सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से पैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (Virat Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

“चारों पाण्डवों सहित राजा विराट की सेना का युद्ध के लिये प्रस्थान”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज! उन दिनों छद्मवेष में छिपकर उस श्रेष्ठ नगर में रहते और महाराज विराट के कार्य सम्पादन करते हुए अतुलित तेजस्वी महात्मा पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष भलीभाँति बीत चुका था। कीचक के मारे जाने पर शत्रुहनता राजा विराट कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर के प्रति बड़ी आदरबुद्धि रखने और उनसे बड़ी बड़ी आशाएँ करने लगे थे। ‘भारत! तदनन्तर तेरहवें वर्ष के अन्त में सुशर्मा ने बड़े वेग से आक्रमण करके विराट की बहुत सा गौओं को अपने अधिकार में कर लिया। इससे उस समय बड़ा भारी कोलाहल मचा। धरती की धूल उड़कर ऊँचे आकाश में व्याप्त हो गयी। शंख, दुन्दुभि तथा नगारों के महान् शब्द सब ओर गूँज उठे। बैलों, घोड़ों, रथों, हाथियों तथा पैदल सैनिकों की आवाज सब ओर फैल गयी।। इस प्रकार इन सबके साथ आक्रमण करके जब त्रिगर्तदेशीय योद्धा मत्स्यराज के गोधन को लेकर जाने लगे, उस समय उन गौओं के रक्षकों ने उन सैनिकों को रोका।

   भारत! तब त्रिगर्तों ने बहुत सा धन लेकर उसे अपने अधिकार में करके शीघ्रगामी अश्वों तथा रथ समूहों द्वारा युद्ध में विजय का दृढ़ संकल्प लेकर उन गोरक्षकों का सामना करना आरम्भ किया। त्रिगर्तों की संख्या बहुत थी। वे हाथों में प्रास और तोमर लेकर विराट के ग्वालों को मारने लगे; तथापि गोसमुदाय के प्रति भक्तिभाव रखने वाले वे ग्वाले बलपूर्वक उन्हें रोके रहे। उन्होंने फरसे, मूसल, भिन्दिपाल, मुद्गर तथा ‘कर्षणा- नामक विचित्र शस्त्रों द्वारा सब ओर से शत्रुओं के अश्वो को मार भगाया। ग्वालों के आघात से अत्यन्त कुपित हो रथों द्वारा युद्ध करने वाले त्रिगर्त सैनिक बाणों की वर्षा करके उन ग्वालों को रणभूमि से खदेड़ने लगे। तब उन गौओं का रक्षक गोप, जिसने कानों में कुण्डल पहन रक्खे थे, रथ पर आरूढ़ हो तीव्र गति से नगर में आया और मत्स्यराज को देखकर दूर से ही रथ से उतर पड़ा। अपने राष्ट्र की उन्नति करने वाले महाराज विराट कुण्डल तथा अंगद (बाजूबन्द) धारी शूरवीर योद्धाओं से घिरकरमन्त्रियों तथा महात्मा पाण्डवों के साथ राजसभा में बैठे थे।

    उस समय उनके पास जाकर गोप ने प्रणाम करके कहा,

    गोप बोले ;- ‘महाराज! त्रिगर्तदेश के सैनिक हमें युद्ध में जीतकर और भाई-बन्धुओं सहित हमारा तिसस्कार करके आपकी लाखों गौओं को हाँककर लिये जा रहा है। ‘राजेन्द्र! उन्हें वापस लेने-छुड़ाने की चेष्टा कीजिये; जिससे आपके वे पशु नष्ट न हो जायँ- आपके हाथों से दूर न निकल जायँ।’ यह सुनकर राजा ने मत्स्यदेश की सेना एकत्र की। उसमें रथ, हाथी, घोड़े और पैदल - सब प्रकार के सैनिक भरे थे और वह ध्वजा-पताकाओं से व्याप्त थी। फिर राजा तथा राजकुमारों ने पृथक्-पृथक् कवच धारण किये। वे कवच बड़े चमकीले, विचित्र और शूरवीरों के धारण करने योग्य थे। राजा विराट के प्रिय शतानीक ने सुवर्णमय कवच ग्रहण किया, जिसके भीतर हीरे और लोहे की जालियाँ लगी थीं। शतानीक से छोटे भाई का नाम मरिराक्ष था। उन्होंने सुवर्णपत्र से आच्छादित सुदृढ़ कवच धारण किया, जो सारा का सारा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को सहन करने में समर्थ फौलाद का बना हुआ था।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद)

     मत्स्यदेश के राजा विराट ने अभेद्यकल्प नामक कवच ग्रहण किया, जो किसी भी अस्त्र-शस्त्र से कट नहीं सकता था। उसमें सूर्य के समान चमकीली सौ फूलियाँ लगी थीं, सौ भँवरें बनी थीं, सौ बिन्दु (सूक्ष्म चक्र) और सौ नेत्र के समान आकार वाले चक्र बने थे। इसके सिवा उसमें नीचे से ऊपर तक सौगन्धिक (कल्हार) जाति के सौ कमलों की आकृतियाँ पंक्तिबद्ध बनी हुई थीं। सेनापति सूर्यदत्त (शतानीक) ने पुष्ठभाग में सुवर्णजटित एवं सूर्य के समान चमकीला कवच पहन रखा था। विराट के ज्येष्ठ पुत्र वीरवर शंख ने श्वेत रंग का एक सुदृढ़ कवच धारण किया, जिसके भीतरी भाग में लोहा लगा था और ऊपर नेत्र के समान सौ चिह्न बने हुए थे। इसी प्रकार सैंकड़ों देवताओं के समान रूपवान् महारथियों ने युद्ध के लिये उद्यत हो अपने-अपने वैभव के अनुसार कवच पहन लिये। वे सबके सब प्रहार करने में कुशल थे।

