सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के तीन सौ ग्यारहवें अध्याय से तीन सौ पंद्रहवें अध्याय तक (From the 311 to the 315 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (आरणेय पर्व)

तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन-काष्ठ का पता लगाने के लिये पाण्डवों का मृग के पीछे दौड़ना और दु:खी होना”

    जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! इस प्रकार अपनी पत्नी द्रौपदी का अपहरण होने पर अत्यन्त क्लेश उठाकर पाण्डवों ने जब उन्हें पुन: प्राप्त कर लिया, उसके बाद उन्होंने क्या किया?

   वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! पूर्वोक्त प्रकार से द्रौपदी का हरण होने पर भारी क्लेश उठाने के बाद जब पाण्डवों ने उन्हें पा लिया, तब धर्म से कभी च्युत न होने वाले राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ काम्यकवन छोड़कर पुनः रमणीय द्वैतवन में चले आये। वहाँ स्वादिष्ट फल-मूलों की बहुतायत थी तथा बहुत-से विचित्र वृक्ष उस वन की शोभा बढ़ाते थे। वहाँ सब पाण्डव अपनी पत्नी द्रौपदी के साथ केवल फलाहार करके परिमित भोजन पर जीवन-निर्वाह करते हुए रहते थे।

     द्वैतवन में रहते समय कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव -इन सभी शत्रुसंतापी संयम-नियम-परायण धर्मात्मा पाण्वों ने एक दिन एक ब्राह्मण के लिये पराक्रम करते हुए महान् क्लेश उठाया, परंतु उसका भावी परिणाम सुखमय ही हुआ। राजन्! उस वन में रहते हुए उन कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों ने जो भविष्य में सुख देने वाला क्लेश उठाया, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो।

    एक तपस्वी ब्राह्मण का (रस्सी में बँधा) अरणी सहित मन्थनकाष्ठ एक वृक्ष में टँगा था; वहीं एक मृग आकर उस वृक्ष से अपना शरीर रगड़ने लगा। उस समय वे दोनों काष्ठ उस मृग के सींग में अटक गये। राजन्! उन काष्ठों को लेकर वह महामृग बड़ी उतावली से भागा और बड़े वेग से चौकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आश्रम से ओझल हो गया। कुरुश्रेष्ठ! उस ब्राह्मण ने जब देखा कि मृग मेरी अरणी और मथानी लेकर तेजी से भागा जा रहा है, तब वह अग्निहोत्र की रक्षा के लिये तुरंत वहीं (पाण्डवों के आश्रम में) आया। वन में भाइयों के साथ बैठे हुए अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास तुरंत आकर संतप्त हुए उस ब्राह्मण ने इस प्रकार कहा,

    ब्राह्मण बोले ;- ‘राजन्! मैंने अपनी अरणी और मथानी एक वृक्ष पर रख दी थी। एक मृग वहाँ आकर उस वृक्ष से शरीर रगड़ने लगा और उसके सींग में वे दानों काष्ठ फंस गये। वह महान् मृग उन काष्ठों को लेकर बड़ी उतावली के साथ भाग गया है और अत्यनत वेगवान् होने के कारण चौकड़ी भरता हुआ शीघ्र ही आश्रम से बहुत दूर निकल गया है।

     महाराज युधिष्ठिर! तथा वीर पाण्डवों! तुम सब लोग उसके पदचिह्नों को देखते हुए उस महामृग के पास पहुँचो और वे दोनों काष्ठ ले आओ, जिससे मेरा अग्निहोत्र कर्म लुप्त न हो। ब्राह्मण की बात सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर बहुत दु:खी हुए और मृग का पता लगाने के लिये वे धनुष लेकर भाइयों सहित दौड़े। वे सभी नरश्रेष्ठ कवच बाँध एवं कमर कसकर धनुष लिये आश्रम से दौड़े और ब्राह्मण की कार्यसिद्धि के लिये प्रयत्नशील होकर तीव्र गति से मृग का पीछा करने लगे। कुछ दूर जाने पर उन्हें वह मृग अपने पास ही दिखायी दिया। तब वे महारथी पाण्डव कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाण उस पर छोड़ने लगे; किंतु वे देखते हुए भी वहाँ उस मृग को बींध न सके।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकादशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 18-19 का हिन्दी अनुवाद)

    घोर प्रयत्न करने पर भी वह महामृग उनके हाथ न लगा; सहसा अदृश्य हो गया। मृग को न देखकर वे मनस्वी वीर हतोत्साह और दु:खी हो गये।

     तत्पश्चात् उस गहन वन में भूख-प्यास से पीड़ित अंगों वाले पाण्डव एक शीतल छाया वाले बरगद के पास आकर बैठ गये।

    उनके बैठ जाने पर नकुल अत्यन्त दु:खी हो अमर्ष में आकर बड़े भाई कुरुनन्दन युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले- ‘राजन्! हमारे कुल में कभी आलस्यवश धर्म का लोप नहीं हुआ; अर्थ का भी कभी नाश नहीं हुआ। हमने किसी भी प्राणी की प्रार्थना करने पर कभी उसे कोरा जवाब नहीं दिया-निराश नहीं किया। फिर भी हम धर्मसंकट में कैसे पड़ गये?’

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में मृग का अनुसंधान विषयक तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (आरणेय पर्व)

तीन सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“पानी लाने के लिये गये नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर के तट पर अचेत होकर गिरना”

     युधिष्ठिर बोले ;- भैया! आपत्तियों की न तो कोई सीमा है, न कोई निमित्त दिखायी देता है और न कोई विशेष कारण ही परिलक्षित होता है। पहले का किया हुआ पुण्य और पापरूप कर्म ही प्रारब्ध बनकर सुख और दुःखरूप फल बाँटता रहता है।

    भीमसेन ने कहा ;- जब प्रतिकामी की जगह दूत बनकर गया हुआ दुःशासन द्रौपदी को कौरवों की सभा में दासी की भाँति बलपूर्वक खींच ले आया, उस समय मैंने जो उसका वध नहीं कर डाला; इसी के कारण हम लोग ऐसे धर्म संकट में पड़े हैं।

    अर्जुन बोले ;- सूतपुत्र कर्ण के कहे हुए कठोर अस्थियों को भी विदीर्ण कर देने वाले कड़वे वचन सुनकर भी जो हमने सहन कर लिये; उसी से आज हम धर्मसंकट की अवस्था में आ पहुँचे हैं।

    सहदेव ने कहा ;- भारत! जब शकुनि ने आपको जूए में जीत लिया और उस समय मेंने उसे मार नहीं डाला, उसी का यह फल है कि आज हम लोग धर्मसंकट में पड़ गये हैं।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने नकुल से कहा,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘माद्रीनन्दन! किसी वृक्ष पर चढ़कर सब दिशाओं में दृष्टिपात करो। कहीं आप-पास पानी हो, तो देखो अथवा जल के किनारे होने वाले वृक्षों पर ही दृष्टि डालो। तात! तुम्हारे ये भाई थके-माँदे और प्यासे हैं’। तब नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर शीघ्र ही एक पेड़ पर चढ़ गये और चारों ओर दृष्टि डालकर अपने बड़े भाई से बोले,

    नकुल बोले ;- ‘राजन्! मैं ऐसे बहुतेरे वृक्ष देख रहा हूँ, जो जल के किनारे ही होते हैं। सारसों की आवाज भी सुनायी देती है; अतः निःसंदेह यहाँ आस-पास ही कोई जलाशय है’। तब सत्य का पालन करने वाले कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने नकुल से कहा,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘सौम्य! शीघ्र जाओ और तरकसों में पानी भर लाओ’। नकुल ‘बहुत अच्छा’ कहकर बड़े भाई की आज्ञा से शीघ्रतापूर्वक गये और जहाँ जलाशय था, वहाँ तुरंत पहुँच गये। वहाँ सारसों से घिरे हुए जलाशय का स्वच्छ जल देखकर नकुल को उसे पीने की इच्छा हुई। इतने में ही आकाश से उनके कानों में एक स्पष्ट वाणी सुनायी दी।

