सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) षट्सप्तत्यधिकद्विशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाकर रावण के अत्याचार से बचाने के लिये प्रार्थना करना तथा ब्रह्माजी की आज्ञा से देवताओं का रीछ और वानर योनि में सन्तान उत्पन्न करना एवं दुन्दुभी गंधर्वी का मंथरा बनकर आना”
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तत्पश्चात् रावण से कष्ट पाये हुए ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा सिद्वगण अग्निदेव को आगे करके ब्रह्माजी की शरण में गये।
अग्निदेव बोले ;- भगवन्! आपने पहले जो वरदान देकर विश्रवा के पुत्र महाबली रावण को अवध्य कर दिया है, वह महाबलवान् राक्षस अब संसार की समस्त प्रजा को अनेक प्रकार से सता रहा है; अत: आप ही उसके भय से हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा हमारा कोई दूसरा रक्षक नहीं है।
ब्रह्माजी ने कहा ;- अग्ने! देवता या असुर उसे युद्ध में नहीं जीत सकते। उसके विनाश के लिये जो आवश्यक कार्य था, वह कर दिया गया। अब सब प्रकार से उस दुष्ट का दमन हो जायेगा। उस राक्षस के निग्रह के लिये मैंने चतुर्भुज भगवान् विष्णु से अनुरोध किया था। मेरी प्रार्थना से वे भगवान् भूतल पर जन्म ले चुके हैं। वे योद्धाओं में श्रेष्ठ हैं; अत: वे ही रावण के दमन का कार्य करेंगे।
मार्कण्डेय जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर ब्रह्माजी ने उन देवताओं के समीप ही इन्द्र से कहा,
ब्रह्मा जी बोले ;- ‘तुम समस्त देवताओं के साथ भूतल पर जन्म ग्रहण करो। वहाँ रीछों और वानरों की स्त्रियों से ऐसे वीर पुत्र को उत्पन्न करो, जो इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, बलवान तथा भूतल पर अवतीर्ण हुए भगवान् विष्णु के योग्य सहायक हों’। तदनन्तर देवता, गन्धर्व और नाग अपने-अपने अंश एवं अंशांश से इस पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के लिये परस्पर परामर्श करने लगे। फिर वरदायक देवता ब्रह्माजी ने उन सबके सामने ही दुन्दुभी नाम वाली गन्धर्वी को आज्ञा दी कि ‘तुम भी देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये भूतल पर जाओ। पितामह की बात सुनकर गन्धर्वी दुन्दुभी मनुष्यलोक में आकर मन्थरा नाम से प्रसिद्ध कुबड़ी दासी हुई। इन्द्र आदि समस्त श्रेष्ठ देवता भी वानरों तथा रीछों की उत्तम स्त्रियों से संतान उत्पन्न करने लगे। वे सब वानर और रीछ यश तथा बल में अपने पिता देवताओं के समान ही हुए। वे पर्वतों के शिखर तोड़ ड़ालने की शक्ति रखते थे एवं शाल (साखू) और ताल (ताड़) के वृक्ष तथा पत्थरों की चट्टानें ही उनके आयुध थे। उनका शरीर वज्र के समान दुर्भेद्य और सुदृढ़ था।
वे सभी राशि-राशि बल के आश्रय थे। उनका बल और पराक्रम इच्छा के अनुसार प्रकट होता था। वे सब के सब युद्ध करने की कला में दक्ष थे। उनके शरीर में दस हजार हाथियों के समान बल था। तेज चलने में वायु के वेग को लजा देते थे। उनका कोई घर-बार नहीं था; जहाँ इच्छा होती, वहीं रह जाते थे। उनमें से कुछ लोग केवल वनों में ही रहते थे। इस प्रकार सारी व्यवस्था करके लोकसृष्टा भगवान् ब्रह्मा ने मन्थरा बनी हुई दुन्दुभी को जो-जो काम जैसे-जैसे करना था, वह सब समझा दिया। वह मन के समान वेग से चलने वाली थी। उसने ब्रह्माजी की बातों को अच्छी तरह समझकर उसके अनुसार ही कार्य किया। वह इधर-उधर घूम-फिरकर वैर की आग प्रज्वलित करने में लग गयी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोख्यानपर्व में वानर आदि की उत्पत्ति से सम्बन्धित दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी, रामवनगमन, भरत की चित्रकूटयात्रा, राम के द्वारा खर-दूषण आदि राक्षसों का नाश तथा रावण का मारीच के पास जाना”
युधिष्ठिर ने पूछा ;- ब्रह्मन्! आपने श्रीरामचन्द्र जी आदि सभी भाइयों के जन्म की कथा तो पृथक्-पृथक् सुना दी, अब मैं वनवास का कारण सुनना चाहता हूँ; उसे कहिये। दशरथ जी के वीर पुत्र दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा मिथिलेशकुमारी सीता को वन में क्यों जाना पड़ा?
