सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) षड्विंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“दुर्योधन का सभासदों से पाण्डवों का पता लगाने के लिये परामर्श तथा इस विषय में कर्ण और दुःशासन की सम्मति”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन उस समय दूतों की बात पर विचार करके बहुत देर तक मन-ही-मन कुछ सोचता रहा। उसके बाद उसने सभासदों से कहा,
दुर्योधन बोला ;- ‘कार्यों के अन्तिम परिणामों को ठीक-ठीक
समरू लेना अत्यनत कठिन है; अतः आप सब लोग इस बात को समझें कि पाण्डव कहाँ चले गये ? ‘ इस तेरहवें वर्ष में पाण्डवों के अज्ञातवास का अधिकांश समय बीत चुका है और थोड़े ही दिन शेष हैं। ‘यदि शेष समय भी पाण्डव इसी प्रकार यहाँ व्यतीत कर लें, तो वे प्रतिज्ञापालन के भार से मुक्त हो जायेंगे। फिर तो वे सत्यव्रती पाण्उव मद की धारा बहाने वाले गजराजों और विषधर सर्पों के समान क्रोध में भरकर निश्चय ही कौरवों के लिये दुःखदायी हो जायँगे। ‘वे सब समय की नियत अवधि को जानते हैं; अतः कहीं ऐसा वेष धारण करके छिपे होंगे, जिससे उन्हें पहचानना कठिन हो गया है, इसलिये आप लोग शीघ्र उका पता लगाने की चेष्टा करें, जिससे वे क्रोध को दबाकर उतने ही समय के लिये अर्थात् बारह वर्षों के लिये वन में चले जायँ। ऐसा होने पर ही मेरा यह राज्य दीर्घकाल तक के लिये निद्र्वन्द्व, व्यग्रताशून्य तथा निष्कण्टक हो जायेगा’। यह सुनकर
कर्ण ने कहा ;- ‘भरतनन्दन! तब शीघ्र ही दूसरे कार्यकुशल गुप्तचर भेजें जायँ, जो धूर्त होने के साथ ही छिपे रहकर अपना कार्य अच्छी तरह कर सकें। ‘वे गुप्तरूप से धन-धान्य सम्पन्न एवं जनसमुदाय से भरे हुए देशों में जायँ और वहाँ सुरम्य सभाओं में, सिद्ध संन्यासी महात्माओं के आश्रम में, राजनगरों में, नाना प्रकार के तीर्थों में औ सर्वोत्तम स्थानों में, वहाँ निवास करने वाले मनुष्यों से विनयपूर्ण युक्ति से पूछकर उनका पता लगावें। ‘पाण्डव छिपकर किसी गुप्त स्थान मे निवास करते होंगे; अतः जो कार्यसाधन में तत्पर, उन्हें अच्छी तरह पहचानने वाले, बुद्धिमानी से स्वयं भी छिपकर कार्य करने वाले और अत्यनत कुशल हों, ऐसे अनेक गुप्तचर नदी-तटवर्ती कुओं, तीर्थों, गाँवों, नगरों, रमणीय आश्रमों, पर्वतों तथा गुफाओं मेंजा-जाकर उनकी खोज करें’। तदनन्तर सदा पापभावना में अनुरक्त रहने वाला दुर्योधन से छोटा भाई दुःशासन अपने बड़े भाई से बोला,
दुःशासन बोला ;- राजन्! नरेश्वा! जिन गुप्तचरों पर हमारा अणिक विश्वास हो, उन्हें देने योग्य सब साधन देकर पुनः पाण्डवों की खोज के लिये भेजा जाय। ‘कर्ण ने जो बात कही है, वह सब हम करें। इनके बताये हुए स्थानों में जहाँ-तहाँ घूमकर सभी गुपतचर उनका पता लगायें’। ‘ये तथा और भी बहुत से लोग एक देश से दूसरे देश में विधिपूर्वक खोज करें। अभी तक तो पाण्डवों के गन्तव्य स्थान, निवास तथा प्रवृत्ति का कुछ भी पता नहीं लग रहा है। ‘या तो वे अधिक गुप्त स्थानों में छिपे है या समुद्र के उस पास चले गये हैं। यह भी सम्भव हैं कि अपने को शूरवीर मानने वाले पाण्डव को उस महान् वन