     यक्ष बोला ;- तात! तुम इस सरोवर का पानी पीने का साहस न करो। इस पर पहले से ही मेरा अधिकार हो चुका है। माद्रीकुमार! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, फिर पानी पीओ और ले भी जाओ। नकुल की प्यास बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने यक्ष के कथन की अवहेलना करके वहाँ का शीतल जल पी लिया। पीते ही वे अचेत होकर गिर पड़े। नकुल के लौटने में जब अधिक विलम्ब हो गया, तब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने अपने शत्रुहन्ता वीर भ्राता सहदेव से कहा,

   युधिष्ठिर बोला ;- ‘सहदेव! हमारे अनुज और तुम्हारे अग्रज भ्राता नकुल को यहाँ से गये बहुत देर हो गयी। तुम जाकर अपने सहोदर भाई को बुला लाओ और पानी भी ले आओ’। तब सहदेव ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसी दिशा की ओर चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, भाई नकुल पृथ्वी पर मरे प हैं। भाई के शोक से उनका हृदय संतप्त हो उठा। साथ ही प्यास से भी वे बहुत कष्ट पा रहे थे; अतः पानी की ओर दौड़े। उसी समय आकाशवाणी बोल उठी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘तात! पानी पीने का साहस न करो। यहाँ पहले से ही मेरा अधिकार हो चुका है। तुम पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, फिर इच्छानुसार जल पीओ और साथ ले भी जाओ’। प्यासे सहदेव उस वचन की अवहेलना करके वहाँ का ठंडा जल पीने लगे एवं पीते ही अचेत होकर गिर पड़े। तदनन्तर कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘शत्रुनाशन बीभत्सो! तुम्हारे दोनों भाइयों को गये हुए बहुत देर हो गयी। तुम्हारा कल्याण हो। तुम उन दोनों को बुला लाओ और साथ ही पानी भी ले आओ। तात! तुम्हीं हम सब दु:खी बन्धुओं के सहारे हो’। युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर निद्राविजयी बुद्धिमान अर्जुन धनुष-बाण और खड्ग लिये उस सरोवर के तट पर गये।

     श्वेतवाहन अर्जुन ने जल लाने के लिये गये हुए उन दोनों पुरुषसिंह भाइयों को वहाँ मरे हुए देखा। दोनों को प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए की भाँति देखकर उन्होंने धनुष उठाकर उस वन का अच्छी तरह निरीक्षण किया। जब उस विशाल वन में उन्हें कोई भी हिंसक प्राणी नहीं दिखायी दिया, तब सव्यसाची अर्जुन थककर पानी की ओर दौड़े। दौड़ते समय उन्हें आकाश की ओर से आती हुई वाणी सुनायी दी,

   यक्ष बोला ;- ‘कुन्तीनन्दन! क्यों पानी पी रहे हो? तुम जबरदस्ती यह जल नहीं पी सकते। भारत! यदि मेरे उन प्रश्नों का उत्तर दे सको, तो यहाँ का पानी पीओ और साथ ले भी जाओ’।

    इस प्रकार रोके जाने पर अर्जुन ने कहा,

   अर्जुन बोले ;- ‘जरा सामने आकर देखो। सामने आते ही बाणों से टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर फिर तुम इस प्रकार नहीं बोल पाओगे’। ऐसा कहकर अर्जुन ने अपनी शब्दवेध-कला का परिचय देते हुए दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों की सब ओर झड़ी लगा दी। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! अर्जुन उस समय कर्णी, नालीक तथा नाराच आदि बाणों की वर्षा कर रहे थे। प्यास से पीड़ित हुए अर्जुन ने कितने ही अमोघ बाणों का प्रयोग करके आकाश में भी कई बार बाण समूह की वर्षा की।

    यक्ष बोला ;- पार्थ! इस प्रकार प्राणियों पर आघात करने से क्या लाभ? पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, फिर जल पीओ। यदि तुम प्रश्नों का उत्तर दिये बिना ही यहाँ का जल पीओगे, तो पीते ही मर जाओगे। उसके ऐसा कहने पर कुन्तीपुत्र सव्यसाची धनंजय उसके वचनों की अवहेलना करके जल पीने लगे और पीते ही अचेत होकर गिर पड़े। तब कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा,

     युधिष्ठिर बोले ;- ‘परंतप! भरतनन्दन! नकुल, सहदेव और अर्जुन को पानी के लिये गये बहुत देर हो गयी। वे अभी तक नहीं आ रहे हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जाकर उन्हें बुला लाओ और पानी भी ले आओ’। 

तब भीमसेन बोले ;- ‘बहुत अच्छा’ कहकर उस स्थान पर गये, जहाँ वे पुरुषसिंह तीनों भाई पृथ्वी पर पड़े थे। उन्हें उस अवस्था में देखकर भीमसेन को बड़ा दुःख हुआ। इधर प्यास भी उन्हें बहुत कष्ट दे रही थी। महाबाहु भीमसेन ने मन-ही-मन यह निश्चय किया कि ‘यह यक्षों तथा राक्षसों का काम है।’ फिर उन्होंने सोचा; ‘आज निश्चय ही मुझे शत्रु के साथ युद्ध करना पड़ेगा, अतः पहले जल तो पी लूँ।’ ऐसा निश्चय करके प्यासे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार भीमसेन जल की ओर दौड़े।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वादशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 39-45 का हिन्दी अनुवाद)

   यक्ष बोला ;- तात! पानी पीने का साहस न करना। इस जल पर पहले मेरा अधिकार स्थापित हो चुका है। कुन्तीकुमार! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दे दो, फिर पानी पीओ और ले भी जाओ।

   अमित तेजस्वी यक्ष के ऐसा कहने पर भी भीमसेन उन प्रश्नों का उत्तर दिये बिना ही जल पीने लगे और पीते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

     तदनन्तर कुन्तीकुमार पुरुषरत्न महाबाहु राजा युधिष्ठिर बहुत देर तक सोच-विचार करके उठे और जलते हुए हृदय से उन्होंने उस विशाल वन में प्रवेश किया, जहाँ मनुष्यों की आवाज तक नहीं सुनायी देती थी। वहाँ रुरु मृग, वराह तथा पक्षियों के समुदाय ही निवास करते थे। नीले रंग के चमकीले वृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। भ्रमरों के गुंजन और विहंगों के कलरव से वह वनप्रान्त शब्दायमान हो रहा था।

     महायशस्वी श्रीमान् युधिष्ठिर ने उस वन में विचरण करते हुए उस सरोवर को देखा, जो सुनहरे रंग के कुसुम केसरों से विभूषित था। जान पड़ता था; साक्षात् विश्वकर्मा ने ही उसका निर्माण किया है। उस सरोवर का जल कमल की बेलों से आच्छादित हो रहा था और उसके चारों किनारों पर सिंदुवार, बेंत, केवड़े, करवीर तथा पीपल के वृक्ष उसे घेरे हुए थे। उस समय भाइयों से मिलने के लिये उत्सुक श्रीमान् धर्मनन्दन युधिष्ठिर थकावट से पीड़ित हो उस सरोवर पर आये और वहाँ की अवस्था देखकर बड़े विस्मित हुए।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में नकुल आदि चारों भाइयों के मूर्च्छित होकर गिरने से सम्बन्ध रखने वाला तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (आरणेय पर्व)

