सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के तीन सौ एकवें अध्याय से तीन सौ पाँचवें अध्याय तक (From the 301 to the 305 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाधिकत्रिशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सूर्य का कर्ण को समझाते हुए उसे इन्द्र को कुण्डल न देने का आदेश देना”

    सूर्य ने कहा ;- कर्ण! तुम अपना, अपने सुहृदों का, पुत्रों और पत्नियों का तथा माता-पिता का अहित न करो। प्राणधारियों में श्रेष्ठ वीर! अपने शरीर की रक्षा करते हुए ही प्राणियों को इहलोक में यश की प्राप्ति तथा स्वर्ग में स्थायी कीर्ति अभीष्ट होती है। यदि तुम प्राणों का विरोध (नाश) करके सनातन कीर्ति प्राप्त करना चाहते हो, तो इसमें संदेह नहीं कि वह (कीर्ति) तुम्हारे प्राणों को लेकर ही जायेगी। पुरुषरत्न! पिता, माता, पुत्र तथा और जो कोई भी भाई-बन्धु इस लोक में हैं, वे सब जीवित पुरुषों से ही अपने प्रयोजन की सिद्धि करते हैं। महातेजस्वी नरश्रेष्ठ! राजा लोग भी जीवित रहने पर ही पुरुषार्थ से कीर्ति लाभ करते हैं। इस बात को समझो; जीवित पुरुष के लिये कीर्ति अच्छी मानी गयी है। जो मर गया, जिसका शरीर चिता की आग में जलकर भस्म हो गया; उसे कीर्ति से क्या प्रयोजन है, मरा हुआ पुरुष कीर्ति के विषय में कुछ नहीं जानता है। जीवित पुरुष ही कीर्तिजनित सुख का अनुभव करता है।

     मरे हुए मनुष्य की कीर्ति मुर्दे के गले में पड़ी हुई माला के समान व्यर्थ है। तुम मेरे भक्त हो, इसीलिये तुम्हारे हित की इच्छा से मैं ये बातें कहता हूँ। मुझे अपने भक्तों की रक्षा करनी ही चाहिये, इसीलिये भी तुमसे तुम्हारे हित की बात कहता हूँ। महाबाहो! यह मेरा भक्त है, परम भक्तिभाव से मेरा भजन करता है, यह सोचकर मेरे मन में भी तुम्हारे प्रति स्नेह जाग उठा है। अतः तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इस सम्बन्ध में एक देवविहित आध्यात्मिक रहस्य है। इसी कारण तुमसे कह रहा हूँ कि तुम बेखटके यही कार्य करो, जिसे मैंने तुम्हें बतलाया है। पुरुषरत्न! देवताओं की गुप्त बात तुम नहीं समझ सकते, इसीलिये वह गोपनीय रहस्य तुम्हें नहीं बता रहा हूँ। समय आने पर तुम सब कुछ अपने आप जान लोगे।

    राधानन्दन! मैं फिर अपनी कही हुई बात दुहराता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो,

    सूर्य देव बोले ;- ‘इन्द्र के माँगने पर भी तुम उन्हें अपने वे कुण्डल न देना’। महाद्युते! तुम इन दोनों मनोहर कुण्डलों से निर्मल आकाश में विशाखा नामक दो नक्षत्रों के बीच प्रकाशित होने वाले चन्द्रमा की भाँति शोभा पाते हो। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि जीवित पुरुष के लिये ही कीर्ति प्रशंसनीय है। अतः तात! तुम्हें कुण्डल के लिये आये हुए देवराज इन्द्र को देने से इन्कार कर देना चाहिये। अनघ! तुम बारंबार युक्तियुक्त वचन कहकर अनेक प्रकार की बातों में बहलाकर देवराज इन्द्र की कुण्डल लेने की इच्छा को नष्ट कर सकते हो।