मार्कण्डेय जी ने कहा ;- राजन्! अपने पुत्रों के जन्म से महाराज दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सदा सत्यकर्म में तत्पर रहने वाले तथा बडे-बूढ़ों के सेवक थे। राजा के महातेजस्वी पुत्र क्रमशः बढ़ने लगे। उन्होंने (उपनयन के पश्चात्) विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन किया और वेदों तथा रहस्य सहित धनुर्वेद के वे पारंगत विद्वान् हुए। समयानुसार जब उनका विवाह हो गया, तब राजा रशरथ बड़े प्रसन्न तथा सुखी हुए। चारों पुत्रों में बुद्धिमान श्रीराम सबसे बड़े थे। वे अपने मनोहर रूप और सुन्दर स्वभाव से समस्त प्रजा को आनन्दित करते थे- सबका मन उन्हीं में रमता था। इसके सिवा वे पिता के मन में भी आननद बढ़ाने वाले थे।
युधिष्ठिर! राजा दशरथ बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरी अवस्था बहुत अधिक हो गयी; अतः श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त कर देना चाहिये; इस विषय में अपने मन्त्री और धर्मज्ञ पुरोहितों से राय ली। उन सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों ने राजा के दस समयोचित प्रस्ताव का अनुमोदन किया। श्रीरामचन्द्र जी के सुन्दर नेत्र कुछ-कुछ लाल थे और भुजाएँ बड़ी एवं घुटनों तक लंबी थी। वे मतवाले हाथी के समान मस्तानी चाल से चलते थे। उनकी ग्रीवा शंख के समान सुन्दर थी, उनकी छाती चौड़ी थी और उनके सिर पर काले-काले घुँघराले बाल थे। उनकी देह दिव्यदीप्ति से दमकती रहती थी। युद्ध में उनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था। वे समस्त धर्मों के पारंगत विद्वान् और बृहस्पति के समान बुद्धिमान थे। सम्पूर्ण प्रजा का उनमें अनुराग था। वे सभी विद्याओं में प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। उनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओं के भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। वे दुष्टों का दमन करने में समर्थ, साधुओं के संरक्षक, धर्मात्मा, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा किसी से भी परास्त न होने वाले थे।
कुरुनन्दन! कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले अपने पुत्र श्रीराम को देख-देखकर राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता होती थी। राजन्! तुम्हारा भला हो। महातेजस्वी तथा परम पराक्रमी राजा दशरथ श्रीरामचन्द्र जी के गुणों का स्मरण करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ पुरोहित से बोले,
दशरथ जी बोले ;- ‘ब्रह्मन्! आज पुष्य नक्षत्र है। आप राज्याभिषेक की सामग्री तैयार कीजिये और श्रीराम को भी इसकी सूचना दे दीजिये’। राजा की यह बात मन्थरा ने सुन ली। वह ठीक समय पर कैकेयी के पास जाकर यों बोली,
मन्थरा बोली ;- ‘केकयनन्दिनि! आज राजा ने तुम्हारे लिये महान्