में अजगर निगल गये हों। ‘अथवा वे किसी विषम परिस्थिति में पड़कर सदा के लिये नष्ट हो गये हों। अतः कुरुनन्दन! मुनेश्वर! आप अपने चित्त को स्वस्थ करके जो ठीक समझ में आये, वह कार्य पूर्ण उत्साह के साथ करें’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में कर्ण और दुःशासन के वचन विषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) सप्तविंश अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
“अचार्य द्रोण की सम्मति”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर तत्त्वार्थदर्या महापराक्रमी द्रोणाचार्य ने कहा,
द्रोणाचार्य बोले ;- ‘पाण्डव लोग शूरवीर, विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, कृतज्ञ और अपने बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा मानने वाले उनके भक्त हैं। ऐसे महापुरुष न तो नष्ट ही होते हैं और न किसी से तिरस्कृत ही होते हैं। ‘उनमें धर्मराज तो नीति, धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले, भाइयों द्वारा पिता की भाँति सम्मानित, धर्म पर अटल रहने वाले, सत्यपरायण और भाइयों में सबसें श्रेष्ठ हैं।
राजन्! उनके भाई भी अपने से बड़ों के अनुगामी और अपने महात्मा बन्धु श्रीमान् अजातशत्रु युधिष्ठिर के भक्त हैं। धर्म राज भी सब भाइयों पर अत्यन्त स्नेह रखते है। ‘जो इस प्रकार आज्ञापालक, विनयशील और महात्मा हैं, ऐसे अपने छोटे भाइयों का नीतिज्ञ धर्मराज कैसे भला नहीं करेंगे ? ‘अतः मैं अपनी बुद्धि और अनुभव की दृष्टि से यह देखता हूँ कि पाण्डव लोग अपने अनुकूल समय के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं; वे नष्ट नहीं हो सकते। ‘इस समय जो कुछ करना है, वह खूब सोत्र-विचारकर शीघ्र किया जाना चाहिये। इसमें विलम्ब करना ठीक नहीं है।
सभी विषयों में धैर्य रखने वाले उन पाण्डवों के निवास स्थान का ही ठीक-ठीक पता लगाना चाहिये। वे सभी शूरवीर और तपस्या से आवृत हैं, अतः उन्हें पाना कठिन है। पा लेने पर उन्हें पहचानना तो और भी कठिन है। ‘कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर शुद्धचित्त, गुणवान्, सत्यवान्, नीतिमान्, पवित्र और तेज के पुन्ज हैं; अतः उन्हें पहचानना असम्भव है। आँखों से दीख जाने पर भी वे मनुष्य को मोह लेंगे- पहचाने नहीं जा सकेंगे। ‘इसलिये इन बातों को अच्छी तरह सोच समझकर ही हमें कोई काम करना चाहिये’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में द्रोण वाक्य एवं गुप्तचर भेजने से सम्बन्ध रखने वाला सत्तईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
अठ्ठाइसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर की महिमा कहते हुए भीष्म की पाण्डवों के अन्वेषण के विषय में सम्मति”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! इसके पश्चात् भरतवंशियों के पितामह, देशकाल के ज्ञाता, वेद-शास्त्रों के विद्वान्, तत्त्वज्ञानी और सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले शान्तनुनन्दन भीष्मजी ने आचार्य द्रोण कीबात पूरी होने पर कौरवों के हित के लिये आचार्य से मेल खाती हुई यह बात कौरवों से कही। उनकी वह बात धर्मज्ञ युधिष्ठिर से सम्बन्ध रखने वाली तथा धर्म से युक्त थी। वह दुष्ट पुरुषों के लिये सदा दुर्लभ और सत्पुरुषों को सदैव प्रिय लगनेवाली थी। इस प्रकार भीष्मजी ने वहाँ सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसित सम्यक् वचन कहा,