      कर्ण! अनेक कारण दिखाकर, नाना प्रकार की युक्तियाँ सामने रखकर तथा माधुर्यगुण से विभूषित वचन सुनाकर देवराज इन्द्र के इस कुण्डल लेने के विचार को तुम पलट देना। नरव्याघ्र! तुम सदा अर्जुन से स्पर्धा रखते हो; अतः शूरवीर अर्जुन युद्ध में कभी तुमसे अवश्य भिड़ेगा। यदि तुम इन दोनों कुण्डलों को धारण किये रहोगे, तो अर्जुन तुम्हें युद्ध में कदापि नहीं जीत सकते; भले ही साक्षात् इन्द्र भी उनकी सहायता करने के लिये आ जायें। अतः कर्ण! यदि तुम समरभूमि में अर्जुन को जीतने की अभिलाषा रखते हो, तो इन्द्र को ये दोनों शुभ कुण्डल कदापि न देना।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य-कर्ण संवाद विषयक तीन सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ दौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकत्रिशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सूर्य-कर्ण संवाद, सूर्य की आज्ञा के अनुसार कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही उन्हें कुण्डल और कवच देने का निश्चय”

    कर्ण ने कहा ;- सूर्यदेव! मैं आपका अनन्य भक्त हूँ, जैसा कि आप भी मुझे जानते हैं। प्रचण्डरश्मे! आपके लिये किसी प्रकार कुछ भी अदेय नहीं है। स्त्री, पुरुष, सुहृद् और अपना शरीर भी मुझे वैसा प्रिय नहीं है, जैसे आप हैं। किरणों के स्वामी सूर्यदेव! सदा आप ही मेरे भक्तिभाव के आश्रय हैं। प्रभाकर! आप भी जानते हैं कि महात्मा पुरुष भी अपने प्रिय भक्तों पर पूर्ण स्नेह रखते हैं, इसमें संदेह नहीं है। आपको यह मालूम है कि कर्ण मेरा प्रिय भक्त है और वह स्वर्ग के दूसरे किसी भी देवता को (अपने इष्टरूप में) नहीं जानता है, यही समझकर आप मुझे मेरे हित का उपदेश कर रहे हैं। प्रचण्ड किरणों वाले देव! मैं पुनः आपके चरणों में मस्तक रखकर, आपको प्रसन्न करके बारंबार क्षमा याचना करता हूँ। इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। मैं मृत्यु से भी उतना नहीं डरता, जितना झूठ से डरता हूँ। विशेषतः सदा समस्त सज्जन ब्राह्मणों को उनके माँगने पर अपने प्राण देने में मुझे कोई सोच-विचार नहीं हो सकता है।

      देव! आपने पाण्डुनन्दन अर्जुन से जो मेरे लिये डर की बात बतायी है, उसके लिये आपके मन में कोई दुःख और संताप नहीं होना चाहिये। भास्कर! मैं कार्तवीर्य अर्जुन के समान पराक्रमी अर्जुन को युद्ध में अवश्य जीत लूँगा। देव! मेरे पास भी अस्त्रों का जो महान् बल है, इसे आप भी जानते हैं। मैंने जमदग्निनन्दन परशुराम तथा महात्मा द्रोणाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी है। सुरश्रेष्ठ! यह जो मेरा दान देने का व्रत है, उसके लिये आप भी मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं याचक बनकर आये हुए इन्द्र को अपने प्राण तक दे सकूँ।'

     सूर्य बोले ;- तात! यदि तुम इन्द्र को ये दोनों सुन्दर कुण्डल दे रहे हो, तो तुम भी उन महाबली इन्द्र से अपनी विजय के लिये कोई अस्त्र माँग लेना और उनसे स्पष्ट कह देना कि देवराज! मैं एक शर्त के साथ ये दोनों कुण्डल आपको दे सकता हूँ। कर्ण! इन दोनों कुण्डलों से युक्त रहने पर तुम सभी प्राणियों के लिये अवध्य बने रहोगे। वत्स! दानवसूदन इन्द्र युद्ध में अर्जुन द्वारा तुम्हारा विनाश चाहते हैं। इसीलिये वे तुम्हारे दोनों कुण्डलों को हर लेने की इच्छा करते हैं। अतः तुम भी उनकी आराधना करके बारंबर मीठे वचन बोलकर देवेश्वर इन्द्र से किसी अमोघ अस्त्र के लिये प्रार्थना करना। 

