सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ इक्यानवेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीराम का सीता के प्रति संदेह, देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन, श्रीराम का दल-बल सहित लंका से प्रस्थान एवं किष्किन्धा होते हुए अयोध्या में पहुँचकर भरत से मिलना तथा राज्य पर अभिषिक्त होना”
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इस प्रकार नीच स्वभाव वाले देवद्रोही राक्षसराज रावण का वघ करके भगवान श्रीराम अपने मित्रों तथा लक्ष्मण के साथ बड़े प्रसन्न हुए। दशानन के मारे जाने पर देवता तथा महर्षिगण जययुक्त आशीर्वाद देते हुए उन महाबाहु की पूजा एवं प्रशंसा करने लगे। स्वर्गवासी सम्पूर्ण देवताओं तथा गन्धर्वों ने फूलों की वर्षा करते हुए उत्तम वाणी द्वारा कमलनयन भगवान श्रीराम का स्तवन किया। श्रीराम की भलीभाँति पूजा करके वे सब जैसे आये थे, उसी प्रकार लौट गये।
युधिष्ठिर! उस समय आकाश महान् उत्सव समारोह से भरा-सा जान पड़ता था। तत्पश्चात् शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महायशस्वी भगवान श्रीराम ने दशानन रावण का वध करने के अनन्तर लंका का राज्य विभीषण को दे दिया। इसके बाद उत्तम बुद्धि से युक्त बूढ़े मन्त्री अविन्ध्य विभीषण सहित भगवती सीता को आगे करके लंकापुरी से बाहर निकले। वे ककुत्स्थकुलभूषण महात्मा श्रीरामचन्द्र जी से दीनतापूर्वक बोले,
मंत्री अविन्ध्य बोले ;- ‘महात्मन्! सदाचार से सुशोभित जनककिशोरी महारानी सीता को ग्रहण कीजिये’। यह सूनकर
इक्ष्वाकुनन्दन भगवान श्रीराम ने उस उत्तम रथ से उतरकर सीता को देखा। उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। शिविका में बैठी हुई सर्वांगसुन्दरी सीता शोक से दुबली हो गयी थीं। उनके समस्त अंगों में मैल जम गयी थी, सिर के बाल आपस में चिपककर जटा के रूप में परिणत हो गये थे और उनका वस्त्र काला पड़ गया था। श्रीरामचन्द्र जी के मन में यह संदेह हुआ कि सम्भव है, सीता परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गयी हों; अतः उन्होंने विदेहनन्दिनी सीता से स्पष्ट वचनों द्वारा कहा,
श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘विदेहकुमारी! मैंने तुम्हें रावण की कैद से छुड़ा दिया। अब तुम जाओ। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा कर दिया। भद्रे! मुझ जैसे पति को पाकर तुम्हें वृद्धावस्था तक किसी राक्षस के घर में न रहना पड़े, यही सोचकर मैंने उस निशाचर का वध किया है। धर्म के सिद्धान्त को जानने वाला मेरे जैसा कोई भी पुरुष दूसरे के हाथ में पड़ी हुई नारी को मुहूर्त भर के लिये भी कैसे ग्रहण कर सकता है? मिथिलेशनन्दिनी! तुम्हारा आचार-विचार शुद्ध रह गया हो अथवा अशुद्ध, अब मैं तुम्हें अपने उपयोग में नहीं ला सकता- ठीक उसी तरह, जैसे कुत्ते के चाटे हुए हविष्य को कोई ग्रहण नहीं करता’।
सहसा यह कठोर वचन सुनकर देवी सीता व्यथित हो कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ीं। जैसे श्वास लेने से दर्पण में पड़ा हुआ मुख का प्रतिबिम्ब मलिन हो जाता है, उसी प्रकार सीता के मुख पर उस समय जो हर्षजनित कान्ति छा रही थी, वह एक ही क्षण में फिर विलीन हो गयी। श्रीरामचन्द्र जी का यह कथन सुनकर समस्त वानर तथा लक्ष्मण सब के सब मरे हुए के समान निश्चेष्ट हो गये। इसी समय विशुद्ध अन्तःकरण वाले कमलयोनि जगत स्रष्टा चतुर्मुख ब्रह्माजी ने विमान द्वारा वहाँ आकर श्रीरामचन्द्र जी को दर्शन दिया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 18-35 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
साथ ही इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण, यक्षराज भगवान कुबेर तथा निर्मल चित्त वाले सप्तर्षिगण भी वहाँ आ गये। इनके सिवा हंसों से युक्त एक बहुमूल्य तेजस्वी विमान द्वारा दिव्य प्रकाशमान स्वरूप धारण किये स्वयं राजा दशरथ भी वहाँ पधारे। उस समय देवताओं और गन्धर्वों से भरा हुआ वह सम्पूर्ण अन्तरिक्ष इस प्रकार शोभा पाने लगा, मानो असंख्य तारागणों से चित्रित शरद् ऋतु का आकाश हो। तब उन सबके बीच में खड़ी होकर कल्याणमयी यशस्विनी सीता ने चौड़ी छाती वाले भगवान श्रीराम से इस प्रकार कहा,
