सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ छियानबेवें अध्याय से तीन सौ वें अध्याय तक (From the 296 to the 300 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)

दौ सौ छियानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षण्णवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सावित्री की व्रतचर्या तथा सास-ससुर और पति की आज्ञा लेकर सत्यवान के साथ उसका वन में जाना”

   मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर बहुत दिन बीत जाने पर एक दिन वह समय भी आ पहुँचा, जबकि सत्यवान की मृत्यु होने वाली थी। सावित्री एक-एक दिन बीतने पर उसकी गणना करती रहती थी। नारद जी ने जो बात कही थी, वह उसके हृदय में सदा विद्यमान रहती थी। भाविनी सावित्री को जब यह निश्चय हो गया कि मेरे पति को आज से चौथे दिन मरना है, तब उसने तीन रात का व्रत धारण किया और उसमें दिन-रात खड़ी ही रही। सावित्री का यह कठोर नियम सुनकर राजा द्युमत्सेन को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने उठकर सावित्री को सान्त्वना देते हुए कहा।

    द्युमत्सेन बोले ;- राजकुमारी! तुमने यह बड़ा कठोर व्रत आरम्भ किया है। तीन दिनों तक निराहार रहना तो अत्यन्त दुष्कर कार्य है।

   सावित्री बोली ;- पिताजी! आप चिन्ता न करें। मैं इस व्रत को पूर्ण कर लूँगी। दृढ़ निश्चय ही व्रत के निर्वाह में कारण हुआ करता है, सो मैंने दृढ़ निश्चय से ही इस व्रत को आरम्भ किया है।

     द्युमत्सेन ने कहा ;- यह तो मैं तुम्हें किसी तरह नहीं कह सकता कि ‘बेटी! तुम व्रत भंग कर दो।’ मेरे जैसा मनुष्य यही समुचित बात कह सकता है कि ‘तुम व्रत को निर्विघ्न पूर्ण करो’।

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महामना द्युमत्सेन चुप हो गये। सावित्री एक स्थान पर खड़ी हुई काठ-सी दिखायी देती थी। भरतश्रेष्ठ! कल ही पतिदेव की मृत्यु होने वाली है, यह सोचकर दुःख में डूबी हुई सावित्री की वह रात खड़े-ही-खड़े बीत गयी। दूसरे दिन यह सोचकर कि आज ही वह दिन है, उसने सूर्यदेव के चार हाथ ऊपर उठते-उठते पूर्वान्हकाल के सब कृत्य पूरे कर लिये और प्रज्वलित अग्नि में आहुति दी। फिर सभी ब्राह्मणों, बड़े-बूढ़ों और सास-ससुर को क्रमशः प्रणाम करके वह नियमपूर्वक हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी रही। उस तपोवन में रहने वाले सभी तपस्वियों ने सावित्री के लिये अवैधव्यसूचक-सौभाग्यवर्धक, शुभ और हितकर आशीर्वाद दिये। सावित्री ने ध्यानयोग में स्थित हो तपस्वियों की उस आशीर्वादमयी वाणी को ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)’ कहकर मन-ही-मन शिरोधार्य किया। फिर पति की मृत्यु से सम्बन्ध रखने वाले समय और मुहूर्त की प्रतीक्षा करती हुई राजकुमारी सावित्री नारद जी के पूर्वोक्त वचन का चिन्तन करके बहुत दु:खी हो गयी।

     भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर सास और ससुर ने एकान्त में बैठी हुई राजकुमारी सावित्री से प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहा। 

     सास-ससुर बोले ;- बेटी! तुमने शास्त्र के उपदेश के अनुसार अपना व्रत पूरा कर लिया है, अब पारण करने का समय हो गया है। अतः जो कर्तव्य है, वह करो।

     सावित्री बोली ;- सूर्यास्त होने पर जब मेरा मनोरथ पूर्ण हो जायेगा, तभी मैं भोजन करूँगी। यह मेरे मन का संकल्प है और मैंने ऐसा करने की प्रतिज्ञा कर ली है।

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब सावित्री भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार बातें कर रही थी, उसी समय सत्यवान कंधे पर कुल्हाड़ी रखकर (फल-फूल, समिधा आदि लाने के लिये) वन की ओर चले।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के19-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

  उस समय सावित्री ने अपने पति से कहा,

     सावित्री बोली ;- नाथ! आप अकेले न जाइये। मैं भी आपके


साथ चलूँगी। आज मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकती।

सत्यवान ने कहा ;- सुन्दरी! तुम पहले कभी वन में नहीं गयी हो। वन का रास्ता बड़ा दुःखदायक होता है, तुम व्रत और उपवास करने के कारण दुर्बल हो रही हो। ऐसी दशा में पैदल कैसे चल सकोगी?

    सावित्री बोली ;- उपवास के कारण मुझे किसी प्रकार की शिथिलता और थकावट नहीं है। चलने के लिये मेरे मन में पूर्ण उत्साह है, अतः आप मुझे मना न कीजिये।

    सत्यवान ने कहा ;- यदि तुम्हें चलने का उत्साह है तो मैं तुम्हारा प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा। परंतु तुम मेरे माता-पिता से पूछ लो, जिससे मुझे दोष का भागी न होना पड़े।

     मार्कण्डेय कहते हैं ;- तब महान व्रत का पालन करने वाली सावित्री ने अपने सास-ससुर को प्रणाम करके कहा,

     सावित्री बोली ;- ‘ये मेरे पतिदेव फल आदि लाने के लिये महान् वन में जाना चाहते हैं। यदि सासजी और ससुरजी मुझे आज्ञा दें, तो मैं भी इनके साथ जाना चाहती हूँ। आज मुझे इनका एक क्षण का भी विरह सहा नहीं जाता है। आपके पुत्र आज गुरुजनों के लिये तथा अग्निहोत्र के उद्देश्य से फल, फूल और समिधा आदि लाने के लिये वन में जा रहे हैं, अतः उनको रोकना उचित नहीं है। हाँ, यदि किसी दूसरे कार्य के लिये वन में जाते होते तो उन्हें रोका भी जा सकता था। एक वर्ष से कुछ ही कम हुआ, मैं आश्रम से बाहर नहीं निकली। अतः आज फूलों से भरे हुए वन को देखने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।'

    द्युमत्सेन बोले ;- जब से सावित्री के पिता ने इसे मेरी पुत्रवधू बनाकर दिया है, तब से आज तक इसने पहले कभी मुझसे किसी बात के लिये प्रार्थना की हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। अतः आज मेरी पुत्रवधू अपना अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करे। बेटी! जा, सत्यवान के मार्ग में सावधानी रखना।

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार सास और ससुर दोनों की आज्ञा पाकर यशस्विनी सावित्री अपने पति के साथ चल दी, वह ऊपर से तो हँसती-सी जान पड़ती थी, किन्तु उसका हृदय दुःख की ज्वाला से दग्ध हो रहा था। विशाल नेत्रों वाली सावित्री ने सब ओर घूम-घूम कर मयूर समूहों से सेवित रमणीय और विचित्र वन देखे। पवित्र जल बहाने वाली नदियों तथा फूलों से लदे हुए सुन्दर वृक्षों को लक्ष्य करके सत्यवान सावित्री से मधुर वाणी में कहते- ‘प्रिये! देखो, कैसा मनोहर दृश्य है’। सती-साध्वी सावित्री अपने पति की सभी अवस्थाओं का निरीक्षण करती थी। नारद जी के वचनों को स्मरण करके उसे निश्चय हो गया था कि समय पर मेरे पति की मृत्यु अवश्यम्भावी है। मन्द गति से चलने वाली सावित्री मानो अपने हृदय के दो भाग करके एक से अपने पति का अनुसरण करती और दूसरे से प्रतिक्षण उनके मृत्यु काल की प्रतीक्षा कर रही थी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)

