सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ छियासीवें अध्याय से दौ सौ नब्बेवें अध्याय तक (From the 286 to the 290 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“प्रहस्त और धूम्राक्ष के वध से दु:खी हुए रावण का कुम्भकर्ण को जगाना ओर उसे युद्ध में भेजना”

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर युद्ध में निष्ठुर पराक्रम दिखाने वाले प्रहस्त ने सहसा विभीषण के पास पहुँचकर गर्जना करते हुए उन पर गदा से आघात किया। भयानक वेग वाली उस गदा से आहत होकर भी बुद्धिमान महाबाहु विभीषण विचलित नहीं हुए। वे हिमालय के समान सुस्थिर भाव से खड़े रहे। तत्पश्चात् विभीषण ने एक विशाल महाशक्ति हाथ में ली, जिसमें शोभा के लिये सौ घंटियाँ लगी हुई थीं। उसे अभिमन्त्रित करके उन्होंने प्रहस्त के मस्तक पर दे मारा। विद्युत के समान वेग वाली उस महाशक्ति का वेगपूर्वक आघात होते ही राक्षस प्रहस्त का मस्तक धड़ से अलग हो गया और वह आँधी के द्वारा उखाड़े हुए वृक्ष की भाँति धराशायी दिखायी देने लगा। निशाचर प्रहस्त को युद्ध में मारा गया देख धूम्राक्ष बड़े वेग से वानरों की ओर दौड़ा। मेघों की काली घटा के समान भयानक दिखायी देने वाली उसकी सेना को आते देख सभी श्रेष्ठ वानर सहसा भयभीत होकर यूद्ध से भाग चले।

     उन भयभीत प्रमुख वानरों को सहसा पलायन करते देख कपिकेसरी मारुतनन्दन हनुमान जी धूम्राक्ष का सामना करने के लिये आगे बढ़े। राजन्! पवन कुमार को युद्ध के लिये उपस्थित देख सभी वानर सब ओर से बड़ी उतावली के साथ लौट आये। फिर तो एक-दूसरे पर धावा बोलती हुई श्रीराम तथा रावण की सेनाओं का अत्यन्त भयंकर रोमांचकारी कोलाहल आरम्भ हो गया। उस घोर संग्राम में धरती पर रक्त की कीच जम गयी थी। इसी समय धूम्राक्ष अपने बाणों से उस वानर सेना को खदेड़ने लगा। तब शत्रुविजयी पवननन्दन हनुमान ने अपनी ओर आते हुए उस विशालकाय राचक्ष को बड़े वेग से धर दबाया। उन दोनों वानर तथा राक्षस वीरों में भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे इन्द्र हौर प्रह्लाद की भाँति युद्ध करके एक-दूसरे को जीतना चाहते थे। निशाचर धूम्राक्ष ने गदाओं तथा परिघों द्वारा कपिवर हनुमान जी को चोट पहुँचायी और हनुमान जी ने उन राक्षस पर तने और डालियों सहित वृक्षों से प्रहार किया। तदनन्तर मारुतनन्दन हनुमान जी ने अत्यन्त कुपित हो घोड़े, रथ और सारथि सहित धूम्राक्ष को मार डाला। राक्षसप्रवर धूम्राक्ष को मारा गया देख अन्य वानर तथा भालुओं को अपनी शक्ति पर विश्वास हुआ और वे उत्साहपूर्वक राक्षसों को मारने लगे।

     विजय से उल्लसित हुए बलवान् वानर वीरों की मार खाकर राक्षस हताश हो गये और भय के मारे लंका की ओर भाग चले। मरने से बचे हुए उन निशाचरों ने भग्नमनोरथ होकर लंकापुरी में प्रवेश किया तथा रावण के समीप जाकर युद्ध का सब समाचार ज्यों का त्यों निवेदन कर दिया। उनके मुख से श्रेष्ठ वानर वीरों द्वारा युद्ध में सेना सहित प्रहस्त तथा महाधनुर्धर धूम्राक्ष के मारे जाने का वृत्तान्त सुनकर रावण बड़ी देर तक शोक भरे उच्छ्वास लेता रहा। फिर वह अपने श्रेष्ठ सिंहासन से उछलकर खड़ा हो गया और बोला,

   रावण बोला ;- ‘अब यह कुम्भकर्ण के पराक्रम दिखलाने का समय आ गया है’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षडशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)