सीता जी बोली ;- ‘राजपुत्र! मैं आपको दोष नहीं देती, क्योंकि आप स्त्रियों और पुरुषों की कैसी गति है, यह अच्छी तरह जानते हैं। केवल मेरी यह बात सुन लीजिये।
निरन्तर संचरण करने वाले वायुदेव समस्त प्राणियों के भीतर विचरते हैं। यदि मैंने कोई पापाचार किया हो तो वे वायुदेवता मेरे प्राणों का परित्याग कर दें। यदि मैं पाप का आचरण करती होऊँ तो अग्नी, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु- ये सब मिलकर मुझसे मेरे प्राणों का वियोग करा दें। वीर! यदि मैंने आपके सिवा दूसरे किसी पुरुष का स्वप्न में भी चिन्तन न किया हो तो देवताओं के दिये हुए एकमात्र आप ही मेरे पति हों’। तदनन्तर आकाश में सब लोगों को साक्षी देती हुई एक सुन्दर वाणी उच्चरित हुई, जो परम पवित्र होने के साथ ही उन महामना वानरों को भी हर्ष प्रदान करने वाली थी। (उस आकाशवाणी के रूप में)
वायुदेवता बोले ;- 'रघुनन्दन! मैं सदा विचरण करने वाला वायु देवता हूँ। सीता ने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। राजन्! मिथिलेशकुमारी सर्वथा पापशून्य हैं। आप अपनी इस पत्नी से निःसंकोच होकर मिलिये।'
अग्निदेव ने कहा ;- 'रघुनन्दन! मैं समस्त प्राणियों के शरीर में रहने वाला अग्नि हूँ। मुझे मालूम है कि मिथिलेशकुमारी के द्वारा कभी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अपराध नहीं हुआ है।'
वरुणदेव ने कहा ;- 'श्रीराम! समस्त प्राणियों के शरीर में जो जलतत्त्व है, वह मुझसे ही उत्पन्न हुआ है। अतः मैं तुमसे कहता हूँ, मिथिलेशकुमारी निष्पाप हैं, उसे ग्रहण करो।'
तत्पश्चात् ब्रह्माजी बोले ;- वत्स! तुम राजर्षियों के धर्म पर चलने वाले हो; अतः तुममें ऐसा सद्विचार होना आश्चर्य की बात नहीं है। साधु सदाचारी श्रीराम! तुम मेरी यह बात सुनो। वीरवर! यह रावण देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष, दानव तथा महर्षियों का भी शत्रु था। इसे तुमने मार गिराया है। पूर्वकाल में मेरे ही प्रसाद से यह समस्त प्राणियों के लिये अवध्य हो गया था। किसी कारणवश ही कुछ काल तक इस पापी की उपेक्षा की गयी थी। दुरात्मा रावण ने अपने वध के लिये ही सीता का अपहरण किया था। नलकूबर के शाप द्वारा मैंने सीता की रक्षा का प्रबन्ध कर दिया था। पूर्वकाल में रावण को यह शाप दिया गया था कि यदि यह उसे न चाहने वाली किसी परायी स्त्री का बलपूर्वक सेवन करेगा तो उसके मस्तक के सैंकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। अतः महातेजस्वी श्रीराम! तुम्हें सीता के विषय में कोई शंका नहीं करनी चाहिये। इसे ग्रहण करो। देवताओं के समान तेजस्वी वीर! तुमने रावण को मारकर देवताओं का महान् कार्य सिद्ध किया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 36-56 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
दशरथ जी बोले ;- वत्स! मैं तुम्हारा पिता दशरथ हूँ, तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो। पुरुषोत्तम! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि अब तुम अयोध्या का राज्य करो।
श्रीरामचन्द्र जी ने कहा ;- राजेन्द्र! यदि आप मेरे पिता हैं तो मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आपकी आज्ञा से अब मैं रमणीय अयोध्यापुरी को लौट जाऊँगा।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर पिता दशरथ ने अत्यन्त प्रसन्न होकर कुछ-कुछ लाल नेत्रों वाले श्रीरामचन्द्र जी से पुनः कहा,
दशरथ जी बोले ;- ‘महाद्युते! तुम्हारे वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गये हैं। अब तुम अयोध्या जाओ और वहाँ का शासन अपने हाथों में लो’। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्र जी ने देवताओं को नमस्कार किया और सुहृदों से अभिनन्दित हो अपनी पत्नी सीता से मिले, मानो इन्द्र का शची से मिलन हुआ हो। इसके बाद परंतप श्रीराम ने अविन्ध्य को अभीष्ट वरदान दिया और त्रिजटा राक्षसी को धन और सम्मान से संतुष्ट किया। यह सब हो जाने पर इन्द्र देवताओं सहित ब्रह्मा ने भगवान राम से कहा,
ब्रह्मा जी बोले ;- ‘कौसल्यानन्दन! कहो, आज मैं तुम्हें कौन-कौन से अभीष्ट वर प्रदान करूँ?’ तब श्रीरामचन्द्र जी ने उनसे ये वर माँगे,
श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘मेरी धर्म में सदा स्थिति रहे, शत्रुओं से कभी पराजय न हो तथा राक्षसों के द्वारा मारे गये वानर पुनः जीवित हो जायें’।