भीष्म जी बोले ;- ‘सब विषयों के तत्त्वज्ञ तथा विप्रवर आचार्य द्रोण ने जैसा कहा है, वह ठीक है। वास्तव में पाण्डव समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, साधु-पुरुषोचित नियमों एवं व्रत के पालन में त्त्पर, वेदोक्त व्रत के पालक, नाना प्रकार की श्रुतियों के ज्ञाता, बड़े-बूढ़ों के उपदेश और आदेश के पालन में संलग्न, सत्यव्रतपरायण तथा शुद्ध व्रत धारण करने वाले हैं।
वे अज्ञातवास के नियत समय को जानते हैं, इसीलिये उसका पालन कर रहे हैं। ‘पाण्डव क्षत्रिय धर्म में नित्य अनुरक्त रहकर सदा भगवान् श्रीकृष्ण अनुगमन करने वाले हैं। वे उत्तम वीर पुरुष, महातमा, महाबलवान् तथा साधु पुरुषों के लिये उचित कर्तव्य का भार वहन कर रहे हैं; अतः वे कष्ट भोगने यसा नष्ट होने योग्य नहीं हैं। ‘पाण्डव अपने धर्म तथा उत्तम पराक्रम से सुरक्षित हैं। अतः वे नष्ट नहीं हो सकते, यह मेरा निश्चित विचार है। ‘भरतनन्दन! पाण्डवों के विषय में मेरी बुद्धि का जो निश्चय है, उसे बताता हूँ। जो उत्तम नीति से सम्पन्न हैं, उसकी उस नीति का अनुसंधान दूसरे (अनीतिपरायण) मनुष्य नहीं कर सकते। ‘पाण्डवों के सम्बन्ध में अपनी बुद्धि से भलीभाँति सोच-विचारकर मुझे जो युक्तिसंगत जान पडत्रा है, वही उपाय हम यहाँ कर सकते हैं।
मैं उस द्रोह के कारण नहीं, तुम्हारे भले के लिये बताता हूँ; ध्यान देकर सुनो। ‘युधिष्ठिर की जो नीति है, उसकी मेरे जैसे पुरुषों को कभी निन्दा नहीं करनी चाहिये। उसे अच्छी नीति ही कहनी चाहिये? अनीति कहना किसी प्रकार ठीक नहीं है। ‘तात! जो वृद्ध पुरुषों के अनुशासन में रहने वाला और सत्यपालक है, वह वीर पुरुष यदि यसाधु पुरुषों के समाज में कुछ कहना चाहता है, तो उसे यहाँ सर्वथा धर्म प्राप्त करने की इच्छा से यथार्थ एवं उचित बात ही करनी चाहिये। ‘अतः इस तेरहवें वर्ष में धर्मराज युधिष्ठिर के निवास के सम्बन्ध में दूसरे लोग जैसी धारणा रखते हैं, वैसा मैं नहीं मानता। ‘तात! जिस नगर या राष्ट्र में राजा युधिष्ठिर निवास करते होंगे, वहाँ के राजाओं का अकल्याण नहीं हो सकता। जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, उस जनपद के लोगों को दानशील, उदार, विनयी और लज्जाशील होना चाहिये।
‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ के मनुष्य सदा प्रिय वचन बोलने वाले, जितेन्द्रिय, कल्याणभागी, सत्यपरायण, हृष्टपुष्ट, पवित्र और कार्यकुशल होंगे। ‘वहाँ कोई न तो दूसरे के दोष देखने वाला होगा और न ईर्ष्यालु। न किसी में अभिमान होगा और न मात्स्र्य (द्वेष)। वहाँ के सब लोग स्वयं ही धर्म में तत्पर होंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) अष्टाविंश अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