      उन महारथियों ने सुन्दर पहियों वाले विशाल एवं उज्ज्वल रथों में पृथक्-पृथक् सोने के बक्ष्तर धारण कराये हुए घोड़ों को जोता। मत्स्यराज के सुवर्णमय दिव्य रथ में, जो सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रकाशित हो रहा था, उस समय बहुत ऊँची ध्वजा फहराने लगी। इसी प्रकार अन्य शूरवीर क्षत्रियों ने अपने-अपने रथों में यथाशक्ति सुवर्णमण्डित नाना प्रकार की ध्वजाएँ फहरायीं। जब रथ जोते जा रहे थे, उस समय कंक ने राजा विराट से कहा,

    कंक बोला ;- ‘मैंने भी एक श्रेष्ठ महर्षि से चार मार्गों वाले धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की है, अतः मैं भी कवच धारण करके रथ्र पर बैठकर गौओं के पदचिह्नों का अनुसरण करूँगा। निष्पाप नरेश! यह बल्लव नामक रसोइया भी बलवान् एवं शूरवीर दिखाई देता है, इसे गौओं की गणना करने वाले गोशालाध्यक्ष तनितपाल तथा अश्वों की शिक्षा का प्रबन्ध करने वाले ग्रन्थिक को भी रथों पर बिठा दीजिये। मेरा विश्वास है कि ये गौओं के लिये यु;द्ध करने से कदापि मुँ नहीं मोड़ सकते।’ तदनन्तर मत्स्यराज ने अपने छोटे भाई शतानीक से कहा,

     राजा विराट बोले ;- ‘भैया! मेरे विचार में यह बात आती है कि ये कंक, बल्लव, तन्तिपाल और ग्रनिथक भी युद्ध कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है। ‘अतः इनके लिये भी ध्वजा और पताकाओं से सुशोभित रथ दो। ये भी अपने अंगों में ऊपर से दृढ़, किंतु भीतर से कोमल कवच धारण कर लें। फिर इन्हें भी सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र अर्पित करो। इनके अंग और स्वरूप वीराचित जान पड़ते हैं। इन वीर पुरुषों की भुजाएँ गजराज की सूँड़दध्ड की भाँति शोभा पाती हैं। ‘ये युद्ध न करते हों, यह कदापि सम्भव नहीं अर्थात् ये अवश्य युद्धकुशल हैं। मेरी बुद्धि का तो ऐसा ही निश्चय है।’

    जनमेजय! राजा का यह वचन सुनकर शतानीक ने उतावले मन से कुन्तीपुत्रों के लिये शीघ्रतापूर्वक रथ लाने का आदेश दिया। सहदेव, राजा युधिष्ठिर, भीम और नकुल इन चारों के लिये रथ लाने की आ हुई। इस बात से पाण्डव बड़े प्रसन्न थे। तब राजभक्त सारथि महाराज विराट के बताये अनुसार रथों को शीघ्रतापूर्वक जोतकर ले आये। उसके बाद अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले पाण्डुपुत्रों को राजा विराट ने अपने हाथ से विचित्र कवच प्रदान किये, जो ऊपर से सुदृढ़ और भीतर से कोतल थे। उन्हें लेकर उन वीरों ने अपने अंगों में यथास्थान बाँध लिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकत्रिंश अध्याय के श्लोक 28-31 का हिन्दी अनुवाद)

     शत्रुसमूह को रौंद डालने वाले वे नरश्रेष्ठ कुन्तीपुत्र घोड़े ते हुए रथों पर बैइकर बड़ी प्रसन्नता के साथ राजभवन से बाहर निकले। वे बड़े वेग से चले। उन्होंने अपने यथार्थ स्वरूप को अ तक छिपा रक्खा था। वे सबके सब युद्ध की कला में अत्यन्त निपुण थे। कुरुवंशशिरोमणि वे चारों महारथी कुन्तीपुत्र सुवर्णमण्डित रथों पर आरूढ़ हो एक ही साथ विराट के पीछे-पीछे चले। चारों भाई पाण्डव शूरवीर और सत्यपराक्रमी थे।

    उन वीरों ने अपने विशाल और सुदृढ़ धनुषों की डोरियों करे यथाशक्ति ऊपर खींचकर धनुष के दूसरे सिरे पर चढ़ाया। फिर सुन्दर वरूत्र धारण करके चन्दन से चर्चित हो उन समसत वीर पाण्डवों ने नरदेव विराट के आज्ञा से शीघ्रतापूर्वक अपने घोड़े हांक दिये। अच्छी तरह रथ का भार वहन करने वाले वे स्वर्णभूषित विशाल अश्व हाँके जाने पर श्रेणीबद्ध होकर उड़ते हुए पचियों के समान दिखायी देने लगे। जिनके गण्डस्थल से मद की धारा बहती थी, ऐसे भयंकर मतवाले हाथी तथा सुन्दर दाँतों वाले साठ वर्ष के मदवर्षी गजराज, जिन्हें युद्धकुशल महावतों ने शिक्षा दी थी, सवारों को अपनी पीठ पर वढ़ाये राजा विराट के पीछे-पीछे इस प्रकार जा रहे थे, मानो चलते-फिरते पर्वत हों।

     युद्ध की कला में कुशल, प्रसन्न रहने वाले तथा उत्तम जीविका वाले मत्स्यदेश के प्रधान-प्रधान वीरों की उस सेना में आठ हजार रथी, एक हजार हाथी सवार तथा साठ हजार घुड़सवार थे, जो युद्ध के लिये तैयार होकर निकले थे। भरतर्षभ! उनसे विराट की यह विशाल वाहिनी अत्यन्त सुशोभित हो रही थी। राजन्! उस समय गौओं के पदचिह्न देखती युद्ध के लिये प्रस्थित हुई विराट की वह श्रेष्ठ सेना अपूर्व शोभा पा रही थी। उसमें ऐसे पैदल सैनिक भरे थे, जिनके हाथों में मजबूत हथियार थे। साथ ही हाथी, घोड़े तथा रथ के सवारों से भी वह सेना परिपूर्ण थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण के प्रसंग में मत्स्यराज के युद्धोद्योग से सम्बन्ध रखने वाला इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“मत्स्य तथा त्रिगर्तदेशीय सेनाओं का परस्पर युद्ध”