दुर्भाग्य की घोषणा की है। खोटे भाग्य वाली रानी! इससे अच्छा तो यह होता कि तुम्हें क्रोध में भरा हुआ प्रचण्ड विषधर सर्प डँस लेता। रानी कौसल्या का भाग्य अवश्य अच्छा है, जिनके पुत्र का राज्याभिषेक होगा। तुम्हारा ऐसा सौभाग्य कहाँ? जिसका पुत्र राज्य का अधिकारी ही नहीं है’।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
मन्थरा की यह बात सुनकर सूक्ष्म कटि प्रदेश वाली देवी कैकेयी समस्त आभूषणों से विभूषित हो परम सुन्दर रूप बनाकर एकान्त में अपने पति के पास गयी। उसकी मुस्कराहट से उसके शुद्ध भाव की सूचना मिल रही थी। वह हँसती और प्रेम जताती हुई-सी मधुर वाणी में बोली,
कैकेयी बोली ;- ‘सच्ची प्रतिज्ञा करने वाले महाराज! आपने पहले तो ‘तेरा मनोरथ सफल करूँगा’, ऐसा वर दे दिया था, उसे आज पूर्ण कीजिये और उस संकट से मुक्त हो जाइये’।
राजा ने कहा ;- 'प्रिये! यह तो बड़े हर्ष की बात है। मैं अभी तुम्हें वर देता हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, ले लो। आज मैं तुम्हारे कहने से किस कैद करने के अयोग्य को कैद कर दूँ अथवा किस कैद करने योग्य को मुक्त कर दूँ? किसे धन दे दूँ अथवा किसका सर्वस्व हरण कर लूँ? ब्राह्मण धन के अतिरिक्त यहाँ अथवा अन्यत्र जो कुछ भी मेरे पास धन है, उस पर तुम्हारा अधिकार है। मैं इस समय इस भूमण्डल का राजराजेश्वर हूँ, चारों वर्णों की रक्षा करने वाला हूँ। कल्याणि! तुम्हारा जो भी अभिलक्षित मनोरथ हो, उसे बताओ, देर न करो।'
राजा की बात को समझकर और उन्हें सब प्रकार से वचनबद्ध करके अपनी शक्ति को भी ठीक-ठीक जान लेने के बाद कैकेयी ने उनसे कहा,
कैकेयी बोली ;- ‘महाराज! आपने श्रीराम के लिये जो राज्याभिषेक का सामान तैयार कराया है, वह भरत को मिले और राम वन में चले जायें’। भरतश्रेष्ठ! कैकेयी का यह अप्रिय एवं भयानक
परिणाम वाला वचन सुनकर राजा दशरथ दुःख से आतुर हो अपने मुँह से कुछ भी बोल न सके। श्रीरामचन्द्र जी शक्तिशाली होने के साथ ही बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने पिता के पूर्वोक्त वरदान की बात जानकर राजा के सत्य की रक्षा हो, इस उद्देश्य से स्वयं ही वन को प्रस्थान किया।
राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। श्रीरामचन्द्र जी के वन जाते समय उत्तम शोभा से सम्पन्न उनके भाई धनुर्धर लक्ष्मण ने तथा उनकी पत्नी विदेह राजकुमारी जनकनन्दिनी सीता ने भी उनका अनुसरण किया। श्रीरामचन्द्र जी के वन में चले जाने पर (उनके वियोग में) राजा दशरथ ने शरीर त्याग दिया। श्रीरामचन्द्र जी वन में चले गये तथा राजा परलोकवासी हो गये, यह देखकर कैकेयी ने भरत को ननिहाल से बुलवाया और इस प्रकार कहा,
कैकेयी बोली ;- ‘बेटा! तुम्हारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गलोक को सिधार गये तथा श्रीराम और लक्ष्मण वन में निवास करते हैं। अब यह विशाल राज्य सब प्रकार से सुखद और निष्कण्टक हो गया है। तुम इसे ग्रहण करो’। भरत बड़े धर्मात्मा थे। वे माता की बात सुनकर उससे बोले,,