    तुम उनसे कहना,- ‘सहस्राक्ष! मैं आपको अपने शरीर का उत्तम कवच और दोनों कुण्डल दे दूँगा, परंतु आप भी मुझे अपनी वह अमोघ शक्ति प्रदान कीजिये, जो शत्रुओं का संहार करने वाली है। इसी शर्त के साथ तुम इन्द्र को अपने कुण्डल देना। कर्ण! उस शक्ति के द्वारा तुम युद्ध में अपने शत्रुओं को मार डालोगे। महाबाहो! देवराज इन्द्र की वह शक्ति युद्ध में सैंकड़ों, हजारों शत्रुओं का वध किये बिना पुनः हाथ में लौटकर नहीं आती।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयधिकत्रिशततमोऽध्याय के 18-21 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! स्वप्न के अन्त में कुछ बोलता हुआ-सा कर्ण जाग उठा।

     भारत! जागने पर वक्ताओें में श्रेष्ठ राधानन्दन कर्ण ने स्वप्न का चिन्तन करके शक्ति के लिये इस प्रकार निश्चय किया, ‘यदि शत्रुओं को संताप देने वाले इन्द्र कुण्डल के लिये मेरे पास आ रहे हैं तो मैं शक्ति लेकर ही उन्हें कुण्डल और कवच दूँगा।’

     भरतश्रेष्ठ! ऐसा निश्चय करके कर्ण प्रातःकाल उठा और आवश्यक कार्य करके ब्राह्मणों से स्वस्तिवचन कराकर यथासमय संध्योपासन आदि कार्य करने लगा। नृपश्रेष्ठ! फिर उसने विधिपूर्वक दो घड़ी तक जप किया। तदनन्तर जप के अन्त में कर्ण ने भगवान सूर्य से स्वप्न का वृत्तान्त निवेदन किया।

     उसने जो कुछ देखा था तथा रात में उन दोनों में जैसी बात हुई थीं, उन सब को कर्ण ने क्रमशः उनसे ठीक-ठीक कह सुनाया। राहु का संहार करने वाले भगवान सूर्यदेव ने यह सब सूनकर कर्ण से मुस्कराते हुए से कहा,

   सूर्य देव बोले ;- ‘तुमने जो कुछ देखा है, वह सब ठीक है’। तब शत्रुओं का संहार करने वाला राधानन्दन कर्ण उस स्वप्न की घटना को यथार्थ जानकर शक्ति प्राप्त करने की ही अभिलाषा ले इन्द्र की प्रतीक्षा करने लगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य-कर्ण संवाद विषयक तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यधिकत्रिशततम अध्याय के 1-17श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“कुन्तिभोज के यहाँ ब्रह्मर्षि दुर्वासा का आगमन तथा राजा का उनकी सेवा के लिये पृथा को आवश्यक उपदेश देना”

    जनमेजय ने पूछा ;- सज्जनशिरोमणे! कौन-सी ऐसी गोपनीय बात थी, जिसे भगवान सूर्य ने कर्ण पर प्रकट नहीं किया। उसके वे दोनों कुण्डल और कवच कैसे थे? तपोधन! कर्ण को कुण्डल और कवच कहाँ से प्राप्त हुए थे? मैं यह सुनना चाहता हूँ, आप कृपापूर्वक मुझे बताइये।
    वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! सूर्यदेव की दृष्टि में जो गोपनीय रहस्य था, उसे बताता हूँ। इसके साथ कर्ण के कुण्डल और कवच कैसे थे? यह भी बता रहा हूँ।
     राजन्! प्राचीन काल की बात है, राजा कुन्तीभोज के दरबार में