     ऐसा कहकर रावण ने अत्यन्त बजने वाले भाँति-भाँति के बाजे बजवाकर अधिक नींद लेने वाले सोये हुए कुम्भकर्ण को जगाया। महान् प्रयत्न द्वारा उसे जगाकर भयभीत हुए राक्षसराज रावण ने, जब महाबली कुम्भकर्ण स्वस्थ, शान्त तथा निद्रारहित होकर बैठ गया, तब उससे इस प्रकसार कहा,

   कुम्भकर्ण बोला ;- ‘भैया कुम्भकर्ण! तुम धन्य हो, जिसे ऐसी नींद आती है। हम लोगों पर जो यह अत्यन्त दारुण एवं महान् भय उपस्थित हुआ है, इसका तुम्हें पता ही नहीं है।

     यह राम सेतु द्वारा समुद्र को लाँघकर हम लोगों की अवहेलना करके वानरों के साथ यहाँ आ पहुँचा है और राक्षसों का महासंहार कर रहा है। मैंने इसकी पत्नी जनककुमारी सीता का अपहरण किया था। उसे वापस लेने के लिये ही राम महासागर पर पुल बाँधकर यहाँ आया है। उसने हमारे प्रहस्त आदि प्रमुख स्वजनों को मार डाला है।

     शत्रुसूदन! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो उसको मार सके। बलवानों में श्रेष्ठ वीर! तुम शत्रुओं का दमन करने वाले हो। आज कवच धारण करके निकलो तथा राम आदि समस्त शत्रुओं का समरभूमि में संहार कर डालो। दूषण के छोटे भाई वज्रवेग और प्रमाथी अपनी विशाल सेना के साथ तुम्हारा अनुसरण करेंगे’।

     वेगशाली वीर कुम्भकर्ण से ऐसा कहकर राक्षसराज रावण ने वज्रवेग और प्रमाथी को युद्ध में क्या-क्या करना है, इन सब बातों को समझाया और उनके पालन का आदेश दिया। दूषण के दोनों वीर भाई रावण से ‘तथास्तु’ कहकर कुम्भकर्ण को आगे करके तुरंत नगर से बाहर निकले।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोपाख्यानपर्व में कुम्भकर्ण का युद्ध के लिये प्रस्थान विषयक दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ सत्तासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

“कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध”

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! सेवकों सहित अपने नगर से निकलकर कुम्भकर्ण ने अपने सामने खड़ी हुई वानर सेना को देखा, जो विजय के उल्लास से सुशोभित हो रही थी। फिर जब उसने भगवान श्रीराम के दर्शन की इच्छा से सेना में इधर-उधर दृष्टि डाली, तब उसे हाथ में धनुष लिये सुमित्रानन्दन लक्ष्मण खड़े दिखायी दिये। इतने में ही वानरों ने चारों ओर से आकर कुम्भकर्ण को घेर लिया और


बहुत-से बड़े-बड़े पेड़ उखाड़कर उन्हीं के द्वारा उस पर प्रहार करने लगे। कुछ वानरों ने कुम्भकर्ण से प्राप्त होने वाले महान् भय की परवा न करके उसको नखों से पीड़ा देनी प्रारम्भ की। युद्ध की विभिन्न प्रणालियों द्वारा अनेक प्रकार से युद्ध करते हुय वानर सैनिक भाँति-भाँति के भयंकर आयुधों द्वारा राक्षसराज कुम्भकर्ण को चोट पहुँचाने लगे। वानरों के प्रहार करने पर वह जोर-जोर से हँसने और उन्हें पकड़-पकड़ कर खाने लगा। देखते-देखते बल, चण्डबल और वज्रबाहु नामक वानर उसके मुख के ग्रास बन गये।