भरत बोले ;- ‘कुलकलंकिनी जननी! तूने धन के लोभ मे पड़कर यह कितनी बड़ी क्रूरता का काम किया है? पति की हत्या की और इस कुल का विनाश कर डाला। मेरे मस्तक पर कलंक का टीका लगाकर तू अपना मनोरथ पूर्ण कर ले।’ ऐसा कहकर भरत फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने सारी प्रजा और मन्त्रियों आदि के निकट अपनी सफाई दी तथा भाई श्रीराम को वन से लौटा लाने की लालसा से उन्हीं के पथ का अनुसरण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 36-53 का हिन्दी अनुवाद)
वे कौसत्या, सुमित्रा तथा कैकेयी को आगे भेजकर स्वयं अत्यन्त
दु:खी हो शत्रुघ्न के साथ (पैदल ही) वन को चले। श्रीरामचन्द्र जी को लौटा लाने की अभिलाषा से उन्होंने वसिष्ठ, वामदेव और दूसरे सहस्रों ब्राह्मणों तथा नगर एवं जनपद के लोगों को साथ लेकर यात्रा की। चित्रकूट पहुँचकर भरत ने लक्ष्मण सहित श्रीराम को धनुष हाथ में लिये तपस्वीजनों की वेष-भूषा धारण किये देखा।
उस समय श्रीरामचन्द्र जी ने कहा ;- 'तात भरत! अयोध्या लौट जाओ। तुम्हें प्रजा की रक्षा करनी चाहिये और मैं पिता के सत्य की रक्षा कर रहा हूँ', ऐसा कहकर पिताजी की आज्ञा पालन करने वाले श्रीरामचन्द्र जी ने (समझा-बुझाकर) उन्हें विदा किया। तब वे (लौटकर) बड़े भाई की चरण पादुकाओं को आगे रखकर नन्दिग्राम में ठहर गये और वहीं से राज्य की देख-भाल करने लगे। श्रीरामचन्द्र जी ने वहाँ नगर और जनपद के लोगों के बराबर आने-जाने की आशंका से शरभंग मुनि के आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ शरभंग मुनि का सत्कार करके वे दण्डकारण्य में चले गये और वहाँ सुरम्य गोदावरी के तट का आश्रय लेकर रहने लगे। वहाँ रहते समय शूर्पणखा के (नाक, कान, और ओंठ काटने के) कारण श्रीरामचन्द्र जी का जनस्थान निवासी खर नामक राक्षस के साथ महान् वैर हो गया।
धर्मवत्सल श्रीरामचन्द्र जी ने तपस्वी मुनियों की रक्षा के लिये
महाबली खर और दूषण को मारकर वहाँ के चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला तथा उन बुद्धिमान रघुनाथ जी ने पुनः उस वन को क्षेमकारक धर्मारण्य बना दिया। उन राक्षसों के मारे जाने पर शूर्पणखा, जिसकी नाक और ओंठ काट लिये गये थे, पुनः लंका में अपने भाई रावण के घर गई। रावण के पास पहुँचकर वह राक्षसी दुःख से मूर्च्छित हो भाई के चरणों में गिर पड़ी। उसके मुख पर रक्त बहकर सूख गया था। बहिन का रूप इस प्रकार विकृत हुआ देखकर रावण क्रोध से मूर्च्छित हो उठा और दाँतों से दाँत पीसता हुआ रोषपूर्वक आसन से उठकर खड़ा हो गया। अपने मन्त्रियों को विदा करके उसने एकान्त में शूर्पणखा से पूछा,
रावण बोला ;- ‘भद्रे! किसने मेरी परवा न करके-मेरी स
र्वथा अवहेलना करके तुम्हारी ऐसी दुर्दशा की है? कौन तीखे शूल के पास जाकर उसे अपने सारे अंगों में चुभोना चाहता है? कौन मूर्ख अपने सिर पर आग रखकर बेखटके सुख की नींद सो रहा है? कौन अत्यन्त भयंकर सर्प को पैर से कुचल रहा है? तथा कौन केसरी सिंह की दाढ़ों में हाथ डालकर निश्चिन्त खड़ा है?’