‘उस देश या जनपद में प्रचुर रूप से वेदध्वनि होती होगी, यज्ञों में पूर्णाहुतियाँ दी जाती होंगी और बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले बहुत-से यज्ञ हो रहे होंगे। ‘वहाँ मेघ सदा ठीक-ठीक वर्षा करता होगा, इसमें संशय नहीं है। वहाँ की भूमि पर खेती लहलहाती होगी और वहाँ निवास करने वाली प्रजा सर्वथा निर्भय होगी। ‘वहाँ गुणयुक्त धन्य, सरस फल, सुगन्धयुक्त माला और मांगलिक याब्दों से युक्त वाणी सुलभ होगी। ‘वहाँ जिसका स्पर्श सुखदायक हो, ऐसा शीतल एवं मन्द वायु चलती होगी। धर्म और ब्रह्म के स्वरूप का विचार पाखण्डशून्य होगा। जहाँ युधिष्ठिर होंगे, वहाँ भय का प्रवेश नहीं हो सकता। ‘उस जनपद में गौओं की अधिकता होगी और वे गौएँ कृश या दुर्बल न होकर खूब हृष्ट-पुष्ट होंगी। उनके दूध, दही और घी भी बड़े स्वादिष्ट तथा हितकारी होंगे।
‘जिस देश में राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ गुणकारी पेय और सरस भोज्य पदार्थ सुलभ होंगे। ‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ रस, स्पर्श, गन्ध और शब्द - सभी विषय गुणकारी होंगे और मन को प्रसनन करने वाले दृश्य देखने को मिलेंगे। ‘इस तेरहवें वर्ष में राजा युधिष्ठिर जहाँ कहीं भी होंगे, वहाँ के समस्त द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) अपने-अपने धर्मों का पालन करते होंगे और धर्म भी अपने गुण तथा प्रभाव से सम्पन्न होंगे। तात! पाण्डवों से संयुक्त देश में ये सब विशेषताएँ होंगी। वहाँ के लोग प्रसन्न, संतुष्ट, पवित्र और विकारशून्य होंगे। ‘देवता और अतिथियों की पूजा में सबका सर्वतोभावेन अनुराग होगा। सभी लोग दान को प्रिय मानेंगे, सब में भारी उत्साह होगा और सभी अपने-अपने धर्म के पालन में तत्पर होंगे। ‘जहाँ राजा युधिष्ठिर होंगे, वहाँ के लोग अशुभ को छोड़कर शुभ के अभिलाषी होंगे। यज्ञों का अनुष्ठान उनके लिये अभीष्ट कार्य होगा और वे श्रेष्ठ व्रतों को धारण करते होंगे।
‘तात! जहाँ राजा युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँ के लोग असत्य भाषण का त्याग करने वाले, शुभ, कल्याण एवं मंगल से युक्त, शुभ वस्तुओं की प्राप्ति के इच्छुक तथा शुभ में ही मन लगाने वाले होंगे। ‘सदा इष्टजनों कर प्रिय करना ही उनका व्रत होगा। कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उनमें सत्य, र्धर्य, दान, परम शानित, अटल क्षमा, लज्जा, श्री, कीर्ति, उत्कृष्ट तेज, दयालुता और सरलता आदि गुण सदा रहते हैं। अतः अन्य साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) भी उन्हें नहीं पहचान सकते।
‘इसलिये जहाँ ऐसे लक्षण पाये जायँ, वहीं बुद्धिमान युधिष्ठिर का यत्नपूर्वक छिपाया हुआ निवास स्थान हो सकता है; वहीं उनका कोई उत्कृश्ट आश्रय होना सम्भव है। इसके विपरीत मैं और कोई बात नहीं कह सकता। ‘कुरुनन्दन! यदि मेरी बातों पर तुम्हें विश्वास हो, तो इसी प्रकार सोच-विचारकर जो काम करने में तुम्हें अपना हित जान पड़े, उसे शीघ्र करो’।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में गुप्तचर भेजने के विषय में भीष्मवचन सम्बन्धी अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