तीन सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर तथा युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट हुए यक्ष का चारों भाइयों के जीवित होने का वरदान देना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर ने इन्द्र के समान गौरवशाली अपने भाइयों को सरोवर के तट पर निर्जीव की भाँति पड़े हुए देखा; मानो प्रलयकाल में सम्पूर्ण लोकपाल अपने लोकों से भ्रष्ट होकर गिर गये हों। अर्जुन मरे पड़े थे; उनके धनुष-बाण इधर बिखरे पड़े थे। भीमसेन और नकुल-सहदेव भी प्राणरहित हो निश्चेष्ट हो गये थे। इन सबको देखकर युधिष्ठिर गरम-गरम लंबी साँसें खींचने लगे। उनके नेत्रों से शोक के आँसू उमड़कर उन्हें भिगो रहे थे। अपने समस्त भ्राताओं को इस प्रकार धराशायी हुए देख महाबाहु धर्मपुत्र युधिष्ठिर गहरी चिन्ता में डूब गये और देर तक विलाप करते रहे।

     वे बोले ;- ‘महाबाहु वृकोदर! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं युद्ध में अपनी गदा से दुर्योधन की दोनों जाँघें तोड़ डालूँगा। महाबाहो! तुम कुरुकुल की कीर्ति बढ़ाने वाले थे। तुम्हारा हृदय विशाल था। वीर! आज तुम्हारे गिर जाने से मेरे लिये सब कुछ व्यर्थ हो गया। साधारण मनुष्यों की बातें तथा उनकी प्रतिज्ञाएँ तो झूठी निकल जाती हैं; परंतु तुम लोगों के सम्बन्ध में जो दिव्य वाणियाँ हुई थीं, वे कैसे मिथ्या हो सकती हैं? धनंजय! जब तुम्हारा जन्म हुआ था, उस समय देवताओं ने भी कहा था कि ‘कुन्ती! तुम्हारा यह पुत्र सहस्रनेत्रधारी इन्द्र से भी किसी बात में कम न होगा।’ उत्तर परियात्र पर्वत पर सब प्राणियों ने तुम्हारे विषय में यही कहा था कि ‘ये अर्जुन शीघ्र ही पाण्डवों की खोयी हुई राजलक्ष्मी को पुनः लौटा लायेंगे। युद्ध में कोई भी इन पर विजय पाने वाला न होगा और ये भी किसी को परास्त किये बिना न रहेंगे। वे ही महाबली अर्जुन आज मृत्यु के अधीन कैसे हो गये? ये वे ही धनंजय मेरी आशालता को छिन्न-भिन्न करके धरती पर पड़े हें; जिन्हें अपना रक्षक बनाकर और जिनका ही भारी भरोसा करके हम लोग ये सारे दुःख सहते आये हैं।

    किसी भी अस्त्र से प्रतिहत न होने वाले, समरांगण में उन्मत्त होकर लड़ने वाले तथा सदैव शत्रुओं का संहार करने वाले वीर थे, वे आज सहसा शत्रु के अधीन कैसे हो गये? मुझ दुष्ट का हृदय निश्चय ही पत्थर और लोहे का बना हुआ है, जो कि आज इन दोनों भाई नकुल और सहदेव को धरती पर पड़ा देख विदीर्ण नहीं हो जाता है। पुरुषसिंह बन्धुओं! तुम लोग शास्त्रों के विद्वान्, देशकाल को समझने वाले, तपस्वी और कर्मठ वीर थे। अपने योग्य पराक्रम किये बिना ही तुम लोग (प्राणहीन हो) कैसे सो रहे हो? तुम्हारे शरीर में कोई घाव नहीं है, तुमने धनुष-बाण का स्पर्श तक नहीं किया है तथा तुम किसी से परास्त होने वाले नहीं हो; ऐसी दशा में इस पृथ्वी पर संज्ञाशून्य होकर क्यों पड़े हो? परम बुद्धिमान युधिष्ठिर धरती पर पड़े हुए पर्वत शिखरों के समान अपने भाइयों को इस प्रकार सुख की नींद सोते देखकर बहुत दु:खी हुए। उनके सारे अंगों में पसीना निकल आया और वे अत्यन्त कष्टप्रद अवस्था में पहुँच गये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘यह ऐसी ही होनहार है’, ऐसा कहकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर शोकसागर में मग्न तथा व्याकुल होकर भाइयों की मृत्यु के कारण पर विचार करने लगे। वे यह भी सोचने लगे कि ‘अब क्या करना चाहिये?’ महाबुद्धिमान महाबाहु युधिष्ठिर देश और कालतत्त्व को पृथक्-पृथक् जानने वाले थे; तो भी बहुत सोचने विचारने पर भी वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तत्पश्चात् धर्मात्मा और तपस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने मन को स्थिर करके बहुत विलाप करने के पश्चात् अपनी बुद्धि द्वारा यह विचार करने लगे,- ‘इन वीरों को किसने मार गिराया है? इनके शरीर में अस्त्र-शस्त्रों के आघात का कोई चिह्न नहीं है और न इस स्थान पर किसी दूसरे के पैरों का निशान ही है। मैं समझता हूँ, अवश्य वह कोई भारी भूत है, जिसने मेरे भाइयों को मारा है।‘ इस विषय में मैं चित्त को एकाग्र करके फिर सोचूँगा अथवा पानी पीकर इस रहस्य को समझने की चेष्टा करूँगा।

   सम्भव है, दुर्योधन ने चुपके-चुपके कोई षड़यन्त्र किया हो अथवा जिसकी बुद्धि में सदा कुटिलता ही निवास करती है, उस गान्धारराज शकुनि की भी यह करतूत हो सकती है। जिसके लिये कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों बराबर हैं, उस अजितात्मा शकुनि पर कौन वीर पुरुष विश्वास कर सकता है? अथवा गुप्तरूप से नियुक्त किये हुए पुरुषों द्वारा दुरात्मा दुर्योधन ने ही यह हिंसात्मक प्रयोग किया होगा’। इस प्रकार परम बुद्धिमान युधिष्ठिर भाँति-भाँति की चिन्ता करने लगे। (परीक्षा करने पर) उन्हें इस बात का निश्चय हो गया था कि इस सरोवर के जल में जहर नहीं मिलाया गया है। क्योकि मर जाने पर भी मेरे इन भाइयों के शरीर में कोई विकृति नहीं उत्पन्न हुई है। अब भी मेरे इन भाइयों के मुख की कान्ति प्रसन्न है।’ इस तरह वे सोच-विचार में डूबे ही रहे। ‘मेरे इन पुरुषरत्न भाइयों में से प्रत्येक के शरीर में बल का अगाध सिन्धु लहराता था। आयु पूर्ण होने पर सबका अन्त कर देने वाले यमराज के सिवा दूसरा कौन इनसे भिड़ सकता था?’ इस प्रकार निश्चय करके युधिष्ठिर जल में उतरे। पानी में प्रवेश करते ही उनके कानों में आकाशवाणी सुनायी दी।

    यक्ष बोला ;- राजकुमार! मैं सेवार और मछली खाने वाला बगुला हूँ। मैंने ही तुम्हारे छोटे भाइयों को यमलोक भेजा है; अतः मेरे पूछने पर यदि तुम मेरे प्रश्नों का उत्तर न दोगे, तो तुम भी यमलोक के अतिथि होआगे। तात! जल पीने का साहस न करना। इस पर मेरा पहले से अधिकार हो गया है। कुन्तीकुमार! मेरे प्रश्नों का उत्तर दो और जल पीओ और ले भी जाओ।

