सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) के दौ सौ इक्यासीवें अध्याय से दौ सौ पचासीवें अध्याय तक (From the 281 to the 285 chapter of the entire Mahabharata (van Parva))


सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ इक्यासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“रावण और सीता का संवाद”

      मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर एक दिन जब सीता स्वामी के वियोग के दुःख से पीड़ित हो मैले कपड़े पहने केवल चूड़ामणि मात्र आभूषण धारण किये राक्षसियों से घिरी हुई एक शिला पर बैठी दीनभाव से रो रही थीं, उसी समय देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष और किम्पुरुष किसी से कभी युद्ध में परास्त न होने वाला रावण कामबाण से पीड़ित हो अशोक वाटिका में गया। वहाँ उसने सीता को देखा और कामवेदना से व्यथित होकर चह उनके समीप चला गया। रावण ने दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खे थे। उसके कानों में सुन्दर मणिमय कुण्डल झलक रहे थे। वह विचित्र माला और मुकुट पहने मूर्तिमान वसन्त के समान शोभासम्पन्न जान पड़ता था।

    उसने बड़े यत्न से अपने आप को वस्त्राभूषणों द्वारा सजा रक्खा था, तो भी कल्पवृक्ष के समान आल्हादजनक नहीं जान पड़ता था; अपितु श्मशान भूमि के चैत्यवृक्ष की भाँति भूषित होने पर भी भयानक प्रतीत होता था। सूक्ष्म कटिप्रदेश वाली सीता के समीप खड़ा हुआ वह राक्षस रोहिणी नक्षत्र के निकट पहुँचे हुए शनैश्चर ग्रह के समान भयंकर दिखाई देता था। कामदेव के बाणों से घायल हुआ रावण मृगी के समान भयभीत हुई उस सुन्दरी अबला को सम्बोधित करके इस प्रकार बोला, 

     रावण बोला ;- ‘सीते! आज तक तुमने जो पति पर इतना अनुग्रह दिखाया है, वह बहुत हुआ। तन्वंगि! अब मुझ पर कृपा करो, जिससे तुम्हें श्रृंगार धारण कराया जाये। वरारोहे! मुझे अंगीकार करो और बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से भूषित हो मेरी सब स्त्रियों में श्रेष्ठ तथा सुन्दरी पटरानी बनो। मेरे महल में देवताओं की कन्याएँ, गन्धर्वों की युवती स्त्रियाँ, दानव किशोरियाँ तथा दैत्यों की रमणियाँ मेरी भार्याओं के रूप में विद्यमान हैं। चौदह करोड़ पिशाच मेरी आज्ञा के अधीन रहते हैं। इनसे दूने नरभक्षी राक्षस मेरे सेवक हैं, जो अत्यन्त भयंकर कर्म करने वाले हैं। इनकी अपेक्षा तिगुनी संख्या मेरे आशापालक यक्षों की है। यक्षों में से कुछ ही मेरे भाई धनाध्यक्ष कुबेर की सेवा में रहते हैं।

     भद्रे! वामोरु! जब मैं मधुपान की गोष्ठी में बैठता हूँ, उस समय मेरे भाई की ही भाँति मेरी सेवा में गन्धर्वों सहित अप्सराएँ उपस्थित होती हैं। मैं भी कुबेर के ही समान साक्षात् ब्रह्मर्षि विश्रवा मुनि का पुत्र हूँ। (इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर- इन चार लोकपालों के सिवा) पाँचवें लोकपाल के रूप में मेरा सुयश सर्वत्र फैला हुआ है। भामिनी! देवराज इन्द्र की भाँति मुझे भी दिव्य भक्ष्य भोज्य पदार्थ तथा नाना प्रकार के पेय रस उपलब्ध होते हैं। सुश्रोणि! वनवास का कष्ट प्रदान करने वाले तुम्हारे पूर्वकृत दुष्कर्म की समाप्ति हो जानी चाहिये; इसके लिये तुम मन्दोदरी की भाँति मेरी भार्या हो जाओ’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) एकाशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

      रावण के ऐसा कहने पर परम सुन्दर जाँघों से सुशोभित, पति को ही देवता मानने वाली विदेह राजकुमारी सुमुखी सीता अपना मुँह फेरकर बीच में तिनके की ओट करके राक्षसों के लिये अमंगलसुचक आँसुओं द्वारा अपने पीन एवं उन्नत स्तनों को निरन्तर भिगोती हुई उस नीच निशाचर से इस प्रकार बोली,

   सीता जी बोली ;- 'राक्षसराज! तुम्हारे मुख से ऐसी दुःखदायिनी बातें अनेक बार निकली हैं और मुझ अभागिनी को वे सारी बातें सुननी पड़ी हैं। भद्रसुख! तुम्हारा भला हो। तुम अपना मन मेरी ओर से हटा लो। मैं परायी स्त्री हूँ, पतिव्रता हूँ। तुम कभी किसी तरह मुझे नहीं पा सकते। एक दीन मानव कन्या होने के कारण मैं तुम जैसे पिशाच की भार्या होने योग्य नहीं हूँ। मुझ विवश अबला को बलपूर्वक अपमानित करके तुम्हें क्या सुख मिलेगा?

     तुम्हारे पिता ब्राह्मण हैं। ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण वे ब्रह्मा के ही समान हैं। तुम भी लोकपालों के समान हो, फिर धर्म का पालन क्यों नही करते? महेश्वर सखा राजराज धनाध्यक्ष प्रभु कुबेर को अपना भाई बता रहे हो, तो भी यहाँ ऐसा बर्ताव करते हुए तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती?’ ऐसा कहकर तन्वंगी सीता अपनी गर्दन और मुख को कपड़े से ढककर फूट-फूटकर रोने लगी। उस समय छाती धड़कने के कारण उनके स्तन काँप रहे थे। अच्छी तरह रोती हुई भामिनी सीता के मस्तक पर बँधी हुई स्निग्ध, असित एवं विशाल वेणी काली नागिन के समान दिखाई देती थी।

     सीता के मुख से यह अत्यन्त निष्ठुर वचन सुनकर और उनके द्वारा कोरा उत्तर पाकर भी दुर्बुद्धि रावण पुनः इस प्रकार कहने लगा,

    रावण बोला ;- ‘सीते! भले ही कामदेव मेरे शरीर को पीड़ा देता रहे, परंतु में तुम जैसी मनोहर मुस्कान वाली सुन्दरी युवती का राजी किये बिना तुम्हारे साथ समागम नहीं करूँगा। तुम आज भी उस मनुष्य राम के प्रति ही, जो हम लोगों का आहार है, अनुराग दिखाती जा रही हो; ऐसी दशा में मैं क्या कर सकता हूँ?’