     वैशम्पासनजी कहते हैं ;- राजन्! नगर से निकलकर प्रहार करने में कुशल वे मत्स्यदेशीय वीर योद्धा अपनी सेना का व्यूह बनाकर चले और सूर्य के ढलते-ढलते उन्होंने त्रिगर्तों को पकड़ लिया। फिर तो क्रोध में भरकर युद्ध के लिये उन्तत्त हुए वे त्रिगर्त और मत्स्यदेश के महाबली वीर गौओं को ले जाने की इच्छा से एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जना करने लगे। हाथियों पर चढ़कर उन्हें चलाने में कुशल श्रेष्ठ महावतों द्वारा तोमरों और अंकुशों की मार से आगे बढ़ाये हुए भयंकर और मतवाले गजराज दोनों ओर से एक दूसरे पर टूट पड़े। परस्पर शस्त्रों का प्रहार करने वाले हाथी सवारों का वह कोलाहल पूर्ण भयंकर युद्ध रोंगटे खडे कर देने वाला एवं महासंहारकारी था।

     राजन्! सूर्य पश्चिम की ओर ढल रहे थे। उस समय पैदल, रथी, हाथीसवार तथा घुड़सवारों के समूह से भरा हुआ वह युद्ध देवासुर संग्राम के समान हो रहा था। एक-दूसरे पर धावा बोलकर आपस में मार-काट मचाने वाले उन सैनिकों के पदाघात से इतनी धूल उड़ी कि कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सेनर की धूल से आच्छादित होकर उड़ते हुए पक्षी भी भूमि पर गिर जाते थे। दोनों ओर से छूटे हुए बाणों द्वारा (आकाश खचाखच भर जाने के कारण) सूर्यदेव का दीखना बंद हो गया था। बाणों के कारण अप्तरिक्ष मानो जुगनुओं से भर गया हो, इस प्रकार चकमक हो रहा था। दाँये-बाँये बाण माने वाले वे विश्वविख्यशत धनुर्धर वीर जब घायल होकर गिरते थे, उस समय उनके सुवर्ण की पीइ वाले धनुष दूसरों के हाथ में चले जाते थे।। रथी रथियों और पैदल पैदलों से भिड़े हुए थे।

     घुड़ सवार घुड़सवारों से और गजारोही गजारोहियों से लड़ रहे थे। राजन्! वे सब क्रोध में भरकर उस युद्ध में एक दूसरे पर तलवार, पट्टिश, प्रास, शक्ति और तोमर आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार कर रहे थे; किंतु परिघ के समान प्रचण्ड भुजदण्ड वाले वे शूरवीर परस्पर क्रोध पूर्वक प्रहार करने पर भी समना करने वाले वीरों को पीछे नहीं हटा पाते थे। बात की बात में, कुण्डलों सहित कटे हुए कितने ही मस्तक धूल में लोटने लगे। किसी की नाक बड़ी सुन्दर थी, परन्तु ऊपर का ओठ कट गया था। कोई अलंकारों से अलंकृत था, किंतु उसका केशभाग कटकर उड़ गया था। उस महासंग्राम में बहुत से क्षत्रिय वीरों के शरीर, जो शालवृक्ष की शाखाओं के समान विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट थे, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़े-टुकड़े दिखायी देने लगे।

     सर्प के शरीर की भाँति सुशोभित चन्दनचर्चित भुजाओं तथा कुण्डलमण्डित मसतकों से पटी हुई रणभूमि अपूर्व शोभा धारण कर रही थी। वहाँ रथियों का रथियों से, घुड़सवारों का घुड़सवारों से और पैदल योद्धाओं कसा पैदलों से घमासान यंद्ध होने लगा। सब ओर रक्त की धारा बह चली और उसमें सन कर धरती की धूल शान्त हो गयी। युद्ध करने वाले वीरों को मूर्च्छा आने लगी। उनमें मर्यादाशून्य भयंकर युद्ध छिड़ गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) द्वात्रिंश अध्याय के श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

      पाण्डुनन्दन धर्मात्मा युधिष्ठिर ने भी भाइयों सहित व्यूह रचना करके राजा विराट के लिये त्रिगर्तों के साथ युद्ध किया। उन्होंने अपने आपको श्येन (बाज) पक्षी के रूपउ में उपस्थित करके उसकी चोंच का स्थान ग्रहण किया। नकुल और सहदेव दोनों पंखों के रूप में हो गये। भीमसेन पूँछ के सथान मे हुए। कुनतीपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुओं के एक सहस्र सैनिकों का संहार कर डाला। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ वीर भीमसेन वे अत्यन्त कुपित हो दो हतार रथियों को परलोक पहुँचा दिया। नकुल ने तीव सौ और सहदेव ने चार सौ सैनिकों को मार डाला। आकाशचारी पक्षी भी बाणसमूहों से अत्यन्त उद्विग्न होकर इधर-उधर बैठ गये। उनका आकाश में उड़ना और दूर तक देखना भी बंद हो गया। परिघ की सी मोटी बाँहों वाले सूरमां कुपित हो एक दूसरे पर घातक प्रहार करते हुण् भी सच्चे शूरवीरों को युद्ध से विमुख नहीं कर पाते थे। इस प्रकार युद्ध करते-करते शतानीक सौ तथा विशालाक्ष (मदिराक्ष) चार सौ योद्धाओं को मारकर उनकी भारी सेना में घुस गये। वे दोनों महारथी थे। उस विशालना में घुसे हुए और अत्यन्त क्रुद्ध हुए उन बलवान् एवं मनस्वी वीरों ने उस सारी सेना को मोहित कर दिया। वे दोनों उन त्रिगर्त सैनिकों से एक दूसरे के केश पकड़-पकड़ तथा रथों पर बैइ हुण् रथियों को गिरा-गिराकर युद्ध करने लगे। फिर उन दोनों ने त्रिगर्तों की रथसेना को लक्ष्य बनाकर उसमें प्रवेश किया।