   युधिष्ठिर बोले ;- मैं पूछता हूँ, तुम रुद्रों, वसुओं अथवा मरुद्गणों में से कौन-से देवता हो? बताओ। यह काम किसी पक्षी का किया हुआ नहीं हो सकता? मेरे महातेजस्वी भाई हिमवान्, पारियात्र, विन्ध्य तथा मलय- इन चारों पर्वतों के समान हैं। इन्हें किसने मार गिराया है? बलवानों में श्रेष्ठ वीर! तुमने यह अत्यन्त महान् कर्म किया है। बड़े-बड़े युद्धों में जिन वीरों (के प्रभाव) को देवता, गन्धर्व, असुर तथा राक्षस भी नहीं सह सकते थे, उन्हें गिराकर तुमने परम अद्भुत पराक्रम किया है। तुम्हारा कार्य क्या है? यह मैं नहीं जानता। तुम क्या चाहते हो? इसका भी मुझे पता नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 35-51 का हिन्दी अनुवाद)

     तुम्हारे विषय में मुझे महान् कौतूहल हो गया है। तुमसे मुझे कुछ भय भी लगने लगा है, जिससे मेरा हृदय उद्विग्न हो उठा है और सिर में संताप होने लगा है। अतः भगवन्! मै विनयपूर्वक पूछता हूँ, तुम यहाँ कौन विराज रहे हो?

    यक्ष ने कहा ;- तुम्हारा कल्याण हो। मैं जलचर पक्षी नहीं हूँ, यक्ष हूँ। तुम्हारे ये सभी महान् तेजस्वी भाई मेरे द्वारा मारे गये हैं।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तत्पश्चात् उस समय इस प्रकार बोलने वाले उस यक्ष की वह अमंगलमयी और कठोर वाणी सुनकर भरतश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर उसके पास जाकर खड़े हो गये। उन्होंने देखा, एक विकट नेत्रों वाला विशालकाय यक्ष वृक्ष के ऊपर बैठा है। वह बड़ा ही दुर्धर्ष, ताड़ के समान लंबा, अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी तथा पर्वत के समान ऊँचा है। वही अपनी मेघ के समान गम्भीर नादयुक्त वाणी से उन्हें फटकार रहा है। उसकी आवाज बहुत ऊँची है।

     यक्ष ने कहा ;- राजन्! तुम्हारे इन भाइयों को मैंने बार-बार रोका था; फिर भी ये बलपूर्वक जल ले जाना चाहते थे; इसी से मैंने इन्हें मार डाला। महाराज युधिष्ठिर! यदि तुम्हें अपने प्राण बचाने की इच्छा हो, तो वहाँ जल नहीं पीना चाहिये। पार्थ! तुम पानी पीने का साहस न करना, यह पहले से ही मेरे अधिकार की वस्तु है। कुन्तीनन्दन! पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, उसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ।

     युधिष्ठिर ने कहा ;- यक्ष! में तुम्हारे अधिकार की वस्तु को नहीं ले जाना चाहता। मैं स्वयं ही अपनी बड़ाई करूँ; इस बात की सत्पुरुष कभी प्रशंसा नहीं करते। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूँगा, तुम मुझसे प्रश्न करो।

    यक्ष ने पूछा ;- सूर्य को कौन ऊपर उठाता (उदित) करता है? उसके चारों ओर कौन चलते हैं? उसे असत कौन करता है? और वह किसमें प्रतिष्ठित है?

    युधिष्ठिर बोले ;- ब्रह्म सूर्य को ऊपर उठाता (उदित करता) है, देवता उसके चारों ओर चलते हैं, धर्म उसे असत करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।

   यक्ष ने पूछा ;- राजन्! मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है? महत्पद किसके द्वारा प्राप्त करता है? वह किसके द्वारा द्वितीयवान् होता है? ओर किससे बुद्धिमान होता है?

   युधिष्ठिर बोले ;- वेदाध्ययन के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है, तप से महत्पद प्राप्त करता है, धैर्य से द्वितीयवान् (दूसरे साथी से युक्त) होता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में बुद्धिमान होता है।

    यक्ष ने पूछा ;- ब्राह्मणों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों का-सा धर्म क्या है? उनका मनुष्य-भाव क्या है? और उनमें असत्पुरुषों का-सा आचरण क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- वेदों का स्वाध्याय ही ब्राह्मणों में देवत्व है, तप सत्पुरुषों का-सा धर्म है, मरना मनुष्य भाव है और निन्दा करना असत्पुरुषों का-सा आचरण है।

   यक्ष ने पूछा ;- क्षत्रियों में देवत्व क्या है? उनमें सत्पुरुषों का-सा धर्म क्या है? उनका मनुष्य-भाव क्या है? और उनमें असत्पुरुषों का-सा आचरण क्या है?

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 52-66 का हिन्दी अनुवाद)

   युधिष्ठिर बोले ;- बाणविद्या क्षत्रियों का देवत्व है, यज्ञ उनका सत्पुरुषों का-सा धर्म है, भय मानवीय भाव है और शरण में आये हुए दु:खियों का परित्याग कर देना उनमें असत्पुरुषों का-सा आचरण है।

    यक्ष ने पूछा ;- कौन एक वस्तु यज्ञिय साम है? कौन एक (यज्ञ सम्बन्धी) यज्ञिय है? कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है? और किस एक का यज्ञ अतिक्रण नहीं करता?

   युधिष्ठिर बोले ;- प्राण ही यज्ञिय साम है, मन ही यज्ञ सम्बन्धी यजु है, एकमात्र ऋचा ही यज्ञ का वरण करती है और उसी का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता।

    यक्ष ने पूछा ;- खेती करने वालों के लिये कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? बिखेरने (बोने) वालों के लिये क्या श्रेष्ठ है? प्रतिष्ठा-प्राप्त धनियों के लिये कौन-सी वस्तु श्रेष्ठ है? तथा संतानोत्पादन करने वालों के लिये क्या श्रेष्ठ है?

    युधिष्ठिर बोले ;- खेती करने वालों के लिये वर्षा श्रेष्ठ है। बिखेरने (बोने) वालों के लिये बीज श्रेष्ठ है। प्रतिष्ठाप्राप्त धनियों के लिये गौ (का पालन-पोषण और संग्रह) श्रेष्ठ है और संतानोत्पादन करने वालों के लिये पुत्र श्रेष्ठ है।

   यक्ष ने पूछा ;- ऐसा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान्, लोक में सम्मानित और सब प्राणियों का माननीय होकर एवं इन्द्रियों के विषयों को अनुभव करते तथा श्वास लेते हुए भी वास्तव में जीवित नहीं हैं?

    युधिष्ठिर बोले ;- जो देवता, अतिथि, भरणीय कुटम्बीजन, पितर और आत्मा-इन पाँचों का पोषण नहीं करता, वह श्वास लेने पर भी जीवित नहीं है।

    यक्ष ने पूछा ;- पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है? वायु से भी तेज चलने वाला क्या है? और तिनकों से भी अणिक (असंख्य) क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- माता का गौरव पृथ्वी से भी अधिक है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक असंख्य एवं अनन्त है।

    यक्ष ने पूछा ;- कौन सोने पर भी आँखें नहीं मूंदता? उत्पन्न हाकर भी कौन चेष्टा नहीं करता? किसमें हृदय नहीं है? और कौन वेग से बढ़ता है?

    युधिष्ठिर बोले ;- मछली सोने पर भी आँखें नहीं मूँदती, अण्डा उत्पन्न होकर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थरों में हृदय नहीं है और नदी वेग से आगे बढ़ती है।

    यक्ष ने पूछा ;- प्रवासी (परदेश के यात्री) का मित्र कौन है? गृहवासी (गृहस्थ) का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है? और मृत्यु के समीप पहुँचे हुए पुरुष का मित्र कौन है?