इस प्रकार बोलते हुए रावण के कान, नाक एवं आँख आदि छिद्रों से उसी प्रकार आग की चिंगारियाँ निकलने लगीं, जिस प्रकार रात को जलते हुए वृक्ष के छेदों से आग की लपटें निकलती हैं? तब रावण की बहिन शूर्पणखा ने श्रीराम के उस पराक्रम और खर-दूषण सहित समस्त राक्षसों के संहार का (सारा) वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर रावण ने अपने कर्तव्य का निश्चय किया और अपनी बहिन को सान्त्वना देकर नगर आदि की रक्षा का प्रबन्ध करके वह आकाशमार्ग से उड़ चला।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) सप्तसप्तत्यधिकद्वशततमोऽध्याय के श्लोक 54-56 का हिन्दी अनुवाद)
त्रिकूट और कालपर्वत को लाँघकर उसने मगरों के निवास स्थान गहरे महासागर को देखा। उसे ऊपर-ही-ऊपर लाँघकर दशमुख रावण गोकर्ण तीर्थ में गया, जो परमात्मा शूलपाणि शिव का प्रिय एवं अविचल स्थान है।
वहाँ रावण अपने भूतपूर्व मन्त्री मारीच से मिला, जो श्रीरामचन्द्र जी के भय से ही पहले से उस स्थान में आकर तपस्या करता था।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोपाख्यानपर्व में श्रीरामवनगमन विषयक दो सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“मृगरूपधारी मारीच का वध तथा सीता का अपहरण”
मार्कण्डेयजी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! रावण को आया देख मारीच सहसा उठकर खड़ा हो गया और उसने फल-मूल आदि अतिथि सत्कार की सामग्रियों द्वारा उसका फिर पूजन किया। जब रावण बैठकर विश्राम कर चुका, तब उसके पास बैठ बातचीत करने में कुशल राक्षस मारीच ने वाक्य का मर्म समझने में निपुण रावण से विनयपूर्व कहा,
मारीच बोला ;- ‘लंकेश्वर! तुम्हारे शरीर का रंग ठीक हालत में नहीं है। तुम उदास दिखायी देते हो। तुम्हारे नगर में कुशल तो है न? समसत प्रजा और मन्त्री आदि पहले की भाँति तुम्हारी सेवा करते हैं न? राक्षसराज! कौन-सा ऐसा कार्य आ गया है, जिसके लिये तुम्हें यहाँ तक आना पड़ा? यदि वह मेरे द्वारा साध्य है, तो कितना ही कठिन क्यों न हो, उसे किया हुआ ही समझो’।
रावण क्रोध और अमर्ष में भरा हआ था। उसने एक-एक करके राम द्वारा किये हुए सब कार्य संक्षेप से कह सुनाये। मारीच ने सारी बातें सुनकर थोड़े में ही रावण को समझाते हुए कहा,
मारीच फिर बोला ;- ‘दशानन! तुम श्रीराम से भिड़ने का साहस न करो। मैं उनके पराक्रम को जानता हूँ। भला! इस जगत् में कौन ऐसा
वीर है, जो परमात्मा श्रीराम के बाणों का वेग सह सके? मैं जो यहाँ संन्यासी बना बैठा हूँ, इसमें भी वे पुरुषरत्न श्रीराम ही कारण हैं। श्रीराम से वैर मोल लेना विनाश के मुख में जाना है, किस दुरात्मा ने तुम्हें ऐसी सलाह दी है?’
मारीच की बात सुनकर रावण और भी कुपित हो उठा और उसे डाँटते हुए बोला,
रावण बोला ;- ‘मारीच! यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा, तो भी तेरी मृत्यु निश्चित है।' मारीच ने सोचा, ‘यदि मृत्यु निश्चित ही है, तो श्रेष्ठ पुरुष के हाथ से ही मरना आच्छा होगा; अतः रावण का जो अभीष्ट कार्य है, उसे अवश्य करूँगा’। तदनन्तर उसने राक्षसराज रावण से कहा,
मारीच बोला ;- ‘अच्छा; बताओ, मुझे तुम्हारी क्या सहायता करनी होगी? इच्छा न होने पर भी मैं विवश होकर उसे करूँगा’। तब दशानन ने उससे कहा !