     राक्षस कुम्भकर्ण का यह दुःखदायी कर्म देखकर तार आदि वानर भयभीत हो जोर-जोर से चीत्कार करने लगे। अपने सैनिक तथा वानर यूथपतियों का वह उच्च स्वर से किया जाता हुआ चीत्कार सुनकर सुग्रीव निर्भय हो कुम्भकर्ण की ओर दौड़े। महामना कपिश्रेष्ठ सुग्रीव ने बड़े वेग से उछलकर एक शालवृक्ष के द्वारा कुम्भकर्ण के मस्तक पर बलपूर्वक प्रहार किया। कपिश्रेष्ठ सुग्रीव का हृदय महान् था। उनका वेग भी महान् था। उन्होंने कुम्भकर्ण के मस्तक पर पटक कर उस शाल वृक्ष को दो टूक कर डाला; तथापि वे उसे व्यथा न पहुँचा सके। शाल के स्पर्श से कुम्भकर्ण कुछ सावधान हो गया। उसने सहसा गर्जना करके सुग्रीव को दोनों हाथों से बलपूर्वक धर दबाया और अपने साथ ले लिया। राक्षस कुम्भकर्ण के द्वारा सुग्रीव का अपहरण होता देख मित्रों का आनन्द बढ़ाने वाले सुमित्रानन्दन वीरवर लक्ष्मण उसकी ओर दौड़े।

     शत्रुवीरों का संहार करने वाले लक्ष्मण ने कुम्भकर्ण के सामने जाकर उसको लक्ष्य करके सुवर्णमय पंख से सुशोभित एक


महावेगशाली महान् बाण चलाया। वह बाण उसके कवच को काटकर शरीर को छेदता हुआ रक्तरंजित हो धरती को चीरकर उसमें समा गया। इस प्रकार घाती छिद जाने के कारण महाधनुर्धर कुम्भकर्ण ने वानरराज सुग्रीव को तो छोड़ दिया और बड़े वेग से लक्ष्मण की ओर घूमकर कहा,

      कुम्भकर्ण बोला ;- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह। तत्पश्चात् एक बहुत बड़ी शिला लेकर वह सुमित्रानन्दन लक्ष्मण की ओर दौड़ा। तब लक्ष्मण ने भी बड़ी शीघ्रता के साथ तीखी घार वाले दो क्षुर नामक बाण मारकर अपनी ओर आते हुए कुम्भकर्ण की ऊपर उठी हुई दोनों भुजाओं को काट डाला। उनके कटते ही वह चार भुजाओं से युक्त हो गया। उन चार भुजाओं में भी उसने आयुध के रूप में अड़ी-बड़ी चट्टानें उठा लीं। यह देख सुतित्रानन्दन ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए फिर से पूर्वोक्त बाण मारकर उसकी उन चारों भुजाओं को भी काट दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद)

     अब उसने अपना शरीर बहुत बड़ा बना लिया। उसके अनेक पैर, अनेक सिर और अनेक भुजाएँ हो गयीं। यह देख लक्ष्मण ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर पर्वत समूह के समान विशाल शरीर वाले उस राक्षस को चीर डाला। जैसे महान् भयंकर बिजली के आघात से शाखाओं और पत्तों सहित वृक्ष दग्ध हो जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मण के दिव्यास्त्र से आहत होकर महापराक्रमी कुम्भकर्ण रणभूमि में गिर पड़ा। वृत्रासुर के समान वेगशाली कुम्भकर्ण को प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर देख सब राक्षस भय के मारे भाग चले। अपने सैनिकों को इस प्रकार भागते देख दूषण के दोनों भाई- वज्रवेग और प्रमाथी ने किसी प्रकार उन्हें रोककर खड़ा किया और अत्यन्त कुपित हो सुमित्राकुमार लक्ष्मण पर धावा बोल दिया। क्रोध में भरे हुए वज्रवेग और प्रमाथी को अपनी ओर आते देख लक्ष्मण ने बड़े जोर का सिंहनाद किया और उन दोनों की गति को बाणों द्वारा रोक दिया।

     युधिष्ठिर! फिर तो दूषण के भाइयों तथा बुद्धिमान लक्ष्मण में ऐसा भयंकर युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। लक्ष्मण उन दोनों राक्षसों पर बाणों की बड़ी भारी वर्षाकर रहे थे और व दोनों वीर राक्षस भी अत्यन्त कुपित होकर लक्ष्मण पर बाणों की बौछार करते थे। इस प्रकार वज्रवेग और प्रमाथी और महाबाहु लक्ष्मण का वह भयंकर संग्राम दो घड़ी तक अबाध गति से चलता रहा। इसी बीच वायुनन्दन हनुमान ने पर्वत शिला हाथ में लेकर वज्रवेग नामक राक्षस के ऊपर आक्रमण किया और उसके प्राण ले लिये।