    युधिष्ठिर बोले ;- सहयात्रियों का समुदाय अथवा साथ में यात्रा करने वाला साथी ही प्रवासी मित्र है, पत्नी गृहवासी का मित्र है, वैद्य रोगी का मित्र है और दान मुमूर्षु (अर्थात्) मनुष्य का मित्र है।

    यक्ष ने पूछा ;- राजेन्द्र! समसत प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है? और यह सारा जगत् क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- अग्नि समस्त प्राणियों का अतिथि है, गौ का दूध अमृत है, अविनाशी नित्य धर्म ही सनातन धर्म है और वायु यह सारा जगत् है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 67-81 का हिन्दी अनुवाद)

   यक्ष ने पूछा ;- अकेला कौन विचरता है? एक बार उत्पन्न होकर पुनः कौन उत्पन्न होता है? शीत की औषधि क्या है? और महान् आवपन (क्षेत्र) क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- सूर्य अकेला विचरता है, चन्द्रमा एक बार जन्म लेकर पुनः जन्म लेता है, अग्नि शीत की औषधि है और पृथ्वी बड़ा भारी आवपन है।

    यक्ष ने पूछा ;- धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यश का मुख्य स्थान क्या है? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है? और सुख का मुख्य स्थान क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- धर्म का मुख्य स्थान दक्षता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है।

    यक्ष ने पूछा ;- मनुष्य की आत्मा क्या है? इसका दैवकृत सखा कौन है? इसका उपजीवन (जीवन का सहारा) क्या है? और इसका परम आश्रय क्या है?

    युधिष्ठिर बोले ;- पुत्र मनुष्य की आत्मा है, स्त्री इसकी दैवकृत सहचरी है, मेघ उपजीवन है और दान इसका परम आश्रय है।

    यक्ष ने पूछा ;- धन्यवाद के योग्य पुरुषों में उत्तम गुण क्या है? धनों में उत्तम धन क्या है? लाभों में प्रधान लाभ क्या है? और सुखों में उत्तम सुख क्या है?

   युधिष्ठिर बोले ;- धन्य पुरुषों में दक्षता ही उत्तम गुण है, धनों में शास्त्रज्ञान प्रधान है? लाभों में आरोग्य श्रेष्ठ है और सुखों में संतोष ही उत्तम सुख है।

   यक्ष ने पूछा ;- लोक में श्रेष्ठ कर्म क्या है? नित्य फल वाला धर्म क्या है? किसको वश में रखने से मनुष्य शोक नहीं करते? और किनके साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती?

युधिष्ठिर बोले ;- लोक में दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फल वाला है, मन को वश में रखने से मनुष्य शोक नहीं करते और सत्पुरुषों के साथ की हुई मित्रता नष्ट नहीं होती।

    यक्ष ने पूछा ;- किस वस्तु को त्यागकर मनुष्य प्रिय होता है? किसको त्यागकर शोक नहीं करता , किसको त्यागकर वह अर्थवान होता है? और किसको त्यागकर सुखी होता है?

   युधिष्ठिर बोले ;- मान को त्याग देने पर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध को त्यागकर शोक नहीं करता, काम को त्यागकर वह अर्थवान् होता है और लोभ को त्यागकर सुखी होता है।

    यक्ष ने पूछा ;- ब्राह्मण को क्यों दान दिया जाता है? नट और नर्तकों को क्यों दान देते हैं? सेवकों को दान देने का क्या प्रयोजन है? और राजाओं को क्यों दान दिया जाता है?

    युधिष्ठिर बोले ;- ब्राह्मण को धर्म के लिये दान दिया जाता है, नट और नर्तकों को यश के लिये दान (धन) देते हैं। सेवकों को उनके भरण-पोषण के लिये दान (वेतन) दिया जाता है और राजाओं को भय के कारण दान (कर) देते हैं।

    यक्ष ने पूछा ;- जगत् किस वस्तु से ढका हुआ है? किसके कारण वह प्रकाशित नहीं होता? मनुष्य मित्रों को किसलिये त्याग देता है? और स्वर्ग में किस कारण नहीं जाता है?

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्याय के श्लोक 82-97 का हिन्दी अनुवाद)

   युधिष्ठिर बोले ;- जगत् अज्ञान से ढका हुआ है, तमोगुण के कारण वह प्रकाशित नहीं होता, लोभ के कारण मनुष्य मित्रों को त्याग देता है और आसक्ति के कारण स्वर्ग में नहीं जाता।

   यक्ष ने पूछा ;- पुरुष किस प्रकार मरा हुआ कहा जाता है? राष्ट्र किस प्रकार मर जाता है? श्राद्ध किस प्रकार मृत हो जाता है? और यज्ञ कैसे नष्ट हो जाता है?

   युधिष्ठिर बोले ;- दरिद्र पुरुष मरा हुआ है यानि मरे हुए के समान है, बिना राजा का राज्य मर जाता है यानि नष्ट हो जाता है, श्रोत्रिय ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मृत हो जाता है और बिना दक्षिणा का यज्ञ नष्ट हो जाता है।

   यक्ष ने पूछा ;- दिशा क्या है? जल क्या है? अन्न क्या है? विष क्या है? और श्राद्ध का समय क्या है? यह बताओ। इसके बाद जल पीओ और ले भी जाओ।

   युधिष्ठिर बोले ;- सत्पुरुष दिशा हैं, आकाश जल है, पृथ्वी अन्न है, प्रार्थना (कामना) विष है और ब्राह्मण ही श्राद्ध का समय है अथवा यक्ष! इस विषय में तुम्हारी क्या मान्यता है?

    यक्ष ने पूछा ;- तप का क्या लक्षण बताया गया है? दम किसे कहते हैं? और लज्जा किसको कहा गया है?

    युधिष्ठिर बोले ;- अपने धर्म में तत्पर रहना तप है, मन के दमन का ही नाम दम है, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों का सहन करना क्षमा है तथा न करने योग्य काम से दूर रहना लज्जा है।

    यक्ष ने पूछा ;- राजन्! ज्ञान किसे कहते हैं? शम क्या कहलाता है? उत्तम दया किसका नाम है? और आर्जन (सरलता) किसे कहते हैं?

    युधिष्ठिर बोले ;- परमात्मतत्त्व का यथार्थ बोध ही ज्ञान है, चित्त की शान्ति ही शम है, सब के सुख की इच्छा रखना ही उत्तम दया है और समचित्त होना ही आर्जन (सरलता) है।

    यक्ष ने पूछा ;- मनुष्यों में दुर्जय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है? साधु कौन माना जाता है? और असाधु किसे कहते हैं?

    युधिष्ठिर बोले ;- क्रोध दुर्जय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि है तथा जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो, वही साधु है और निर्दयी पुरुष को ही असाधु माना गया है।

    यक्ष ने पूछा ;- राजन्! मोह किसे कहते हैं? मान क्या कहलाता है? आलस्य किसे जानना चाहिये? और शोक किसे कहते हैं?

    युधिष्ठिर बोले ;- धर्म मूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्म का पालन न करना आलस्य है और अज्ञान को ही शोक कहते हैं।

    यक्ष ने पूछा ;- ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य क्या कहलाता है? परम स्नान किसे कहते हैं? और दान किसका नाम है?

    युधिष्ठिर बोले ;- अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलों का त्याग करना परम स्नान है और प्राणियों की रक्षा करना ही दान है।

   यक्ष ने पूछा ;- किस पुरुष को पण्डित समझना चाहिये? नास्तिक कौन कहलाता है? मूर्ख कौन है? काम क्या है? तथा मत्सर किसे कहते हैं?