    सूर्यदत्त ने आगे की ओर से आक्रमण किया और मदिराक्ष ने पीछे की ओर से। रथियों में श्रेष्ठ राजा विराट रथ के द्वारा विविध मार्गों से चलते- अनेक प्रकार के रणकौशल दिखाते हुए उस युद्ध में त्रिगर्तों के पाँच सौ रथी, आइ सौ घुड़सवार तथा पाँच महारथियों को मार गिराने के पश्चात् स्वर्णभूषित रथ पर बैठे हुए सुशर्मा पर धावा किया। वे दोनों महान् बलवान् और महामनस्वी वीर गर्जते हुए एक दूसरे से इस प्रकार भिड़े, मानो गोशाला में दो साँड़ लड़ रहे हों। त्रिगर्तराज सुशर्मा पर युद्ध का घोर उन्माद छाया हुआ था। उस नरश्रेष्ठ वीर ने राजा विराट का द्वैरथ युद्ध के द्वारा सामना किया। क्रोध में भरे हुए वे दोनों रथी अपना-अपना रथ बढ़कर निकट आ गये और शीघ्रतापूर्वक एक दूसरे पर बाणों की झड़ी लगाने लगे, मानो दो मेघ जल की धाराएँ बरसा रहे हों।।

     दोनों का एक दूसरे के प्रति क्रोध और अमर्ष बढ़ा हुआ था। दोनों ही अस्त्रविद्या में निपुण थे और दोनों ने ही तलवार, शक्ति तथा गदा भी ले रक्खी थी। उस समय दोनों तीखे बाणों से परस्पर प्रहार करते हुए रणभूमि में विचरने लगे। इसी समय राजा विराट ने सुशर्मा को दस बाणों से बींध डाला और पाँच-पाँच बाणों से उसके चारों घोड़ों को भी घायल कर दिया। इसी प्रकार महान् अस्त्रवेत्ता सुशर्मा ने भी रणोन्मत्त होकर पचास तीरो बाणो से मत्स्यराज विराट को बींध डाला। महाराज! तदनन्तर सैनिकों के पैरों से इतनी धूल उड़ी कि म्त्स्यनरेश तथा सुशर्मा दोनों की सेनाएँ उससे आच्छादित हो गयीं और एक दूसरे के विषय में यह भी न जान सकी कि कौन कहाँ क्या कर रहा है ?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण के समय होने वाले विराट और सुशर्मा के युद्ध के विषय में बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“सुशर्मा का विराट को पकड़कर ले जाना, पाण्डवों के प्रयत्न से उनका छुटकारा, भीम द्वारा सुशर्मा का निग्रह और युधिष्ठिर के अनुग्रह पर उसे छोड़ देना”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भारत! उस समय (सूर्यास्त हो चुका था एवं रात्रि आ गयी थी, अतः) सब लोग धूल से जाक आवृत थे ही, अन्धकार से भी आच्छादित हो गये; अतः प्रहार करने वाले सैनिक सेना का व्यूह बनाकर कुछ देर तक युद्ध बंद करके खडत्रे रहे। इतने में ही अन्धकार का निवारण करते हुए चन्द्रदेवता का उदय हुआ। उन्होंने उस रणक्षेत्र में क्षत्रियों को आनन्द देते हुण् उस रात्रि को निर्मल (अन्धकारशून्य) बना दिया। अतः उजाला हो जाने से पुनः घोर युद्ध प्रारम्भ हो गया। उस समय (युद्ध के आवेश में) योद्धा एक दूसरे को देख नहीं रहे थे।

     तदनन्तर त्रिगर्तराज सुशर्मा ने अपने छोटे भाई के साथ रथियों का समूह लेका चारों ओर से मत्स्यराज विराट पर धावा बोल दिया। फिर वे क्षत्रियशिरोमणि दोनों बन्धु रथों से कूद पड़े और हाथ में गदा ले क्रोध में भरकर शत्रुसेना के रथों की ओर दौड़े। वे दोनों मतवाले साँड़ों, मदोन्मत्त गजराजों, एक ही हाथी पर आक्रमण करने वाले दो सिंहों तथा युद्ध के लिये उद्यत वृत्रासुर एवं इन्द्र के समान जान पड़ते थे। दोनों के बल और उत्साह समान थे। दोनों ही एक जैसे पराक्रमी और एक से ही अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता थे। युद्ध करने की कला में वे दोनों ही वीर अत्यन्त निपुण थे।। इसी प्रकार उन सबकी वे सेनाएँ भी कुपित हो गदा, तलवार, खड्ग, फरसे और भलीभाँति तेज किये हुए तीखी धार वाले प्रासों (भालों) से प्रहार करतीहुई एक दूसरे पर टूट पड़ी। त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा ने अपनी सेना के द्वारा मत्स्यराज की सेना को मथ डाला और बलपूर्वक उसे परास्त करके महापराक्रमी मत्स्यनरेश विराट पर चढ़ाई कर दी।

      उन दोनों भाइयों ने पृथक्-पृथक् विराट के दोनों घोड़ों को मारकर उनके पाश्र्वभाग की रक्षा करने वाले सिपाहियों तथा सारथि को भी मार डाला और उन्हें रथहीन करके जीते जी ही पकड़ लिया। जैसे कामी पुरुष किसी युवती को बलपूर्वक पकड़ ले, वैसे ही सुशर्मा ने राजा विराट को पीड़ित करके पकड़ लिया और उनको शीघ्रगामी वाहनों से युक्त अपने रथ पर चढ़ाकर वह चल दिया। अतिशय बलवान् राजा विराट जब रथहीन होकर पकड़ लिये गये, तब त्रिगर्तों द्वारा अत्यन्त पीडित्रत हुए मत्स्रूदेशीय सैनिक भयभीत होकर भागने लगे।