यह सुनकर ब्रह्माजी ने कहा ;- ‘ऐसा ही हो।’ महाराज! उनके इतना कहते ही सभी वानर चेतना प्राप्त करके जी उठे।
महाशौभाग्यवती सीता ने भी हनुमान जी को यह वर दिया,
सीता जी बोली ;- ‘पुत्र! जब तक इस धरातल पर भगवान श्रीराम की कीर्ति बनी रहेगी, तब तक तुम्हारा जीवन स्थिर रहेगा। पिंगलनयन हनुमान! मेरी कृपा से तुम्हें सदा ही दिव्य भोग प्राप्त होते रहेंगे’। तदनन्तर अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले वानरों के देखते-देखते वहाँ इन्द्र आदि सब देवता अनतर्धान हो गये। श्रीरामचन्द्र जी को जनकनन्दिनी सीता के साथ विराजमान देख इन्द्र के सारथि मातलि को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने सब सुहृदों के बीच में इस प्रकार कहा,
मातलि बोले ;- ‘सत्यपराक्रमी श्रीराम! आपने देवता, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, असुर और नाग- इन सबका दुःख दूर कर दिया है। जब तक यह पृथ्वी रहेगी, तब तक देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा नागों सहित सम्पूर्ण जगत् के लोग आपकी कीर्ति कथा का गान करेंगे’।
ऐसा कहकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा ले उनकी पूजा करके सूर्य के समान तेजस्वी उसी रथ के द्वारा मातलि स्वर्गलोक को चला गया। तदनन्तर जितेन्द्रिय भगवान श्रीराम ने लंकापुरी की सुरक्षा का प्रबन्ध करके लक्ष्मण, सुग्रीव आदि सभी श्रेष्ठ वानरों, विभीषण तथा प्रधान-प्रधान सचिवों के साथ सीता को आगे करके इच्छानुसार चलने वाले, आकाशचारी, शोभाशाली पुष्पक
विमान पर आरूढ़ हो उसी के द्वारा पूर्वोक्त सेतुमार्ग से ऊपर-ही-ऊपर पुनः मकरालय समुद्र को पार किया। समुद्र के इस पार आकर धर्मात्मा श्रीराम ने पहले जहाँ शयन किया था, उसी स्थान पर सम्पूर्ण वानरों के साथ विश्राम किया। फिर श्रीरघुनाथ जी ने यथासमय सबको अपने पास बुलाकर सबका यथायोग्य आदर सत्कार किया तथा रत्नों की भेंट से संतुष्ट करके सभी वानरों और रीछों को विदा किया। जब वे रीछ, श्रेष्ठ वानर और लंगूर चले गये, तब सुग्रीव सहित श्रीराम ने पुनः किष्किन्धापुरी को प्रस्थान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 57-70 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
विभीषण और सुग्रीव के साथ पुष्पक विमान द्वारा विदेहकुमारी सीता को वन की शोभा दिखाते हुए योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने किष्किन्धा में पहुँचकर अंगद को, जिन्होंने लंका के युद्ध में महान! पराक्रम दिखाया था, युवराज पद पर अभिषिक्त किया। इसके बाद लक्ष्मण तथा सुग्रीव आदि के साथ श्रीरामचन्द्र जी जिस मार्ग से आये थे, उसी के द्वारा अपनी राजधानी अयोध्या की ओर प्रस्थित हुए। तत्पश्चात् अयोध्यापुरी के निकट पहुँचकर राष्ट्रपति श्रीराम ने हनुमान को दूत बनाकर भरत के पास भेजा।
जब वायुपुत्र हनुमान भरत की सारी चेष्टाओं को लक्ष्य करके उन्हें श्रीरामचन्द्र जी के पुनरागमन का प्रिय समाचार सुनाकर लौट आये, तब श्रीरामचन्द्र जी नन्दिग्राम में आये। वहाँ आकर श्रीराम ने देखा, भरत चीरवस्त्र पहने हुए हैं, उनका शरीर मैल से भरा हुआ है और वे मेरी चरण-पादुकाएँ आगे रखकर कुशासन पर बैठे हैं। युधिष्ठिर! लक्ष्मण सहित पराक्रमी श्रीरामचन्द्र जी भरत तथा शत्रुघ्न से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। भरत और शत्रुघ्न को भी उस समय बड़े भाई से मिलकर तथा विदेहकुमारी सीता का दर्शन करके महान् हर्ष प्राप्त हुआ। फिर भरत जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अयोध्या पधारे हुए भगवान श्रीराम को अपने पास धरोहर के रूप में रखा हुआ (अयोध्या का) राज्य अत्यन्त सत्कारपूर्वक लौटा दिया।
तत्पश्चात् विष्णु देवता सम्बन्धी श्रवण नक्षत्र का पुण्य दिवस आने पर वसिष्ठ और वामदेव दोनों ऋषियों ने मिलकर शूरशिरोमणि