     अनिन्द्य अंगों वाली सीता से ऐसा कहकर राक्षसराज रावण वहीं अन्तर्धान हो अभीष्ट दिशा की ओर चल दिया। इधर शोक से दुबली हुई सीता राक्षसियों से घिरकर त्रिजटा से सुसेवित हो अशोक वाटिका में ही रहने लगी।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में सीता-रावण संवाद विषयक दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ बयासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-17  का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीराम का सुग्रीव पर कोप, सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना तथा श्रीहनुमान जी का लौटकर लंकायात्रा का वृत्तान्त निवेदन करना”

     मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इधर श्रीराम और लक्ष्मण सुग्रीव से सुरक्षित हो माल्यवान् पर्वत के पृष्ठ भाग पर रहने लगे। कुछ काल के अनन्तर जब वर्षा ऋतु बीत गयी, तब उन्हें आकाश निर्मल दिखाई दिया। शरद् ऋतु के निर्मल आकाश में ग्रह, नक्षत्र तथा ताराओं सहित विमल चन्द्रमा का दर्शन करके शत्रुसंहारक श्रीराम अभी पर्वत पर सोये ही थे कि कुमुद, उत्पल और पद्मों की सुगन्घ लेकर बहती हुई शीतल एवं सुखद वायु ने उन्हें सहसा जगा दिया। धर्मात्मा श्रीराम को प्रातःकाल राक्षस के भवन में कैद हुई अपनी पत्नी सीता का स्मरण हो आया और वे खिन्न-चित्त होकर वीरवर लक्ष्मण से इस प्रकार बोले- ‘लक्ष्मण! जाओ और पता लगाओ कि किष्किन्धा में वानरराज सुग्रीव क्या कर रहा है? जान पड़ता है, स्वार्थसाधन की कला में पण्डित कृतघ्न सुग्रीव विषयभोगों में आसक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गया है। उस वानर कुलकलंक को मैंने ही राज्य पर अभिषिक्त किया है। इसके कारण सम्पूर्ण वानर, लंगूर तथा रीछ उसकी सेवा करते हैं।

     रघुकुलतिलक महाबाहु लक्ष्मण! इसी सुग्रीव के लिये उन दिनों मैंने तुम्हारे साथ किष्किन्धा के उद्यान में जाकर बाली का वध किया था। सुमित्रानन्दन! मैं तो उस नीच वानर को इस भूतल पर कृतघ्न मानता हूँ, क्योंकि वह मूर्ख इस अवस्था में पहुँचकर मुझे भूल गया है। मैं तो समझता हूँ, वह अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन करना ही नहीं जानता और अपनी मन्दबुद्धि के कारण मुझ उपकारी की भी वह निश्चय ही अवहेलना कर रहा है। यदि वह विषयसुख में ही आसक्त हो सीता की खोज के लिये कुछ उद्योग न कर रहा हो, तो उसे भी तुम बाली के मार्ग से उसी लोक में पहुँचा देना, जहाँ एक-न-एक दिन सभी प्राणियों को जाना पड़ता है। लक्ष्मण! यदि वानरराज हमारे कार्य के लिये कुछ चेष्टा कर रहा हो, तो उसे साथ लेकर तुरंत लौट आना, देर न लगाना’।

     भाई के ऐसा कहने पर गुरुजनों की आज्ञा के पालन तथा हिताचरण में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण बाण और प्रत्यन्चा सहित सुन्दर धनुष हाथ में लेकर वहाँ से चल दिये। किष्किन्धा के द्वार पर पहुँचकर वे बेरोक-टोक भीतर घुस गये। लक्ष्मण क्रोध में भरे हुए आ रहे हैं, यह जानकर राजा सुग्रीव उनकी अगवानी के लिये आगे बढ़ आया। पत्नी


सहित वानरराज सुग्रीव विनीत भाव से लक्ष्मण जी की पूजा करके उन्हें साथ ले गये। किसी से भी भय न मानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण ने उस पूजा (आदर-सत्कार) से प्रसन्न हो उनसे श्रीरामचन्द्र जी की कही हुई सारी बातें कह सुनायी। राजेन्द्र! वह सब कुछ पूरा-पूरा सुनकर नम्रतापूर्वक हाथ जोड़ते हुए भार्या तथा सेवकों सहित वानरराज सुग्रीव ने नरश्रेष्ठ लक्ष्मण से सहर्ष निवेदन किया,

    सुग्रीव बोले ;- ‘लक्ष्मण! मैं न तो दुर्बुद्धि हूँ, न अकृतज्ञ हूँ और न निर्दयी ही हूँ। मैंने सीता की खोज के लिये जो प्रयत्न किया है, उसे सुनिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के 18-36 श्लोक का हिन्दी अनुवाद)

   मैंने सब दिशाओं में सभी विनयशील वानरों को भेज दिया है और उन सबके लिये एक महीने के अंदर लौट आने का समय निश्चित कर दिया है। वीर! वे सब लोग वन, पर्वत, पुर, ग्राम, नगर तथा आकरों सहित समुद्रवसना इस सारी पृथ्वी पर सीता की खोज करेंगे। वह एक मास, जिसके समाप्त होने तक वानरों को लौट आना है, पाँच रात में पूरा हो जायेगा। तत्पश्चात् आप श्रीरामचन्द्र जी के साथ सीता का अत्यन्त प्रिय समाचार सुनेंगे’।

     बुद्धिमान नावरराज सुग्रीव के ऐसा कहने पर उदार हृदय वाले लक्ष्मण ने रोष त्यागकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। तत्पश्चात वे सुग्रीव को साथ लेकर माल्यवान् पर्वत के पृष्ठ भाग में रहने वाले श्रीरामचन्द्र जी के पास गये। वहाँ उन्होंने बताया कि सीता का अनुसंधान कार्य आरम्भ हो गया है। इसके बाद मास पूर्ण होने पर तीन दिशाओं की खोज करके सहस्रों वानर प्रमुख वहाँ आये। केवल वे ही नहीं आये, जो दक्षिण दिशा में पता लगाने गये थे। आये हुए वानरों ने श्रीरामचन्द्र जी को बताया कि समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी हमने देख डाली, परंतु कहीं भी सीता अथवा रावण का दर्शन नहीं हुआ। जो प्रमुख वानर दक्षिण दिशा की ओर गये थे, उन्हीं से सीता का वास्तविक समाचार मिलने की आशा बँधी हुई थी, इसीलिये व्यथित होने पर भी श्रीरामचन्द्र जी अपने प्राणों को धारण किये रहे।