दौ सौ सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सावित्री और यम का संवाद, यमराज का संतुष्ट होकर सावित्री को अनेक वरदान देते हुए मरे हुए सत्यवान को भी जीवित कर देना तथा सत्यवान और सावित्री का वार्तालाप एवं आश्रम की ओर प्रस्थान”

   मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- तदनन्तर पत्नी सहित शक्तिशाली सत्यवान ने फल चुनकर एक काठ की टोकरी भर ली। तत्त्वश्चात् वे लकड़ी चीरने लगे। लकड़ी चीरते समय परिश्रम के कारण उनके शरीर से पसीना निकल आया और उसी परिश्रम से उनके सिर में दर्द होने लगा। तब वे श्रम से पीड़ित हो अपनी प्यारी पत्नी के पास जाकर बोले। 

    सत्यवान ने कहा ;- 'सावित्री! आज लकड़ी काटने के परिश्रम से मेरे सिर में दर्द होने लगा है, सारे अंगों में पीड़ा हो रही है और हृदय दग्ध सा होता जान पड़ता है। मितभाषिणी प्रिये! मैं अपने-आपको अस्वस्थ सा देख रहा हूँ। ऐसा जान पड़ता है, कोई शूलों से मेरे सिर को छेद रहा है। कल्याणि! अब मैं सोना चाहता हूँ। मुझमें खड़े रहने की शक्ति नहीं रह गयी है।'

    यह सुनकर सावित्री शीघ्र अपने पति के पास आयी और उनका सिर गोदी में लेकर पृथ्वी पर बैठ गयी। फिर वह तपस्विनी राजकन्या नारद जी की बात याद करके उस मुहूर्त, क्षण, समय और दिन का योग मिलाने लगी। दो ही घड़ी में उसने देखा, एक पुरुष प्रकट हुए हैं,


जिनके शरीर पर लाल रंग का वस्त्र शोभा पा रहा है। सिर पर मुकुट बँधा हुआ है। सूर्य के समान तेजस्वी होने के कारण वे मूर्तिमान् सूर्य ही जान पड़ते हैं। उनका शरीर श्याम एवं उज्ज्वल प्रभा से उद्भासित है, नेत्र लाल हैं। उनके हाथ में पाश है। उनका स्वरूप डरावना है। वे सत्यवान के पास खड़े हैं और बार-बार उन्हीं की ओर देख रहे हैं। उन्हें देखते ही सावित्री ने धीरे से पति का मस्तक भूमि पर रख दिया और सहसा खड़ी हो हाथ जोड़कर काँपते हुए हृदय से वह आर्त वाणी में बोली। 

सावित्री ने कहा ;- 'मैं समझती हूँ, आप कोई देवता हैं; क्योंकि


आपका यह शरीर मनुष्यों जैसा नहीं है। देवेश्वर! यदि आपकी इच्छा हो तो बताइये आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं?'

 यमराज बोले ;- 'सावित्री! तू पतिव्रता और तपस्विनी है, इसलिये मैं तुझसे वार्तालाप कर सकता हूँ। शुभे! तू मुझे यमराज जान। तेरे पति इस राजकुमार सत्यवान की आयु समाप्त हो गयी है? अतः मैं इसे बाँधकर ले जाऊँगा। बस, मैं यही करना चाहता हूँ।'

    सावित्री ने पूछा ;- 'भगवन! मैंने तो सुना है कि मनुष्यों को ले जाने के लिये आपके दूत आया करते हैं। प्रभो! आप स्वयं यहाँ कैसे चले आये?'

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर ! सावित्री के इस प्रकार पूछने पर पितृराज भगवान यम ने उसका प्रिय करने के लिये अपना सारा अभिप्राय यथार्थ रूप से बताना आरम्भ किया। ‘यह सत्यवान धर्मात्मा, रूपवान और गुणों का समुद्र है। मेरे दूतों द्वारा ले जाया जाने योग्य नहीं है। इसीलिये मैं स्वयं आया हूँ’। तदनन्तर यमराज ने सत्यवान के शरीर से पाश में बँधे हुए अंगुष्ठमात्र परिमाण वाले विवश हुए जीव को बलपूर्वक खींचकर निकाला।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 18-31 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    फिर तो प्राण निकल जाने से उसकी साँस बंद हो गयी, अंगकांति फीकी पड़ गयी और शरीर निश्चेष्ट होकर अपरूप दिखायी देने लगा। यमराज उस जीव को बाँधकर साथ लिये दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री दुःख से आतुर हो यमराज के ही पीछे-पीछे चल पड़ी। वह परम सौभाग्यवती पतिव्रता राजकन्या नियमपूर्वक व्रतों के पालन से पूर्णतः सिद्ध हो चुकी थी। (अतः निर्बाध गति से सर्वत्र आने-जाने में समर्थ थी)।

     यमराज बोले ;- 'सावित्री! अब तू लौट जा, सत्यवान का अन्त्येष्टि-संस्कार कर। अब तू पति के ऋण से उऋण हो गयी। पति के पीछे तुझे जहाँ तक आना चाहिये था, तू वहाँ तक आ चुकी।'

     सावित्री ने कहा ;- 'जहाँ मेरे पति ले जाये जाते हैं अथवा ये स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी जाना चाहिये; यही सनातन धर्म है। तपस्या, गुरुभक्ति, पतिप्रेम, व्रतपालन तथा आपकी कृपा से मेरी गति कहीं भी रुक नहीं सकती। तत्त्वदर्शी विद्वान ऐसा कहते हैं कि सात पग साथ चलने मात्र से मैंत्री-सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, उसी मित्रता को सामने रखकर मैं आपसे कुछ निवेदन करूँगी, उसे सुनिये। जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे वन में रहकर धर्मपालन, गुरुकुलवास तथा कष्टसहनरूप तपस्या नहीं कर सकते हैं। जितेन्द्रिय पुरुष ही यह सब कुछ करने में समर्थ हैं। महात्मा लोग विवेक विचार से ही धर्म प्राप्ति बताते हैं, अतः सभी सत्पुरुष धर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं। अपने एक ही वर्ण के सत्पुरुष-सम्मत धर्म का पालन करने से सभी लोग उस विज्ञान मार्ग पर पहुँच जाते हैं, जो सबका लक्ष्य है। अतः दूसरे या तीसरे वर्ण की इच्छा नहीं रखनी चाहिये। इसलिये साधु पुरुष केवल वर्ण-धर्म को ही प्रधानता देते हैं।'

     यमराज बोले ;- 'अनिन्दिते! तू लौट जा। स्वर, अक्षर, व्यंजन एवं युक्तियों से युक्त तेरी इन बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तू यहाँ मुझसे कोई वर माँग ले। सत्यवान के जीवन के सिवा मैं और सब कुछ तुझे दे सकता हूँ।'

    सावित्री बोली ;- 'भगवन्! मेरे श्वसुर अपने राज्य से भ्रष्ट होकर वन में रहते हैं। उनकी आँखें भी नष्ट हो गयी हैं। मैं चाहती हूँ, आपकी कृपा से उन महाराज को उनकी आँखें मिल जायें और वे बलवान् तथा अग्नि एवं सूर्य के समान तेजस्वी हो जायें।'

    यमराज बोले ;- 'अनिन्दिते! मैं तुझे वर देता हूँ। तूने जैसा कहा है, वह वैसा ही होगा। मैं देखता हूँ, तू राह चलने के कारण बहुत थक गयी है। अब लौट जा, जिससे तुझे अधिक परिश्रम न हो।'