     महाबली नील नामक वानर ने एक विशाल चट्टान लेकर दूषण के दूसरे भाई प्रमाथी पर हमला किया और उसका कचूमर निकाल दिया। तदनन्तर श्रीराम और रावण की सेना में परस्पर आक्रमणपूर्वक भीषण संग्राम आरम्भ हो गया, जो कटु परिणाम का जनक था। वनवासी वानरों ने सैंकड़ों राक्षसों को तथा राक्षसों ने वानरों को घायल किया। उस युद्ध में अधिकांश राक्षस ही मारे जा रहे थे, वानर नहीं।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में कुम्भकर्ण आदि का वध विषयक दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ अट्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के 1-19 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्छा”

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर सेवकों सहित कुम्भकर्ण, महाधनुर्धर प्रहस्त तथा अत्यन्त तेजस्वी धूम्राक्ष को संग्राम में मारा गया सुनकर रावण ने अपने वीर पुत्र इन्द्रजित से कहा,

   रावण बोला ;- ‘शत्रुसूदन! तुम राम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव का वध करो। सुपुत्र! तुमने युद्ध में सहस्र नेत्रों वाले वज्रधारी शचीपति इन्द्र को जीतकर उज्ज्वल यश का उपार्जन किया है। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ शत्रुनाशक वीर! जिनके लिये देवताओं ने तुम्हें वरदान दिया है, ऐसे दिव्यास्त्रों द्वारा प्रकट रूप में या अदृश्य होकर मेरे शत्रुओं का नाश करो। अनध! स्वयं राम, लक्ष्मण और सुग्रीव भी तुम्हारे बाणों का आघात सहन करने में समर्थ नहीं हैं, फिर उनके अनुयायी तो हो ही कैसे सकते हैं? निष्पाप महाबाहो! प्रहस्त और कुम्भकर्ण ने भी खर के वध का जो बदला नहीं चुकाया, उसे युद्ध में तुम चुकाओ। बेटा! तुमने पूर्वकाल में इन्द्र को जीतकर जिस प्रकार मुझे आनन्दित किया था, उसी प्रकार आज तुम तीखे बाणों से सैनिकों सहित शत्रुओं का संहार करके मेरा आनन्द बढ़ाओ’।

   राजन्! रावण के द्वारा ऐसी आज्ञा देने पर इन्द्रजित ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पिता की आज्ञा स्वीकार की और वह कवच बाँध रथ पर बैठकर तुरंत ही संग्राम भूमि की ओर चल दिया। तत्पश्चात् उस राक्षसराज ने स्पष्ट रूप से अपने नाम की घोषणा करके शुभलक्षण लक्ष्मण को युद्ध में ललकारा। तब लक्ष्मण भी धनुष पर बाण चढ़ाये हुए उसकी ओर बड़े वेग से दौड़े और सिंह जैसे छोटे मृगों को डरा देता है, उसी प्रकार वे अपने धनुष की टंकार से सब राक्षसों को त्रास देने लगे। वे दोनों ही विजय की अभिलाषा रखने वाले, दिव्यास्त्रों के ज्ञाता तथा परस्पर बड़ी स्पर्धा रखने वाले थे। उन दोनों में उस समय बड़ा भारी युद्ध हुआ। बलवानों में श्रेष्ठ रावणकुमार इन्द्रजित जब बाण वर्षा करने में लक्ष्मण से आगे न बढ़ सका, तब उसने गुरुतर प्रयत्न आरम्भ किया। उसने अत्यन्त वेगशाली तोमरों की वर्षा करके लक्ष्मण को पीड़ा पहुँचाने की चेष्टा की, परंतु लक्ष्मण ने तीखे बाणों से उन सब तोमरों को पास आते ही काट गिराया।