     दो मास व्यतीत हो जाने पर कुछ वानर बड़ी उतावली के साथ सुग्रीव के पास आये और इस प्रकार कहने लगे,

   वानर बोले ;- ‘वानरराज! बाली ने तथा आपने भी जिस समृद्धिशाली महान् मधुबन की रक्षा की थी, उसे पवननन्दन हनुमान जी (राजाज्ञा के बिना) अपने उपभोग में ला रहे हैं। राजन्! उनके साथ बालिपुत्र अंगद तथा अन्य सभी श्रेष्ठ वानर इस काम में भाग ले रहे हैं, जिन्हें आपने दक्षिण दिशा में सीता की खोज के लिये भेजा था’। उन वानरों के अनुचित बर्ताव का समाचार सुनकर सुग्रीव को यह विश्वास हो गया कि वे सब काम पूरा करके लौटे हैं; क्योंकि ऐसी धृष्टतापूर्ण चेष्टा उन्हीं सेवकों की होती है, जो अपने कार्य में सफल हो जाते हैं। बुद्धिमान वानरप्रवर सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्र जी से अपना निश्चय बताया। श्रीरामचन्द्र जी ने भी अनुमान से यह मान लिया कि उन वानरों ने अवश्य ही मिथिलेशकुमारी सीता का दर्शन किया होगा। हनुमान् आदि श्रेष्ठ वानर विश्राम कर लेने के पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण के समीप बैठे हुए उस वानरराज सुग्रीव के पास गये।

     युधिष्ठिर! हनुमान जी की चाल-ढाल और मुख की कांति देखकर श्रीरामचन्द्र जी को यह विश्वास हो गया कि इन्होंने सीता को देखा है। सफल मनोरथ हुए हनुमान आदि वानरों ने श्रीराम, सुग्रीव तथा लक्ष्मण को विधिपूर्वक प्रणाम किया। उस समय श्रीरामचन्द्र जी ने धनुष-बाण लेकर उन प्रणाम करते हुए वानरों से पूछा,

    श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘क्या तुम लोग सीता का अमृतमय समाचार सुनाकर मुझे जीवनदान दोगे? क्या तुम लोगों को अपने कार्य में सफलता मिली है? क्या मैं युद्ध में शत्रुओं को मारकर जनकनन्दिनी सीता को साथ ले पुनः अयोध्या में रहकर राज्य करूँगा? विदेहनन्दिनी सीता को बिना छुड़ाये तथा समरभूमि में शत्रुओं का बिना संहार किये पत्नी को खोकर और अवधूत बनकर मैं जीवित नहीं रह सकता’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीरामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर वायुपुत्र हनुमान जी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया,

    हनुमानजी बोले ;- ‘श्रीराम! मैं आपको प्रिय समाचार सुना रहा हूँ। मैंने जनकनन्दिनी सीता का दर्शन किया है। पर्वत, वन तथा आकरों सहित सम्पूर्ण दक्षिण दिशा में श्रीसीता जी का अनुसंधान


करके जब हम लोग थक गये और यहाँ लौटने का समय व्यतीत हो गया, तब हमें एक बहुत बड़ी गुफा दिखायी दी। वह कई योजन लंबी थी। उसमें अन्धकार भरा हुआ था। उसके भीतर घने जंगल थे। उस गहन गुफा में बहुत से कीड़े रहा करते थे। उसमें प्रवेश करके हमने बहुत दूर तक का रास्ता पार कर लिया। तत्पश्चात् सूर्य के प्रकाश का दर्शन हुआ। उसी गुफा के अन्दर एक दिव्य भवन शोभा पा रहा था।

    रघुनन्दन! वह सुन्दर भवन दैत्यराज मय का निवास स्थान बताया जाता है। उसमें प्रभावती नाम की एक तपस्विनी तप कर रही थी। उसने हमें अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थ तथा भाँति-भाँति के पीने योग्य रस दिये। उन्हें खाकर हमें नूतन बल प्राप्त हुआ। फिर उसी के बताये हुए मार्ग से जब हम गुफा से बाहर निकले, तब हमें लवण समुद्र के निकटवर्ती सह्य, मलय और दर्दुर नामक महान् पर्वत दिखायी दिये। फिर हम लोग मलयाचल पर चढ़कर समुद्र की ओर देखने लगे। उसकी विशालता देखकर हमारा हृदय विषाद से भर गया। हम खिन्न और व्यथित हो गये। हमें जीवन की कोई आशा न रही। उस महासागर का विस्तार कई सौ योजन में था। उसमें तिमि, मगर और बड़े-बड़े मत्स्य निवास करते थे। उसके इस स्वरूप का समरण कर हम सब लोग बहुत दु:खी हो गये।

     अन्त में अनशन करके प्राण त्याग देने का निश्चय लेकर हम सब लोग वहाँ बैठ गये। फिर आपस में बातचीत होने लगी और बीच में जटायु का प्रसंग छिड़ गया। इतने में ही हमने दूसरे गरुड़ की भाँति एक भयंकर पक्षी को देखा, जो पर्वतशिखर के समान जान पड़ता था। उसका स्वरूप बड़ा डरावना था। वह पक्षी हमें खा जाने की युक्ति सोचने लगा। फिर हमारे पास आकर,

    सम्पाति बोला ;- ‘अजी! कौन मेरे भाई जटायु की बात कर रहा है। मैं उसका बड़ा भाई सम्पाती हूँ। हम दोनों एक-दूसरे से होड़ लगाकर आकाश में सूर्यमण्डल तक पहुँचने के लिये उड़े थे। इससे मेरी ये दोनों पाँखें जल गयीं, परंतु जटायु के पंख नहीं जले। तब से दीर्घकाल व्यतीत हो गया। उन्हीं दिनों मैंने अपने प्रिय भाई गृध्रराज जटायु को देखा था। पंख जल जाने से मैं इसी पर्वत पर गिर पड़ा’।