रावण बोला ;- ‘तुम ऐसे मनोहर मृग का रूप धारण करो, जिसके सींग रत्नमय प्रतीत हों और शरीर के रोएँ भी रत्नों के ही समान चित्र-विचित्र दिखायी दें। फिर राम के आश्रम पर जाओ और सीता को लुभाओ। सीता तुम्हें देख लेने पर निश्चय ही राम से यह अनुरोध करेंगी कि ‘आप इस मृग का पकड़ लाइये’। तुम्हारे पीछे राम के अपने आश्रम से दूर निकल जाने पर सीता को वश में लाना सहज हो जायेगा। मैं उसे आश्रम से हरकर ले जाऊँगा और दुर्बुद्धि राम अपनी प्यारी पत्नी के वियोग में व्याकुल होकर प्राण दे देगा। बस मेरी इतनी ही सहायता कर दो।'
रावण के ऐसा कहने पर मारीच स्वयं ही अपना श्राद्ध-तर्पण करके अत्यन्त दु:खी होकर आगे जाते हुए रावण के पीछे-पीछे चला।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्र जी के आश्रम के समीप जाकर उन दोनों ने पहले जैसी सलाह कर रक्खी थी, उसके अनुसार सब कार्य किया। रावण मुँह मुड़ाये, भिक्षापात्र हाथ में लिये एवं त्रिदण्डधारी संन्यासी का रूप धारण करके और मारीच मृग बनकर दोनों उस स्थान पर गये। मारीच ने विदेहनन्दिनी सीता के समक्ष अपना मृग का रूप प्रकट किया। विधि के विधान से प्रेरित होकर सीता ने उस मृग को लाने के लिये श्रीरामचन्द्र जी को भेजा। श्रीरामचन्द्र जी सीता का प्रिय करने के लिये धनुष हाथ में ले लक्ष्मण को सीता की रक्षा का भार सौंपकर मृग को लाने की इच्छा से तुरंत चल दिये। वे धनुष-बाण ले, पीठ पर तरकस बाँधकर, कटि में
कृपाण लटकाये तथा हाथों में दस्ताने पहने उस मृग के पीछे उसी प्रकार दौड़े, जैसे मृगशिरा नक्षत्र के पीछे भगवान रुद्र दौड़े थे। मायावी राक्षस मारीच कभी छिप जाता और कभी नेत्रों के समक्ष प्रकट हो जाता था।
इस प्रकार वह श्रीरामचन्द्र जी को आश्रम से बहुत दूर खींच ले गया। तब श्रीरामचन्द्र जी यह ताड़ गये कि यह कोई मायावी राक्षस है। यह बात ध्यान में आते ही प्रतिभाशाली श्रीरघुनाथ जी ने एक अमोघ बाण लेकर उस मृगरूपधारी निशाचर को मार डाला। श्रीरामचन्द्र जी के बाण से आहत हो मरते समय मारीच ने उनके ही स्वर में ‘हा सीते, हा लक्ष्मण’ कहकर आर्तनाद किया। विदेहनन्दिनी सीता ने भी उनकी वह करुणा भरी पुकार सुनी। उसकी पुकार सुनते ही जिस ओर से वह आवाज आयी थी, उसी ओर वे दौड़ पड़ीं। तब लक्ष्मण ने उनसे कहा,
सीता जी ने कहा ;- ‘भीरु! डरने की कोई बात नहीं है। भला, कौन ऐसा है, जो भगवान राम को मार सकेगा? शुचिस्मिते! तुम दो ही घड़ी में अपने पति भगवान श्रीराम को यहाँ उपस्थित देखोगी।' लक्ष्मण की यह बात सुनकर रोती हुई सीता ने उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा। वे साध्वी और पतिव्रता थीं तथापि स्त्री-स्वभाववश उस समय उनकी बुद्धि मारी गयी। उन्होंने लक्ष्मण को कठोर बातें सुनानी आरम्भ कीं,