    उनके इस प्रकार अत्यन्त भयभीत होने पर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने शत्रुओं का दमन करने वाले महाबाहु भीमसेन से कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- महाबाहो! त्रिगर्तराज सुशर्मा ने मत्स्रूराज को पकड़ लिया है। उन्हे शीघ्र छुड़ाओ; जिससे वे शत्रुओं के वश में न पड़ जायँ। ‘हम सब लोग उनके यहाँ सुखपूर्वक रहे हैं और उन्होंने हमें सब प्रकार की अभीष्ट वस्तुएँ देकर हमारा भली-भाँति सतकार किया है। अतः भीमसेन! तुम्हें उनके घर में रहने के उपकार का बदला चुकाना चाहिये’।

    भीमसेन बोले ;- महाराज! आपकी आज्ञा से मैं इन्हें सुशर्मा के हाथों से छुड़ा लूँगा। आज आप शत्रुओं के साथ युद्ध करते समय मेरे महान् पराक्रम को देखें।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 15-34 का हिन्दी अनुवाद)

   मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके लड़ूँगा। राजन्! आज आप भाइयों सहित एकान्त में खड़े होकर अब मेरा पराक्रम देखें। यह सामने जो महान् वृक्ष है, इसकी शाखाएँ बड़ी सुन्दर हैं। यह तो मानो गदा के ही रूप में खड़ा है। अतः मैं इसी को उखाड़कर इसके द्वारा शत्रुओं को मार भगाऊँगा।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! यह कहकर भीमसेन मोनमत्त गजराज की भाँति उस व्रक्ष की ओर देखने लगे। तब धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने वीर भ्राता से कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘भीमसेन! ऐसा दुःसाहस न करो, इस वृक्ष को खड़ा रहने दो। यदि तुम इस महावृक्ष को उखाड़ने का अतिमानुष (मानवों के लिये असाध्य) कर्म करोगे, तो सब लोग पहचान लेंगे कि यह तो भीम हे। अतः भारत! तुम किसी दूसरे मानवाचित आयुध का ही ग्रहण करो। ‘धनुष, शक्ति, खड्ग अथवा कुठार, जो भी मनुष्योचित्त अस्त्र-शस्त्र तुम्हें ठीक लगे; जिससे तुम दूसरों द्वारा पहचाने न जा सको, वही लेकर राजा को शीघ्र छुड़ाओ। ये महाबली नकुल और सहदेव तुम्हारे रथ के पहियों की रक्षा करेंगे। तुम तीनों भाई युद्ध में एक साथ मिलकर महाराज विराट को छुड़ाओ।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! युधिष्ठिर के उक्त आदेश देने पर महान् वेगशाली महाबली भीमसेन ने शीघ्रता-पूर्वक एक उत्तम धनुष हाथ में ले लिया। फिर तो जैसे मेघ जल की धारा बरसाता हो, उसी प्रकार वे वेगपूर्वक बाणों की वर्षा करने लगे। तदनन्तर भीमसेन भयंकर कर्म करने वाले सुशर्मा की ओर दौड़े ओर विराट की ओर देखते हुए सुशर्मा से बोले,,

   भीमसेन बोले ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। रथियों में श्रेष्ठ सुशर्मा पीछे की ओर से आते और ‘खड़ा रह, खड़ा रह’ कहते हुए काल, अन्तक एवं यमराज के समान भयंकर वीर पुरुष को देखकर चिन्ता में पड़ गया और अपने साथियों से बोला- ‘देखो, फिर बड़ा भारी युद्ध उपस्थित हुआ है। इसमें महान् पराक्रम दिखाओ’।

     ऐसा कहकर सुशर्मा भाइयों सहित धनुष उठाये लौट पड़ा। इधर महात्मा भीमसेन ने निमेषमात्र में ही गदा लेकर शत्रुओं के भयंकर धनुष धारण करने वाले रथी, हाथी सवार और घुड़सवार वीरों के एक लाख सैनिकों के समूहों को राजा विराट के समीप मार डाला और बहुत से पैदल सिपाहियों का भी संहार कर डाला। ऐसा भयानक युद्ध देख रणोन्मत्त सुशर्मा मन-ही-मन सोचने लगा, ‘जान पड़ता है, मेरी सेना बुरी तरह मारी जायगी; क्योंकि मेरा दूसरा भाई भी पहले से ही इस विशाल सैन्य-समुद्र में डूबा हुआ दिखायी देता है’। ऐसा विचार कर वह कान तक खींचे हुए धनुष के द्वारा युद्ध के लिये उद्यत दिखायी देने लगा। सुशर्मा बारंबार तीखे बाणों की झड़ी लगा रहा है, यह देखकर सम्पूर्ण मत्स्यदेशीय योद्धा त्रिगर्तों के प्रति कुपित हो दिव्यास्त्र प्रकट करते हुए अपने रथों के घोड़ों को आगे बढ़ाने लगे। पाण्डवों को त्रिगर्तों की ओर रथ लौटाते देख मत्स्यवीरों की वह विशाल वाहिनी भी लौट पड़ी। विराट के पुत्र श्वेत अत्यनत क्रोध में भरकर बड़ा अद्भुत युद्ध करने लगे। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने एक हजार त्रिगर्तों को मार गिराया। भीमसेन ने सात हजार योद्धाओं को यमलोक का दर्शन कराया।। नकुल ने अपने बाधों से सात सौ सैनिकों को यमराज के घर भेज दिया तथा पुरुषों मे श्रेष्इ प्रतापी वीर सहदेव ने युधिष्ठिर की आज्ञा से तीन सौ शूरवीरों का संहार कर डाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद)