    सम्पाती जब इस तरह की बातें कर रहा था, उस समय हम लोगों ने बताया कि जटायु मारे गये। साथ ही हमने संक्षेप में आपके ऊपर आये हुए संकट का समाचार भी निवेदन किया। राजन्! यह अत्यन्त अप्रिय वृत्तान्त सुनकर उस सम्पाति के मन में बड़ा खेद हुआ। शत्रुदमन! उसने पुनः हम लोगों से पूछा,

    सम्पाति बोला ;- ‘श्रेष्ठवानरगण! वे श्रीराम कौन हैं, सीता कैसी है और जटायु किस प्रकार मारे गये? ये सब बातें मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ’।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) द्वयशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 54-71 का हिन्दी अनुवाद)

      ‘तब मैंने सम्पाती के समक्ष आप पर संकट आने का यह सारा वृत्तान्त और अपने आमरण अनशन का कारण विस्तारपूर्वक बताया। तब पक्षिराज सम्पाती ने अपने निम्नांकित वचन द्वारा हमें उत्साहित करके उठाया। 'वानरों! मैं रावण को जानता हूँ। उसकी महापुरी लंका भी मैंने देखी है। वह समूद्र के उस पार त्रिकूटगिरी की कन्दरा में बसी है। विदेहकुमारी सीता अवश्य वहीं होंगी, इस विषय में मुझे कोई अन्यथा विचार नहीं हो रहा है’। परंतप! उसकी यह बात सुनकर हम लोग तुरंत उठे और समुद्र पार करने के विषय में परस्पर सलाह करने लगे। जब कोई भी समुद्र को लाँघने का साहस न कर सका, तब मैं अपने पिता वायु के स्वरूप में प्रविष्ट होकर वह सौ योजन विस्तृत महासागर लाँघ गया। उस समय समुद्र के जल में एक राक्षसी रहती थी, जिसे अपने मार्ग में विघ्न डालने पर मैंने मार डाला था।

       लंका में पहुँचकर रावण के अन्तःपुर में मैने सीता का दर्शन किया, जो अपने पतिदेवता के दर्शन की लालसा से निरन्तर उपवास और तपस्या किया करती हैं। उनके केश जटा के रूप में परिणत हो गये थे। अंग-अंग में मैल जम गयी थी। वे दीन, दुर्बल और तपस्विनी दिखायी देती थीं। कई भिन्न-भिन्न कारणों से उन्हें आर्या सीता के रूप में पहचानकर मैं एकान्त में उनके निकट गया और इस प्रकार बोला,

    हनुमानजी बोले ;- ‘देवी सीते! मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत पवनपुत्र हनुमान नामक वानर हूँ। आपके दर्शन के लिये में आकाश मार्ग से यहाँ आया हूँ। दोनों भाई राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण कुशल से हैं। सम्पूर्ण वानरों के अधीश्वर सुग्रीव इस समय उनकी रक्षा में तत्पर हैं। देवि! सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के साथ भगवान श्रीराम ने आपको अपने सकुशल होने का समाचार कहलाया है। उनके मित्र होने के नाते सुग्रीव भी आपका कुशलमंगल पूछते हैं। आपके स्वामी भगवान श्रीराम सम्पूर्ण वानरों की सेना के साथ शीघ्र यहाँ पधारेंगे। देवि! मेरा विश्वास कीजिये। मैं राक्षस नहीं, वानर हूँ।'

     तदनन्तर सीता ने दो घड़ी तक कुछ सोचकर मुझसे इस प्रकार कहा,

     सीता जी बोली ;- ‘महाबाहो! मैं अविन्ध्य के कहने से यह विश्वास करती हूँ कि तुम हनुमान् हो। अविन्ध्य राक्षसकुल में उत्पन्न होते हुए भी वृद्ध एवं आदरणीय है। उन्होंने ही तुम्हारे जैसे मन्त्रियों से युक्त सुग्रीव का परिचय दिया है। वत्स! अब तुम भगवान श्रीराम के पास जाओ।’ ऐसा कहकर सती साध्वी सीता ने अपनी पहचान के लिये यह एक मणि दी, जिसको धारण करके वे अब तक अपने प्राणों की रक्षा करती आयी हैं। जानकी ने विश्वास दिलाने के लिये यह एक कथा सुनायी,,

    हनुमानजी बोले ;- ‘पुरुषसिंह! उस कथा का मुख्य विषय यह है कि आपने महापर्वत चित्रकूट पर रहते समय किसी कौए के ऊपर एक सींक का बाण चलाया था और उस दुष्टात्मा कौए को एक आँक्ग से वंचित कर दिया था। यह प्रसंग उन्होंने केवल अपनी पहचान कराने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया था। तदनन्तर मैंने जान-बूझकर अपने आपको राक्षासों द्वारा पकड़वाया और लंकापुरी को जलाकर समुद्र के इस पार आ पहुँचा।’ यह सब समाचार सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने प्रियवादी हनुमान का अत्यन्त आदर-सत्कार किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में हनुमानजी के लंका से लौटने से सम्बन्ध रखने वाला दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ तिरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“वानर सेना का संगठन, सेतु का निर्माण, विभीषण का अभिषेक और लंका की सीमा में सेना का प्रवेश तथा अंगद को रावण के पास दूत बनाकर भेजना”

    मार्कण्डेय कहते हैं ;- युधिष्ठिर! तदनन्तर सुग्रीव की आज्ञा के अनुसार बड़े-बड़े वानर वीर माल्यवान् पर्वत पर लक्ष्मण आदि के साथ बैठे हुए भगवान श्रीराम के पास पहुँचने लगे। सबसे पहले बाली के श्वसुर श्रीमान् सुषेण श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में उपस्थित हुए। उनके साथ वेगशाली वानरों की सहस्र कोटि (दस अरब) सेना थी। फिर महापराक्रमी वानरराज ‘गज’ और ‘गवय’ पृथक्-पृथक् एक-एक अरब सेना के साथ आते दिखाई दिये। महाराज! गोलांगूल (लंगूर) जाति के वानर गवाक्ष, जो देखने में बड़ा भयंकर था, साठ सहस्र कोटि (छः अरब) वानर सेना साथ लिये दृष्टिगोचर हुआ। गन्धमादन पर्वत पर रहने वाला गन्धमादन नाम से विख्यात वानर वानरों की दस खरब सेना साथ लेकर आया। पनस नामक बुद्धिमान तथा महाबली वानर सत्तावन करोड़ सेना साथ लेकर आया।