    सावित्री बोली ;- 'स्वामी के समीप रहते हुए मुझे श्रम हो ही कैसे सकता है। जहाँ मेरे पतिदेव रहेंगे, वहीं मेरी भी गति निश्चित है। आप जहाँ मेरे प्राणनाथ को ले जायेंगे, वहीं मेरा जाना भी अवश्यम्भावी है। देवेश्वर! आप फिर मेरी बात सुनिये। सत्पुरुषों का एक बार का समागम भी अत्यन्त अभीष्ट होता है। उनके साथ मित्रता हो जाना उससे भी बढ़कर बताया गया है। साधु पुरुष का संग कभी निष्फल नहीं होता; अतः सदा सत्पुरुषों के ही समीप रहना चाहिये।'

   यमराज बोले ;- 'भामिनी! तूने जो सबके हित की बात कही है, वह मेरे मन के अनुकूल है तथा विद्वानों की भी बुद्धि को बढ़ाने वाली है; अतः इस सत्यवान के जीवन को छोड़कर तू दूसरा कोई वर और माँग ले।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 32-45 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    सावित्री बोली ;- 'मेरे बुद्धिमान श्वसुर का राज्य, जो पहले उनसे छीन लिया गया है, उसे वे महाराज पुनः प्राप्त कर लें तथा वे मेरे पूज्य गुरु महाराज द्युमत्सेन कभी अपना धर्म न छोड़ें; यही दूसरा वर मैं आपसे माँगती हूँ।'

    यमराज बोले ;- 'राजा द्युमत्सेन शीघ्र एवं अनायास ही अपना राज्य प्राप्त कर लेंगे और वे कभी अपने धर्म का भी परित्याग नहीं करेंगे। राजकुमारी! मेरे द्वारा अब तेरी इच्छा पूरी हो गयी। तू लौट जा, जिससे तुझे परिश्रम न हो।'

    सावित्री बोली ;- 'देव! इस सारी प्रजा को आप नियम से संयम में रखते हैं और उसका नियमन करके आप अपनी इच्छा के अनुसार उसे विभिन्न लोकों में ले जाते हैं। इसीलिये आपका ‘यम’ नाम सर्वत्र विख्यात है। मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये। मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, सब पर दया भाव बनाये रखना और दान देना, यह साधु पुरुषों का सनातन धर्म है। प्रायः इस संसार के लोग अल्पायु होते हैं, मनुष्यों की शक्तिहीनता तो प्रसिद्ध ही है। आप जैसे संत महात्मा जो अपनी शरण में आये हुए शत्रुओं पर भी दया करते हैं (फिर हम जैसे दीन मनुष्यों पर दया क्यों न करेंगे?)'

     यमराज बोले ;- 'शुभे! जैसे प्यासे मनुष्य को प्राप्त हुआ जल आनन्ददायक होता है, उसी प्रकार तेरी कही हुई यह बात मुझे अत्यन्त सुख दे रही है। अतः तू सत्यवान के जीवन के सिवा और कोई वर, जिसे तू लेना चाहे माँग ले।'

     सावित्री ने कहा ;- 'भगवन्! मेरे पिता महाराज अश्वपति पुत्रहीन हैं; उन्हें सौ ऐसे औरस पुत्र प्राप्त हों, जो उनके कुल की संतान परम्परा को चलाने वाले हों। मैं आपसे यही तीसरा वर माँगती हूँ।'

     यमराज बोले ;- 'शुभे! तेरे पिता के कुल की संतान परम्परा को चलाने वाले सौ तेजस्वी पुत्र होंगे। राजकुमारी! तेरी यह कामना भी पूरी हुई। अब लौट जा, तू रास्ते से बड़ी दूर चली आई है।'

    सावित्री ने कहा ;- 'भगवन्! मैं अपने स्वामी के समीप हूँ। इसलिये यह स्थान मेरे लिये दूर नहीं है। मेरा मन तो और भी दूर तक दौड़ लगाता है। आप चलते-चलते ही मेरी कही हुई ये प्रस्तुत बातें पुनः सुनें। देवेश्वर! आप विवस्वान् (सूर्य) के प्रतापी पुत्र हैं, इसलिये विद्वान पुरुष आपको वैवस्वत कहते हैं। आप समस्त प्रजा के साथ समतापूर्वक धर्मानुसार आचरण करते हैं, इसलिये आप धर्मराज कहलाते हैं। मनुष्य को अपने-आप पर भी उतना विश्वास नहीं होता है, जितना संतों पर होता है। इसलिये सब लोग संतों से विशेष प्रेम करना चाहते हैं। सौहार्द से ही समस्त प्राणियों का एक-दूसरे के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है। संतों में सौहार्द होने के कारण ही सब लोग उन पर अधिक विश्वास करते हैं।'

    यमराज बोले ;- 'कल्याणि! तूने जैसी बात कही है, वैसी मैंने तेरे सिवा किसी दूसरे के मुख से नहीं सुनी है। शुभे! तेरी इस बात से मैं संतुष्ट हूँ; तू सत्यवान के जीवन के सिवा और कोई चौथा वर माँग ले और यहाँ से लौट जा।'

     सावित्री ने कहा ;- 'मेरे और सत्यवान-दोनों के संयोग से कुल की वृद्धि करने वाले, बल और पराक्रम से सुशोभित सौ औरस पुत्र हों। यह मैं आपसे चौथा वर माँगती हूँ।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 46-58 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

   यमराज बोले ;- 'अबले! तुझे बल और पराक्रम से सम्पन्न सौ पुत्र प्राप्त होंगे; जो तेरी प्रसन्नता को बढ़ाने वाले होंगे। राजकुमारी! अब तू लौट जा, जिससे तुझे थकावट न हो। तू रास्ते से बहुत दूर चली आयी है।'

    सावित्री न कहा ;- 'सत्पुरुषों की वृत्ति निरन्तर धर्म में ही लगी रहती है। श्रेष्ठ पुरुष कभी दु:खी या व्यथित नहीं होते। सत्पुरुषों का संतों के साथ जो समागम होता है, वह कभी निष्फल नहीं होता है। श्रेष्ठ पुरुष कभी भय नहीं मानते हैं। श्रेष्ठ पुरुष सत्य के बल से सूर्य का संचालन करते हैं। राजन्! सत्पुरुष ही भूत, वर्तमान और भविष्य के आश्रय हैं। श्रेष्ठ पुरुष संतों के बीच में रहकर कभी दुःख नहीं उठाते हैं। यह सनातन सदाचार सत्पुरुषों द्वारा सेवित है। यह जानकर सभी श्रेष्ठ पुरुष परोपकार करते हैं और आपस में एक-दूसरे की ओर स्वार्थ की दृष्टि से कभी नहीं देखते हैं। सत्पुरुषों का प्रसाद कभी व्यर्थ नहीं जाता। वहाँ किसी को स्वार्थ की हानि नहीं उठानी पड़ती है और न मान सम्मान ही नष्ट होता है। ये तीनों (प्रसाद, अर्थ और मान) संतों में नित्य-निरन्तर बने रहते हैं; इसलिये वे सम्पूर्ण जगत् के रक्षक होते हैं।'

    यमराज बोले ;- 'पतिव्रते! जैसे-जैसे तू गम्भीर अर्थ से युक्त और सुन्दर पदों से विभूषित, मन के अनुकूल धर्मसंगत बातें मुझे सुनाती जा रही है, वैसे-ही-वैसे तेरे प्रति मेरी उत्तम भक्ति बढ़ती जाती है; अतः तू मुझसे कोई अनुपम वर माँग ले।'

     सावित्री ने कहा ;- 'मानद! आपने मुझे जो पुत्र-प्राप्ति का वर दिया है, वह पुण्यमय दाम्पत्य-संयोग के बिना सफल नहीं हो सकता। अन्य वरों की जैसी स्थिति है, वैसी इस अंतिम वर की नहीं है। इसलिये मैं पुनः यह वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान जीवित हो जायें; क्योंकि इन पतिदेवता के बिना मैं मरी हुई के ही समान हूँ। पति के बिना यदि कोई सुख मिलता है, तो वह मुझे नहीं चाहिये। पतिदेव के बिना में स्वर्गलोक में भी जाने की इच्छा नहीं रखती। पति के बिना