उन्नतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के भाग 1 का हिन्दी अनुवाद)
“कृपाचार्य की सम्मति और दुर्योधन का निश्चय”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! इसके पश्चात् महर्षि शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने उस समय यह बात कही,
कृपाचार्य बोले ;- ‘राजन्! वयोवृद्ध भीष्मजी ने पाण्डवों के विषय में जो कुछ कहा है, वह युक्तियुक्त तो है ही, अवसर के अनुकूल भी है। ‘उसमें धर्म और अर्थ दोनों ही संनिहित हैं। वह सुन्दर, तात्त्विक और सकारण है। इस विषय में मेरा भी जो कथन है, वह भीष्मजी के ही अनुरूप है, उसे सुनो। ‘तुम लोग गुप्तचरों से पाण्डवों की गति और स्थिति का पता लगवाओ और उसी नीति का आश्रय लो, जो इस समय हितकारिणी हो। ‘तात! जिसे सम्राट बनने की इच्छा हो, उसे साधारण शत्रु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। फिर जो युद्ध में सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र के संचालन में कुशल हैं, उन पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? अतः इस समय जबकि महात्मा पाण्डव छद्मवेष धारण करके (अर्थात् वेष बदलकर) गुप्तरूप से छिपे हुए हैं और अज्ञातवास की जो नियत अवधि थी, वह प्रायः समाप्त हो चली है, स्वराष्ट्र और परराष्ट्र में अपनी कितनी शक्ति है- इसे समझ लेना चाहिये। इसमें संदेह नहीं कि उपयुक्त समय आते ही पाण्डव प्रकट हो जायँगे।
अज्ञातवास का समय पूर्ण कर लेने पर कुन्ती के वे महाबली, अमितपराक्रमी और महात्मा पुत्र पाण्डव महान् उत्साह से सम्पन्न हो जायेंगे। ‘अतः इस समय तुम्हें अपनी सेना, कोष और नीति ऐसी बनायी रखनी चाहिये, जिससे समय आने पर हम उनके साथ यथावत् सन्धि (मेल अथवा बाण-संधान) कर सकें। ‘तात! तुम स्वयं बुद्धि से भी विचारकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति कितनी है, इसकी जानकारी प्राप्त कर लो। तुम्हारे बलवान् और निर्मल सब प्रकार के मित्रों में निश्चित् बल कितना है, यह भी जान लेना चाहिये। ‘भारेत! उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार की सेनाएँ प्रसन्न हैं या अप्रसन्न- इसे जान लो; तब हम शत्रुओं से सन्धि (मेल या बाण-संधान)कर सकते हैं। ‘साम (समझाना), दान(धन आदि देना), भेद (शत्रुओं में फूट डालना), दण्ड देना और कर लेना- इन नीतियों के द्वारा शत्रु पर आक्रमण करके, दुर्बलों को बल से दबाकर, मित्रों को मेल-जोल से अपनाकर और सेना को मिष्ट-भाषण एवं वेतन आदि देकर अपने अनुकूल कर लेना चाहिये। इस प्रकार उत्तम कोष और सेना को बढ़ा लेने पर तुम अच्छी सफलता प्राप्त कर सकोगे। ‘उस दिशा में बलवान् से बलवान् शत्रु क्यों न आ जायँ और वे पाण्डव हों या देसरे कोई, यदि सेना और वाहन आदि की दृष्टि से उनमें अपनी अपेक्षा न्यूनता है तो तुम उन सबके साथ युद्ध कर सकोगे। ‘नरेन्द्र! इस प्रकार अपने धर्म के अनुकूल सम्पूर्ण कर्तव्य का निश्चय करके यथासमय उसका पालन करोगे, तो दीर्धकाल तक उसकासुख भोगोगे’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर दुर्योधन उन महात्माओं का वचन सुनकर दो घड़ी तक कुद विचार करता रहा। फिर मन्त्रियों से इस प्रकार बोला।