     वानरों में वृद्ध तथा अत्यन्त पराक्रमी श्रीमान् दधिमुख भयंकर तेज से सम्पन्न वानरों की विशाल सेना साथ लेकर आये। जिनके मुख (ललाट) पर तिलक का चिह्न शोभा पा रहा था तथा जो भयंकर पराक्रम करने वाले थे, ऐसे काले रंग के शतकोटि सहस्र (दस अरब) रीछों की सेना के साथ वहाँ जाम्बवान दिखायी दिये। महाराज! ये तथा और भी बहुत से वानर यूथपतियों के भी यूथपति, जिनकी कोई संख्या नहीं थी, श्रीरामचन्द्र जी के कार्य से वहाँ एकत्र हुए। उनके अंग पर्वतों के शिखर के सदृश जान पड़ते थे। वे सब के सब सिंहों के समान गरजते और इधर-उधर दौड़ते थे। उन सबका सम्मिलित शब्द बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। कोई पर्वत-शिखर के समान ऊँचे थे, तो कोई भैंसों के सदृश मोटे और काले। कितने ही वानर शरद् ऋतु के बादलों की तरह सफेद दिखायी देते थे, कितनों के ही मुख सिंदूर के समान लाल रंग के थे। वे वानर सैनिक उछलते, गिरते-पड़ते, कूदते-फाँदते और धूल उड़ाते हुए चारों ओर से एकत्र हो रहे थे। वानरों की वह विशान सेना भरे-पूरे महासागर के समान दिखायी देती थी।

     सुग्रीव की आज्ञा से उस समय माल्यवान् पर्वत के आस-पास ही उस समस्त सेना का पड़ाव पड़ गया। तदनन्तर उन समस्त श्रेष्ठ वानरों के सब ओर से एकत्र हो जाने पर सुग्रीव सहित भगवान श्रीराम ने एक दिन शुभ तिथि, उत्तम नक्षत्र और शुभ मुहुर्त में युद्ध के लिये प्रस्थान किया। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो वे उस व्यूह-रचना युक्त सेना के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने जा रहे हैं। उस सेना के मुहाने पर वायुपुत्र हनुमान जी विराजमान थे। किसी से भी भय न मानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण उसके पृष्ठ भाग की रक्षा कर रहे थे। दोनों रघुवंशी वीर श्रीराम और लक्ष्मण हाथों में गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने पहने हुए थे। वे ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा और सूर्य की भाँति वानरजातीय मन्त्रियों के बीच में होकर चल रहे थे। श्रीरामचन्द्र जी के सम्मुख साल, ताल और शिलारूपी आयुध लिये वे समस्त वानर सैनिक सूर्योदय के समय पके हुए धान के विशाल खेतों के समान जान पड़ते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद)

      नल, नील, अंगद, क्राथ, मैन्द तथा द्विविद के द्वारा सुरक्षित हुई वह विशाल वानर सेना श्रीरामचन्द्र जी का कार्य सिद्ध करने के लिये आगे बढ़ती जा रही थी। जहाँ फल-मूल की बहुतायत होती, मधु और कन्द-मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते तथा जल की अधिक सुविधा होती, ऐसे कल्याणकारी और उत्तम विविध पर्वतीय शिखरों पर डेरा डालती हुई वह वानर सेना बिना किसी विघ्न-बाधा के खारे पानी के समुद्र के निकट जा पहुँची। असंख्य ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित वह विशाल वाहिनी दूसरे महासागर के समान जान पड़ती थी। सागर के तटवर्ती वन में भगवान श्रीराम ने सुग्रीव से यह समयोचित बात कही- ‘मित्रों! हमारी यह सेना बहुत बड़ी है और सामने अत्यन्त दुस्तर महासागर लहरें ले रहा है। ऐसी दशा में आप लोग समुद्र के पार जाने के लिये कौन-सा उपाय ठीक समझते हैं?’

      तब वहाँ बहुत-से दूसरे-दूसरे वानर, जो बड़े अभिमानी थे, कहने लगे,

   वानर वोले ;- ‘हम तो समुद्र को लाँघ जाने में समर्थ हैं, परंतु सब नहीं लाँघ सकते’। कुछ वानर बड़ी-बड़ी नावों के द्वारा समुद्र के पार जाने का निश्चय प्रकट करने लगे। कुछ ने नाव-डोंगी आदि विविध साधनों द्वारा पार जाने की बात कही। परंतु श्रीरामचन्द्र जी ने उनकी यह सलाह मानने से इनकार कर दिया और सबको सान्त्वना देते हुए कहा,

   श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘वीरो! सभी वानरों में इतनी शक्ति नहीं है कि वे सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ सकें; अतः तुम लोगों का यह निर्णय सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में ग्राह्य नहीं है। इतनी बड़ी सेना को पार उतारने के लिये हम लोगों के पास अधिक नौकाएँ भी नहीं हैं। (यदि कहें, व्यापारियों के जहाजों से काम लिया जाये, तो) मेरे जैसा पुरुष अपने स्वार्थ के लिये व्यापारियों के व्यवसाय को हानि कैसे पहुँचा सकता है? इसके सिवा नौका आदि से यात्रा करने पर हमारी सेना छिट-फुट होकर बहुत दूर तक फैल जायेगी। उस दशा में अवसर पाकर शत्रु इसका नाश भी कर सकता है। इसीलिये डोंगी और नाव आदि पर बैठकर उतरने की बात मुझे ठीक नहीं जँचती है। मैं तो किसी उपाय से इस समुद्र की आराधना आरम्भ करूँगा। इसके तट पर अन्न-जल छोड़कर धरना दूँगा। इससे यह अवश्य मुझे दर्शन देगा तथा कोई मार्ग दिखाई देगा। यदि यह स्वयं प्रकट होकर कोई मार्ग नहीं दिखायेगा तो मैं अग्नि और वायु से भी अधिक तेजस्वी तथा कभी न चूकने वाले महान् दिव्यास्त्रों द्वारा इसे जलाकर भस्म कर डालूँगा’। ऐसा कहकर लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्र जी ने आचमन करके समुद्र के तट पर कुश की चटाई बिछाकर उस पर लेटकर विधिपूर्वक धरना दे दिया।