      तदनन्तर महारथी सहदेव त्रिगर्तों की उस महासेना का संहार करके अत्यंत उग्र रूप धारण किये हाथ में धनुष ले सुशर्मा पर चढ़ आये। तत्पश्चात् महारथी राजा युधिष्ठिर भी बड़ी उतावली के साथ सुशर्मा पर धावा बोलकर उसे बाणों द्वारा बारंबार बींधने लगे। तब सुशर्मा ने भी अत्यनत कुपित हो बड़ी फुर्ती के साथ नौ बाणों से राजा युधिष्ठिर को और चार बाणों से उनके चारों घोड़ों को बींध डाला। राजन्! फिर तो शीघ्रता करने वाले कुन्तीपुत्र भीम ने सुशर्मा के पास पहुँचकर उत्तम बाणों से उसके घोड़ों को मार डाला। साथ ही उसके पृष्ठरक्षकों को भी मारकर कुपित हो उसके सारथि को भी रथ से नीचे गिरा दिया। सुशर्मा को रथहीन हुआ देखकर राजा विराट के चक्ररक्षक सुप्रसिद्ध वीर मदिराक्ष भी वहाँ आ पहुँचे और त्रिगर्तनरेश पर बाणों से प्रहार करने लगे। इसी बीच में बलवान् राजा विराट सुशर्मा के रथ से कूद पड़े और उसकी गदा लेकर उसी की ओर दौड़े। उस समय हाथ में


गदा लिये राजा विराट बूढ़े होने पर भी तरुण के समान रणभूमि में विचर रहे थे। इसी बीच में मौका पाकर त्रिगर्तराज भागने लगा। उसे पलायन करते देख भीमसेन बोले,

     भीमसेन बोले ;- ‘राजकुमार! लौअ आओ। तुम्हारा युद्ध से पीठ दिखाकर भागना उचित नहीं है। ‘इसी पराक्रम के भरोसे तुम विराट की गौओं को बलपूर्वक कैसे ले जाना चाहते थे ? अपने सेवकों को शत्रुओं के बीच में छोड़कर क्यों भागते और विषाद करते हो ?’। भीमसेन के ऐसा कहने पर रथियों के यूथ का अधिपति बलवान् सुशर्मा ‘खड़ा रह, खड़ा रह’, ऐसा कहते हुए सहसा भीमसेन पर टूट पड़ा। परंतु पाण्डुननदन भीम तो भीम जैसे ही थे; वे तनिक भी व्यग्र नहीं हुए; अपितु रथ्र से कुदकर सुशर्मा के प्राण लेने के लिये बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े। तब सुशर्मा रि भाग चला और पराक्रमी भीम त्रिगर्त राजा को पकड़ने के लिये उसी प्रकार उसका पीछा करने लगे, जैसे सिंह छोटे मृगों को पकड़ने के लिये जाता है।

     सुशर्मा के पास पहुँचकर भीम ने उसके केश पकड़ लिये और क्रोध पूर्वक उसे उठाकर पुथ्वी पर दे मारा। तत्पश्चात् उसे वहीं रगड़ने लगे। इससे सुशर्मा विलाप करने लगा। उस समय भीम ने उसके मस्तक पर लात मारी और उसके पेट को घुटनों से दबाकर ऐसा घूँसा माराकि उसके भारी आघात से पीड़ित होकर राजा सुशर्मा मूर्च्छित हो गया। त्रिगर्तों का महारथी वीर सुशर्मा जब रथहीन होकर कैद कर लिया गया, तब वह सारी त्रिगर्तसेना भय से व्याकुल हो तितर-बितर हो गयी। तदनन्तर पाण्डु के महारथी पुत्र सुशर्मा को परासत करने के पश्चात् सब गौओं को लौटाकर और लूट का सारा धन वापस लेकर चले। वे सभी अपने बाहुबल से सम्पन्न, लज्जाशील, संयमपूर्वक व्रतपालन में तत्पर, महात्मा तथा विराटका सारा क्लेश दूर करने वाले थे। जब वे सब राजा के सामने आकर खडत्रे हुए, 

    तब भीमसेन बोले ;- ‘यह पापाचारी सुशर्मा मेरे हाथ से छूटकर जीवित रहने योग्य तो नहीं है; परंतू में कर ही क्या सकता हूँ , हमारे महाराज सदा के दयालु हैं’।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रयस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 55-61 का हिन्दी अनुवाद)

    इसके बाद भीम राजा सुशर्मा का गला पकड़कर ले आये। उस समय वह लाचार होकर उनके वश में पड़ा था और छूटने के लिये छटपटा रहा था। कुन्तीपुत्र भीम ने सुशर्मा को रसिस्यों से बाँधकर रथ


पर चढ़ा दिया। उसके सारे अंग धूल से सने थे और चेतना लुप्त सी हो रही थी। इसके बाद भीम ने रणभूमि मे स्थित राजा युधिष्ठिर के पास जाकर उन्हें राजा सुशर्मा को दिखाया।

     भीम युद्ध में अत्यन्त सुशोभित होते थे। पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर सुशर्मा को उस दशा में देखकर हँसे और भीमसेन से बोले,

   युधिष्ठिर बोले ;- ‘इस नराधम को छोड़ दो।’ उनके ऐसा कहने पर भीम महाबली सुशर्मा से बोले।

   भीमसेन ने कहा ;- मूर्ख! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो उसका उपाय बताता हूँ; मेरी बात सुन। तुझे सांसदों और सभाओं में जाकर सदा यही कहना होगा कि ‘मैं राजा विराट का दास हूँ’। ऐसा स्वीकार हो तो तुण् जीवन-दान दूँगा। युद्ध में जीतने वाले पुरुषों का यही नियम है। तब बड़े भ्राता युधिष्ठिर ने भीम से प्रेमपूर्वक कहा।

   तब युधिष्ठिर बोले ;- भैया! यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापाचारी को ‘छोड़ दो, छोड़ दो’। यह महाराज विराट का दास तो हो ही चुका है। (इसके बाद वे सुशर्मा से बोले-) ‘तुम दास नहीं रहे, जाओ, छोड़ दिये गये। फिर कभी -ऐसा काम न करना’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण करते समय सुशर्मा के निग्रह से सम्बन्ध रखने वाला तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा विराट द्वारा पाण्डवों का सम्मान, युधिष्ठिर द्वारा राजा का अभिनन्दन तथा विराटनगर में राजा की विजय घोषणा”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर सुशर्मा ने लज्जित होकर अपना मुँह नीचे कर लिया और बन्धन से मुक्त हो राजा विराट के पास जा उन्हें प्रणाम करके अपने देश को प्रस्थान किया। इस प्रकार सुशर्मा को मुक्त करके शत्रुओं का संहार करने वाले, अपने बाहुबल से सम्पन्न, लज्जाशील और संयम पूर्वक व्रतपालन में तत्पर रहने वाले वे पाण्डव उस युद्ध के मुहाने पर ही रात भर सुख से रहे। तदननतर राजा विराट ने अतिमानुष (मानवीय शक्ति से परे) पराक्रम करने वाले महारथी कुन्तीपुत्रों का धन और मानदान द्वारा सत्कार किया।