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 98-113 का हिन्दी अनुवाद)

   युधिष्ठिर बोले ;- धर्मज्ञ को पण्डित समझना चाहिये, मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है तथा जो जन्म-मरणरूप संसार का कारण है, वह वासना काम है और हृदय की जलन ही मत्सर है।

   यक्ष ने पूछा ;- अहंकार किसे कहते हैं? दम्भ क्या कहलाता है? जिसे परम दैव कहते हैं, वह क्या है? और पैशुन्य किसका नाम है?

   युधिष्ठिर बोले ;- महान् अज्ञान अहंकार है, अपने को झूठ-मूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दान का फल दैव कहलाता है और दूसरों को दोष लगाना पैशुन्य (चुगली) है।

    यक्ष ने पूछा ;- धर्म, अर्थ और काम- ये सब परस्पर विरोधी हैं। इन नित्य-विरुद्ध पुरुषों का एक स्थान पर कैसे संयोग हो सकता है?

    युधिष्ठिर बोले ;- जब धर्म और भार्या-ये दोनों परस्पर अविरोधी होकर मनुष्य के वश में हो जाते हैं, उस समय धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों परस्पर विरोधियों का भी एक साथ रहना सहज हो जाता है।

   यक्ष ने पूछा ;- भरतश्रेष्ठ! अक्षय नरक किस पुरुष को प्राप्त होता है? मेरे इस प्रश्न का शीघ्र ही उत्तर दो।

    युधिष्ठिर बोले ;- जो पुरुष भिक्षा माँगने वाले किसी अकिंचन ब्राह्मण को स्वयं बुलाकर फिर उसे ‘नाहीं' कर देता है, वह अक्षय नरक में जाता है। जो पुरुष वेद, धर्मशास्त्र, ब्राह्मण, देवता और पितृधर्मों में मिथ्याबुद्धि रखता है, वह अक्षय नरक को प्राप्त होता है। धन पास रहते हुए भी जो लोभवश दान और भोग से रहित है तथा (माँगने वाले ब्राह्मणादि को एवं न्याययुक्त भोग के लिये स्त्री-पुत्रादि को) पीछे से यह कह देता है कि मेरे पास कुछ नहीं है, वह अक्षय नरक में जाता है।

    यक्ष ने पूछा ;- राजन्! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है? यह बात निश्चय करके बताओ।

   युधिष्ठिर बोले ;- तात यक्ष! सुनो, न तो कुल ब्राह्मणत्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मण को तो उस पर विशेष रूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले तथा शास्त्र का विचार करने वाले- ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं। पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तव्य का पालन करता है। चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शूद्र से भी बढ़कर है। जो (नित्य) अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है।

   यक्ष ने पूछा ;- बताओ; मधुर वचन बोलने वाले को क्या मिलता है? सोच-विचार कर काम करने वाला क्या पा लेता है? जो बहुत-से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है?

    युधिष्ठिर बोले ;- मधुर वचन बोलने वाला सबको प्रिय होता है, सोच-विचार कर काम करने वाले को अधिकतर सफलता मिलती है एवं जो बहुत-से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, वह सद्गति पाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 114-128 का हिन्दी अनुवाद)

   यक्ष ने पूछा ;- सुखी कौन है? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है तथा वार्ता क्या है? मेरे इन चार प्रश्नों का उत्तर देकर जल पीओ।

   युधिष्ठिर बोले ;- जलचर यक्ष! जिस पुरुष पर ऋण नहीं बचे हुए हैं और जो परदेश में नहीं है, वह भले ही पाँचवें या छठे दिन अपने घर के भीतर साग-भात ही पकाकर खाता हो, तो भी वही सुखी है। संसार से रोज-रोज प्राणी यमलोक में जा रहे हैं; किंतु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं; इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा? तर्क कहीं स्थित नहीं है, श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, एक ही ऋषि नहीं है कि जिसका मत प्रमाण माना जाये तथा धर्म का तत्त्व गुहा में निहित है अर्थात् अत्यन्त गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हैं, वही मार्ग है। इस महामोहरूपी कड़ाहे में भगवान काल समस्त प्राणियों को मास और ऋतुरूप करछी से उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधन के द्वारा राँध रहे हैं, यही वार्ता है।

    यक्ष ने पूछा ;- परंतप! तुमने मेरे सब प्रश्नों के उत्तर ठीक-ठीक दे दिये, अब तुम पुरुष की भी व्याख्या कर दो और यह बाताओ कि सबसे बड़ा धनी कौन है?

     युधिष्ठिर बोले ;- जिस व्यक्ति के पुण्य कर्मों की कीर्ति का शब्द जब तक स्वर्ग और भूमि को स्पर्श करता है, तब तक वह पुरुष कहलाता है। जो मनुष्य प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत् इन द्वन्द्वों में सम है, वही सबसे बड़ा धनी है। जो भूत, वर्तमान और भविष्य सभी विषयों की ओर से निःस्पृह, शान्तचित्त, सुप्रसन्न और सदा योगयुक्त है, वही सब धनियों का स्वामी है।

     यक्ष ने कहा ;- राजन्! जो सबसे बढ़कर धनी पुरुष है, उसकी तुमने ठीक-ठीक व्याख्या कर दी; इसलिये अपने भाइयों में से जिस एक को तुम चाहो, वही जीवित हो सकता है।

    युधिष्ठिर बोले ;- यक्ष! यह जो श्यामवर्ण, अरुणनयन, सुविशाल शालवृक्ष के समान ऊँचा और चौड़ी छाती वाला महाबाहु नकुल है, वही जीवित हो जाये।

    यक्ष ने कहा ;- राजन्! यह तुम्हारा प्रिय भीमसेन है और यह तुम लोगों का सबसे बड़ा सहारा अर्जुन है; इन्हें छोड़कर तुम किसलिये सौतेले भाई नकुल को जिलाना चाहते हो? जिसमें दस हजार हाथियों के समान बल है, उस भीम को छोड़कर तुम नकुल को ही क्यों जिलाना चाहते हो? सभी मनुष्य भीमसेन को तुम्हारा प्रिय बतलाते हैं; उसे छोड़कर भला सौतेले भाई नकुल में तुम कौन-सा सामर्थ्य देखकर उसे जिलाना चाहते हो? जिसके बाहुबल का सभी पाण्डवों को पूरा भरोसा है, उस अर्जुन को भी छोड़कर तुम्हें नकुल को जिला देने की इच्छा क्यों है?

    युधिष्ठिर बोले ;- यदि धर्म का नाश किया जाये, तो वह नष्ट हुआ धर्म ही कर्ता को भी नष्ट कर देता है और यदि उसकी रक्षा की जाये, तो वही कर्ता की भी रक्षा कर लेता है। इसी से मैं धर्म का त्याग नहीं करता कि कहीं नष्ट होकर वह धर्म मेरा ही नाश न कर दे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रयोदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 129-133 का हिन्दी अनुवाद)

    यक्ष! मेरा ऐसा विचार है कि वस्तुतः अनृशंसता (दया तथा समता) ही परम धर्म है। यही सोचकर मैं सबके प्रति दया और समान भाव रखना चाहता हूँ; इसलिये नकुल ही जीवित हो जाये।

    यक्ष! लोग मेरे विषय में ऐसा समझते हैं कि राजा युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं; अतएव में अपने धर्म से विचलित नहीं होऊँगा। मेरा भाई नकुल जीवित हो जाये।

    मेरे पिता के कुन्ती और माद्री नाम की दो भार्याएँ रहीं। वे दोनों ही पुत्रवती बनी रहें, ऐसा मेरा विचार है। यक्ष! मेरे लिये जैसी कुन्ती हैं, वैसी ही माद्री। उन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मैं दोनों माताओं के प्रति समान भाव ही रखना चाहता हूँ। इसलिये नकुल ही जावित हो।