भगवान राम का राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक का कार्य सम्पन्न हो जाने पर श्रीरामचन्द्र जी ने सुहृदों सहित सुग्रीव को तथा पुलत्स्यकुलनन्दन विभीषण को अपने-अपने घर लौटने की आज्ञा दी। श्रीराम ने भाँति-भाँति के भोग अर्पित करके उन दोनों का सत्कार किया। इससे वे बड़े प्रसन्न और आनन्दमग्न हो गये। तदनन्तर उन दोनों को कर्तव्य की शिक्षा देकर रघुनाथ जी ने उन्हें बड़े दुख से विदा किया। इसके बाद उस पुष्पक विमान की पूजा करके रघुनन्दन श्रीराम ने उसे कुबेर को ही प्रेमपूर्वक लौटा दिया। तदनन्तर देवर्षियों सहित गोमती नदी के तट पर जाकर श्रीरघुनाथ जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये, जो स्तुति के योग्य थे और जिसमें अन्न आदि की इच्छा से आने वाले याचकों के लिये कभी द्वार बंद नहीं होता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में श्रीरामाभिषेक विषयक दो सौ इक्यानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ बानवेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्विनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-14 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
"मार्कण्डेय जी के द्वारा राजा युधिष्ठिर को आश्वासन"
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- महाबाहु युधिष्ठिर! इस प्रकार प्राचीन काल में अमित तेजस्वी श्रीराम ने वनवासजनित अत्यन्त भयंकर कष्ट भोगा था। शत्रुओं को संताप देने वाले पुरुषसिंह! तुम क्षत्रिय हो, शोक न करो। तुम तो उस मार्ग पर चल रहे हो, जहाँ केवल अपने बाहुबल का भरोसा किया जाता है तथा जहाँ अभीष्ट फल की प्राप्ति प्रत्यक्ष एवं असंदिग्ध है। श्रीराम के कष्ट के सामने तुम्हारा कष्ट अणुमात्र भी नहीं है। इन्द्र सहित देवता तथा असुर भी इस क्षत्रिय धर्म के मार्ग पर चले हैं। वज्रपाणि इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ मिलकर वृत्रासुर, दुर्धर्ष वीर नमुचि तथा दीर्घजिह्वा राक्षसी का वध किया था। जो सहायकों से सम्पन्न है, उसके सभी मनोरथ इस जगत् में सब प्रकार से सिद्ध होते हैं। फिर जिसे धनंजय जैसा भाई मिला हो, वह युद्ध में किसे परास्त नहीं कर सकता।
ये भयंकर पराक्रमी भीमसेन बलवानों में श्रेष्ठ हैं। माद्रीनन्दन वीर नकुल-सहदेव भी महान् धनुर्धर तथा नवयुवक हैं। परंतप! इन सब सहायकों के होते हुए तुम विषाद क्यों करते हो? तुम्हारे ये भाई तो मरुद्गणों सहित वज्रधारी इन्द्र की सेना को भी परास्त कर सकते हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम भी इन देवस्वरूप महाधनुर्धर भाइयों की सहायता से अपने समस्त शत्रुओं को युद्ध में जीत लोगे। इस द्रौपदी की ओर देखो। अपने पराक्रम के मद से उन्मत्त महाबली दुरात्मा सिन्धुराज ने इसे हर लिया था; परंतु तुम्हारे इन महात्मा बन्धुओं ने अत्यन्त दुष्कर कर्म करके द्रुपदकुमारी कृष्णा को पुनः लौटा लिया तथा राजा जयद्रथ को भी परास्त करके अपने अधीन कर लिया था।
श्रीरामचन्द्र जी के तो कोई स्वजातीय सहायक भी नहीं थे, तो भी उन्होंने युद्ध में भयंकर पराक्रमी राक्षस दशानन का वध करके विदेहनन्दिनी सीता को पुनः लौटा लिया। राजन्! दूसरी योनि के प्राणी वानर, लंगूर तथा रीछ ही उनके मित्र अथवा सहायक थे (किंतु तुम्हारे तो चार शूरवीर भाई सहायक हैं)। इस बात पर बुद्धि द्वारा विचार करो। अतः कुरुश्रेष्ठ! भरतभूषण! तुम शोक न करो। क्योंकि परंतप! तुम्हारे जैसे महात्मा पुरुष कभी शोक नहीं करते।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! परम बुद्धिमान मार्कण्डेय मुनि के इस प्रकार आश्वासन देने पर उदार हृदय वाले राजा युधिष्ठिर दुःख शोक छोड़कर पुनः उनसे इस प्रकार बोले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में युधिष्ठिर को आश्वासन विषयक दो सौ बानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(रामोपाख्यान पर्व समाप्त)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)
दौ सौ तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
“राजा अश्वपति को देवी सावित्री के वरदान से सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति तथा सावित्री का पतिवरण के लिये विभिन्न देशों में भ्रमण”
युधिष्ठिर बोले ;- महामुने! इस द्रुपदकुमारी के लिये मुझे जैसा शोक होता है, वैसा न तो अपने लिये, न इन भाइयों के लिये और न राज्य छिन जाने के लिये ही होता है। दुरात्मा धुतराष्ट्रपुत्रों ने जूए के समय हम लोगों को भारी संकट में डाल दिया था, परंतु इस द्रौपदी ने हमें बचा लिया। फिर जयद्रथ ने इस वन में इसका बलपूर्वक अपहरण किया। क्या आपने किसी ऐसी परम सौभाग्यवती पतिव्रता नारी को पहले कभी देखा अथवा सुना है, जैसी यह द्रौपदी है?