     विराट ने कहा ;- युद्ध में शत्रुओ का संहार करने वाले वीरों! ये रत्न ओर धन जैसे मेरे हैं, वैसे ही तुम लोगों के भी। तुम सब लोग यहाँ सुखपूर्वक रहो और जिस कार्य में तुम लोगों की रुचि हो, वह करो। मैं तुम सब को वस्त्राभूषण से विभूषित कन्याएँ, नाना प्रकार के रत्न, धन तथा और भी मनोवांछित पदार्थ देता हूँ। आज मैं तुम लोगों के ही पराक्रम से यहाँ शत्रु के पंजे से कुशलपूर्वक छूटकरआया हूँ। अतः तुम लोग मत्स्य देश के स्वामी ही हो।

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- इस प्रकार कहने वाले मत्स्यराज से युधिष्ठिर आदि सभी कुरुवंशी पृथक्-पृथक् हाथ जोड़कर बोले,

   पाण्डव बोले ;- ‘महाराज! आपका कहना ठीक है। हम आपके सम्पूर्ण वचनों का अभिनन्दन करते हैं, किंतु हम लोग इतने से ही संतुष्ट हैं कि आप आज शत्रुओं से मुक्त हो गये’। तब राजाओं में श्रेष्ठ मत्स्यनरेश महाबाहु विराट ने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर पुनः युधिष्ठिर से कहा,

   राजा विराट बोले ;- कंकजी! आइये, मैं आपका अभिषेक करूँगा। आप ही हमारे मत्स्यदेश के राजा बनें। ‘इस पृथ्वी पर दुर्लभ जो और भी प्रिय तथा मनोवांछित पदार्थ होगा, वह भी मैं आपको दूँगा। आप तो हमारा सब कुद पाने के अधिकारी हैं।

     ‘व्याघ्रपदगोत्र में उत्पन्न विप्रवर! मेरे रत्न, गौएँ, सुवर्ण, मणि तथा मोती भी आपके अर्पण हैं। आपको हमारा सब प्रकार से नमस्कार है। ‘आपके कारण ही आज मैं अपने राज्य और संतान का मुख देख पाऊँगा; क्योंकि पकड़े जाने पर मैं भयभीत हो गया था, किंतु आपके पराक्रम से शत्रु के अधीन नहीं रहा’। यह सुनकर राजा युधिष्ठिर ने मत्स्यराज से पुनः कहा,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘राजन्! आप बड़ी मनोहर बात कह रहे हैं। मैं आपके इस वचन का अभिनन्दन करता हूँ आप निरन्तर दयाभाव रखते हुए सर्वथा परम सुखी हों।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) चतुस्त्रिंश अध्याय के श्लोक 15-19 का हिन्दी अनुवाद)

   वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! कंकनामधारी युधिष्ठिर के यों कहने पर राजा विराट पुनः उनसे इस प्रकार बोले,

     विराट बोले ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! बल्लव नामक रसोइये का कर्म भी अद्भुत है। इस युद्ध में बल्लव ने ही मेरी रक्षा की है। निष्पाप विप्रवर! आके ही करने से यह सब कुद सम्भव हुआ है। आपका कल्याण हो। आत मुझसे वर माँगिये और तत्रबताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको नाना प्रकार के उत्तमोत्तम रत्न, शय्या, आसन, वाहन, वस्त्राभूषणों से विभूषित सुनदरी कन्याएँ, हाथी, घोड़े और रथों के समूह तथा भाँति-भाँति के जनपद भेंट करता हूँ।

      सुव्रत! आप मेरी प्रसन्नता के लिये इन सब वस्तुओं को ग्रहण करें। तब वहाँ ऐसी बातें कहने वाले राजा विराट को कुरुकुलनन्दन युधिष्ठिर ने इस प्रकार उत्तर दिया,

    युधिष्ठिर बोले ;- ‘महाराज! आप शत्रुओं के हाथ से छूट गये, यही मेरे लिये बड़ी प्रसन्नता की बात है। आनध! आप निर्भय होकर संतोषपूर्वक अपने नगर में प्रवेश करेंगे और अपने स्त्री-पुत्रों से मिलकर सुखी होंगे; यही मेरे लिये अनुपम प्रसन्नता की बात होगी।।

     ‘महाराज! अब आपके नगर में सुहृदों से यह प्रिय समाचार बताने के लिये तुरंत ही दूतों को जाना चाहिये। वे दूत वहाँ आपकी विजय घोषित करें।’ तब उनके कथनानुसार राजा विराट ने दूतों को आदेश दिया,

    राजा विराट बोले ;- ‘दूतों! तुम लो नगर में जाकर सूचना दो कि युद्ध में मेरी विजय हुई है। कुमारी कन्याएँ श्रृंगार करके स्वागत कि लिये नगर से बाहर आ जाएँ।

   ‘सब प्रकार के बाजे बजाये जायँ और वेश्याएँ भी सज-धजकर तैयार रहें।’ मत्स्यराज की इस आज्ञा को सुनकर उसे शिरोधार्य करके दूत प्रसन्नचित होकर चले। रात में वहाँ से प्रस्थान करके सूर्योदय होते-होते दूत विराट की राजधानी में जा पहुँचे और वहाँ उन्होंने सब ओर मत्स्यराज की विजय घोषित कर दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं के अपहरण प्रसंग में जयघोष सम्बन्धी चैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