सीता जी बोली ;- ‘ओ मूढ़! तुम मन-ही-मन जिस वस्तु को पाना चाहते हो, तुम्हारा वह मनोरथ कभी पूर्ण न होगा। मैं स्वयं तलवार लेकर अपना गला काट लूँगी, पर्वत के शिखर से कूद पढ़ूँगी अथवा जलती हुई आग में समा जाऊँगी, परंतु राम जैसे स्वामी को छोड़कर तुम जैसे नीच पुरुष का कदापि वरण न करूँगी। जैसे सिंहिनी सियार को नहीं स्वीकार कर सकती, उसी प्रकार मैं तुम्हें नहीं ग्रहण करूँगी’।
लक्ष्मण सदाचारी तथा श्रीरामचन्द्र जी के प्रेमी थे। उन्होंने सीता के कठोर वचन सुनकर अपने दोनों कान बंद कर लिये और मार्ग से चल दिये, जिससे श्रीरामचन्द्र जी गये थे। उस समय उनके हाथ में धनुष था। उन्होंने बिम्बफल के समान अरुण अधरों वाली सीता की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं। श्रीराम के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए उन्होंने वहाँ से प्रस्थान कर दिया। इसी समय अवसर पाकर राक्षस रावण साध्वी सीता को हर ले जाने की इच्छा से वहाँ दिखायी दिया। वह भयानक निशाचर सुन्दर रूप धारण करके राख में छिपी हुई आग के समान संन्यासी के वेष में अपने यथार्थ रूप को छिपाये हुए था। उस समय यति को अपने आश्रम पर आया हुआ देख धर्म को जानने वाली जनकनन्दिनी सीता ने फल-मूल के भोजन आदि से अतिथि सत्कार के लिये उसे निमन्त्रित किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (वन पर्व) अष्टसप्तत्यधिकद्वशततम अध्याय के श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद)
राक्षसराज रावण सीता की दी हुई उन सभी वस्तुओं की अवहेलना करके अपने असली रूप में प्रकट हो गया और विदेह राजकुमारी को इस प्रकार सान्त्वना देने लगा,
रावण बोला ;- ‘सीते! मैं राक्षसों का राजा हूँ। मेरा रावण नाम सर्वत्र विख्यात है। समुद्र तट पर बसी हुई रमणीय लंकापुरी मेरी राजधानी है। वहाँ नर-नारियों के बीच मेरे साथ रहकर तुम बड़ी शोभा पाओगी। अतः सुन्दरी! तुम मेरी पत्नी हो जाओ और इस तपस्वी राम को छोड़ दो’।
रावण के ऐसे वचन सुनकर सुन्दरी जनककिशोरी ने अपने दोनों कान बन्द कर लिये और उससे इस प्रकार कहा,
सीता जी बोली ;- ‘बस, अब ऐसी बातें मुँह से न निकाल। नक्षत्रों सहित आकाश फट पड़े, पृथ्वी टूक-टूक हो जाये। अग्नि अपनी उष्णता त्याग कर शीतल हो जाये, परंतु मैं रघुकुलनन्दन श्रीरामचन्द्र जी को नहीं छोड़ सकती। गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मद्ममालामण्डित वनवासी गजराज की सेवा में उपस्थित होकर कोई हथिनी किसी शूकर को कैसे छू सकती है? जो फूलों के रस से बने हुए मधुर पेय तथा मधुमक्षिकाओं द्वारा द्वारा तैयार किया हुआ मधु पी चुकी हो, ऐसी कोई भी नारी काँजी के रस का लोभ कैसे कर सकती है?’