अत्यन्त ऊँचे कद के एक प्रचण्ड तेजस्वी ब्राह्मण उपस्थित हुए। उन्होंने दाढ़ी, मूँछ, दण्ड और जटा धारण कर रक्खी थी। उनका स्वरूप देखने ही योग्य था। उनके सभी अंग निर्दोष थे। वे तेज से प्रज्वलित होते से जान पड़ते थे। उनके शरीर की कान्ति मधु के समान पिंगल वर्ण की थी। वे मधुर वचन बोलने वाले तथा तपस्या और स्वाध्यायरूप सद्गुणों से विभूषित थे। उन महातपस्वी ने राजा कुन्तीभोज से कहा,
    तपस्वी ब्राम्हण बोले ;- ‘किसी से ईर्ष्या न करने वाले नरेश! मैं तुम्हारे घर में भिक्षान्न भोजन करना चाहता हूँ। परंतु एक शर्त है, तुम या तुम्हारे सेवक कभी मेरे मन के प्रतिकूल आचरण न करें। अनघ! यदि तुम्हें मेरी यह शर्त ठीक जान पड़े, तो उस दशा में मैं तुम्हारे घर में निवास करूँगा। मैं अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहूँगा, चला जाऊँगा। राजन्! मेरी शय्या और आसन पर बैठना अपराध होगा। अतः यह अपराध कोई न करे।'
       तब राजा कुन्तीभोज ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्तर दिया,
 राजा कुन्तीभोज बोले ;- ‘विप्रवर! ‘एवमसतु’-जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही होगा,’ इतना कहकर वे फिर बोले,
     राजा फिर बोले ;- ‘महाप्रज्ञ! मेरे पृथा नाम की एक यशस्विनी कन्या है, जो शील और सदाचार से सम्पन्न, साध्वी, संयम-नियम से रहने वाली और विचारशील है। वह सदा आपकी सेवा-पूजा के लिये उपसिथत रहेगी। उसके द्वारा आपका अपमान कभी न होगा। मेरा विश्वास है कि उसके शील और सदाचार से आप संतुष्ट होंगे’। ऐसा कहकर उन ब्राह्मण देवता की विधिपूर्वक पूजा करके राजा ने अपनी विशाल नेत्रों वाली कन्या पृथा के पास जाकर कहा,
     राजा बोले ;- ‘वत्से! ये महाभाग ब्राह्मण मेरे घर में निवास करना चाहते हैं। मैंने ‘तथास्तु’ कहकर इन्हें अपने यहाँ ठहरने की प्रतिज्ञा कर ली है। बेटी! तुम पर भरोसा करके ही मैंने इन तेजस्वी ब्राह्मण की आराधना स्वीकार की है; अतः तुम मेरी बात कभी मिथ्या न होने दोगी, ऐसी आशा है। ये विप्रवर महातेजस्वी तपस्वी, ऐश्वर्यशाली तथा नियमपूर्वक वेदों के स्वाध्याय में संलग्न रहने वाले हैं। ये जिस-जिस वस्तु के लिये कहें, वह सब इन्हें ईर्ष्यारहित हो श्रद्धा के साथ देना। क्योंकि ब्राह्मण ही उत्कृष्ट तेज है, ब्राह्मण ही परम तप है, ब्राह्मणों के नमस्कार से ही सूर्यदेव आकाश में प्रकाशित हो रहे हैं। माननीय ब्राह्मणों का सम्मान न करने के कारण ही महान् असुर वातापि और उसी प्रकार तालजंघ ब्रह्मदण्ड से मारे गये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यधिकत्रिशततम अध्याय के 18-29 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     ‘अतः बेटी! इस समय सेवा का यह महान् भार मैंने तुम्हारे ऊपर रक्खा है। तुम सदा नियमपूर्वक इन ब्राह्मण देवता की आराधना करती रहो। माता-पिता का आनन्द बढ़ाने वाली पुत्री! मैं जानता हूँ, बचपन से ही तुमहारा चित्त एकाग्र है। समस्त ब्राह्मणों, गुरुजनों, बन्धु-बान्धवों, सेवकों, मित्रों, सम्बन्धियों तथा माताओं के प्रति और मेरे प्रति भी तुम सदा यथोचित बर्ताव करती आई हो। तुमने अपने सद्भाव से सबको प्रभावित कर लिया है। निर्दोष अंगों वाली पुत्री! नगर में या अन्तपुर में सेवकों में भी कोई ऐसा मनुष्य नहीं है, जो तुम्हारे उत्तम बर्ताव से संतुष्ट न हो। तथापि पृथे! तुम अभी बालिका और मेरी पुत्री हो, इसलिये इन क्रोधी ब्राह्मण के प्रति बर्ताव करने के विषय में तुम्हें कुछ उपदेश देने की आवश्यकता का अनुभव मैं करता हूँ।
      वृष्णि वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम शूरसेन की प्यारी पुत्री हो। पूर्वकाल में स्वयं तुम्हारे पिता ने बाल्यावस्था में ही बड़ी प्रसन्नता के साथ तुम्हें मेरे हाथों सौंपा था। तुम वसुदेव की बहिन तथा मेरी संतानों में सबसे बड़ी हो। पहले उम्होंने यह प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि मैं अपनी पहली संतान तुम्हें दे दूँगा। उसी के अनुसार उन्होंने तुम्हें मेरी गोद मे अर्पित किया है, इस कारण तुम मेरी दत्तक पुत्री हो। वैसे उत्तम कुल में तुम्हारा जन्म हुआ तथा मेरे श्रेष्ठ कुल में तुम पालित और पोषित होकर बड़ी हुई। जैसे जल की धारा एक सरोवर से निकलकर दूसरे सरोवर में गिरती है, उसी प्रकार तुम एक सुखमय स्थान से दूसरे सुखमय स्थान में आयी हो।
     शुभे! जो दूषित कुल में उत्पन्न होने वाली स्त्रियाँ हैं, वे किसी तरह विशेष आग्रह में पड़कर अपने अविवेक के कारण प्रायः बिगड़ जाती हैं (परंतु तुमसे ऐसी आशंका नहीं है)। पृथे! तुम्हारा जन्म राजकुल में हुआ है। तुम्हारा रूप भी अद्भुत है। कुल और स्वरूप के अनुसार ही तुम उत्तम शील, सदाचार और सद्गुणों से संयुक्त एवं सम्पन्न हो। साथ ही विचारशील भी हो। सुन्दर भाव वाली पृथे! तुम दर्प, दम्भ और मान को त्याग कर यदि इन वरदायक ब्राह्मण की आराधना करोगी, तो परम कल्याण की भागिनी होओगी। कल्याणि! तुम पापरहित हो। यदि इस प्रकार इनकी सेवा करने में सफल हो गयीं, तो तुम्हें निश्वय ही कल्याण की प्राप्ति होगी और यदि तुमने अपने अनुचित बर्ताव से इन श्रेष्ठ ब्राह्मण को कुपित कर दिया, तो मेरा सम्पूर्ण कुल जलकर भस्म हो जायेगा’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में पृथा को उपदेश विषयक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ चारवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकत्रिशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“कुन्ती का पिता से वार्तालाप और ब्राह्मण की परिचर्या”