    तब नदों और नदियों के स्वामी श्रीमान् समुद्रदेव ने जल-जन्तुओं के साथ प्रकट होकर स्वप्न में श्रीरामचन्द्र जी को दर्शन दिया। वह सैंकड़ों रत्न के आकरों से घिरा हुआ था। उसने ‘कौसल्यानन्दन’ कहकर श्रीराम को सम्बोधित किया और मधुर वाणी में इस प्रकार कहा,,

    समुद्र बोले ;- ‘नरश्रेष्ठ! कहो, मैं यहाँ तुम्हारी क्या सहायता करूँ? सगरपुत्रों से संवर्धित होने के कारण मैं भी इक्ष्वाकुवंशीय तथा तुम्हारा भाई-बन्धु हूँ’। यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने उससे कहा,

श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘नद-नदीश्वर! मैं अपनी सेना के लिये तुम्हारे द्वारा दिया हुआ मार्ग चाहता हूँ, जिससे जाकर पुलत्स्यकुलांगार दशमुख रावण को मार सकूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘यदि इस प्रकार याचना करने पर तुम मुझे मार्ग न दोगे, तो मैं दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा तुम्हें सुखा दूँगा।' श्रीरामचन्द्र जी का यह वचन सुनकर वरुणालय समुद्र व्यथित हो उठा और खड़े हुए हाथ जोड़कर बोला,,

     समुद्र बोला ;- ‘श्रीराम! मैं तुम्हारा सामना करना नहीं चाहता और न ही तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने की ही इच्छा रखता हूँ। मेरी यह बात सुनो और सुनकर जो कर्तव्य हो, उसे करो। यदि मैं इस समय तुम्हारी आज्ञा से तुम्हें और लंका जाती हुई तुम्हारी सेना को मार्ग दे दूँगा, तो दूसरे लोग भी इसी प्रकार धनुष बल से मुझ पर हुक्म चलाया करेंगे। तुम्हारी सेना में नल नामक वानर है, जो शिल्पियों के लिये भी आदरणीय है। बलवान् नल देवशिल्पी विश्वकर्मा का पुत्र है। वह अपने हाथ से उठाकर जो भी काठ, तिनका या पत्थर मेरे भीतर डाल देगा, वह सब मैं जल के ऊपर धारण किये रहूँगा। वही तुम्हारे लिये पुल हो जायेगा’। ऐसा कहकर समुद्र अन्तर्धान हो गया।

     तत्पश्चात् श्रीराम ने उठकर नल से कहा,,

    श्री रामचन्द्र जी बोले ;- ‘तुम समुद्र पर एक पुल तैयार करो। मैं जानता हूँ, तुम में यह कार्य करने की शक्ति है’। उसी उपाय से रघुनाथ जी ने समुद्र पर सौ योजन लंबा और दस योजन चौड़ा पुल तैयार कराया। वह आज भी भूमण्डल में ‘नलसेतु’ के नाम से विख्यात है। श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा मानकर समुद्र ने उस पर्वताकार पुल को अपने ऊपर धारण किया। श्रीरामचन्द्र जी अभी समुद्र के किनारे ही थे कि राक्षसराज रावण के भाई धर्मात्मा विभीषण अपने चार मनित्रयों


के साथ उनसे मिलने के लिये आये। महामना श्रीराम ने स्वागतपूर्वक उन्हें अपनाया। उस समय सुग्रीव के मन में यह शंका हुई कि 'कहीं यह शत्रुओं का कोई गुप्तचर न हो’। परंतु श्रीरामचन्द्र जी ने उनकी सत्य चेष्टाओं, उत्तम आचरणों और मुख-नेत्र आदि के संकेतों से सूचित होने वाले मनोभावों की सम्यक् समीक्षा करके जब अच्छी तरह संतोश प्राप्त कर लिया, तब विभीषण का बहुत आदर किया। साथ ही उन्हें समस्त राक्षसों के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और लक्ष्मण का सुहृद तथा अपना सलाहकार बना लिया।

     नरेश्वर! विभीषण की सलाह से श्रीरामचन्द्र जी ने उसी सेतु द्वारा एक ही महीने में सेना सहित महासागर को पार कर लिया। तत्पश्चात् उन्होंने लंका की सीमा में पहुँचकर वानरों द्वारा वहाँ से बड़े-बड़े उद्यानों को छिन्न-भिन्न करा दिया। उस सेना में वानरों का रूप धारण करके रावण के दो मन्त्री शुक और सारण गुप्तचर का काम करने के लिये घुस आये थे। विभीषण ने उन दोनों को पहचानकर कैद कर लिया। जब वे दोनों निशाचर अपने राक्षस रूप में प्रकट हुए, तब श्रीराम ने उन्हें अपनी सेना का दर्शन कराकर छोड़ दिया। लंकापुरी के उपवन में वानर सेना को ठहराकर श्रीरघुनाथ जी ने बुद्धिमान वानर अंगद को दूत के रूप में रावण के यहाँ भेजा।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में सेतुबन्ध विषयक दो सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ चौरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाकर लौटना तथा राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम”

   मार्कण्डेय कहते हैं ;- युधिष्ठिर! लंका के उस वन में अन्न और जल का बहुत सुभीता था। फल और मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे; अतः वहीं सेना की छावनी डालकर श्रीरामचन्द्र जी विधिपूर्वक उसकी रक्षा करते रहे। इधर रावण लंका में शास्त्रोक्त प्रकार से बनी हुई युद्ध-सामग्री (मशीनगन आदि) का संग्रह करने लगा। लंका की चाहरदीवारी और नगर द्वार अत्यन्त सुदृढ़ थे; अतः स्वभाव से ही वह दुर्धर्ष थी। किसी भी आक्रमणकारी का वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। नगर के चारों ओर सात गहरी खाइयाँ थीं, जिनमें अगाध जल भरा था और उनमें मत्स्य-मगर आदि जल-जन्तु निवास करते थे। इन खाइयों में सब ओर खैर के खूँटे गढ़े हुए थे। मजबूत किवाड़र लगे थे और गोला बरसाने वाले यन्त्र (मशीनें) यथास्थान लगे थे। इन सब कारणों से इन खाइयों को पार करना बहुत कठिन था। विषणर सर्पों के समूह, सैनिक, सर्जरस (लाह) और धूल- इन सबसे संयुक्त और सुरक्षित होने के कारण भी वे खाइयाँ दुर्गम थीं। मुसल, अलात (बनैठी), बाण, तोमर, तलवार, फरसे, मोम के मुद्गर तथा तोप आदि अस्त्र-शस्त्रों के कारण भी वे खाइयाँ दुर्लंघ्य थीं।