     यक्ष ने कहा ;- भरतश्रेष्ठ! तुमने अर्थ और काम से भी अधिक दया और समता का आदर किया है, इसलिये तुम्हारे सभी भाई जीवित हो जायें।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में यक्षप्रश्न विषयक तीन सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (आरणेय पर्व)

तीन सौ चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“यक्ष का चारों भाइयों को जिलाकर धर्म के रूप में प्रकट हो युधिष्ठिर को वरदान देना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर यक्ष के कहते ही सब पाण्डव उठकर खड़े हो गये तथा एक क्षण में ही सबकी भूख-प्यास जाती रही।

    युधिष्ठिर बोले ;- इस सरोवर में एक पैर से खड़े हुए, किसी से भी पराजित न होने वाले आपसे में पूछता हूँ, आप कौन देवश्रेष्ठ हैं? मुझे तो आप यक्ष नहीं मालूम होते। आप वसुओं में से, रुद्रों में से अथवा मरुद्गणों में से कोई एक श्रेष्ठ पुरुष तो नहीं हैं? अथवा आप स्वयं वज्रधारी देवराज इन्द्र ही हैं? मेरे ये भाई तो लाखों वीरों से युद्ध करने वाले हैं। ऐसा तो मैंने कोई योद्धा नहीं देखा, जिसने इन सभी को रणभूमि में गिरा दिया हो। अब जीवित होकर भी इनकी इन्द्रियाँ सुख की नींद सोकर उठे हुए पुरुषों के समान स्वस्थ दिखायी देती हैं, अतः आप हमारे कोई सुहृद हैं अथवा पिता?

    यक्ष ने कहा ;- प्रचण्ड पराक्रमी भरतश्रेष्ठ तात युधिष्ठिर! मैं तुम्हारा जन्मदाता पिता धर्मराज हूँ। तुम्हें देखने की इच्छा से ही मैं यहाँ आया हूँ, मुझे पहचानो। यश, सत्य, दम, शौच, सरलता, लज्जा, अचंचलता, दान, तप और ब्रह्मचर्य- ये सब मेरे शरीर हैं। अहिंसा, समता, शान्ति, दया और अमत्सर-डाह का न होना-इन्हें मेरे पास पहुँचने के द्वार समझो। तुम मुझे सदा प्रिय हो। सौभाग्यवश तुम्हारा शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान- इन पाँचों साधनों पर अनुराग है तथा सौभाग्य से तुमने भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु इन छहों दोषों को जीत लिया है। इनमें से पहले दो दोष आरम्भ से ही रहते हैं, बीच के दो तरुणावस्था आने पर होते हैं तथा बाद वाले दो दोष अन्तिम समय पर आते हैं। तुम्हारा मंगल हो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा व्यवहार जानने की इच्छा से ही यहाँ आया हूँ। निष्पाप राजन! तुम्हारी दयालुता और समदर्शिता से मैं तुम पर प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देना चाहता हूँ। पापरहित राजेन्द्र! तुम मनोनुकूल वर माँग लो। मैं तुम्हें अवश्य दे दूँगा। जो मनुष्य मेरे भक्त हैं, उनकी कभी दुर्गति नहीं होती।

     युधिष्ठिर बोले ;- भगवन्! पहला वर तो मैं यही माँगता हूँ कि जिस ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थन काष्ठ को मृग लेकर भाग गया है, उसके अग्निहोत्र लोप न हो।

    यक्ष ने कहा ;- कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर! उस ब्राह्मण के अरणी सहित मन्थकाष्ठ को तुम्हारी परीक्षा के लिये मैं ही मृगरूप से लेकर भाग गया था।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इसके बाद भगवान धर्म ने उत्तर दिया कि (लो, अरणी और मन्थनकाष्ठ) तुम्हें दे ही देता हूँ। देवोपम नरेश। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम कोई दूसरा वर माँगो।

    युधिष्ठिर बोले ;- हम बारह वर्ष तक वन में रह चुके। अब तेरहवाँ वर्ष आ लगा है। अतः ऐसा वर दीजिये कि इसमें कहीं भी रहने पर लोग हमें पहचान न सकें।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! यह सुनकर भगवान धर्म ने उत्तर में कहा- ‘मैं तुम्हें यह वर भी देता हूँ।’

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्दशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

    इसके बाद धर्मराज ने पुनः सत्यपराक्रमी युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए कहा,

    धर्मराज बोले ;- ‘भरतनन्दन! यद्यपि तुम इस पृथ्वी पर इसी रूप से विचरोगे, तो भी तीनों लोकों में कोई भी तुम्हें नहीं पहचान सकेगा। कुरुनन्दन पाण्डवगण! मेरी कृपा से तुम लोग तेरहवें वर्ष में गुप्त रूप से विराट नगर में रहते हुए किसी से भी पहचाने न जाकर विचरण करोगे तथा तुममें से जो-जो मन से जैसा संकल्प करेगा, वह इच्छानुसार वैसा-वैसा ही रूप धारण कर सकेगा। यह अरणी सहित मन्थनकाष्ठ उस ब्राह्मण को दे दो। तुम्हारी परीक्षा के लिये ही मैंने मृग का रूप धारण करके इसका हरण किया था। सौम्य! इसके अतिरिक्त तुम एक और भी अभीष्ट वर माँग लो। वह मैं तुम्हें दूँगा। नरश्रेष्ठ! तुम्हें वर देते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। बेटा! तुम तीसरा भी महान् एवं अनुपम वर माँग लो। राजन्! तुम मेरे पुत्र हो और विदुर ने भी मेरे ही अंश से जन्म लिया है’।

     युधिष्ठिर बोले ;- पिताजी! आप सनातन देवाधिदेव हैं। आज मुझे साक्षात् आपके दर्शन हो गये। आप प्रसन्न होकर मुझे जो भी वर देंगे, उसे मैं शिरोधार्य करूँगा। विभो! मुझे ऐसा वर दीजिये कि मैं लोभ, मोह, क्रोध को जीत सकूँ तथा दान, तप और सत्य में सदा मेरा मन लगा रहे।

    धर्मराज ने कहा ;- पाण्डुपुत्र! तुम तो स्वयं धर्मस्वरूप ही हो। अतः इन गुणों से तो स्वभाव से ही सम्पन्न हो। आगे भी तुम्हारे कथनानुसार तुम में ये सब धर्म बने रहेंगे।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! ऐसा कहकर लोकरक्षक भगवान धर्म अन्तर्धान हो गये एवं सुखपूर्वक सोकर उठने से श्रमरहित हुए मनस्वी वीर पाण्डवगण एक़ होकर आश्रम में लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने उस तपस्वी ब्राह्मण को उसकी अरणी एवं मन्थनकाष्ठ दे दिये।

    भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव के पुनः जीवन लाभ करने से सम्बन्ध रखने वाले तथा पिता धर्म और पुत्र युधिष्ठिर के संवाद तथा समागमरूप, कीर्ति को बढ़ाने वाले इस प्रशस्त उपाख्यान का जो पुरुष पाठ करता है, वह जितेन्द्रिय, वशी तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है तथा जो लोग सदा इस मनोहर उपाख्यान को स्मरण रक्खेंगे; उनका मन अधर्म में, सुहृदों के भीतर फूट डालने में, दूसरों का धन हरने में, परस्त्रीगमन में अथवा कृपणता में कभी प्रवृत्त नहीं होगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में नकुल आदि के जीवित होने आदि वरों की प्राप्ति विषयक तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (आरणेय पर्व)