मुझे धन-सम्पत्ति की इच्छा नहीं है। अधिक क्या कहूँ, मैं पति के बिना जीवित रहना भी नहीं चाहती। आपने ही मुझे सौ पुत्र होने का वर दिया है और आप ही मेरे पति को अन्यत्र लिये जा रहे हैं; अतः मैं यही वर माँगती हूँ कि ये सत्यवान जीवित हो जायें, इससे आपका ही वचन सत्य होगा।'

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर ‘तथास्तु’ कहकर सूर्यपुत्र धर्मराज यम ने सत्यवान का बंधन खोल दिया और प्रसन्नचित्त होकर सावित्री से इस प्रकार कहा,

   यमराज बोले ;- ‘भद्रे! यह ले, मैंने तेरे पति को छोड़ दिया है। कुलनन्दिनी! तूने अपने धर्मार्थयुक्त वचनों द्वारा मुझे पूर्ण संतुष्ट कर दिया है। साध्वी! यह सत्यवान नीरोग, सफल-मनोरथ तथा तेरे द्वारा ले जाने योग्य हो गया है। यह तेरे साथ रहकर चार सौ वर्षों की आयु प्राप्त करेगा। यज्ञों द्वारा भगवान का यजन करके यह अपने धर्माचरण द्वारा सम्पूर्ण विश्व में विख्यात होगा। सत्यवान तेरे गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न करेगा और वे सभी राजकुमार राजा होने के साथ ही पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न होंगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 59-75 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     ‘तेरे ही नाम से उनकी सदा ख्याति होगी अर्थात् वे 'सावित्र' नाम से प्रसिद्ध होंगे। तेरे पिता के भी तेरी माता के ही गर्भ से सौ पुत्र होंगे। वे तेरी माता मालवी से उत्पन्न होने के कारण 'मालव' नाम से विख्यात होंगे। तेरे भाई मालव क्षत्रिय पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न तथा देवताओं के समान तेजस्वी होंगे’।

    सावित्री को इस प्रकार वरदान दे प्रतापी धर्मराज उसे लौटाकर अपने लोक में चले गये। यमराज के चले जाने पर सावित्री अपने पति को पाकर उसी स्थान पर गयी; जहाँ पति का मृत शरीर पड़ा था। वह पृथ्वी पर अपने पति को पड़ा देख उनके पास गयी और पृथ्वी पर बैठ गयी, फिर पति को उठाकर उसने उनके मसतक को गोद में रख लिया। तदनन्तर पुनः चेतना प्राप्त करके सत्यवान परदेश में रहकर लौटे हुए पुरुष की भाँति बार-बार प्रेमपूर्वक सावित्री की ओर देखते हुए उससे बोले।

    सत्यवान ने कहा ;- 'प्रिये! खेद है कि मैं बहुत देर तक सोता रह गया। तुमने मुझे जगा क्यों नहीं दिया? वे श्याम वर्ण के पुरुष कहाँ हैं, जिन्होंने मुझे खींचा था?'

   सावित्री बोली ;- 'नरश्रेष्ठ! आप मेरी गोद में बहुत देर तक सोते रह गये। वे श्याम वर्ण के पुरुष प्रजा को संयम में रखने वाले साक्षात् भगवान यम थे, जो अब चले गये हैं। महाभाग! आपने विश्राम कर लिया। राजकुमार! अब आपकी नींद भी टूट चुकी है। यदि शक्ति हो तो अठिये; देखिये, प्रगाढ़ अन्धकार युक्त रात्रि हो गयी है।'

   मार्कण्डेय कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब होश में आकर सत्यवान सुखपूर्वक सोये हुए पुरुष की भाँति उठकर संपूर्ण दिशाओं तथा वनप्रान्त की ओर दृष्टि डालकर बोले,

    सत्यवान बोले ;- ‘सुमध्यमे! मैं फल लाने के लिये तुम्हारे साथ घर से निकला था, फिर लकड़ी चीरते समय मेरे सिर में जोर-जोर से दर्द होने लगा था। शुभे! मस्तक की उस पीड़ा से संतप्त हो मैं देर तक खड़ा रहने में असमर्थ हो गया और तुम्हारी गोद में सिर रखकर सो रहा। ये सारी बातें मुझे क्रमशः याद आ रही हैं। तुम्हारे अंगों का स्पर्श होने से मेरा मन नींद में खो गया। तत्पश्चात् मुझे घोर अंधकार दिखायी दिया। साथ ही एक महातेजस्वी दिव्य पुरुष का दर्शन हुआ। सुमध्यमे! यदि तुम जानती हो तो बताओ; वह सब क्या था? मैंने जो कुछ देखा है, वह स्वप्न तो नहीं था? अथवा वह सब सत्य ही था’।

    तब सावित्री उनसे बोली ;- ‘राजकुमार! रात बढ़ती जा रही है। कल सवेरे मैं आपसे सब बातें ठीक-ठीक बताऊँगी। सुव्रत! उठिये, उठिये, आपका कल्याण हो। आप चलकर माता-पिता का दर्शन तो कीजिये। सूर्य डूब गये तथा रात घनी हो गयी है। ये क्रूर बोली बोलने वाले निशाचर यहाँ प्रसन्नतापूर्वक विचर रहे हैं। वन में घूमते हुए मृगों के पैरों से लगातार पत्तों के मर्मर शब्द सुनायी पड़ते हैं।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 76-93 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

  ‘दक्षिण ओर पश्चिम के कोण की दिशा में जाकर ये उग्र सियारिनें भयंकर शब्द कर रही हैं, जिससे मेरा हृदय काँप उठता है।'

    सत्यवान बोले ;- 'प्रिये! यह वन गाढ़ अंधकार से आच्छादित होकर अत्यनत भयंकर दिखायी दे रहा है। इस समय न तो तुम्हें रास्ता सूझेगा और न तुम चल ही सकोगी।'

    सावित्री ने कहा ;- 'आज इस वन में आग लगी थी। इसमें एक सूखा वृक्ष खड़ा है, जो जल रहा है। हवा लगने से उसमें कहीं-कहीं आग दिखायी देती है। वहीं से आग ले आकर मैं सब ओर लकड़ियाँ जलाऊँगी। यहाँ बहुत-से काठ-कबाड़ पड़े हैं। आप मन से चिन्ता निकाल दीजिये। परंतु मैं आपको रुग्ण देख रही हूँ। ऐसी दशा में यदि आपके मन में चलने का उत्साह न हो अथवा इस तिमिराच्छन्न वन में यदि आपको रास्ते का ज्ञान न हो सके तो आपकी अनुमति होने पर हम दोनों कल सवेरे, जब वन की हर एक वस्तु स्पष्ट दीखने लगे, घर चलेंगे। अनघ! यदि आपकी रुचि हो तो एक रात हम लोग यहीं निवास करें।'

    सत्यवान ने कहा ;- 'प्रिये! मेरे सिर का दर्द दूर हो गया है। मुझे अपने सब अंग स्वस्थ दिखायी दे रहे हैं। अब तुम्हारे कृपा प्रसाद से मैं अपने माता-पिता से मिलना चाहता हूँ। आज से पहले कभी भी मैं इतनी देर करके असमय में अपने आश्रम पर नहीं लौटा हूँ। संध्या होने से पहले ही माता मुझे रोक लेती है- आश्रम से बाहर नहीं जाने देती है। दिन में यदि मैं आश्रम से दूर निकल जाता हूँ तो मेरे माता-पिता व्याकुल हो उठते हैं एवं पिताजी आश्रम-वासियों के साथ मुझे खोजने निकल पड़ते हैं। मेरे माता-पिता ने अत्यन्त दु:खी होकर पहले कई बार मुझे उलाहना दिया है कि ‘तू देर से घर लौटता है’। आज मेरे लिये उन दोनों की क्या अवस्था हुई होगी? यह सोचकर मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है।