     नगर के सभी दरवाजों पर छिपकर बैठने के लिये बुर्ज बने हुए थे। ये स्थावर गुल्म कहलाते थे और घूम-फिरकर रक्षा करने वाले जो सैनिक नियुक्त किये गये थे, वे जंगम गुल्म कहे जाते थे। इनमें अधिकांश पैदल और बहुत-से हाथी सवार तथा घुड़सवार भी थे। (श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से) महाबली अंगद दूत बनकर लंकापुरी के द्वार पर आये। राक्षसराज रावण को उनके आगमन की सूचना दी गयी। फिर अनुमति मिलने पर उन्होंने निर्भय होकर पुरी में प्रवेश किया। अनेक करोड़ राक्षसों के बीच में जाते हुए अंगद मेघों की घटा से घिरे हुए सूर्यदेव के समान सुशोभित हो रहे थे। मन्त्रियों से झिरकर बैठे हुए पुलत्स्यनन्दन रावण के पास पहुँचकर कुशल वक्ता अंगद ने रावण को संबोधित करके श्रीरामचन्द्र जी का संदेश इस प्रकार कहना आरम्भ किया,

    अंगद बोले ;- 'राजन्! कोसल देश के महाराज महायशस्वी श्रीरामचन्द्र जी ने तुमसे कहने के लिये जो समयोचित संदेश भेजा है, उसे सुनो और तदनुसार कार्य करो।

     जो राजा अपने मन को काबू में न रखकर अन्यान्य में तत्पर रहता है, उसका आश्रय लेकर उसके अधीन रहने वाले नगर और देश भी


अनीतिपरायण होकर नष्ट हो जाते हैं। सीता का बलपूर्वक अपहरण करके मेरा अपराध तो अकेले तुमने किया है, परंतु इसके कारण अन्य निर्दोष लोग भी मारे जायेंगे। तुमने बल और अहंकार से उन्मत्त होकर पहले जिन वनवासी ऋषियों की हत्या की, देवताओं का अपमान किया, राजर्षियों के प्राण लिये तथा रोती-बिलखती अबलाओं का भी अपहरण किया था, उन सब अत्याचारों का फल अब तुम्हें प्राप्त होने वाला है। मैं मन्त्रियों सहित तुम्हें मार डालूँगा। साहस हो तो युद्ध करो और पौरुष का परिचय दो। निशाचर! यद्यपि मैं मनुष्य हूँ, तो भी मेरे धनुष का बल देखना।'

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘जनकनन्दिनी सीता को छोड़ दो, अन्यथा कभी मेरे हाथ से जीवित नहीं बचोगे। मैं अपने तीखे बाणों द्वारा इस संसार को राक्षसों से सूना कर दूँगा’।

     श्रीरामचन्द्र जी के दूत के मुख से ऐसी कठोर बातें सुनकर राजा रावण सहन न कर सका। वह क्रोघ से मूर्च्छित हो उठा। तब स्वामी के संकेत को समझने वाले चार निशाचर अपनी जगह से उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंह को पकड़े, उसी प्रकार वे अंगद को पकड़ने लगे। अंगद इस प्रकार अपने अंगों से सटे हुए उन चारों राक्षसों को लिये-दिये आकाश में उछलकर महल की छत पर जा चढ़े। उछलते समय उनके वेग से छूटकर वे चारों राक्षस पृथ्वी पर जा गिरे। उन राक्षसों की छाती फट गयी और अधिक चोट लगने के कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। छत पर चढ़े हुए अंगद फिर उस महल के कँगूरे से कूद पड़े और लंकापुरी को लाँघकर सुवेल पर्वत के समीप आ पहुँचे।

     फिर कोसल नरेश श्रीरामचन्द्र जी से मिलकर तेजस्वी वानर अंगद ने रावण के दरबार की सारी बातें बतायीं। श्रीराम ने अंगद की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे विश्राम करने लगे। तदनन्तर भगवान श्रीराम ने वायु के समान वेगशाली वानरों की सम्पूर्ण सेना के द्वारा एक साथ लंका पर धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली। नगर के दक्षिण द्वार में प्रवेश करना बहुत कठिन था, परंतु लक्ष्मण ने विभीषण और जाम्बवान को आगे करके उसे भी धूल में मिला दिया।


तत्पश्चात् उन्होंने हथेली के समान श्वेत और लाल रंग के युद्ध कुशल वानरों की दस खरब सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। उनके भुजा, ऊरु, हाथ और जंघा (पिंडली)-ये सभी अंग विशाल थे तथा अंगों की कान्ति धुएँ के समान काली थी, ऐसे तीन करोड़ रीछ सैनिक भी उनके साथ लंका में जाकर युद्ध के लिये डटे हुए थे। उस समय वानरों के उछलने-कूदने तथा गिरने-पड़ने से इतनी धूल उड़ी कि उससे सूर्य की प्रभा नष्ट हो गयी और उसका दीखना बंद हो गया।

    राजन्! धान के फूल जैसे रंग वाले मौलसिरी के पुष्प सदृश कान् वाले, प्रातःकाल के सूर्य के समान अरुण प्रभा वाले तथा सनई के समान सफेद रंग वाले वानरों से व्याप्त होने के कारण लंका की चहारदीवारी चारों ओर कपिल वर्ण की दिखायी देती थी। स्त्रियों और वृद्धों सहित समस्त लंकावासी राक्षस चारों ओर आश्चर्यचकित होकर इस दृश्य को देख रहे थे। वानर सैनिक वहाँ के मणिनिर्मित खम्भों और अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे महलों के कंगूरों को तोड़ने-फोड़ने लगे। गोलाबारी करने वाले जो तोप आदि यन्त्र लगे थे, उनके शिखरों को चूर-चूर करके उन्होंने दूर फेंक दिया। पहियों वाली तोपों, श्रृंगों और गोलों को ले-लेकर महान् कोलाहल करते हुए वानर अपनी भुजाओं के वेग से उन्हें लंका में फेंकने लगे। जो कोई निशाचर चहारदीवारी की रक्षा के लिये सैंकड़ों की संख्या में वहाँ खड़े थे, वे सब वानरों द्वारा खदेड़े जाने पर भाग खड़े हुए। तदनन्तर राक्षसराज रावण की आज्ञा पाकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षस लाख-लाख की टोली बनाकर नगर से बाहर निकले। उन सब की आकृति बड़ी विकराल थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 34-41 का हिन्दी अनुवाद)