विराट पर्व (गोहरण पर्व)

पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“कौरवों का उत्तर दिशा की ओर से आकर विराट की गौओं का अपहरण और गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध के लिये उत्साह दिलाना“

  वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! जिस समय अपने पशुओं को छुड़ा लाने की इच्छा से राजा विराट त्रिगतों से युद्ध करने के लिये गये, उसी समय दुर्योधन ने अपने मन्त्रियों के साथ विराट देश पर चढ़ाई की। राजन्! भीष्म, द्रोण, कर्ण, अस्त्रविद्या के श्रेष्ठ विद्वान् कृपाचार्य, अश्वत्थामा, शकुनि, दुःशासन, विविंशति, विकर्ण, पराक्रमी चित्रसेन, दुर्मुख, दुःशल तथा अन्य महारथी भी दुर्योधन के साथ थे। इन सबने राजा विराट के मत्स्यदेश में आकर उनके गोष्ठों में भगदड़ मचा दी और बड़े वेग से बलपूर्वक गोधन का अपहरण करना आरम्भ किया। वे


कौरव वीर राजा विराट की साठ हतार गौओं को विशाल रथ समूहों द्वारा चारों ओर से घेरकर हाँक चले। उस समय वहाँ भयंकर मारपीट हुई। उन महारथियों द्वारा मारे जाते हुए गोष्ठ के ग्वालों का जोर-जोर से होने वाला आर्तनाद बहुत दूर तक सुनायी देता था।

     तब उन गौओं के रक्षक भयभीत हो तुरंत ही रथपर बैठकर आर्त की भाँति विलाप करता हुआ राजधानी की ओर चल दिया। राजा विराट के नगर में पहुँचकर वह राजभवन के समीप गया और रथ से उतरकर तुरंत यह समाचार सूचित करने के लिये महल के भीतर चला गया। वहाँ मत्स्यराज के मानी पुत्र भूमिन्जय (उत्तर) से मिलकर उस गोप ने उनसे राज्य के पशुओं के अपहरण का सब समाचार बताते हुए कहा,

    गोप बोले ;- ‘राजकुमार! आप इस राष्ट्र की वृद्धि करने वाले हैं। आज कौरव आपकी साठ हजार गौओं को हाँक ले जा रहे हैं। उनके


हाथ से उस गोधन को जीत लाने के लिये उठ खड़े होइये। ‘राजपुत्र! आप इस राज्य के हिर्तषी हैं, अतः स्वयं ही युद्ध के लिये तैयार होकर निकलिये। मत्स्यनरेश ने अपनी अनुपस्थिति में आपको ही यहाँ का रक्षक नियुक्त किया है।

    ‘वे सभा में आपसे प्रभावित होकर आपकी प्रशंसा में बड़ी-बड़ी किया करते हैं।

     उनका कहना है,- मेरा यह पुत्र उत्तर मेरे अनुरूप शूरवीर और इस वंश का भार वहन करने में समर्थ है। ‘मेरा यह लाड़ला बेटा बाण चलाने तथा अन्यान्य अस्त्रों के प्रयोग की कला में भी निपुण, सदा युद्ध के लिये उद्यत रहने वाला और वीर है।’ उन महाराज का यह कथन आज सत्य सिद्ध होना चाहिये। ‘पशुसम्पत्ति वाले राजाओं मे आप श्रेष्ठ हैं; अतः कौरवों को परास्त करके अपने पशुओं को लौटा लाइये और बाधों की भयंकर अग्नि से इन कौरवों की सारी सेनाओं को भस्म कर डालिये। ‘जैसे हाथियों के झुंड का स्वामी गजराज अपने विरोधियों को रौंद डालता है, उसी प्रकार आप अपने धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख से सुशोभित ओर झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों द्वारा विपक्षियों की विपुल वाहिनी को छिन्न-भिन्न कर डालिये। ‘आज शत्रुओं के बीच में जोर-जोर से गूँजने वाली धनुषरूपी वीणा बजाइये। पाश (प्रत्यंचा बाँधने के सिरे) उसके उपधान (खूँटियाँ) हैं, प्रत्यंचातार है, धनुष उसका दण्ड है और बाण ही उससे झंकृत होने वाले वर्ण (स्वर) है।

(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) पन्चत्रिंश अध्याय के श्लोक 17-22 का हिन्दी अनुवाद)

     ‘प्रभो! अब चाँदी के समान चमकीले वे यवेत रंग के घोड़े आपके रथ में जोते जायँ और सिंह के चिह्न से सुशोभित सुवर्णमय ऊँचा ध्वज फहरा दिया जाय। ‘वीरवर! आपके हाथ बहुत मजबूत हैं। उनके द्वारा आपके चलाये हुए सोने की पाँख और स्वच्छ नोक वाले बाण शत्रुपक्ष के राजाओं की राह रोककर सूर्यदेव को भी ढक दें।

     ‘जैसे वज्रपति इन्द्र समस्त असुरों को परास्त कर देते हैं, उसी प्रकार आप युद्ध में सम्पूर्ण कौरवों को जीतकर महान् यश प्राप्त करके पुनः इस नगर में प्रवेश करें। ‘मत्स्यराज के सुयोग्य पुत्र होने के कार आप ही इस राष्ट्र के महान् आश्रय हैं।

    जैसे विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन पाण्डवों के उत्तम आश्रय हैं, उसी प्रकार आप भी निश्चय ही इस राज्य के निवासियों की परम गति हैं। हम सभी मत्स्यदेशवासी आज आपको पाकर ही गतिमान् (सनाथ) हैं’।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! उस समय राजकुमार अन्तःपुर में स्त्रियों के बीच में बैठा था। वहीं उस गोपाध्यक्ष ने उससे ये निर्भय बनाने वाली बातें कहीं। अतः वह अपनी प्रशंसा करता हुआ इस प्रकार कहने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में उत्तर दिशा की गौओं के अपहरण प्रसंग में गोपवचन विषयक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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