      लक्ष्मण के तीखे बाणों से टूक-टूक होकर वे तोमर पृथ्वी पर बिखर गये। तब महावेगशाली बालि के पुत्र श्रीमान् अंगद ने एक वृक्ष उठा लिया और दौड़कर इन्द्रजित के मस्तक पर उसे दे मारा; परंतु इन्द्रजित इससे तनिक भी विचलित न हुआ। उस पराक्रमी वीर ने प्रास द्वारा अंगद की छाती में प्रहार करने का विचार किया, किंतु लक्ष्मण ने उसे पहले ही काट गिराया। तब रावणकुमार ने अपने निकट आये हुए वानरश्रेष्ठ वीर अंगद की बायीं पसली में गदा से आघात किया। बलवान् बालिनन्दन अंगद ने इन्द्रजित् के उस गदा प्रहार की कोई परवा न करके उसके ऊपर क्रोधपूर्वक साखू का तना दे मारा। युधिष्ठिर! अंगद के द्वारा इन्द्रजित् के वध के लिये रोषपूर्वक चलाये हुए उस वृक्ष ने उसके सारथि और घोड़ों सहित रथ को नष्ट कर दिया। राजन्! सारथि के मारे जाने पर रावणकुमार इन्द्रजित उस अश्वहीन रथ से कूद पड़ा और माया का आश्रय ले वहीं अन्तर्धान हो गया।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्‍याय के 20-26 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     अनेक प्रकार की माया जानने वाले उस राक्षस को अदृश्य हुआ जान भगवान श्रीराम उस स्थान पर आकर सब ओर से अपनी सेना की रक्षा करने लगे। तब इन्द्रजित ने भगवान श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण के सम्पूर्ण अंगों को देवताओं से वरदान के रूप में प्राप्त हुए बाणों द्वारा क्षत-विक्षत कर दिया।

    यद्यपि रावणपुत्र माया से तिरोहित हो जाने के कारण दिखायी नहीं देता था, तो भी शूरवीर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उसके साथ युद्ध करते ही रहे। इन्द्रजित् ने पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी उन दोनों भाइयों के समस्त अंगों में रोषपूर्ण सैंकड़ों और हजारों बाणों की बारंबार वृष्टि की। वानरों ने देखा कि वह राक्षस छिपकर निरन्तर बाणों की झड़ी लगा रहा है, तब वे हाथों में बड़ी-बड़ी शिलाएँ लिये आकाश में उड़ गये और उसकी खोज करने लगे।

    रावणकुमार अपनी माया से आवृत होने के कारण स्वयं किसी की दृष्टि में नहीं आता था; परंतु वह उन दोनों भाइयों को तथा सम्पूर्ण वानरों को भी निरन्तर अपने बाणों द्वारा घायल कर रहा था। वे दोनों बन्धु श्रीराम और लक्ष्मण ऊपर से नीचे तक बाणों से व्याप्त हो गये थे; अतः आकाश से गिरे हुए सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इस पृथ्वी पर गिर पड़े।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में इन्द्रजित् युद्ध विषयक दो सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ नवासीवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टाशीत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-18 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

    “श्रीराम-लक्ष्मण का सचेत होकर कुबेर के भेजे हुए अभिमन्त्रित जल से प्रमुख वानरों सहित अपने नेत्र धोना, लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित् का वध एवं सीता को मारने के लिये उद्यत हुए रावण का अविन्ध्य के द्वारा निवारण करना”

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! उन दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण को पृथ्वी पर पड़े देख रावणकुमार इन्द्रजित ने जिनके लिये देवताओं का वर प्राप्त था, उन बाणों द्वारा उन्हें सब ओर से बाँध लिया। इन्द्रजित द्वारा बाणों के बन्धन से बँधे हुए वे दोनों वीर पुरुषसिंह श्रीराम और लक्ष्मण पिंजड़े में बंद हुए दो पक्षियों की भाँति शोभा पा रहे थे। उन दोनों को सैंकड़ों बाणों से व्याप्त एवं पृथ्वी पर पड़े देख वानरों सहित सुग्रीव उन्हें सब ओर से घेरकर खड़े हो गये। सुषेण, मैन्द, द्विविद, कुमुद, अंगद, हनुमान, नील, तार तथा नल के साथ कपिराज सुग्रीव उन दोनों बन्धुओं की रक्षा करने लगे। तदनन्तर अपने कर्तव्य कर्म को पूरा करके विभीषण उस स्थान पर आये। उन्होंने प्रज्ञास्त्र द्वारा उन दोनों वीरों को होश में लाकर जगाया। फिर सुग्रीव ने दिव्य मन्त्रों द्वारा विशल्या नामक महौषधि द्वारा उनके अंगों से बाण निकालकर उन्हें क्षण भर में स्वस्थ कर दिया। होश में आ जाने पर वे दोनों महारथी वीर बाणों से रहित हो आलस्य और थकावट त्यागकर क्षण भर में उठ खड़े हुए।