तीन सौ पंद्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अज्ञातवास के लिये अनुमति लेते समय शोकाकुल हुए युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य का समझाना, भीमसेन का उत्साह देना तथा आश्रम से दूर जाकर पाण्डवों का परस्पर परामर्श के लिये बैठना”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धर्मराज की अनुमति पाकर सत्यपराक्रमी पाण्डव तेरहवें वर्ष में छिपकर अज्ञातवास करने की इच्छा से एकत्र हो विचार-विमर्श के लिये आस-पास बैठे। वे सब-के-सब उत्तम व्रत का पालन करने वाले और विद्वान थे। वनवास के समय जो तपस्वी ब्राह्मण पाण्डवों के प्रति स्नेह होने के कारण उनके साथ रहते थे, उनसे अज्ञातवास के हेतु आज्ञा लेने के लिये व्रतधारी पाण्डव हाथ जोड़कर खड़े हो इस प्रकार बोले,

      पाण्डव बोले ;- ‘मुनिवरो! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने जिस प्रकार छल करके हमारा राज्य हर लिया और हम पर बार-बार अत्याचार किया,


वह सब आप लोगों को विदित ही है। हम लोग कष्टदायक वन में बारह वर्षों तक रह लिये। अब अन्तिम तेरहवाँ वर्ष हमारे अज्ञातवास का समय है। अतः इस वर्ष हम छिपकर रहना चाहते हैं। इसके लिये आप लोग हमें आज्ञा दें। दुष्टात्मा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि हमसे अत्यन्त वैर रखते हैं। वे स्वयं तो हमारा पता लगाने को उद्यत हैं ही, उन्होंने गुप्तचर भी लगा रखे हैं। अतः यदि उन्हें हमारे रहने का पता चल जायेगा, तो वे हमसे सम्बन्ध रखने वाले पुरजनों तथा स्वजनों के साथ भी विषम (बुरा) बर्ताव कर सकते है। क्या हमारे सामने फिर कभी ऐसा अवसर आयेगा, जबकि हम सब भाई ब्राह्मणों के साथ अपने राष्ट्र में रहेंगे-अपने राज्य पर प्रतिष्ठित होंगे’।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर पवित्र अन्तःकरण वाले धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिर दुःख और शोक से आतुर होकर मूर्च्छित हो गये। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही थी और कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। उस समय उनके भाइयों सहित समस्त ब्राह्मणों ने उन्हें आश्वासन दिया। तत्पश्चात् महर्षि धौम्य ने राजा युधिष्ठिर से यह गम्भीर अर्थयुक्त वचन कहा,

     महर्षि धौम्य बोले ;- ‘राजन्! आप विद्वान्, मन को वश में रखने वाले, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय हैं। आप जैसे मनुष्य किसी भी आपत्ति में मोहित नहीं होते अर्थात्‌ अपना धैर्य और विवेक नहीं खोते हैं। महामना देवताओं को भी जहाँ-तहाँ शत्रुओं के निग्रह के लिये अनेक बार छिपकर रहना और विपत्तियों को भोगना पड़ा है। देवराज इन्द्र शत्रुओं का दमन करने के लिये गुप्त रूप से निषध देश में गये और गिरिप्रस्थ आश्रम में छिपे रहकर उन्होंने अपना कार्य सिद्ध किया।

     भगवान विष्णु भी दैत्यों का वध करने के लिये हयग्रीव स्वरूप धारण करके अज्ञातभाव से अदिति के गर्भ में दीर्घकाल तक रहे हैं। उन्होंने ही ब्राह्मण वेष में वामन रूप धारण करके अपने तीन पगों क्षरा जिस प्रकार छिपे तौर पर राजा बलि का राज्य हर लिया था, वह सब तो तुमने सुना ही होगा। अग्नि ने जल में प्रवेश करके वहीं छिपे रहकर देवताओं का कार्य जिस प्रकार सिद्ध किया, वह सब कुछ भी तुम सुन चुके हो। धर्मज्ञ! भगवान श्रीहरि ने शत्रुओं के विनाश के लिये छिपे तौर पर इन्द्र के वज्र में प्रवेश करके जो कार्य किया, वह भी तुम्हारे कानों में पड़ा होगा। तात! निष्पाप नरेश! ब्रह्मर्षि और्व ने (माता के) ऊरु में गुप्त रूप से निवास करते हुए जो देवकार्य सिद्ध किया था, वह भी तुम्हारे सुनने में आया ही होगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चदशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘तात! इसी प्रकार महातेजस्वी भगवान सूर्य ने भी पृथ्वी पर गुप्त रूप से निवास करके सभी शत्रुओं को दग्ध किया है। भयंकर पराक्रमी भगवान विष्णु ने भी श्रीराम रूप से दशरथ के घर में छिपे रहकर युद्ध में दशमुख रावण का वध किया था। इसी प्रकार कितने ही महामना वीर पुरुषों ने यत्र-तत्र छिपे रहकर युद्ध में शत्रुओं पर विजय पायी है। इसी प्रकार तुम भी विजयी होओगे’।

    महर्षि धौम्य ने जब इस प्रकार युक्तियुक्त वचनों द्वारा धर्मज्ञ युधिष्ठिर को संतोष प्रदान किया, तब वे शास्त्रज्ञान और अपने बुद्धिबल के कारण (धर्म से) विचलित नहीं हुए। तदनन्तर बलवानों में श्रेष्ठ महाबली महाबाहु भीमसेन ने अपनी वाणी से राजा युधिष्ठिर का हर्ष और उत्साह बढ़ाते हुए कहा,

    भीमसेन बोले ;- ‘महाराज! गाण्डीव धनुष धारण करने वाले अर्जुन ने आपके आदेश की प्रतीक्षा तथा अपनी धर्मानुगामिनी बुद्धि के कारण ही अब तक कोई साहस का कार्य नहीं किया है। भयंकर पराक्रमी नकुल और सहदेव उन सब शत्रुओं का विध्वंस करने में समर्थ हैं। इन दोनों को मैं ही सदा रोकता आया हूँ। आप हमें जिस कार्य में लगा देंगे, उसे हम लोग किये बिना नहीं छोड़ेंगे। अतः आप युद्ध की सारी व्यवस्था कीजिये। हम शत्रुओं पर शीघ्र ही विजय पायेंगे’।

     भीमसेन के ऐसा कहने पर सब ब्राह्मण पाण्डवों को उत्तम आशीर्वाद देकर और उन भरतवंशियों से अनुमति लेकर अपने-अपने घरों को चले गये। वेदों के ज्ञाता समस्त प्रधान-प्रधान संन्यासी तथा मुनि लोग पाण्डवों से फिर मिलने की इच्छा रचाकर न्यायानुसार अपने योग्य स्थानों में रहने लगे। धौम्य सहित विद्वान् एवं वीर पाँचों पाण्डव द्रौपदी को साथ लिये धनुष धारण किये वहाँ से उठकर चल दिये। किसी कारणवश उस स्थान से एक कोस दूर जाकर वे नरश्रेष्ठ ठहर गये और आगामी दूसरे दिन से अज्ञातवास आरम्भ करने के लिये उद्यत हो परस्पर सलाह करने के निमित्त आस-पास बैठ गये। वे सभी पृथक्-पृथक् शास्त्रों के ज्ञाता, मन्त्रणा करने में कुशल तथा संधि-विग्रह आदि के अवसर को जानने वाले थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत-व्यासनिर्मित शतसहस्री संहिता के वनपर्व के अन्तर्गत आरणेयपर्व में अज्ञातवास के लिये मन्त्रणा विषयक तीन सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

[वन पर्व (आरणेय पर्व) समाप्त]

 वनपर्वकी सम्पूर्ण श्लोक संख्या १२२७६ 

 अब विराट पर्व आरंभ होता है 

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