    वे चाहरदीवारी की शोभा बढ़ाते हुए अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करके वनवासी वानरों को खदेड़ने लगे और अपने उत्तम पराक्रम का परिचय देने लगे। उड़द के ढेर जैसे काले-कलूटे उन भयंकर निशाचरों ने लड़कर पुनः उस चहारदीवारी को वानरों से सूनी कर दिया। उनके शूलों की मार से अंग विदीर्ण हो जाने के कारण बहुत-से श्रेष्ठ वानर धराशायी हो गये।

    इसी प्रकार वानरों के हाथों से खम्भों की मार खाकर कितने ही निशाचर युद्ध का मैदान छोड़कर भाग गये और कितने वहीं ढेर हो गये। तत्पश्चात् वीर राक्षसों का वानरों के साथ सिर के बाल पकड़कर युद्ध होने लगा। वे नखों और दाँतों से भी एक दूसरे को काट खाते थे। दोनों ओर से गर्जना करते हुए वानर तथा राक्षस इस प्रकार युद्ध करते थे कि मरकर पृथ्वी पर गिर जाने के बाद भी एक-दूसरे को छोड़ते नहीं थे।

       उधर श्रीरामचन्द्र जी भी, जैसे बादल जल बरसाते हैं, उसी प्रकार बाण समूहों की वर्षा करने लगे और वे बाण लंका में घुसकर वहाँ खड़े हुए निशाचरों के प्राण लेने लगे। क्लेश और थकावट पर विजय पाने वाले सुदृढ़ धनुर्धर सुमित्राकुमार लक्ष्मण भी सूचना दे-देकर नाराच नामक बाणों द्वारा दुर्ग के भीतर रहने वाले राक्षसों को भी मार गिराने लगे।

     इस प्रकार लंका में भीषण मार-काट मचाने के बाद वानर सैनिक लक्ष्यसिद्धिपूर्वक विजय पाकर श्रीरघुनाथ जी की आज्ञा से युद्ध बंद करके शिविर की ओर लौट गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में लंका में प्रवेश विषयक दो सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)

दौ सौ पचासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) पन्चाशीत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीराम और रावण की सेना का द्वन्द्व युद्ध”

    मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब वानर सैनिक शिविर में प्रवेश करने लगे, उस समय रावण की सेवा में रहने वाले पर्वर्ण, पतन, जम्भ, खर, क्रोधवश, हरि, प्ररुज, अरुज, और प्रघस आदि पिशाच तथा अधम राक्षसों के अनेक दलों ने आकर उन पर धावा बोल दिया। वे दुरात्मा निशाचर अन्तर्धान विद्या से अदृश्य होकर आक्रमण कर रहे थे। विभीषण उस विद्या के जानकार थे, अतः उन्होंने उन राक्षसों की अन्तर्धान शक्ति को नष्ट कर दिया। फिर तो वे सभी राक्षस वानरों की दृष्टि में आ गये। राजन्! वानर बलवान् तो थे ही, वे दूर तक उछलकर जाने की शक्ति भी रखते थे। वे सब ओर से कूद-कूद कर उन्हें मारने लगे। उनकी मार खकर वे सभी राक्षस प्राणशून्य होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
       रावण के लिये यह बात असह्य हो उठी। वह पिशाचों तथा राक्षसों की भयंकर सेना से घिरा हुआ दल-बल के साथ लंका से बाहर निकला। वह दूसरे शुक्राचार्य के समान युद्धशास्त्र के विधान का ज्ञाता था। उसने शुक्राचार्य के मत के अनुसार व्यूह रचना करके सब वानरों को घेर लिया। श्रीरामचन्द्र जी ने जब देखा कि दशमुख रावण व्यूहाकार सेना को साथ ले नगर से बाहर निकल रहा है, तब उन्होंने भी उस निशाचर के विरुद्ध बृहस्पति की बतायी हुई रीति से अपनी सेना का व्यूह बनाया। तदनन्तर वहाँ पहुँचकर रावण श्रीरामचन्द्र जी के साथ युद्ध करने लगा। दूसरी ओर लक्ष्मण ने भी इन्द्रजित के साथ युद्ध करना प्रारम्भ किया। सुग्रीव ने विरूपाक्ष के साथ युद्ध किया। निखर्वट नामक राक्षस तार नामक वानर से जा भिड़ा। नल ने निशाचर तुण्ड का सामना किया तथा पटुश नामक राक्षस पनस वानर के साथ युद्ध करने लगा। जो जिसे अपने जोड़ का समझता था, उसी के साथ उसकी भिड़न्त हुई। सब लोग युद्ध के समय अपने बाहुबल का आश्रय ले शत्रु का सामना करते थे। पूर्वकाल में देवताओं सौर असुरों में जैसा भयंकर तथा रोमांचकारी युद्ध हुआ था, उसी प्रकार वानरों और निशाचरों का वह युद्ध भयानक रूप से बढ़ता जा रहा था।
       वह संग्राम कायरों के भय को बढ़ाने वाला था। रावण ने शक्ति, शूल और खड्ग की वर्षा करके श्रीरामचन्द्र जी को बहुत पीड़ा दी तथा श्रीरघुनाथ जी ने भी लोहे के बने हुए तीखे बाणों द्वारा रावण को अत्यन्त पीड़ित किया। इसी प्रकार युद्ध के लिए उद्यत रहने वाले इन्द्रजित को लक्ष्मण ने मर्मभेदी बाणों द्वारा घायल किया और इन्द्रजित ने सुमित्रानन्दन लक्ष्मण को अनेक बाणों द्वारा बींध डाला। इधर विभीषण प्रहस्त पर और प्रहस्त विभीषण पर पंखयुक्त तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। उन दोनों में से कोई भी व्यथा अनुभव नहीं करता था। बड़े-बड़े अस्त्र धारण करने वाले उन बलवान् वीरों का वह संग्राम इतना भयंकर था कि उससे तीनों लोकों के समस्त चराचर प्राणी व्यथित हो उठे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में राम-रावण द्वन्द्वयुद्ध विषयक दो सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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