    युधिष्ठिर! तदनन्तर विभीषण ने इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्र जी को नीरोग एवं स्वस्थ देख हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा,
    विभीषण बोला ;- ‘शत्रुदमन! राजाधिराज कुबेर की आज्ञा से एक गुह्यक यह जल लिये हुए श्वेतपर्वत से चलकर आपके समीप आया है।

परंतप! महाराज कुबेर आपको यह जल इस उद्देश्य से समर्पित कर रहे हैं कि आप इसे नेत्रों में लगाकर माया से अदृश्य हुए प्राणियों को देख सकें। उन्होंने कहा है कि आप इस जल से अपने दोनों नेत्र धोकर अदृश्य प्राणियों को भी देख सकेंगे और आप जिसे यह जल अर्पित करेंगे, वह मनुष्य भी अदृश्य भूतों को देखने में समर्थ होगा’। ‘बहुत अच्छा’ कहकर श्रीरामचन्द्र जी ने वह अभिमन्त्रित जल ले लिया। फिर उन्होंने तथा महामना लक्ष्मण ने भी उससे अपने दोनों नेत्र धोये। सुग्रीव, जाम्बवान, हनुमान, अंगद, मैन्द, द्विविद तथा नील आदि प्रायः सभी प्रमुख वानरों ने उस जल से अपनी-अपनी आँखें धोयीं।
     युधिष्ठिर! जैसा विभीषण ने बताया था, उसका वैसा ही प्रभाव देखने में आया। उन सब की आँखें क्षण भर में अतीन्द्रिय वस्तुओं का साक्षात्कार करने वाली हो गयीं। इन्द्रजित ने उस दिन युद्ध में जो पराक्रम कर दिखाया था, अपने उस वीरोचित कर्म को पिता से बताकर वह पुनः युद्ध के मुहाने की ओर लौटने लगा। उसे क्रोध में भरकर पुनः युद्ध की इच्छा से आते देख विभीषण की सम्मति से लक्ष्मण ने उस पर धावा किया। इन्द्रजित विजय के उल्लास से सुशोभित हो रहा था। अभी उसने नित्यकर्म भी नहीं किया था, उसी अवस्था में सचेत हुए लक्ष्मण ने कुपित होकर उसे मार डालने की इच्छा से उस पर बाणों द्वारा प्रहार करना आरम्भ किया। वे दोनों ही एक-दूसरे को जीतने के लिये उत्सुक थे। उस समय उनमें इन्द्र और प्रह्लाद की भाँति अत्यन्त अद्भुत तथा आश्चर्यजनक युद्ध होने लगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्याय के 19-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

      इन्द्रजित ने तीखे तथा मर्मीदी बाणों द्वारा सुमित्राकुमार को बींध डाला। इसी प्रकार लक्ष्मण ने भी अग्नि के समान दाहक स्पर्श वाले तीखे सायकों द्वारा रावणकुमार इन्द्रजित को घायल कर दिया। लक्ष्मण के बाणों की चोट खाकर रावणकुमार क्रोध से मूर्च्छित हो उठा। उसने उनके ऊपर विषधर साँपों के समान विषैले आठ बाण छोड़े। वीर सुमित्राकुमार ने अग्नि के समान दाहक तीन बाधों द्वारा जिस प्रकार इन्द्रजित् के प्राण लिये, वह बताता हूँ; सुनो।