   मुझे न देखने पर उन दोनों को महान् दुःख होगा। पहले की बात है, मेरे वृद्ध माता-पिता ने अत्यन्त दु:खी हो रात में आँसू बहाते हुए मुझसे बारंबार प्रेमपूर्वक कहा था,

   माता पिता बोले ;- ‘बेटा! तुम्हारे बिना हम दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। वत्स! तुम जब तक जीवित रहोगे, तभी तक हमारा भी जीवन निश्चित है। हम दोनों बूढ़े और अंधे हैं। तुम्हीं हमारी दृष्टि हो तथा तुम्हीं पर हमारा वंश प्रतिष्ठित है। हम दोनों का पिण्ड, कीर्ति ओर कुल परम्परा सब कुछ तुम पर ही अवलम्बित है’। मेरी माता बूढ़ी है। पिता भी वृद्ध हैं, केवल मैं ही उन दोनों के लिये लाठी का सहारा हूँ। वे दोनों रात में मुझे न देखकर पता नहीं किस दशा को पहुँच जायेंगे? मैं अपनी इस नींद को कोसता हूँ, जिसके कारण मेरे पिता तथा कभी मेरा अपकार न करने वाली मेरी माता का जीवन संशय में पड़ गया है। मैं भी कठिन विपत्ति में फँसकर प्राण-संशय की दशा में आ पहुँचा हूँ। माता-पिता के बिना तो मैं कदापि जीवित नहीं रह सकता। निश्चय ही इस समय मेरे प्रज्ञाचक्षु (अंधे) पिता व्याकुल हृदय से एक-एक आश्रमवासी से मेरे विषय में पूछ रहे होंगे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 94-111 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     'शुभे! मुझे अपने लिये उतना शोक नहीं है, जितना कि पिता के लिये और उन्हीं का अनुसरण करने वाली दुबली-पतली माता के लिये है। मेरे कारण आज मेरे माता-पिता बहुत संतप्त होंगे। उन्हें जीवित देखकर ही मैं जी रहा हूँ। मुझे उन दोनों का भरण-पोषण करना चाहिये। मैं यह भी जानता हूँ कि माता-पिता का प्रिय कार्य करना ही मेरा कर्तव्य है।'

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! यों कहकर धर्मात्मा, गुरुभक्त एवं गुरुजनों के प्रिय सत्यवान दोनों बाँहें ऊपर उठाकर दुःख से आतुर हो फूट-फूटकर रोने लगे।। अपने पति को इस प्रकार शोक से कातर हुआ देख धर्म का पालन करने वाली सावित्री ने नेत्रों से बहते हुए आँसुओं को पोंछकर कहा,

   सावित्री बोली ;- ‘यदि मैंने कोई तपस्या की हो, यदि दान दिया हो और होम किया हो तो मेरे सास-ससुर और पति के लिये यह रात पुण्यमयी हो। मैंने पहले कभी इच्छानुसार किये जाने वाले क्रीड़ा-विनोद में भी झूठी बात कही हो, मुझे इसका स्मरण नहीं है। उस सत्य के प्रभाव से इस समय मेरे सास-ससुर जीवित रहें।'

    सत्यवान ने कहा ;- 'सावित्री! चलो, मैं शीघ्र ही माता-पिता का दर्शन करना चाहता हूँ। क्या मैं उन दोनों को प्रसन्न देख सकूँगा। वरारोहे! मैं सत्य की शपथ खाकर अपना शरीर छूकर कहता हूँ, यदि मैं माता अथवा पिता का अप्रिय देखूँगा तो जीवित नहीं रहूँगा। यदि तुम्हारी बुद्धि धर्म में रत है, यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहती हो अथवा मेरा प्रिय करना अपना कर्तव्य समझती हो, तो हम दोनों शीघ्र ही आश्रम के समीप चलें।

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तब पति का हित चिन्तन करने वाली सावित्री ने उठकर अपने खुले हुए केशों को बाँध लिया और दोनों हाथों से पकड़कर पति को उठाया। सत्यवान ने भी उठकर एक हाथ से अपने सभी अंग पोंछे और चारों ओर देखकर फलों की टोकरी पर दृष्टि डाली। 

   तब सावित्री ने उनसे कहा ;- ‘कल सवेरे फलों को ले चलियेगा। इस समय आपके योग-क्षेम के लिये इस कुल्हाड़ी को मैं ले चलूँगी’।


फिर उसने टोकरी के बोझ को पेड़ की डाल में लटका दिया और कुल्हाड़ी लेकर वह पुनः पति के पास आ गयी। कमनीय ऊरुओं से सुशोभित तथा हाथी के समान मन्द गति से चलने वाली सावित्री ने पति की दाहिनी भुजा को अपने कंधे पर रखकर दाहिने हाथ से उन्हें अपनी पार्श्वभाग में सटा लिया और धीरे-धीरे चलेन लगी।

    उस समय सत्यवान ने कहा ;- 'भीरु! बार-बार आने-जाने से यहाँ के सभी मार्ग मेरे परिचित हैं। वृक्षों के भीतर से दिखायी देने वाली चाँदनी से भी मैं रास्तों की पहचान कर लेता हूँ। यह वही मार्ग है, जिससे हम दोनों आये थे और हमने फल चुने थे। शुभे! तुम जैसे आयी हो, वैसे चली चलो। रास्ते का विचार न करो। पलाश के वृक्षों के इस वन प्रदेश में यह मार्ग अलग-अलग दो दिशाओं की ओर मुड़ जाता है। इन दोनों में से जो मार्ग उत्तर की ओर जाता है, उसी से चलो और शीघ्रतापूर्वक पैर बढ़ाओ। अब मैं स्वस्थ हूँ, बलवान् हूँ और अपने माता तथा पिता दोनों को देखने के लिये उत्सुक हूँ।

   मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- ऐसा कहते हुए सत्यवान बड़ी उतावली के साथ आश्रम की ओर चलने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)

दौ सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकद्विशततमन अध्याय के 1-16 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“पत्नी सहित राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिये चिन्ता, ऋषियों का उन्हें आश्वासन देना, सावित्री और सत्यवान का आगमन तथा सावित्री द्वारा विलम्ब से आने के कारण पर प्रकाश डालते हुए वरप्राप्ति का विवरण बताना”

   मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इसी समय महाबली महाराजा द्युमत्सेन को उनकी खोयी हुई आँखें मिल गयीं। दृष्टि स्वच्छ हो जाने के कारण वे सब कुछ देखने लगे। भरतश्रेष्ठ! वे अपनी पत्नी शैव्या के साथ सभी आश्रमों में जाकर पुत्र का पता लगाने लगे। उस समय उन्हें सत्यवान के लिये बड़ी वेदना हो रही थी। वे दोनों पति-पत्नी उस रात में पुत्र की खोज करते हुए विभिन्न आश्रमों, नदी के तटों तथा वनों और सरोवरों में भ्रमण करने लगे। जो कोई भी शब्द कान में पड़ता, उसी को सुनकर वे अपने पुत्र के आने की आशंका से उत्सुक हो उठते और परस्पर कहने लगते कि ‘सावित्री के साथ सत्यवान आ रहा है’। उनके पैरों में बिवाई फट गयी थी, वे कठोर हो गये थे तथा घाव हो जाने के कारण रक्त से भीगे रहते थे, तो भी उन्हीं पैरों से वे दोनों दम्पति इधर-उधर पागलों की भाँति दौड़ रहे थे। उस समय उनके अंगों में कुश और काँटे बिंध गये थे।