   कुन्ती बोली ;- राजन्! मैं नियमों में आबद्ध रहकर आपकी प्रतिज्ञा के अनुसार निरन्तर इन तपस्वी ब्राह्मण की सेवा-पूजा के लिये उपस्थित रहूँगी। राजेन्द्र! मैं झूठ नहीं बोलती हूँ। यह मेरा स्वभाव है कि मैं ब्राह्मणों की सेवा-पूजा करूँ और आपका प्रिय करना तो मेरे लिये परम कल्याण की बात है ही। ये पूजनीय ब्राह्मण यदि सायंकाल आवें, प्रात:काल पधारें अथवा रात या आधी रात में भी दर्शन दें, ये कभी भी मेरे मन में क्रोध उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। मैं हर समय इनकी समुचित सेवा के लिये प्रस्तुत रहूँगी। राजेन्द्र! नरश्रेष्ठ! मेरे लिये महान् लाभ की बात यही है कि मैं आपकी आज्ञा के अधीन रहकर ब्राह्मणों की सेवा-पूजा करती हुई सदैव आपका हित साधन करूँ। महाराज! विश्वास कीजिये। आपके भवन में निवास करते हुए ये द्विजश्रेष्ठ कभी अपने मन के प्रतिकूल कोई कार्य नहीं देख पायेंगे। यह मैं आप से सत्य कहती हूँ।
      निष्पाप नरेश! आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। मैं वही कार्य करने का प्रयत्न करूँगी, जो इन तपस्वी ब्राह्मण को प्रिय और आपके लिये हितकर हो। क्योंकि पृथ्वीपते! महाभाग ब्राह्मण भलीभाँति पूजित होने पर सेवक को तारने में समर्थ होते हैं और इसके विपरीत अपमानित होने पर विनाशकारी बन जाते हैं। मैं इस बात को जानती हूँ। अतः इन श्रेष्ठ ब्राह्मण को सब तरह से संतुष्ट रखूँगी। राजन्! मेरे कारण इन द्विजश्रेष्ठ से आपको कोई कष्ट नहीं प्राप्त होगा। राजेन्द्र! किसी बालिका द्वारा अपराध बन जाने पर भी ब्राह्मण लोग राजाओं का अमंगल करने को उद्यत हो जाते हैं, जैसे प्राचीन काल में सुकन्या द्वारा अपराध होने पर महर्षि च्यवन महाराज शर्याति का अनिष्ट करने को उद्यत हो गये थे। नरेन्द्र! आपने ब्राह्मण के प्रति बर्ताव करने के विषय में जो कुछ कहा है, उसके अनुसार मैं उत्तम नियमों के पालनपूर्वक इन श्रेष्ठ ब्राह्मण की सेवा में उपस्थित रहूँगी।'
    इस प्रकार कहती हुई कुन्ती को बारंबार गले से लगाकर राजा ने उसकी बातों का समर्थन किया और कैसे-कैसे, क्या-क्या करना चाहिये, इसके विषय में उसे सुनिश्चित आदेश दिया। 
      राजा बोले ;- भद्रे! अनिन्दिते! मेरे, तुम्हारे तथा कुल के हित के लिये तुम्हें निःशंकभाव से इसी प्रकार यह सब कार्य करना चाहिये। ब्राह्मणप्रेमी महायशस्वी राजा कुन्तीभोज ने पुत्री से ऐसा कहकर उन आये हुए द्विज की सेवा में पृथा को दे दिया और कहा,
     राजा बोले ;- ‘ब्रह्मन्! यह मेरी पुत्री पृथा अभी बालिका है और सुख में पली हुई है। यदि आपका कोई अपराध कर बैठे, तो भी आप उसे मन में नहीं लाइयेगा। वृद्ध, बालक और तपस्वीजन यदि कोई अपराध कर दें, तो भी आप-जैसे महाभाग ब्राह्मण प्रायः कभी उन पर क्रोध नहीं करते। विप्रवर! सेवक का महान् अपराध होने पर भी ब्राह्मणों को क्षमा करनी चाहिये तथा शक्ति और उत्साह के अनुसार उनके द्वारा की हुई सेवा-पूजा स्वीकार कर लेनी चाहिये’।
      ब्राह्मण ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा का अनुरोध मान लिया। इससे उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने ब्राह्मण को रहने के लिये हंस और चन्द्रमा की किरणों के समान एक उज्ज्वल भवन दे दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरधिकत्रिशततम अध्याय के 18-20 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     वहाँ अग्निहोत्र गृह में उनके लिये चमचमाते हुए सुन्दर आसन की व्यवस्था हो गयी। भोजन आदि की सब सामग्री भी राजा ने वहीं प्रस्तुत कर दी।
    राजकुमारी कुन्ती आलस्य और अभिमान को दूर भगाकर ब्राह्मण की आराधना में बड़े यत्न से संलग्न हो गयी।
     बाहर-भीतर शुद्ध हो सती-साध्वी पृथा उस पूजनीय ब्राह्मण के पास जाकर देवता की भाँति उनकी विधिवत् आराधना करके उन्हें पूर्ण रूप से संतुष्ट रखने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में कुन्ती के द्वारा ब्राह्मण की परिचर्या विषयक तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ पाँचवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चाधिकत्रिशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“कुन्ती की सेवा से संतुष्ट होकर तपस्वी ब्राह्मण का उसको मन्त्र का उपदेश देना”

      वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार वह कन्या पृथा कठोर व्रत का पालन करती हुई शुद्ध हृदय से उन उत्तम व्रतधारी ब्राह्मण को अपनी सेवाओं द्वारा संतुष्ट रखने लगी। राजेन्द्र! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण कभी यह कहकर कि मैं ‘प्रातःकाल लौट आऊँगा’, चल देते और सायंकाल अथवा बहुत रात बीतने पर पुनः वापस आते थे। परंतु वह कन्या प्रतिदिन हर समय पहले की अपेक्षा अधिक-अधिक परिणाम में भक्ष्य-भोज्य आदि सामग्री तथा शय्या-आसन आदि प्रस्तुत करके उनका सेवा-सत्कार किया करती थी। नित्यप्रति अन्न आदि के द्वारा उन ब्राह्मण का सत्कार अन्य दिनों की अपेक्षा बढ़कर ही होता था। उनके लिये शय्या और आसन आदि की सुविधा भी पहले की अपेक्षा अधिक ही दी जाती थी। किसी बात में तनिक भी कमी नहीं की जाती थी।
      राजन्! वे ब्राह्मण कभी धिक्कारते, कभी बात-बात में दोषारोपण करते और प्रायः कटु वचन भी बोला करते थे, तो भी पृथा उनके प्रति कभी कोई अप्रिय बर्ताव नहीं करती थी। वे कभी ऐसे समय में लौटकर आते थे, जबकि पृथा को दूसरे कामों से दम लेने की भी फुरसत नहीं होती थी और कभी वे कई दिनों तक आते ही नहीं थे। आने पर ऐसा भोजन माँग लेते, जो अत्यन्त दुर्लभ होता। परंतु कुन्ती उनकी माँगी हुई सब वस्तुएँ इस प्रकार प्रस्तुत कर देती थी, मानो उनको पहले से ही तैयार करके रक्खा हो। वह अत्यंत संयत होकर शिष्य, पुत्र तथा छोटी बहिन की भाँति सदा उनकी सेवा में लगी रहती थी। राजेन्द्र! उस अनिन्द्य कन्यारत्न कुन्ती ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मण को उनकी रुचि के अनुसार सेवा करके अत्यन्त प्रसन्न कर लिया। उसके शील, सदाचार तथा सावधानी से उन द्विजश्रेष्ठ को बड़ा संतोष हुआ। उन्होंने कुन्ती का हित करने का पूरा प्रयत्न किया।
     जनमेजय! पिता कुन्तीभोज प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल पूछते थे,,- ‘बेटी! तुम्हारी सेवा से ब्राह्मण को संतोष तो है न?’ वह तपस्विनी कन्या उन्हें उत्तर देती,,- ‘हाँ पिताजी! वे बहुत प्रसन्न हैं।’ यह सुनकर महामना कुन्तीभोज को बड़ा हर्ष प्राप्त होता था। तदनन्तर जब एक वर्ष पूरा हो गया और पृथा के प्रति वात्सल्य स्नेह रखने वाले जपकर्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण दुर्वासा जी ने उसकी सेवा में कोई त्रुटि नहीं देखी, तब वे प्रसन्नचित्त होकर पृथा से इस प्रकार बोले,
     ब्राह्मण दुर्वासा जी बोले ;- ‘भद्रे! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूँ। शुभे! कल्याणि! तुम मुझसे ऐसे वर माँगो, जो यहाँ दूसरे मनुष्यों के लिये दुर्लभ हों और जिनके कारण तुम संसार की समस्त सुन्दरियों को अपने सुयश से पराजित कर सको’।
      कुन्ती बोली ;- 'वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ! जब मुझ सेविका के ऊपर आप और पिताजी प्रसन्न हो गये, तब मेरी सब कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। विप्रवर! मुझे वर लेने की आवश्यकता नहीं है।' 
      ब्राह्मण ने कहा ;- 'भद्रे! पवित्र मुस्कान वाली पृथे! यदि तुम मुझसे वर नहीं लेना चाहती हो, तो देवताओं का आवाहन करने के लिये यह एक मन्त्र ही ग्रहण कर लो। भद्रे! तुम इस मन्त्र के द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, वह-वह तुम्हारे अधीन हो जाने के लिये बाध्य होगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चाधिकत्रिशततमोऽध्याय के 18-23 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