मार्कण्डेय जी बोले ;- राजा युधिष्ठिर! राजकन्या सावित्री ने कुलकामिनियों के लिये परम सौभाग्यरूप यह पातिव्रत्य आदि सब सद्गुणसमूह जिस प्रकार प्राप्त किया था, वह बताता हूँ, सुनो। प्राचीन काल ही बात है, मद्रप्रदेश में एक परम धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। वे ब्राह्मण-भक्त, विशालहृदय, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। वे यज्ञ करने वाले, दानाध्यक्ष, कार्य-कुशल, नगर और जनपद के लोगों के परमप्रिय तथा सम्पूर्ण भूतों के हित में तत्पर रहने वाले भूपाल थे। उनका नाम अश्वपति था। राजा अश्वपति क्षमाशील, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होने पर भी संतानहीन थे। बहुत अधिक अवस्था बीत जाने पर इसके कारण उनके मन में बड़ा संताप हुआ। अतः उन्होंने संतान की उत्पत्ति के लिये बड़े कठोर नियमों का आश्रय लिया। वे विभिन्न समय पर थोड़ा-सा भोजन करते और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियों को संयम में रखते थे। राजाओं में श्रेष्ठ अश्वपति ब्राह्मणों के साथ प्रतिदिन गायत्री मन्त्र से एक लाख आहुति देकर दिन के छठे भग में परिमित भोजन करते थे। उनको इस नियम से रहते हुए अठारह वर्ष बीत गये। अठारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर सावित्री देवी संतुष्ट हुई। राजन्! तब मूर्तिमती सावित्री देवी ने अग्निहोत्र की अग्नि से प्रकट होकर बड़े हर्ष के साथ राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दिया और वर देने के लिये उद्यत हो अनुष्ठान के नियमों में स्थित उस राजा अश्वपति से इस प्रकार कहा।
सावित्री बोली ;- राजन्! मैं तुम्हारे विशुद्ध ब्रह्मचर्य, इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह तथा सम्पूर्ण हृदय से की हुई भक्ति के द्वारा बहुत संतुष्ट हुई हूँ। मद्रराज अश्वपते! तुम्हें जो अभीष्ट हो, वह वर माँगो। धर्मों के पालन में तुम्हें कभी किसी तरह भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
अश्वपति ने कहा ;- देवि! मैंने धर्मप्राप्ति की इच्छा से संतान के लिये यह अनुष्ठान आरम्भ किया था। आपकी कृपा से मुझे बहुत से वंशप्रवर्तक पुत्र प्राप्त हों। देवि! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपसे संतान सम्बन्धी वर ही माँगता हूँ; क्योंकि द्विजातिगण मुझसे बराबर यही कहते हैं कि ‘न्याययुक्त संतानोत्पादन (भी) परम धर्म है’।
सावित्री बोली ;- राजन्! मैंने पहले ही तुम्हारे इस अभिप्राय को जानकर पुत्र के लिये भगवान ब्रह्माजी से निवेदन किया था। अतः सौम्य! भगवान ब्रह्माजी के कृपाप्रसाद से तुम्हें शीघ्र ही इस पृथ्वी पर एक तेजस्विनी कन्या प्राप्त होगी। इस विषय में तुम्हें किसी तरह भी कोई प्रतिवाद या उत्तर नहीं देना चाहिये। मैं ब्रह्माजी की आज्ञा से संतुष्ट होकर तुमसे यह बात कहती हूँ।'
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 19-35 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! सावित्री देवी की बात सुनकर राजा ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा का पालन करने की प्रतिज्ञा की और पुनः सावित्री देवी को इस उद्देश्य से प्रसन्न किया कि यह भविष्यवाणी शीघ्र सफल हो। जब सावित्री देवी अन्तर्धान हो गयीं, तब वीर राजा अश्वपति भी अपने नगर को चले गये और प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हुए अपने राज्य में ही रहने लगे। नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले अश्वपति ने किसी समय अपनी धर्मपरायणा बड़ी रानी में गर्भ स्थापित किया।
भरतश्रेष्ठ! अश्वपति की पत्नी मालव देश की राजकुमारी थीं। उनका वह गर्भ आकाश में शुक्लपक्षीय चन्द्रमा की भाँति दिनोंदिन बढ़ने लगा। समय प्राप्त होने पर महारानी ने एक कमलनयनी कन्या को जन्म दिया तथा नृपश्रेष्ठ अश्वपति ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसके जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न करवाये। सावित्री ने प्रसन्न होकर उस कन्या को दिया था तथा गायत्री मन्त्र द्वारा आहुति देने से ही सावित्री देवी प्रसन्न हुई थीं, अतः ब्राह्मणों तथा पिता ने उस कन्या का नाम ‘सावित्री’ ही रक्खा। वह राजकन्या मूर्तिमती लक्ष्मी के समान बढ़ने लगी और यथासमय उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके शरीर का कटिभाग परम सुन्दर तथा नितम्ब देश पृथुल था। वह सुवर्ण की बनी हुई प्रतिमा-सी जान पड़ती थी। उसे देखकर सब लोग यही मानते थे कि यह कोई देवकन्या आ गयी है। उसके नेत्रयुगल विकसित नील कमलदल के समान मनोहर थे। वह अपने तेज से प्रज्वलित-सी जान पड़ती थी। उसके तेज से प्रतिहत हो जाने के कारण कोई भी राजा या राजकुमार उसका वरण नहीं कर सका।