    तब उन आश्रमों में रहने वाले समस्त ब्राह्मणों ने उनके पास जा उन्हें सब ओर से घेरकर आश्वासन दिया तथा उन दोनों को उनके आश्रम पर पहुँचाया। तपस्या के धनी वृद्ध ब्राह्मणों द्वारा घिरे हुए पत्नी सहित राजा द्युमत्सेन को प्राचीन राजाओं की विचित्र अर्थों से भरी हुई कथाएँ सुनाकर पूरा आश्वासन दिया गया, तो भी वे दोनों वृद्ध बारंबार सान्त्वना मिलते रहने पर भी अपने पुत्र को देखने की इच्छा से उसके बचपन की बातें सोचते हुए बहुत दु:खी हो गये थे। वे शोकातुर दम्पत्ति बारंबार करुण वचन बोलते हुए,- ‘हा पुत्र! हा सती-साध्वी बहू! तुम कहाँ हो? कहाँ हो?’ यों कहकर रोने लगे। उस समय एक सत्यवादी ब्राह्मण ने उन दोनों से इस प्रकार कहा।

    सुवर्चा बोले ;- 'सत्यवान की पत्नी सावित्री जैसी तपस्या, इन्द्रियसंयम तथा सदाचार से संयुक्त है, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि सत्यवान जीवित है।'

   गौतम बोले ;- 'मैंने छहों अंगों सहित समपूर्ण वेदों का अध्ययन किया है। महान् तप का संचय किया है। कुमारावस्था से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुजनों तथा अग्निदेव को संतुष्ट किया है। एकाग्रचित्त होकर सभी व्रत पूर्ण किये हैं। पूर्वकाल में हवा पीकर विधिपूर्वक उपवास व्रत का साधन किया है। इस तपस्या के प्रभाव से मैं दूसरों की सारी चेष्टाओं को जान लेता हूँ। आप लोग मेरी बात सच मानें कि सत्यवान जीवित है।'

    गौतम के शिष्य ने कहा ;- 'मेरे गुरुजी के मुख से जो बात निकली है, वह कभी मिथ्या नहीं हो सकती। सत्यवान अवश्य जीवित है।'

     कुछ ऋषियों ने कहा ;- 'सत्यवान की पत्नी सावित्री उन सभी शुभ लक्ष्णों से युक्त है, जो वैधव्य का निवारण करके सौभाग्य की वृद्धि करने वाले हैं। इसलिये सत्यवान अवश्य जीवित है।'

    भारद्वाज बोले ;- 'सत्यवान की पत्नी सावित्री जैसी तपस्या, इन्द्रियसंयम तथा सदाचार से संयुक्त है, उसे देखते हुए मैं कह सकता हूँ कि सत्यवान जीवित है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 17-32 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    दाल्भ्य ने कहा ;- 'राजन् जिस प्रकार आप को दृष्टि प्राप्त हो गयी और जिस प्रकार सावित्री का उपवास-व्रत चल रहा था तथा जिस प्रकार वह आज भोजन किये बिना ही पति के साथ गयी है, इन सब बातों पर विचार करने से यही प्रतीत होता है कि सत्यवान जीवित है।'

    आपस्तम्ब बोले ;- 'इस शान्त (एवं प्रसन्न) दिशा में मृग और पक्षी जैसी बोली बोल रहे हैं और आपके द्वारा जिस प्रकार राजोचित धर्म का अनुष्ठान हो रहा है, उसके अनुसार यह कहा जा सकता है कि सत्यवान जीवित है।'

     धौम्य ने कहा ;- 'महाराज! आपका यह पुत्र जिस प्रकार समस्त सद्गुणों से सम्पन्न, जनप्रिय तथा चिरजीवी पुरुषों के लक्ष्णों से युक्त है, उसके अनुसार यही मानना चाहिये कि सत्यवान जीवित है।'

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार सत्यवादी एवं तपस्वी मुनियों ने जब राजा द्युमत्सेन को पूर्णतः आश्वासन दिया, तब उन सबका समादर करते हुए उनकी बात मानकर वे स्थिर हो गये। तदनन्तर दो ही घड़ी में सावित्री अपने पति सत्यवान के साथ रात में वहाँ आयी और बड़े हर्ष के साथ उसने आश्रम में प्रवेश किया। 

      तब ब्राह्मणों ने कहा ;- महाराज! पुत्र के साथ आपका मिलन हुआ है और आपको नेत्र भी प्राप्त हो गये, इस अवस्था में आपको देखकर हम सब लोग आपका अभ्युदय मान रहे हैं। बड़े सौभाग्य की बात है कि आपको पुत्र का समागम प्राप्त हुआ, बहू सावित्री का दर्शन हुआ और अपने खोये हुए नेत्र पुनः मिल गये। इन तीनों बातों से आपका अभ्युदय सूचित होता है। हम सब लोगों ने जो बात कही है, वह ज्यों-की-त्यों सत्य निकली, इसमें संशय नहीं है। आगे भी शीघ्र ही आपकी बारंबार समृद्धि होने वाली है।

     युधिष्ठिर! तदनन्तर सभी ब्राह्मण वहाँ आग जलाकर राजा द्युमत्सेन के पास बैठ गये। शैव्या, सत्यवान तथा सावित्री- ये तीनों भी एक ओर खड़े थे, जो उन सब महात्माओं की आज्ञा पाकर शोकरहित हो बैठे थे। पार्थ! तत्पश्चात् राजा के साथ बैठे हुए वे सभी वनवासी कौतूहलवश राजकुमार सत्यवान से पूछने लगे। ऋषि बोले- राजकुमार! तुम अपनी पत्नी के साथ पहले ही क्यों नहीं चले आये? क्यों इतनी रात बिताकर आये? तुम्हारे सामने कौन-सी अड़चन आ गयी थी। राजपुत्र! तुमने आने में विलम्ब करके अपने माता-पिता तथा हम लोगों को भी भारी संताप में डाल दिया था। तुमने ऐसा क्यों किया? यह हम नहीं जान पाते हैं, अतः सब बातें स्पष्ट रूप से बताओ।

    सत्यवान बोले ;- 'मैं पिता की आज्ञा पाकर सावित्री के साथ वन में गया। फिर वन में लकड़ियों को चीरते समय मेरे सिर में बड़े जोर से दर्द होने लगा। मैं समझता हूँ कि मैं वेदना से व्याकुल होकर देर तक सोता रह गया। उतने समय तक मैं उसके पहले कभी नहीं सोया था। नींद खुलने पर मैं इतनी रात के बाद भी इसलिये चला आया कि आप सब लोगों को मेरे लिये चिन्तित न होना पड़े। इस विलम्ब में और कोई कारण नहीं है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 33-44 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

   गौतम बोले ;- 'तुम्हारे पिता द्युमत्सेन को जो सहसा नेत्रों की प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम नहीं जानते। सम्भवतः सावित्री बतला सकती है। सावित्री! मैं इसका रहस्य तुमसे सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम भूत और भविष्य सब कुछ जानती हो। मैं तुम्हें साक्षात् सावित्री देवी के समान तेजस्विनी जानता हूँ। राजा को सहसा नेत्रों की प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम जानती हो। सच-सच बताओ, यदि इसमें कुछ छिपाने की बात न हो, तो हमसे अवश्य कहो।

    सावित्री बोली ;- 'मुनीश्वरो! आप लोग जैसा समझते हैं, ठीक है। आप लोगों का संकल्प अन्यथा नहीं हो सकता। मेरे लिये कोई छिपाने की बात नहीं है। मैं सब घटनाएँ ठीक-ठीक बताती हूँ, सुनिये।