रावण से इस प्रकार कहकर सीता अपने आश्रम में प्रवेश करने लगी। उस समय क्रोध के मारे उनके ओंठ फड़क रहे थे और वे अपने दोनों हाथों को बार-बार हिला रही थीं।। इसी समय रावण ने दौड़ कर उनका मार्ग रोक लिया और कठोर स्वर में डराना, धमकाना आरम्भ
किया। इससे वे भय के मारे मूर्च्छित हो गयीं। तब रावण ने उनके केश पकड़ लिये और आकाश-मार्ग से लंका की ओर प्रस्थान किया। उस समय वे तपस्विनी सीता ‘हा राम-हा राम की’ रट लगाये हुए रो रही थीं और वह राक्षस उन्हें हर कर लिये जा रहा था। इसी अवस्था में एक पर्वत की गुफा में रहने वाले गृध्रराज जटायु ने उन्हें देखा।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत रामोपाख्यानपर्व में मारीचवध तथा सीताहरण विषयक दो सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ उन्यासीवाँ अध्याय
पंख काट डाले। बादलों को भेदने वाले पर्वत-शिखर के समान गृध्रराज जटायु को घायल करके रावण पुनः सीता को गोद में लिये हुए आकाश मार्ग से चल दिया। विदेहकुमारी सीता जहाँ-जहाँ कोई आश्रम, सरोवर या नदी देखतीं, वहाँ-वहाँ अपना कोई-न-कोई आभूषण गिरा देती थीं। आगे जाने पर उन्होंने एक पर्वत के शिखर पर बैठे हुए पाँच श्रेष्ठ वानरों को देखा। वहाँ उन बुद्धिमती देवी ने अपना एक अत्यन्त दिव्य वस्त्र गिरा दिया। वह सुन्दर पीले रंग का वस्त्र आकाश में उड़ता हुआ उन पाँचों वानरों के मध्य भाग में जा गिरा, मानो मेघों के बीच में विद्युत प्रकट हो गयी हो।
पिता का नाम लेकर परिचय दे रहा है’। तदनन्तर उन्होंने पास आकर देखा, जटायु के दोनों पंख कटे हुए हैं।
राक्षसराज रावण ने आपकी पत्नी सीता का अपहरण किया है। आप वानरराज सुग्रीव से मिलिये। वे आपकी सहायता करेगे। यह थेड़ी ही दूर पर पवित्र जल से भरा हुआ पम्पा सरोवर है, जिसमें हंस और कारण्डव आदि पक्षी चहक रहे हैं। वह सरोवर ऋष्यमूक पर्वत से सटा हुआ है। वहीं अपने चार मन्त्रियों के साथ सुवर्णमालाधारी वानरराज बाली के भाई सुग्रीव निवास करते हैं। उनसे मिलकर आप अपने दुःख का कारण बताइये। उनका शील-स्वभाव आपके ही समान है। वे निश्चय ही आपकी सहायता करेंगे। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि आपकी जनकनन्दिनी सीता से अवश्य भेंट होगी। वानरराज सुग्रीव को रावण के घर का पता निश्चय ही ज्ञात है।'
सम्पूर्ण महाभारत
वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
दौ सौ अस्सीवाँ अध्याय
वानरों के बीच में डाल दिया था। रावण द्वारा सीता के अपहृत होने का यह विश्वासजनक प्रमाण पाकर श्रीराम ने स्वयं ही वानरराज सुग्रीव को अखिल भूमण्डल के वानरों के सम्राट पद पर अभिषिक्त कर दिया। साथ ही डन्होंने युद्ध में बाली के वध की भी प्रतिज्ञा की। राजन्! तब सुग्रीव ने भी विदेहनन्दिनी सीता को पुनः ढूँढ लाने की प्रतिज्ञा की। इस प्रकार प्रतिज्ञापूर्वक एक-दूसरे को विश्वास दिलाकर वे सब के सब किष्किन्धापुरी में आये और युद्ध की अभिलाषा से डटकर खड़े हो गये। मानो बहुत बड़े जनसमूह का शब्द गूँज उठा हो। बाली को यह सहन नहीं हो सका।
टंकार मशीन की भयंकर आवाज के समान जान पड़ती थी। उसे सुनकर बाली भयभीत हो उठा। इतने में ही श्रीराम के बाण ने उसकी छाती पर भारी चोट की। इससे बाली का वक्षःस्थल विदीर्ण हो गया और वह अपने मुँह से रक्तवमन करने लगा। सामने ही उसे लक्ष्मण के साथ खड़े हुए श्रीराम दिखाई दिये। तब वह (छिपकर आघात करने के कारण) श्रीरामचन्द्र जी की निन्दा करके पृथ्वी पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। तारा ने चन्द्रमा के समान तेजस्वी अपने वीर पति बाली को प्राणहीन होकर पृथ्वी पर पड़ा देखा।
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