      वह देवता कामनारहित हो या कामनायुक्त, मन्त्र के प्रभाव से शान्तचित्त हो वह विनीत सेवक की भाँति तुम्हारे पास आकर तुम्हारे अधीन हो जायेगा।
     वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! साध्वी पृथा दूसरी बार उन श्रेष्ठ ब्राह्मण की बात टाल न सकी; क्योंकि वैसा करने पर उसे उनके शाप का भय था।
    राजन्! तब ब्राह्मण ने निर्दोष अंगों वाली कुन्ती को उस मन्त्रसमूह का उपदेश दिया, जो अथर्ववेदीय उपनिषद् में प्रसिद्ध है। राजेनद्र! पृथा को वह मन्त्र देकर ब्राह्मण ने राजा कुन्तीभोज से कहा,
     ब्राह्मण बोले ;- 'राजन्! मैं तुम्हारे घर में तुम्हारी कन्या द्वारा सदा समादृत और संतुष्ट होकर बड़े सुख से रहा हूँ। अब हम अपनी कार्यसिद्धि के लिये यहाँ से जायेंगे।’ ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहीं अन्तर्धान हो गये।
    ब्राह्मण को अन्तर्हित हुआ देख उस समय राजा को अड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अपनी पुत्री का विशेष आदर-सत्कार किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में पृथा को मन्त्र की प्राप्ति विषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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