     महात्मा नारद जी ने मुझसे मेरे पति की मृत्यु का हाल बताया था। वह मृत्यु दिवस आज ही आया था; इसलिये मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ती थी। जब वे सिर के दर्द से व्याकुल होकर सो गये, उस समय साक्षात् भगवान यमराज अपने सेवक के साथ पधारे। वे इन्हें बाँधकर दक्षिण दिशा की ओर ले चले। उस समय मैंने सत्य वचनों द्वारा उन भगवान यम की स्तुति की। तब उन्होंने मुझे पाँच वर दिये। उन वरों को आप मुझसे सुनिये। नेत्र तथा अपने राज्य की प्राप्ति- ये दो वर मेरे श्वसुर के लिये प्राप्त हुए हैं। इसके सिवा मैंने अपने पिता के लिये सौ पुत्र तथा अपने लिये भी सौ पुत्र होने के दो वर और पाये हैं। पाँचवें वर के रूप में मुझे मेरे पति सत्यवान चार सौ वर्षों की आयु लेकर प्राप्त हुए हैं। पति के जीवन की रक्षा के लिये ही मैंने यह व्रत किया था। इस प्रकार मैंने आप लोगों से विलम्ब से आने का कारण और उसका यथावत् वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है। मुझे जो यह महान् दुःख उठाना पड़ा है, उसका अन्तिम फल सुख ही हुआ है।'

     ऋषि बोले ;- 'पतिव्रते! राजा द्युमत्सेन का कुल भाँति-भाँति की विपत्तियों से ग्रस्त होकर दुःख के अंधकारमय गढे में डूबा हुआ था; परंतु तुझ जैसी सुशीला, व्रतपरायणा और पवित्र आचरण वाली कुलीन वधू ने आकर इसका उद्धार कर दिया।'

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार वहाँ आये हुए महर्षियों ने स्त्रियों में श्रेष्ठ सावित्री की भूरि-भूरि प्रशंसा तथा आदर-सत्कार करके पुत्र सहित राजा द्युमत्सेन की अनुमति ले सुख और प्रसन्नता के साथ अपने-अपने घर को प्रस्थान किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)

दौ सौ निन्यानबेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“शाल्वदेश की प्रजा के अनुरोध से महाराज द्युमत्सेन का राज्याभिषेक कराना तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति”

   मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- जब वह रात बीत गयी और सूर्यमण्डल का उदय हुआ, उस समय सब तपोधन ऋषिगण पूर्वाह्णकाल का नित्यकृत्य पूरा करके पुनः उस आश्रम में एकत्र हुए। वे ऋषिगण राजा द्युमत्सेन से सावित्री के उस परम सौभाग्य का बारंबार वर्णन करते हुए भी तृप्त नहीं होते थे। राजन्! उसी समय शाल्व देश से वहाँ की सारी प्रजाओं ने आकर महाराज द्युमत्सेन से कहा,
     प्रजा जन बोले ;- ‘प्रभो! आपका शत्रु अपने ही मन्त्री के हाथों

मारा गया है। उन्होंने यह भी निवेदन किया कि उसके सहायक और बन्धु-बान्धव भी मन्त्री के हाथों मर चुके हैं। शत्रु की सारी सेना पलायन कर गयी है। यह यथावत् वृत्तान्त सुनकर सब लोगों का एकमत से यह निश्चय हुआ है कि हमें पूर्व नरेश पर ही विश्वास है। उन्हें दिखायी देता हो या न दीखता हो, वे ही हमारे राजा हों। नरेश्वर! ऐसा निश्चय करके ही हमें यहाँ भेजा गया है। ये सवारियाँ प्रस्तुत हैं और आपकी चतुरंगिणी सेना भी सेवा में उपस्थित है। राजन्! आपका कल्याण हो। अब अपने राज्य में पधारिये। नगर में आपकी विजय घोषित कर दी गयी है। आप दीर्घकाल तक अपने बाप-दादों के राज्य पर प्रतिष्ठित रहें।'
     तत्पश्चात् राजा द्युमत्सेन को नेत्रयुक्त और स्वस्थ शरीर से सुशोभित देखकर उनके नेत्र आश्चर्य से खिल उठे और सब ने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसके बाद राजा ने आश्रम में रहने वाले उन वृद्ध ब्राह्मणों का अभिवादन किया और उन सबसे समाहत हो वे अपनी राजधानी की ओर चले। शैव्या भी अपनी बहू सावित्री के साथ सुन्दर बिछावन से युक्त तेजस्वी शिविका पर, जिसे कई कहार ढो रहे थे, आरूढ़ हो सेना से घिरी हुई चल दी। वहाँ पहुँचने पर पुरोहितों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ द्युमत्सेन का राज्याभिषेक किया। साथ ही उनके महमना पुत्र सत्यवान को भी युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया।
     तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् सावित्री के गर्भ से उसकी कीर्ति बढ़ाने वाले सौ पुत्र उत्पन्न हुए। वे सब-के-सब शूरवीर तथा संग्राम से कभी पीछे न हटने वाले थे। इसी प्रकार मद्रराज अश्वपति के भी मालवी के गर्भ से सावित्री के सौ सहोदर भाई उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त बलशाली थे। इस तरह सावित्री ने अपने आपको, पिता-माता को, सास-ससुर को तथा पति के समस्त कुल को भारी संकट से बचा लिया था। सावित्री की ही भाँति यह कल्याणमयी उत्तम कुलवाली सुशीला द्रौपदी तुम सब लोगों का महान् संकट से उद्धार करेगी।
        वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार उन महात्मा मार्कण्डेय जी के समझाने-बुझाने और आश्वासन देने पर उस समय पाण्डुननदन राजा युधिष्ठिर शोक तथा चिन्ता से रहित हो काम्यकवन में सुखपूर्वक रहने लगे।
      जो इस परम उत्तम सावित्री उपाख्यान को भक्तिभाव से सुनेगा, वह मनुष्य सदा अपने समस्त मनोरथों के सिद्ध होने से सुखी होगा और कभी दुःख नहीं पायेगा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (कुण्डलाहरण पर्व)

तीन सौ वाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“सूर्य का स्वप्न में कर्ण को दर्शन देकर उसे इन्द्र को कुण्डल और कवच न देने के लिये सचेत करना तथा कर्ण का आग्रहपूर्वक कुण्डल और कवच देने का ही निश्चय रखना”

    जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! लोमश जी ने इन्द्र के कथनानुसार उस समय पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से जो यह महत्त्वपूर्ण वचन कहा था कि ‘तुम्हें जो बड़ा भारी भय लगा रहता है और जिसकी तुम किसी के सामने चर्चा भी नहीं करते, उसे ही मैं अर्जुन के यहाँ (स्वर्ग) से चले जाने पर दूर कर दूँगा।’ जप करने वालों में श्रेष्ठ वैशम्पायन जी! धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर को कर्ण से वह कौन-सा भारी भय था, जिसकी वे किसी के सम्मुख बात भी नहीं चलाते थे।
      वैशम्पायन जी ने कहा ;- नृपश्रेष्ठ! भरतकुलभूषण! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैं यह कथा सुनाऊँगा। तुम ध्यान देकर मेरी बात सुनो। जब पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष बीत गये और तेरहवाँ वर्ष आरम्भ हुआ, तब पाण्डवों के हितकारी इन्द्र कर्ण से कवच-कुण्डल माँगने को उद्यत हुए। महाराज! कुण्डल के विषय में देवराज इन्द्र का मनोभाव जानकर भगवान सूर्य कर्ण के पास गये। ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी वीर कर्ण अत्यन्त निश्चिन्त होकर एक सुन्दर बिछौने वाली बहुमूल्य शय्या पर सोया था। राजेन्द्र! भरतनन्दन! अंशुमाली भगवान सूर्य ने पुत्रस्नेहवश अत्यन्त दयाभाव युक्त हो रात को सपने में कर्ण को