दुर्योधन ने कहा ;- मन्त्रियों! मैंने पूर्वकाल में जन-साधारण की बैइक में आपस की बातचीत के समय शास्त्रों के विद्वान, ज्ञानी, वीर एवं पुण्यात्मा पुरुषों के निश्चित सिद्धान्त के विषय में कुछ ऐसी बातें सुनीं हैं, जिनसे नीति की दृष्टि के अनुसार मैं मनुष्यों के बलाबल की जानकारी रखता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) एकोनत्रिंश अध्याय के भाग 2 का हिन्दी अनुवाद)
इस समय मनुष्य लोक में दैत्य, मानव तथा राक्षसों में चार ही ऐसे पुरुषसिंह सुने जाते हैं, जो इस भूतल वर आत्मबल, बाहुबल, धैर्य तथा शारीरिक शक्ति में इन्द्र के समान हैं। वे ही समस्त प्राणधारियों में उत्तम हैं। उन सबमें सदा एक समान प्राणशक्ति मानी गयी है। वे सम्पूर्ण बल और पराक्रम से सम्पन्न हैं।
उनके नाम इस प्रकार हैं ,- बलदेव, भीमसेन, पराक्रमी मद्रराज शल्य और कीचक। इनमें कीचक का चैथा स्थान हैं। इनके समान कोई पाँचवाँ वीर मेरे सुनने में नहीं आया। ये सभी परस्पर समान बलशाली तथा (मौका पड़ने पर) एक दूसरे को जीतने के लिये उत्सुक रहे हैं। इनके मन में एक दूसरे के प्रति सदा रोष भरा रहा है और ये परस्पर बाहुयुद्ध करना चाहते रह हैं। इस आधार पर मैं भीमसेन का पता पा लेता हूँ और मेरे मन में स्पष्ट रूप से यह बात आ जाती है कि पाण्डव अवश्य जीवित हैं। अब मुझे ऐसा लगता है कि विराट नगर में कीचक को भीमसेन ने ही मारा है।
सैरन्ध्री को मैं द्रौपदी समझता हूँ। इस विषय में कोई अधिक विचार नहीं करना चाहिये। मुझे संदेह है कि द्रौपदी के निमित्त से भीमसेन ने ही गन्धर्व का नाम धारण करके रात्रि के समय महाबली कीचक को मारा होगा। भीमसेन के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो बिना अस्त्र-शस्त्र के केवल शारीरिक बाहुबल से कीचक को मार सके तथा सम्पूर्ण अंगों को चूर-चूर करने और शीघ्रतापूर्वक अस्थि, चर्म एवं मांस के उस चूर्ण समुदाय को मसलकर मांसपिण्ड बना देने में समर्थ हो ? अतः यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि दूसरा रूप धारण करके भीमसेन ने ही यह पराक्रम किया है। गन्धर्वनामधारी भीम ने ही कृष्णा के लिये रात के समय सूतपुत्रों का वध किया है, इसमें संशय नहीं है। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर के निवास स्थान के प्रभाव से देश और समुदाय के जो गुण बताये हैं, उनमें भी बहुत से गुण मत्स्यराष्ट्र में (दूतों द्वारा) मेरे सुनने में आया हे।
इससे मैं मानता हूँ कि पाण्डव राजा विराट के रमणीय नगर में निवास करते और छद्मवेश धारण करके गुप्तरूप से विचरते हैं, अतः यहाँ की यात्रा करनी चाहिये। हम लोग वहाँ चलकर मत्स्यराष्ट्र को तहस-नहस करेंगे और राजा विराट के गोधन पर अपना अधिकार कर लेगे। उनके गोधन का अपहरण कर लेने पर निश्चय ही पाण्डव भी हम लोगों के साथ युद्ध करेंगे। ऐसी दशा में यदि अज्ञातवास का समय पूर्ण होने से पूर्व ही हम पाण्डवों को देख लेंगे, तो उन्हें पुनः दूसरी बार बारह वर्षों के लिये वन में प्रवेश करना पडत्रेगा। अतः दों में से एक भी हो जाय, तो भी हमें लाभ ही होगा। इस रणयात्रा से हमारे कोष की वृद्धि होगी और शत्रुओं का नाश हो जायगा।