एक दिन किसी पर्व के अवसर पर उपवासपूर्वक सिर से स्नान करके सावित्री देवता के दर्शन के लिये गयी और विधिपूर्वक अग्नि में आहुति दे उसने ब्राह्मणों से स्वस्तिवचन कराया। तदनन्तर इष्टदेवता का प्रसाद लेकर मूर्तिमती लक्ष्मी देवी के समान सुशोभित होती हुई वह अपने महात्मा पिता के समीप गयी।। पहले प्रसाद आदि निवेदन करके उसने पिता के चरणों में प्रणाम किया। फिर वह सुन्दरी कन्या हाथ जोड़कर पिता के पार्श्वभाग में खड़ी हो गयी। अपनी देवस्वरूपिणी पुत्री को युवावस्था में प्रविष्ट हुई देख और अभी तक इसके लिये किसी वर ने याचना नहीं की, यह सोचकर मद्रनरेश को बड़ा दुःख हुआ।
राजा बोले ;- बेटी! अब किसी वर के साथ तेरा ब्याह कर देने का समय आ गया है, परंतु (तेरे तेज से प्रतिहत हो जाने के कारण)
कोई भी मुझसे तुझे माँग नहीं रहा है। इसलिये तू स्वयं ही ऐसे वर की खोज कर ले, जो गुणों में तेरे समान हो। जिस पुरुष को तू पतिरूप में प्राप्त करना चाहे, उसका मुझे परिचय दे देना; फिर मैं सोच-विचारकर उसके साथ तेरा ब्याह कर दूँगा। तू मनोवान्छित वर का वरण कर ले। कल्याणि! मैंने ब्राह्मणों के मुख से धर्मशास्त्र की जो बात सुनी है, उसे बता रहा हूँ, तू भी सुन ले,,
राजा फिर बोले ;- ‘विवाह के योग्य हो जाने पर कन्या का दान न करने वाला पिता निन्दनीय है। ऋतुकाल में पत्नी के साथ समागम न करने वाला पति निन्दा का पात्र है तथा पति के मर जाने पर विधवा माता की रक्षा न करने वाला पुत्र धिक्कार के योग्य है।’
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 36-41 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
मेरी यह बात सुनकर तू पति की खोज करने में शीघ्रता कर। ऐसी चेष्टा कर, जिससे मैं देवताओं की दृष्टि में अपराधी न बनूँ।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! पुत्री से ऐसा कहकर राजा ने बूढ़े मन्त्रियों को आज्ञा दी,
राजा बोले ;- ‘आप लोग यात्रा के लिये आवश्यक सामग्री (वाहन आदि) लेकर सावित्री के साथ जायें’।
मनस्विनी सावित्री ने कुछ लज्जित होकर पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बिना कुछ सोच-विचार किये उसने प्रस्थान कर दिया। सुवर्णमय रथ पर सवार हो बूढ़े मन्त्रियों से घिरी हुई वह राजकन्या राजर्षियों के सुरम्य तपोवनों में गयी।
तात! वहाँ माननीय वृद्धजनों की चरण वन्दना करके उसने क्रमशः सभी वनों में भ्रमण किया। इस प्रकार राजकुमारी सावित्री सभी तीर्थों में जाकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को धन दान करती हुई विभिन्न देशों में घूमती फिरी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)
दौ सौ चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्नवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-20 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
“सावित्री का सत्यवान् के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय”
मार्कण्डेयजी कहते हैं ;- भरतनन्दन युधिष्ठिर! एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि नारद जी के साथ मिलकर बातें कर रहे थे। उसी समय सावित्री सब तीर्थों और आश्रमों में घूम फिरकर मन्त्रियों के साथ अपने पिता के घर आ पहुँची। वहाँ पिता को नारद जी के साथ बैठे हुए देखकर शुभलक्षणा सावित्री ने दोनों के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया।
नारद जी ने पूछा ;- राजन्! आपकी यह पुत्री कहाँ गयी थी और कहाँ से आ रही है, अब तो यह युवती हो गयी है। आप किसी वर के साथ इसका विवाह क्यों नहीं कर देते हैं?
अश्वपति ने कहा ;- देवर्षे! इसे मैंने इसी कार्य से भेजा था और यह अभी-अभी लौटी है। इसने अपने लिये जिस पति का वरण किया है, उसका नाम इसी के मुख से सुनिये।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! पिता के यह कहने पर कि ‘बेटी! तू अपनी यात्रा का वृत्तान्त विस्तार के साथ बताना’, शुभलक्षणा सावित्री उनकी आज्ञा मानकर उस समय इस प्रकार बोली।
सावित्री ने कहा ;- पिताजी! शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से प्रसिद्ध एक धर्मात्मा क्षत्रिय राजा राज्य करते थे। पीछे वे अंधे हो गये।
यह अवसर पाकर उनके पूर्वशत्रु एक पड़ोसी राजा ने आक्रमण किया और उन बुद्धिमान नरेश का राज्य हर लिया। तब अपनी छोटी अवस्था के पुत्र वाली पत्नी के साथ वे वन में चले आये और विशाल वन के भीतर रहकर बड़े-बड़े व्रतों का पालन करते हुए तपस्या करने लगे। उनके एक पुत्र हैं सत्यवान, जो पैदा तो नगर में हुए हैं, परंतु उनका पालन-पोषण एवं संवर्धन तपोवन में हुआ है। वे ही मेरे योग्य पति हैं। उन्हीं का मैंने मन-ही-मन वरण कर लिया है। इस राजकुमार के पिता सदा सत्य बोलते हैं। इसकी माता भी सत्यभाषण करती है। इसलिये ब्राह्मणों ने इसका नाम ‘सत्यवान’ रख दिया है। इस बालक को अश्व बहुत प्रिय हैं। यह मिट्टी के अश्व बनाया करता है और चित्र लिखते समय भी अश्वों को ही अंकित करता है, अतः इसे ‘चित्राश्व’ भी कहते हैं।
राजा ने पूछा ;- देवर्षे! इस समय पितृभक्त राजकूमार सत्यवान तेजस्वी, बुद्धिमान्, क्षमावान् और शूरवीर तो हैं न?
नारद जी ने कहा ;- वह राजकुमार सूर्य के समान तेजस्वी, बृहस्पति के समान बुद्धिमान, इन्द्र के समान वीर और पृथ्वी के समान क्षमाशील है।
अश्वपति ने पूछा ;- क्या राजपुत्र सत्यवान दानी, ब्राह्मणभक्त, रूपवान, उदार अथवा प्रियदर्शन भी है?
नारद जी ने कहा ;- सत्यवान अपनी शक्ति के अनुसार दान देने में संकृतिनन्दन रन्तिदेव के समान है तथा उशीनर पुत्र शिवि के समान ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी है। वह ययाति की भाँति उदार और चन्द्रमा के समान प्रियदर्शन है। द्युमत्सेन का वह बलवान् पुत्र रूपवान तो इतना है मानो अश्विनीकुमारों में से ही एक हो। वह जितेन्द्रिय, मृदुल, शूरवीर, सत्यस्वरूप, इन्द्रियसंयमी, सबके प्रति मैत्रीभाव रखने वाला, अदोषदर्शी, लज्जावान और कान्तिमान् है। तप और शील में बढ़े हुए वृद्ध पुरुष संक्षेप में उसके विषय में ऐसा कहते हैं कि राजकुमार सत्यवान में सरलता का नित्य निवास है और उस सद्गुण में उसकी अविचल स्थिति है।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 21-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
अश्वपति बोले ;- भगवन्! आप तो उसे सभी गुणों से सम्पन्न ही बता रहे हैं, यदि उसमें कोई दोष हों तो उन्हें भी बताइये।
नारद जी ने कहा ;- दोष तो एक ही है, जो उसके सभी गुणों को दबाकर स्थित है। उस दोष को प्रयत्न करके भी हटाया नहीं जा सकता। आज से लेकर एक वर्ष पूर्ण होने तक सत्यवान की आयु पूर्ण हो जायेगी और वह शरीर त्याग देगा। केवल यही दोष उसमें है, दूसरा नहीं।
राजा बोले ;- बेटी सावित्री! यहाँ आ। शोभने! तू पुनः यात्रा का और दूसरे किसी पुरुष का वरण कर ले। सत्यवान का यह एक ही बहुत बड़ा दोष है, जो उसके सभी गुणों को दबाकर स्थित है। जैसा कि देववन्दित भगवान नारद जी कह रहे हैं, सत्यवान की आयु बहुत थोड़ी है और वह एक ही वर्ष में देहत्याग कर देगा।
सावित्री बोली ;- भाइयों में धन का बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है तथा श्रेष्ठ दाता ‘मैं दूँगा’, यह कहकर एक ही वचनदान करता है। ये तीन बातें एक-एक बार ही होती हैं। सत्यवान दीर्घायु हों या अल्पायु, गुणवान् हों या गुणहीन; मैंने उन्हें एक बार अपना पति चुन लिया। अब मैं दूसरे किसी पुरुष का वरण नहीं कर सकती। पहले मन में निश्चय करके फिर वाणी द्वारा कहा जाता है। तत्पश्चात् उसे कार्यरूप में परिणत किया जाता है, अतः इस विषय में मेरा मन ही प्रमाण है।
नारद जी बोले ;- नरश्रेष्ठ! आपकी पुत्री सावित्री की बुद्धि स्थिर है। इसे इस धर्ममार्ग से किसी तरह हटाया नहीं जा सकता। सत्यवान में जो गुण हैं, वे दूसरे किसी पुरुष में हैं भी नहीं। अतः मुझे आपकी पुत्री का सत्यवान के साथ विवाह कर देना ठीक मालूम पड़ता है।
राजा बोले ;- देवर्षे! आपने जो बात कही है, यह ठीक है। उसे टाला नहीं जा सकता। अतः मैं ऐसा ही करूँगा, क्योंकि आप मेरे गुरु हैं।
नारद जी ने कहा ;- राजन्! आपकी पुत्री सावित्री के विवाह में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न आये। अच्छा, अब मैं चलता हूँ। आप सब लोगों का कल्याण हो।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर नारद जी उठे और स्वर्गलोक में चले गये। इधर राजा भी अपनी पुत्री क विवाह की तैयारी कराने लगे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ चैरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्य पर्व)
दौ सौ पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चनवत्यधिकद्विशततम अध्याय के1-17 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
“सत्यवान और सावित्री का विवाह तथा सावित्री का अपनी सेवाओं द्वारा सबको संतुष्ट करना”
