठिर ने क्रमशः पाँचों भाइयों के जय, जयन्त, विजय, जयत्सेन और जयद्वल- ये गुप्त नाम रक्खे। तत्पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेरहवें वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण करने के लिये मत्स्य राष्ट्र के उस विशाल नगर में प्रवेश किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डवप्रवेशपर्व में नगर प्रवेश के लिये अस्त्र स्थापना विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें