सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के तीन सौ छःवें अध्याय से तीन सौ दसवें अध्याय तक (From the 306 to the 310 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ छःवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकत्रिशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“कुन्ती के द्वारा सूर्य देवता का आवाहन तथा कुन्ती-सूर्य संवाद”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उन श्रेष्ठ ब्राह्मण के चले जाने पर किसी कारणवश राजकन्या कुन्ती ने मन-ही-मन सोचा- ‘इस मन्त्रसमूह में कोई बल है या नहीं। उन महात्मा ब्राह्मण ने मुझे यह कैसा मन्त्रसमूह प्रदान किया है? उसके बल को मैं शीघ्र ही (परीक्षा द्वारा) जानूँगी’। इस प्रकार सोच-विचार में पड़ी हुई कुन्ती ने अकस्मात् अपने शरीर में ऋतु का प्रादुर्भाव हुआ देखा। कन्यावस्था में ही अपने को रजस्वला पाकर उस बालिका ने लज्जा का अनुभव किया।

    तदनन्तर एक दिन कुन्ती अपने महल के भीतर एक बहुमूल्य पलंग पर लेटी हुई थी। उसी समय उसने (खिड़की से) पूर्व दिशा में उदित होते हुए सूर्यमण्डल की ओर दृष्टिपात किया। प्रातःकाल के समय उगते सूर्य की ओर देखने में सुमध्यमा कुन्ती को तनिक भी ताप का अनुभव नहीं हुआ। उसके मन और नेत्र उन्हीं में आसक्त हो गये। उस समय उसकी दृष्टि दिव्य हो गई। उसने दिव्य रूप में दिखायी देने वाले भगवान सूर्य की ओर देखा। वे कवच धारण किये एवं कुण्डलों से विभूषित थे। नरेश्वर! उन्हें देखकर कुन्ती के मन में अपने मन्त्र की शक्ति की परीक्षा करने के लिये कौतूहल पैदा हुआ। तब उस सुन्दरी राजकन्या ने सूर्यदेव का आवाहन किया। उसने विधिपूर्वक आचमन और प्राणायाम करके भगवान दिवाकर का आवाहन किया। राजन्! तब भगवान सूर्य बड़ी उतावली के साथ वहाँ आये। उनकी अंगकान्ति मधु के समान पिंगल वर्ण की थी। भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ग्रीवा शंख के समान थी। वे हँसते हुए से जान पड़ते थे और मस्तक पर बँधा हुआ मुकुट शोभा पाता था। वे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रज्वलित सी कर रहे थे। वे योगशक्ति से अपने दो स्वरूप बनाकर एक से वहाँ आये और दूसरे से आकाश में तपते रहे। उन्होंने कुन्ती को समझाते हुए परम मधुर वाणी में कहा,

     सुर्य देव बोले ;- ‘भद्रे! मैं तुम्हारे मन्त्र के बल से आकृष्ट होकर तुम्हारे वश में आ गया हूँ। राजकुमारी! बताओ, तुम्हारे अधीन रहकर मैं कौन-सा कार्य करूँ? तुम जो भी कहोगी, वही करूँगा’। 

     कुन्ती बोली ;- 'भगवन्! आप जहाँ से आये हें, वहीं पधारिये। मैंने आपको कौतूहलवश ही बुलाया था। प्रभो! प्रसन्न होइये।'

    सूर्य ने कहा ;- 'तनुमध्यमे! जैसा तुम कह रही हो, उसके अनुसार मैं चला तो जाऊँगा ही; परंतु किसी देवता को बुलाकर उसे व्यर्थ लौटा देना, न्याय की बात नहीं है। सुभगे! तुम्हारे मन में ये संकल्प उठा था कि सूर्यदेव से मुझे एक ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो संसार में अनुपम पराक्रमी तथा जन्म से ही दिव्य कवच एवं कुण्डल से सुशोभित हो। अतः गजगामिनी! तुम मुझे अपना शरीर समर्पित कर दो। अंगने! ऐसा करने से तुन्हें अपने संकल्प के अनुसार तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा। भद्रे! सुन्दर मुस्कान वाली पृथे! तुमसे समागम करके मैं पुनः लौट जाऊँगा; परंतु यदि आज तुम मेरा प्रिय वचन नहीं मानोगी, तो मैं कुपित होकर तुमको, उस मन्त्रदाता ब्राह्मण को और तुम्हारे पिताजी को भी शाप दे दूँगा। तुम्हारे कारण मैं उन सबको जलाकर भस्म कर दूँगा। इसमें संशय नहीं है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडधिकत्रिशततम ध्याय के 18-28 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    तुम्हारे मूर्ख पिता को भी जला दूँगा, जो तुम्हारे इस अन्याय को नहीं जानता है तथा जिसने तुम्हारे शील और सदाचार को जाने बिना ही मन्त्र का उपदेश दिया है, उस ब्राह्मण को भी अच्छी सीख दूँगा। भामिनी! ये इन्द्र आदि समस्त देवता आकाश में खड़े होकर मुसकराते हुए से मेरी ओर इस भाव से देख रहे हैं कि मैं तुम्हारे द्वारा कैसा ठगा गया? देखो न, इन देवताओं की ओर। मैंने तुम्हें पहले से ही दिव्य दृष्टि दे दी है, जिससे तुम मुझे देख सकी हो।'

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजकुमारी कुन्ती ने आकाश में अपने-अपने विमानों पर बैठे हुए सब देवताओं को देखा। जैसे सहस्रों किरणों से युक्त भगवान सूर्य अत्यन्त दीप्तिमान दिखायी देते हैं, उसी प्रकार वे सब देवता प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर बालिका कुन्ती को बड़ी लज्जा हुई। उस देवी ने भयभीत होकर सूर्यदेव से कहा,

   कुन्ती बोली ;- ‘किरणों के स्वामी दिवाकर! आप अपने विमान पर चले जाइये। छोटी बालिका होने के कारण मेरे द्वारा आपको बुलाने का यह दुःखदायक अपराध बन गया है। मेरे पिता-माता तथा अन्य गुरुजन ही मेरे इस शरीर को देने का अधिकार रखते हैं। मैं अपने धर्म का लोप नहीं करूँगी। स्त्रियों के सदाचार में अपने शरीर की पवित्रता को बनाये रखना ही प्रधान है और संसार में उसी की प्रशंसा की जाती है। प्रभो! प्रभाकर! मैंने अपने बाल-स्वभाव के कारण मन्त्र का बल जानने के लिये ही आपका आवाहन किया है। एक अनजान बालिका समझकर आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें’।

   सूर्यदेव ने कहा ;- 'कुन्तीभोजकुमारी कुन्ती! बालिका समझकर ही मैं तुमसे इतनी अनुनय विनय करता हूँ। दूसरी कोई स्त्री मुझसे अनुनय का अवसर नहीं पा सकती। भीरु! तुम मुझे अपना शरीर अर्पण करो। ऐसा करने से ही तुम्हें शान्ति प्राप्त हो सकती है। निर्दोष अंगों वाली सुन्दरी! तुमने मन्त्र द्वारा मेरा आवाहन किया है; इस दशा में उस आवाहन को व्यर्थ करके तुमसे मिले बिना ही लौट जाना मेरे लिये उचित न होगा। भीरु! यदि मैं इसी तरह लौटूँगा, तो जगत् में मेरा उपहास होगा। शुभे! सम्पूर्ण देवताओं की दृष्टि में भी मुझे निन्दनीय बनना पड़ेगा। अतः तुम मेरे साथ समागम करो। तुम मेरे ही समान पुत्र पाओगी और समस्त संसार में (अन्य स्त्रियों से) विशिष्ट समझी जाओगी; इसमें संशय नहीं है।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य का आवाहन विषयक तीन सौ छःवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकत्रिशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन”

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार राजकन्या मनस्विनी कुन्ती नाना प्रकार से मधुर वचन कहकर अनुनय-विनय करने पर भी भगवान सूर्य को मनाने में सफल न हो सकी। राजन्! जब वह बाला अन्धकारनाशक भगवान सूर्यदेव को टाल न सकी, तब शाप से भयभीत हो दीर्घ काल तक मन-ही-मन कुछ सोचने लगी। उसने सोचा कि ‘क्या उपाय करूँ? जिससे मेरे कारण मेरे निरपराध पिता तथा निर्दोष ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए इन सूर्यदेव से शाप न प्राप्त हो। सज्जन बालक को भी चाहिये कि वह अत्यन्त मोह के कारण पापशून्य, तेजस्वी तथा तपस्वी पुरुषों के अत्यन्त निकट न जाये। परंतु मैं तो आज अत्यंत भयभीत हो भगवान सूर्यदेव के हाथ में पड़ गयी हूँ, तो भी स्वयं अपने शरीर को देने जैसा न करने योग्य नीच कर्म कैसे करूँ?'

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नृपश्रेष्ठ! कुन्ती शाप से अत्यन्त डरकर मन-ही-मन तरह-तरह की बातें सोच रही थी। उसके सारे अंग मोह से व्याप्त हो रहे थे। वह बार-बार आश्चर्यचकित हो रही थी। एक ओर तो वह शाप से आतंकित थी, दूसरी ओर उसे भाई-बन्धुओं का भय लगा हुआ था। भूपाल! उस दशा में वह लज्जा के कारण विश्रृंखल वाणी द्वारा सूर्यदेव से इस प्रकार बोली। 

    कुन्ती ने कहा ;- 'देव! मेरे पिता, माता तथा अन्य बान्धव जीवित हैं। उन सबके जीते-जी स्वयं आत्मदान करने पर कहीं शास्त्रीय विधि का लोप न हो जाये? भगवन्! यदि आपके साथ मेरा वेदोक्त विधि के विपरीत समागम हो, तो मेरे ही कारण जगत् में इस कुल की कीर्ति नष्ट हो जायेगी अथवा तपने वालों में श्रेष्ठ दिवाकर! यदि बन्धुजनों के दिये बिना ही मेरे साथ अपने समागम को आप धर्मयुक्त समझते हों, तो मैं आपकी इच्छा पूर्ण कर सकती हूँ। दुर्धर्ष देव! क्या मैं आपको आत्मदान करके भी सती-साध्वी रह सकती हूँ? आप में ही देहधारियों के धर्म, यश, कीर्ति तथा आयु प्रतिष्ठित हैं।'

     भगवान सूर्य ने कहा ;- शुचिस्मिते! वरारोहे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी बात सुनो। तुम्हारे पिता, माता अथवा अन्य गुरुजन तुम्हें (इस काम से) रोकने में समर्थ नहीं हैं। सुन्दर भाव वाली कुन्ती! ‘कम्’ धातु से कन्या शब्द की सिद्धि होती है। सुन्दरी वह (स्वयंवर में आये हुए) सब वरों में से किसी को भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी कामना का विषय बना सकती है; इसीलिये इस जगत् में उसे कन्या कहा गया है। कुन्ती! मेरे साथ समागम करने से तुम्हारे द्वारा कोई अधर्म नहीं बन रहा है। भला! मैं लौकिक कामवासना के वशीभूत होकर अधर्म का वरण कैसे कर सकता हूँ? वरवर्णिनी! मेरे लिए सभी स्त्रियाँ और पुरुष आवरण रहित हैं; क्योंकि मैं सबका साक्षी हूँ। जो अन्य सब विकार है, यह तो प्राकृत मनुष्यों का स्वभाव माना गया है। तुम मेरे साथ समागम करके पुनः कन्या ही बनी रहोगी और तुम्हें महाबाहु एवं महायशस्वी पुत्र प्राप्त होगा।

     कुन्ती बोली ;- 'समस्त अंधकार को दूर करने वाले सूर्यदेव! यदि आपसे मुझे पुत्र प्राप्त हो, तो वह महाबाहु, महाबली तथा कुण्डल और कवच से विभूषित शूरवीर हो।'

     सूर्य ने कहा ;- भद्रे! तुम्हारा पुत्र महाबाहु, कुण्डलधारी तथा दिव्य कवच धारण करने वाला होगा। उसके कुण्डल और कवच दोनों अमृतमय होंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्ताधिकत्रिशततम अध्याय के 19-28 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

      कुन्ती बोली ;- 'प्रभो! आप मेरे गर्भ से जिसे जन्म देंगे, उस मेरे पुत्र के कुण्डल और कवच यदि अमृत से उत्पन्न हुए होंगे; तो भगवन्! आपने जैसा कहा है, उसी रूप में मेरा आपके साथ समागम हो। आपका वह पुत्र आपके ही समान वीर्य, रूप, धैर्य, ओज तथा धर्म से युक्त होना चाहिये।'

     सूर्यदेव ने कहा ;- यौवन के मद में सुशोभित होने वाली भीरु राजकुमारी! माता अदिति ने मुझे जो कुण्डल दिये हैं, उन्हें मैं तुम्हारे इस पुत्र को दे दूँगा। साथ ही यह उत्तम कवच भी उसे अर्पित करूँगा।

    कुन्ती बोली ;- 'भगवन्! गोपते! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही पुत्र यदि मुझे प्राप्त हो, तो मैं आपके साथ उत्तम रीति से समागम करूँगी।'

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर आकाशचारी राहुशत्रु भगवान सूर्य ने यो६गरूप से कुन्ती के शरीर में प्रवेश किया और उसकी नाभि को छू दिया। तब वह राजकन्या सूर्य के तेज से विह्वल और अचेत-सी होकर शय्या पर गिर पड़ी।

      सूर्य ने कहा ;- सुन्दरी! मैं ऐसी चेष्टा करूँगा, जिससे तुम समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पुत्र को जन्म दोगी और कन्या ही बनी रहोगी। राजेन्द्र! तब संगम के लिये उद्यत हुए महातेजस्वी सूर्यदेव की ओर देखकर लज्जित हुई उस राजकन्या ने उनसे कहा,

    कुन्ती बोली ;- ‘प्रभो! ऐसा ही हो’।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर कुन्तीनरेश की कन्या पृथा भगवान सूर्य से पुत्र के लिये प्रार्थना करती हुई अत्यन्त लज्जा और मोह के वशीभूत होकर कटी हुई लता की भाँति उस पवित्र शय्या पर गिर पड़ी। तत्पश्चात् सूर्यदेव ने उसे अपने तेज से मोहित कर दिया और योगशक्ति के द्वारा उसके भीतर प्रवेश करके अपना तेजोमय वीर्य स्थापित कर दिया। उन्होंने कुन्ती को दूषित नहीं किया, उसका कन्याभाव अछूता ही रहा। तदनन्तर वह राजकन्या फिर सचेत हो गयी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य-कुन्ती समागम विषयक तीन सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्ण का जन्म, कुन्ती का उसे पिटारी में रखकर जल में बहा देना ओर विलाप करना”

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार आकाश में जैसे चन्द्रमा का उदय होता है, उसी प्रकार ग्यारहवें मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को कुन्ती के उदर में भगवान सूर्य के द्वारा गर्भ स्थापित हुआ। सुन्दर कटिप्रदेश वाली कुन्ती भाई-बहनों के भय से उस गर्भ को छिपाती हुई धारण करने लगी। अतः कोई भी मनुष्य नहीं जान सका कि यह गर्भवती है। एक धाय के सिवा दूसरी कोई स्त्री भी इसका पता न पा सकी। कुन्ती सदा कन्याओं के अन्तःपुर में रहती थी एवं अपने रहस्य को छिपाने में वह अत्यंत निपुण थी। तदनन्तर सुन्दरी पृथा ने यथा समय भगवान सूर्य के कृपा प्रसाद से स्वयं कन्या ही बनी रहकर देवताओं के समान तेजस्वी एक पुत्र को जन्म दिया। उसने अपने पिता के ही समान शरीर पर कवच बाँध रक्खा था और कानों में सोने के बने हुए दो दिव्य कुण्डल जगमगा रहे थे।

      उस बालक की आँखें सिंह के समान और कंधे वृषभ जैसे थे। उस बालक के पैदा होते ही भामिनी कुन्ती ने धाय से सलाह लेकर एक पिटारी मँगवायी और उसमें सब ओर सुन्दर मुलायम बिछौने बिछा दिये। इसके बाद उस पिटारी में चारों ओर मोम चुपड़ दिया, जिससे उसके भीतर जल न प्रवेश कर सके। जब वह सब तरह से चिकनी और सुखद हो गयी, तब उसके भीतर उस बालक को सुला दिया और उसका सुन्दर ढक्कन बंद कर दिया तथा रोते-रोते उस पिटारी को अश्व नदी में छोड़ दिया। राजन्! यद्यपि वह यह जानती थी कि किसी कन्या के लिये गर्भधारण करना सर्वथा निषिद्ध और अनुचित है, तथापि पुत्रस्नेह उमड़ आने से कुन्ती वहाँ करुणाजनक विलाप करने लगी। उस समय अश्व नदी के जल में उस पिटारी को छोड़ते समय रोती हुई कुन्ती ने जो बातें कहीं, उन्हें बताता हूँ; सुनो।

    वह बोली ;- ‘मेरे बच्चे! जलचर, थलचर, आकाशचारी तथा दिव्य प्राणी तेरा मंगल करें। तेरा मार्ग मंगलमय हो। बेटा! तेरे पास शत्रु न आयें। जो आ जायें, उनके मन में तेरे प्रति द्रोह की भावना न रहे। जल में उसके स्वामी राजा वरुण तेरी रक्षा करें। अन्तरिक्ष में वहाँ रहने वाले सर्वगामी वायुदेव तेरी रक्षा करें। पुत्र! जिन्होंने दिव्य रीति से तुझे मेरे गर्भ में स्थापित किया है, वे तपने वालों में श्रेष्ठ तेरे पिता भगवान सुर्य सर्वत्र तेरा पालन करें। आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, इन्द्र सहित मरुद्गण, दिक्पालों सहित दिशाएँ तथा समस्त देवता, सभी सम-विषम स्थानों में तेरी रक्षा करें। यदि विदेश में भी तू जीवित रहेगा, तो मैं इन कवच-कुण्डल आदि चिह्नों से उपलक्षित होने पर तुझे पहचान लूँगी। बेटा! तेरे पिता भगवान भुवन भास्कर धन्य हैं, जो अपनी दिव्य दृष्टि से नदी की धारा में स्थित हुए तुझको देखेंगे। देवपुत्र! वह रमणी धन्य है, जो तुझे अपना पुत्र बनाकर पालेगी और तू भूख-प्यास लगने पर जिसके स्तनों का दूध पियेगा। उस भाग्यशालिनी नारी ने कौन-सा ऐसा शुभ स्वप्न देखा होगा, जो सूर्य के समान तेजस्वी, दिव्य कवच से संयुक्त, दिव्य कुण्डलभूषित, कमलदल के समान विशाल नेत्र वाले, लाल कमल समूह से विभूषित तुझ जैसे दिव्य बालक को अपना पुत्र बनायेगी।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 20-27 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘वत्स! जब तू धरती पर पेट के बल सरकता फिरेगा और समझ में न आने वाली मधुर तोतली बोली बोलेगा, उस समय तेरे धूलधूसरित अंगों को जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं।

   पुत्र! हिमालय के जंगल में उत्पन्न हुए केसरी सिंह के समान तुझे जवानी में जो लोग देखेंगे, वे धन्य हैं।

   राजन्! इस तरह बहुत-सी बातें कहकर करुण-विलाप करती हुई कुन्ती ने उस समय अश्व नदी के जल में वह पिटारी छोड़ दी।

     जनमेजय! आधी रात के समय कमलनयनी कुन्ती पुत्रशोक से आतुर हो उसके दर्शन की लालसा से धात्री के साथ नदी के तट पर देर तक रोती रही। पेटी को पानी में बहाकर, कहीं पिताजी जग न जायें, इस भय से वह शोक से आतुर हो पुनः राजभवन में चली गयी।

    वह पिटारी अश्व नदी से चर्मण्वती (चम्बल) नदी में गयी। चर्मण्वती से यमुना में और वहाँ से गंगा में जा पहुँची। पिटारी में सोया हुआ वह बालक गंगा की लहरों से बहाया जाता हुआ चम्पापुरी के पास सूतराज्य में जा पहुँचा। उसके शरीर का दिव्य कवच और कानों के कुण्डल-ये अमृत से प्रकट हुए थे। वे ही विधाता द्वारा रचित उस देवकुमार को जीवित रख रहे थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में कर्ण परित्याग विषयक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ नोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“अधिरथ सूत तथा उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति, राधा के द्वारा उसका पालन, हस्तिनापुर में उसकी शिक्षा-दीक्षा तथा कर्ण के पास इन्द्र का आगमन”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसी समय राजा धृतराष्ट्र का मित्र अधिरथ सूत अपनी स्त्री के साथ गंगा के तट पर गया। राजन्! उसकी परम सौभाग्यवती पत्नी इस भूतल पर अनुपम सुन्दरी थी। उसका नाम था राधा। उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। राधा पुत्र प्राप्ति के लिये विशेष यत्न करती रहती थी। दैवयोग से उसी ने गंगाजी के जल में बहती हुई उस पिटारी को देखा। पिटारी के ऊपर उसकी रक्षा के लिये लता लपेट दी गयी थी और सिन्दूर का लेप लगा होने से उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। गंगा की तरगों के थपेड़े खाकर वह पिटारी तट के समीप आ लगी। भामिनी राधा ने कौतूहलवश उस पिटारी को सेवकों से पकड़वा मँगाया और अधिरथ सूत को इसकी सूचना दी।

     अधिरथ ने उस पिटारी को पानी से बाहर निकालकर जब यन्त्रों (औजारों) द्वारा उसे खोला, तब उसके भीतर एक बालक को देखा। वह बालक प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी था। उसने अपने अंगों में स्वर्णमय कवच धारण कर रक्खा था। उसका मुख कानों में पड़े हुए दो उज्ज्वल कुण्डलों से प्रकाशित हो रहा था। उसे देखकर पत्नी सहित सूत के नेत्रकमल आश्चर्य एवं प्रसन्नता से खिल उठे। उसने बालक को गोद में लेकर अपनी पत्नी से कहा,

     अधिरथ बोला ;- ‘भीरु! भाविनी! जब से मैं पैदा हुआ हूँ, तब से आज ही मैंने ऐसा अद्भुत बालक देखा है। मैं समझता हूँ, यह कोई देवबालक ही हमें भाग्यवश प्राप्त हुआ है। मुझ पुत्रहीन को अवश्य ही देवताओं ने दया करके यह पुत्र प्रदान किया है।’ राजन्! ऐसा कहकर अधिरथ ने वह पुत्र राधा को दे दिया। राधा ने भी कमल के भीतरी भाग के समान कान्तिमान, शोभाशाली तथा दिव्यरूपधारी उस देवबालक को विधिपूर्वक ग्रहण किया। निश्चय ही दैव की प्रेरणा से राधा के स्तनों से दूध भी झरने लगा। उसने विधिपूर्वक उस बालक का पालन-पोषण किया और वह धीरे-धीरे सबल होकर दिनोंदिन बढ़ते लगा। तभी से उस सूत-दम्पति के और भी अनेक औरस-पुत्र उत्पन्न हुए।

     तदनन्तर वसु (सुवर्ण) मय कवच धारण किये तथा सोने के ही कुण्डल पहने हुए उस बालक को देखकर ब्राह्मणों ने उसका नाम ‘वसुषेण’ रक्खा। इस प्रकार वह अमित पराक्रमी एवं सामर्थ्यशाली बालक सूतपुत्र बन गया। लोक में ‘वसुषेण’ और ‘वृष’ इन दो नामों से उसकी प्रसिद्धि हुई। अधिरथ सूत का यह पराक्रमी श्रेष्ठ पुत्र अंगदेश में पालित होकर दिनोंदिन बढ़ने लगा। कुन्ती ने गुप्तचर भेजकर मालूम कर लिया था कि मेरा दिव्य कवचधारी पुत्र अधिरथ के यहाँ पल रहा है। अधिरथ सूत ने अपने पुत्र को बड़ा हुआ देख उसे यथा समय हस्तिनापुर भेज दिया। वहाँ उसने धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये आचार्य द्रोण की शिष्यता स्वीकार की। इस प्रकार पराक्रमी कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता हो गयी। वह द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा परशुराम से चारों प्रकार की अस्त्र-विद्या सीखकर संसार में एक महान् धनुर्धर के रूप में विख्यात हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 19-25 का हिन्दी अनुवाद)

   धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन से मिलकर वह कुन्तीपुत्रों का अनिष्ट करने में लगा रहता और सदा महामना अर्जुन से युद्ध करने की इच्छा व्यक्त किया करता था।

     राजन्! अर्जुन और कर्ण ने जब से एक-दूसरे को देखा था, तभी से कर्ण अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता था और अर्जुन भी कर्ण के साथ बड़ी स्पर्धा रखते थे।

    महाराज! निःसंदेह सूर्य का यही वह गुप्त रहस्य है कि कुन्ती के गर्भ से सूर्य द्वारा उत्पन्न कर्ण सूतकुल में पला था। उसे दिव्य कुण्डल और कवच से संयुक्त देख युद्ध में अवध्य जानकर राजा युधिष्ठिर सदा संतप्त होते रहते थे।

    राजेन्द्र! जब कर्ण दोपहर के समय जल में खड़ा हो हाथ जोड़कर अंशुमाली भगवान दिवाकर की स्तुति करता था, उस समय बहुत-से ब्राह्मण धन के लिये उसके पास आते थे। उस अवसर पर उसके पास कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणों के लिये अदेय हो। इन्द्र भी उसी समय ब्राह्मण बनकर वहाँ उपस्थित हुए और बोले,

    इन्द्र बोले ;- ‘मुझे भिक्षा दो।’ यह सुनकर राधानन्दन कर्ण ने उत्तर दिया- ‘विप्रवर! आपका स्वागत है’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में राधा को कर्ण की प्राप्ति विषयक तीन सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्रका कर्णको अमोघ शक्ति देकर बदले में उसके कवच-कुण्डल लेना”

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवराज को ब्राह्मण के छद्मवेष में छिपकर आये देख कर्ण ने कहा,

   कर्ण बोला ;- ‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है।’ परंतु कर्ण को उस समय इन्द्र के मनोभाव का कुछ भी पता न चला। तब अधिरथकुमार ने उन ब्राह्मणरूपी इन्द्र से कहा,

   कर्ण फिर बोला ;- ‘विप्रवर! मैं आपको क्या दूँ? सोने के कण्ठों से विभूषित स्त्रियाँ अथवा बहुसंख्यक गोधनों से भरे हुए अनेक ग्राम?’

    ब्राह्मण बोले ;- वीरवर! तुम्हारी दी हुई सोने के कंठों से विभूषित युवती स्त्रियाँ तथा दूसरी आनन्दवर्धक वस्तुएँ मैं नहीं लेना चाहता। इन वस्तुओं को उन याचकों को दे दो, जो इनकी अभिलाषा लेकर आये हों। अनघ! यदि तुम सत्यव्रती हो, तो ये जो तुम्हारे शरीर के साथ उत्पन्न हुए कवच और कुण्डल हैं, इन्हें काटकर मुझे दे दो। परंतप! तुम्हारा दिया हुआ यही दान मैं शीघ्रतापूर्वक लेना चाहता हूँ। यही मेरे लिये सम्पूर्ण लाभों में सबसे बढ़कर लाभ है।

   कर्ण ने कहा ;- ब्रह्मन्! यदि आप घर बनाने के लिये भूमि, गृहस्थी बसाने के लिये सुन्दरी तरुणी स्त्रियाँ, बहुत-सी गौएँ, खेत और बहुत वर्षों तक चालू रहने वाली जीवनवृत्ति लेना चाहें, तो दे दूँगा; परंतु कवच और कुण्डल नहीं दे सकता।

    वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर कर्ण के प्रार्थना करने पर भी उन ब्राह्मणदेव ने दूसरा कोई वर नहीं माँगा। कर्ण ने उन्हें यथाशक्ति बहुत समझाया एवं विधिपूर्वक उनका पूजन किया। तथापि उन द्विजश्रेष्ठ ने और किसी वर को लेने से अनिच्छा प्रकट कर दी। राजन्! जब उन द्विजश्रेष्ठ ने कर्ण से सहज कवच और कुण्डल के सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं माँगी, तक राधानन्दन कर्ण ने उनसे हँसते हुए से कहा,

    कर्ण बोला ;- ‘विप्रवर! कवच तो मेरे शरीर के साथ ही उत्पन्न हुआ है और दोनों कुण्डल भी अमृत से प्रकट हुए हैं। इन्हीं के कारण मैं संसार में अवध्य बना हुआ हूँ; अतः मैं इन सब वस्तुओं को त्याग नहीं सकता। ब्राह्मण प्रवर! आप मुझसे समूची पृथ्वी का कल्याणमय अकण्टक, विशाल एवं उत्तम साम्राज्य ले लें। द्विजश्रेष्ठ! इस सहज कवच और दोनों कुण्डलों से वंचित हो जाने पर मैं शत्रुओं का वध्य हो जाऊँगा (अतः इन्हें न माँगिये)’।

   वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इतना अनुनय-विनय करने पर भी जब पाकशासन भगवान इन्द्र ने दूसरा कोई वर नहीं माँगा, तब कर्ण ने हँसकर पुनः इस प्रकार कहा,

    कर्ण बोला ;- ‘देवदेवश्वर! प्रभो! आप पधार रहे हैं, यह बात मुझे पहले से ही ज्ञात हो गयी थी। पर देवेन्द्र! मैं आपको निष्फल वर दूँ, यह न्यायसंगत नहीं है। आप साक्षात् देवेश्वर हैं। उचित तो यही है कि आप मुझे वर दें; क्योंकि आप अन्य सब भूतों के ईश्वर तथा उन्हें उत्पन्न करने वाले हैं। इन्द्रदेव! यदि मैं आपको अपने दोनों कुण्डल और कवच दे दूँगा, तो मैं तो शत्रुओं का वध्य हो जाऊँगा और संसार में आपकी हँसी होगी। इसलिये (कर्ण ने सूर्य की आज्ञा को याद करके कहा-) शक्र! आप कुछ बदला देकर इच्छानुसार मेरे कुण्डल और उत्तम कवच ले जाइये; अन्यथा मैं इन्हे नहीं दे सकता’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)

   इन्द्र बोले ;- कर्ण जब मैं तुम्हारे पास आ रहा था, उसके पहले ही सूर्यदेव को यह बात मालूम हो गयी थी। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ही तुमसे सारी बातें बता दी हैं। तात कर्ण! तुम्हारी रुचि के अनुसार इन वस्तुओं का परिवर्तन ही हो जाये। मेरे वज्र को छोड़कर तुम जो चाहो, वही आयुध मुझसे माँग लो।

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब कर्ण अत्यन्त प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र के पास गया और सफल मनोरथ होकर उसने उनकी अमोघ शक्ति माँगी।

   कर्ण बोला ;- 'वासव! मेरे कवच और कुण्डल लेकर आप मुझे अपनी वह अमोघ शक्ति प्रदान कीजिये, जो सेना के अग्रभाग में शत्रुसमुदाय का संहार करने वाली है।' राजन्! तब इन्द्र ने शक्ति के विषय में दो घड़ी तक मन-ही-मन विचार करके कर्ण से इस प्रकार कहा,

   इन्द्र देव बोले ;- ‘कर्ण! तुम मुझे अपने दोनों कुण्डल और सहज कवच दे दो और मेरी यह शक्ति ग्रहण कर लो। इसी शर्त के अनुसार हम लोगों में इन वस्तुओं का विनिमय (बदला) हो जाये। सूतसूदन! दैत्यों का संहार करते समय मेरे हाथ से छूटने पर यह अमोघ शक्ति सैंकड़ों शत्रुओं को मार देती है और पुनः मेरे हाथ में चली आती है। वही शक्ति तुम्हारे हाथ में जाकर किसी एक तेजस्वी, ओजस्वी, प्रतापी तथा गर्जना करने वाले शत्रु को मार के पुनः मेरे पास आ जायेगी’।

     कर्ण बोला ;- देवेन्द्र! मैं महासमर में अपने एक ही शत्रु को मारना चाहता हूँ, जो बहुत गर्जना करने वाला और प्रतापी है तथा जिससे मुझे हमेशा भय बना रहता है।

     इन्द्र ने कहा ;- कर्ण! तुम (इस शक्ति से) रणभूमि में गर्जना करने वाले किसी एक बलवान शत्रु को मार सकोगे, परंतु इस समय तुम जिस एक शत्रु को लक्ष्य करके यह अमोघ शक्ति माँग रहे हो, वह तो उन परमात्मा द्वारा सुरक्षित है, जिन्हें वेदवेत्ता विद्वान् पुरुषोत्तम अपराजित, हरि तथा अचिन्त्यस्वरूप नारायण कहते हैं। वे स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जिनके द्वारा उस वीर की रक्षा हो रही है।

    कर्ण बोला ;- 'भगवन्! ऐसा ही हो। तो भी आप एक वीर के वध के लिये मुझे अपनी अमोघ शक्ति दे दीजिये, जिससे मैं अपने प्रतापी शत्रु का वध कर सकूँ। में आपको अपने शरीर से उघेड़कर कवच और कुण्डल तो दे दूँगा; परंतु उस समय मेरे अंगों के कट जाने पर मेरा स्वरूप वीभत्स न होना चाहिये।'

     इन्द्र ने कहा ;- कर्ण! तुम्हारा स्वरूप किसी प्रकार भी वीभत्स नहीं होगा। तुम्हारे अंगों में घाव तक नहीं होगा। क्योंकि तुम असत्य की इच्छा नहीं रखते हो। वक्ताओं में श्रेष्ठ कर्ण! तुम्हारे पिता का जैसा वर्ण और तेज है, वैसे ही वर्ण और तेज से तुम पुनः सम्पन्न हो जाओगे। जब तक तुम्हारे पास दूसरे शस्त्र रहें और प्राणसंकट की परिस्थिति न आ जाये, तब तक तुम यदि प्रमादवश यह अमोघ शक्ति यों ही किसी शत्रु पर छोड़ दोगे, तो यह उसे न मारकर तुम्हारे ही ऊपर आ पड़ेगी।

    कर्ण बोला ;- 'देवेन्द्र! आप जैसा मुझसे कह रहे हैं, उसके अनुसार प्राणसंकट की अवस्था में पड़कर ही मैं आपकी दी हुई इस शक्ति का उपयोग करूँगा, यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) दशाधिकत्रिशततम अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)

     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर इन्द्र की प्रज्वलित शक्ति लेकर कर्ण ने तीखी तलवार उठायी और कवच उधेड़ने के लिये अपने सब अंगों को काटना आरम्भ किया।  उस समय देवता, मनुष्य और दानव सब लोग इस प्रकार अपना शरीर काटते हुए कर्ण को देखकर सिंहनाद करने लगे; परंतु कर्ण के मुख पर तनिक भी विकार नहीं आया। कर्ण के सारे अंग शस्त्रों के आघात से कट गये थे, फिर भी वह नरवीर बारंबार मुसकरा रहा था। यह देखकर दिव्य दुन्दुभियाँ बज उठीं एवं आकाश से दिव्य फूलों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर अपने शरीर से दिव्य कवच को उधेड़कर कर्ण ने इन्द्र के हाथों में दे दिया; वह कवच उस समय रक्त से भीगा हुआ ही था। इसी प्रकार उसने कानों के वे कुण्डल भी काटकर दे दिये। अतः इस 'कर्णन' (कर्तन) रूपी कर्म से उसका नाम ‘कर्ण’ हुआ।

      इस प्रकार कर्ण को (कवच और कुण्डल से) वंचित करके एवं संसार में उसका सुयश फैलाकर देवराज इन्द्र हँसते हुए स्वर्गलोक को चले गये। उन्हें मन-ही-मन यह विश्वास हो गया कि ‘मैंने पाण्डवों का कार्य पूरा कर दिया’। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने जब यह सुना कि कर्ण को (कवच और कुण्डलों से) वंचित कर दिया गया तो वे सब अत्यन्त दीन से हो गये; उनका घमंड चूर-चूर सा हो गया। वन में रहने वाले कुन्तीपुत्रों ने जब सुना कि सूतपुत्र इस दशा में पहुँच गया है, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ।

    जनमेजय ने पूछा ;- भगवन्! वे वीर पाण्डव उन दिनों कहाँ थे? उन्होंने वह प्रिय समाचार कैसे सुना और बारहवाँ वर्ष व्यतीत हो जाने पर क्या किया? ये सब बातें आप मुझे स्पष्ट रूप से बतायें।

     वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! द्रौपदी को पाकर तथा जयद्रथ को काम्यकवन से भगाकर ब्राह्मणों सहित समस्त पाण्डवों ने मार्कण्डेय जी के मुख से पुराण कथा और देवताओं तथा ऋषियों के विस्तृत चरित्र सुनते हुए इसे भी सुना था। इस प्रकार वनवास की पूरी अवधि बिताकर वे नरवीर पाण्डव अपने रथ, अनुचर, सूत तथा रयोइयों के साथ पुनः द्वैतवन में लौट आये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में कवच-कुण्डल दान विषयक तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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