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर कन्यादान के विषय में नारद जी के ही कथन पर विचार करते हुए राजा अश्वपति ने विवाह के लिये सारी सामग्री एकत्र करवायी। फिर उन्होंने बूढ़े ब्राह्मणों, समस्त ऋत्विजों तथा पुराहितों को बुलाकर किसी शुभ दिन में कन्या के साथ तपोवन को प्रस्थान किया। पवित्र वन में द्युमत्सेन के आश्रम के निकट पहुँचकर राजा अश्वपति ब्राह्मणों के साथ पैदल ही उन राजर्षि के पास गये। वहाँ उन्होंने उन महाभाग नेत्रहीन नरेश को शालवृक्ष के नीचे एक कुश की चटाई पर बैठे देखा। राजा अश्वपति ने राजर्षि द्युमत्सेन की यथायोग्य पूजा की और वाणी को संयम में रखकर उन्होंने उनके समक्ष अपना परिचय दिया। तब धर्मज्ञ राजा द्युमत्सेन ने मद्रराज अश्वपति को अर्घ्य, आसन और गौ निवेदन करके उनसे पूछा,
द्युमत्सेन बोले ;- ‘किस उद्देश्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है?’ तब राजा ने उनसे सत्यवान के उद्देश्य से अपना सारा अभिप्राय तथा कैसे-कैसे क्या-क्या करना है, इत्यादि बातों का विवरण सब कुछ स्पष्ट बता दिया।
अश्वपति बोले ;- धर्मज्ञ राजर्षे! सावित्री नाम से प्रसिद्ध मेरी यह सुन्दरी कन्या है। इसे आप धर्मतः अपनी पुत्रवधू बनाने के लिये स्वीकार करें।
द्युमत्सेन बोले ;- महाराज! हम राज्य से भ्रष्ट हो चुके हैं एवं वन का आश्रय लेकर संयम-नियम के साथ तपस्वी जीवन बिताते हुए धर्म का अनुष्ठान करते हैं। आपकी कनया ये सब कष्ट सहन करने के योग्य नहीं है। ऐसी दशा में यह आश्रम में रहकर वनवास के इस कष्ट को कैसे सह सकेगी?
अश्वपति ने कहा ;- राजन्! सुख और दुःख तो उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं। इस बात को मैं और मेरी पुत्री दोनों जानते हैं। मेरे जैसे मनुष्य से आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। मैं तो सब प्रकार से निश्चय करके ही आपके पास आया हूँ। मैं सौहार्द भाव से आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी आशा भग्न न करें- प्रेमपूर्वक अपने पास आये हुए मुझ प्रार्थी को निराश न लौटावें। आप सर्वथा मेरे अनुरूप और योग्य हैं। मैं भी आपके योग्य हूँ। आप मेरी इस कन्या को अपने श्रेष्ठ पुत्र सत्यवान की पत्नी एवं अपनी पुत्रवधू के रूप में ग्रहण कीजिये।
द्युमत्सेन बोले ;- महाराज! मैं तो पहले ही आपके साथ सम्बन्ध करना चाहता था; परंतु इस समय अपने राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ, यह सोचकर मैंने ऐसा विचार कर लिया था कि अब यह सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। किंतु मेरा यह अभिप्राय, जो मुझे पहले से ही अभीष्ट था, यदि आज भी सिद्ध होना चाहता है, तो अवश्य हो। आप मेरे मनोवांछित अतिथि हैं। तदनन्तर उस आश्रम में रहने वाले सभी ब्राह्मणों को बुलाकर दोनों राजाओं ने सत्यवान-सावित्री का विवाह संस्कार विधिवत् सम्पन्न कराया। राजा अश्वपति दहेज सहित कन्यादान देकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अपनी राजधानी लौट गये। उस सर्वगुणसम्पन्न भार्या को पाकर सत्यवान को बड़ी प्रसन्नता हुई और सत्यवान को अपने मनोवांछित पति के रूप में पाकर सावित्री को भी बड़ा आनन्द हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चनवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 18-23 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)
पिता के चले जाने पर सावित्री अपने सब आभूषण उतार कर वल्कल तथा गेरुआ वस्त्र पहनने लगी। सावित्री ने सेवा, गुण, विनय, संयम और सब के मन के अनुसार कार्य करने से सभी को प्रसन्न कर लिया।
उसने शारीरिक सेवा तथा वस्त्राभूषण आदि के द्वारा सास को और वाणी के संयमपूर्वक देवोचित सत्कार द्वारा ससुर को संतुष्ट किया। इसी प्रकार मधुर सम्भाषण, कार्य-कुशलता, शान्ति तथा एकान्त सेवा द्वारा पतिदेव को भी सदा प्रसन्न रक्खा।
भरतनन्दन! इस प्रकार उन सब लोगों को उस आश्रम में रहकर तपस्या करते कुछ काल व्यतीत हो गया।। इधर सावित्री निरन्तर चिन्ता से गली जा रही थी। दिन-रात सोते-उठते हर समय नारद जी की कही हुई बात उसके मन में बनी रहती थी। वह उसे क्षण भर के लिये भी नहीं भूलती थी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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