      एक बाण द्वारा उन्होंने इन्द्रजित की धनुष धारण करने वाली भुजा को काटकर शरीर से अलग कर दिया। दूसरे बाण द्वारा नाराच लिये हुए शत्रु की दूसरी भुजा को धराशायी कर दिया। तत्पश्चात् मोटी धार वाले चमकीले तीसरे बाण से उन्होंने सुन्दर नासिका और शोभाशाली कुण्डलों से विभूषित शत्रु के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। भुजाओं और कंधों के कट जाने से उसका धड़ बड़ा भयंकर दिखायी देता था। इन्द्रजित को मारकर बलवानों में श्रेष्ठ लक्ष्मण अपने अस्त्रों द्वारा उसके सारथि को भी मार गिराया। उस समय घोड़ों ने उस ही ख़ाली रथ को लंकापुरी में पहुँचाया। रावण ने देखा, मेरे पुत्र का रथ उसके बिना ही लौट आया है। तब पुत्र को मारा गया जान भय के मारे रावण का मन उद्भ्रान्त हो उठा। वह शोक और मोह से आतुर होकर विदेहनन्दिनी सीता को मार डालने के लिये उद्यत हो गया। दुष्टात्मा दशानन हाथ में तलवार लेकर अशोक वाटिका में श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा से बैठी हुई सीता के पास बड़े वेग से दौड़ा गया।
       दूषित बुद्धि वाले उस निशाचर के इस पापपूर्ण निश्चय को जानकर मन्त्री अविन्ध्य ने समझा-बुझाकर उसका क्रोध शान्त किया। किस युक्ति से उसने रावण को शान्त किया, यह बताता हूँ, सुनो,,
      मंत्री बोला ;- ‘राक्षसराज! आप लंका के समुज्जवल सम्राट पद पर विराजमान होकर एक अबला को न मारें। यह स्त्री होकर आपके वश में पड़ी है, आपके घर में कैद है; ऐसी दशा में यह तो मरी हुई है। इसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने से ही इसका वध नहीं होगा, ऐसा मेरा विचार है। इसके पति को ही मार डालिये। उसके मारे जाने पर यह स्वतः मर जायेगी। साक्षात् इन्द्र भी पराक्रम में आपकी समानता नहीं कर सकते। आपने अनेक आर युद्ध में इन्द्र सहित संपूर्ण देवताओं को भयभीत (एवं पराजित) किया है।’ इस तरह अनेक प्रकार के वचनों द्वारा अविन्ध्य ने रावण का क्रोध शान्त किया और रावण ने भी उसकी बात मान ली। फिर उस निशाचर ने युद्ध के लिये प्रस्थान करने का निश्चय करके तलवार रख दी और आज्ञा दी- ‘मेरा रथ तैयार किया जाये’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में इन्द्रजित वध विषयक दो सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ नब्बेवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 1-21 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

“राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध”

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! अपने प्रिय पुत्र इन्द्रजित के मारे जाने पर दशमुख रावण का क्रोध बहुत बढ़ गया। वह सुवर्ण तथा रत्नों से विभूषित रथ पर बैठकर लंकापुरी से बाहर निकला। हाथों में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले भयंकर राक्षस उसे घेरकर चले। वह वानर-यूथपतियों से युद्ध करता हुआ श्रीरामचन्द्र जी की ओर दौड़ा। उसे क्रोधपूर्वक आक्रमण करते देख मैन्द, नील, नल, अंगद, हनुमान और जाम्बवान ने सेना सहित आगे बढ़कर उसे चारों ओर से घेर लिया। उन रीछ और वानर सेनापतियों ने दशानन के देखते-देखते वृक्षों की मार से उसकी सेना का संहार आरम्भ कर दिया। अपनी सेना को शत्रुओं द्वारा मारी जाती देख मायावी राक्षसराज रावण ने माया प्रकट की। उसके शरीर से सैंकड़ों और हजारों राक्षस प्रकट होकर हाथों में बाण, शक्ति तथा ऋष्टि आदि आयुध लिये दिखायी देने लगे।