दर्शन दिया। उस समय उन्होंने वेदवेत्ता ब्राह्मण का रूप धारण कर रक्खा था। उनका स्वरूप योग-समृद्धि से सम्पन्न था। उन्होंने कर्ण के हित के लिये उसे समझाते हुए इस प्रकार कहा,
  सुर्य देव बोले ;- ‘सत्यधारियों में श्रेष्ठ तात कर्ण! मेरी बात सुनो। महाबाहो! मैं सौहार्दवश आज तुम्हारे परम हित की बात कहता हूँ। कर्ण! देवराज इन्द्र पाण्डवों के हित की इच्छा से तुम्हारे दोनों कुण्डल (और कवच) लेने के लिये ब्राह्मण का छद्मवेश धारण करके तुम्हारे पास आयेंगे। तुम्हारी दानशीलता का उन्हें ज्ञान है तथा सम्पूर्ण जगत् को तुम्हारे इस नियम का पता है कि किसी सत्पुरुष के माँगने पर तुम उसकी अभीष्ट वस्तु देते ही हो, उससे कुछ माँगते नहीं हो। तात! तुम ब्राह्मणों को उनकी माँगी हुई वस्तु दे ही देते हो; साथ ही धन तथा और जो कुछ भी वे माँग लें, सब दे डालते हो। किसी को नहीं कहकर निराश नहीं लौटाते। तुम्हारे ऐसे स्वभाव को जानकर साक्षात् इन्द्र तुमसे तुम्हारे कवच और कुण्डल माँगने के लिये आने वाले हैं। उनके माँगने पर तुम उन्हें अपने दोनों कुण्डल दे न देना।
       यथाशक्ति अनुनय विनय करके उन्हें समझा देना; इससे तुम्हारा परम मंगल होगा। इस प्रकार वे जब-जब कुण्डल के लिये बात करें, तब-तब बहुत-से कारण बताकर तथा दूसरे नाना प्रकार के धन आदि देने की बात कहकर बार-बार उन्हें कुण्डल माँगने से मना करना। नाना प्रकार के रत्न, स्त्री, गौ, भाँति-भाँति के धन देकर तथा बहुत से दृष्टान्तों द्वारा बहलाकर कुण्डलार्थी इन्द्र को टालने का प्रयत्न करना। कर्ण! यदि तुम अपने जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए ये सुन्दर कुण्डल इन्द्र को दे दोगे, तो तुम्हारी आयु क्षीण हो जायेगी और तुम मृत्यु के अधीन हो जाओगे।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिशततम अध्याय के 19-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

       ‘मानद! तुम अपने कवच और कुण्डलों से संयुक्त होने पर रण में शत्रुओं के लिये भी अवध्य बने रहोगे, मेरी इस बात को समझ लो। कर्ण! ये दोनों रत्नमय कवच और कुण्डल अमृत से उत्पन्न हुए हैं; अतः यदि तुम्हें अपना जीवन प्रिय हो, तो इन दोनों वस्तुओं की रक्षा अवश्य करना’।
     कर्ण ने पूछा ;- भगवन्! आप मेरे प्रति अत्यन्त स्नेह दिखाते हुए जो इस प्रकार हितकर सलाह दे रहे हैं, इससे मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? यदि इच्छा हो, तो बताइये। इस प्रकार ब्राह्मण वेष धारण करने वाले आप कौन हैं?
      ब्राह्मण ने कहा ;- तात! मैं सहस्रांशु सूर्य हूँ। स्नेहवश ही तुम्हें दर्शन देकर सामयिक कर्तव्य सुझा रहा हूँ। तुम मेरा कहना मान लो। इससे तुम्हारा परम कल्याण होगा।
      कर्ण ने कहा ;- जिसके हित का अनुसंधान साक्षात् भगवान सूर्य करते और हित की बात बताते हैं, उस कर्ण का तो परम कल्याण है ही। भगवन्! आप मेरी यह बात सुनें। प्रभो! आप वरदायक देवता हैं। मैं आपसे प्रसन्न रहने का अनुरोध करता हूँ और प्रेमपूर्वक यह कहता हूँ कि यदि मैं आपको प्रिय हूँ, तो आप मुझे इस व्रत से विचलित न करें। सूर्यदेव! संसार में सब लोग मेरे इस व्रत के विषय में पूर्णरूप से जानते हैं कि मैं श्रेष्ठ ब्राह्मणों के याचना करने पर उन्हें निश्चय ही अपने प्राण भी दे सकता हूँ। आकाश में विचरने वालों में उत्तम सूर्यदेव! यदि पाण्डवों के हित के लिये ब्राह्मण के छद्मवेश में अपने को छिपाकर साक्षात् इन्द्रदेव मेरे पास भिक्षा माँगने आ रहे हैं, तो देवेश्वर! मैं उन्हें दोनों कुण्डल और उत्तम कवच अवश्य दे दूँगा, जिससे तीनों लोकों में विख्यात हुई मेरी कीर्ति नष्ट न होने पाये। मेरे जैसे शूरवीर को प्राण देकर भी यश की रक्षा करनी चाहिये; अपयश लेकर प्राणों की रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। सुयश के साथ यदि मृत्यु हो जाये, तो वह वीरोचित एवं सम्पूर्ण लोक के लिये सम्मान की वस्तु है। ऐसी सिथति में यदि बलासुर और वृत्रासुर के विनाशक देवराज इन्द्र मेरे पास भिक्षा के लिये पधारेंगे, तो मैं कवच सहित दोनों कुण्डल उन्हें अवश्य दे दूँगा।
     यदि इन्द्र पाण्डवों के हित के लिये मेरे कुण्डल माँगने आयेंगे, तो मेरी कीर्ति बढ़ेगी और उनका अपयश होगा। अतः सूर्यदेव! मैं जीवन देकर भी जगत् में कीर्ति का ही वरण करूँगा। कीर्तिमान् पुरुष स्वर्ग का सुख भोगता है। जिसकी कीर्ति नष्ट हो जाती है, वह स्वयं भी नष्ट ही है। कीर्ति इस संसार में माता की भाँति मनुष्य को नूतन जीवन प्रदान करती है। परंतु अपकीर्ति जीवित पुरुष के भी जीवन को नष्ट कर देती है। विभावसो! लोकेश्वर! साक्षात् ब्रह्माजी के द्वारा गाया हुआ यह प्राचील श्लोक है कि कीर्ति मनुष्य की आयु है।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिशततम अध्याय के 34-39 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    परलोक में कीर्ति ही पुरुष के लिये सबसे महान् आश्रय है। इस लोक में भी विशुद्ध कीर्ति आयु बढ़ाने वाली होती है। अतः मैं अपने शरीर के साथ उत्पन्न हुए कवच-कुण्डल इन्द्र को देकर सनातन कीर्ति प्राप्त करूँगा।
      ब्राह्मणों को विधिपूर्वक दान देकर, अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके समराग्नि में शरीर की आहुति देकर तथा शत्रुओं को संग्राम में जीतकर में केवल सुयश का उपार्जन करूँगा।
      संग्राम में भयभीत होकर प्राणों की भीख माँगने वाले सैनिकों को अभय देकर तथा बालक, वृद्ध और ब्राह्मणों को महान् भय से छुड़ाकर संसार में परम उत्तम स्वर्गीय यश का उपार्जन करूँगा।
    मुझे प्राण देकर भी अपनी कीर्ति सुरक्षित रखनी है। यही मेरा व्रत समझें। इसलिये देव! इस प्रकार के व्रत वाला मैं ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र को यह परम श्रेष्ठ भिक्षा देकर जगत् में उत्तम गति प्राप्त करूँगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कुण्डलाहरणपर्व में सूर्य-कर्ण संवाद विषयक तीन सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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