मत्स्यदेश का राजा विराट मेरे प्रति तिरस्कार का भाव रखकर यह भी कहा करता है कि पूर्वकाल में धर्मराज युधिष्ठिर ने जिसका पालन-पोषण किया हो, वह दुर्योधन के अधिकार में कैसे आ सकता है ? अतः निश्चय ही मत्स्यदेश पर आक्रमण करना चाहिये। वहाँ की यात्रा अवश्य की जाय।यदि आप सब लोगों को अच्छा लगे, तो मैं इस कार्य को नीति के अनुकूल मानता हूँ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में गुप्तचर भेजने के विषय में कृपाचार्यवचन सम्बन्धी उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
विराट पर्व (गोहरण पर्व)
तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सुशर्मा के प्रस्ताव के अनुसार त्रिगर्तों और कौरवों का मत्स्यदेश पर धावा”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर त्रिगर्तदेश के राजा महाबली सुशर्मा ने, जो रथियों के समूह का अधिपति था, बड़ी उतावली के साथ अपना यह समयोचित प्रस्ताव उपस्थित किया। उसने कर्ण की ओर दूचाकर दुर्योधन से कहा,
सुशर्मा बोले ;- ‘प्रभो! पहले मत्स्य तथा शाल्व देश के सैनिकों ने अनेक बार चढ़ाई करके हमें कष्ट दिया है। मत्स्यराज के सेनापति महाबली सूतपुत्र कीचक ने अपने बन्धुओं के साथ बार-बार आक्रमण करके मुझे बलपूर्वक सताया है। ‘मत्स्यनरेश ने बहुत बार अपने बल-पराक्रम से धावा करके मेरे समूचे राष्ट्र को क्लेश पहुँचाया है। पहले बलवान् कीचक ही उनका सेनानायक था। ‘वह दुष्टात्मा बहुत ही क्रूर और क्रोधी था। इस् भूतल पर अपने पराक्रम के लिये उसकी सर्वत्र ख्याति थी। अब व निर्दयी और पापाचारी कीचक गन्धर्वों द्वारा मार डाला गया है। ‘उसके मारे जाने से राजा विराट का घमण्ड चूर-चूर हो गया होगा। अब वे निराधार एवं निरुत्साह हो गये होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। ‘अनध! यदि आपको जचे, तो मेरी राय यह है कि समस्त कौरव वीरों और महामना कर्ण का भी उस देश पर आक्रमण हो।
‘मैं समझता हूँ; इसके लिये उपयुक्त अवसर प्राप्त हुआ है। यह हमारे लिये अत्यन्त आवश्यक कार्य है। हम प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न मत्स्यराष्ट्र पर चढ़ाई करें। ‘राजा विराट के यहाँ नाना प्रकार के रत्न और धन हैं। हम वे सब ले लेंगे और उनके गाँव तथा सम्पूर्ण राष्ट्र का जीतकर आपस में बाँट लेंगे। ‘अथवा उनके यहाँ सहस्रों गौओं के बहुत से समुदाय हैं; अतः बलपूर्वक उनके नगर में उत्पात मचाकर उन समस्त गौओं का अपहरण कर लेंगे। ‘महाराज! कौरवों के साथ संगठित त्रिगर्तदेशीय सैनिकों की सहायता से हम सब मिलकर विराट की गौओं को हर लेंगे। ‘और हम आपास में विभाजन करके उन्हें अपने यहाँ बाँध लेंगे। साथ ही मत्स्यराज के सामर्थ्य को नष्ट करके उसकी सारी सेना को अपने अधीन कर लेंगे। ‘विराट को नीति से वश में करके हम संख से रहेंगे। इससे आप लोगों की सेना और शक्ति की वृद्धि भी होगी; इसमें संशय नहीं है’।