      श्रीरामचन्द्र जी ने अपने दिव्य अस्त्र के द्वारा उन सब राक्षसों को

नष्ट कर दिया। तब राक्षसराज ने पुनः माया की सृष्टि की। भारत! दशानन ने श्रीराम और लक्ष्मण के ही बहुत से रूप धारण करके श्रीराम और लक्ष्मण पर धावा किया। तदनन्तर वे राक्षस हाथों में धनुष बाण लिये श्रीराम और लक्ष्मण को पीड़ा देते हुए उन पर टूट पड़े। राक्षसराज रावण की उस माया को देखकर इक्ष्वाकु कुल का आनन्द बढ़ाने वाले सुमित्राकुमार लक्ष्मण को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्होंने श्रीराम से यह महत्त्वपूर्ण बात कही,
   श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘भगवन्! अपने ही समान आकार वाले इन पापी राक्षसों को मार डालिये।’ तब श्रीराम ने रावण की माया से निर्मित अपने की समान रूप धारण करने वाले उन सबको तथा अन्य राक्षसों को भी मार डाला। इसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हरे रंग के घोड़ों से जुते हुए सूर्य के समान तेजस्वी रथ के साथ उस रणभूमि में श्रीरामचन्द्र जी के समीप आ पहुँचा।
     मातलि बोला ;- 'पुरुषसिंह! यह हरे रंग के घोड़ों से जुता हुआ विजयशाली उत्तम रथ देवराज इन्द्र का है। इस विशाल रथ के द्वारा इन्द्र ने सैंकड़ों दैत्यों और दानवों का समरांगण में संहार किया है। नरश्रेष्ठ! मेरे द्वारा संचालित इस रथ्र पर बैठकर आप युद्ध में रावण को शीघ्र मार डालिये, विलम्ब न कीजिये।'
     मातलि के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्र जी ने उसकी बात पर इसलिये संदेह किया कि कहीं यह भी राक्षस की माया ही न हो। तब विभीषण ने उनसे कहा,
    विभीषण बोला ;- ‘पुरुषसिंह! यह दुरात्मा रावण की माया नहीं है। महाद्युते! आप शीघ्र इन्द्र के इस रथ पर आरूढ़ होइये।’ तब श्रीरामचन्द्र जी ने प्रसन्नतापूर्वक विभीषण से कहा,
      श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘ठीक है।’ यों कहकर उन्होंने रथ पर आरूढ़ हो बड़े रोष के साथ दशमुख रावण पर आक्रमण किया। रावण पर श्रीराम की चढ़ाई होते ही समस्त प्राणी हाहाकार कर उठे, देवलोक में नगारे बज उठे और जोर-जोर से सिंहनाद होने लगा। दशकन्धर रावण तथा राजकुमार श्रीराम में उस समय महान् युद्ध दिड़ गया। उस युद्ध की संसार में अन्यत्र कहीं उपमा नहीं थी। उनका वह संग्राम उन्हीं के संग्राम के समान था। निशाचर रावण ने श्रीराम पर एक त्रिशूल चलाया, जो उठे हुए इन्द्र के वज्र तथा ब्रह्मदण्ड के समान अत्यन्त भयंकर था; परंतु श्रीराम ने तत्काल अपने तीखे बाणों द्वारा उस त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये।

(महाभारत (वन पर्व) नवत्यधिकद्विशततम अध्याय के 22-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

     उनका यह दुष्कर कर्म देखकर दशानन रावण के मन में भय समा गया। फिर कुपित होकर उसने तुरंत ही तीखे सायकों की वर्षा आरम्भ की। उस समय श्रीरामचन्द्र जी के ऊपर भाँति-भाँति के हजारों शस्त्र गिरने लगे तथा भुशुण्डी, शूल, मुसल, फरसे, नाना प्रकार की शक्तियाँ, शतघ्नी और तीखी धार वाले बाणों की वृष्टि होने लगी। राक्षस दशानन की उस विकराल माया को देखकर सब वानर भय के मारे चारों दिशाओं में भाग चले। तब श्रीरामचन्द्र जी ने सोने के सुन्दर पंख तथा उत्तम अग्र भाग वाले एक श्रेष्ठ बाण को तरकस से निकालकर उसे ब्रह्मास्त्र द्वारा अभिमन्त्रित किया।
         श्रीराम द्वारा ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित किये हुए उस उत्तम बाण को देखकर इन्द्र आदि देवता तथा गन्धर्वों के हर्ष की सीमा न रही। शत्रु के प्रति श्रीराम के मुख से ब्रह्मास्त्र का प्रयोग होता देख देवता, दानव और किन्नर यह समझ गये कि अब इस राक्षस की आयु बहुत थोड़ी रह गयी है। तदनन्तर श्रीरामचन्द्र जी ने उठे हुए ब्रह्मदण्ड के समान भयंकर तथा अप्रतिम तेजस्वी उस रावण विनाशक बाण को छोड़ दिया।
      युधिष्ठिर! श्रीराम द्वारा धनुष को दूर तक खींचकर छोड़े हुए उस

बाण के लगते ही राक्षसराज रावण रथ, घोड़े और सारथि सहित इस प्रकार जलने लगा, मानो भयंकर लपटों वाली आग के लपेट में आ गया हो।
      इस प्रकार अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्र जी के हाथों से रावण को मारा गया देख देवता, गन्धर्व तथा चारण बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्तर पाँचों भूतों ने उस महान् भाग्यशाली रावण को त्याग दिया। ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होकर वह सम्पूर्ण लोकों से भ्रष्ट हो गया। उसके शरीर के धातु, मांस तथा रक्त भी ब्रह्मास्त्र से दग्ध होकर नष्ट हो गये। उसकी राख तक नहीं दिखाई दी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में रावण वध विषयक दो सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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