त्रिगर्तराज का यह कथन सुनकर कर्ण ने राजा दुर्योधन से कहा- ‘सुशर्मा ने ठीक कहा है; यह समयोचित होने के साथ ही हमारे लिये हितकारी भी है। ‘इसलिये सेना को सुसज्जित करके उसे कई टुकडि़यों में बाँटकर हम लोग शीघ्र यहाँ से कूच कर दें। अथवा अनध! आपको जैसा ठीक लगे, वैसा करें। ‘अथवा कुरुकुल में सबसे वृद्ध महारे पितामह परम बुद्धिमान् भीष्म, आचार्य द्रोण तथा शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य - ये लो जैसा ठीक समझें, वैसे ही यात्रा करनी चाहिये। ‘आपस में अच्छी तरह सलाह करके हमें राजा विराट को वश में करने के लिये शीघ्र प्रस्थान कर देना चाहिये। पाण्डव लोग धन, बल तथा पौरुष तीनों से हीन हैं, अतः उनसे हमें क्या काम है ? ‘राजन्! वे अत्यन्त अदृश्य (छिपे हुए) हों या यमराज के घर पहुँच गये हों, हमें तो उद्वेगशून्य होकर विराट-नगर की यात्रा करनी चाहिये। वहाँ हम लोग विराट की गौओं को तथा उनके विविध धन-रत्नों को हस्तगत कर लेंगे’।
(सम्पूर्ण महाभारत (विराट पर्व) त्रिंश अध्याय के श्लोक 19-27 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा दुर्योधन ने सूर्यपुत्र कर्ण की बात मानकर अपनी आज्ञा का पालन करने के लिये सदा संनद्ध रहने वाले छोटे भाई दुःशासन को स्वयं ही तुरंत आदेश दे दिया- ‘वृद्धजनों की सम्मति लेकर शीघ्र अपनी सेना को प्रस्थान के लिये तैयार करो। ‘जिधर से आक्रमण का निश्चय हो, उसी ओर हम कौरव सैनिकों के साथ चलें। महारथी सुशर्मा भी त्रिगर्तों के साथ निश्चित दिशा की ओर जायँ और अपने समसत बल (सेना) एवं वाहनों को साथ ले लें। ‘सब साधनों से सम्पन्न हो सुशर्मा पहले मत्स्यदेश पर आक्रमण करें। फिर पीछे से एक दिन हम लोग भी पूर्णतः संगठित हो मत्स्यनरेश के समृद्धशाली राज्य पर धावा बोल देंगे। ‘त्रिगर्त सैनिक एक साथ मिलकर तुरंत विराटनगर पर चढ़ाई करें और पहले ग्वालों के पास पहुँकर वहाँ के बढ़े हुए गोधन पर अधिकार कर लें। ‘फिर हम लोग अपनी सेना को दो टुकड़ों में बाँटकर उनकी लाखों सुन्दर तथा गुणवती गौओं का अपहरण करेंगे’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- महाराज! तदनन्तर पूर्व वैर का बदला लेने की इच्छा वाले त्रिगर्तदेशीय रथी और पैदल सैनिक कवच आदि धारण करके तैयार हो गये। वे सभी महान् बलवान् और प्रचण्ड पराक्रमी थे। सुशर्मा ने विराट की गौओं का अपहरण करने के लिये पूर्वनिश्चित योजना के अनुसार कृष्णपक्ष की सप्तमी को अग्निकोध की ओर से विराटनगर पर चढ़ाई की। राजन्! फिर दूसरे दिन अष्टमी को दूसरी ओर से सब कौरवों ने मिलकर धावा किया और गौओं के सहस्रों झुंडों पर अधिकार जमा लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत गोहरणपर्व में दक्षिण दिशा की गौओं को ग्रहण करने के लिये सुशर्मा आदि की मत्स्यदेश पर चढ़ाई से सम्बन्ध रखने वाला तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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